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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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कभी कभी पित्ताशयप्रणाली ( cystic duct ) की तान्तव संकीर्णता के कारण पित्ताशय ग्रीवा पर संकोच होकर उसंचय (hydrops ) नामक विकार हो जाता है जिसका कारण जीर्ण पित्ताशयपाक भी होता है और पित्ताश्मरी भी हो सकती है । इसमें पित्ताशयप्राचीर पतली और तत हो जाती है । पित्ताशय में स्वच्छ, वर्णहीन, श्लैष्मिक द्रव भर जाता है जो पित्ताशय के अधिच्छद से निकलता है । इस रोग में न तो श्लेष्मा पित्ताशय से बाहर जा पाता है और न पित्त अन्दर आ सकता है । विस्फारित पित्ताशय में कभी कभी इसी अवस्था में और उपसर्ग लगकर पूय भी भर सकता है जिसे पित्ताशय की अन्तः पूयता ( Empyema of the gall bladder) कहते हैं ।
(११) सर्व किण्वी पर व्रणशोथ का परिणाम
आयुर्वेद में इसे क्या कहते हैं इसे शारीरवेत्ताओं का विचार्य विषय समझ हम पेक्रियाज ( pancreas) को सर्वकिण्वी माने लेते हैं क्योंकि इसमें आहार को पचाने वाले सर्व प्रकार के किण्व पाये जाते हैं जिनमें अभिपाचिजन (trypsinogen), वत्सातञ्चि ( rennin ), विमेदेद ( lipase ), विभेद ( diastase ) प्रमुख हैं । ये सभी सर्वकिण्वी के गर्ताणु कोशाओं ( acinar eells ) में उत्पन्न होते हैं । इनके अतिरिक्त इसके अन्दर स्थित मधुवशिग्रन्थियों ( islets of langerhans ) के द्वारा मधुवशि ( insulin ) का निर्माण होता है ।
इस ग्रन्थ पर व्रणशोथ का प्रभाव होने से तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकार का पाक होता है जिसका वर्णन नीचे किया जाता है: -
ती सर्व कवी पाक (Acute Pancreatitis ) – सर्वकिण्वी पर व्रणशोथात्मक प्रक्रिया का जो प्रभाव पड़ता है उससे अधिक वेग से उत्तरजात लक्षण प्रभाव डालते हैं इस कारण इस रोग को तीव्र सर्वकिण्वीपाक न कह कर तीव्र सर्वfeat नाश ( acute pancreatic necrosis ) नाम से भी इसे पुकारते हैं । तीव्र रक्तस्रावी सर्वकिरवी पाक ( acute haemorrhagic pancreatitis ) भी इसका एक नाम है, इसे सर्वकिण्वीय संन्यास ( pancreatic apoplexy ) अथवा सकोथ सर्वकिण्वीपाक ( gangrenous pancreatitis ) भी कहते हैं ।
इस रोग का प्रमुख लक्षण है सर्वकिण्वीय जीवितक (parenchyma ) की महाकाय मृत्यु ( massive necrosis ) जिसके साथ रक्तस्राव हो या न हो। इस मृत्यु का प्रभाव सम्पूर्ण अंग पर पड़ता है; कभी कभी वह एक भाग में ही सीमित रहता है, या यह प्रसरसिध्मों के रूप में सम्पूर्ण ग्रन्थिभर में देखी जाती है । यदि प्रसरसिध्मों के रूप में नाश या मृत्यु हुई तो आगे चलकर मृतक्षेत्र गल कर द्रवीभूत हो जाते हैं और स्थान स्थान पर कोष्ठ बन जाते हैं। यदि इन कोष्ठों तक उपसर्ग का प्रवेश हो गया तो फिर वहाँ विद्रधियाँ बन जाती हैं । इसलिए विक्षतों के विस्तार
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