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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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३. उण्डुकपुच्छ्रीय वाहिनियों में दूषित घनात्रोत्कर्ष ( septic thrombosis ' का हो जाना जिसका मूल कारण कोई उपसर्ग हो सकता है ।
विल्की महोदय का कथन है कि बिना उण्डुकपुच्छ के रक्त संवहन में बाधा पड़े हुए किसी उपसर्ग के कारण किसी एक वाहिनी का मुख बन्द होने के कारण भी जीवाण्विक कोथ ( bacterial gangrene ) हो सकती है । यदि उण्डुकपुच्छ के अन्दर या बाहर कोई अश्म ( concretion ) किसी स्थान पर पीड़न करता है तो स्थानिक को हो सकता है । यह नियम है कि जब उण्डुकपुच्छ में कोई कोथ हो जाता है तो उसमें छिद्रण ( perforation ) भी अवश्य होता है जो उदरच्छदकलापाक (peritonitis ) | कर सकता है यदि उससे पूर्व ही उण्डुकपुच्छोच्छेद न कर दिया जावे।
इस रोग में मुख्य उपद्रव उदरच्छदकलापाक है। दूसरा उपद्रव जो देखने को fear है वह है धभवन (formation of abscesses) विद्रधियां उण्डुकपुच्छ htoम्बई के अनुसार विभिन्न स्थानों पर हो सकती हैं विद्रधियां उण्डुकपुच्छ के पेशी भाग को फाड़ कर उदरच्छदकला तक पहुंच कर उदरच्छदकलापाक का कारण बनती हैं। कभी कभी ये विद्रधियां उदरच्छदकलान्तर्गत ( intraperitoneal ) होती हैं। यदि इनका प्रचूषण न कर लिया जावे तो विदीर्ण हो जाती हैं । विदीर्ण होकर वे या तो उदरच्छदकला गुहा में या किसी आन्त्र की कुण्डली ( coil ) के पास खुलती हैं या उदर प्राचीर में खुल कर आन्त्र भगन्दर ( faecal fistula ) बनाती हैं। कभी कभी ये पीछे की ओर भी खुल सकती हैं और वृक्कों तक पहुँच सकती हैं और वहां परिवृक्कविद्रधि ( prinephric abscess ) बना देती हैं यदि और ऊपर पूय पहुँच गया तो उपमहाप्राचीरिक विद्रधि ( subdiaphragmatic abscess ) का कारण बनती हैं। लम्बी उण्डुकपुच्छ श्रोणिचक्रीय उदरच्छदकलापाक ( pelvic peritonitis ) कर सकती हैं। इन सब के कारण केशिका भाजि पूयरक्तता (portal pyaemia), सपूय केशिका भाजिसिरापाक (suppurative pylephlebitis), पूयरक्तता तथा रोगाणुरक्तता ( septicaemia ) नामक रोग हो सकते हैं । केशिका भाजि पूयरक्तता का कारण उण्डुकपुच्छीय सिरा का घनास्त्रोत्कर्ष होता है । घनात्र से अन्तःशल्य निकल कर यकृत् तक चले जाते हैं उसमें अनेक ऋण बन जाते हैं जिनके केन्द्रों पर पूयन होता रहता है जिसके कारण असंख्य विद्रधियां यकृत् में बन जाती हैं जिनसे सम्पूर्ण रक्त में पूयरक्तता आ सकती हैं।
जीर्ण उण्डुकपुच्छपाक - यह तीन प्रकार का होता है जिनमें एक व्रणशोथात्मक दूसरा अपोषजनित ( atrophic ) तथा तीसरा अवशेषकीय ( vestigial )। इनमें तीसरे में न तो व्रणवस्तु मिलती है और न कोई विकृति पाई जाती है जैसा कि अन्य जीर्ण पार्कों में देखा जाता है अपि तु इसमें उण्डुकपुच्छ तनु तथा अपुष्ट मिलता है और उसका मुख बहुत संकुचित सा देखा जाता है। इसमें कोई कोशीय भरमार भी
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