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विकृतिविज्ञान उदासर्ग एकत्र हो जाता है । इस क्षेत्र की लसीक ग्रन्थियाँ फूल जाती हैं प्रवृद्ध हो जाती है तथा उनमें रक्ताधिक्य हो जाता है। मन्थर के रुग्णों को छोड़कर जहाँ यह रोग प्राथमिक होता है अन्यत्र यह उत्तरजात होता है जब कहीं अन्य अंग में जीर्ण व्रणशोथ पहले से उपस्थित रहे । जब तीव्र पाक होता है तब ऊर्ध्व उदर में पूया, शूल, कठिनता और सितकोशोत्कर्ष के लक्षण मिलते हैं।
जीर्णपित्ताशयपाक (Chronic Cholecystitis)-यह पाक कभी कभी तो तीव्रपाक के पश्चात् होता है पर अधिकांश में तो यह चुपचाप होता है और यह ज्ञात करना कठिन हो जाता है कि रोग कैसे प्रारम्भ हुआ। जैसे जीर्ण उण्डुकपुच्छपाक में देखा जाता है जीर्णपित्ताशय पाक में भी समय समय पर तीव्रता के दौरे आ सकते हैं जब शूल एवं कुछ ज्वर साथ में रहता है। __प्रारम्भ में या अनुतीवावस्था में पित्ताशय प्राचीर मोटी पड़ जाती है और फूल जाती है उसकी श्लेष्मलकला के अधिकांश अंकुर नष्ट हो जाते हैं और वह भी मोटी एवं निकली सी ( pouting ) हो जाती है अण्वीक्षदृष्टया ( microscopically ) पित्ताशयप्राचीर में असंख्य अखण्ड न्यष्टि ( monocyte ) भक्षिकोशाओं की भरमार होती है। यदि साथ में बहुन्यष्टि सितकोशा भी हों तो अनुतीव्र सपूयावस्था का भी आभास मिलता है। वाहिनियों के अतिरक्तान्वित होने से तथा विस्फारित होने से श्लेष्मलकला का रंग लाल पड़ जाता है। तन्तुरुह कणन ऊति ( fibroblastic granulation tissue ) अनुतीव्र स्तर का स्थान ले लेती है और वहाँ से वह पेशीस्तर तक पहुँच सकती है। कहीं कहीं श्लेष्मलकला में व्रणन भी हो जाता है जब कि उन स्थानों से मालागोलाणु प्राप्त किये गये हैं। पर वहाँ पर उपस्थित पित्त उनसे सर्वथामुक्त एवं शुद्ध पाया गया है जो यह सिद्ध करता है कि उनका उपसर्ग पित्त द्वारा न होकर अन्यमार्ग से ही होता है और पित्त उनके लिए उचित संरक्षण प्रदान नहीं करता।
ज्यों ज्यों रोग और जीर्ण होता जाता है तान्तव ऊति में संकोच होने लगता है जिसके कारण पित्ताशय अधिक संकीर्ण और अपुष्ट होता जाता है। श्लेष्मलकला में अपुष्टि होने से अंकुर समाप्त हो जाते हैं और वह चिकनी तथा तत ( stretched ) हो जाती है वह बहुत तनु (पतली) भी हो जाती है जिसमें होकर प्राचीरस्थ तान्तव पट्टिकाएँ देखी जा सकती हैं। तन्तूत्कर्ष जब पेशी में पहुँच जाता है तो प्राचीर बहुत मोटी हो जाती है जिसके कारण पित्ताशय का आयतन घट जाता है कहीं कहीं उपश्लेष्मलकला या पेशी के नीचे छोटे छोटे कोष्ठ ( cysts ) बनते हुए भी देखे जाते हैं। ये कोष्ठ एक से होते हैं और वे श्लेश्मलकला के द्वारा बनते हैं जब कि तान्तव ऊति के संकोच उन्हें इधर उधर खींच देते हैं। सौम्य स्वरूप के रोग में श्लेष्मलकला का परमचय भी मिलता है जब कि अंकुर विशेषतया बड़े हो जाते हैं। उग्र अवस्था में कभी कभी रूक्ष प्रसर अंकुरोत्कर्ष ( shaggy diffuse papillomatosis) भी देखा जाता है।
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