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विकृतिविज्ञाम
प्रभाव होने पर भी हृत्पेशी भी इससे अछूती नहीं रहती है। जहां जहां हृत्पेशी में पहले rate ग्रन्थियां हो जाती हैं वहां वहां यह विकार भी देखा जाता है । उनके आस पास बहुन्यष्टिकोशा घेरा डाले हुए देखे जाते हैं । इन अनेक विद्रधियों को ब्राक्ट - वाक्टर पिण्ड ( bracht - wachter bodies) कहते हैं। ये पिण्ड हृद्रोहिणी या वलयधमनी ( coronary artery ) की शाखा प्रशाखाओं द्वारा जीवाण्वीय अन्तःशल्यों के परिणाम मालूम पड़ते हैं ।
यदि शीघ्र ही मृत्यु न हो जावे तो इस रोग के कारण हृदय के विभिन्न भागों में अपार क्षति देखी जाती है । यदि हम पहले कपाटों को लें तो उनमें विद्रधिभवन ( ulceration ) होने लगता है जिसके कारण उनकी धातु दुर्बल पड़ जाती है जिसके कारण कपाटों का विस्फारण ( aneurysmal dilatation ) अथवा छिद्रण ( perforation ) हो जाता है । हृद्वज्जु भी अपरदित होकर फट जाते हैं। महाधामनिक कपाटों में जब विक्षत उनके दलों ( cusps ) में हो जाता है तो वालसल्वा कोटर ( sinus of Valsalva ) में विस्फारण ( aneurysm ) हो जाता है । कभी कभी वलयवाहिनी में अन्तःशल्य तुरत मृत्यु का भी कारण होता है । ध्वनि सुनने में उस
पार्टी पर इन विविध परिणामों के कारण कई प्रकार की मर्मर समय विशेष आती है जब कि आमवातज विकृति के पश्चात् यह सब के कारण रक्त के जारण में कमी आने लगती है जो अंगुल्यमों में bbing of the fingers ) का कारण बनती है ।
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इस रोग के कारण प्लीहा में ऋणात्रों के बन जाने से प्लीहशूल और वृक्कों में ऋणात्र बन जाने से रक्तमेह ( haematuria ) देखा जाता है । जब ये ऋणास्त्र मस्तिष्क में बनते हैं तो वहां वे मृदून ( softening ) एवं रक्तस्राव के कारण हो जाते हैं । बाहु-पादों की धमनियों में ऋणात्रों के कारण कोथ होता है तथा आन्त्रप्रदेश में ऋण होने से अतीसार का लक्षण देखा जाता है। इन अनेक ॠणात्रों के कारण रोगी का चित्र बड़ा विचित्र हो जाता है और वास्तविक रोग का ज्ञान करना कठिन होता है।
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अनुतीव्र जीवाण्वीय हृदन्तश्छदपाक के कारण जो अन्तःशल्य विभिन्न स्थानों में ऋणात्र बनाते हैं उनका ऊपर वर्णन हो गया है । उनके अतिरिक्त वृक्कों, स्वचा के नीचे और हृत्पेशी में भी अन्तःशल्य विभिन्न विचित्रताएँ कर देते हैं उनसे भी परिचित होना आवश्यक है । हृत्पेशी में वलयधमनी की प्रशाखाओं द्वारा अन्तःशल्यों के लाने से ब्राक्ट - वाक्टर पिण्डों के निर्माण की कहानी हम सुना चुके हैं। इन पिण्डों के ही कारण हृत्पेशी में भयङ्कर वेदना होती है । यदि वृक्क के प्रावर ( capsule ) के नीचे हम देखें तो वहाँ असंख्य लाल छींटे पड़े हुए देखे जाते हैं मानो कि अनेकों पिस्सुओं ने वृक्क को खा लिया हो। इन छींटों का कारण अनेक केशिका जूटों ( glomeruli ) में उपस्थित अन्तःशल्य हैं । सम्पूर्ण केशिकाजूट पर प्रभाव प्रायः नहीं देखा जाता उसके किसी भाग में विकृति पाई जाती है विकृत भाग में काचर