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विकृतिविज्ञान
रक्तस्रावी शोफजन्य तरल तथा तन्विमत् उत्स्यन्द ( fibrinous exudate ) रहता है । लसीकोशाओं की और आगे चलकर प्ररसकोशाओं ( plasma cells ) की पर्याप्त संख्या में फुफ्फुस की ऊति एवं उत्स्यन्द या निःस्राव में उपस्थिति देखी जाती है। सितकोशीयगणन इस व्याधि में या तो अपरिवर्तित देखा जाता है या बहुन्यष्टि सितकोशाओं का अपकर्ष पाया जाता है। इस रोग में विक्षतों का उपशम न होकर तन्तूत्कर्ष होने का प्रमुख कारण यह बहुन्यष्टि सितकोशापकर्ष ( leucopenia ) ही प्रतीत होता है ।
इस रोग में जो परिश्वासनालीय संघनन होता है और वायुकोशा लालकणों से भरे होते हैं यह सम्पूर्ण क्षेत्र फुफ्फुसीय ऋणास्त्र ( infarct ) से सादृश्य रखता है । इस रोग में कण्ठनाडी तथा श्वासनाल के अधिच्छद की पर्याप्त मृत्यु हो जाती है । जीवाणु वायुकोशीय प्राचीरों का विनाश करते हैं लसवहाओं और अन्तरालित ऊति को भी क्षतिग्रस्त करते हैं । यह सब प्रतिश्याय विषाणु ( virus) द्वारा न होकर अन्य साथी पूयजनक जीवाणुओं की कृपा से सम्भव है अतः किसी रोग को साधारण न समझ बैठना ही बुद्धिमानी है ।
प्रतिश्यायात्मक एवं मालागोलाणुज फुफ्फुसपाक के अतिरिक्त द्वितीयक फुफ्फुसपाक के २-३ प्रकार और भी देखे जाते हैं। इनमें निःश्वासजन्य फुफ्फुसपाक (Inha lation Pneumonia ) एक है । जब स्वरयन्त्र और उसका भाग संज्ञाशून्य हो जाता है या अन्नवह स्रोतस् में कर्कट उत्पन्न हो जाता है तो विविध स्राव या भोजन के कम निःश्वसित होकर फुफ्फुसों में पहुंच जाते हैं । इसके कारण एक रोगाण्विक कुफ्फुसपाक ( septic broncho pneumoina ) उत्पन्न हो जाता है जो प्रायः मारक ही होता है । रोगो दुर्बल होता जाता है व्रणशोथात्मक प्रक्रिया के कारण पूय की फुफ्फुलों में उत्पत्ति हो जाती है जिसके कारण विद्रधि बन जाती है और कभी कभी तो ate as aन जाता है। ऐसा होने के कारण फुफ्फुस ऊति का बहुत विनाश होता है और ठीवन (sputum ) अत्यन्त दुर्गन्धपूर्ण हो जाता है उसमें प्रत्यस्थ ऊति (elatic tissue ) भी मिलती है । तुण्डिका ग्रन्थिपाक या तुण्डिकोपरिभाग में विद्रधि होने से या प्रसनिका, स्वरयन्त्र या मुख में सव्रण कर्कट बन जाने से भी यह फुफ्फुसपाक हो सकता है । जब युद्धकाल में विषाक्त प्रक्षोभक वातियाँ निःश्वसित हो जाती हैं तब भी इसी प्रकार के फुफ्फुसपाक के लक्षण प्रगट होते हैं । वातियों (gases) के कारण श्वासमार्गों का अधिच्छद नष्ट होजाता है और तीव्र शूल उत्पन्न होता है वायुकोशों में रक्तयुक्त स्राव एकत्र हो जाता है और सूजन आ जाती है । जिसके कारण वहाँ पर उपस्थित रोगाणुओं को अपना कार्य करने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है । यदि रोगी बच गया तो क्षतिग्रस्त स्थान में तन्तूत्कर्ष और समङ्गीकरण होता है ।
शस्त्रकर्मोत्तरकालीन फुफ्फुसपाक ( Post-operative Pneumonia ) के सम्बन्ध में यह कहना कि वह निःश्वासजन्य फुफ्फुसपाक है कठिन है क्योंकि वहाँ तो
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