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विकृतिविज्ञान
कर्णमूलन्थिपाक ( Parotitis )
कनफेड ( mumps ) नामक रोग में कर्णमूल ग्रन्थिपाक हुआ करता है इसमें लसीकोशाओं की भरमार तथा सितकोशापकर्ष ( leucopenia ) विशेष रूप से देखा जाता है। इसे औपसर्गिक कर्णमूलग्रन्थिपाक ( infective parotitis ) भी कहते हैं । इसमें एक ओर या दोनों ओर की कर्णमूल ग्रन्थियां पक जाती हैं । कभी कभी तीनों लालाग्रन्थियों ( salivary glands ) में भी शोथ देखा जाता है । उपसर्गकाल में प्रजनन ग्रन्थियां ( genital glands ) भी सूजी हुई देखी जा सकती हैं। कभी कभी प्रजनन ग्रन्थियों की अपुष्टि वन्ध्यता ( sterility ) भी कर सकती है । उपसर्ग के कारण कर्णमूलग्रन्थियों में व्रणशोथात्मक शोफ ( oedema ) उत्पन्न हो जाता है जिससे वे सूज जाती हैं तथा उनसे प्रभावित क्षेत्र में शूल होने लगता है । उपसर्ग का कारण एक प्रकार का विषाणु ( virus ) होता है जिसके द्वारा वानरों में वैज्ञानिक कृत्रिमरूप से इस रोग को उत्पन्न करने में समर्थ हो सके हैं। अर्दित रोग में उपद्रव के रूप में तथा अन्य विशिष्ट सज्वर उपसर्गों में कम या अधिक यह शोथ देखा जा सकता है । अशुद्ध मुख से ग्रन्थिप्रणाली विवरों में होकर उपसर्ग का आरोहण ग्रन्थि तक होता है । कर्णमूलशोथ को चरक ने सन्निपातज ज्वर के अन्त का एक उपद्रव करके वर्णन किया है।
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सन्निपातज्वरस्यान्ते कर्णमूले सुदारुणः । शोधः संजायते तेन कश्चिदेव प्रमुच्यते ॥
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इस पर टीका करते हुए श्रीवाचस्पति वैद्य लिखते हैं:
सन्निपातज्वरस्य अन्ते अवसाने सन्निपातक्षपितशरीरस्य पुंसः कर्णमूले कर्णपर्यन्ते सुदारुणः कष्टतमो रागरुजादियुक्तः शोफः सम्प्राप्तिविशेषात् कर्मवैचित्र्यात् संजायते, तेन शोफेन कश्विदेवातुरो विमुच्यते, प्रायो मारयतीत्यर्थः ।
परन्तु कर्णमूलशोथ सभी मारक हों ऐसा नहीं मानना चाहिए । स्वयं आयुर्वेदशास्त्रज्ञ इस सम्बन्ध में निम्न नियम मानते हैं
ज्वरस्य पूर्वं ज्वरमध्यतो वा ज्वरान्ततो वा श्रुतिमूलशोध: । क्रमादसाध्यः खलु कष्टसाध्यः सुखेन साध्यः मुनिभिः प्रदिष्टाः ॥
ज्वर से पूर्व या ज्वररहित श्रुतिमूलपाक असाध्य, सज्वर कष्टसाध्य तथा ज्वर के अन्त में उत्पन्न सुखसाध्य होता है । सन्निपात ज्वर के अन्त का श्रुतिमूलशोथ चरकमन मारक होता है ।
एक जीर्णकर्णिकीय कर्णमूलशोथ मिकूलिक्ज लक्षण ( mickulicz syndrome) कहलाता है जो कई मास या वर्ष तक रह सकता है। इसमें अल्परुजा होती है । इसे हम पाषाणगर्दभ कह सकते हैं:
हनुसन्धौ समुद्भूतं शोफमल्परुजं स्थिरम् । पाषाणगईंभं विद्यात् बलास पवनात्मकम् ॥
( सु. नि. स्था. अ. १३ ) इस रोग में अन्य लालाग्रन्थियां तथा अश्रुग्रन्थियां ( lachrymal glands )
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