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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव जब तान्तव ऊति में संकोचन होता है तब उसका धरातल खुरदरा हो जाता है। ऐसा ही यकृद्दाल्युत्कर्ष प्लीहा और सर्वकिण्वी में भी हो जाता है। सर्वकिण्वी में होने के पश्चात् मधुमेह हो जाता है। घातक अरक्तता (pernicious anaemia ) में भी ऐसा ही यकृद्दाल्युत्कर्ष देखा जाता है। जिसका कारण यकृत् के कोशाओं का शोणायसि ( haemosiderin ) द्वारा अतिभारान्वित हो जाना होता है।
विषमज्वर (मलेरिया) में जो यकृद्दाल्युत्कर्ष देखा जाता है उसका प्रधान कारण कुछ लोग रंगा को मानते हैं परन्तु क्योंकि वह प्लीहोदर के उपरान्त होता है अतः ऐसा लगता है कि प्लीहा के जालकान्तश्छदीय कोशाओं की विकृति के पश्चात् यकृत में वही विकृति होती है। यकृत् के जालकान्तश्छदीय कोशा तान्तवकोशाओं में परिणत हो जाते हैं और यकृद्दाल्युत्कर्ष हो जाता है।
अब हम याकृत्-पाक के उपसर्गात्मक प्रकारों का वर्णन करते हैं:
उपसर्गात्मक याकृत्पाक ( Infective Hepatitis) आज कल इस नाम का प्रयोग उस रोग के लिए होता है जिसमें किसी एक या अन्य प्रकार के विषाणु द्वारा यकृत् ऊति का विनाश हुआ रहता है और जिसके साथ ज्वर तथा कामला सहकारी रूप में उपस्थित रहते हैं। इसे प्रसेकी कामला (Catarrhal Jaundice) या यकृदभिशीत ( a chill on the liver ) कहते हैं। यह रोग स्थानिक या महामारी के रूप में प्रकट होता है उसके द्वारा उपसर्ग की दो रीतियाँ हैं तथा इसके कारक २ प्रकार के विषाणु होते हैं। एक रीति रोगोपसर्ग की है जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को उपसर्ग नासाग्रसनीय बिन्दुत्क्षेप द्वारा पहुँचता है यद्यपि यह रीति अधिक निश्चयात्मक नहीं । दूसरी रीति है जब कि अशुद्ध उद्गारिका (contaminated syringe ) द्वारा या संक्रामण (transfusion ) द्वारा, लसी या मसूरी के द्वारा जिनमें मानवी लसी मिलाई गई हो का प्रयोग मानव शरीर पर किया जावे। ऐसा ज्ञात होता है कि विषाणु शरीर में पहुंचने पर विना किसी प्रकार का रोग लक्षण किए चुपके से अपना कार्य करने लगता है। गुप्त रोगों से पीडित रोगियों के चिकित्सालय में जहाँ रोगियों को बहुत सुइयाँ लगती हैं या रक्त निकाला जाता है इस रोग की बहुतायत देखी जाती है। यदि प्रत्येक रोगी के लिए पृथक् उद्गारिका का प्रयोग किया जावे तो रोग कम लोगों में देखा जाता है जो सूचीवेध पात्रों के अशुद्धि की ओर स्पष्ट इङ्गित करता है। एक बार अमेरिका में जब एक सेना की टुकड़ी को मानवलसीमिश्रित पीतज्वर की मसूरी की सुइयाँ लगाई गई तो वहाँ उपसर्गात्मक याकृत्पाक की महामारी फैल गई। रोमान्तिका और कनफेड के प्रतिषेध के लिए प्रयुक्त मसूरियों में जिनमें मानवी लसी का प्रयोग हुआ वहाँ भी यह रोग पर्याप्त मिल चुका है। इन सब को देखने से यह ज्ञात होता है कि इस रोग के फैलाने में मानवी लसी ( human serum ) का प्रमुख हाथ रहता है।
इस रोग का संचय काल बहुत लम्बा होता है जो ३ सप्ताह से लेकर ६ मास तक जा सकता है इस रोग की उग्रता में भी व्यक्ति व्यक्ति में अन्तर देख पड़ता है
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