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विकृतिविज्ञान कोशाओं में विह्रास हो ही साथ ही स्नैहिक परिवर्तन भी उनमें नहीं मिलते। कम से कम आरम्भ में तो यकृत् अति का बहुत ही कम विनाश होता है। यह रोग वर्षों चल सकता है । इसमें जलोदर नहीं होता परन्तु ईषत् प्लीहोदर देखा जा सकता है।
इस रोग में यकृत् की समांगीय वृद्धि होती है, उसका धरातल चिकना रहता है। उसकी गाढता कठिन होती है तथा रोगी को पीलिया भरपूर होता है। काटने पर नवीन तान्तव ऊति का सूक्ष्म जाल दिखाई देता है। रोगी के जीवन काल में तान्तव ऊति का बहुत अधिक संकोच नहीं देखा जाता जिसके कारण केशिकाभाजि यकृद्दाल्युत्कर्ष में प्राप्त प्रन्थिकीय आकृति यहाँ नहीं मिलती। कभी कभी सर्वकिण्वी के कर्कट के कारण पित्तप्रणालीय अवरोध अधिक होने के पूर्व कर्कट के कारण मृत्यु हो जाती है तब तक यकृद्दाल्युत्कर्ष नहीं भी प्रकट हो पाता। पर उस समय पैत्तिक वाहिनियों का सर्वसामान्य विस्फार हो चुका होता है जिसे उदयकृदुत्कर्ष ( hydrohepatosis ) के नाम से पुकारा जाता है इसमें यकृत् बढ़ जाता है और कामलान्वित हो जाता है।
उपसर्गात्मक पैत्तिक यकृद्दाल्युत्कर्ष इसे हैनट का परमचयिक यकृद्दाल्युस्कर्ष (Hanot's HypertrophicCirrhosis) भी कहते हैं । यह तारुण्यकालीन व्याधि है। इसमें ज्वर के विषम वेग, गाढ कामला, यकृवृद्धि तथा प्लीहोदर ये लक्षण देखे जाते हैं । यकृत् की आकृति अवरोधात्मक पैत्तिक यकृद्दाल्युत्कर्ष के समान होती है। तान्तव ऊति का विस्तार भी एक खण्डिकीय होता है जिसमें क्षुद्वृत्ताकारी कोशाओं की भरमार रहती है। इस और उस रोग में महत्त्व का अन्तर यही है कि इसमें पित्तप्रणालीय अवरोध का कोई भी कारण और प्रमाण नहीं मिलता। इस कारण इसे उपसर्गात्मक मानते हैं। उपसर्ग परिपित्तप्रणालीपाक (pericholangitis) द्वारा आरोहण कर के पहुंचता है। आगे चलकर बड़ी पित्तप्रणालियों के चारों ओर की व्रणशोथात्मक ऊति का संकोच हो जाता है जिसके कारण अवरोधात्मक पैत्तिक यकृाल्युत्कर्ष भी हो जाता है । उपसर्ग पहुँचने के तीन साधन हैं___-रक्त द्वारा, २-या लसीकावहाओं द्वारा, ३-अथवा ग्रहणी से सीधे पित्तप्रणाली द्वारा।
रङ्गायकृद्दाल्युत्कर्ष (Pigment Cirrhosis)-यदि यकृत्कोशाओं में चिरकाल तक रङ्गाकणों का बाहुल्य रहे तो वे अपुष्ट हो जाते हैं और उनका स्थान तान्तव ऊति ले लेती है । रङ्गायकृद्दाल्युत्कर्ष शोणवर्णोत्कर्ष (haemochromatosis) नामक रोग में अधिकतर देखा जाता है जिसमें यह शनैः शनैः केशिकाभाजिकीय स्थलों पर प्रारम्भ होता हुआ मिलता है। जो यकृत्कोशा नष्ट हो जाते हैं उनसे रंगा निकल कर नवीन तान्तव पट्टिकाओं में उपस्थित रहता है जहाँ उसकी उपस्थिति मात्र प्रक्षोभक का कार्य करती हुई और अधिक रंगा की वृद्धि कर देती है। प्रारम्भिक अवस्था में यकृत् में वृद्धि हो जाती है तथा वह चिकना रहता है पर आगे चलकर
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