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विकृतिविज्ञान जिसके कारण यकृत् का आकार छोटा हो जाता है कभी कभी यह लध्वीकरण, जो वामयकृत् खण्ड में अधिकतर होता है, इतना बढ़ जाता है कि यकृत् प्रकृत आकार का आधा रह जाता है। (अपोषक्षयजन्य यकृद्दाल्युत्कर्ष) पर आधे के लगभग रोगियों में मृत्यु के समय यकृत् प्रकृतावस्था से अधिक भारी देखा जाता है उस भार वृद्धि का मुख्य कारण यकृत्कोशाओं में स्नैहिक भरमार का होना माना जाता है जो जीर्ण मदात्ययिओं में बहुधा देखा जाता है (स्नैहिक यकृद्दाल्युत्कर्ष)। उसमें यकृत् का प्रावर स्थूलित हो जाता है तथा उसका बाह्य धरातल गाँठ-गँठीला हो जाता है। उसमें ग्रन्थिकाएँ पड़ जाती हैं। जब वे ग्रन्थिकाएँ स्थूल ( coarse ) होती हैं तो यकृत् को सकील यकृत् (hobnailed liver) कहलाता है। स्थूलता तथा रूक्षता का कारण कुछ तो तान्तव ऊति का संकोचन है और कुछ जीवित यकृत् कोशाओं का परमचय है जो ग्रन्थिकाओं में परिणत हो जाता है। कभी कभी देखने पर या हाथ फिराने पर यकृत् में ग्रन्थिकाएँ न मिलकर सूक्ष्मकण मिलते हैं। यकृत् बड़ा दृढ़ होता है उसका चाकू से काटना भी सरल काम नहीं होता। काटने पर तान्तव ऊति का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है कटा हुआ तल कर्बुरित और कणयुक्त होता है। गुलाबी या धूसर वर्ण की तान्तव ऊति में पीले या नारङ्गी रंग की खण्डिकाओं की द्वीपें इतस्ततः दृग्गोचर होती हैं अधिक जीर्ण रुग्णों में तान्तव ऊति सघन
और श्वेतवर्ण की भी मिलती है। यकृत् के साथ ही प्लीहोदर भी देखा जाता है जहाँ संधार (stroma) में तान्तव ऊति की वृद्धि होती है।
अण्वीक्षण करने से तान्तव ऊति का विस्तार पूर्णतः विषम होता है जिसका संरचनात्मक आधार कोई भी प्रकट नहीं होता। कभी कभी तो एक खण्डिका में वह होती है और दूसरी में उसका नितान्त अभाव होता है और कभी कभी खण्डिका के भीतर वह मिलती है न कि उसके चारों ओर परिणाह पर । प्रारम्भ में तान्तव उति नई और तन्तुरुहयुक्त ( fibroblastic) होती है उसमें रक्ताधिक्य होता है तथा छोटे गोल कोशाओं की भरमार होती है। पित्तप्रणालिकाओं का द्विगुणन हो जाता है इस कारण तान्तव पट्टिकाओं ( fibrous strands ) में पैत्तिक अधिच्छदीय कोशाओं के असंख्य समूह देखने को मिलते हैं । यकृत् की खण्डिकाओं के स्वरूप और आकार अलग अलग प्रकार के देखे जाते हैं कुछ स्थलों पर कोशा में दो गाढरंगित न्यष्टियां ( deeply staining nuclei ) देखी जाती हैं जो उसकी वृद्धि और पुनर्जनन की साक्षिणी स्वरूपा होती हैं। कुछ कोशाओं में न्यष्टियाँ मरती और विनष्ट होती हुई भी देखी जाती हैं। यकृत् खण्डिका की स्वाभाविक आकृति नष्ट हो जाती है तथा टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है। यदि वाहिनियों में रंग का अन्तःक्षेप किया जाये तो केशिकाभाजि सिरा की शाखाओं में ही विकृति अधिक आती है क्योंकि उन्हीं के चारों ओर तन्तूत्कर्ष का संकोचन ( contraction ) होता है। जितना ही तन्तूत्कर्ष अधिक होगा उतनी ही यकृत् के जीवित कोशाओं की पुनर्जनन शक्ति क्षीण हो जावेगी। स्नैहिक विह्रास इतना इस रोग में नहीं देखा जाता जितनी कि स्नैहिक
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