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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव वास्तविक फुफ्फुस ऊति की क्षति बहुत अल्प होती है। इसी कारण इस निःस्राविक (उत्स्यन्दी) प्रतिचार (exudative response ) को कफरक्तज (allergic) घटना समझा जाता है।
कर्कटक सन्निपाती के रक्त में सितकोशाओं की गणना ५०००० तक पाई जा सकती है जिसमें ९० प्रतिशत बहुन्यष्टि सितकोशा होते हैं। दारुण्यकाल में यह संख्या एकदम गिरती है पर कोई अन्य उपद्रव जैसे अन्तःपूयता ( empyema) हो तो यह संख्या गिरती नहीं बल्कि स्थिर रहती है। कभी कभी थोड़े समय गिरकर फिर बढ़ जाती है। यदि सितकोशा संख्या कम होकर अकस्मात् फिर बढ़ जावे तो सदैव यह समझना चाहिए कि शरीर में कहीं न कहीं पूय का संचय हो गया है। इस रोग में रक्त का आलगत्व ( viscosity ) बढ़ जाता है। जिसके कारण अन्तर्वाहिनी आतंचन ( intravascular clotting ) की बहुत सम्भावना देखी जाती है। इस रोग में ऊतियों में नीरेयों ( chlorides) का संचय होने लगता है जिसका प्रमाण यह है कि रोगी के मूत्र तथा रक्त की नीरेय-मात्रा घट जाती है।
फुफ्फुसपाक में भय का कारण श्वसनक्रिया में गड़बड़ी होना उतना नहीं है जितना कि रोग के कारण उत्पन्न हुई विषमयता का हृदय पर प्रभाव होना है। इस विष के कारण हृत्पेशी में मेघाभशोथ तथा स्नैहिक विहास होने लगता है। चंकि रक्त इस रोग में कुछ अधिक गाढ़ा हो जाता है अतः रक्त के संवहन के लिए हृदय से अधिक परिश्रम अपेक्षित रहता है ताकि थोड़े से स्वस्थ फुफ्फुस क्षेत्र द्वारा सम्पूर्ण रक को प्राणवायु युक्त किया जा सके । रोगी पर श्यावता ( cyanosis) का लक्षण रक्त में वायु की कमी का प्रमाण होता है और अजारक-रक्तता (anoxaemia) इस रोग में अवश्य मिलती है। इसके कारण हृत्पेशी और अधिक दुर्बल हो जाती है। इस प्रकार एक दुश्चक्र चल पड़ता है जिसमें विषाक्त हृदय कम कार्य करता है रक्त की ठीक शुद्धि नहीं होती। कम शुद्धि के कारण रक्त में प्राणवायु की कमी होती है इस प्राणवायु विरहित रक्त से जब हृत्पेशी का पोषण होता है तो वह और अधिक दुर्बल हो जाती है और उसकी दुर्बलता अजारकरक्तता बढ़ाती है इत्यादि । न्यूबर्ध, मीन्स तथा पोर्टर नामक वैज्ञानिकों का कथन है कि अजारकरक्तता का प्रधान कारण प्राणदा नाड़ी की क्रिया का निरोध (vagal inhibition) है। जिसके कारण प्राणग्रन्थि ( medulla) की प्रांगार-द्विजारेय वाति आतति (tension CO.) की वृद्धि के प्रति बढ़ती हुई उसकी स्वाभाविक असहनशीलता को कम कर देता है । इसी काल में श्वसनक्रिया अति दुत और गाध ( shallow ) होती है वायुकोशों का अधिकांश स्थान शोथ तरल से भरा होता है। फुफ्फुस के ठोस भागों में वायु का प्रवेश होता नहीं तथा उनके समीप की फुफ्फुस ऊति का समवसाद (collapse) हुआ रहने से वह भी बेकार होती है। यह सब मानव जीवन को संकट की घोर स्थिति में ले आते हैं।
प्राणदा नाड़ी की क्रिया के निरोध का परिणाम प्राणदा नाडी द्वारा अनुप्राणित औद
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