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विकृतिविज्ञान
सौम्य रोगियों में कमलान्वित होना अनावश्यक है । यह रोग बहुधा ३ सप्ताह तक चल कर रोगी ठीक हो जाता है परन्तु कभी-कभी वह महीनों पड़ा रहता है और बाद में तीव्र पीत अपोषक्षय होकर वह मर जाता है । कामला से पूर्व की अवस्था में ज्वर, अक्षुधा, हृल्लास और वमी के लक्षण मिल सकते हैं । फिर कामला उत्पन्न हो जाता है मल का वर्ण मिट्टी जैसा होता है और विष्टम्भ भी रहता है । इस रोग में सितकोशापकर्ष २००० श्वेत कणों का विशेष करके मिलता है । यकृत् पहले बढ़ता है, दबाने से उसमें दर्द होता है कभी-कभी रोग का पुनराक्रमण भी हो सकता है ।
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इस रोग में कामला के २ कारण हैं । एक तो मृत्यु को प्राप्त यकृत् क्षेत्रों में पित्त प्रणालिकाओं ( bile canaliculi ) का नाश है और दूसरा मृत ऊति जिनके चारों ओर है ऐसी छोटी प्रणालिकाओं में पैत्तिक घनात्र की उपस्थिति है। पित्त की बड़ी-बड़ी वाहिनियों के प्रसेकात्मक अवरोध ( catarrhal blockage ) का कोई प्रमाण नहीं मिलता है । यकृत् में इस रोग में विक्षतों का स्थान होता है केन्द्रिय प्रदेशीय भाग तथा केशिकाभाजीय स्थानों में तीव्र वेग से व्रणशोथात्मक कोशाओं की भरमार हो जाती है । ऊतिमृत्यु उतने ही भाग में होती है जितनी भीषणता के साथ रोग का आक्रमण होता है । जितना अधिक आघात होता है उतने ही काल के अनुपात से रोग का उपशम होता है । यदि रोग सौम्य हुआ तो यकृत् ति पुनर्जनन होता है अन्यथा तन्तूत्कर्ष । आगे चल कर कुछ व्रणवस्तु का पुनर्चूषण हो जाता है । औतिकीय चित्र देखने से ऐसा लगता है कि मानो वह बहुखण्डीय यकृद्दाल्युत्कर्ष का प्रारम्भिक रूप हो और इससे यह भी ध्यान जाता है कि कदाचित् उस भयंकर व्याधि के कारकों में से उपसर्गात्मक याकृत्पाक भी एक हो ।
परियकृत्पाक ( Perihepatitis ) - बहुधा और अनेक अवसरों पर हमें यकृत के प्रावर (कैपसूल ) में पाक मिलता है । पाक के कारण उसका स्थूलन हो जाता है तथा वह आसपास के अन्य अंगों के साथ अभिलग्न भी हो जाता है । इसके निम्न हेतु व्याधिवेत्ताओं ने दिये हैं :
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१. वृक्कपाक के साथ जीर्ण उदरच्छदपाक ।
२. जीर्ण मदात्यय |
३. तरुणों में जीर्ण बहुलसीकलापाक ( chronic polyserositis )। ४. फिरङ्ग ।
५. बाह्य निपीड द्वारा ( प्रावर में स्थान-स्थान पर स्थानिक सिध्म हो जाते हैं ) ।
यद्यपि इस रोग का व्याधि की दृष्टि से अधिक महत्त्व नहीं है फिर भी बहुलसीकलापाक के कारण उत्पन्न होने पर यह व्याधि बहुत व्यापक स्वरूप की होती है तथा यकृत् में रक्तसंवहन की क्रिया में भी बाधक हो सकती है तथा यकृत् की क्रियाशक्ति को भी कम कर सकते है । सम्पूर्ण प्रावर के ऊपर तान्तव ऊति का एक श्वेत स्तर ऐसे चढ़ जाता है मानो कि चाशनी जमा दी हो इसे 'झकरगूसल्बर' के
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