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विकृतिविज्ञान ३. मदात्ययिक यकृद्दाल्युत्कर्ष ( alcoholic cirrhosis) ४. लीन्वैकीय यकृहाल्युत्कर्ष ( Laenuec's cirrhosis) ५. सकील यकृत् ( hobnail liver ) ६. हपुषिरापायीय यकृत् (gin-drinker's liver )
इस रोग का कारण एक विशेष विषि का प्रभाव है यह विषि (toxin ) शान्तता से कार्य करती है और यकृत्कोशाओं की उत्तरोत्तर नाश करती जाती है जिनका स्थान तन्तूत्कर्ष लेता चलता है। यह तन्तूत्कर्ष अंशतः पुनःस्थापन और अंशतः व्रणशोथात्मक होता है। यह काल्पनिक विषि पर्याप्त काल तक तथा रुक रुक कर क्रिया करती है । इस विषि का उद्भवस्थल कौन-सा है यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता है यतः इस विकार में केशिकाभाजिप्रदेशीय या परिणाह की खण्डिकाओं में प्रभाव पड़ता है अतः यह या तो महास्रोत से या प्लीहा से आता है। कुछ काल पहले इस रोग का मद्य से बहुधा सम्बन्ध जोड़ा जाता था। या तो मद्य स्वयं, या मद्य में रहने वाली अशुद्धियां, या मध के कारण उत्पन्न आमाशयपाक (gastritis ), या आमाशयपाक के कारण उत्पन्न जीवाणुओं के विष अथवा मद्य के पचने से उत्पन्न उत्पाद इस रोग के कारण माने जाते थे परन्तु अब जहां मद्यपायी इस रोग के शिकार देखे जाते हैं वहीं पर वे भी पाये जाते हैं जिन्होंने जन्मभर कोई नशा नहीं किया इस कारण मद्य के अतिरिक्त कोई अन्य कारण इस रोग का उत्पादन करता है ऐसा लगता है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि सांपरीक्ष जीवों ( expe. rimental animals ) पर मद्य का एकमात्र प्रयोग करते रहने पर भी इस रोग को उनमें उत्पन्न नहीं किया जा सका । पर यदि मद्य के साथ जीवाणुओं को भी प्रविष्ट किया जावे तो कुछ वैसे विक्षत मिल सकते हैं ऐसा पाया गया है। ज्यौर्जी एवं गोल्डब्लैट ने मूषकों को जीवतिक्ति बी विरहित आहार पर रख कर और प्रोभूजिन की मात्रा घटाकर यकृद्दाल्युत्कर्षीय विक्षतों को उत्पन्न करने में सिद्धता प्राप्त की है। इसी प्रकार यदि सांपरीक्ष जीवों के आहार से पित्ती ( choline ) निकाल दी जावे तो भी उन्हें यह रोग हो सकता है। लोहक ( manganese ) तथा जम्बशिला ( shale ) तैल के व्यवहार से भी यह हो सकता है। गाई और पर्डी ने शशकों ( rabbits ) को श्लेषाभ सैकत ( colloidal silica) से भरपूर आहार का सेवन कराकर भी बहुखण्डीय यकृद्दाल्युत्कर्ष उत्पन्न करके दिखा दिया है। यही हम फौफ्फुसिक सैकतोत्कर्ष (pulmonary silicosis ) में भी देखते हैं। सैकत उतियों द्वारा घुलकर यकृत् में पहुँच जाता है और वहाँ बहुखण्डीय यकृद्दाल्युत्कर्ष को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है। पर इस प्रकार उसका एक सौम्य रूप ही प्रत्यक्ष होता है। इस सांपरीक्ष सैकत यकृद्दाल्युत्कर्ष में प्रथमत: कोई विष न रह कर केशालों के अन्तश्छद में विषाक्त प्रभाव होकर यकृत् के कोशाओं को रक्तपूर्ति यथावश्यक नहीं हो पाती है और विशोणता हो जाती है।
चौफार्ड का विश्वास है कि प्लीहस्थ पदार्थों के द्वारा भी केशिकाभाजियकृद्दाल्यु
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