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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १११
शेषान्त्रकपाक ( Regional Ileitis) शेषान्त्रक ( ileum ) का अन्तिम भाग सर्वप्रथम व्रणशोथग्रस्त होता है। वहाँ से उण्डुक ( caecum ) तक व्रणशोथ फैलता है। क्षुद्रान्त्र और स्थूलान्त्र का भाग भी प्रभावित हो सकता है जिसके बीच-बीच में स्वस्थ आँत के खण्ड ( segment ) रहते हैं। अस्वस्थ खण्डों की श्लेष्मलकला सूज जाती है और आगे चलकर उसमें व्रणन ( ulceration ) हो जाता है। आन्त्रखण्ड के सब स्तर ( coats ) इस रोग में प्रभावित होते हैं सूज जाते हैं और मोटे पड़ जाते हैं। व्रणशोथ की इस तीव्रावस्था के पश्चात् तन्तूत्कर्ष हो जाता है जिसके कारण आन्त्र खण्ड का सुषिरक ( lumen) संकीर्ण हो जाता है। अन्त्रबन्धनी ( mesentery ) स्थूलित हो जाती है, तथा लसग्रन्थियां प्रवृद्ध हो जाती हैं। आन्त्रखण्डों के निकटवर्ती भाग अभिलग्न हो जाते हैं और उनमें नाल ( fistulae ) बन जाते हैं। अण्वीक्ष परीक्षण पर तीव्र, अनुतीव्र या जीर्ण व्रणशोथों में महाकोशाओं (giant cells) की उपस्थिति मिलती है। इसके कारण यह व्रणशोथ आन्त्रयक्ष्मा के से लक्षण उपस्थित कर देता है। पूर्वकाल में इस रोग का और यक्ष्मा का अन्तर करना प्रायः कठिन होता था। परन्तु क्योंकि यक्ष्मादण्डाणु की उपस्थिति इस रोग में कहीं पाई नहीं जाती न इसके द्वारा मसूरीकृत ( inoculated ) प्राणियों में ही यक्ष्मा उत्पन्न होता है अतः यह स्वतन्त्र व्रणशोथात्मक व्याधि करके मानी जाती है। निस्सन्देह यह एक औपसर्गिक रोग है। इस रोग में छद्रान्त्र का उत्तरोत्तर अवरोध हो जाता है नाभि के समीप तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम उदरशूल अनुभव किया जाता है जिसके साथ सजल विरेचन और वमन के लक्षण मिलते हैं। उदर का अधर दक्षिण भाग भरा हुआ दीखता है उसे टटोलने पर अर्बुदाकार वृद्धि का ज्ञान होता है जो शेषान्त्रक के सिमटने से बनती है।
स्थूलान्त्रपाक (Colitis) __ स्थूलान्त्र में व्रणशोथात्मक परिवर्तन सम्पूर्ण स्थूलान्त्र में तथा उसके एक भाग में स्थानिक दोनों प्रकार का हो सकता है। स्थानिक के स्थान भेद से अनेक नाम हैं जैसे उण्डकपाक (typhlitis), उण्डुक-आरोही बृहदन्त्र श्रोणिगुहीय बृहदन्त्र-मलाशय पाक (proctitis ), श्रोणिगुहीय मलाशयपाक ( pelvi-rectal colitis )। __ व्रणशोथात्मक प्रक्रिया शेषान्त्र से उण्डुक एवं स्थूलान्त्र की ओर तो बढ़ती है पर उण्डुक से शेषान्त्रक की ओर नहीं बढ़ पाती क्योंकि सन्दंश कपाटीय द्वार ( ileocaecal sphincter ) उस दिशा में उपसर्ग की प्रगति का दमन करता रहता है। इस कारण आन्त्रपाक ( enteritis ) तो स्थूलान्त्रपाक का हेतु बना रहता है उसका विलोम नहीं। . ____सामान्यतया व्रणशोथ का प्रभाव श्लेष्मलकला तक सीमित रहता है परन्तु उपश्लेष्मलकला भी प्रभाव में आ सकती है। कभी कभी तो अन्त्र के सब स्तर तथा उदरच्छद भी प्रभावग्रस्त हो जाती है जिसे उदरच्छद स्थूलान्त्रपाक ( pericolitis) कहा जाता है।
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