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विकृतिविज्ञान
पर रोग की आकृति का इस अंग में बोध होता है । जब सम्पूर्ण सर्वकिण्वी प्रभावित होती है तो सम्पूर्ण अंग सूज जाता है, उसके आकार की वृद्धि हो जाती है और रक्त स्राव के कारण या तो वह गाढ़ लाल हो जाता है अथवा काला पड़ जाता है । इसकी गाढता मृदु और भंगुर ( friable ) होती है । उदरच्छद के छोटे स्यून में लाली लिए द्रव संचित हो जाता है । यह द्रव अजीवाणु ( sterile ) होता है परन्तु उसमें पाचक गुण विशेष रूप से मिलते हैं । सर्वकिण्वी के अन्दर और बाहर के स्नेह में तथा वपाजाल और आन्त्रनिबन्धनी के स्नेह में श्वेत सिध्म ( white patches ) पाये जाते हैं जिनके आकार में पर्याप्त वैभिन्य मिलता है । ये सिध्म स्नैहिक मृत्यु ( fat necrosis ) को प्रकट करते हैं। इनके बनने का कारण सर्वकिण्वी के विमेदेद का उससे निकल कर इतस्ततः सक्रिय रूप में गिरता है । विमेदेद स्नेह को मधुरी (ग्लिनीन ) तथा तिक्तीअम्लों में बाँट देता है । तिक्ती अम्ल शारीरिक स्रावों के चूर्णातु से मिल कर अघुल्य साबुन बना देता है जो श्वेत सिध्म के रूप में इतस्ततः प्रकट होता है ।
यह एक अधेड़ावस्था का रोग है । इसका आक्रमण सहसा होता है । यह भोजन के उपरान्त प्रारम्भ होता है । उसमें उदर के ऊर्ध्व भाग में घोर वेदना होती है, रोगी स्तब्ध हो जाता है और अवपातित ( collapsed ) भी । उसके मुख पर एक विशेष प्रकार की श्यावता ( cyanosis ) प्रकट होने लगती है । भोजन के पश्चात् इन व्यथाओं का उठना अधिक महत्त्व का है जब सर्वकिण्वी के स्राव सक्रियावस्था में उस अंग में विक्षत बनाना प्रारम्भ करते हैं और सर्वकिण्वी का आत्मपाचन (autodigestion ) होने लगता है ।
सर्व किण्वी की ऊति के आत्मपाचन के कई कारण कई विद्वानों ने दिये हैं इनमें रिच और डफ का मत यह है कि सर्वकिण्वी के किसी अधिक विस्फारित गर्ताणु ( acinus ) के विदार ( rupture ) के कारण उसमें एकत्र पाचक रस इतस्ततः विखर कर विविध विक्षत बना देता है । एक और भी प्रौढ़ मत यह है कि सर्वकिण्वी प्रणाली में किसी भी कारण या प्रक्रिया से पाचक पित्त प्रवेश कर जाता है और चूँकि पाचक पित्त और सर्वकिण्वीय पाचक तत्व मिल कर सक्रिय हो जाते हैं इसलिए वे इस अंग को ही विभिन्न स्थलों पर आघातपूर्ण कर देते हैं ।
जीर्ण सर्वकवी पाक ( Chronic Pancreatitis ) — मृत्यूत्तर परीक्षा करने पर कितने ही रोगियों की सर्वकिण्वी ग्रन्थि में तन्तूत्कर्ष पाया गया है यद्यपि जीवन काल में उन व्यक्तियों में उसके होने का कोई प्रभाव भी प्रकट नहीं हुआ रहता । ओपी ने तन्तूत्कर्ष दो प्रकार के बतलाये हैं- (१) अन्तर्खण्डिकीय -जब कि तान्तव ऊति प्रणालिकाओं के चारों ओर ग्रन्थिकी खण्डिकाओं के बीच बीच में फैली रहती है ।
(२) अन्तर्गतण्वीय ( intra acinar ) – जब कि तान्तव ऊति प्रत्येक दो गर्ताओं के बीच में प्रकट होती है । इस अवस्था में मधुवशिग्रन्थियों पर संकोचन का प्रभाव पड़ने से उनकी पुष्टि हो सकती है जिससे इन्तुमेह ( glycosuria ) अथवा मधुमेह (diabetes ) हो जाता है ।
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