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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव भी प्रभावित होती हुई देखी जा सकती हैं।सूचम रचना जालिकोत्कर्ष (reticulosis) सदृश होती है।
सपूयश्रुतिमूलशोथ ( suppurative parotitis) अशुद्ध मुख से श्रुति. मूलग्रन्थि प्रणाली ( parotid duct ) के विवर द्वारा उपसर्ग पहुँचने पर अथवा इस प्रणाली में अवरोध हो जाने पर यह होता हुआ देखा जाता है। दारुण सन्निपातावस्था में यह उपद्रव स्वरूप हो सकता है यह ग्रीन मानता है-...... it may complicate severe febrile illnesses in which the normal salivary secretion is inhibited...........' उसका कथन है कि ७० प्रतिशत सपूय श्रुतिमूलशोथ का कारण पुंज या गुच्छगोलाणु है जो ग्रन्थि के भीतर अनेक विद्रधियां उत्पन्न करता तथा उसके ऊपर की त्वचा गला देता है।
___ ग्रसनीपाक ( Pharyngitis) नासागुहा की श्लेष्मलकला या गलतोरणिकाओं ( fauces ) में उपसर्ग हो जाने पर उनके द्वारा ग्रसनी में भी उपसर्गकारी जीवाणुओं का प्रवेश हो जाया करता है। सहसा शीत लग जाने से या दूषित वाति का संसर्ग आने से या रोमान्तिका, लोहित ज्वर वा रोहिणी के कारण भी ग्रसनी पर प्रभाव पड़ता है। तीव्रग्रसनीपाक (acute pharyngitis ) में सर्वप्रथम ग्रसनी की श्लेष्मलकला लाल पड़ जाती है, तथा सूज जाती है, उसके ऊपर अत्यधिक चिपकना श्लेष्मा या श्लेष्मपूय ( muco-pus) जम जाता है । इसके कारण निगलने की क्रिया करते समय रोगी को अपार कष्ट होता है तथा उसे शुष्क प्रक्षोभक कास उत्पन्न हो जाता है। मुख के अन्य भागों की भाँति यहाँ पर भी वणन हो सकता है । शिशुओं में तीव्र ग्रसनीपाक के पश्चात् रोमान्तिकादि विकार देखे जाते हैं जिनका ध्यान रखना चाहिए।
जीर्णग्रसनीपाक में गले की श्लेष्मलकला में बहुत काल से शोथ हो जाता है और वह मोटी (hyperplastic ) हो जाती है। कई बार तीव्र ग्रसनीपाक के आक्रमण के परिणामस्वरूप या अशुद्ध वातावरण में श्वास-प्रश्वास लेने पर कुछ कालोपरान्त यह रोग लग जाता है। यह शिशुओं की अपेक्षा वयस्कों में तथा स्त्री की अपेक्षा पुरुषों में अधिक होता है । तम्बाकू, अध्यशन, मदिरापान इस रोग के प्रवर्धक हेतु हैं। दूषित दन्त, उपसर्गग्रस्त तुण्डिका ग्रन्थियाँ, नासावरोध जो मुखेन श्वास का कारण हो, नासाकोटरों के उपसर्ग, वातरक्त (gout), आमवात, सन्धिवात और फिरङ्ग इसके सहायक कारण हैं।
अत्यधिक खांसने के पश्चात् कफ का निकलना तथा स्वरसाद ये २ लक्षण प्रमुखतया होते हैं। _ यदि आँख से ग्रसनी को देखा जावे तो उसमें कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता पर कभी कभी वहाँ रक्ताधिक्य देखा जाता है। रोगी को गलपरीक्षा कराने में कष्ट होता है। सम्पूर्ण श्लेष्मलकला पर छोटे छोटे दाने उठे रहते हैं। जिनके कारण
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