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विकृतिविज्ञान
जिह्वापाक (Glossitis) आयुर्वेद ने ३ प्रकार के जिह्वापाकों का वर्णन त्रिविध जिह्वाकण्टक नाम से किया है:
जिह्वाऽनिलेन स्फुटिता प्रसुप्ता भवेच्च शाकच्छदनप्रकाशा । पित्तेन पीता परिदह्यते च चिता सरक्तैरपि कण्टकैश्च ।
कफेन गुर्वी बहुला चिता च मांसोद्गमैः शाल्मलिकण्टकाभैः॥ नवीन शास्त्रकारों ने इसके चार भेद स्वीकार किये हैं:
१. तीव्र बाह्य जिह्वापाक ( acute superficial glossitis) इसमें छोटे छोटे व्रण बन जाते हैं। यह परिस्रावी प्रकार का व्रणशोथ है यह मुखपाक के साथ साथ होता है। आयुर्वेदोक्त तीनों जिह्वाकण्टक रोग इसी के अन्तर्गत समाविष्ट होते हैं।
२. तीव्र जीवितक जिह्वापाक ( acute parenchymatous glossitis) यह पूयिक व्रणशोथ है जो जिह्वा की संयोजी तथा पेशी ऊतियों में होता है। समीपस्थ व्रण के मालागोलाणु इस रोग को उत्पन्न करते हैं। किसी के काटने या डंक मारने से भी यह प्रारम्भ हो सकता है। कभी कभी तीव्र ज्वरों में भी यह देखा जाता है। अशुद्ध पारद के कुपरिणाम से होने वाले मुखपाक के साथ ही पारदजन्य जिह्वापाक ( mercurial glossitis ) देखा जा सकता है। .....
पारदजन्य जिह्वापाक में एक विस्तृत क्षेत्र में सूजन तथा शूल देखा जाता है सम्पूर्ण जीभ फूल जाती है उसका प्रभाव कण्ठ तक पड़ता है निगलना और श्वास लेना कठिन हो जाता है। दुर्बल और मद्यपायी व्यक्तियों में और भीषण रूप धारण कर लेता है। इसमें पूयन प्रायः नहीं होता यदि होता भी है तो अलास ( sublingual abscess ) के रूप में । साथ में तीव्र सन्ताप, ग्लानि और ग्रैविक लसीग्रन्थियों में पाक एवं शोथ होता है जो बढ़ कर ग्रीवा में कोशोतिकोप ( cellulitis) तथा मध्योरसपाक ( mediastinitis) का कारण बनता है। पशुओं के पाद तथा मुख रोग ( foot & mouth disease ) के उपसर्ग द्वारा इस जिह्वापाक का और उग्र रूप देखने को मिल सकता है। जिह्वा अत्यधिक फूल और सूज जाती है उस पर छोटे छोटे आशयक ( vesicles ) बन कर पक जाते तथा फूट कर व्रण का रूप धारण कर लेते हैं। कभी कभी आधी जिह्वा में पाक देखा जाता है और शेष ठीक रहती है।
तीव्र जीवितक जिह्वापाक के परिणामस्वरूप जिह्वा विद्रधि या अलास होता है। यह जिह्वा के भीतर देखा जाता है इसके कारण जिह्वा की गतिशीलता जाती रहती है
जिह्वातले यः श्वयथुः प्रगाढः सोऽलाससंज्ञः कफरक्तमूर्तिः। . जिह्वां स तु स्तम्भयति प्रवृद्धो मूले तु जिह्वा भृशमेति पाकम् ॥
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