Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडोर वाचना प्रमुख सम्पादक-विवेचक आचार्य तुलसी युवाचार्य महाप्रज्ञ For Private Personal use Only wow.jainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गथ पावयणं सूत्रकृतांग : प्रथम श्रुतस्कंध आचार्य श्री तुलसी आचार्यत्त्व अमृत-महोत्सव उपलक्ष्य में प्रकाशित Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ( मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण तथा परिशिष्ट ) वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी सम्पादक-विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ अनुवादक मुनि दुलहराज प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) आर्थिक सौजन्य : रामपुरिया चेरिटेबल ट्रस्ट कलकत्ता प्रबन्ध-सम्पादक: श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन (जैन विश्व भारती) प्रथम संस्करण: १९८४ पृष्ठांक: ७०० मूल्य : १८५ रुपये मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SŪYAGADO 1 [Text, Sanskrit Rendering and Hindi Version with notes] Vācānā Pramukha ĀCĀRYA TULSI Editor and Commentator YUVĀCĀRYA MAHĀPRAGNA Translated by MUNI DU LAHARAJA Publisher JAIN VISHVA BHARATI LADNUN (Raj.) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Managing Editor : Sreechand Rampuria Ditector Agama and Sahitya Prakashan Jain Vishwa Bharati By munificence : Rampuria Charitable Trust Calcutta First Edition : 1984 Pages : 700 Price: Rs. 185.00 Printers Jain Vishwa Bharati Press Ladnun (Raj.) Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुट्ठो वि पग्णापुरियो मुद आणापहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे चिक्नुस् तस्य व्यणिहाण || पवरासयस्स, विलोडियं लद्धं सुलद्धं सज्झाय सज्झाणरयस्स जयस्स तस्स पणिहाणपुव्वं ॥ आगम वुद्धमेव, णवणीयमच्छं । नि वाहिया स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि । जो हेडमूओ स्स पवायणस्स, कानुस् तस्य व्यविहान । समर्पण ।। १ ।। ॥ २॥ || 3 || जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम- प्रधान था। सत्य योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से || जिसने आगम-दोहन कर-कर, नवनीत | पाया प्रवर प्रचुर श्रुत सद्ध्यान लीन चिरचिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में । हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का, जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है। उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान बना देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोधपूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ । मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सब को समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्तभाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । -आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य सम्पन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और वहुमूल्य बताया गया है। हमने ग्यारह अंगों का पाठान्तर तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सु-संपादित मूल पाठ 'अंगसुत्ताणि' भाग १, २, ३ में प्रकाशित किया है। उसके साथ-साथ आगम-ग्रन्थों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहापोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस शृंखला में चार आगम-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं: (१) ठाणं (२) समवाओ (३) दसवेआलियं (४) उत्तरज्झयणाणि प्रस्तुत आगम 'सूयगडो १' उसी शृंखला का पांचवा ग्रन्थ है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-विवेचक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रन्थ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। संपादन-विवेचन सहयोगी मुनि दुलहराजजी ने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है । ऐसे सु-संपादित आगम-ग्रन्थ को प्रकाशित करने का सौभाग्य 'जैन विश्व भारती' को प्राप्त हुआ है, इसके लिए वह कृतज्ञ प्रस्तुत आगम 'सूयगडो १' का मुद्रण श्री रामपुरिया चेरिटेबल ट्रस्ट (कलकत्ता) द्वारा घोषित अनुदान राशि में से हुआ है। मैं उस ट्रस्ट के सभी ट्रस्टियों के प्रति संस्था की ओर से हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूं। जैन विश्व भारती के अध्यक्ष श्री बिहारीलालजी सरावगी की निरन्तर और सघन प्रेरणा के कारण ही, कुछ वर्षों के व्यवधान के पश्चात्, आगम प्रकाशन का कार्य पुनः तत्परता से प्रारम्भ हुआ है। मुझे आशा है कि इस प्रकाशन कार्य की निरन्तरता बनी रहेगी और हम निकट भविष्य में और अनेक आगम-ग्रन्थ प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। श्रीचन्द रामपुरिया कलकत्ता १-६-८४ Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय आगम-सम्पावन की प्रेरणा वि० सं० २०११ का वर्ष और चैत्र मास । आचार्य श्री तुलसी महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे । पूना से नारायणगांव की ओर जाते-जाते मध्यावधि में एक दिन का प्रवास मंचर में हुआ। आचार्य श्री एक जन परिवार के भवन में ठहरे थे। वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं । गृह-स्वामी की अनुमति ले, हम लोग उन्हें पढ़ रहे थे। सांझ की वेला, लगभग छह बजे होंगे । मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिये आचार्य श्री के पास गया। आचार्य श्री पत्रों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने 'धर्मदूत' के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा--"यह देखा कि नहीं?" मैंने उत्तर में निवेदन किया-"नहीं, अभी नहीं देखा।" आचार्य श्री बहुत गम्भीर हो गये । एक क्षण रुककर बोले-"इसमें बौद्ध पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है । बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं । जैन आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और इस ओर अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।" आचार्य श्री की वाणी में अन्तर्वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने में समय की अपेक्षा थी। आगम-सम्पावन का संकल्प रात्रि-कालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्य श्री ने साधुओं को आमन्त्रित किया। वे आए और वन्दना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए। आचार्यश्री ने सायंकालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा-"जैन आगमों का कायाकल्प किया जाए, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा । बोलो, कौन तैयार है ?" सारे हृदय एक साथ बोल उठे-"सब तैयार हैं।" आचार्य श्री ने कहा-"महान कार्य के लिए महान् साधना चाहिये । कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, अपनी-अपनी रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो।" मंचर से विहार कर आचार्य श्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक बातचीत होती रही। दूसरे दिन साधु-साध्वियों की परिषद् बुलाई गई । आचार्य श्री ने परिषद् के सम्मुख आगम-सम्पादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्य श्री ने पूछा-"क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिये ?" । समलय से प्रार्थना का स्वर निकला -"अवश्य, अवश्य ।" आचार्य श्री औरंगाबाद पधारे । सुराना भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयन्ती का पुण्य-पर्व । आचार्य श्री ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-इस चतुर्विध संघ की परिषद् में आगम-सम्पादन की विधिवत् घोषणा की। आगम-सम्पादन का कार्यारम्भ वि० सं० २०१२ श्रावण मास (उज्जैन चातुर्मास) से आगम सम्पादन का कार्यारम्भ हो गया। न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी । अकस्मात् 'धर्मदूत' का निमित्त पा आचार्य श्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्य कर लिया । चिन्तन की भूमिका से इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभव-विहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे। अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता। प्रथम दो-तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित और सुस्थिर हो गईं । आगम-सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल व गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण है, यह कहकर मैं स्वल्प भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। आचार्यश्री के अदम्य उत्साह और समर्थ प्रयत्न से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा है । इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन व प्रोत्साहन मिल रहा है । मुझे विश्वास है कि आचार्य श्री की यह वाचना पूर्ववर्ती वाचनाओं से कम अर्थवान् नहीं होगी। Jain Education Intemational ucation Intermational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] सम्पादन का कार्य सरल नहीं है-- यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने उस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, क्योंकि उनकी भाषा और भावधारा आज की भाषा और भावधारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद-शून्य गति है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता। या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा। यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है। कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है। सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है । अकृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो। इस विश्व में जो है, वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है । शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है भाषाशास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज बही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है । 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिला-लेखों में है, वह आज के श्रमण साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है । आगम साहित्य के सैंकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है। मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अत: वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है। यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की सम्भावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार (अभयदेव सूरि) के सामने अनेक कठिनाइयां थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है १. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परम्परा) प्राप्त नहीं है। २. सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है । ३. अनेक वाचनाएं (आगामिक अध्यापन की पद्धतियां) हैं । ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गम्भीर हैं। ६. अर्थ विषयक मतभेद भी हैं।' इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गये । कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं, किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम-साहित्य, जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-संचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्य श्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधुसाध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है । सम्पादन-कार्य में हमें आचार्य श्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है । आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिये अपना पर्याप्त समय दिया है। उनके मार्ग-दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का सम्बल पा हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ प्रस्तुत ग्रन्थ सूयगडो (प्रथम श्रुतस्कंध) का सानुवाद संस्करण है। आगम साहित्य के अध्येता दोनों प्रकार के लोग हैं, विद्वद्जन और साधारण जन । मूल पाठ के आधार पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के लिए मूल पाठ का संपादन 'अंगसुत्ताणि' भाग १ में किया गया है। प्रस्तुत संस्करण में मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पण हैं और टिप्पणों के सन्दर्भस्थल भी उपलब्ध हैं। १. स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति श्लोक, १,२: सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सबूहस्य वियोगतः। सर्वस्वपरशास्त्राणामवृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद, मतभेदाश्च कुत्रचित् ।। Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका बहुत ही लघुकाय है। हमारी परिकल्पना है कि सभी अंगों और उपांगों की बृहद् भूमिका एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में हो। संस्कृत छाया संस्कृत छाया को हमने वस्तुत: छाया रखने का ही प्रयत्न किया है । टीकाकार प्राकृत शब्द की व्याख्या करते हैं अथवा उसका संस्कृत पर्यायान्तर देते हैं । छाया में वैसा नहीं हो सकता। हिन्दी अनुवाद और टिप्पण प्रस्तुत आगम का हिन्दी अनुवाद मूलस्पर्शी है। इसमें केवल शब्दानुवाद की-सी विरसता और जटिलता नहीं है तथा भावानुवाद जैसा विस्तार भी नहीं है। श्लोकों का आशय जितने शब्दों में प्रतिबिम्बित हो सके उतने ही शब्दों की योजना करने का प्रयत्न किया गया है। मूल शब्दों की सुरक्षा के लिए कहीं-कहीं उनका प्रचलित अर्थ कोष्ठकों में दिया गया है। श्लोक तथा श्लोकगत शब्दों की स्पष्टता टिप्पणों में की गई है। इसका अनुवाद वि० सं० २०२६ बेंगलोर चतुर्मास में प्रारंभ किया था । यात्राओं तथा अन्यान्य कार्यों की व्यस्तता के कारण इसकी संपूर्ति में अधिक समय लग गया । अवरोधों की लम्बी यात्रा के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार होकर अब जनता तक पहुंच रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ के टिप्पणों में चूणि के पृष्ठांक स्वर्गीय मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित तथा प्रकाशित सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कंध) की चूणि के हैं। अनुवाद और टिप्पण-लेखन में मुनि दुलहराजजी ने तत्परता से योग दिया है। इसका पहला परिशिष्ट मुनि दुलहराजजी ने, दूसरा मुनि धनंजयजी ने, तीसरा और चौथा मुनि हीरालालजी ने तथा पांचवां मुनि राजेन्द्रकुमारजी ने तैयार किया है । साध्वी जिनप्रभाजी ने संस्कृत छाया का पुनरावलोकन किया और मुनि सुदर्शनजी तथा समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने प्रूफ देखने में पूरा सहयोग दिया। ____ 'अंगसुत्ताणि' भाग १ में प्रस्तुत सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है । इसलिए इस संस्करण में पाठान्तर नहीं दिए गए हैं। पाठान्तरों तथा तत्सम्बन्धी अन्य सूचनाओं के लिए 'अंगसुत्ताणि' भाग १ द्रष्टव्य है। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं की पवित्र अंगुलियों का योग है। आचार्यश्री के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे । आचार्यश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत हैं । हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग दोनों प्राप्त है, इसलिए हमारा कार्यपथ बहुत ऋजु हुआ है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर मैं कार्य की गुरुता को बढ़ा नहीं पाऊंगा। उनका आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है। १५ अगस्त, १९८४ जोधपुर -युवाचार्य महाप्रज्ञ Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नाम-बोध प्रस्तुत आगम का नाम 'सूयगडो' है। समवाय, नंदी और अनुयोगद्वार-तीनों आगमों में यही नाम उपलब्ध होता है।' नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी ने प्रस्तुत आगम के तीन गुण-निष्पन्न नाम बतलाए हैं १. सूतगड-सूतकृत २. सुत्तकइ-सूत्रकृत ३. सूयगड-सूचाकृत प्रस्तुत आगम मौलिकदृष्टि से भगवान् महावीर से सूत (उत्पन्न) है तथा यह ग्रंथरूप में गणधर के द्वारा कृत है, इसलिए इसका नाम सूतकृत है। इसमें सूत्र के अनुसार तत्त्वबोध किया जाता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है । इसमें स्व और पर समय की सूचना कृत है, इसलिए इसका नाम सूचाकृत है। वस्तुतः सूत, सुत्त और सूय-ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं । आकारभेद होने के कारण तीन गुणात्मक नामों की परिकल्पना की गई। सभी अंग मौलिक रूप में भगवान् महावीर द्वारा प्रस्तुत और गणधर द्वारा ग्रन्थरूप में प्रणीत हैं। फिर केवल प्रस्तुत आगम का ही 'सूतकृत' नाम क्यों ? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है । प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थस्पर्शी आधार तीसरा है । क्योंकि प्रस्तुत आगम में स्वसमय और परसमय की तुलनात्मक सूचना के संदर्भ में आचार की प्रस्थापना की गई है। इसलिए इसका संबंध सूचना से है । समवाय और नंदी में यह स्पष्टतया उल्लिखित है 'सूयगडे णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जंति, ससमय-परसमया सूइज्जंति ।" जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा जाता है। प्रस्तुत आगम की पृष्ठभूमि में सूचनात्मक तत्त्व की प्रधानता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। सूत्रकृत के नाम के संबंध में एक अनुमान और किया जा सकता है । वह वास्तविकता के बहुत निकट प्रतीत होता है । दृष्टिवाद के पांच प्रकार हैं१. परिकर्म ४. पूर्वगत २. सूत्र ५. चूलिका। ३. पूर्वानुयोग आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है।' प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई, इसलिए इसका 'सूत्रकृत' नाम रखा गया। सूत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थों की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। 'सुत्तगड' और बौद्धों के 'सुत्तनिपात' में नामसाम्य प्रतीत होता है। १ (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू० ८८ । (ख) नंबी सू०८०। (ग) अणुओगद्दाराई, सू०५०।। २. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा २: सूतगडं सुत्तकर्ड, सूयगडं चेव गोण्णाई। ३. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०१०। (ख) नंदी, सू० ५२ ४. कसायपाहुड, भाग १, पृ० १३४ । Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] अंग और अनुयोग द्वादशांगी में प्रस्तुत आगम का स्थान दूसरा है । अनुयोग चार हैं१. चरणकरणानुयोग ३. गणितानुयोग २. धर्मकथानुयोग ४. द्रव्यानुयोग चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत आगम चरणकरणानुयोग (आचार-शास्त्र) है। शीलांकसूरी ने इसे द्रव्यानुयोग (द्रव्यशास्त्र) की कोटि में रखा है । उनके अनुसार आचारांग प्रधानतया चरणकरणानुयोग तथा सूत्रकृतांग प्रधान तया द्रव्यानुयोग है।' समवाय तथा नंदी में द्वादशांगी का विवरण दिया हुआ है । वहां सभी अंगों के विवरण के अंत में 'एवं चरणकरणपरूवणया' पाठ मिलता है । अभयदेवसूरी ने 'चरण' का अर्थ श्रमणधर्म और 'करण' का अर्थ पिण्डविशुद्धि, समिति आदि किया है।' चूर्णिकार ने कालिकश्रुत को चरणकरणानुयोग तथा दृष्टिवाद को द्रव्यानुयोग माना है।' द्वादशांगी में मुख्यतः द्रव्यशास्त्र दृष्टिवाद है । शेष अंगों में द्रव्य का प्रतिपादन गौण है । द्रव्यशास्त्र में भी गौणरूप में आचार का प्रतिपादन हुआ है । चूर्णिकार ने मुख्यता की दृष्टि से प्रस्तुत आगम को आचारशास्त्र माना है और वह उचित भी है। वृत्तिकार ने इसमें प्राप्त द्रव्य विषयक प्रतिपादन को मुख्य मानकर इसे द्रव्यशास्त्र कहा है । इन दोनों वर्गीकरणों में सापेक्ष दृष्टिभेद है । आकार और प्रकार प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कंध हैं । समवाय और नंदी में इसका उल्लेख मिलता है। प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह और द्वितीय श्रुतस्कंध के सात अध्ययन हैं। इसका उल्लेख समवाय, नंदी, उत्तराध्ययन और आवश्यक में है। उनका विवरण इस प्रकार है प्रथम श्रुतस्कंध अध्ययन उद्देशक रचनाबन्ध परिमाण १. समए (समय) श्लोक ८८ २. वेयालिए (वैतालीय) ३. उवसग्गपरिण्णा (उपसर्गपरिज्ञा) ४. इत्थीपरिण्णा (स्त्रीपरिज्ञा) ५. णरयविभत्ती (नरकविभक्ति) ६. महावीरत्थुई (महावीरस्तुति) ७. कुसीलपरिभासितं (कुशीलपरिभाषित) ८. वीरियं (वीर्य) २७ ६. धम्मो (धर्म) १०. समाही (समाधि) , २४ "८२ १. सूत्रांगचूणि, पृ० ३ : इह चरणाणुओगेण अधिकारो। २. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र १ : तत्राचाराङ्ग चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम्, अधुना अवसरायातं द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीयमङ्ग व्याख्यातुमारभ्यते। ३. समवायागंवृत्ति, पत्र १०२ : चरणम्-व्रतधमणधर्मसंयमाद्यनेकविधम् । करणम्-पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम् । ४. सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ३ : कालियसुयं चरणकरणाणुयोगो, ........... दिट्ठिबातो दवाणुजोगोत्ति । ५. (क) समवाओ, पहण्णगसमवाओ, सू०६०। । (ख) नंदी, सू० ८२। ६. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०६० । (ख) नंदी, सू०५२। (ग) उत्तराध्ययन ३१/१६ । (घ) आवश्यक अध्ययन ४॥ Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] ११. मग्गे (मार्ग) १२. समोसरणं (समवसरण) १३. आहत्तहीयं (याथातथ्य) १४. गंथो (ग्रन्थ) १५. जमईए (यमकीय) १६. गाहा (गाथा) , २७ दूसरा श्रुतस्कंध उद्देशक अध्ययन रचना-बन्ध परिमाण गद्य सूत्र ७२ , १०२ १. पोंडरीए (पौण्डरीक) २. किरियाठाणे (क्रियास्थान) ३. आहारपरिण्णा (आहारपरिज्ञा) ४. पच्चक्खाणकिरिया (प्रत्याख्यानक्रिया) ५. आयारसुयं (आचारश्रुत) ६. अद्दइज्ज (आर्द्रकीय) ७. णालंदइज्ज (नालंदीय) श्लोक ३३ सूत्र ३८ प्रस्तुत आगम की पद संख्या ३६ हजार बतलाई गई है। धवला में भी इसकी पद संख्या यही निर्दिष्ट है। किन्तु धवला और जयधवला दोनों में भी इसके दो श्रुतस्कंध होने का उल्लेख नहीं है और न अध्ययनों की संख्या का भी उल्लेख है।' विषय-वस्तु समवाय तथा नंदी में प्रस्तुत आगम के प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख मिलता है । समवाय के अनुसार सूत्रकृतांग में स्वसमयपरसमय की सूचना, जीव-अजीव की सूचना, लोक-अलोक तथा जीव-अजीव आदि नौ पदार्थों की सूचना दी गई है। नवदीक्षित श्रमणों की दृष्टि परिमार्जित करने के लिए १८० क्रियावादी दर्शनों, ८४ अक्रियावादी दर्शनों, ६७ अज्ञानवादी दर्शनों और ३२ विनयवादी दर्शनों की व्यूह-रचना कर स्वसमय की स्थापना की गई है। नंदी में प्रतिपाद्य विषय का विवरण संक्षिप्त है। उसमें जीव-अजीव आदि नौ पदार्थों की सूचना का उल्लेख नहीं है। उसमें स्वसमय की स्थापना का उल्लेख है, किन्तु नवदीक्षित की दृष्टि परिमार्जित करने की कोई चर्चा नहीं है। प्रस्तुत आगम मूलतः आचार-शास्त्र है । 'अंग और अनुयोग' शीर्षक में यह बताया जा चुका है। आचार की पृष्ठभूमी को समझाने के लिए दूसरे दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण किया गया है, वह प्रासंगिक है, किन्तु मौलिक विषय आचार-निरूपण निर्यक्तिकार ने सूत्रकृत के प्रत्येक अध्ययन के विषय का प्रतिपादन किया है। उससे भी इसका मुख्य विषय आचारशास्त्रीय प्रमाणित होता है। १. समवाओ, पहण्णगसमवाओ, सू०६० : छत्तीसं पदसहस्साई पयग्गेणं । २. (क) षट्खंडागम, धवला, भाग १, पृ० ६६ । (ख) कसायपाहुड, जयधवला, भाग १, पृ० १२२ । ३. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०६०। ४. नंदी, सू० ८२। Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] नियुक्तिकार के अनुसार अध्ययनों के प्रतिपाद्य इस प्रकार हैं१. स्वसमय-परसमय का निरूपण २. सम्बोधि का उपदेश ३. उपसर्गों [प्राप्त कष्टों की तितिक्षा का उपदेश ४. स्त्रीदोष का वर्जन-ब्रह्मचर्य साधना का उपदेश ५. उपसर्गभीरु और स्त्रीवशवर्ती मुनि का नरक में उपपात ६. भगवान महावीर ने जैसे उपसर्ग और परीसह पर विजय प्राप्त की, वैसी ही उन पर विजय पाने का उपदेश ७. कुशील का परित्याग और शील का समाचरण ८. वीर्य का बोध और पंडितवीर्य में प्रयत्न ९. यथार्थ धर्म का निर्देश १०. समाधि का प्रतिपादन ११. मोक्षमार्ग का निर्देश १२. चार वादि-समवसरणों-दार्शनिकों के अभिमत का प्रतिपादन १३. यथार्थ का प्रतिपादन १४. गुरुकुलवास का महत्त्व १५. आदानीय-चारित्र का प्रतिपादन १६. पूर्वोक्त विषय का संक्षेप में संकलन-निर्ग्रन्थ आदि की परिभाषा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का विषय-निरूपण इस प्रकार है१. पुंडरीक के दृष्टान्त द्वारा धर्म का निरूपण २. क्रियाओं का प्रतिपादन ३. आहार का निरूपण ४. प्रत्याख्यानक्रिया का निरूपण ५. आचार और अनाचार का अनेकान्तदृष्टि से निरूपण ६. आर्द्रकुमार का गोशालक आदि श्रमण-ब्राह्मणों से चर्चा-संवाद' ७. गौतम स्वामी और पापित्यीय उदक पेढालपुत्र का चर्चा-संवाद अंग साहित्य में आचार-निरूपण विभिन्न सन्दर्भो में किया गया है। आचारांग प्रथम अंग है। उसमें वह अध्यात्म के सन्दर्भ में किया गया है। सूत्रकृत दूसरा अंग है। इसमें वह दार्शनिक मीमांसा के सन्दर्भ में किया गया है । इसमें संदर्भ का परिवर्तन हआ है, १. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा २२-२६ : ससमयपरसमयपरूवणा य णाऊण बुझणा चेव । संबुद्धस्सुवसग्गा थीदोसविवज्जणा चेव ॥ उवसग्गमीरुणो थीवसस्स णरएसु होज्ज उववाओ। एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएज्जाह ॥ णिस्सील-कुसीलजढो सुसीलसेवी य सीलवं चेव । णाऊण वीरिययुगं पंडियवीरिए पयतितम् ॥ धम्मो समाहि मग्गो समोसढा चउसु सम्ववादीसु । सीसगुणदोसकहणा गमि सदा गुरुनिवासो॥ आयाणिय संकलिया आयाणिज्जम्मि आयतचरितं । अप्परगंथे पिडिकवयणे गाधाए अहिगारो॥ २. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १६५ किरियाओ मणियाओ किरियाठाणंति तेण अज्झयणं । अहिगारो पुण भणिओ बंधे तह मोक्खमग्गे य॥ ३. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १६० : अज्जद्दएण गोसालभिक्खुबंभवतीतिदंडीणं । जह हस्थितावसाणं कहियं इणमो तहा बुग्छ । Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] मुख्य प्रतिपाद्य परिवर्तित नहीं हुआ है । दिगम्बर साहित्य में प्रस्तुत सूत्र का विषय-वर्णन इस प्रकार मिलता है सूत्रकृत में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का निरूपण किया गया है। यह आचर्य अकलंक का प्रतिपादन है। आचार्य वीरसेन ने धवला में उक्त प्रतिपादन किया है। उसमें स्वसमय-परसमय की प्ररूपणा का प्रतिपादन इससे अति जयधवला में उन्होंने (आचार्य वीरसेन ने) प्रस्तुत आगम का विषय-वर्णन भिन्न प्रकार से किया है। उसके अनुसार सूत्रकृत में स्वसमय, परसमय तथा स्त्रीपरिणाम-लीबता, अस्फुटता, कामावेश, विभ्रम, आस्फालनसुख, पुंस्कामिता आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण किया गया है। समीक्षा दोनों परम्पराओं में जो विषय-वस्तु का वर्णन है, उससे वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग पर पूर्ण प्रकाश नहीं पड़ता । सूत्रकृतांगनिर्यक्ति का विषय-वर्णन इसका अपवाद है। उसकी रचना प्रस्तुत आगम की व्याख्या के लिए ही लिखी गई थी। इसीलिए उसमें प्रस्तुत आगम का अधिकृत और विशद विषय-वर्णन प्राप्त है। समवाय और नंदी में प्राप्त सूत्रकृत का विषय-वर्णन पढ़ने से मन पर पहला प्रभाव यही पड़ता है कि प्रस्तुत आगम दर्शनशास्त्रीय (द्रव्यानुयोग) ग्रन्थ है । उक्त दोनों विवरणों में स्त्रीपरिज्ञा आदि अध्ययनों में प्राप्त विषय-वस्तु का कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थराजवार्तिक के वर्णन में मुनि के आचार धर्म का उल्लेख है, किन्तु स्वसमय और परसमय के निरूपण का उल्लेख नहीं है । धवला में उक्त वर्णन के साथ-साथ स्वसमय और परसमय का भी उल्लेख है। जवधवला में स्त्रीपरिणाम का उल्लेख है, जो उपसर्गपरिज्ञा और स्त्रीपरिज्ञा अध्ययनों की ओर इंगित करता है। इन विभिन्न विषय-वर्णनों के अध्ययन के आधार पर दो निष्कर्ष निकाले जा तकते हैं १. विभिन्न आचार्यों ने अपनी-अपनी रुचि या दृष्टि के अनुसार मुख्य विषयों का संक्षेप में प्रतिपादन किया और गौण विषयों की उपेक्षा कर दी। २. प्रस्तुत आगम के प्राचीन रूप का परम्परा-प्राप्त विषय-वर्णन और अद्यतनरूप का विषय-वर्णन मिश्रित हुआ है । उस मिश्रण में कहीं प्राचीन विषय-वर्णन की प्रमुखता है और कहीं अद्यतन विषय-वर्णन की। यह प्रश्न फिर मन को आन्दोलित करता है कि समवाय और नंदी के संकलन काल में प्रस्तुत आगम का वर्तमान रूप स्थिर हो चुका था, जो श्रुतस्कन्ध और अध्ययनों की संख्या से स्पष्ट प्रतीत होता है, फिर उनमें स्त्रीपरिज्ञा आदि अध्ययनों की सूचना क्यों नहीं दी गई ? क्या संकलन-काल में उनके सामने जो सूत्रकृत रहा, उसमें द्रव्य का प्रतिपादन प्रधान था ? क्या यह प्राप्त सूत्रकृत किसी दूसरी वाचना का है ? ये प्रश्न अभी पर्याप्तरूपेण आलोच्य हैं। बार्शनिक मत प्रस्तुत सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम तथा बारहवें अध्ययन में और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन में अनेक दार्शनिक मतों का उल्लेख मिलता है। आगमरचना की शैली के अनुसार दार्शनिक आचार्यों के नामो का उल्लेख नहीं है । केवल उनके सिद्धान्तों का प्रतिपादन और अस्वीकार है । वौद्धों के दीघनिकाय के 'सामञफलसुत्त' में जैसे तत्कालीन दार्शनिक मतवादों का वर्णन है, वैसे ही प्रस्तुत आगम में विभिन्न मतवादों का समवसरण है। उपनिषदों में भी यत्र तत्र इन मतवादों का उल्लेख है । श्वेताश्वतर १. तत्त्वार्थराजवातिक १।२० : सूत्रकृते ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोपस्थापनाव्यवहारधर्मक्रियाः प्ररूप्यन्ते । २. षट्खंडागम, धवला भाग १, पृ. ६८ : सूदयदं णाम अंगं छत्तोस-पय-सहस्सेहिं गाणाविणयपण्णवणा-कप्पाकप्प-च्छेदोवट्ठाण-ववहार धम्म-किरियाओ परवेइ ससमय-परसमय-सरूवं च परवेइ । ३. कषायपाहुड, जयधवला भाग १, पृ०१२२ : सूक्यवं णाम अंगं ससमयं परसमयं थोपरिणाम-क्लैब्यास्फुरत्व-मवनावेश-विभ्रमास्फालन सुख-पुंस्कामिताबिस्त्रीलक्षणं च प्ररूपयति । ४. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू०६०: वो सुयक्खंघा, तेवीसं अज्झपणा। (ब) नंदी सू० १८२ : दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा । Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] उपनिषद में कालवाद, स्वभाववाद नियतिवाद, छावाद आदि की चर्चा है।' मैत्रायणी उपनिषद् में कालवाद की स्पष्ट मान्यता प्रदर्शित है । उस समय में ये विभिन्न वाद बहुत प्रचलित थे । अतः तत्कालीन सभी परम्पराओं के साहित्य में उनका उल्लेख होना स्वाभाविक है। महावीर और बुद्ध का युग सम्प्रदायों की बहुलता का युग रहा है। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसूत्त में ६२ मतवाद वर्णित हैं । प्रस्तुत सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के बारहवें अध्ययन में चार वादों का वर्णन मिलता है' १. क्रियावाद २. अक्रियावाद मूल आगम में इनके भेदों का उल्लेख नहीं हैं। निर्मुक्तिकार ने इन चार वादों के ३६३ भेदों का उल्लेख किया है । समवाय में आए हुए सूत्रकृत के विवरण में भी इनका उल्लेख है, जो पहले बताया जा चुका है। इससे इतना स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के युग में मतवादों की बहुलता थी। वीरसेनाचार्य के अनुसार इन ३६३ मतवादों का वर्णन दृष्टिवाद का विषय है । उन्होंने घवला में लिखा है--दृष्टिवाद में ३६३ दृष्टियों का निरूपण और निग्रह किया जाता है ।" जयवता में उन्होंने लिखा है- दृष्टिवाद के सूत्र नामक दूसरे प्रकार में नास्तिवाद कियाबाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद और वैनयिकवाद का वर्णन है । ३. अज्ञानवाद ४. विनयवाद समवाय तथा नंदी में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है । नंदी की चूर्ण तथा वृत्ति में इसका कोई वर्णन नहीं है फिर भी दृष्टिवाद नाम से ही यह प्रमाणित होता है कि उसमें समस्त दृष्टियों - दर्शनों का निरूपण है । दृष्टिवाद द्रव्यानुयोग है । तत्त्वमीमांसा उसका मुख्य विषय है। इसलिए उसमें दृष्टियों का निरूपण होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत सूत्र में दृष्टियों का प्रतिपादन मुख्य विषय नहीं है, किन्तु आचार-स्थापना की पृष्ठभूमि में विभिन्न दर्शनों के दृष्टि कोणों को समझना आवश्यक है। इस दृष्टि से वह प्रासांगिक रूप में वर्णित है । भ० महावीर के युग में ३६३ मतवाद थे यह समवायगत सूत्रकृतांग के विवरण तथा सूत्रकृतांगनियुक्ति से ज्ञात होता है । किन्तु उन मतवादों तथा उनके आचार्यों के नाम वहां उल्लिखित नहीं हैं । उत्तरवर्त्ती व्याख्याकारों ने ३६३ मतवादों को गणित की प्रक्रिया से समझाया है, किन्तु वह मूलस्पर्शी नहीं लगता। ऐसा प्रतीत होता है कि ३६३ मतों की मौलिक अर्थ-परम्परा विच्छिन्न होने के पश्चात् उन्हें गणित की प्रक्रिया के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है । श्वेताम्बर और दिगम्बर- दोनों के साहित्य में किञ्चित् प्रकार-भेद के साथ वह प्रक्रिया मिलती है। उसके लिए आचारांग वृत्ति १|१|१|४, स्थानांगवृत्ति ४/४/३४५, प्रवचनसारोद्वार गाथा ११८८, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७८७ ८८४-८ द्रष्टव्य हैं । १. श्वेताश्वतर उपनिषत् १०२; ६ । १ । २ मैत्रायणी उपनिषत् ६०१४, १५ । ३ सूयगडो १।१२।२ । ४. सूत्रकृतांगनिर्युक्ति गाथा ११२, ११३ : असिवसयं किरियाणं, अक्किरियाणं च होइ चुलसीती । अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा || तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वण्णिया इहऽज्भयणे । समावणिच्छत्थं समोसरणमाहु तेणं ति ॥ ५. पृ० १०८ एव दृष्टितानां त्रयाणां वित्तराणं प्ररूपणं निग्रहश्व दृष्टिवादे किय ६. कसायपाहुड, जयधवला, पृ० १३४ : जं सुत्तं णाम तं जीवो अबंधओ अकत्ता णिग्गुणो अभोत्ता सओ अणुमेत्तो णिच्चेयणो सपयासओ परप्पयासओ णत्थि जीवो त्ति य णत्यिपवादं, किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवादं अणेयपयारं गणिदं च वण्णेदि । "अस किरिया अविकरियाच आपुलसीदि।" ससागीणं वेगइया बत्तीसं ॥६६॥ एटीएमहाए गितितितिसमवायं वण्णणं कुर्यादि ति मणि होदि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] बौद्धों ने भी आधारभूत दस वादों की नामोल्लेखपूर्वक चर्चा की है, जैसे१. शाश्वतवाद ६. मरणान्तर होशवाला आत्मा २. नित्यता-अनित्यता-वाद ७. मरणान्तर बेहोश आत्मा ३. सान्त-अनन्त-वाद ८. मरणान्तर न-होशवाला न-बेहोश आत्मा ४. अमराविक्षेप-वाद ६. आत्मा का उच्छेद ५. अकारणवाद १०. इसी जन्म में निर्वाण । दीघनिकाय में इन दस वादों के विभिन्न कारणों का उल्लेख कर ६२ भेद किए गए हैं।' जन परम्परा के आदि-साहित्य में ये भेद तत्कालीन मतवादों के रूप में संकलित कर दिए गए थे। किन्तु उत्तरवर्ती साहित्य में उनकी परम्परागत संख्या प्राप्त रही, उनका प्रत्यक्ष परिचय नहीं रहा, इसीलिए उस संख्या की संगति गणित की प्रक्रिया से की गई। क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी दार्शनिकों के ये चार वर्गीकरण थे। इनमें अनेक मुख्य और गौण सम्प्रदाय थे । कुछ-कुछ विचारभेद को लेकर उनका निर्माण हुआ था। स्थानांगसूत्र में आठ अक्रियावादी सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है१. एकवादी ५. सातवादी २. अनेकवादी ६. समुच्छेदवादी ३. मितवादी ७. नित्यवादी ४. निर्मितवादी ८. असत्परलोकवादी ये अक्रियावादियों के मुख्य सम्प्रदाय ज्ञात होते हैं । व्याख्या ग्रन्थों में यत्र तत्र अन्य नाम भी मिलते हैं, किन्तु उनकी व्यवस्थित नामावलि या परिचय आज प्राप्त नहीं है। आचार्य अकलंकदेव ने इन चारों वर्गों के आचार्यों के कुछ नामों का उल्लेख किया है।' क्रियावादी दर्शनों के आचार्य १. कोत्कल, २. काणेविद्धि [कांडेविद्धि, कंठेविद्धि], ३. कौशिक, ४. हरिश्मश्रु , ५. मांछयिक [मांधयिक, मांधनिक], ६. रोमस, ७. हारीत, ८. मुंड, ६. अश्वलायन । अक्रियावादी दर्शनों के आचार्य १. मरीचिकुमार, २. कपिल, ३. उलूक, ४. गार्य, ५. व्याघ्रभूति, ६. वाद्धलि, ७. माठर, ८. मौद्गलायन । अज्ञानवादी दर्शनों के आचार्य १. शाकल्य, २. वाल्कल, ३. कुथुमि, ४. सात्यमुद्रि, ५. नारायण [राणायन], ६. कंठ, [कण्व], ७. मध्यंदिन, ८. मौद, ६. पप्पलाद, १०. वादरायण, ११. अंबष्ठीकृद् [स्वेष्टकृत्, स्विष्टिकृत्], १२. औरिकायन [ऐतिकायन, अनिकात्यायन], १३. वसु, १४. जैमिनि। विनयवादी दर्शनों के आचार्य १. वशिष्ठ, २. पाराशर, ३. जतुकणि, ४. वाल्मीकि, ५. रोमर्षि, ६. सत्यदत्त, ७. व्यास, ८. ऐलापुत्र, ६. औपमन्यव, १०. ऐन्द्रदत्त, ११. अयस्थूण । आचार्य वीरसेन की धवला टीका और सिद्धसेनगणी की तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका' में भी क्वचित् किञ्चित् परिवर्तन के १. बीघनिकाय-ब्रह्मजालसुत्त पृ० ५-१५ । २. स्थानांग दा२२। ३. तत्त्वार्थराजवात्तिक १२२० । ४. षट्खंडागम भाग १, पृ० १०७-१०८ । ५. तत्त्वार्थमाण्यानुसारिणी टीका, अध्याय) Jain Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] साथ ये नाम मिलते हैं । धवला और भाष्यानुसारिणी में उक्त नामसूचि आचार्य अकलंक की सूचि के आधार पर संकलित की गई है-ऐसा प्रतीत होता है । श्वेताम्बर साहित्य में भाष्यानुसारिणी टीका के अतिरिक्त कहीं भी यह नामसूचि प्राप्त नहीं है। दिगम्बर साहित्य में भी आचार्य अकलंक से पूर्व वह प्राप्त नहीं है। उन्हें वह कहां से प्राप्त हुई, इसका भी प्रमाणपुरस्सर उत्तर दे पाना कठिन है। उक्त सूची में अधिकांश नाम वैदिक परम्परा के आचार्यों के प्रतीत होते हैं। श्रमण-परम्परा के आचार्यों के नाम नगण्य हैं या नहीं हैं, यह अनुसन्धेय है। प्रस्तुत सूत्र (सूत्रकृतांग) के अनुसार क्रियावाद आदि चारों वाद श्रमण और वैदिक दोनों में थे। 'समणा माहणा एगे' इस वाक्य के द्वारा स्थान-स्थान पर यह सूचना दी गई है । श्रमण परम्परा के अद्य प्राप्त दोनों मुख्य सम्प्रदाय- जैन और बौद्ध - जगत् के अकृत या अनादि होने के पक्ष में हैं । किन्तु उस समय श्रमण सम्प्रदाय भी जगत् को अंडकृत मानते थे।' प्रस्तुत सूत्र की रचनाशैली के अनुसार 'एगे' शब्द के द्वारा विभिन्न मतवाद निरूपित किए गए हैं। किन्तु कहीं-कहीं दर्शन के नाम का प्रत्यक्ष उल्लेख भी मिलता है । क्षणिकवादी बौद्धों के लिए 'क्षणयोगी' शब्द का प्रयोग मिलता है।' द्वितीय श्रुतस्कन्ध में बौद्ध शब्द भी मिलता है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में बुद्ध और बौद्ध दोनों का प्रयोग हुआ है।' सूत्रकार के सामने बौद्ध साहित्य रहा है, ऐसा प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त शब्दों से प्रतीत होता है। उदाहरण रूप में यहां तीन शब्द प्रस्तुत हैं (१) खंध (स्कन्ध)-पंच खंधे वयंतेगे ।' (२) धाउ (धातु)-पुढवी आऊ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ। चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु जाणगा।' (३) आरोप्प (आरोग्य)-भवंति आरोप्प महंत सत्ता।' बौद्धपिटकों के अनुसार स्कन्ध पांच होते है - १. रूप-स्कन्ध, २. वेदना-स्कन्ध, ३. संज्ञा-स्कन्ध, ४. संस्कार-स्कन्ध, ५. विज्ञान-स्कन्ध । बौद्धपिटकों में पृथ्वी आदि चार महाभूतों को धातु कहा गया है।' दीघनिकाय में भव के तीन प्रकार बतलाए गए हैं - काम-भव-पार्थिव लोक । रूप-भव--अपार्थिव साकारलोक । अरूप-भव-निराकार लोक । सूत्रकार द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्षों के अध्ययन से पता चलता है कि उपनिषद् तथा सांख्य दर्शन के ग्रन्थ भी उनकी दृष्टि के सामने रहे हैं । सांख्य के पचीस तत्त्वों में प्रकृति और पुरुष-ये दो मुख्य हैं । प्रकृति के अर्थ में प्रधान शब्द का प्रयोग सांख्य दर्शन १. सूयगडो, १११६७ : माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे । २. वही, १११।१७ : पंच खंधे वयंतेगे, बाला उ खणजोइणो। ३. वही २।६२८ : बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए। ४ वही, १।११।२५ : तमेव अविजाणता अबुढा बुद्धवादिणो । बुद्धा मो ति य मण्णंता अंतए ते समाहिए। ५. वही, १।१।१७। ६. वही, १०१।१८। ७. वही, २०६।२६। ८. दीघनिकाय पृ० २६०। ६ वही, पृ० ७६। १०. वही, पृ० १११॥ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] में मिलता है। सूत्रकार ने उसका प्रयोग किया है। कठोपनिषद् में एकात्मवाद और नानात्मवाद का दृष्टान्तपूर्वक वर्णन है।' सूत्रकृतांग ११ का नौवां श्लोक उसके सन्दर्भ में पठनीय है । 'विष्णू नाणा हि दीसए' (सूत्रकृतांग १।१।६) का आधार 'एक रूपं बहुधा यः करोति'-कठोपनिषद् ५॥१२) रहा है। सूत्रकार के सम्मुख गोशालक, संजयवेलट्ठिपुत्र, पकुधकात्यायन आदि श्रमण परम्परा के आचार्यों का साहित्य भी रहा है। प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त शब्दों के आधार पर इसकी निश्चित सम्भावना की जा सकती है। बारहवें अध्ययन में 'वंझ' शब्द है। इसका आशय यह है कि पकुधकात्यायन के अकृततावाद के अनुसार सात काय वन्ध्य-कूटस्थ होते हैं। दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी यही शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत आगम में अनेक समीक्षणीय स्थल हैं। यहां उनकी ओर एक इंगित मात्र किया गया है। रचनाकार और रचनाकाल पारंपरिकदृष्टि से यह सम्मत है कि द्वादशांगी की रचना गणधारों (भगवान् महावीर के ग्यारह प्रधान शिष्यों) ने की थी। इस सम्मति के अनुसार सूत्रकृतांग गणधरों की रचना है। किन्तु वर्तमान में कोई भी अंग अविकलरूप में प्राप्त नहीं है। आज जो भी प्राप्त है वह उत्तरकाल में संकलित है। संकलनकार के रूप में वर्तमान आगमों के रचनाकार देवधिगणी हैं। प्रो० विंटरनीत्स का अभिमत है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है, उसकी तुलना में द्वितीय श्रुतस्कन्ध अर्वाचीन है। उसके अनुसार प्रथम श्रुतस्कन्ध एक व्यक्ति की रचना है। इसकी सम्भावना अधिक है कि वह किसी संग्राहक के द्वारा विभिन्न पद्यों और उपदेशों का संग्रह करतैयार किया हुआ संगृहीत ग्रन्थ है। दूसरा श्रुतस्कन्ध गद्य में लिखा हुआ है । वह अव्यवस्थित ढंग से एकत्र किए गए परिशिष्टों का समूह मात्र है। किन्तु भारतीय धामि सम्प्रदायों का जीवन-बोध कराने की दृष्टि से वह भी महत्त्वपूर्ण है। प्रो० विटरनीत्स के इस अभिमत से सहमति प्रगट की जा सकती है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसकी तुलना में अर्वाचीन है। भाषा, शब्द-प्रयोग और रचनाशैली की दृष्टि से आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भांति सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन प्रतीत होता है । आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध जैसे प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में उत्तरकाल में उसके साथ जोड़ा गया है, वैसे ही सूत्रकृतांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में उत्तरकाल में उसके साथ जोड़ा गया है । आचारांग की चूलिका का 'आयारचूला' के रूप में स्पष्ट उल्लेख है, वैसे सूत्रकृतांग चूलिका का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । किन्तु द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट भाग है, इस तथ्य से नियुक्तिकार परिचित थे। महाध्ययन शब्द के द्वारा यह तथ्य ज्ञात होता है । चूर्णिकार ने नियुक्तिकार के आशय को थोड़ा स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन छोटे हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययन बड़े हैं। नियुक्तिकार के आशय को शीलांकसूरी ने बहुत स्पष्ट किया है। उनके सष्टीकरण से यह प्रतीत होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट है। उन्होंने लिखा है-प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो विषय संक्षेप में निरूपित किया गया है वही विषय द्वितीय श्रुतस्कन्ध में युक्तिपूर्वक विस्तार से निरूपित है। उनके मतानुसार संक्षेप और विस्तार-दोनों पद्धतियों द्वारा निरूपित विषय समीचीन रूपेण १. सांख्यकारिका, २२ । २. सूयगडो, १।१।६५ : पहाणाई तहावरे । ३. कठोपनिषद् ५।६, १०, १२ । ४. दीघनिकाय २२॥ ५. History of Indian Literature, Part II, Page 441. ६. सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा, १४२, १४३ : णाम ठवणादविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु महतंमि निक्लेवो छविहो होति । णामं ठवणादविए खेत्ते कले तहेब भावे य । एसो खलु अज्झयणे निक्लेवो छविहो होति ।। ७. सूत्रकृतांगणि पृ० ३०८ : गाहासोलसगाई खुड्डलगाई, तहज्यणाई इमाई, महत्तरियाई महंति अज्झयणाई, अहवा महंति च ताई अवझयणाइं च महज्झयणाई। Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] प्रतिपादित होता है।" ये परिशिष्ट किसी एक आचार्य के द्वारा लिखित हैं या भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा इसका निर्णय करना सरल नहीं है । आचारांग के साथ जिस प्रकार आचारचूला का सम्बन्ध प्रदर्शित है उसी प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों के साथ द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों का सम्बन्ध प्रदर्शित नहीं है। फिर भी समग्रदृष्टि से प्रदर्शित सम्बन्ध के द्वारा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध के वार्तिक या परिशिष्ट की कोटि में रखा जा सकता है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों में पांच अध्ययन गद्य में हैं । आदर्शों में उनका आकार बहुत ही संक्षिप्त है । उस संक्षेप के कारण वे बहुत दुर्बोध बन गए । उन्हें पढ़ने पर सहज ही पाठक के मन पर उनके अव्यवस्थित होने का प्रभाव हो सकता है। किन्तु पाठ की पूर्णता करने पर वह प्रभाव नहीं हो सकता है । यदि प्रो० विटरनीत्स के सामने प्रस्तुत पुस्तक का पाठ होता तो सम्भवतः उनकी उक्त धारणा नहीं बन पाती । प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना सुधर्मा स्वामी की है, अतः इसका कालमान ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दी होना चाहिए। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकार के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है । अतः इसका रचनाकाल निश्चित करना भी कठिन है । वह ईस्वी सन् पांच सौ पूर्व की रचना है, यह इस आधार पर कहा जा सकता है कि देवधिगणी के सामने यह प्राप्त था। इसमें मागधी के कुछ विशेष प्रयोग मिलते हैं, जैसे—- अकस्मा, अस्माकं । प्राकृत की दृष्टि से इनके स्थान में 'अकम्हा, अम्हं' का प्रयोग होना चाहिए था । शीलांकसूरी ने इस विषय में लिखा है कि मगध देश में ग्वालों तथा स्त्रियों के द्वारा भी ये शब्द संस्कृत की भांति प्रयुक्त किए जाते हैं, इसलिए उनका वैसे ही प्रयोग किया गया है।' इन शब्द प्रयोगों से ज्ञात होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना, मगध में जैन साघु विहार कर रहे थे, उसी समय में हुई या उसके आसपास में हुई । जैन साधुओं का बिहार मुख्यरूपेण बंगाल, बिहार आदि में होता था। ईसापूर्व तीसरी चौथी शताब्दी में घुतकेवली भइया हजारों साधुओं के साथ दक्षिण भारत में चले गए। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में नकेवली स्थूलभद्र के उत्तराधिकारी आर्य महानिरि और सुहस्ती मालवा में विहार करने लगे । ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में मगध में मौर्यवंश का पतन हो गया। बृहद्रथ को मारकर उनके सेनानी पुष्यमित्र शुंग ने राज्य पर अधिकार कर लिया। पुष्यमित्र तथा शुंगवंश के शासनकाल में जैनों और बौद्धों को अपने मूल विहारक्षेत्र को बदलना पड़ा । विहारक्षेत्र परिवर्तन की भूमिका के संदर्भ में यह अनुमान किया जा सकता है कि सूत्रकृतांग के द्वितीय तस्कन्ध की रचना ईसापूर्व दूसरी शताब्दी के आसपास होनी चाहिए । रचनाशैली सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध पद्यशैली में लिखित है। सोलहवां अध्ययन गद्यशैली में लिखा हुआ प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह गद्यशैली में लिखित नहीं है । निर्युक्तिकार ने गाथा शब्द की मीमांसा करते हुए कुछ विकल्प प्रस्तुत किए हैं । उनमें लिखा है कि प्रस्तुत अध्ययन गेय है, वह गाथाछंद या सामुद्रछंद में लिखित है ।" १. सूत्रां द्वितीयस्तर वृत्ति पत्र १ इहानसर तस्कन्धे योऽर्थः समासतोऽमिहितः असावेवानेन भूतस्कन्धेन सोपपत्तिको व्यासेनाभिधीयते त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां समासव्यासाभ्यामभिधानमिति । यदि वा पूर्वश्रुतस्कन्धोक्त एवार्थोऽनेन दृष्टान्तद्वारेण सुखावगमार्थं प्रतिपाद्यत, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य श्रुतस्कन्धस्य सम्बन्धीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यन्ते । २ (क) सूत्रकृतां १ / २ / ६ वृत्ति पत्र ४८ वाकस्मावित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपासाङ्गनाविना संस्कृत एवोप्या इति । (२/७/१५ वृति पत्र १७३ अस्माकमित्येवम्मगधदेशे गोपालाङ्गनादिप्रसिद्धं संस्कृतमेवचार्यते तवापि तच्चारितमिति । ३. (क) सूत्रकृतांना १३१, १३२ मधुराभिधाणत्ता गालिबेति ॥ गाधीकता य अत्था अधवा सामुद्दएण छंवेणं । एएण होती गाधा एसो अण्णो वि पज्जाओ ॥ (ख) सूत्रकृतवृत्ति पत्र २७०, २०१ मधुरं श्रुतिपेशलमभिधानम् उच्चारणं यस्याः सा मधुराभिधानता, गाचाछन्दसोपनि यस्य प्राकृतस्य मधुरत्वादित्यभिप्रायः गीयते पठ्यते मधुराक्षरमवृष्या गायन्ति वा तामिति गाया यत एवमतस्तव कार गाथामिति तां ब्रुवते । णमिति वाक्यालङ्कारे एनां वा गाथामिति । अन्यथा वा निरुक्तिमधिकृत्याह - 'गाहीकया व' इत्यादि, 'गाथीकृताः' - पिण्डीकृता विक्षिप्ताः सन्त एकत्रमीलिता अर्था यस्यां सा गाथेति, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा सा चात्पुच्यते । ......... Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] द्वितीय श्रुतस्कन्ध का बड़ा भाग गद्यशैली में लिखित है। वह विस्तृत शैलो में लिखा हुआ है । उसमें यत्र तत्र रहस्यवादी शैली के वाक्य उपन्यस्त हैं जहा पुग्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुवं । (सू० २/१/५४) एत्थ वि सिया, एत्थ वि जो सिया । (सू० २/१/६०) प्रस्तूत भाग में रूपक और दृष्टान्तों का भी समीचीन प्रयोग किया गया है। प्रथम अध्ययन में पुण्डरीक का रूपक बहुत ही सुन्दर है। दष्टान्तों का प्रयोग अनेक स्थानों पर उपलब्ध है। इससे संवाद और प्रश्नोत्तर शैली का प्रयोग किया गया है। संवादशैली का एक सुन्दर उदाहरण दूसरे अध्ययन में मिलता है।' प्रथम श्रतस्कन्ध का यमकीय अध्ययन यमक अलंकार में लिखित है। यह आगम ग्रन्थों की काव्यात्मक शैली का विरल उदाहरण है। परिचय की दृष्टि से उसके दो श्लोक यहां उद्धत हैं भूतेसु ण विरुज्झज्जा एस धम्मे बुसोमओ। वसीम जगं परिण्णाय अस्सि जीवियमावणा ।। भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा सम्वदुक्खा तिउति ॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सूत्र और चूलिका (परिशिष्ट) तथा सूत्र और वृत्ति-ये दोनों संलग्नरूप में मिलते हैं। इस सम्बन्ध में चूर्णिकार और वृत्तिकार के संकेत बहुत मूल्यवान् हैं । इनके आधार पर अन्य आगमों में भी इस पद्धति की सम्भावना की जा सकती है। यह आगमिक अध्ययन का व्यापक दृष्टिकोण है, जो सब आगमों के अध्ययन के लिए उपयोगी है। इससे तभयागम की दति स्पष्ट होती है । आगम के तीन प्रकार हैं- सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम । इस तीसरे प्रकार में सूत्र और अर्थ दोनों साथ-साथ होते हैं। समीक्ष्यमाण सूत्र इसका श्रेष्ठ और स्पष्ट उदाहरण है। दूसरे श्रुतस्कन्ध का दूसरा अध्ययन 'क्रियास्थान' है। उसका विषय सत्रहवें सूत्र तक समाप्त हो जाता है। इस प्रकार दूसरा अध्ययन भी वहीं समाप्त हो जाता है । उससे आगे ६४ सूत्र और हैं। वे प्रस्तुत अध्ययन की चूलिका (परिशिष्ट) के रूप में हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। स्वयं सत्रकार ने भी 'अदुत्तरं' शब्द के द्वारा उसकी सूचना दी है। व्याख्याग्रन्थों के अनुसार जैसे चिकित्साशास्त्र में मूलसंहिता में-श्लोकस्थान, निदान और शारीर चिकित्सा में जो प्रतिपादित नहीं है वह उत्तरसंहिता में प्रतिपादित है। रामायण आदि के भी जैसे उत्तर हैं, वैसे ही जो प्रस्तुत अध्ययन (क्रियास्थान) में प्रतिपादित नहीं है वह इस उत्तर भाग में प्रतिपादित है। इसलिए यह आचारचूला की भांति प्रस्तत अध्ययन का उत्तर भाग या चूलिका (परिशिष्ट) भाग है।' द्वितीयश्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन के १६ वें सूत्र की व्याख्या में चूणिकार ने सुत्र और वृत्ति का स्पष्ट विभाग प्रदर्शित किया है'सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा एवं एताणि संखेवेण सुत्ताई वुत्ताई, एतेसि इवाणि सत्तेण चेव वित्ती भण्णति, जहा वेतालिए, चत्तारि विणयसमाधिट्टाणा उच्चारेतुं पच्छा एक्केक्कस्स विभासा, जहा वा उक्खित्तणाए संघाडेत्ति उच्चारेऊण पवाणि एक्केक्कस्स अज्झयणं वृच्चति, दिट्टिवाते सुत्ताणि भाणिऊण पच्छा सव्वो चेव दिट्ठिवातो, तेसि सुत्तपदाणं एतेण चेव वृत्तिर्भवति । दृत्ति के उपसंहार में चूणिकार ने लिखा है-उक्ता वृत्तिः । वृत्तिकार ने सूत्र और वृत्ति का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, १. देखें-२/२/७७ । २. सूयगडो, १/१५/४,५। ३. (क) सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ३५३ : अवुत्तरं च ण तेभ्यः क्रियास्यानेभ्यः अथ उत्तरं अदुत्तरं, यथा वैद्यसंहितानां उत्तरं जं मूलसंहितासु श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्साकल्पेषु च यत् ययोपविष्टं च, यथोपदिष्टं सदुत्तरोऽभिधीयते, रामायणछन्दोपद्विततमावीणंपि उत्तरं अत्थि, एवमिहापि तेरससु किरियाढाणेसु जं वृत्तं अधम्मवक्कस्स अणुवसमपुवकं उत्तरं उवेति । (ख) सूत्रकृतांग द्वितो पश्रुतस्कन्धवृत्ति, पत्र ५६ : अस्मात्त्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनादुत्तरं यवत्र न प्रतिपादितं, तबधुनोत्तरभूतेनानेन सूत्रसंवर्भण प्रतिपाद्यते, यथाऽऽचारे प्रथनश्रुतस्कन्धे यन्नाभिहितं तदुत्तरभूताभिश्चूलिकाभिः प्रतिपाद्यते; तथा चिकित्साशास्त्रे मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्सितकल्पसंज्ञकायां यन्नाभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एवमन्यत्रापि छंबश्चित्यादा बुत्तरसद्भावोऽवगन्तव्यः, तदिहापि पूर्वेण यन्नाभिहितं तदनेनोत्तरग्रन्थेन प्रतिपाद्यते इति । ४. सूत्रकृतांगचूणि, पृ० ३५६ ।। ५. वही, पृ० ३५७ । Jain Education Intemational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] किन्तु उन्होंने वृत्ति का उल्लेख किया है' - तदेवमेतानि चतुर्दशादिस्य प्रत्येकमावितः प्रभृति विवृणोति । इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र की रचनाशैली में अनेक विधाएं निहित हैं । भाषा और व्याकरण-विमर्श प्रस्तुत आगम के भाषा प्रयोग प्राचीन और अनेकदेशीय हैं। इसमें व्याकरण के नियमों की प्रतिबद्धता भी कम है । इसमें प्राचीन शब्द प्रयोग भी मिलते हैं । वैदिक व्यवस्था के अनुसार चार आश्रमों में पहला ब्रह्मचर्य आश्रम है। वहां ब्रह्मचर्य का अर्थ गुरुकुल हैं। चौदहवें 'ग्रन्थ' अध्ययन में ब्रह्मचर्य इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है- उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा (१/१४ / १) | आयसा (१/४/१/६) वसा (१/१२/१३ ) - कायता की भांति मागधी के विशेष प्रयोग है। व्याकरण विषयक संकेत पांचवें परिशिष्ट में दिए गए हैं। उदाहरण स्वरूप कुछेक यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जैसेएवंद्विया (१।३२) इसमें तीन शब्द हैं- एवं+अपि+ उयडिया द्विपदसंधि के अनेक प्रयोग मिलते हैं, जैसे- चितव (११८३) – चिट्ठांत +अदुव; मुहमंगलिओदरियं ( ७।२५ ) - मुहमंगलिओ + ओदरियं । छंद की दृष्टि से दीर्घं के स्थान पर ह्रस्व के प्रयोग मिलते हैं, जैसे--पिट्ठओ के स्थान पर 'पिट्ठउ' (५।२६), महंतीओ के स्थान पर 'महंतीउ' (५।३६), समाहीए के स्थान पर 'समाहिए' (३।४७) । यत्र-तत्र संधि और वर्णलोप के संयुक्त प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे- सद्दहंताडाय ( ६।२९ ) - सद्दहंता + आदाय यहां 'दा' का लोप किया गया है । गारवं ( १३ | १२ ) - यहां गारववं होना चाहिए । 'जराउ' (७।१) यह विभक्ति रहित पद है और यहां 'या' का लोप किया गया है—जराउया । विभक्ति रहित पद-प्रयोगों के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जैसे—पाण (२०७५), गिद्ध (३०३९), पाव (५।१६), तणरुक्ख ( ७११) । वचन व्यत्यय तथा विभक्ति-व्यत्यय के प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे- बहुस्सुए, धम्मिए, माहणे, भिक्खुए (२७) । यहां सर्वत्र बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग है । इत्थीसु (४।१२) यहां तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग है । गतिरागती ( १३ / १८ ) यहां विसर्ग का रकारीकरण संस्कृत के समान है । व्यञ्जन परिवर्तन के कारण कहीं-कहीं अर्थ- बोध की जटिलता भी उत्पन्न हो जाती है । उदाहरण के लिए प्रथम श्रुतस्कन्ध के चौदहवें अध्ययन के १६ वें श्लोक का चतुर्थ चरण प्रस्तुत किया जा सकता है। आदर्शों में उसके प्रकार मिलते हैं - १. ण यासियावाय वियागरेज्जा । २. ण यासिसाबाद वियागरेज्जा । चूर्णिकार ने इसका अर्थ आशीर्वाद या स्तुतिवाद किया है।" वृत्तिकार ने भी इसका यही अर्थ किया है।' 'आशिष' शब्द का प्राकृतरूप 'आसिसा' बनता है। आसिसा के द्वितीय सकार का लोप तथा यकारश्रुति करने पर 'आसिया' रूप बन जाता है। इसके पूर्व स्थानीय वकार है। इसलिए 'पासियावाय' के संस्कृतरूप व आशिर्वाद' और 'च अस्यादवाद' दोनों किए जा सकते हैं। इसी संभावना के आधार पर इसका अर्थ विद्वानों ने अस्याद्वाद किया, किन्तु यदि 'आसिसावाद' पाठ सामने होता तो यह कठिनाई नहीं आती। इस प्रकार की कठिनाई का अनुभव व्याख्याकारों को अनेक स्थलों पर करना पड़ा है और आज भी पड़ रहा है। व्याख्या-ग्रन्थ सूत्रकृतांग जैन परम्परा में बहुमान्य आगम रहा है। इसका दार्शनिक मूल्य बहुत है। इसमें भगवान् महावीर के समय का गंभीर चिन्तन अन्तर्निहित है। इस पर अनेक आचार्यों ने व्याख्याएं लिखी हैं। इसके प्रमुख व्याख्या-ग्रन्थ ये हैं १. नियुक्ति २. चूर्ण ३. वृत्ति, ४. दीपिका, ५. विवरण ६. स्तबक नियुक्ति यह सर्वाधिक प्राचीन व्याख्या-ग्रन्थ है । इसमें २०४ गाथाएं हैं। इसमें अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनाएं और संकेत हैं । शेष व्याख्याओं के लिए यह आधारभूत व्याख्या ग्रन्थ है । यह पद्यात्मक है और इसकी भाषा प्राकृत है। इसके कर्त्ता द्वितीय भद्रबाहु (वि० पांचवीं छुट्टी शताब्दी) हैं । १. सूत्रकृतांग, द्वितीयभूतस्कन्धवृत्ति पत्र ६२ । 3 २. -- ०२१३ "संतुस्ती" स्वातीति स्तुतियादनित्यर्थः ननन्दनादिभिस्तोषितो वात् आरोग्यमस्तु ते दीर्घायु तथा सुमना चाष्टा इत्येवमादीनि न व्याकरेत् । ३. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र २५५ : नापि चाशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो (बहुधर्मो ) दीर्घायुस्त्वं सूया इत्यादि व्यागुणीयात् । ४. हेमचन्द्र प्राकृतव्याकरण १/१५ स्वियामादविद्यतः । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णि निर्युक्ति के पश्चात् दूसरा व्याख्या-ग्रन्थ चूर्णि है । वह सूत्र के आशय को प्रकट करने में बहुत महत्त्वपूर्ण है । यह गद्यात्मक है और इसकी भाषा प्राकृत संस्कृत का मिश्रितरूप है। इसके कर्ता जिनदाराणि माने जाते हैं। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह समीक्षाणीय है । प्रस्तुत चूर्णि की शैली आचारांगचूर्णि के समान है। चूर्णिकार ने एक स्थान पर यह उल्लेख भी किया है 'ये द्वार जैसे आचार और कल्प (की चूणि) में प्ररूपित हैं, वैसे ही यहां प्ररूपित करने चाहिए ।" इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार, कल्प और सूत्रकृतांग की चूर्णियां एककर्तृक हैं । आचारांग और उत्तराध्ययन की चूर्णि का कर्ता एक ही व्यक्ति होना चाहिए, इसकी चर्चा हमने 'आयारो तह आयारचूला' की भूमिका में की है ।" वृत्ति यह तीसरा महत्वपूर्ण व्याख्या-ग्रन्थ है। इसमें स्थान-स्थान पर विषय का विशद विवेचन हुआ है। इसकी भाषा संस्कृत है । इसके कर्ता शीलांकसूरि हैं। इनका अस्तित्वकाल ई० ८वीं शती माना जाता है।" वृत्ति के प्रारम्भ में उन्होंने उसके निर्माण का प्रयोजन बतलाया है और पूर्ववृत्ति का संकेत किया है । प्रारम्भिक श्लोक इस प्रकार हैं [ २८ ] विवरण स्तबक स्वपरसमयार्थं सूचकमनन्तगमपर्ययार्थगुणकलितम् । सूत्रकृतमङ्गमतुलं विवृणोमि जिनान्नमस्कृत्य ॥ १ ॥ व्याख्यातङ्गमिह यद्यपि रित्या तथापि विवरीतुमहं यतिष्ये । कि पक्षिराजगतमित्यवगम्य सम्यक् तेनैव वाञ्छति पथा शलभो न गंतुम् ||२|| ये मय्यवज्ञां व्यधुरिद्धबोधा, जानन्ति ते किञ्चन तानपास्य । मत्तोऽपि यो मन्दमतिस्तथाऽर्थी, तस्योपकाराय ममैष यत्नः ॥३॥ १।३३, ३४, ३६, ४३, ५०, ५५, ६८, ७२, ७३, ७६ २१७, १८, ४/४५ ७ ११, १३, १५, १६,८८, १६, १६, २४; १७, २६; ११।१६, १७, ३२; १२।११, १३, १४।२२; १५।७ | दीपिका वृत्ति के अन्त में यह उल्लेख मिलता है कि प्रस्तुत वृत्ति शीलाचार्य ने वारिगणि की सहायता से की'कृता देवं शीलाचार्येण बाहरिगणसहायेन ।' वृत्ति के अंतिम श्लोक में वृत्तिकार ने पाठक के कल्याण की कामना की है raartaमत्र पुण्यं टीकाकारेण मया समाषिभृता । तेनापेततमस्को भव्यः कल्याणभाग् भवतु ॥ चूर्ण और वृत्ति में अनेक स्थलों में पाठभेद और अर्थभेद हैं । अर्थभेद के कुछ विशेष स्थल ये हैं इसकी भाषा संस्कृत है । इसके कर्ता उपाध्याय साधुरंग हैं। इसका रचनाकाल ई० १५४२ है । इसकी भाषा संस्कृत है । इसके कर्ता हर्षकुल हैं । इसका रचनाकाल ई० १८२६ हैं । इसकी भाषा गुजराती है । इसके कर्ता पार्श्व चन्द्रसूरि है । उक्त तीनों (दीपिका, विवरण और स्तबक) व्याख्याग्रन्थ वृत्ति पर आधृत और संक्षिप्त हैं । १. सूत्रकृतांगचूर्ण, पृ० ५ एताणि दाराणि जहा आयारे कप्पे वा परूविताणि तथा परूवेयव्वाणि । २. आयारो तह आयारचूला, भूमिका पृ० ३० । ३. आधारो तह आधारचूला, भूमिका, पृ० ३१। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार प्रस्तुत भूमिका में सूत्रकृतांग के विशाल और गंभीर विषय पर संक्षिप्त विमर्श किया गया है। इसमें ऐतिहासिक तथा दार्शनिक सामग्री प्रचुर मात्रा में हैं । उस पर विशद प्रकाश डालने का प्रयत्न टिप्पणों में किया गया है । जोधपुर (राजस्थान) १ सितम्बर, १९८४ [ ३० ] -आचार्य तुलसी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन १. बंधन और बंधन मुक्ति की जिज्ञासा २. दुःख का मूल —परिग्रह ३. हिंसा से बेर की वृद्धि ४. ममत्व और मूर्च्छा ५. कर्ममुक्ति का उपाय ६. विरति और अविरति का विवेक ७. पांच भूतों का निर्देश ८. पांच भूतों से आत्मा की उत्पत्ति ६- १०. एकात्मवाद की स्वीकृति और उसकी विप्रतिपत्ति ११-१२ तज्जीव- तच्छरीरवाद का स्वरूप और निष्पत्ति १३-१४. अक्रियावाद और उसकी विप्रतिपत्ति १५-१६. पांच महाभूतों के अतिरिक्त अजर-अमर आत्मा और लोक की स्वीकृति १७. बौद्ध सम्मत पांच स्कंधों से अतिरिक्त आत्मा का अस्तित्व नहीं १५. धातुवादी बौद्धों का मत १६-२७. बौद्ध दर्शन के एकान्तवाद से दुःख-मुक्ति के आश्वासन का निरसन २८-४०. नियतिवादी की स्थापना और दोषापत्ति ४१-५०. अज्ञानवाद की स्थापना और दोषापत्ति ५१-५५. बौद्धों का कर्मोंपचय विषयक दृष्टिकोण ५६ - ५६. कर्मोपचय सिद्धान्त की समीक्षा ६० - ६३. ६४. लोक देव या ब्रह्म द्वारा निर्मित ६५. लोक ईश्वरकृत विषय सूची पूतिकर्म आहार और उसके सेवन से होने वाले दोष ६६. लोक स्वयंभूकृत ६७. लोक अंडकृत ६८. लोक अनादि ६६. दुःखोत्पत्ति और दु:ख निरोध का ज्ञान ७०-७१. अवतारवाद की स्थापना ७२-७३. अपने अपने मत की प्रशंसा ७४-७५. सिद्धवाद की स्थापना और निष्पत्ति ७६. प्रावायुकों की वाचार-विचार विषयक विसंगति ७७. भिक्षु को तटस्थ रहने का निर्देश ७८. अपरिग्रह और अनारम्भ पथ का निर्देश ७६. आहार सम्बन्धी निर्देश ८०-८१. लोकवाद विषयक मान्यताएं ८२. मनुष्य परिमित - अपरिमित का कथन ८३-८५. अहिंसा की परिभाषा और पृष्ठभूमि ८६८८ भिक्षु की चर्या के निर्देश कुछ दूसरा अध्ययन १. सम्बोधि की दुर्लभता २. मृत्यु की अनिवार्यता ३. हिंसा विरति का उपदेश ४. कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं ५-६. जीवन की अनित्यता ७८. कर्म विपाक का अनुचिन्तन ६. आचार और माया १०-११. अहं द्वारा प्रवेदित अनुशासन १२. वीर कौन ? १३-१५. कर्मशरीर को कृश करने का निर्देश १६- १६. कौटुम्बिक व्यक्तियों द्वारा श्रमण को श्रामण्य से च्युत करने का प्रयास २०. मोह-मूढ़ता से पुनः असंयम की ओर प्रस्थान २१. महापथ के प्रति प्रणत होने का निर्देश २२. वैतालिक मार्ग के साधन २३-२४. मान विवर्जन का निर्देश २५. अधिकार नहीं, मुनिपद वन्दनीय २६-२७. समता धर्म का अनुशीलन २८-३०. समता धर्म की पृष्ठभूमि और उसका निरूपण ३१. धर्म का पारगामी कौन ? ३२. घर में कौन रहेगा ? ३३. वन्दना - पूजा है सूक्ष्म शल्य ३४-३८. एकलविहारी की चर्या ३६. सामायिक किसके ? ४०. राज संसर्ग असमाधि का कारण ४१. कलहू-विवर्जन का निर्देश ४२. गृहस्थ के भाजन में भोजन का निषेध ४३. मद न करने का कारण ४४. सहनशीलता का निर्देश Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] ४५-४६. कृतदाव से धर्म की तुलना ४७-४६. ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा और स्वाख्यात समाधि ५०. मुनि के लिये अकरणीय का विवेक ५१. कषाय-विजय से विवेक की उपलब्धि ५२. आत्महित की साधना के दुर्लभ अंग ५३-५४. महावीर की देन-सामायिक की परम्परा ५५. कर्म का अपचय कैसे? ५६. काममूर्छा और ऊर्ध्व (मोक्ष) दृष्टि ५७. पांच महाव्रत के धारक कौन ? ५८. महावीर की समाधि के अज्ञाता ५६-६०. कामैषणा का परिणाम ६१. असाधुता और शोक का अविनाभाव ६२. जीवन की अनित्यता का बोध ६३. हिंसा का परिणाम ६४. हिंसा की प्रवृत्ति का एक कारण-परलोक में संदेह ६५. द्रष्टा का वचन श्रद्धेय ६६. आत्म-तुला ६७. अगारवास में धर्म की परिपालना और निष्पत्ति ६८. सत्य का अनुसन्धान ६६. मोक्षार्थी की चर्या ७०-७१. अशरण भावना का चिन्तन ७२. अपना अपना कर्म ७३. बोधि का दुर्लभता ७४-७६. धर्म की त्रैकालिकता और निष्पत्ति का निर्देश ३७-३६. शिथिल व्यक्ति द्वारा भोग-निमंत्रण की स्वीकृति ४०-४१. अध्यात्म पथ में कायर की स्थिति ४२-४३. भविष्य का भय और ज्योतिष आदि का आलम्बन ४४. सन्देह की स्थिति ४५-४६. आत्महित साधक की परमवीर से तुलना ४७-५७. परतीथिकों के आरोप और उनका निराकरण ५८. बहुगुण उत्पादक चर्चा का निर्देश ५६-६०. रुग्ण-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश ६१-६५. अन्यान्य ऋषियों की चर्या को सुन, आत्म-विषीदन की स्थिति ६६-६८. सुख से सुख प्राप्ति की स्थापना और निरसन ६६-७७. अब्रह्मचर्य का समर्थन, निरसन और विपाक ७८. कामभोग की निवृत्ति से संसार-पारगामिता ___७६. संयतचर्या का निर्देश ८०. विरति, शान्ति और निर्वाण ८१-८२. रुग्ण-सेवा और उपसर्ग-सहन का उपदेश चौथा अध्ययन १-६. श्रामण्य से च्युत करने वाली स्त्रियों का चरित्र चित्रण १०. स्त्री-संवास से होने वाला अनुताप ११. स्त्री को विषबुझे कांटे की उपमा १२. तपस्वी और स्त्री-संवास १३-१६. स्त्री-परिचय और उससे होने वाली दोषापत्तियां १७. द्विपक्ष-सेवन की विडम्बना १८-१६. कुशील भिक्षु का आचरण और मनःस्थिति २०. प्रज्ञावान् का स्त्री-संवास २१-२२. व्यभिचार की फलश्रुति २३-२६. स्त्रियों की चंचल मनःस्थिति का चित्रण २७. स्त्रियों के संवास से श्रामण्य का नाश २८-२९. पाप का अपलाप ३०. अन्न-पान का प्रलोभन ३१. मोह-मूढ़ की दशा ३२-४६. स्त्री में आसक्त व्यक्ति की विडम्बना ५०. कर्मबंध का कारण-कामभोग का सेवन ५१. कामभोग भय-उत्पादक ५२. परक्रिया-स्त्री के स्पर्श का निषेध ५३. कामवांछा से मुक्त होने का निर्देश पांचवां अध्ययन १. सुधर्मा का नरक विषयक प्रश्न २. नरक का अभिवचन तीसरा अध्ययन १-३. लौकिक शूर और संयमी शूर की तुलना ४. शीत परीषह और मुनि ५. उष्ण परीषह और मुनि ६-७. याचना परिषह और मुनि ८. वध परीषह और मुनि ९-११. आक्रोश परीषह और मुनि १२. कठोर स्पर्श का परीषह और मुनि १३. केशलोच और ब्रह्मचर्य की दुश्चरता और मुनि १४-१६. वध और बन्धन से पराजित मुनि की मनःस्थिति १७. परीषह विजय का निर्देश १८-२८, ज्ञातिजनों द्वारा दिये जाने वाले अनुकूल परीषहों के प्रकार २६. ज्ञाति-सम्बन्ध पाताल की भांति दुस्तर ३०-३१. संग आश्रव और आवर्त से तुलित २३-३६. भोगों के लिये निमन्त्रण Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] ३-५. नरक-गमन की हेतुभूत प्रवृत्तियां ७. अग्नि का समारम्भ-सब जीवों का समारम्भ ६-७. नैरयिकों का दिशाभ्रम और करुण क्रन्दन ८. बनस्पति की हिंसा : अनेक जीवों की हिंसा ८-१०. वैतरणी नदी का त्रास ६. अनार्यधर्मा कौन ? ११-१२. असूर्य नरकावास का संताप १०-११. कुशील का विपाक-दर्शन १३. नैरयिकों को तपाना १२-१८. कुशील व्यक्तियों का दर्शन और उसका निरसन १४. संतक्षण नरकावास का दुःख १६. दृष्टि की परीक्षा १५-१६. कडाही में पकाना, असह्य दुःख-वेदन २०. संयम का अवबोध १७-१८, शीत नरकावास के दुःख २१. श्रामण्य से दूर कौन ? १६-२३. विविध प्रकार की वेदना २२. सचित्त परिहार २४-२५. रक्त तथा पीब से भरी कुम्भी में पकाना २३-२६. रस की आसक्ति का कु-परिणाम २६-२७. जैसा कर्म वैसा भार २७. अनासक्ति का अवबोध २८-३४. नरकपालों द्वारा दी जाने वाली वेदना का चित्रण २८. पांच कारणों से गुणवर्धन ३५. विधूम अग्निस्थान की वेदना २६-३०. मुक्ति का उपाय ३६. संजीवनी नरक भूमि की प्रताड़ना आठवां अध्ययन ३७. मानसिक ग्लानि की पराकाष्ठा ३८-३६. सदाज्वला वध-स्थान की वेदना १. वीर्य क्या और बीर कौन ? ४०-४३. वेदना के विविध प्रकार २. दो प्रकार के बीर्य ४४. वैतालिक पर्वत की विचित्रता ३. कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य की निष्पत्ति ४५-४७. बन्धन और आक्रन्दन ४-९. बालवीर्य या कर्मवीर्य का स्वरूप और फल-निष्पत्ति ४८. सदाजला नदी की दुर्गमता १०-२२. पण्डितवीर्य या अकर्मवीर्य का दर्शन, स्वरूप और ४६. पत्तेयं दुक्खं आचरण ५०. जैसा कर्म वैसा फल २३. अबुद्ध के पराक्रम की फलश्रुति ५१-५२. नरक की अप्राप्ति के हेतुभूत साधनों का निर्देश २४-२७. बुद्ध के पराक्रम, तप और संयम की फलश्रुति छठा अध्ययन नौवां अध्ययन १-२. जम्बू द्वारा ज्ञातपुत्र के ज्ञान, दर्शन और शील की १. धर्म की जिज्ञासा जिज्ञासा २-३. हिंसा और परिग्रह से दुःख-विमोचन नहीं ३. सुधर्मा द्वारा प्रदत्त समाधान ४. धन का विभाजन, कर्मी का छेदन ४-६. महावीर के ज्ञान, दर्शन और शील विषयक अभि ५-७. अशरण का अवबोध वचन ८-१०. मूलगुणों का निर्देश १०-१४. महावीर की मेरु पर्वत से तुलना ११-२४. उत्तरगुण-चर्या का विवेक १५-२४. विविध उपमाओं से महावीर का गुण-वर्णन २५-२७. भाषा का विवेक २५. अनन्तचक्षु महावीर २८. संसर्ग-वर्जन २६. अध्यात्म दोषों का पूर्ण विसर्जन २६-३२. श्रमण की चर्या २७. वाद-निर्णय और यावज्जीवन संयम की स्थिति ३३. आचार्य की उपासना २८. सर्ववर्जी महावीर ३४. पुरुषादानीय कौन ? २६. धर्म-श्रवण की फलश्रुति ३५. त्रैकालिक धर्म का स्वरूप ३६. सतत साधना का निर्देश सातवां अध्ययन १. षड्जीवनिकाय का निरूपण दसवां अध्ययन २-४. जीवहिंसा का परिणाम १-३. समाधि धर्म के कुछ निर्देश ५. कुशीलधर्मी का लक्षण ४. बंधन-मुक्ति का निर्देश ६. आग जलाने वाला और बुझाने वाला-दोनों हिंसक ५. पाप-कर्म का आवर्त सोमो हिसक Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] ६. स्थितात्मा का स्वरूप ७. कायर समाधि की साधना करने में असमर्थ ८-६. अज्ञानी मुनि की चर्या और विपाक १०. अनासक्ति का उपदेश ११. असमाधि के स्रोत (स्थूल शरीर) की कृशता १२. अकेलेपन की अभ्यर्थना १३. समाधि की प्राप्ति किसे ? १४. परीषह-विजय का निर्देश १५. गृहस्थोचित कर्म-वर्जन का निर्देश १६. समाधि धर्म के अज्ञाता १७. असंयमी के वर-वर्धन का प्रतिपादन १८. अजर-अमर की भांति आचरण का निषेध १६. असमाधि का कारण २०-२२. मूलगुण समाधि के कारण २३-२४. उत्तरगुण के पालन से समाधि ग्यारहवां अध्ययन १-३. जम्बू की मोक्ष-मार्ग विषयक जिज्ञासा ४-६. सुधर्मा द्वारा मार्गसार का कथन ७-८. प्रत्येक प्राणी के पृथक् अस्तित्व का प्रतिपादन ६. हिंसा के निषेध का मौलिक कारण १०. ज्ञान का सार ११. शान्ति और निर्वाण का अनुबंध १२. विरोध-वर्जन-अहिंसा का आधार १३-१५. एषणा का विवेक १६-२१. दानकाल में भाषा-विवेक का अवबोध २२. निर्वाण का संधान २३-२४. धर्म-दीप का प्रतिपादन . २५-३१. हिंसा-धर्म को मानने वाली बौद्धष्टि की समीक्षा ३२. महाघोर स्रोत को तरने का उपाय ३३. ग्राम्यधर्मों से विरति ३४. निर्वाण का संधान कसे? ३५. साधु-धर्म का संधान और पाप-धर्म का निराकरण ३६. शान्ति की प्रतिष्ठा ३७. कष्ट-सहन का निर्देश ३८. केवली का मत ६. अक्रियावाद का परिणाम ७. पकुधकात्यायन का मत ८. अक्रिय-आत्मवादी निरुद्ध प्रज्ञा से उपमित ९-१०. अष्टांग निमित्तज्ञान की यथार्थता, अयथार्थता ११. दुःख स्वकृत, दुःख-मुक्ति के दो साधन-विद्या और आचरण १२. जीवों की आसक्ति कहां ? | १३. जन्म-मरण की अटूट परम्परा १४. संसार-म्रमण के दो हेतु-विषय और अंगना १५. अकर्म से कर्मक्षय का प्रतिपादन १६. स्वयं सम्बुद्ध तीर्थङ्करों का मार्ग १७. वाग्वीर और कर्मवीर का निर्देश १८. मध्यस्थभाव का स्वरूप १६. ज्योतिर्भूत पुरुष का संसर्ग २०-२१. क्रियावाद का प्रतिपादक कौन ? २२. संसार के वलय से मुक्त कौन ? तेरहवां अध्ययन १. यथार्थ प्रतिपादन का संकल्प २-४. सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ प्रदाता गुरु के निन्हवन से अनन्त संसार ५. शिष्य के दोष और उनका परिणाम ६. छद्म से अमुक्त कौन ? ७. मध्यस्थ और कलह से परे कौन ? ८-६. परमार्थ का पलिमन्थु-अहंकार १०-११. जाति और कुल का मद गृहस्थ-कर्म है १२-१६. विभिन्न मद-स्थानों के परिहार का निर्देश १७. अनासक्त रहने का निर्देश १५-२२. धर्मकथा करने का विवेक और प्रयोजन २३. वलय-मुक्त कौन ? चौदहवां अध्ययन बारहवां अध्ययन १. अप्रमाद के कुछ सूत्र २-४. गुरुकुलवास का महत्त्व ५. अनुशासन कब? ६. विचिकित्सा का निराकरण ७-६. अनुशिष्टि-सहन के निर्देश १०-११. अनुशास्ता की पूजनीयता १२-१३. जिन-प्रवचन का महत्व १४. जीव-प्रद्वेष का निषेध १५-१७. धर्म, समाधि और मार्ग की आराधना मौर निष्पत्ति १. समवसरण के चार प्रकार २-३. अज्ञानवाद का निरूपण ४. विनयवाद तथा अक्रिय-आत्मवाद का निरूपण ५. शून्यवादी बौद्धों का मत Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. सन्देह-विमोचन का प्रयत्न १६. अर्थ-निन्हवन और प्रशस्ति-वचन का निषेध २०. प्रवचन की इयत्ता २१. नो हीणे नो अइरित्ते २२. विभज्यवाद का निरूपण और भाषा-विवेक २३. प्रवचनकार के लिये कुछ निर्देश २४. आज्ञासिद्ध वचन के प्रयोग का निर्देश २५. कवलिक समाधि के प्रतिपादन की विधि २६. सूत्र, अर्थ और शास्ता के प्रति विवेक २७. ग्रन्थी या शास्त्रज्ञ भिक्षु का स्वरूप . अंत के सेवन से उपलब्धि . अ-मनुष्यों के निर्वाण की समीक्षा १७. मनुष्य जीवन की दुर्लभता १८. सम्बोधि और उपदेश की दुर्लभता १६. पुनर्जन्म किसका नहीं? २०. तथागत का स्वरूप २१. निष्ठास्थान की प्राप्ति २२. प्रवर्तक वीर्य का कार्य २३. लक्ष्य-प्राप्ति का साधन २४. निग्रंप का प्रतिफलन २५. वीर्य कालिकता । अध्ययन पन्द्रहवां अध्ययन चन १. त्रिकाल विद् २. अनुपम तत्त्व का व्याख्याता ३. सत्य और मैत्री ४. धर्म की जीवन्त भावना ५. भावना-योग ६. कर्म का अकर्ता ७. महावीर्यवान् की निष्पत्ति ८. विज्ञाता-द्रष्टा ही काम-वासना का पारगामी ६. आदिमोक्ष पुरुष की पहिचान १०. मार्ग के अनुशासक कौन ? ११. संयम-धनी का स्वरूप १२. अनुपम संधि की प्राप्ति १३. अनुपम संधि की फलश्र ति १४. अन्तेण वहइ १. साधर २. अभिजाते जिज्ञासा ३. 'माहन' का स्वरूप ४. 'श्रमण' का स्वरूप ५. 'भिक्षु' का स्वरूप ६. 'निर्ग्रन्थ' का स्वरूप परिशिष्ट १. टिप्पण-अनुक्रम २. पदानुक्रम ३. सूक्त और सुभाषित ४. उपमा ५. व्याकरण विमर्श Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं प्रज्झयणं समए पहला अध्ययन समय Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'समय' है। नियुक्ति में यह नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां इसमें वर्ण्य विषय के आधार पर 'ससमयपरसमयपरूवणा'-(स्वसमय-परसमयप्ररूपणा) कहा गया है। चूणि और वृत्ति में इस अध्ययन का नाम 'समय' दिया गया है।' संभव है 'स्वसमय-परसमयप्ररूपणा' यह नाम बहुत दीर्घ हो जाता, अतः संक्षेप में इसे 'समय' की संज्ञा दे दी गई हो । समवाओ (२३/१) में भी 'समय' नाम ही निर्दिष्ट है। नियुक्तिकारने 'समय' के बारह प्रकार निर्दिष्ट किए हैं और चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या की है१. नाम समय-किसी का नाम 'समय' हो । २. स्थापना समय-किसी वस्तु में 'समय' की आरोपणा करना। ३. द्रव्य समय-सचित्त या अचित्त द्रव्य का स्वभाव-गुणधर्म । जैसे-जीव द्रव्य का उपयोग, धर्मास्तिकाय का गति स्वभाव, अधर्मास्तिकाय का स्थिति स्वभाव, आकाशास्तिकाय का अवगाहन स्वभाव । अथवा-जिस द्रव्य का वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के माध्यम से जो स्वभाव अभिव्यक्त होता है, वह 'द्रव्य समय' कहलाता है । जैसे (क) वर्ण से-भ्रमर काला है, कमल नीला है, कंबलशाटक लाल है, हल्दी पीली है, चंद्र श्वेत है। (ख) गंध से-चंदन सुगन्धयुक्त है, लहसुन दुर्गन्धयुक्त है। (ग) रस से-झूठ कटुक है, नीम तिक्त है, कपित्थ कसैला है, गुड़ मीठा है। (घ) स्पर्श से-पाषाण कर्कश है, भारी है, पक्षी की पांख हल्की है, बर्फ ठण्डा है, आग गरम है, घृत स्निग्ध है, राख रूक्ष है । अथवा-जिस द्रव्य का जो उपयोग-काल है वह भी 'द्रव्य समय' कहलाता है, जैसेदूध के उष्ण-अनुष्ण, ठंडे या गर्म के आधार पर उसका उपयोग करना। वर्षाऋतु में लवण, शरदऋतु में जल, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घृत, ग्रीष्म में गुड़-ये सारे अमृत-तुल्य होते है ।' ४. क्षेत्र समय-(क) आकाश का स्वभाव । (ख) ग्राम, नगर आदि का स्वभाव । (ग) देवकुरु आदि क्षेत्रों का स्वभाव-प्रभाव, जैसे-वहां के सभी प्राणी सुन्दर, सदा सुखी और वैर रहित होते हैं। अथवा-क्षेत्र-खेत आदि को संवारने का समय । अथवा-ऊवं, अधो और तिर्यक्लोक का स्वभाव । ५. कालसमय-काल में होने वाला स्वभाव, जैसे-सुषमा आदि काल में द्रव्यों का होने वाला स्वभाव । १. नियुक्ति गाथा २२ : ससमय-परसमयपरूवणा य.....। २. (क) चणि पृ० १६ : तत्थ पढमज्झयणं समयोत्ति । (ख) वृत्ति पत्र : तत्राद्यमध्ययनं समयाख्यम् । ३. (क) नियुक्ति गाथा ३० । (ख) चूणि पृष्ठ १९,२० । (ग) वृति पत्र ११ । ४. चूणि पृ १६ : वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १. प्रामुख ६. कुतीर्थसमय--अन्यतीथिकों की धार्मिक मान्यता । जैसे—कुछ दार्शनिक हिंसा में धर्म मानते हैं, कुछ ज्ञानवादी होते हैं, कुछ स्नान, उपवास, गुरुकुलवास में ही धर्म मानते हैं । ७. संगारसमय—संकेत का समय-काल । जैसे—पूर्वकृत संकेत के अनुसार सिद्धार्थ नामक सारथी ने बलदेव को संबोधित किया था। ८. कुलसमय-कुल का धर्म-आचार-व्यवहार । जैसे-शक जाति वालों के लिए पितृशुद्धि, आभीरकों के लिए मन्थनी ___ शुद्धि। ६. गणसमय-गण की आचार-व्यवस्था, जैसे—मल्लगण का यह आचार है कि जो मल्ल अनाथ होकर मरता है, उसका दाह-संस्कार गण से होता है, अथवा जिसकी दुर्-अवस्था हो जाती है उसका उद्धार गण करता है । १०. संकरसमय-भिन्न-भिन्न जाति वालों का समागम और उनकी एकवाक्यता । वाममार्ग की परंपरा में अनाचार में प्रवृत्त होने के लिए विभिन्न जाति वाले एक मत हो जाते हैं। ११. गण्डीसमय-उपासना की पद्धति, जैसे-भिक्षु को प्रातः पेज्जागंडी, मध्याह्न में भावणगंडी, अपरान्ह में धर्मकथा करना, सन्ध्या में समिति का आचरण करना। वृत्तिकार ने भिन्न-भिन्न संप्रदायों की प्रथा को गंडी-समय माना है। जैसे-शाक्य भिक्षु भोजन के समय गंडी का ताडन करते हैं। १२. भावसमय-यह अध्ययन जो क्षयोपशम भाव का उद्बोधक है। विषय-वस्तु प्रस्तुत अध्ययन का विषय है स्वसमय-जैन मत और परसमय-जनेतर मतों के कुछेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन। इस अध्ययन के चार उद्देशक और अठासी श्लोक हैं । इनमें विभिन्न मतों का प्रतिपादन-खंडन और मंडन है। नियुक्तिकार ने उद्देशकों के अर्थाधिकार की चर्चा की है। पहले उद्देशक के छह अर्थाधिकार हैं पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, अफलवाद । दूसरे उद्देशक के चार अर्थाधिकार हैं-नियतिवाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, कर्मचय-अभाववाद । तीसरे उद्देशक के दो अर्थाधिकार हैं-आधाकर्म, कृतवाद । चौथे उद्देशक का एक अर्थाधिकार है-परतीथिकों की अविरत-गृहस्थ-तुल्यता । वस्तुत: यह अध्ययन अनेक दार्शनिकों के कुछेक प्रचलित सिद्धान्तों के पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष का सुन्दर निरूपण करता है। हमने इस अध्ययन के विषयों का इस प्रकार वर्गीकरण किया है १-६ बंधन और बंधन-मुक्ति का विवेचन । ७-८ पंचमहाभूतवाद । ९-१० एकात्मवाद। ११-१२ तज्जीव-तच्छरीरवाद । १३-१४ अकारकवाद । १५-१६ आत्मषष्ठवाद । १. चूणि पृ० १६-२०॥ २. वृत्ति पत्र ११ : गण्डी समयो-यथाशाक्यानां भोजनावसरे गण्डीताडनमिति । ३. नियुक्ति गाथा २७-२९ : मधपंचभूत एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरी य। तध य अकारकवादी आतच्छट्ठो अफलवादी ॥ बितिए णियतीवायो अण्णाणी तह य णाणवादी य । कम्मं चयं ण गच्छति चतुम्विधं भिक्खुसमयम्मि ।। तइए आहाकम्मं कडवादी जध य ते पवावी तु । किच्चुवमा य उत्थे परप्पवादी अविरतेसु ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय अध्ययन १: प्रामुख १७-१८ बौद्धों का पंचस्कंध और चतुर्धातुवाद । १६-२७ एकान्तवादी दर्शनों की निस्सारता । २८-४० नियतिवाद। ४१-५० अज्ञानवाद। ५१-५६ बौद्धों की कर्मोपचय की चिन्ता और उसका समाधान । ६०-६३ आधाकर्म-दोष का प्रतिपादन । ६४-६६ जगत्कर्तृत्व के विभिन्न दर्शनों की चर्चा । ७०-७१ अवतारवाद । ७२-७३ आत्मप्रवाद की प्रशंसा । ७३-७५ सिद्धवाद। ७६-७६ याचना का सिद्धान्त । ८०-८२ लोक-स्वरूप की चर्चा । ८३-८५ अहिंसा का स्वरूप । ८६-८८ भिक्षुक की चर्या । इस प्रकार प्रस्तुन अध्ययन में भूवादी दर्शन के दोनो पक्षों-पंचभूतवाद और चतुर्भूतवाद का प्रतिपादन हुआ है। आगमयुग में पंचभूतवाद प्रचलित था । पकुध कात्यायन पंचभूतवाद को स्वीकार करते थे। दर्शनयुग में चार्वाक सम्मत चार भूतों का ही उल्लेख मिलता है । वे आकाश तत्त्व को नहीं मानते थे। एकात्मवादी दर्शन उपनिषदों का उपजीवी है। 'सर्वत्र एक हो आत्मा है' -यह ६-१० श्लोक में प्रतिपादित है। इसी प्रकार 'तज्जीव-तच्छरीरवादी' दर्शन का इस अध्ययन में संक्षिप्त वर्णन है। किन्तु दूसरे श्रुतस्कंध (१/१३-२२) में उसका विस्तार मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में इस मत के प्रवर्तक का नाम नहीं मिलता, किन्तु बौद्ध साहित्य में अजितकेशकंबल को इस मत का प्रवर्तक माना है। अक्रियावाद पूरण काश्यप का दार्शनिक पक्ष है। पकुध कात्यायन और पूरणकाश्यप-दोनों अक्रियावादी थे । बौद्ध साहित्य में इसका विस्तार से वर्णन प्राप्त है । वृत्तिकार शीलांक ने अकारकवाद को सांख्यदर्शन का अभिमत बतलाया है। ___पंचमहाभूतवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की एक शाखा है । पंचमहाभूतवादी की मान्यताओं का विशद वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध (१/२५-२६) में प्राप्त है । सतरहवें, अठारहवें श्लोक में बौद्ध सम्मत पांच स्कंधों तथा चार धातुओं का उल्लेख है। प्रस्तुत अध्ययन में नियतिवाद का उल्लेख है । उसका विस्तार द्वितीय श्रुतस्कंध (१/४२-४५) में प्राप्त है। एकतालीसवें श्लोक में अज्ञानवाद का उल्लेख है । अज्ञानवादी दार्शनिकों के विचारों का निरूपण इसी आगम के १२/२.३ में प्राप्त है । दीघनिकाय में प्ररूपित संजयवे लट्ठिपुत के अनिश्च पवाद के निरूपण को संशयवाद या अज्ञानवाद माना जा सकता है। प्रस्तुत अध्ययन (श्लोक ६४-६६) में जगत् कर्तृत्व की प्रचलित विभिन्न मान्यताओं का निरूपण है। विभिन्न दार्शनिक सष्टिसंरचना की विभिन्न मान्यताओं को लेकर चलते थे। ६४ से ६७ श्लोक तक सूष्टिवाद का मत उल्लिखित कर ६८ वें श्लोक में सूत्रकार ने अपना अभिमत प्रदर्शित किया है । ___श्लोक ७०,७१ में अवतारवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित है । चूणिकार ने इसे त्रैराशिक संप्रदाय का अभिमत माना है।' त्रैराशिक का अर्थ आजीवक संप्रदाय किया गया है । गोशालक उसके आचार्य थे।' लोक के विषय में विभिन्न दार्शनिकों के मत को प्रदर्शित कर सूत्रकार ने जैन मत का प्रतिपादन किया है। (श्लोक १. वृत्ति पत्र २१,२२। २. चूणि पृष्ठ ४३ : तेरासिइया इदाणि-ते वि कडवादिणो चेव । ३. (क) वृत्ति पत्र ४६ : त्रैराशिका गोशालकमतानुसारिणः । (ख) नंबो वृत्ति, हरिभद्रसूरी, पृष्ठ ८७ : राशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते । Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ 50-53) 1 श्लोक ८३-८५ में अहिंसा विषयक चर्चा है। चौरासीवें श्लोक में अनन्तवाद और अपरिणामवाद के आधार पर हिंसा का समर्थन करने वाले दृष्टिकोण का प्रतिपादन मिलता है । प्रस्तुत अध्ययन में कुछेक विशेष शब्द प्रयुक्त तमन्ना (२०-२५), संगइयं (३०), पासत्व (३२) । प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित कुछेक मौलिक विचार १. परिग्रह और दुःख का सम्बन्ध (२) । २. हिंसा और वैर का सम्बन्ध (३) । ३. परिग्रहमूलक हिंसा के तथ्य का उद्घाटन | ४. परिग्रह और हिंसा के त्याग के लिए सम्यग् दर्शन जरूरी। ५. दुःख का निवर्तन धर्म-अधर्म के विवेक से होता है, तर्क से नहीं ( ४६-४९) । कुछ विशेष प्रयोग १. पव्वया ( प्रव्रजिताः ) १६ । २. जिया ( जीवाः) २८ । ३. अप्पत्तियं अप्रीतिकं ३६ । विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मतों का इस अध्ययन में सुन्दर निरूपण हुआ है । हमने उन मतों के पूर्वपक्ष की चर्चा इस अध्ययन में अन्य दार्शनिकों के मतों करते हुए बौद्ध और वैदिक परम्पराओं की मान्यताओं को भी टिप्पणों में स्पष्ट किया है का संक्षेप में उल्लेख है । उनका विस्तार दूसरे श्रुतस्कंध में प्रतिपादित है। इसका निर्देश हमने यथास्थान कर दिया है। अध्ययन १ प्रामुख दार्शनिकों के निरूपण के साथ-साथ इसमें बन्धन-विवेक और बन्धन-मुक्ति के उपायों की भी सुन्दर चर्चा है। जम्बू ने सुधर्मा से पूछा- विमा बंधणं वीरे ? कि या जाति ?भगवान् महावीर ने किसे माना है? उसे वोड़ने का उपाय क्या है? इसके उत्तर में सुधर्मा ने कहा- परिग्रह बंधन है, हिंसा बंधन है। इसका हेतु है-ममत्व बन्धन-मुक्ति का उपाय है- धन और परिवार में अत्राण दर्शन और जीवन का मृत्यु की ओर संधावन की अनुभूति । ( श्लोक २-५ ) इस अध्ययन की चूर्णि में अनेक नए-नए तथ्यों का उल्लेख है। हमने टिप्पणों में उनका यथेष्ट उपयोग किया है । वृत्तिकार शिलांक ने भी अनेक जानकारियां प्रस्तुत की हैं। छासठवें श्लोक का तीसरा चरण है-मारेण संथुया माया- इसमें मृत्यु की उत्पत्ति की कथा का संकेत मात्र है। यह कथा महाभारत के द्रोणपर्व, अध्याय ५३ में मिलती है। चूर्णिकार ने इस श्लोक के स्थान पर आचार्य नागार्जुन द्वारा सम्मत श्लोक दिया है । वह पूरे कथानक का द्योतक है अतिजीवा में, मही विष्णवते प ततो से माया करे लोगस्सऽभिवा ॥ देखें - टिप्पण संख्या - १२८ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं : पहला अध्ययन समए : समय पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. बुज्झज्ज तिउटेज्जा बंधणं परिजाणिया। किमाह बंधणं वीरे? किंवा जाणं तिउदृ? ।। बुध्येत त्रोटयेत्, बन्धनं परिज्ञाय । किमाह बन्धनं वीरः? किं वा जानन् त्रोटयति ? ॥ १. सुधर्मा ने कहा-'बोधि को प्राप्त करो।' बंधन को जानकर उसे तोड़ डालो। जम्बू ने पूछा- 'महावीर ने' बंधन किसे कहा है ? किस तत्त्व को जान लेने पर उसे तोड़ा जा सकता है ?" २. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिझ किसामवि। अण्णं वा अणुजाणाइ एवं दुक्खा मुच्चई ।। चित्तवत् अचित्तं वा, परिगृह्य कृशमपि । अन्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखात न मुच्यते ।। २. सुधर्मा ने कहा- 'जो मनुष्य चेतन' या अचेतन पदार्थों में तनिक भी' परिग्रह-बुद्धि (ममत्व) रखता है और दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है वह दुःख से' मुक्त नहीं हो सकता।' ३. सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहिं घायए। हणतं वाणुजाणाइ वेरं वड्डइ अप्पणो ।३। स्वयं अतिपातयेत् प्राणान्, अथवा अन्यैः घातयेत् । घ्नन्तं वा अनुजानाति, वैरं वर्धयति आत्मनः ।। ३. परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है, दूसरों से हनन कराता है अथवा हनन करने वाले का अनुमोदन करता है, वह अपने वैर को बढ़ाता है"वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। जस्सि कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संबसे गरे। ममाती लुप्पती बाले अण्णमण्णेहि मुच्छिए।४। यस्मिन् कुले समुत्पन्नः, यैर्वा संवसेत् नरः । ममत्ववान् लुप्यते बालः, अन्योऽन्यं मूच्छितः ।। ४. जो मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिनके साथ संवास करता है वह उनमें ममत्व रखता है" तथा वे भी उसमें ममत्व रखते हैं। इस प्रकार परस्पर होने वाली मूर्छा से मूच्छित होकर" वह बाल (अज्ञानी) नष्ट होता रहता है—वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। ५. वित्तं सोयरिया चेव सब्वमेयं ण ताणइ। संधाति जीवितं चेव कम्मणा उ तिउदृइ ।। वित्तं सौदर्याश्चैव, सर्वमेतद् न त्राणाय । संधावति जीवितं चैव, कर्माणि तु त्रोटयति ।। ५. धन और भाई-बहिन -ये सब त्राण नहीं दे सकते।" जीवन मृत्यु की ओर दौड़ रहा है,“ इस सत्य को जान लेने पर मनुष्य कर्म के बंधन को तोड़ डालता है।" ६. एए गंथे विउक्कम्म एगे समणमाहणा। अयाणंता विउस्सिता सत्ता काहिं माणवा ।। एतान् ग्रन्थान् व्युत्क्रम्य, एके श्रमण - ब्राह्मणाः । अजानन्तः व्युच्छिताः, सक्ताः कामेषु मानवाः ।। ६. कुछ श्रमण-ब्राह्मण इन उक्त ग्रन्थों (परिग्रह और परिग्रह-हेतुओं) का परित्याग कर, विरति और अविरति के भेद को नहीं जानते हुए१२ गर्व करते हैं।" वे मननशील होने पर भी कामभोगों में आसक्त रहते हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ७. संति पंच इहमेगेसिमाहिया पुढवी बाऊ महम्भूषा आऊ लेक आवासपंचम ॥७॥ एए पंच महसूया तेभो एगो त्ति आहिया अह एसि विनासे विणासो होइ देहिणो |८| ६. जहा य पुढवीवूमे एगे जागा हि दोसह । एवं भो ! [कविणे लोए विष्णू णाणा हि बोलए || १०. एवमे त्ति जंपंति मंदा आरंभमिलिया| एगे किव्वा सयं पार्व तिथ्यं विण् ॥१० ११. पसेवं कसिणे आया जे बाला जे य पंडिया । संति पेन्वा ण ते संति स्थि तवाया। १२. वि पुणे व पावे वा पत्थि लोए इस परे । सरोरस्स विनासेणं विणासो होइ देहिणो । १२ । १३. कुवं च कारयं चेत्र सव्वं कु ण विज्जइ । एवं अकारओ अप्पा ते उ एवं पगनिया | १३ | १४. जे ते उ वाइणो एवं लोए तसि कुओ सिया ? तमात्र ते तमं जंति मंदा आरंभजिसिया | २४ १५. संति पंच इहमेगेलि आयछट्ठा पुणेगाहु आया लोगे य सासए । १५ । महब्भूया आहिया सन्ति पञ्च महाभूतानि, वह एकेषा आहृतानि । पृथ्वी आप तेजो, वायुः आकारापमानि ॥ एतानि पञ्च महाभूतानि, तेभ्यः एक इति आहृताः । अथ एषां विनाशे तु, विनाशो भवति देहिनः || यथा च पृथिवी स्तूप:, एको नाना हि दृश्यते । एवं भो ! कृत्स्नो लोको, विज्ञो नाना हि यते ॥ एवमेके इति जल्पन्ति, मंदा: आरम्भनिचिताः । एक: कृत्वा स्वयं पापं, तीव्रं दुःखं नियच्छति ।। प्रत्येकं कुसन: आरमा, ये बालाः ये च पंडिता: । सन्ति प्रेत्य न ते सन्ति, न सन्ति सरवा ओपालिकाः ।। नास्ति पुण्यं वा पापं वा, नास्ति लोकः इतः परः । शरीरस्य विनाशेन, विनाशो भवति देहिनः ॥ कुर्वंश्च कारयश्चैव, सर्व कुर्वन् न विद्यते । एवं अकारकः आत्मा, ते तु एवं प्रगल्भिताः ॥ ये ते तु वादिनः एवं, लोकः कुतः स्वात् ? तमसः ते तमो यान्ति, मन्दा: आरम्भनिश्रिताः ॥ सन्ति पञ्च महाभूतानि, हमे आतानि । आत्मषष्ठाः पुनरेके आहुः, आत्मा लोकश्च शाश्वतः ।। ०१ समय: श्लो० ७-१५ ७. कुछ दार्शनिकों" (भूतवादियों) के मत में यह निरूपित है कि इस जगत् में पांच महाभूत हैं"पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश । ८. ये पांच महाभूत हैं। इनके संयोग से" एकआत्मा उत्पन्न होता है। इन पांच महाभूतों का विनाश होने पर " आत्मा (देही) का विनाश हो जाता है । २०३० ६. जैसे – एक ही पृथ्वी- स्तूप ( मृत्- पिण्ड ) नानारूपों में दिखाई देता है, उसी प्रकार समूचा लोक एक विज्ञ" ( ज्ञानपिण्ड ) देता है । है, वह नानारूपों में दिखाई १०. क्रिया करने में अलस और हिंसा से प्रतिवद्ध" कुछ दार्शनिक उक्त सिद्धांत का निरूपण करते हैं । (यदि आत्मा एक है तो वह कैसे घटित होगा कि ) अकेला व्यक्ति स्वयं पाप करता है और वही तीव्र" दुःख भोगता है । ३४.३५ ११. प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् अखंड" आत्मा है, इसीलिए कुछ अज्ञानी हैं और कुछ पंडित है जो शरीर से ही आत्माएं "आत्माएं परलोक में नहीं जाती " उनका पुनर्जन्म नहीं होता।" १२. न पुण्य है, न पाप है और न इस लोक से भिन्न दूसरा कोई लोक है । शरीर का विनाश होने पर आत्मा (देही) का भी विनाश हो जाता है । ४०.४९ १३. आत्मा सब करता है, सब करवाता है, फिर भी वह ( पुण्य-पाप का बंध) करने वाला नहीं होता, इसलिए वह अकर्ता है। अक्रियावादी इस सिद्धांत की स्थापना करते हैं । १४. ऐसा कहते है उनके मतानुसार यह लोकर कैसे घटित होगा ? अक्रियावादी पुरुषार्थ करने में अलस और हिंसा से प्रतिबद्ध" होकर तम से घोर तम ( अज्ञान से घोर अज्ञान) की ओर चले जाते हैं । ४४.४५ १५. पाच महाभूत हैं यह पंचमहाभूतवादी दार्शनिकों काए। कुछ महानुवादी दार्शनिक पांच महाभूत तथा आत्मा को छठा तत्त्व" मानते हैं । उनके मतानुसार आत्मा और लोक शाश्वत हैं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०१: समय: श्लो०१६-२३ १६. उन दोनों" (आत्मा और लोक)" का विनाश नहीं होता । असत् उत्पन्न नहीं होता । सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव को प्राप्त हैं, शाश्वत हैं।०. सूयगडो १ १६. दुहओ ते ण विणस्संति णो य उप्पज्जए असं । सब्वेवि सव्वहा भावा णियतोभावमागया ।१६। १७. पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो वाहु हेउयं व अहेउय।१७। द्वौ तौ न विनश्यतः, नो च उत्पद्यते असन् । सर्वऽपि सर्वथा भावाः, नियतिभावमागताः ॥ पञ्च स्कन्धान् वदन्ति एके, बालास्तु क्षणयोगिनः । अन्यं अनन्यं नवाहुः, हेतुकं च अहेतुकम् ।। १७. कुछ दार्शनिक (बौद्ध) पांच स्कंधो (रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार) का निरूपण करते हैं। वे स्कंध क्षणयोगी (क्षणिक) हैं । वे स्कंधों से अन्य या अनन्य आत्मा को नहीं मानते। वे स-हेतुक आत्मा को नहीं मानते। १८. धातुवादी बौद्ध यह मानते हैं कि पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार धातुओं से शरीर निर्मित होता १८. पुढवो आऊ तेऊ य तहा वाऊ य एगो। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा।१८। १६. अगारमावसंता वि आरण्णा वा वि पव्वया । इमं दरिसणमावण्णा सव्व दुक्खा विमुच्चंति।१६। २०. तेणाविमं तिगच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते ओहंतराहिया।२०। पृथ्वी आपः तेजश्च, तथा वायुश्च एककः । चत्वारि धातो: रूपाणि, एवमाहुः ज्ञायकाः ।। अगारमावसन्तोऽपि, आरपा: वाऽपि प्रजिताः। इदं दर्शनमापन्नाः, सर्वदुःखात् विमुच्यन्ते ।। १६. वे प्रवादी यह कहते हैं -गृहस्थ, आरण्यक या प्रवजित कोई भी हो, जो इस दर्शन में आ जाता है, वह सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है । तेनापि इदं विज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते ओघंतरा: आहताः ॥ २०. किसी दर्शन में आ जाने" तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते। (इस दर्शन में आ जाने से मनुध सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे दुःख के प्रवाह का तीर नहीं पा सकते ।५५ २१. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते संसारपारगा।२१॥ तेनापि इदं विज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते संसारपारगाः॥ २१. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे संसार के पार नहीं जा सकते। २२. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते गामस्स पारगा।२२॥ तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः। ये ते तु वादिनः एवं, न ते गर्भस्य पारगाः ।। २२. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से वे मनुध धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे गर्भ के पार नहीं जा सकते। २३. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते जम्मस्स पारगा।२३। तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते जन्मन: पारगाः ।। २३. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे जन्म के पार नही जा सकते। Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सूयगडो १ २४. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते दुक्खस्स पारगा।२४॥ तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते दुःखस्य पारगाः ।। प्र. १: समय : श्लो० २४-३१ २४. किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रंथों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे दुःख के पार नहीं जा सकते। २५. तेणाविमं तिणच्चा णं ण ते धम्मविऊ जणा। जे ते उ वाइणो एवं ण ते मारस्स पारगा।२५॥ तेनापि इदं त्रिज्ञात्वा, न ते धर्मविदः जनाः । ये ते तु वादिनः एवं, न ते मारस्य पारगाः ।। २५ किसी दर्शन में आ जाने तथा त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से वे मनुष्य धर्मविद् नहीं हो जाते । (इस दर्शन में आ जाने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं) जो ऐसा कहते हैं वे मृत्यु के पार नहीं जा सकते। नानाविधानि दुःखानि, अनुभवंति पुनः पुनः । संसारचक्रवाले, व्याधिमृत्युजराकुले ॥ २६. वे व्याधि, मृत्यु और जरा से आकुल इस संसार चक्रवाल में नाना प्रकार के दुःखों का बार-बार अनुभव करते हैं। २६. णाणाविहाई दुक्खाई अणुहवंति पुणो पुणो। संसारचक्कवालम्मि वाहिमच्चुजराकुले ।२६॥ २७. उच्चावयाणि गच्छंता गन्भमेस्संतणंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे।२७। -त्ति बेमि॥ उच्चावचानि गच्छन्तः, गर्भमेष्यन्ति अनन्तशः । ज्ञातपुत्रः महावीरः, एवं आह जिनोत्तमः ।। -इति ब्रवीमि ॥ २७. वे उच्च और निम्न स्थानों में भ्रमण करते हुए अनन्त बार जन्म लेंगे-ऐसा जिनोत्तम ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा है। -ऐसा मैं कहता हूं। बीया उद्देसो : दूसरा उद्देशक २८. कुछ दार्शनिक (नियतिवादी) यह निरूपित करते हैं—जीव पृथक्-पृथक् उत्पन्न होते हैं, पृथक्-पृथक् सुख-दुःख का वेदन करते हैं और पृथक्-पृथक् ही अपने स्थान से च्युत होते हैं-मरते हैं। २६. वह दुःख स्वयंकृत नहीं होता, अन्यकृत भी नहीं होता। सैद्धिक-निर्वाण का सुख हो अथवा असैद्धिक-सांसारिक सुख-दुःख हो (वह सब नियतिकृत होता है।) २८. आघायं पुण एगेसि उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ ।। २६. ण तं सयं कडं दुक्खं ण य अण्णकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं सेहियं वा असेहियं ।२। ३०.ण सयं कडं ण अण्णेहि वेदयंति पुढो जिया । संगइयं तं तहा तेसि इहमेगेसिमाहियं ।। ३१. एवमेयाणि जंपंता बाला पंडियमाणिणो। णिययाणिययं संतं अयाणंता अबुद्धिया।४। आख्यातं पुनरेकेषां, उपपन्नाः पृथग् जीवाः । वेदयन्ति सुखं दुःखं, अथवा लुप्यन्ते स्थानतः ।। न तद् स्वयं कृतं दुःखं, न च अन्यकृतं च । सुखं वा यदि वा दुःखं, सैद्धिकं वा असैद्धिकम् ।। न स्वयं कृतं न अन्यैः, वेदयन्ति पृथग् जीवाः । सांगतिकं तत् तथा तेषां, इह एकेषामाहृतम् ।। एवमेतानि जल्पन्तो, बालाः पंडितमानिनः । नियताऽनियतं सत्, अजानन्तः अबुद्धिकाः ।। ३०. सभी जीव न स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं और न अन्य कृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं । वह . सुख-दुःख उनके सांगतिक-नियति जनित" होता है, ऐसा कुछ (नियतिवादी) मानते हैं । ३१. इस प्रकार नियतिवाद का प्रतिपादन करने वाले अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पंडित मानते हैं। कुछ सुख-दुःख नियत होता है और कुछ अनियत-" इस सत्य को वे अल्पबुद्धि वाले मनुष्य नहीं जानते। Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १: समय : श्लो० ३२-३६ सूयगडो १ ३२. एवमेगे उ पासत्था ते भुज्जो विप्पगभिया। एवंपुवट्ठिया संता णऽत्तदुक्खविमोयगा । एवं एके तु पार्श्वस्थाः , ते भूयो विप्रगल्भिताः । एवमपि उपस्थिताः सन्तः, नात्मदुःखविमोचकाः ॥ ३२. इस प्रकार कुछ पार्श्वस्थ (नियति का एकांगी आग्रह रखने वाले नियतिवादी) साधना-मार्ग में प्रवृत्त होते हैं । यह उनकी दोहरी धृष्टता है। वे साधनामार्ग में प्रवृत्त होने पर भी अपने दुःखों का विमोचन नहीं कर सकते। जविनो मगा यथा श्रान्ताः, परितानेन तजिताः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितानि' अशंकिनः ।। ३३. जैसे वेगगामी मृग मगजाल से भयभीत और श्रान्त (दिग्मूढ) होकर" अशंकनीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति अशंकित रहते हैं। परिततानि शंकमानाः, पाशितानि' अशंकिनः । अज्ञानभयसंविग्नाः, संप्रलीयन्ते तत्र तत्र । ३४. वे बिछे हुए मृगजाल के प्रति शंकित होते हैं और पाशयंत्र के प्रति अशंकित होते हैं। वे अज्ञानवश भय से व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ते हैं। ३३. जविणो मिगा जहा संता परिताणेण तज्जिया। असंकियाई संकति संकियाइं असंकिणो।६। ३४. परिताणियाणि संकेता पासियाणि असंकिणो। अण्णाणभय संविग्गा संपलिति तहि तहिं ७॥ ३५.अह तं पवेज्ज वज्झं अहे वज्झस्स वा वए। मुच्चेज्ज पयपासाओ तं तु मंदो ण देहई।। ३६. अहियप्पाऽहियपण्णाणे विसमतेणुवागए । से बद्ध पयपासाई तत्थ घायं णियच्छइ ।। ३७.एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया। असंकियाई संकंति संकियाइं असंकिणो।१०। ३५. यदि वे छलांग भरते हुए पदपाश (कूटयंत्र) की बाध को" फांद जाएं अथवा उसके नीचे से निकल जाएं तो वे उस पदपाश से" मुक्त हो सकते हैं, किन्तु वे मंदमति उस उपाय को नहीं देख पाते। अथ तत् प्लवेत वधं, अधो वधस्य वा व्रजेत् । मुच्येत पदपाशात्, तत् तु मन्दो न पश्यति ॥ अहितात्मा अहितप्रज्ञान:, विषमान्तेन उपागतः । स बद्धः पदपाशान, तत्र घातं नियच्छति ।। एवं तु श्रमणा: एके, मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितानि अशंकिनः ।। ३६. अपना हित नहीं समझने वाले और हित की बुद्धि से शून्य वे मृग विषमांत-संकरे द्वार वाले पाशयंत्र से जाते हैं और उस बंधन में बंध कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ३७. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य" श्रमण अशंक नीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति शंका नहीं करते ।" ३८.धम्मपण्णवणा जा सा तं तु संकति मूढगा। आरंभाइं ण संकंति अवियत्ता अकोविया ॥११॥ धर्मप्रज्ञापना या सा, तां तु शंकन्ते मूढकाः। आरम्भान न शंकन्ते. अव्यक्ताः अकोविदाः ।। ३८. अव्यक्त", अकोविद और मोहमूढ श्रमण जो धर्म की प्रज्ञापना है उसके प्रति शंका करते हैं और आरंभ (हिंसा) के प्रति शंका नहीं करते। ३६. सव्वप्पगं विउक्कस्सं सव्वं णमं विहूणिया। अप्पत्तियं अकम्मसे एयमझें मिगे चुए।१२। सर्वात्मक व्युत्कर्ष, सर्वं 'मं विधूय । अप्रीतिक अकर्मांशः, एनमर्थं मृगः च्युतः ॥ ३६. पूर्ण लोभ, मान, माया और क्रोध को नष्ट कर साधक अकर्माश (सिद्ध)" हो जाता है, किन्तु मृग की भांति अज्ञानी नियतिवादी इस अर्थ (उपलब्धि) से च्युत हो जाता है-अकर्माश नहीं हो सकता। १. 'प्रति' इति शेषः। २. 'प्रति' इति शेषः। ३. 'प्राप्तः' इति शेषः। ४. 'प्रति' इति शेषः । ५. 'मं' (दे०) माया इत्यर्थः। Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०१: समय : श्लो० ४०-४० सूयगडो १ ४०.जे एयं णाभिजाणंति मिच्छदिट्ठी अणारिया। मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणंतसो ।१३। ये एन नाभिजानन्ति, मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । मृगा इव पाशबद्धास्ते, घात एष्यन्ति अनन्तश: ।। ४०. जो मिथ्यादृष्टि अनार्य इस (अकर्माश होने के उपाय) को नहीं जानते वे पाश से बद्ध मृग की भांति अनन्त बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं।" ४१. माहणा समणा एगे सव्वे गाणं सयं वए। सबलोगे वि जे पाणा ण ते जाणंति किंचणं ।१४। ब्राह्मणा: श्रमणा एके, सर्वे ज्ञानं स्वकं वदेयु: । सर्वलोकेऽपि ये प्राणाः, न ते जानन्ति किञ्चन ।। ४१. कुछ ब्राह्मण और श्रमण-वे सब अपने-अपने ज्ञान की सचाई को स्थापित करते हुए कहते हैं'समूचे लोक में (हमारे मत से भिन्न) जो मनुष्य हैं वे कुछ भी नहीं जानते। ४२. जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ के कथन का दोहराता है, उसके कथन के अभिप्राय को नहीं जानता, किन्तु कथन का पुन: कथन कर देता है। ४२. मिलक्खू अमिलक्खुस्स जहा वुताणुभासए। ण हेउं से वियाणाइ भासियं तऽणुभासए।१५। ४३. एवमण्णाणिया गाणं वयं वि सयं सयं । णिच्छयत्यं ण जाणंति मिलक्खु व्व अबोहिया।६। ४४. अण्णाणियाण वोमंसा अण्णाण ण णियच्छइ। अप्पणो य परं णालं कतो अण्णाणुसासिउं? ॥१७॥ म्लेच्छः अम्लेच्छस्य, यथा उक्तं अनुभाषते । न हेतुं स विजानाति, भाषितं तदनुभाषते ।। एवं अज्ञानिका ज्ञानं, वदन्तोऽपि स्वकं स्वकम् । निश्चयार्थं न जानन्ति, म्लेच्छ इव अबोधिकाः ।। ४३. इसी प्रकार अज्ञानी (पूर्णज्ञान से शून्य)" अपने अपने ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी निश्चय-अर्थ (सत्य) को नहीं जानते, म्लेच्छ की भांति अज्ञानी होने के कारण उसका हार्द नहीं समझ पाते । अज्ञानिकानां विमर्श:, अज्ञाने न नियच्छति । आत्मनश्च परं नालं, कुत: अन्यान् अनुशासितुम् ॥ ४४. अज्ञानिकों का उक्त विमर्श५ अज्ञान के विषय में निश्चय नहीं करा सकता। (संदिग्ध मतिवाले) अज्ञानवादी अपने आपको भी जब अज्ञानवाद का अनुशासन नहीं दे सकते तब दूसरों को उसका अनुशासन कैसे दे सकते है ? बने मूढो यथा जन्तु:, मूढनेत्रनुगामिकः । द्वावपि एतौ अकोविदौ, तीव्र स्रोतो नियच्छतः ।। ४५. जैसे वन में दिग्मूढ बना हुआ मनुष्य दिग्मूढ नेता (पथ-दर्शक) का अनुगमन करता है तो वे दोनों मार्ग को नहीं जानते हुए घोर जंगल में चले जाते हैं। ४६, जैसे एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग में ले जाता हुआ (जहां पहुंचना है वहां से) दूर मार्ग में चला जाता है अथवा उत्सव में चला जाता है अथवा किसी दुसरे मार्ग में चला जाता है। ४५. वणे मूढे जहा जंतू मुढणेयाणुगामिए । दो वि एए अकोविया तिव्वं सोयं णियच्छई।१८। ४६. अंधो अं पहं णेतो दूरमद्धाण गच्छई। आवज्जे उपहं जंतू अदुवा पंथाणुगामिए।१६। ४७. एवमेगेणियागट्टी धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्नमावज्जे ण ते सव्वज्जुयं वए।२०। ४८. एवमगे वियकाहि णो अण्णं पज्जुवासिया। अप्पणो य वियकाहि अयमंजू हि दुम्मई।२१॥ अन्धो अन्धं पथं नयन, दूरमध्वानं गच्छति । आपद्यते उत्पथं जन्तु:, अथवा पथानुगामिकः ।। एवमेके नियागार्थिनः, धर्माराधकाः वयम । अथवा अधर्ममापोरन, न तं सर्वर्जुकं व्रजेयुः ।। वितः, नो अन्यं पर्युपासोनाः । आत्मनश्च वितः, अयं ऋजुहि दुर्मतयः ।। ४७. इसी प्रकार कुछ मोक्षार्थी' कहते हैं-'हम धर्म के आराधक हैं।' किन्तु (वे धर्म के लिए प्रवजित होकर भी) अधर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे सबसे सीधे मार्ग (संयम) पर" नहीं चलते। एवमेके ४८. कुछ अज्ञानवादी" अपने वितर्कों के गर्व से किसी दुसरे (विशिष्ट ज्ञानी)" की पर्युपासना नहीं करते । वे आने वितकों के द्वारा" यह कहते हैं कि हमारा यह मार्ग ही ऋजु" है, शेष सब दुर्मति हैं -उत्सथगामी हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६. एवं तक्काए साता धमाधम्मे अकोदिया । दुक्खं ते णातिवट्टेति सउणी पंजरं जहा । २२ । ५०. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया |२३| ५९. अहावरं किरियावाइदरिसणं कमचितापणा दुधविद्वर्ण पुरवखायं 1 |२४| ५२. जाणं कारणऽणा उट्टी अबुहो जं च हिंसइ । पुट्ठो वेदे परं अवियत्तं खु सावज्जं । २५। ५३. संति तओ आयाणा जह कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य मणसा अणुजानिया | २६ | ५४. एए उ तओ आयाणा जेहि कोरड पावगं । एवं भावविसोहोए निव्वाणमभिगच्छ ||२७| ५५. पु पि ता समारंभ आहारट्ठ असंजए । भुंजमाणो वि महावी कम्पुणा |२८| १३ साधयन्तः, अकोविदाः । एवं तर्केण धर्माधर्मे दुःखं ते ते नातिवर्तन्ते, शकुनिः पञ्जरं यथा ॥ स्वकं स्वकं प्रशंसन्तः, गर्हमाणाः परं वचः । ये तु तत्र व्युच्छ्रयन्ति, संसारं ते व्युच्छ्रिताः ॥ पुराख्यातं, अथापरं क्रियावादिदर्शनम् कर्मचिन्ताप्रणष्टानां दुःखस्कन्धविवर्धनम् 11 जानन् कायेन अनाकुट्टी, अबुधः वं च हिनस्ति । स्पृष्टो वेदयति परं अव्यक्तं खलु सावधम् ॥ सन्ति इमानि त्रीणि आदानानि यैः क्रियते पापकम् । अभिक्रम्य च प्रेष्य च, मनसा अनुज्ञाय ॥ एतानि तु त्रीणि आदानानि यैः क्रियते पापकम् । एवं भावविशोध्या, निर्वाणमभिगच्छति 11 पुत्रमपि तावत् समारभ्य, आहारार्थमसंयतः भुञ्जानोऽपि मेधावी, कर्मणा नोपलिप्यते || श्र० १ : समय : इलो० ४६-५५ ४६. वे तर्क से ( अपने मत को सिद्ध करते हैं, पर धर्म और अधर्म को " नहीं जानते । जैसे पक्षी पिंजरे से" अपने आपको मुक्त नहीं कर सकता, वैसे ही वे दुःख से " मुक्त नहीं हो सकते । ५०. अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्ममरण की परंपरा) को बढ़ाते हैं । " १०२ ५१. अज्ञानवादी दर्शन के बाद क्रियावादी दर्शन का निरूपण किया जा रहा है जो प्राचीन काल से निरूपित है। बौद्धों का कर्म-विषयक चिन्तन सम्पष्ट नहीं है। इसलिए यह दुःख स्कंध को बढ़ाने वाला है । १०४ १०५ ५२. जो जीव को जानता हुआ (संकल्पपूर्वक) काया से उसे नहीं मारता अथवा अबुध हिंसा करता है-अनजान में किसी को मारता है, उसके अव्यक्त (सूक्ष्म) सावद्य (कर्म) स्पृष्ट होता है । उसी क्षण उसका वेदन हो जाता है - वह क्षीण होकर पृथग् हो जाता है । ५३. ये तीन आदान -मार्ग हैं जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है १. अभिक्रम्य - स्वयं जाकर प्राणी की घात करना । २. प्रेष्य-दूसरे को भेजकर प्राणी की घात कर वाना | ३. प्राणी की घात करने वाले का अनुमोदन करना । ५४. ये तीन आदान हैं जिनके द्वारा कर्म का उपचय होता है जो इन तीन आदानों का सेवन नहीं करता वह भावविशुद्धि ( राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति ) के द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है । ५५. असंयमी गृहस्थ भिक्षु के भोजन के लिए पुत्र ( यूजर या बकरे ) को मार कर मांस पकाता है, मेधावी भिक्षु उसे खाता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता ।" १०१.१०७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०१: समय : श्लो० ५६-६२ सूयगडो १ ५६. मणसा जे पउस्संति चित्तं तेसि ण विज्जइ। अणवज्जं अतहं तेसि ण ते संवडचारिणो।२६। मनसा ये प्रदूष्यन्ति, चित्तं तेषां न विद्यते । अनवद्यं अतथ्यं तेषां, न ते संवतचारिणः ।। ५६. जो मन से प्रद्वेष करते हैं-निपुण होते हैं उनके कुशल-चित्त नहीं होता।८ (केवल काय-व्यापार से) कर्मोपचय नहीं होता-यह उनका सिद्धान्त तथ्यपूर्ण नहीं है। उक्त सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले संवृतचारी नहीं होते-कर्म-बंध के हेतुओं में प्रवृत्त रहते हैं। ५७. इन दृष्टियों को स्वीकार कर वे वादी शारीरिक सुख में आसक्त हो जाते हैं। वे अपने मत को शरण मानते हुए सामान्य व्यक्ति की भांति पाप का सेवन करते हैं। ५७. इच्चेयाहिं दिट्ठीहि सायागारवणिस्सिया । सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं जणा।३०) ५८. जहा आसाविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागतं अंतराले विसीयई।३१॥ ५६. एवं तु समणा एगे मिच्छदिदी अणारिया। संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियटॅति ।३२। -त्ति बेमि ॥ इत्येताभिः दृष्टिभिः, सातागौरवनिश्रिताः । शरणं इति मन्यमानाः, सेवन्ते पापकं जनाः ।। यथा आस्राविणीं नावं, जात्यन्धः आरुह्य । इच्छति पारमागन्तुं, अन्तराले विषीदति ।। ५८. जैसे जन्मान्ध मनुष्य सच्छिद्र नौका में बैठकर समुद्र का पार पाना चाहता है, (किन्तु उसका पार नहीं पाता), वह बीच में ही डूब जाता है । एवं तु श्रमणा: एके, ५६. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । का पार पाना चाहते हैं, (किन्तु उसका पार नहीं संसारपारकांक्षिणस्ते, पाते), वे बार-बार संसार में भ्रमण करते हैं। संसार अनुपर्यटन्ति ॥ - इति ब्रवीमि॥ -ऐसा मैं कहता हूं। तइनो उद्देसो : तीसरा उद्देशक ६०. किंचि वि पूइकडं सड्डी आगंतु ईहियं । सहस्संतरियं भुजे दुपक्खं चेव सेवई ।। यत् किञ्चिदपि पूतिकृतं, ६०. श्रद्धालु गृहस्थ" ने आगन्तुक भिक्षुओं के लिए कुछ श्रद्धिना आगंतुकान् ईहितम् । भोजन निष्पादित किया। उस (आधाकर्म) भोजन सहस्रान्तरितं भुजीत, से दूसरा भोजन मिश्रित हो गया। वह पूतिकर्म१५ द्विपक्षं चैव सेवते ॥ (आधाकर्म से मिश्रित) भोजन यदि भिक्षु हजार घरों के अंतरित हो जाने पर भी लेता है, खाता है, फिर भी वह द्विपक्ष का सेवन करता है-१३ प्रव्रजित होने पर भी भोजन के निमित्त गृहस्थ जैसा आचरण करता है। तमेव अविजानन्तः, विषमे अकोविदाः । मत्स्याः वैशालिकाश्चैव, उदकस्याभ्यागमे ६१. वे पूतिकर्म के सेवन से उत्पन्न दोष को नहीं जानते। वे कर्मबंध के प्रकारों को भी नहीं जानते । "जिस प्रकार समुद्र में रहने वाले विशालकाय मत्स्य" ज्वार के साथ नदी के मुहाने पर आते हैं। ६१. तमेव अवियाणंता विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव उदगस्सऽभियागमे ।। ६२. उदगस्स प्पभावेणं सुक्कम्मि घातमेंति उ । ढंकेहि य कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही ।३। उदकस्याल्पभावेन, शुष्के घातं यन्ति तु । ध्वांक्षश्च कंकैश्च, आमिषाथिभिस्ते दुःखिनः ।। ६२. (ज्वार के लौट जाने पर) पानी कम हो जाता है। और नदी की बालू सूख जाती है तब मांसा १९ ढंक और कंक पक्षियों के द्वारा नोचे जाने पर वे मत्स्य दुःख का अनुभव करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं । १२१ Jain Education Intemational cation International Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ प्र०१: समय : श्लो० ६३-७१ सूयगडो १ ६३. एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव घायमेसंतणंतसो एवं तु श्रमणा: एके, वर्तमानसुखैषिणः । मत्स्या वैशालिका इव, घातमेष्यन्ति अनन्तशः।। ६३. इसी प्रकार वर्तमान सुख की एषणा करने वाले कुछ श्रमण१२२ इन विशालकाय मत्स्यों की भांति अनन्त बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं । १२३ । ६४. इणमण्णं तु अण्णाणं इहमेगेसिमाहियं । देवउत्ते अयं लोए बंभउत्ते त्ति आवरे ।५। इदं अन्यत् तु अज्ञानं, इह एकेषां आहृतम् । देवोप्तः अयं लोकः, ब्रह्मोप्तः इति चापरे । ६४. यह एक अज्ञान है। कुछ प्रावादुकों द्वारा यह निरू पित है कि यह लोक देव द्वारा उप्त है (देव द्वारा इसका बीज-वपन किया हुआ है)। कुछ कहते हैं-यह लोक ब्रह्मा द्वारा उप्त है (ब्रह्मा द्वारा इसका बीज-वपन किया हुआ है) । २५ ।। ६५. कुछ कहते हैं-जीव-अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित यह लोक ईश्वर द्वारा कृत है और कुछ कहते हैं-यह प्रधान (प्रकृति) द्वारा कृत है । ईश्वरेण कृतो लोकः, प्रधानादिना तथा अपरे । जीवाजीवसमायुक्तः, सुखदुःखसमन्वितः ॥ स्वयंभुवा कृतो लोकः, इति उक्तं महर्षिणा । मारेण संस्तृता माया, तेन लोकः अशाश्वतः ।। ६६. स्वयंभू ने इस लोक को बनाया २७--यह महर्षि ने कहा है । उस स्वयंभू ने मृत्यु से युक्त माया की रचना की, इसलिए यह लोक अशाश्वत है। ६७. कुछ ब्राह्मण और श्रमण कहते हैं कि यह जगत् अण्डे से उत्पन्न हुआ है ।" उस ब्रह्मा ने सब तत्त्वों की रचना की है । जो इसे नहीं जानते वे मिथ्यावादी ६५. ईसरेण कडे लोए पहाणाइ तहावरे। जीवाजीवसमाउत्ते सुहदुक्खसमण्णिए । ६६. सयंभणा कडे लोए इति वृत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया तेण लोए असासए ।७। ६७. माहणा समणा एगे आह अंडकडे जगे। असो तत्तमकासी य अयाणंता मुसं वए।। ६८. सएहि परियाएहिं लोगं बूया कडे त्ति य। तत्तं ते ण वियाणंति णायं णासी कयाइ वि ।। ६६. अमणण्णसमुप्पायं दुक्खमेव विजाणिया। समुप्पायमजाणंता किह णाहिति संवरं ? ॥१०॥ ७०. सुद्धे अपावए आया इहमेगेसिमाहियं । पुणो कीडापदोसेणं से तत्थ अवरज्झई।११॥ ब्राह्मणाः श्रमणाः एके, आहुः अंडकृतं जगत् । असौ तत्त्वमकार्षीच्च, अजानन्तः मृषा वदन्ति । स्वकैः पर्यायः, लोकं ब्रूयात् कृत इति च । तत्त्वं ते न विजानन्ति, नायं नासीत् कदाचिदपि । अमनोज्ञसमुत्पाद, दु:खं एव विजानीयात् । समुत्पादं अजानन्तः, कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥ ६८. अपने पर्यायों से लोक कृत है—ऐसा कहना चाहिए। (लोक किसी कर्ता की कृति है ऐसा मानने वाले) तत्त्व को नहीं जानते । लोक कभी नहीं था-ऐसा नहीं है। ६६. दुःख असंयम की उत्पत्ति है-यह ज्ञातव्य है । जो दुःख की उत्पत्ति को नहीं जानते वे संवर (दुःखनिरोध) को कैसे जानेंगे ? १३१ शुद्धः अपापक: आत्मा, इह एकेषां आहतम् । पुनः क्रीडाप्रदोषेण, स तत्र अपराध्यति ॥ ७०. कुछ वादियों ने यह निरूपित किया है-आत्मा शुद्ध होकर अपापक-कर्म-मल रहित या मुक्त हो जाता है। वह फिर क्रीडा और प्रद्वेष (राग-द्वेष) से युक्त होकर मोक्ष में भी कर्म से बंध जाता है। (फलतः अनन्तकाल के बाद फिर अवतार लेता है।) ७१. मनुष्य जीवनकाल में संवृत मुनि होकर अपाप (कर्म मल से रहित) होता है। फिर जैसे पानी स्वच्छ होकर पुनः मलिन हो जाता है, वैसे ही यह आत्मा निर्मल होकर पुनः मलिन हो जाता है । १२ ७१. इह संवुडे मुणी जाए पच्छा होइ अपावए । वियडं व जहा भुज्जो णीरयं सरयं तहा।१२। इह संवृतः मुनिर्जातः, पश्चाद् भवति अपापकः । विकटं इव यथा भूयो, नीरजस्कं सरजस्कं तथा ॥ Jain Education Interational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १: समय : श्लो०७२-७८ सूयगडो १ ७२. एयाणवीइ मेहावी बंभचेरं ण तं वसे। पुढो पावाउया सव्वे अक्खायारो सयं सयं ॥१३ ७२. इन वादों का अनुचिन्तन कर मेधावी मुनि उनके गुरुकुल में निवास न करे। भिन्न-भिन्न मत वाले वे सब प्रावादुक अपने-अपने मत का आख्यान करते हैं-प्रशंसा करते हैं। एतद् अनुविविच्य मेधावी, ब्रह्मचर्यं न तद् वसेत् । पृथक् प्रावादुकाः सर्वे, आख्यातारः स्वकं स्वकम् ॥ स्वके स्वके उपस्थाने, सिद्धिरेव नान्यथा । अधोऽपि भवति वशवर्ती, सर्वकामसमर्पितः ७३. सए सए उवदाणे सिद्धिमेव ण अण्णहा । अधो वि होति वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए ॥१४ ७३. (वे कहते हैं) अपने-अपने सांप्रदायिक अनुष्ठान में ही सिद्धि होती है, दूसरे प्रकार से नहीं होती । सिद्धि (मोक्ष) से पूर्व इस जन्म में भी जितेन्द्रिय मनुष्य के प्रति सब कामनाएं समर्पित हो जाती हैंउसे आठों सिद्धियां उपलब्ध हो जाती हैं। ७४. सिद्धा य ते अरोगा य इहमेगेसि आहियं । सिद्धिमेव पुरोकाउं सासए गढिया णरा ॥१५ सिद्धाश्च ते अरोगाश्च, इह एकेषां आहृतम् । सिद्धिमेव पुरस्कृत्य, स्वाशये ग्रथिता: नराः ।। ७४. कुछ दार्शनिकों का यह निरूपण है कि (सिद्धि-प्राप्त मनुष्य शरीरधारी होने पर भी) सिद्ध ही होते हैं । वे रोगग्रस्त होकर नहीं मरते। (किन्तु वे स्वेच्छा से शरीर-त्याग कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।) इस प्रकार सिद्धि को ही प्रधान मानने वाले हिंसा आदि प्रवृत्तियों में आसक्त रहते हैं । १३९ ७५. असंवुडा अणादीयं असंवताः अनादिकं, भमिहिंति पुणो-पुणो । भ्रमिष्यन्ति पुनः पुनः । कप्पकालमुवज्जंति कल्पकालं उपपद्यन्ते, ठाणा आसुरकिब्बिसिय ।।१६ स्थानानि आसुरकिल्विषिकानि ॥ ७५. वे असंवृत मनुष्य अनादि संसार में बार-बार भ्रमण करेंगे। वे कल्प-परिमित काल तक'३७ आसुर और किल्विषिक स्थानों में उत्पन्न होते रहेंगे। -त्ति बेमि ॥ -इति ब्रवीमि ॥ -ऐसा मैं कहता हूं। चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ७६. एते जिया भो! ण सरणं बाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुव्वसंजोगं सितकिच्चोवएसगा ॥१ एते जिताः भो! न शरणं, बालाः पंडितमानिनः । हित्वा पूर्वसंयोगं, सितकृत्योपदेशकाः ७६. हे शिष्य ! विषय और कषाय से पराजित वे प्रावादुक' शरण नहीं हो सकते। वे अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको पंडित मानते हैं। वे पूर्व संयोगों (स्वजन, धन आदि) को छोड़कर पुनः गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देते हैं।" ॥ मापदशकाः ७७. तं च भिक्खू परिणाय विज्ज तेसु ण मुच्छए। अणक्कस्से अणवलीणे मझेण मुणि जावए ।।२ तं च भिक्षुः परिज्ञाय, विद्वान् तेषु न मूर्च्छत् । अनुत्कर्षः अनपलीनः, मध्येन मुनिः यापयेत् ॥ ७७. विद्वान् भिक्षु उनके मतवादों को जानकर उनमें मूच्छित न बने । वह मुनि अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष न दिखाए । इन दोनों से बचकर मध्यमार्ग (तटस्थ भाव) से जीवन यापन करे। ७८. सपरिग्गहा य सारंभा इहमेगेसिमाहियं । अपरिग्गहे अणारंभे भिक्ख जाणं परिवए ॥३ सपरिग्रहाश्च सारम्भाः , इह एकेषां आहृतम् । अपरिग्रहः अनारम्भः, भिक्ष: जानन् परिव्रजेत् ।। ७८. कुछ दर्शनों में यह व्याख्यात है कि परिग्रही और आरम्भ (पचन-पाचन आदि) करने वाले भी मुनि हो सकते हैं । किन्तु ज्ञानी २ भिक्षु अपरिग्रह और अनारंभ के पथ पर चले। Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०१: समय : श्लो० ७९-८६ सूयगडो १ ७६. कडेसु घासमेसेज्जा विऊ दत्तेसणं चरे। अगिद्धो विप्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए।४। कृतेषु ग्रासमेषयेत्, विद्वान् दत्तषणां चरेत् । अगद्धः विप्रमुक्तश्च, अवमानं परिवर्जयेत् ।। ७६. विद्वान् भिक्षु गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत आहार की एषणा (याचना) करे और प्रदत्त आहार का भोजन करे ।" वह आहार में अनासक्त और अप्रतिबद्ध होकर अवमान संखडी (विशेष प्रकार के भोज) में न जाए। ५०.लोगवायं णिसामेज्जा इहमेगेसिमाहियं विवरीयपण्णसंभूयं अण्णवुत्त-तयाणुगं लोकवादं निशाम्येत्, इह एकेषां आहृतम् । विपरीतप्रज्ञासम्भूतं, अन्योक्त-तदनुगम् ॥ ८०. कुछ वादियों द्वारा निरूपित लोकवाद को सुनो, जो विपरीत प्रज्ञा से उत्पन्न है और जो दूसरे की कही हुई बात का अनुगमन मात्र है। ८१. अणंते णितिए लोए सासए ण विणस्सई। अंतवं णितिए लोए इइ धीरोऽतिपासई ।। अनन्तो नित्यो लोकः, शाश्वतः न विनश्यति । अन्तवान् नित्यो लोकः, इति धीरोऽतिपश्यति ।। ८१. कुछ मानते हैं कि लोक नित्य, शाश्वत और अवि नाशी है, इसलिए अनन्त है। किन्तु धीर पुरुष देखता है कि लोक नित्य होने पर भी सान्त है। ५२. अपरिमाणं वियाणाइ इहमेगेसि आहियं । सव्वत्थ सपरिमाणं इइ धीरोऽतिपासई ७। अपरिमाणं विजानाति, इह एकेषां आहृतम् । सर्वत्र सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपश्यति ।। ८२. ज्ञात हो रहा है कि लोक अपरिमित है, वह कुछ धामिकों द्वारा आख्यात है, किन्तु धीर पुरुष सर्वत्र (सब अवस्थाओं में) उसे परिमित देखता है।५० ८३. जे केइ तसा पाणा चिट्ठतदुव थावरा। परियाए अत्थि से अंज जेण ते तसथावरा ।। ये केचित् त्रसाः प्राणाः, तिष्ठन्ति अथवा स्थावराः । पर्याय: अस्ति स ऋजुः, येन ते त्रसस्थावराः ।। ८३. इस लोक में कुछ प्राणी त्रस हैं और कुछ स्थावर हैं। यह उनका व्यक्त पर्याय है। (अपने-अपने व्यक्त पर्याय के कारण) कुछ त्रस होते हैं और कुछ स्थावर होते हैं ।। ८४. उरालं जगतो जोगं विवज्जासं पलेंति य । सव्वे अकंतदुक्खा य अओ सव्वे अहिंसगा ।।। उदारं जगतः योगं, विपर्यासं परायन्ति च । सर्वे अकान्तदुःखाश्च, अत: सर्व अहिंस्यकाः ।। ८४. जगत् में घटित होने वाली विभिन्न अवस्थाएं हमारे सामने हैं । दूसरी विपरीत अवस्था के आने पर पहली अवस्था प्रलीन हो जाती है। कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता, इसलिए सभी जीव अहिंस्य हैं-हिंसा करने योग्य नहीं हैं । १५५ ८५. एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिसइ कंचणं । अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया।१०। एतत खलु ज्ञानिन: सारं, यत् न हिनस्ति कञ्चनम् । अहिंसां समतां चैव, एतावत् विजानीयात् ।। ८५. ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है ।५४ ८६. वुसिते विगयगिद्धी य आयाणं सारक्खए। चरियासणसेज्जासु भत्तपाणे य अंतसो।११। व्यूषितः विगतगद्धिश्च, आत्मानं संरक्षेत् । चर्यासनशय्यासु, भक्तपाने च अन्तशः ।। ८६. संयमी धर्म में स्थित रहे, किसी भी इन्द्रिय-विषय में आसक्त न बने,५६ आत्मा का संरक्षण करे और जीवन-पर्यन्त चर्या, आसन, शय्या और भक्तपान के विषय में होने वाले असंयम से अपने आपको बचाए। Jain Education Intemational Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्र०१: समय : श्लो०८७-८८ ८७. एतेहिं तिहि ठाणेहि संजए सययं मुणी । उक्कसं जलणं णममझत्थं च विगिचए।१२। एतेषु त्रिषु स्थानेसु, संयतः सततं मुनिः । उत्कर्ष ज्वलनं णमं'. अध्यस्तं च विवेचयेत् ।। ८. मुनि इन तीन स्थानों-ईर्या समिति, आसन-शयन और भक्त-पान में सतत संयत रहे । वह मान, क्रोध, माया" और लोभ का विवेक करे-- उन्हें आत्मा से पृथक् करे। ८८. समिए तु सया साहू पंचसंवरसंवडे सितेहि असिते भिक्खू आमोक्खाए परिवएज्जासि ।१३। समितस्तु सदा साधुः, पञ्चसंवरसंवृतः सितेषु असित: भिक्षुः, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ ८८. पांच समितियों से सदा समित, पांच संवरों से संवृत भिक्षु (नाना प्रकार की आसक्तियों और मतवादों से) बंधे हुए लोगों के बीच में अप्रतिबद्ध रहता हुआ अंतिम क्षण तक मोक्ष के लिए परिव्रजन करे । -त्ति बेमि ।। -इति ब्रवीमि । -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन १ श्लोक १: १. बोधि को प्राप्त............ तोड़ डालो (बुज्झज्ज तिउद्देज्जा) ___'आचार: प्रथमो धर्म:-यह आचार-शास्त्र का प्रसिद्ध सूत्र है, किन्तु इस सूत्र में आचार का महत्व प्रतिपादित हुआ है, उसकी पृष्ठभूमी का प्रतिपादन नहीं है। भगवान् महावीर के आचार-शास्त्र का सूत्र है-'ज्ञानं प्रथमो धर्मः'। पहले ज्ञान फिर आचार ।' ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण नहीं हो सकता और अनुपालन भी नहीं हो सकता। ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक करता है तथा अनाचार को छोड़ आचार का अनुपालन करता है । 'बुज्झज्ज तिउट्टेज्जा'-इस श्लोकांश में यही सत्य प्रतिपादित हुआ है। पहले बंधन को जानो फिर उसे तोड़ो । बंधन क्या है ? उसके हेतु क्या हैं ? उसे तोड़ने के उपाय क्या हैं ? इन सबको जानने पर ही उसे तोडा जा सकता है । यह दृष्टि न केवल ज्ञानवाद है और न केवल आचारवाद है । यह दोनों का समन्वय है। चूणिकार ने बुज्झेज्ज, उवलभेज्ज, भिदेज्ज, जहेज्ज और आगमेज्ज-इन सबको ज्ञानार्थक धातु माना है।' बोधि, उपलब्धि, भेद या विवेक, प्रहाण और आगम-ये सब ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । २. तोड़ डालो (तिउद्देज्जा) - इसका अर्थ है-तोडना । त्रोटन दो प्रकार का होता है--द्रव्य-त्रोटन और भाव-त्रोटन । द्रव्य-त्रोटन-अर्थात् किसी भी पौद्गलिक पदार्थ का टूटना । भाव-त्रोटन के तीन साधन हैं-ज्ञान, दर्शन और चरित्र । इन तीन साधनों से अज्ञान, अविरति और मिथ्यादर्शन को तोडना भाव-त्रोटन है। प्रमाद, राग-द्वेष, मोह आदि को तोडना तथा आठ प्रकार के कर्मों के बंधन को तोडना भी भाव-त्रोटन है। ३. महावीर ने (वोरे) वृत्तिकार ने इसका अर्थ-तीर्थंकर किया है।' चूर्णिकार ने इस शब्द के स्थान पर 'धीरे' शब्द मानकर उसका अर्थ-बुद्धि आदि गुणों को धारण करने वाला किया है। ४. बंधन किसे.........तोड़ा जा सकता है ? (किमाह बंधणं.........जाणं तिउट्टइ?) ___ जंबू ने आर्य सुधर्मा से पूछा-भगवान् महावीर की वाणी में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? इन दो प्रश्नों के उत्तर में आर्य सुधर्मा ने कहा-परिग्रह बंधन है, हिंसा बंधन है। बंधन का हेतु है-ममत्व । बंधन-मुक्ति के उपाय हैं१. दसवेआलियं, ४ श्लोक १० : पढमं गाणं तओ दया। २.णि, पृष्ठ ११: बुज्झज्ज वा उवलभेज्ज वा भिदेज्ज वा । एवमन्येऽपि ज्ञानार्था धातवो वक्तव्याः, तद् यथा-जहेज्ज वा आगमेज्ज वा। ३. चूणि, पृष्ट २१ : तिउट्टेज प्रोडेज्ज । सा दुविधा-दव्वत्रोडणा य भावत्रोडणा य । दब्वे देसे सव्वे य । देसे एगतंतुणा एगगुणेण वा छिण्णण दोरो त्रुट्टो बुज्झति, सव्वेण वि त्रुटो त्रुटो चेव भण्णति । भावतोट्टणा भावेणैव भावो त्रोटेतव्वो, णाण-दसण-चरित्ताणि अत्रोडयित्ता तेहिं चेव करणभूतेहि अण्णाण-अविरति-मिच्छादरिसणाणि तोडितब्वाणि, जधुद्दिट्टा वा पमाताविबंधहेतु तोडेज्ज, बंधं च अट्ठ कम्मणियलाणि त्रोडेज्ज । ४. वृत्ति, पत्र १३ : वीरः तीर्थकृत् । ५. चूणि, पृष्ठ २१:धीरो इति बुद्धयादीन् गुणान् बधातीति धीरः। ६. सूयगडो १३१०२,३। ७. वही, १०१।४। Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २० (१) धन और परिवार में अत्राण- दर्शन और ( २ ) जीवन का मृत्यु की दिशा में संधावन । व्यवहार के धरातल पर मनुष्य का पुरुषार्थं दुःख की निवृत्ति और सुख की उपलब्धि के लिए होता है । अध्यात्म के धरातल पर मनुष्य बंधन की निवृत्ति और मोक्ष की उपलब्धि के लिए पुरुषार्थ करता है। बंधन दुःख है और मोक्ष सुख है। अतः दुःख और सुख ही अध्यात्म की भाषा में बंध और मोक्ष - इन शब्दों द्वारा प्रतिपादित हुए हैं। श्लोक २ : ५. श्लोक २ । कर्म-बंध के मुख्य हेतु दो हैं- आरंभ और परिग्रह । राग-द्वेष, मोह आदि भी कर्म-बंध के हेतु हैं किन्तु वे भी आरंभ और परिग्रह के बिना नहीं होते । अतः मुख्यतः इन दो हेतुओं- आरंभ और परिग्रह का ही ग्रहण किया गया है। इन दोनों में भी परिग्रह गुरुतर कारण है । परिग्रह के लिए ही आरंभ किया जाता है। अत: सबसे पहले सूत्रकार प्रस्तुत श्लोक में परिग्रह का निर्देश करते हैं । प्राणातिपात आदि पांच आस्रवों में भी परिग्रह गुरुतर माना गया है, अतः उसका उल्लेख पहले हुआ है—यह चूर्णिकार का अभिमत है ।" वृत्तिकार का अभिमत है कि सभी प्रकार के आरंभ कर्मों के उपादान कारण हैं। ये आरंभ प्रायश: 'मैं' और 'मेरा' इससे उद्भूत होते हैं । 'मैं' और 'मेरा' परिग्रह का द्योतक है । अतः प्रस्तुत श्लोक में सबसे पहले परिग्रह का निर्देश किया गया है। अध्ययन १ टिप्पण ५-७ : चूर्ण और वृत्ति के अनुसार परिग्रह बंध का हेतु है—यह प्रमाणित होता है । यदि परिग्रह को बंध का हेतु न माना जाए तो 'किमाह बंधणं वीरे' - इस प्रश्न का उत्तर मूल पाठ में उपलब्ध नहीं होता । परिग्रह बंधन है - यह स्वीकार करने पर ही उस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत श्लोक में मिल जाता है । ६. चेतन ( चित्तमंतं) चित्त के अनेक अर्थ हैं—जीव, चेतना, उपयोग, ज्ञान' ज्ञानवान् । विशेष विवरण के लिए देखें-- दसवेआलियं पृ० १२४ ७. तनिक भी (किसामवि) चितवत् का अर्थ है - जीव के लक्षणों से युक्त, चेतनावान् अथवा १२५ । कृश, तनु और तुच्छ —ये एकार्थक शब्द हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसे परिग्रह का विशेषण मानकर इसका अर्थतृषमात्र परिग्रह किया है। हमने इसको ममत्व या परिग्रह-बुद्धि के साथ जोड़कर इसका अर्थ-निक भी किया है। प्रस्तुत शब्द 'किसा' में आकार लामिक है वृतिकार ने बैकल्पिक रूप में कस' का अर्वपरिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि से जीव का गमन परिणाम — किया है। चूर्णिकार ने 'किसा' का अर्थ इच्छामात्र या प्रार्थना या कषाय किया है। वैभव न होने पर भी कषाय की बुद्धि से ग्रहण किए जाने वाले वस्त्र पात्र भी परिग्रह बन जाते हैं-यह उनका अभिमत है । " १. सूयगडो, १1१।५ : विसं सोयरिया चैव संधाति जीवितं चेव, २. वृषि पृष्ठ २१, २२ रम्य परिग्रहौ बन्धहेतु" [ ] येsपि च रागादयः ते ऽपि नाऽऽरम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति तेन तावेव वा गरीयांसाविती कृत्वा सूत्रेणैवोपनिबद्धो, तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भः क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमपदिश्यते, पंचण्हं वा पाणातिवातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुअतरो त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो बुच्चति । २. वृत्ति १३ सर्वारम्भाः कमपादानस्याः प्रायश आरमात्मीयपोत्याना इतिकृत्वाऽऽडी परिग्रहमेव दर्शितवान् । ४. दशवेकालिक, जिनदास चूर्णि, पृष्ठ १३५ : चित्तं जीवो भण्णइ.. .... चेयणा । ५. वृति पत्र १३ चित्तम् उपयोगी ज्ञानं । .****** ६. (क) चूर्णि, पृष्ठ २२ : कृशं तनु तुच्छ मित्यनर्थान्तरम्, तृणतुषमात्रमपि । (ख) वृत्ति, पत्र १३ : कृशमपि स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः । ७. वृत्ति, पत्र १३ : यदि वा कसनं कसः - परिग्रहग्रहणबुद्ध्या जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत् । ८. चूर्ण, पृष्ठ २२ : अथवा कषायमपीति इच्छामात्रं प्रार्थना अथवा कषायतः असत्यपि विभवे कषायतः परिगृह्यमाणानि वस्त्र पात्राणि परिप्रहो भवति । सव्वमेयं ण ताणइ । कम्मणा उतिउट्टइ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण ८-११ ८. दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है (अण्णं वा अणुजाणइ) चूर्णिकार का अभिमत है कि प्रस्तुत श्लोक में स्वयं परिग्रह न रखने, दूसरों से परिग्रह न रखवाने का उल्लेख नहीं है, किन्तु इस तृतीय चरण के द्वारा ये दोनों बातें गृहीत की गई हैं।' ६. दुःख से (दुक्खा) दुःख के दो अर्थ हैं-कर्म और कर्म-विधाक । कर्म बंधन है और विपाक उसका परिणाम । परिग्रहो मनुष्य बंधन से मुक्त नहीं हो सकता । अप्राप्त परिग्रह के प्रति उसकी तीव्र आकांक्षा होती है, जो परिग्रह नष्ट हो गया उसके प्रति उसके मन में तीव्र अनुताप होता है, जो है उसके संरक्षण में पूरा आयास करता है और परिग्रह के उपभोग से कभी तृप्ति नहीं होती, अतृप्ति बढ़ती है। ये सारे दुःख ही दुःख हैं। यहां बंध के अर्थ में दुःख शब्द प्रयुक्त है।' श्लोक ३: १०. हनन करता है (तिवातए) चूणिकार और वृत्तिकार ने मूलतः इसको 'त्रिपातयेत् मानकर व्याख्या की है। उन्होंने 'त्रि' शब्द से आयुष्य-प्राण, बल-प्राण और शरीर-प्राण अथवा मन, वचन, काया का ग्रहण किया है । वैकलिक रूप में उन्होंने यहां अकार का लोप मान कर मूल शब्द 'अतिपातयेत्' माना है। प्रस्तुत प्रसंग में यह वैकल्पिक अर्थ ही उचित लगता है। ११. वह अपने वैर को बढ़ाता है (वरं वड्डइ अप्पणो) चूर्णिकार ने वर की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-विरज्यते येन तद् वैरम्'-जिससे विरति की जाती है, वह वैर है। इस शब्द के अनेक अर्थ हैं १. आठ कर्म। २. पाप। ३.वर । ४. वय॑ । प्रस्तुत प्रसंग में “वर" शब्द बन्धन के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रस्तुत श्लोक में हिंसा करना, हिंसा करवाना, और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना-इन तीनों का कथन है। चूणिकार का कथन है कि कुछ दार्शनिक स्वयं हिंसा नहीं करते किन्तु दूसरों से करवाते हैं तथा अनुमोदन भी करते हैं। कुछ दार्शनिक स्वयं हिंसा करते हैं, दूसरों से नहीं करवाते । कुछ दार्शनिक तीनों प्रकार से हिंसा करते हैं। १. चूणि, पृष्ठ २२ : सूचनामात्रं सूत्रं इति कृत्वा स्वयङ्करण कारवणानि अणुमतीए गिहिताई। २. (क) चूणि, पृष्ठ २२ : दुक्खं कर्म तद्विपाकश्च । (ख) वृत्ति, पत्र १३ : दुःखम् -अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वा असातोदयादिरूपं तस्मात् । ३. (क) चूणि, पृष्ठ २२ । (ख) वृत्ति, पत्र १३ : परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु काझाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे चातृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मकाद्वन्धनान्न मुच्यत इति । ४. (क) चूणि, पृष्ठ २२ : तिवायए त्ति आयुर्बलशरीरप्राणेभ्यो त्रिभ्यः पातयतीति त्रिपातयति, त्रिभ्यो वा मनो-वाक्-काययोगेभ्यः पातयति, करणभूतैर्वा मनो-वाक्-काययोगः पातयतीति त्रिपातयति । अतिपातयतीति वा वक्तव्यम्, अकारलोपं कृत्वाऽपदिश्यते तिपातयति। (ख) वृत्ति, पत्र १४ । ५. चूणि, पृष्ठ २२ : विरज्यते येन तद् वैरम् । ६. वही, पृष्ठ २२ : अयवा वेरमिति अटप्पगारं कम्मं । उक्तं हि-पावे वेरे वज्जेति ता वेरं । ७. वही, पृष्ठ २२: कश्चित् स्वयं त्रिविधेऽपि करणे वर्तते, कश्चिद् द्विविधे, कश्चिदेकविधे। Jain Education Intemational Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२ अध्ययन १ : टिप्पण १२-१५ परिग्रह के लिए हिंसा होती है। जहां परिग्रह है वहां हिंसा का होना निश्चित है, इसलिए परिग्रह और हिंसा-ये दोनों परस्पर संबंधित हैं । ये एक ही वस्त्र के दो अंचल हैं । ये दोनों बन्धन के कारण हैं। यद्यपि राग और द्वेष भी बंधन के कारण हैं, किन्तु वे भी परिग्रह और हिंसा से उत्तेजित होते हैं, इसलिए परिग्रह और हिंसा बन्धन के पार्श्ववर्ती कारण बन जाते हैं । परिग्रही व्यक्ति प्राणियों के प्राणों का वियोजन करता है। इस क्रिया से वह सैंकड़ों जन्मों तक चलने वाला वैर बांधता है। इस प्रकार वह दुःख की परम्परा से कभी मुक्त नहीं हो पाता। एक दुःख से मुक्त होते ही दूसरे दुःख में फंस जाता है। चूर्णिकार ने यहां तीन उदाहरणों का उल्लेख मात्र किया है-१. शुनकवध, २. वारत्तक अमात्य ३. मधु बिन्दू ।' श्लोक ४: १२. कुल में (कुले) चूर्णिकार ने कुल शब्द से मातृपक्ष और पितृपक्ष दोनों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने राष्ट्रकूट आदि कुलों का ग्रहण किया है । १३. ममत्व रखता है (ममाती) मनुष्य माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, मित्र आदि में ममत्व रखता है। वह मानता है कि ये सब मेरे है। १४. इस प्रकार परस्पर होने वालो मूर्छा से मूच्छित होकर (अण्णमण्णेहि मच्छिए) चूर्णिकार ने यहां चतुभंगी प्रस्तुत की है(१) कोई मनुष्य माता-पिता आदि में मूच्छित, किन्तु वे इसमें मूच्छित नहीं । (२) वे इसमें मूच्छित किन्तु वह उनमें मूच्छित नहीं । (३) वह उनमें मूच्छित तथा वे भी इसमें मूच्छित । (४) शून्य-०। प्रस्तुत पद तृतीय भंग का द्योतक है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'अन्येषु अन्येषु' मानकर इस प्रकार अर्थ किया है-व्यक्ति पहले माता-पिता के प्रति ममत्व रखता है, फिर पत्नी आदि के प्रति और फिर पुत्र, पौत्र के प्रति ममत्व रखता १५. नष्ट होता रहता है (लुप्पतो) ममत्व के कारण वह मनुष्य बन्धन-मुक्ति के मार्ग पर नहीं चल सकता। ममत्व या मूर्छा बन्धन का हेतु है, (या) दुःख का हेतु है। यहां नष्ट होने का अर्थ है दुःख से मुक्त नहीं होना। १. चूणि, पृष्ठ २२ । मुनि श्री पुष्पविजयजी ने इनका स्थल-निर्देश फुट नोट नं ३ में इस प्रकार किया है-(१) पिंडनियुक्ति गाथा ६२८ तथा टीका । आवश्यकनियुक्ति गाथा १३०३, हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ७०६ अया आवश्यकचूणि, विभाग २, पत्र १९७ । २. चूणि, पृष्ठ २२ : कृले इति मातृ-पितृपक्षे । ३. वृत्ति, पत्र १४ : राष्ट्रकूटादौ कुले। ४ वृत्ति, पत्र १४ : मातृपितृभ्रातृभगिनीभार्यावयस्यादिषु ममायमिति ममत्ववान् । ५. चूणि, पृष्ठ २२ : एत्थ चउभंगो-सो तेसु मुच्छितो ण ते तत्य मुच्छिता १ (ते तत्थ मुच्छिता) ण सो तेसु २। सूत्राभिहितस्तु अण्ण मणेहिं मुच्छित्ते ति सो वि तेसु ते वि तम्मि त्ति ३। चतुर्थ : शून्य ४ । ६. वृत्ति, पत्र १४ : अन्येष्वन्येषु च मूछितो गृद्धोऽच्युपपन्नो, मनत्वबहुल इत्यर्थः, पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति । Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १६-१६ श्लोक ५: १६. भाई और बहिन (सोयरिया) इसका संस्कृत रूप है 'सोदर्याः' । इससे वे व्यक्ति गृहीत हैं जो नालबद्ध होते हैं, एक ही उदर से उत्पन्न होते हैं, जैसे-भाईबहिन ।' १७. ये सब त्राण नहीं दे सकते (सव्वमेयं ण ताणइ) घन, भाई-बहिन आदि त्राण नहीं दे सकते। चूणिकार ने यहां 'पालक पादच्छेद' के उदाहरण की ओर संकेत किया है।' आवश्यक चूणि में यह उदाहरण 'सुलस' के नाम से निर्दिष्ट है। संभव है पालक का ही दूसरा नाम सुलस हो । बह उदाहरण संक्षेप में इस प्रकार है सुलस कालसौकरिक का पुत्र था। कालसौकरिक मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। पारिवारिक लोगों ने सुलस को पिता का उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहा। सुलस ने इन्कार कर दिया। उसने कहा-पिता प्रतिदिन पांचसो भैसों को मारता था। मैं यह कार्य नहीं कर सकता। हिंसा नरक का कारण है। पारिवारिक लोगों ने कहा-हम सब तुम्हारे पाप का विभाग ले लेंगे। तुम केवल एक भैसे को मारना, शेष हम सब कर लेंगे। शुभ मुहूर्त में पुत्र को अभिषिक्त करता था। एक भैसे को सझाया गया। उसके गले में लाल कणेर की माला डानी गई और कुल्हाड़ी पर लाल चन्दन का लेप किया गया। कुल्हाड़ी को सुलस के हाथ में देकर पारिवारिक लोगों ने कहा-'तुम भैंसे पर प्रहार कर अपने व्यवसाय का प्रारंभ करो।' सुलस ने उस कुल्हाड़ी का प्रहार अपने पैरों पर किया । वह मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। सचेत होने पर उसने अपने स्वजनों से कहा-मेरा यह दुःख आप बंटाइए। उन्होंने कहा-दुःख नहीं बांटा जा सकता । हम इसका विभाग लेने में असमर्थ हैं। सुलस ने कहा-फिर आप सब ने यह कैसे कहा कि पांच सौ भैसों के मारने के पाप का हम विभाग कर लेंगे। कोई भी व्यक्ति, चाहे फिर वह अपना सगा भाई ही क्यों न हो, दुःख को नहीं बंटा सकता ।' १८. जोवन मृत्यु को ओर दौड़ रहा है (संधाति जीवितं चेव) जीवन का जो एक-एक क्षण बीत रहा है, उससे मृत्यु-काल सन्निकट होता है। एक-एक क्षण के आयुष्य का बीतने का अर्थ ही है-मृत्यु की ओर बढ़ना । इसी प्रकार जीवन की भांति काम भोग भी विनाश की ओर ही बढ़ते हैं। वे निरंतर विनष्ट होते रहते हैं । जीवन और कामभोग दोनों अनित्य हैं । १६. कर्म के बन्धन को तोड़ डालता है (कम्मगा उ तिउदइ) जब व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है कि इस संसार में कोई भी त्राण नहीं दे सकता और यह जीवन निरंतर मृत्यु की ओर दौड़ा जा रहा है, तब वह कर्म के बंधन को तोड़ने में सफल हो जाता है। कर्म बंधन है। उसके परोक्ष हेतु हैं—राग और द्वेष तथा प्रत्यक्ष हेतु हैं-परिग्रह और हिंसा । कारण को मिटाए बिना कार्य को नहीं मिटाया जा सकता । बंधन के कारणों को तोड़े बिना बंधन को नहीं तोड़ा जा सकता। परिग्रह और हिंसा की मूर्छा को तोड़ना ही वह सत्य है जिसे जान लेने पर बंधन को तोड़ा जा सकता है। प्रस्तुत श्लोक में अध्यात्म चेतना के जागरण के आधारभूत दो तत्त्व बतलाए गएहैं -१. धन और परिवार में त्राण देने की क्षमता का अभाव २. जीवन की नश्वरता और तीसरा आधारभूत तत्त्व है-आत्मा की परिणामि-नित्यता। उसकी चर्चा इसी अध्ययन के सातवें श्लोक से प्रारंभ होती है और अड़सठवें श्लोक में उसका उपसंहार होता है । १. (क) चूणि, पृष्ठ २३ : सोदरिया णाम भाता भगिणी णालबद्धा। (ख) वृत्ति, पत्र १४ । सोदर्या भ्रातृभगिन्यादयः । २. चूणि, पृष्ठ २३ : पालकपादच्छेदोदाहरणं । ३. आवश्यक चूणि, उत्तर भाग, पृष्ठ १६६, १७० । ४. चूणि, पृ २३: समस्तं धाति संधाति मरणाय धावति, जीवनवत् कामभोगाऽपि हि अग्नि-चौरादिविनाशाय वाधंति (धावंति) । एवं जीवितं कामभागांश्चानित्यात्मक जानीहि । Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ २४ अध्ययन १ टिप्पण २०-२४ कान्ने नैतिकता के तीन आधारभूत तत्त्व माने हैं । वे ये हैं - ( १ ) संकल्प की स्वतंत्रता ( २ ) आत्मा की अमरता (३) ईश्वर । श्लोक ६ : २०. श्रमण-ब्राह्मण ( समणमाहणा ) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने श्रमण शब्द से शाक्य आदि श्रमणों का तथा माहन शब्द से परिव्राजक आदि का ग्रहण किया है । चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप में श्रमण का अर्थ साधु और माहन का अर्थ श्रमणोपासक किया है । अथवा तत्पुरुष समास कर श्रमण को भी माहन माना है । " २१. ग्रंथों (परिग्रह और परिग्रह-हेतुओं) (गंबे) ग्रंथ का शाब्दिक अर्थ है बांधने वाला। उसके अनेक प्रकार हैं-सजीव या निर्जीव पदार्थ, धन या पारिवारिक जन, आरंभ और परिवह २२. नहीं जानते हुए ( अयाणंता ) इसका अर्थ है - विरति और अविरति के दोषों को नहीं जानने वाला । * वृतिकार ने इसका अर्थ परमार्थ को नहीं जानने वाला किया है।" प्रस्तुत अध्ययन के ६८वें श्लोक के आधार पर इसका अर्थ जगत् और आत्मा के स्वरूप को नहीं जानने वाला तथा ६६वें श्लोक के आधार पर दुःख और दुःख के हेतुओं को नहीं जानने वाला, फलित होता है । २३. गर्व करते हैं (विउस्सिता ) चूर्णिकार और वृत्तिकार इसके अर्थ में एक मत नहीं हैं। चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - विविध प्रकार से बद्ध तथा बीभत्स रूप में अहंमन्यता रखने वाला ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- अनेक प्रकार से दृढ़ता से बद्ध अर्थात् अपने मत में अभिनिविष्ट ।" श्लोक ७: २४. कुछ दार्शनिकों (नूतवादियों के मत में (एस) इस शब्द से पांच महाभूतवादियों का ग्रहण किया गया है ।" वृत्तिकार ने इस शब्द से बार्हस्पत्यमतानुसारी ( लोकायतिक ) भूतवादियों का ग्रहण किया है । वृत्तिकार ने एक प्रश्न उठाया है कि सांख्य, वैशेषिक आदि भी पांच महाभूतों का सद्भाव मानते हैं फिर प्रस्तुत श्लोक में प्रतिपादित पांच महाभूतों के कथन को लोकायतिक मत की अपेक्षा में ही क्यों मानना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान वे १. (क) चूर्ण, पृष्ठ २३ : श्रवणाः शाक्यादयः, माहणा परिव्राजकादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १४ : श्रमणाः शाक्यादयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्व ब्राह्मणाः । २. चूर्ण, पृष्ठ २३ : समजा लिंगत्या माहना समणोवासना तलुवो वा समासः श्रमणा एव माहणा श्रमणमाहणाः । २. चूर्ण, पृष्ठ २३ ॥ ४. चूर्णि पृष्ठ २३. अथाणंता विरति अविरति दोसे य । ५. वृत्ति पत्र १४ : परमार्थमजानाना । ६. चूर्ण, पृ २३ : बिओलिता, बद्धा इत्यर्थः, बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता । उत् ७. वृत्तपत्र १४ विविधम् अनेकप्रकारम् बद्धाः स्ववयमिनिविष्टाः। ८. चूर्ण, पृष्ठ २३ : एस ण सम्बति, जे पंचभूतवाइयात एवं । ६. वृत्ति, पत्र १५ : एकेषां भूतवादिनाम् आख्यातानि प्रतिपादितानि तत्तोर्यकृता तैर्वा भूतवादित्रिर्वार्हस्पत्य मतानुसारिभिः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण २५-२६ स्वयं देते हुए कहते हैं कि सांख्य प्रधान से महान्, महान् से अहंकार और अहंकार से षोडशक आदि तत्त्व मानते हैं। वैशेषिक काल, दिग्, आत्मा आदि तथा अन्य वस्तु-समूह को भी मानते हैं । लोकायतिक पांच भूतों के अतिरिक्त किसी आत्मा आदि तत्त्व का अस्तित्व नहीं मानते । अतः प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या उन्हीं के मतानुसार की गई है। २५. पांच महाभूत हैं (पंच महन्भूया) पांच महाभूत हैं -पृथिवी, अप, तेजस्, वायु और आकाश । ये भूत सर्वलोकव्यापी हैं, अत: इन्हें 'महाभूत' कहा गया है।' शरीर में जो कठोर भाग है वह पृथिवी भूत है। शरीर में जो कुछ रूप या द्रव भाग है वह अप् भूत है। शरीर में जो उष्ण स्वभाव या शरीराग्नि है वह तेजस् भूत है। शरीर में जो चल स्वभाव या उच्छ्वास-निश्वास है वह वायु भूत है। शरीर में जो शुषिर स्थान है वह आकाश भूत है।' श्लोक: २६. इनके संयोग से (तेब्भो) यह संस्कृत के 'तेभ्यः' का प्रतिरूपक पद है । इसका अर्थ है-इन पांच महाभूतों के संयोग से । वृत्तिकार ने इसका अर्थकाया के आकार में परिणत इन पांच महाभूतों से -ऐसा किया है ।' चूणिकार ने 'ते भो' ऐसा वैकल्पिक पाठ मानकर 'भो' का अर्थ-'शिष्यामंत्रण' किया है।' २७. एक-आत्मा (एगो) यहां एक शब्द 'आत्मा' का द्योतक है। एक ऐसा चेतन द्रव्य (आत्मा) जो भूतों से अव्यतिरिक्त है। भूतवादियों के अनुसार यह समूचा लोक भौतिक है । चेतन और अचेतन सभी द्रव्य भौतिक हैं। २८. विनाश होने पर (विणासे) वृत्तिकार का मत है कि पांच भूतों का काया के आकार में परिणमन तथा उनमें चैतन्य की अभिव्यक्ति हो जाने पर पांच भूतों में से किसी एक भूत की कमी अर्थात् वायु या तेजस् की कमी या दोनों की कमी हो जाने पर प्राणी मृत घोषित हो जाता है। १. वृत्ति, पत्र १५॥ २. वृत्ति, पत्र १५ : महान्ति च तानि भूतानि च महाभूतानि, सर्वलोकव्यापित्वान्महत्त्वविशेषणम् । ३. चूणि, पृष्ठ २३, २४ : तत्र यो ह्यस्मिन् शरीरके कठिनभावो तं पुढविभूतं, यावत् किञ्चिद् रूपं तं आउभूतं, उसिणस्वभावो ___ कायाग्निश्च तेउभूतं, चलस्वभावं उच्छ्वासनिःश्वासश्च वातभूतं, वदनादिशुषिरस्वभावमाकाशम् । ४. चूणि, पृष्ठ २४ । ५. वृत्ति, पत्र १६ : तेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यः । ६. चूणि, पृष्ठ २४ : अथवा ते भो ! एगो त्ति सिस्सामन्त्रणं । ७. वृत्ति, पत्र १६ : एक कश्चिच्चिद्रूपो भूताव्यतिरिक्त आत्मा भवति । ८. चूणि, पृष्ठ २४ : भौतिकोऽयं लोकः चेतन मचेतनद्रव्यं सर्वं भौतिकम् । ६. वृत्ति, पत्र १६ : अथैषां कायाकारपरिणती चैतन्याभिव्यक्ती सत्यां तदूर्व तेषामन्यतनस्य विनाशे अपगमे वायोस्तेजश्चोभयो .......ततश्च मृत इति व्यपदेशः प्रवर्तते । Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६ २६. आत्मा (देहो ) का विनाश हो जाता है (विजासो होइ देहिणो ) प्राणी का विनाश हो जाता है अर्थात् उसे मृत कह दिया जाता है। इस घटना में केवल किसी एक भूत का विनाश होता है । उसके विनष्ट होते ही प्राणी मर जाता है। इसमें भूतों से व्यतिरिक्त किसी जीव या आत्मा का अपगम नहीं होता। यह भूतवादियों का पूर्वपक्ष है। शरीर पांच भूतों से निर्मित है किसी एक भूत की कमी होने पर पृथ्वी भूत पृथ्वी में अप् भूत बप् में, बापु भूत वायु में तेजस् भूत तेजस में और आकाश भूत आकाश में मिल जाता है। जूमिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्य की पांच गाथाएं तथा उनकी स्वोपज्ञवृत्ति का उद्धरण प्रस्तुत कर भूतवादियों के मत का निराकरण किया है। श्लोक ७-८ : ३०. श्लोक ७-८ आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करने वाले दार्शनिक भूतवादी कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में उन्हें 'पंचमहामति' कहा गया है। वही वावृति जैसे किसी भी शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं है। वर्तमान में पावक या बृहस्पति के सिद्धान्त-सूत्र मिलते है उनमें चार भूतों पृथिवी, अ, तेज और वायु का ही उल्लेख मिलता है। इनमें आकार परिगणित नहीं है । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानने वाले चार्वाक अमूर्त आकाश को मान भी कैसे सकते हैं ? दर्शनयुगीन साहित्य में चार्वाक सम्मत चार भूतों का ही उल्लेख मिलता है । आगम युग में पंवभूतवादी थे । पकुधकात्यायन पंचभूतों को स्वीकार करते थे और आत्मा को नहीं मानते थे । भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और भूरों का विनाश होने पर चैतन्य विनष्ट हो जाता है। यह अनात्मवादियों का सामान्य सिद्धान्त है । इसकी प्रतिध्वनि दर्शतयुग के साहित्य में भी मिलती है ।" शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व नहीं है, इसलिए परलोक, पुनर्जन्म और मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता । भूतवादी सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु ही मोक्ष है। वे धर्माचरण को भी महत्त्व नहीं देते । उनका प्रतिपाद्य है कि धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए । इसकी पुष्टि में उनका तर्क है कि उसका फल परलोक में होता है । जब परलोक ही संदिग्ध है तब उसका फल असंदिग्ध कैसे होगा ? कौन समझदार पुरुष हाथ में आए हुए मूल्यवान् पदार्थ को दूसरे को सौंपना चाहेगा ? कल मिलने वाले मयूर की अपेक्षा आज मिलने वाला कबूतर अच्छा है। संदिग्ध सोने के सिक्के की अपेक्षा निश्चित चांदी का सिक्का अच्छा है । " श्लोक : अध्ययन १ : टिप्पण २६-३१ ३१. विल (ड) (विष्णू) चूर्णिकार ने 'विष्णु' ( विज्ञ) का वैकल्पिक अर्थ विष्णु भी किया है।" वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'विद्वान्' किया है ।" इति भूताव्यतिरिक्तन्यवादपूर्वपक्ष इति । १. वृत्ति पत्र १६ ततश्च मृत इति देशः प्रवर्तते २. चूर्णि, पृष्ठ २४ : विणासो नाम पञ्चस्वेव गमनम् पृथिवो पृथिवीमेव गच्छति, एवं शेषाण्यपि गच्छन्ति । ३. चूर्णि, पृष्ठ २४ में उद्धृत विशेषावश्यक भाष्य गाथा १६५१ – ५५ तथा स्वोपज्ञ टीका । ४. सूयगडो, २।१।२३ : अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहम्भूइए त्ति आहिज्जइ । ५. तत्त्वोपपृथिव्यतेजोवायुरिति तस्वानि । तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय विषयसंज्ञा ॥ ६. देखें - गडो १।१।१५, १६ का टिप्पण | ७. (क) षड्दर्शनसमुच्चय, तर्क रहस्यदीपिका, पृष्ठ ४५८ : यदुवाच वाचस्पति:(ख) सम्मति तर्क, वृत्ति पत्र परलोकनोऽभावात् परलोकाभावः । ८. कामसूत्र " इति लोकायतिका: ६. चूणि, पृष्ठ २५ विष्णुरिति विद्वान् विष्णुर्वा । १०. वृत्ति, पत्र १६ । न धर्मांश्चरेत् । एष्यत्फलत्वात् । सांशयिकत्वाच्च । कोह्यवालियो हस्तगतं परतं कुर्शत् । वरनयकपोतः श्वो मयूरात् । वरं सान् निष्कासांशयिकः कार्याः ॥ "तेभ्यश्चैतन्यम् : Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ अध्ययन १: टिप्पण ३२-३५ सूयगडो १ 'विष्णु' जीव का पर्यायवाची नाम है।' श्लोक १०: ३२. हिंसा से प्रतिबद्ध (आरंभणिस्सिया) जो हिंसायुक्त व्यापार में आसक्त, संबद्ध, अध्युगमन होते हैं वे 'आरंभनिश्रित' कहे जाते हैं। ३३. तीव्र (तिव्वं) यह दुःख का विशेषण है । चूणिकार ने इसका संस्कृत रूप 'त्रिम्' कर इसका अर्थ-कायिक आदि तीन प्रकार का कर्म किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-कर्म ।' ३४. भोगता है (णियच्छइ) इसका अर्थ है-भोगना, वेदन करना, अवश्य प्राप्त करना। आर्ष प्रयोग के कारण यहां बहुवचन के स्थान पर एक वचन है। संभव है कि छन्द की दृष्टि से ऐसा किया गया है । श्लोक ९-१० : ३५. श्लोक ९-१० सत् एक था। यह सिद्धान्त ऋग्वेद में प्राप्त होता है। किन्तु वह 'सत्' आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। एकात्मवाद का सिद्धान्त उपनिषदों में मिलता है । छान्दोग्य उपनिषद् में बताया है कि एक मृत् पिंड के जान लेने पर सब मृण्मय विज्ञात हो जाता है । घट आदि उसके विकार हैं । मृत्तिका ही सत्य है।" चूर्णिकार ने पृथ्वी स्तूप की ब्याख्या दो प्रकार से की है १. एक पृथ्वीस्तूर नाना प्रकार का दीखता है। जैसे-निम्मोन्नत भूभाग, नदी, समुद्र, शिला, बालू धूल, गुफा, कंदरा आदि भिन्न-भिन्न होने पर भी पृथ्वी से व्यतिरिक्त नहीं दीखती । २. एक मिट्टी का पिंड कुम्हार के चाक पर आरोपित होने पर भिन्न-भिन्न प्रकार से परिणत होता हुआ घट के रूप में निवर्तित होता है । उसी प्रकार एक ही आत्मा नाना रूपों में दृष्ट होता है। इस प्रसंग में चूर्णिकार ने 'ब्रह्मबिन्दु' उपनिषद् का एक श्लोक उद्धृत किया है-एक ही भूतात्मा सब भूतों में व्यवस्थित है। वह एक होने पर भी जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब की भांति नाना रूपों में दिखाई देता है। १. भगवई २०१७ : जीवस्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पण्णता? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता, तं जहा-जीवे इ वा......."विण्णू इ वा । २. वृत्ति, पत्र २० : आरम्भे-प्राण्युपार्दनकारिणि व्यापारे नि:श्रिता-आसक्ताः संबद्वा अध्युपपन्नाः । ३. चूणि, पृष्ठ २५; २६ : त्रित्रकारं कायिकादि कर्म .............."अथवा त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रम्, किञ्च तत् ? कर्म । ४. (क) चूणि, पृष्ठ २५ : णियच्छति वेदयतीत्यर्थः। (ख) वृत्ति, पत्र २० : निश्चयेन यच्छन्त्यवश्यतया गच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति । ५. वृत्ति, पत्र २० : आर्षत्वाद् बहुवचनार्थे एकवचनमकारि। ६. ऋग्वेद १११६४१४६ : एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । ७. छांदोग्य उपनिषद् ६११४४ : यया सौम्यकेन मृपिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात् । वाचाारम्भणं विकारो नामधेयं, मृत्तिकेत्येव सत्यम् । ८. चूणि, पृष्ठ २५ ॥ ६. ब्रह्मबिन्दूपनिषत् श्लोक १२ : एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुषा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ Jain Education Intemational ation Intermational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडी १ २८ अध्ययन १ : टिप्पण ३६-३८ कठोपनिषद् में भी एक ही आत्मा के अनेक रूपों को अग्नि के उदाहरण द्वारा समझाया गया है, जैसे—अग्नि जगत् में प्रवेश कर अनेक रूपों में व्यक्त होता है, वैसे ही एक आत्मा सब भूतों की अन्तरात्मा में प्रविष्ट हो नाना रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। प्रस्तुत सूत्र में एक के नानारूपों में अभिव्यक्त होने का प्रतिपादन है । उसका पूर्तपक्ष छान्दोग्य उपनिषद् का मृत्पिंड और उसके नानात्व का प्रतिपादन ही संगत प्रतीत होता है। प्रतिबिम्व या प्रतिरूपता का सिद्धान्त प्रस्तुत सूत्र में विवक्षित नही है और सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर यह दृश्य जगत् के साथ उतना संगत भी नहीं है । नानात्व के सिद्धान्त की एक द्रव्य के नाना पर्यायों के साथ संगति हो सकती है, किन्तु प्रतिबिम्ब का सिद्धान्त संगत नहीं होता। इसका संबंध सादृश्य से है, पर्याय से नहीं है । tre यह रही है कि एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान भी है । अनन्त आत्माएं हैं और प्रत्येक आत्मा इसलिए स्वतंत्र है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है। चेतना व्यक्तिगत है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है । इसका प्रतिपादन प्रस्तुत सूत्र के २/१/५१ में किया गया है । एकात्मवाद में किया की सार्थकता नहीं होती। इसीलिए एकात्मवादी ज्ञानवादी होते हैं, किपाबादी नहीं होते 'मन्द' शब्द से यही तथ्य सूचित होता है एकात्मवाद में न कोई हिस्य होता है और न कोई हिंसक इसलिए हिंसा करते हुए भी हिसा को नहीं मानते 'आरंभनित यही तथ्य सूचि होता है तो में भी 'मंद' और 'आरंभनिधित' ये दो पद हैं। इससे प्रतीत होता है कि सूत्रकार ने 'मंद' शब्द के द्वारा एकात्मवाद और अकारकवाद दोनों के अक्रियावादी होने की सूचना दी है । 'आरंभनिश्रित' शब्द के द्वारा इस सूचना का अनुमान भी किया जा सकता है कि इन दोनों को सृष्टि का आरंभ स्वीकृत है । । चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'पुढवीयूभे' की व्युत्पति इस प्रकार की है - ' पृथिव्येव स्तूप : ' - पृथ्वी ही स्तूप है ।' वृत्तिकार ने इस व्युत्पत्ति के साथ-साथ पृथिव्या वा स्तूपः पृथ्वी का स्तूप, यह व्युत्पत्ति भी की है।' श्लोक ११ : २६. कसणे) इसका अर्थ है- सर्व, अखंड | चूर्णिकार ने इसका अर्थ - शरीर मात्र' किया है और शरीर से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं होती, ऐसे पूर्वपक्ष का उल्लेख किया है ।" ३७. जो शरीर हैं वे ही आत्माएं हैं ( संति) जो शरीर हैं, वे ही आत्माएं हैं। जब तक शरीर हैं तब तक ही आत्माएं हैं - यह इस शब्द का तात्पर्यार्थ है। (पेच्चा ण ते संति) ३८. वे आत्माएं परलोक में नहीं जातीं ये आत्माएं परलोक में नहीं जातीं, क्योंकि काया के आकार में परिवतों में चैतन्य पैदा होता है और उनके विघटन से चैतन्य नष्ट हो जाता है। एक भव से दूसरे भव में जाने वाला चैतन्य प्राप्त ही नहीं होता, इसलिए परलोक में जाने वाला, शरीर से मिन, स्वकर्मफल को भोगने वाला 'आत्मा' नाम का कोई पदार्थ नहीं है।" १. कठोपनिषद् ५२ २. पूर्णि, पृ० २५ । ३. वृत्ति, पत्र १६ ॥ : - अग्निको भुवनं प्रविष्ट रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च । ४. वृत्ति, पत्र २० : कृत्स्नाः सर्वेऽप्यात्मानः । ५. चूणि, पृ० २६ : कसिणो णाम शरीरमात्रः, न तु शरीराद् व्यतिरिच्यते । ६. वृत्ति, पत्र २० : सन्ति विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विद्यन्ते । ७. वृत्तपत्र २०वाकारपरिणतेषु भूतेषु चेत्यादिनां भवति भूतादविघटनेच चैतन्यलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति - 'पिन्वा न ते संती' ति प्रेत्य परलोके न ते आत्मानः सन्ति विद्यन्ते परलोकानुयायी शरीराद् मिन्नः स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माखयः पदार्थोऽस्तीति भावः । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६ अध्ययन १: टिप्पण ३९-४० ३६. उनका पुनजन्म नहीं होता (पत्थि सत्तोववाइया) प्राणी एक भव से दूसरे भव में नहीं जाते। यहां 'अरित' शब्द तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। यह बहुवचन में प्रयुक्त है ।' उपपात का अर्थ है- उत्पत्ति या जन्म । जो जन्म से निष्पन्न है वह औपपातिक कहा जाता है । यह वृत्तिकार का अभिमत है। प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है। उपपात जन्म का एक प्रकार है । देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं। उनका गर्भ आदि में से नहीं गुजरना पड़ता। वे तत्काल सम्पूर्ण शरीर वाले ही उत्पन्न होते हैं । यह अर्थ यहां गम्य नहीं है। 'आयारो' में भी सामान्य जन्म के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध है। श्लोक ११-१२ ४०. श्लोक ११-१२: अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचारों का वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध (१११३-२२) में विस्तार से मिलता है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है.........पर के हलवे से ऊपर, शिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है-शरीर ही जीव है । यही पूर्ण आत्म-पर्याय है । यह जीता है (तब तक प्राणी) जीता है, यह मरता है (तब प्राणी) मर जाता है। शरीर रहता है (तब तक) जीव रहता है। उसके विनष्ट होने पर जीव नहीं रहता। शरीर पर्यन्त ही जीवन होता है। जब तक शरीर होता है तब तक जीवन होता है। [शरीर के विकृत हो जाने पर] दूसरे उसे जलाने के लिए ले जाते हैं। आग में जला देने पर उसकी हड्डियां कबूतर के रंग की हो जाती हैं । आसंदी (अरथी, चारपाई) को पांचवीं बना उसे उठाने वाले चारों पुरुष गांव में लौट आते हैं। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता। जिनके मत में यह सु-आख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह इसलिए सु-आख्यात नहीं है कि वे इस प्रकार नहीं जानते कि आयुष्मान् ! यह आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व, वलयाकार है या गोल, त्रिकोण है या चतुष्कोण, लम्बा है या षट्कोण । कृष्ण है या नील, लाल है या पीला या शुक्ल । सुगंधित है या दुर्गन्धित । तीता है या कडुआ, कषैला है या खट्टा या मधुर । कर्कश है या कोमल, भारी है या हल्का, शीत है या उष्ण, चिकना है या रूखा। (आत्मा का किसी भी रूप में ग्रहण नहीं होता।) इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता। जिनके मत में यह सु-आख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह इसलिए सु-आख्यात नहीं है कि उन्हें वह इस प्रकार उपलब्ध नहीं होता जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह तलवार है, यह म्यान । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष मूंज से शलाका को निकाल कर दिखलाए—आयुष्मान् ! यह मूंज है, यह शलाका। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष मांस से हड्डी को निकालकर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह मांस है, यह हड्डी । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष हथेली में लेकर आंवले को दिखलाए-आयुष्मान् ! यह हथेली है, यह आंवला । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। १. वृत्ति पत्र २१ : अस्तिशब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः । २. वृत्ति, पत्र २१ : उपपातेन निर्वृत्ताः औपपातिकाः। ३. आयारो, २२,४: अस्थि मे आया ओववाइए, णस्थि मे आया ओववाइए। Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सूयगडो १ अध्ययन १:टिप्पण ४०-४१ __ जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह नवनीत है, यह दही । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल निकाल कर दिखलाए- आयुष्मान् ! यह तेल है, यह खली । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष ईख से रस निकाल कर दिल!ए- आयुष्मान् ! यह ईख का रस है, यह छाल । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। जैसे कोई पुरुष अरणी से आग निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान ! यह अरणी है, यह आग। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं है।' जैन साहित्य में तज्जीव-तच्छरीरवाद का उल्लेख है किन्तु उसके पुरस्कर्ता तीर्थकर का उल्लेख नहीं है । बौद्ध साहित्य में उसके तीर्थकर का भी उल्लेख प्राप्त है। बौद्ध साहित्य में उपलब्ध अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचारों की उक्त विचारों तथा प्रस्तुत श्लोक-युगल से तुलना करने पर सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इस श्लोक-युगल में अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचार प्रतिपादित हुए हैं । दीघनिकाय के अनुसार अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचार इस प्रकार हैं .......दान नहीं है, यज्ञ नहीं है, आहुति नहीं है । सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल-विपाक नहीं है । न यह लोक है और न परलोक । न माता है और न पिता। औपपातिक सत्त्व (देव) भी नहीं हैं। लोक में सत्य तक पहुंचे हुए तथा सम्यक् प्रतिपन्न श्रमणब्राह्मण नहीं हैं जो इस लोक और परलोक को स्वयं जानकर, साक्षात् कर बतला सकें। प्राणी चार महाभूतों से बना है । जब वह मरता है तब (शरीरगत) पृथ्वी तत्त्व पृथ्वीकाय में, पानी तत्त्व अप्काय में, अग्नि तत्त्व तेजस् काय में और वायु तत्त्व वायुकाय में मिल जाते हैं । इन्द्रियाँ आकाश में चली जाती हैं। चार पुरुष मृत व्यक्ति को खाट पर ले जाते हैं । जलाने तक उसके चिन्ह जान पड़ते हैं । फिर हड्डियां कपोत वर्ण वाली हो जाती हैं। आहुतियां राख मात्र रह जाती हैं । 'दान करो' यह मूों का उपदेश है । जो आस्तिकवाद का कथन करते हैं, वह उनका कहना तुच्छ और झूठा विलाप है । मूर्ख हो या पंडित, शरीर का नाश होने पर सब विनष्ट हो जाते हैं। मरने के बाद कुछ नहीं रहता।' ४१. श्लोक १२: भूतों से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, भूतों के विघटित होने पर आत्मा का अभाव हो जाता है-इस पक्ष को पुष्ट करने वाले दृष्टांतों का उल्लेख वृत्तिकार ने किया है । वे इस प्रकार हैं १. जल के बिना जल का बुबुद् नहीं होता, इसी प्रकार भूतों के व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। २. जैसे केले के तने की छाल को निकालने लगें तो उस छाल के अतिरिक्त अन्त तक कुछ भी सार पदार्थ हस्तगत नहीं होता, इसी प्रकार भूतों के विघटित होने पर भूतों के अतिरिक्त और कुछ भी सारभूत तत्त्व प्राप्त नहीं होता। ३. जब कोई व्यक्ति अलात को घुमाता है तो दूसरों को लगता है कि कोई चक्र घूम रहा है, उसी प्रकार भूतो का समुदाय भी विशिष्ट क्रिया के द्वारा जीव की भ्रान्ति उत्पन्न करता है। १. सूयगडो २११२१५-१७ । २. दीघनिकाय ११२।४।२२ : एवं वुत्ते, भंते, अजितो केसकंबलो मं एतदवोच -नत्थि, महाराज, दिन्नं, नत्थि यिठें, नत्थ हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नथि अयं लोको, नत्यि परो लोको, नत्यि माता, नत्थि पिता, नथि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमं च लोकं परं च लोकं सयं अभिआ सच्छिकत्वा पवेदेन्ति । चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो यदा कालं करोति, पठवी पठविकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आकासं इन्द्रियानि सङ्कनन्ति । आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति । यावाब्वाहना पदानि पञ्चायन्ति । कापोतकानि अट्ठीनि भवंति । भस्सन्ता आहुतियो । दत्तुपञ्जत्तं यदिदं दानं । तेसं तुच्छ मुसा विलापो ये केचि अथिकवादं वदन्ति । बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति, न होन्ति परं मरणा'ति । Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण ४२-४४ ५. जैसे स्वप्न में विज्ञान बहिर्मुख आकार के रूप में अनुभूत होता है, आन्तरिक घटना बाह्य अर्थ के रूप में प्रतीत होती है, ___ इसी प्रकार आत्मा के न होने पर भी भूत समुदाय में विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। ५. जब स्वच्छ कांच में बाहर के पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है तब ऐसा लगता है कि वह पदार्थ कांच के अन्दर स्थित है, किन्तु वह वैसा नहीं है। ६. जैसे गर्मी में भूमी की उष्म' से उत्पन्न किरणें दूर से देखने पर जल का भ्रम उत्पन्न करती हैं, ७. जैसे गन्धर्वनगर आदि यथार्थ न होने पर भी यथार्थ का भ्रम उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार काया के आकार में परिणत भूतों का समुदाय भी आत्मा का भ्रम उत्पन्न करता है । यथार्थ में वह उससे पृथग् नहीं है। वृत्तिकार ने अंत में लिखा है-'इन दृष्टांतों के प्रतिपादक कुछ सूत्र कहे जाते हैं किन्तु मुझे प्राचीन सूत्र-प्रतियों तथा प्राचीन टीकाओं में वे प्राप्त नहीं हुए इसीलिए मैंने उनका उल्लेख नहीं किया है।' श्लोक १४: ४२. यह लोक (लोए) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-सम्यक्त्वलोक, ज्ञानलोक या संयमलोक, अथवा इहलोक या परलोक या दूसरा कोई लोक । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-चतुर्गत्यात्मक संसार किया है। लोक शब्द का अर्थ-दर्शन, दृष्टि या आलोक भी किया जा सकता ४३. हिंसा से प्रतिबद्ध (आरंभणिस्सिया) आरंभ के दो प्रकार हैं१. द्रव्य आरंभ-छह जीवनिकायों का वध आदि । २. भाव आरंभ-हिंसा आदि में परिणत अशुभ संकल्प ।' वृत्तिकार ने हिंसाजन्य व्यापार से संबद्ध व्यक्ति को 'आरंभनिश्रित' माना है।" ४४. तमसे घोर तम की ओर चले जाते हैं-(तमाओ ते तमं जंति) तम के दो प्रकार हैं१. द्रव्य तम-नरक, तमस्काय, कृष्णराजि । ये तीनों अंधकारमय हैं । २. भाव तम-मिथ्यादर्शन, एकेन्द्रिय अवस्था।' मिथ्यादर्शन में दृष्टि अंधकारपूर्ण होती है और एकेन्द्रिय जीव स्त्यानद्धि निद्रा (गहन सुषुप्ति) में होते हैं इसलिए ये तमस् की अवस्था में रहते हैं। १. वृत्ति, पत्र २१ : अस्मिश्चार्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा--........... ....भ्रान्ति समुत्पादयतीति । अमीषां च दृष्टान्तानां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते, अस्माभिस्तु सूत्रादर्शषु चिरन्तनटीकायां चादृष्टवान्नोल्लिखितानीति । २. चूणि, पृष्ठ २८ : लोकत्वात् सम्यक्त्वलोको ज्ञानलोकः संयमलोको वा, अथवा योऽभिप्रेतो लोकः परोऽन्यो वा । ३. वृत्ति, पत्र २३ : लोकः चतुर्गतिकसंसारः । ४. चूणि, पृष्ठ २८ : आरम्भे द्रव्ये भावे च । द्रव्ये षट्कायवधः, भावे हिंसादिपरिणता असुभसंकप्पा । ५. वृत्ति, पत्र २३ :प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे-व्यापारे निश्चयेन नितरां वा श्रिताः-संबद्धाः, पुण्यपापयोरभाव इत्याश्रित्य परलोकनिरपेक्षतयारम्भनिश्रिता इति । ६. चणि, पृष्ठ २८: तमो हि द्वेधा-ध्ये भावे च । द्रव्ये नरकः तमस्कायः कृष्णराजयश्च, भावे मिथ्यावर्शनं एकेन्द्रिया वा। Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३२ अध्ययन १: टिप्पण ४५ तम के दो अर्थ हैं-मिथ्यादर्शन या अज्ञान ।' चूर्णिकार के अनुसार इस पद का अर्थ है-वे प्राणी अज्ञान से अज्ञान की ओर ही जाते है। वृत्तिकार ने इस पद के दो अर्थ किए हैं१. वे प्राणी अज्ञान से घोर अज्ञान में जाते हैं। २. एक यातनास्थान (नरक) से दूसरे महत्तर यातनास्थान (सातवें नरक) में जाते हैं। ४५. श्लोक १३-१४: अक्रियावादि पूरणकाश्यप का दार्शनिक पक्ष है। बौद्ध साहित्य में पूरणकाश्यप के विचारों का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ 'कर्म करते-कराते, छेदन करते-कराते, पकाते-पकवाते, शोक कराते, परेशान होते, परेशान करते, चलते-चलाते, प्राणों का अतिपात करते, अदत्त लेते, सेंध लगाते, गांध लूटते, चोरी-बदमाशी करते, परस्त्रीगमन करते तथा झूठ बोलते हुए भी पाप नहीं होता । तीक्ष्ण धार के चक्र से काटकर इस पृथ्वी के प्राणियों का कोई मांस का एक खलिहान बना दे, मांस का एक पुंज बना दे, तो भी उसको उसके द्वारा पाप नहीं होगा, पाप का आगम नहीं होगा। यदि घात करते-कराते, छेदन करते-कराते, पकाते-पकवाते, गंगा नदी के दक्षिण तट पर भी चला जाए तो भी इसके कारण उसके पाप नहीं होगा, पाप का आगम नहीं होगा। दान देतेदिलाते, यज्ञ करते-कराते, गंगा के उत्तर तीर पर भी आ जाए तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं होगा, पुण्य का आगम नहीं । दान से, दमन से, संयम से और सत्य-वचन से पुण्य नहीं होता, पुण्य का आगम नही होता।" पकुधकात्यापन और पूरणकाश्यप-ये दोनों ही अक्रियवादी थे। ये दोनों ही पुण्य और पाप को अस्वीकार करते थे। प्रस्तुत श्लोकों की व्याख्या सांख्यदर्शनपरक भी की जा सकती है । चूर्णिकार ने इसका संकेत भी दिया है ।' सांख्यदर्शन के अनुसार तेरहवें श्लोक का अनुवाद इस प्रकार होगा-'आत्मा कुछ करता है और कुछ करवाता है, किन्तु सब कुछ नहीं करता, इसलिए वह अकर्ता है । अक्रियावादी इस सिद्धान्त की स्थापना करते हैं।' चूणिकार ने लिखा है-आत्मा सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में सब कुछ नहीं करता, इसलिए वह अकर्ता है।' वृत्तिकार ने लिखा है-(अकारवाद सांख्य दर्शन) के अनुसार आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है, इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता। यद्यपि उसमें स्थितिक्रिया तथा मुद्रा-प्रतिबिम्ब न्याय से भुजिक्रिया होती है, फिर भी वह सब क्रियाओं का कर्ता नहीं है, इसलिए वह अकर्ता है। सांख्यकारिका में पुरुष (आत्मा) के पांच धर्म बतलाए गए हैं-साक्षित्व, कैवल्य, माध्यस्थ्य, द्रष्टत्व और अकर्तृत्व । पुरुष के अकर्तृत्वभाव की सिद्धि में दो हेतु हैं-'पुरुष विवेकी है तथा उसमें प्रसव धर्म का सर्वथा अभाव है। अविवेकिता से ही सम्भूयकारिता के रूप में कर्तृत्व आता है तथा जो प्रसवधर्मी अर्थात् अन्य तत्त्वों को उत्पन्न करने की क्षमता रखता है, वही कर्ता हो १. चूणि, पृष्ठ २८ : तम इति मिथ्यादर्शनं अज्ञानं वा। २. वृत्ति, पत्र २३ : अज्ञानरूपात्तमसः सकाशादन्यत्तमो यान्ति, भूयोऽपि ज्ञानावरणादिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वन्तीयुक्तं भवति, यदिवा -तम इव तमो-देःखसमुद्घातेन सदसद्विवेकप्रध्वंसित्वाद्यातनास्थानं तस्माद्-एवंभूतात्तमसः परतरं तमो यान्ति, सप्तमनरकपृथिव्यां रौरवमहारौरवकालमहाकालाप्रतिष्ठानाख्यं नरकावासं यान्तीत्यर्थः । ३. दीघनिकाय १।२।४।१७ ॥ ४. चूणि, पृष्ठ २७ : एगे णाम सांख्यादयः । ५. वही, पृष्ठ २७ : सव्वं कुव्वं ण विज्जति त्ति, सर्व सर्वथा सर्वत्र सर्वकाल चेति । ६. वृत्ति, पत्र २१,२२ : अकारकवादिमताभिधित्सया आह......." आत्मनश्चामूर्तत्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः, अत एव हेतोः कारयितृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति । . . . . . . . . 'यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन (जपास्फटिकन्यायेन च) भुजिक्रियां करोति तथापि समस्तक्रियाकर्तृत्वं तस्य नास्ति । ७. सांख्यकारिका १६ : तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टुत्वमकत भावश्च ॥ Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ टिप्पण: ४६-४६ सकता है । ये दोनों अविवेकता (सम्भूयकारिता) और प्रसवर्मिता गुणों के ही धर्म हैं । अत: जहां गुण नहीं हैं उस पुरुष तत्त्व में इन दोनों धर्मों का भी अभाव ही रहेगा, इसलिए वह कर्ता नहीं, अकर्ता ही सिद्ध होता है।" कर्तृत्व सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों में ही निहित है, फिर भी उनकी सन्निधि से वह कर्ता की भांति प्रतीत होता इस अभिमत के संदर्भ में तेहरवें श्लोक के प्रथम दो चरणों का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है-आत्मा सब कुछ करने वाला और कराने वाला है (ऐसा प्रतीत होता है), (किन्तु वास्तव में) वह कर्ता नहीं है। सांख्य दर्शन में कर्तृत्व का विचार अधिष्ठातृत्व और उपादान-इन दो दृष्टियों से किया गया है। 'मिट्टी से घड़ा बनता है'-इसमें मिट्टी उपादान है । 'मिट्टी घड़ा बन जाती है'- इस वाक्य में उपादान कर्ता रूप में प्रस्तुत है। प्रकृति कर्ता है-इसका तात्पर्य यह है कि प्रकृति बुद्धि आदि तत्त्वों का उपादान कारण है । पुरुष उनका उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह अकर्ता है। पुरुष के सान्निध्य के बिना प्रकृति में परिणाम नहीं हो सकता, इसलिए वह अपनी सन्निधि के कारण उस परिणाम का साक्षी है, उसका अधिष्ठाता है । इस अधिष्ठातृत्व की दृष्टि से वह कर्ता भी है । तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि पुरुष प्रकृति के परिणमन का उपादान के रूप में कर्ता नहीं है, वह साक्षी रूप में कर्ता है। प्रकृति में उपादानमूलक कर्तुत्व है, पूरुष में अधिष्ठातृमूलक । यह सापेक्ष कर्तृत्व और अकर्तृत्व ही प्रस्तुत श्लोक में विवक्षित है। ४६. आत्मा को छटा तत्त्व मानने वाले (आयछट्रा) आत्मा को छट्ठा तत्त्व मानने वाले अर्थात् पांच महाभूतों से यह शरीर निष्पन्न हुआ है और आत्मा छट्ठा तत्त्व है-ऐसा मानने वाले दार्शनिक । ४७. आत्मा और लोक शाश्वत हैं (आया लोगे य सासए) __'लोगे' का अर्थ है-पृथिवी आदि रूप वाला लोक । चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-१. प्रधान (प्रकृति) २ सम्यक्त्व । कुछ दार्शनिक आत्मा और पांच भूतों को अनित्य मानते थे किन्तु आत्मषष्ठवादी इन्हें शाश्वत मानते थे । आत्मा सर्वव्यापी तथा अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह शाश्वत है तथा पृथिवी आदि भूत अपने रूप से कभी प्रच्युत नहीं होते अतः वे भी शाश्वत हैं । ४८. ते ___ चूणिकार ने 'ते' शब्द से आत्मा और लोक का अर्थ फलित किया है।' वृत्तिकार ने 'ते' से पृथ्वी आदि पांच भूत और आत्मा का ग्रहण किया है। वास्तव में चूर्णिकार का अभिमत संगत है। श्लोक १६ ४६. उन दोनों (आत्मा और लोक) (दुहओ) चूणिकार को 'दुहओं' का यह अर्थ सम्मत है-आत्मा तथा चाक्षुष-अचाक्षुष प्रकृति अथवा ऐहिक या आमुष्मिक लोक ।' १. सांख्यकारिका, पृष्ठ ८९,६० (व्रजमोहन चतुर्वेदी कृत अनुवाद) २. सांख्यकारिका, २० : गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः । ३. चूणि, पृष्ठ २८ : पंचमहन्भूतियं सरीरं, सरीरी छट्ठो, स च आत्मा। ४. चूणि, पृष्ठ २८ । लोको नाम प्रधानः सम्यक्त्वं चेति । ५. वृत्ति, पत्र २४ : एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा मामीषामिति दर्शयति-आत्मा लोकश्च पृथिव्यादिरूपः 'शाश्वतः' अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाच्चाकाशस्येव शाश्वतत्वं, पृथिव्यादीनां च तद्रूपाप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति । ६ चूणि, पृष्ठ २८। ७. वृत्ति, पत्र २४ : ते आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पवार्थाः। ८. चूणि, पृष्ठ २८ : दुहतो णाम उभयतो, आत्मा प्रधानं चाक्षुषमचाक्षुषं वा ऐहिकाऽऽमुष्मिको वा लोकः । Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ५०-५१ वृत्तिकार ने 'उभयतः' का मुख्य अर्थ दो प्रकार का विनाश माना है--निर्हेतुक विनाश और सहेतुक विनाश । वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ द्विरूप अर्थात् चेतन या अचेतन जगत्-ये दोनों नष्ट नहीं होते- भी किया है।' ५० सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव को प्राप्त हैं। (सब्वेवि सव्यहा भावा णियती भावमागया) इन दो चरणों की व्याख्या में चूणिकार और वृत्तिकार एक मत नहीं हैं। चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ सांख्यदर्शन के आधार पर किया है। वे 'नियति' का अर्थ प्रधान (प्रकृति) करते हैं । उनके अनुसार इनका अर्थ होगा-महत् आदि सभी विकार प्रकृति के ही अधीन हैं।' वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ है-पृथ्वी आदि पांच महाभूत तथा आत्मा-ये सभी पदार्थ नित्य हैं, शाश्वत हैं। वृत्तिकार ने नियतिभाव का अर्थ नित्यत्व किया है।' ५१. श्लोक १५-१६ पंचमहाभूतवाद पकूधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की एक शाखा है। पकुधकात्यायन नित्यपदार्थवादी था। इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध (११२३-२६) में मिलता है। पंचमहाभूतवादी मानते हैं-......... इस जगत् में पांच महाभूत हैं। हमारे मत के अनुसार जिनसे त्रिया-अत्रिया, सृकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग, तथा अन्तत: तृण मात्र कार्य भी निष्पन्न होता है.''उस भूत समवाय को पृथक्-पृथक् नामों से जानना चाहिए, जैसे-पृथ्वी पहला महाभूत है, पानी दूसरा महाभूत है, अग्नि तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवा महाभूत है। ये पांच महाभूत अनिमित, अनिर्मापित, अकृत, अकृत्रिम, अकृत, अकृतक, अनादि, अनिधन (अनन्त), अवन्ध्य (सफल), अपुरोहित (दूसरे द्वारा अप्रवर्तित), स्वतंत्र और शाश्वत हैं।" बौद्ध साहित्य में पकुधकात्यायन द्वारा सम्मत सात कायों का उल्लेख मिलता है। ये सात काय (पदार्थ) अकृत, अकृतविध, अनिर्मित, अनिर्मापित, वन्ध्य, कूटस्थ तथा खंभे के समान अचल हैं । वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक नहीं होते और एक-दूसरे को सुख-दुःख देने में असमर्थ हैं। पृथ्वी, आप, तेज, वायु, सुख, दुःख तथा जीव--ये ही सात पदार्थ हैं। इनमें मारने वाला, मरने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनाने वाला, कोई नहीं। जो भी तीक्ष्ण शस्त्र से सिर का छेदन करता है, वह किसी जीव का व्यपरोपण नहीं करता । वह शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है। १. वृत्ति, पत्र २४, २५ : उभयत इति निर्हेतुकविनाशद्वयेन न विनश्यन्ति .....यदि वा-दुहओ त्ति द्विरूपादात्मनः स्वभावाच्चेतना चेतनरूपान विनश्यन्तीति । २.णि, पृष्ठ २८: सव्वे महतादयो विकाराः । नियति म प्रधानम् तामागताः। ३. वृत्ति, पत्र २५ : सर्वेऽपि भावा:-पृथिव्यादय आत्मषष्ठाः नियतिभावं नित्यत्वमागता। ४. सूपगडो २२१०२५, २६ । तेसि च णं एगइए सट्टी भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमणाए । तत्थ अण्णतरेणं धम्मेणं पण्णत्तारो, वयं इमेणं धम्मेणं पण्णवइसामो। से एवमायाणह भयंतारो! जहा मे एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवति-इह खलु पंचमहन्भूया जेहिं णो कज्जइ किरिया इ वा अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्याणे इ वा पावए इवा साहू इवा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इ वा णिरए इ वा अणिरए इवा, अवि अंतसो तणमायमवि । तंच पदोद्देसेणं पुढोभूतसमवायं जाणेज्जा, तं जहा-पुढवी एगे महन्भूते, आऊ दुच्चे महन्भूते, तेऊ तच्चे महम्मते, वाऊ चउत्थे महब्भूते, आगासे पंचमे महत्भूते । इच्चेते पंच महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणादिया अणिधणा अवंझा अपुरोहिता सतंता सासया। ५. दीघनिकाय २२।४।२५ : एवं वुत्ते, भन्ते, पकुधो कच्चायनो में एतदवोच–'सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकट विधा अनिम्मिता; अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिद्विता । ते न इजन्ति, न विपरिणामेन्ति, न अञमधे व्याबाधेन्ति, नालं असमञ्जस्स: सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा । कतमे सत्त ? पउविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायोकायो, सुखे, दुक्खे, जोवे सत्त मेइमे सत्त काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता बझा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता। ते न इञ्जन्ति, न विपरिणामेन्ति, ना अञ्जमजं व्याबाधेन्ति, नालं असमञ्जस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा। तत्य नत्थि हन्ता वा घातेता वा सोता वा सावेता वा विमाता वा विज्ञापेता वा । यो पि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि किञ्चि जीविता वोरोपेति, सत्तन्नं त्वेक कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतती' ति । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३५ प्रध्ययन १: टिप्पण ५२ अकृत, अनिर्मित और अवन्ध्य-नित्यवाद की सूचना देने वाले ये तीनों शब्द जैन और बौद्ध-दोनों की साहित्य परंपराओं में समान हैं । पंचमहाभूत और सात काय-ये दोनों भिन्न पक्ष हैं। इस भेद का कारण पकुधकात्यायन की दो विचार-शाखाएं हो सकती हैं और यह भी संभव है कि जैन और बौद्ध लेखकों को दो भिन्न अनुश्रुतियां उपलब्ध हुई हों। आत्म-षष्ठवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। इसकी संभावना की जा सकती है कि पकुधकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंचमहाभूत वादी थे। वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे। उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे। वह स्वयं आत्मा को स्वीकार करता था। सूत्रकार ने उसकी दोनों शाखाओं को एक ही प्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी आधार पर उक्त संभावना की जा सकती है। पकुधकात्यायन भूतों की भांति आत्मा को भी कूटस्थनित्य मानता था। इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रतस्कंध (११२७,२८) में उपलब्ध है । आत्मषष्ठवादी मानते हैं ....... 'सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता। इतना (पांच महाभूत या प्रकृति) ही जीवकाय है । इतना ही अस्तिकाय है। इतना ही समूचा लोक है । यही लोक का कारण है और यही सभी कार्यों में कारणरूप से व्याप्त होता है । अन्ततः तृणमात्र कार्य भी उन्हीं से होता है।' '(उक्त सिद्धांत को मानने वाला) स्वयं क्रय करता है, दूसरों से करवाता है, स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है, स्वयं पकाता है, दूसरों से पकवाता है और अन्ततः मनुष्य को भी बेचकर या मारकर कहता है-'इसमें भी दोष नहीं है'-ऐसा जानो।" श्लोक १७-१८ ५२. श्लोक १७-१८: बौद्ध पिटकों में पांच स्कंध प्रतिपादित हैं-रूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध' । ये सब क्षणिक हैं । बौद्ध केवल विशेष को स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में सामान्य यथार्थ नहीं होता। अतीत का क्षण बीत जाता है और अनागत का क्षण प्राप्त नहीं होता, केवल वर्तमान का क्षण ही यथार्थ होता है। इन क्रमवर्ती क्षणों में उत्तरवर्ती क्षण वर्तमान क्षण से न अन्य होता है और न अनन्य होता है। वे प्रतीत्यसमुत्पाद को मानते हैं, इसलिए वर्तमान क्षण न सहेतुक होता है और न अहेतुक होता है। चूणिकार के अनुसार बौद्ध आत्मा को पांच स्कंधों से भिन्न या अभिन्न-दोनों नहीं मानते ।' उस समय दो दृष्टियां प्रचलित थीं। कुछ दार्शनिक आत्मा को शरीर से भिन्न मानते थे और कुछ दार्शनिक आत्मा और शरीर को एक मानते थे। बौद्ध इन दोनों दृष्टियों से सहमत नहीं थे । आत्मा के विषय में उनका अभिमत था कि वही जीव है और वही शरीर है-ऐसा नहीं कहना चाहिए । जीव अन्य है और शरीर अन्य है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए।' बौद्ध का दृष्टिकोण यह है कि स्कंधों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन होता है तो उच्छेदवाद प्राप्त हो जाता है। बुद्ध ने इस उच्छेदवादी दृष्टि का वर्जन किया है । स्कंधों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन नहीं होता है तो पुद्गल शाश्वत हो जाता है । वह निर्वाण जैसा बन जाता है। उक्त दोनों-उच्छेदवाद और शाश्वतवाद सम्मत नहीं हैं, इसलिए १. सूयगडो २।१२७,२८ : आयछट्ठा पुण एगे एवमाहु-सतो णस्थि विणासो, असतो पत्थि संभवो। एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अस्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए, अवि अंतसो तणमायमवि । से किणं किणावेमाणे, हणं घायमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि विक्किणित्ता घायइत्ता, एत्थं पि जाणाहि णस्थित्थ दोसो। २. दीघनिकाय १०।३।२० : पञ्चक्खन्धो - रूपक्खन्धो वेदनाक्खन्धो, साक्खन्धो, सङ्घारक्खंधो, विणक्खन्धो। ३. चणि, पृष्ठ २६ : न चैतेष्वात्माऽन्तर्गतौ (भिन्नी) वा विद्यते, संवेद्यस्मरणप्रसङ्गादित्यादि तेषामुत्तरम् । ४. कथावत्थुपालि १११६१, ६२ : "तं जीवं तं सरीरं ति ? न हेवं वत्तव्वे । अझं जीवं अनं सरीरं ? न हेवं वत्तव्वे...॥ ५. वही, १११९४ : खन्धेसु भिज्जमानेसु, सो चे भिज्जति पुग्गलो । उच्छेदा भवति दिट्ठि, या बुद्धेन विवज्जिता ॥ खन्धेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो । पुग्गलो सस्सतो होति, निव्वानेन समसमो ति ॥ Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ५३-५५ यह नहीं कहना चाहिए कि स्कंधों से पुद्गल भिन्न है और यह भी नहीं कहना चाहिए कि स्कंधों से पुद्गल अभिन्न है। चूर्णिकार के अनुसार स्कंधमात्रिक बौद्ध आत्मा को हेतुमात्र मानते थे और शून्यवादी उसे अहेतुक मानते थे। किन्तु मूल सूत्र में सहेतुक और अहेतुक-दोनों का अस्वीकार किया गया है। चूर्णिकार की व्याख्या उत्तरवर्ती परंपराओं के आधार पर की हुई है। पिटकों के आधार पर बौद्ध हेतु और अहेतु-दोनों को अस्वीकार करते हैं । इसके अस्वीकार में ही प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धान्त विकसित किया गया है । बौद्धों का अभिमत यह है १. यदि आत्मा और जगत् को सहेतुक माना जाए तो शाश्वतवाद की स्थिति बनती है। २. सत्त्वों के क्लेश का हेतु नहीं है, प्रत्यय नहीं है, बिना हेतु और बिना प्रत्यय के ही सत्त्व क्लेश पाते हैं । सत्त्वों की शुद्धि का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है, माना जाए तो अहेतुवाद की स्थिति बनती है । ३. प्रकृति, अणु, काल आदि के अनुसार लोक प्रवर्तित है-ऐसा मानने पर विषम हेतुवाद की स्थिति बनती है। ४. लोक ईश्वर, पुरुष, प्रजापति के वशवर्ती है-ऐसा मानना वशवर्तीवाद की स्थिति बनती है। ये चारों विकल्प अमान्य हैं। बौद्ध इसीलिए प्रतीत्य समुत्पादवाद को स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि 'प्रतीत्य' शब्द से शाश्वत आदि वादों का अस्वीकार और 'समुत्पाद' से उच्छेद आदि का प्रहाण किया गया है।' श्लोक १६: ५३. आरण्यक (आरण्णा) अरण्य में रहने वाले तापस आदि । ५४. प्रवजित (पव्यया) वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शाक्य आदि भिक्षुओं का और चूर्णिकार ने उदक शौचवादी का ग्रहण किया है।' ५५. इस दर्शन में आ जाता है (इमं दरिसमावण्णा) - इसका अर्थ है-इस दर्शन को प्राप्त । चूणिकार ने 'इस दर्शन' से शाक्य दर्शन अथवा सभी मोक्षवादी दर्शनों का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने पञ्चभूतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी तथा सांख्य आदि मोक्षवादियों का ग्रहण किया है। किन्तु प्रकरण के अनुसार इस वाक्य का संबंध शाक्य दर्शन से ही होना चाहिए। १. चूणि, पृष्ठ २६ : तथा स्कन्धमातृका हेतुमात्रमात्मानमिच्छन्ति बोजाकुरवत् । अहेतुकं शून्यवादिका हेतु - प्रत्यय - सामग्रीपृथग्भावेष्वसम्भवात् । तेन तेनामिलाप्या हि, भावाः सर्वे स्वभावतः॥ २. विसुद्धिमग्ग, भाग ३ पृ ११८५ : पुरिमेन सस्सतादीनमभावो पच्छिमेन च पदेन । उच्छेदादिविधातो द्वयेन परिदीपितो आयो। ३. (क) चूणि, पृष्ठ २६ : अरण्ये वा तापसादयः । (ख) वृत्ति, पत्र २८ : आरण्या वा तापसादयः । ४: वृत्ति, पत्र २८ : प्रवजिताश्च शाक्यादयः । ५. चूणि, पृष्ठ २६ : पव्वगा णाम वचइत्ता (पव्वइत्ता) दगसोअयरियादयो। ६. चूणि, पृष्ठ २६ : एवं दरिसणमिति एवं सक्कदरिसणं वा जाणि य मोक्खवादिदरिसणाणि वुत्ताई ताई। ७. वृत्ति, पत्र २८, २६ । Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ प्रध्ययन १ : टिप्पण ५६-६० ५६. सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है (सव्वदुक्खा विमुच्चति) पंचभूतवादी तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मानते हैं कि जो हमारे मत का आश्रय लेते हैं, वे गृहस्थ शिर और मुंह के मुंडन, दंड, चर्म, जटा, काषाय चीवर आदि के धारण करने, के शलोच, नग्नता, तपश्चरण आदि कायक्लेश रूप कष्टों से मुक्त हो जाते हैं। ये उनके लिए आवश्यक नहीं होते, क्योंकि कहा भी है 'तपांसि यातनाश्चित्राः' संयमो भोगवञ्चनम् । अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥' तप, विभिन्न प्रकार की यातनाएं, संयम, भोग से वंचित रहना तथा अग्निहोत्र आदि सारे अनुष्ठान बालक्रीडा की भांति तुच्छ हैं। सांख्य आदि मोक्षदर्शनवादी कहते हैं कि जो हमारे दर्शन को स्वीकार कर प्रवृजित होते हैं वे जन्म, मरण, बुढापा, गर्भपरंपरा तथा अनेक प्रकार के तीव्रतम शारीरिक और मानसिक दुःखों से मुक्त हो जाते हैं । वे समस्त द्वन्द्वों से मुक्त हो मोक्ष पा लेते चूर्णिकार ने इसका विवरण इस प्रकार दिया है -बौद्ध उपासक भी सिद्ध हो जाते हैं तथा आरोप्य देव भी देवयोनि से मुक्त हो जाते हैं । सांख्य मतानुयायी गृहस्थ भी अपवर्ग को प्राप्त कर लेते हैं। इस श्लोक की व्याख्या बौद्ध दर्शन से संबंधित है इसलिए 'इमं दरिसणं' का अर्थ बौद्ध दर्शन ही होना चाहिए । ५७. तेषाविम चूर्णिकार ने 'तेण' शब्द उपासकों की संज्ञा है-ऐसा सूचित किया है। किन्तु बौद्ध साहित्य में इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। हमने इसका संस्कृत रूप-'तेनापीद' किया है । यहां 'तेन' शब्द पूर्व श्लोक में आए हुए गृहस्थ, आरण्यक और प्रव्रजित का सर्वनाम है। ५८. त्रिपिटक आदि ग्रन्थों को जान लेने से (तिण च्चा) चूर्णिकार ने त्रि शब्द को त्रिपिटक का सूचक बतलाया है। वृत्ति में 'तेणाविमं तिणच्चाणं' पाठ के स्थान पर 'तेणावि संधि णच्चाणं' पाठ मिलता है। उसमें त्रिपिटक का उल्लेख नहीं है।' ५६. दुःख के प्रवाह का पार नहीं पा सकते (ओहंतराहिया) यहां दो पदों में संधि है-ओहंतरा+आहिया। 'ओहंतरा' का अर्थ है-कर्म के प्रवाह को तैरने वाला । ओघ दो प्रकार का होता है-द्रव्य और भाव । द्रव्योष अर्थात् समुद्र और भावौध अर्थात् आठ प्रकार के कर्म, संसार ।' श्लोक २८ ६०. श्लोक २८ प्रस्तुत श्लोक में आए हुए अनेक शब्दों से पूर्वोक्त कुछ दर्शनों का निरसन होता है। यह वृत्तिकार का अभिमत है। उववण्णा-इसका अर्थ है कि जीव युक्तियों से सिद्ध है। इस पद के द्वारा पंचभूतवादी तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मतों का अपाकरण किया है। १. वृत्ति, पत्र २८, २९ । २. चूणि, पृष्ठ २६ : तच्चणियाणं उबासगा वि सिझति, आरोप्पगा वि अणागमणधम्मिणो य देवा ततो चेव णिव्वंति । साङ्खयाना मपि गृहस्थाः अपवर्गमाप्नुवन्ति । ३. चूणि, पृष्ठ ३०: तेण त्ति उपासकानामाख्या। ४. वही, पृ० ३०: त्रिपिटकज्ञानेन । ५. वृत्ति, पत्र २६ । ६. चूणि, पृ० ३० : ओहो द्रव्ये भावे च, द्रव्योधः समुद्रः, भावौघस्तु अष्टप्रकार कर्म यतः संसारो भवति । Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३८ अध्ययन १: टिप्पण ६१-६३ पुढो-जीव शरीर की रष्टि से या नरक आदि भवों की उत्पत्ति की दृष्टि से पृथक्-पृथक् है। इससे आत्माद्वैतवाद का निरसन होता है। जियाजीव । इससे पंच स्कंध से अतिरिक्त जीव का अभाव मानने वाले बौद्धों का निरसन किया गया है। वेदयन्ति सुहं दुक्खं-प्रत्येक जीव सुख-दुःख का अनुभव करता है। इससे आत्मा के अकर्तृत्व का निरसन किया गया है। अकर्ता और अबिकारी आत्मा में सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता। अदुवा लुप्पंति ठाणओ-इस पद के द्वारा जीवों का एक भव से दूसरे भव में जाने की स्वीकृति है।' चूर्णिकार ने इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं की है। श्लोक २६ ६१. सैद्धिक -निर्वाण का सुख हो अथवा असद्धिक-सांसारिक सुख-दुःख हो (सेहियं वा असेहियं) चणिकार ने सैद्धिक का अर्थ 'निर्वाण' किया है। वृत्तिकार ने सैद्धिक-सुख का अर्थ 'अपवर्गसुख' और असैद्धिक-दुःख का अर्थ सांसारिक दुःख किया है। यह मुख्य अर्थ है। विकल्प रूप में इन्होंने सैद्धिक और असैद्धिक-दोनों शब्दों को सुख और दुःख-इन दोनों के साथ जोड़कर भी अर्थ प्रस्तुत किया है । वह इस प्रकार है सैद्धिक सुख-माला, चन्दन, अंगना आदि के उपभोग से प्राप्त सुख । सद्धिक दुःख-चाबुक मारने, ताडना देने, तप्त शलाका द्वारा हागने से उत्पन्न दुःख । असैद्धिक सुख-बाह्य निमित्त के बिना आन्तरिक आनन्द रूप सुख जो आकस्मिक रूप से उत्पन्न होता है। असैद्धिक दुःख-शरीर में उत्पन्न ज्वर, मस्तक पीडा, शिरःशूल आदि । श्लोक ३० ६२. नियतिजनित (संगइयं) चर्णिकार ने इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से की है-संगतेः इदं-सांगतिकं, अथवा संगते ; हितं-सांगतिक। इसके दो अर्थ किए हैं-सहगत अर्थात् संयुक्त अथवा जो आत्मा के साथ नित्य संगत रहते हैं।' वृत्तिकार ने संगति का अर्थ नियति किया है। संगति में होने वाला 'सांगतिक' कहा जाता है। इसका अर्थ हैनियतिजनित ।' श्लोक ३१: ६३. कुछ सुख-दुःख नियत होता है और कुछ अनियत (णिययाणिययं संतं) चूणिकार के अनुसार नियत का अर्थ है-जो कर्म जैसे किए गए हैं उनका उसी प्रकार वेदन करना। जैसे देव और नारकों का आयु निरुपक्रम (निमित्तों से अपरिवर्तनीय) होता है। अनियत का अर्थ है-जो कर्म जैसे किए गए हैं उनका उसी प्रकार से वेदन न करना । जैसे-मनुष्य और तिर्यञ्च का आयु सामान्यतः सोपक्रम (निमित्तों से परिवर्तनीय) होता है। १. वृत्ति, पत्र ३०,३१। २. चूणि, पृ० ३१ : सेधनं सिद्धिः निर्वाणमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र ३१। ४. चणि, पृ० ३१: संगतेरिदं संगतियं भवति, संगतेर्वा हितं संगतिकं भवति । ५. वृत्ति, पत्र ३२: संगइयं ति सम्यक् स्वपरिणामेन गतिः-यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा संगतिः-नियतिस्तस्यां भवं सांगतिकम्। ६.णि, पृ० ३२: णियता-णियतं संतं जे जधा कडा कम्मा ते तधा चेव णियमेण वेदिज्जति त्ति एवं नियतं । तं जधा-णिरुवक्कमाय देव-णेरतिय त्ति, अणियतं सोवक्कमायुं ति । Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३६ वृतिकार ने भी सुल बादि के नियतिकृत और अनितिकृत दोनों प्रकार बतलाए हैं। - चूर्णिकार ने 'संत' का अर्थ 'सभून' (यथार्थ) और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- 'इतना होने पर भी' – किया है ।" श्लोक ३२ : ६४. पार्श्वस्थ (नियति का एकांगो आग्रह रखने वाले नियतिवादी) (पासत्वा) 'पासत्य' जैन आगमों का प्रचलित शब्द है। इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं- पार्श्वस्थ और पाशस्थ । इन दोनों के आधार पर इसकी व्याख्या की गई है। जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पार्श्व - तट पर ठहरता है, वह पार्श्वस्थ होता है । मिथ्यात्व आदि के पास से जो बद्ध होता है, वह पाशस्य महलाता है।' हिन्दु 'पास' का मूलस्पर्शी संस्कृत रूप केवल पार्श्वस्व हो होना चाहिए। पाशस्थ कोरा बौद्धिक है, मूलस्पर्शी नहीं । पार्श्वस्थ का जो अर्थ किया गया है वह भी मौलिक नहीं लगता। इसका मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए भगवान् पा की परम्परा में स्थित भगवान् पार्श्व भगवान् महावीर से २५० वर्ष पूर्ववर्ती हैं। भगवान् पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रव्रजित हो गए । अनेक साधु प्रव्रजित नहीं भी हुए। हमारा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए, उन्हीं के लिए 'पासत्व' [पार्श्वस्व ] शब्द प्रयुक्त हुआ है। यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर के आचार की अपेक्षा भगवान् पार्श्व का आचार मृदु था। जब तक भगवान् महावीर या सुधर्मा आदि शक्तिशाली आचार्य थे तब तक दोनों परम्पराओं में सामंजस्य बना रहा । किन्तु समय के प्रवाह में जब सामंजस्य स्थापित करने वाले शक्तिशाली आचार्य नहीं रहे तब पार्श्वनाथ के शिष्यों के प्रति महावीर के शिष्यों में हीन भावना इतनी बढ़ी कि पार्श्वस्थ शब्द शिथिल आचारी के अर्थ में रूढ हो गया । पार्श्वस्थ दो प्रकार के हैं- १. सर्वतः पार्श्वस्थ - जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पार्श्व-तट पर स्थित होता है । २. देशतः पार्श्वस्थ – जो शय्यातरपिंड, अभिहृतपिंड, राजपिंड, नित्यपिंड, अप्रपिंड का विशेष आलम्बन के बिना सेवन करता है । पार्श्वस्थ की पहली व्याख्या का संबंध शायद नियतिवादी आजीवक सम्प्रदाय से है और दूसरी स्वयूथिक जैन निर्ग्रन्थों से । पार्श्वस्थों को स्वयूथिक भी कहा गया है । वृतिकार ने पार्श्वस्व के दो बर्ष बतलाए है १. युक्तियों से बाहर ठहरने वाला - अयौक्तिक बात को मानने वाला । २. परलोक की क्रिया की व्यर्थता मानने वाला । अध्ययन १ टिप्पण ६४ १. वृत्ति, पत्र ३२ : सुखादिकं किञ्चिन्नियतिकृतम् - अवश्यंभावयत्रापितं तथा अनियतम् - आत्मपुरुषकारेश्वरादिप्रापितम् । २. (क) चूर्णि, पृ० ३२ : संतं सम्भूतं । (ख) वृत्ति, पत्र ३२ : संतं सत् । ३, ४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १०४, वृत्ति, पत्र २५ : पार्श्वे सटे ज्ञानादीनां यस्तिष्ठति स पार्श्वस्थः । अथवा मिथ्यात्वादयो बन्धहेतवः पाशा इव पाशास्तेषु तिष्ठतीति पाशस्थ: । ५. वही, गाथा १०४, १०५ : सो पासो दुविहो सच्चे देतेय होइ नायग्यो । सव्वंमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥ देसंमि य पासत्थो सेज्जायरऽभिहडराय पिण्डं च । नीयं च अग्गपिण्डं मुंजइ निक्कारणे चैव ॥ वृत्ति, पत्र २५ : स च द्विभेदः - सर्वतो देशतश्च तत्र सर्वतो यः केवलवेषधारी सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः पृथक् तिष्ठति, देशतः पुनः पाश्वः यः कारणं तथाविधमन्तरेण सध्यातराभ्याहुतं नृपतिपिण्डं पिण्डं वा भुङ्कते । ६. वृत्र३३कदम्बका बहिष्यन्तीति पार्श्वस्याः परलोकमित्यस्या वा नियतिपक्षसमायपणात् परलोककिया. । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ६५-६६ उनके अनुसार एकान्तवादी तथा कालवादी और ईश्वरकारणिक पार्श्वस्थ हैं।' चूर्णिकार ने इस शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ-नियति का एकांगी आग्रह रखने वाले नियतिवादी ही उपयुक्त लगता है। नियतिवादी आजीवकों का संबंध भगवान् पावं की परम्परा से था, अतः उनके लिए 'पार्श्वस्थ' शब्द का उपयोग बहुत अर्थ-सूचक है। ६५ एवंपुवट्टिया यहां तीन पदों में संधि है-एवं+अपि+उवट्ठिया । इसका अर्थ है-साधना मार्ग में प्रवृत्त होने पर भी । श्लोक ३३: ६६. मृग (मिगा) ___ मृग के दो अर्थ होते हैं-हिरण और आरण्यक पशु। चूणिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ-वातमृग' किया है। यह हिरणों की एक जाति है जो तीव्र-गमन के लिए प्रसिद्ध है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-आरण्यक पशु किया है। ६७ मृगजाल से (परिताणेण) चणिकार और वृत्तिकार इसका सर्वथा भिन्न अर्थ करते हैं। चूणिकार ने इसका अर्थ वागुरा-मृगजाल किया है और वृत्तिकार ने इसका अर्थ परित्राण--रक्षा का साधन माना है। इस अर्थ-भेद का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि चूणिकार ने 'परिताणेण तज्जिया' मान कर यह अर्थ किया है और वत्तिकार ने 'परिताणेण वज्जिया' मानकर अर्थ किया है। 'तज्जिया' और 'वज्जिया' के कारण ही यह अर्थ-भेद हआ है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से चूर्णिकार के अर्थ को मान्य किया है।' ६८. भयभीत (तज्जिया) मग उस मगजाल में फंस कर बाहर नहीं निकल पाते। एक ओर वह मृगजाल होता है और दूसरी ओर हाथी, अश्व और पैदल सेना होती है । एक ओर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पाशकूट आदि होते हैं । इस स्थिति में वे मरण-भय से उद्विग्न हो जाते हैं। ६९. श्रान्त (दिग्मूढ) होकर (संता) चूणिकार ने इस शब्द के द्वारा मृग की यौवन अवस्था का ग्रहण किया है। वह मृग अनुपहत शरीर, वय और अवस्था वाला तथा शक्तिसंपन्न होता है। १. वृत्ति, पत्र ३३ : एकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पावस्थाः . २. चूणि, पृ० ३२ : मृगाः तत्रापि वातमृगाः परिगृह्यन्ते । ३. वृत्ति, पत्र ३३ : मृगा आरण्याः पशवः । ४. (क) चूणि, पृ० ३२ : परितानः वागुरेत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र ३३ : परि-समन्तात् त्रायते-रक्षतीति परित्राणम् । ५. (क) चूगि, पृ० ३२ : परिताणेण तज्जिता-तज्जिता वारिता प्रहता इत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र ३३ : परित्राणं तेन वजिता-रहिताः । ६. वृत्ति, पत्र ३३ : यदि वा-परितानं वागुरादिबन्धनम् ।। ७. चूणि, पृ० ३२ : न शक्यमेतत् परितानं निस्सर्तुम् । सा च एगतो वागुरा, एकतो हस्त्यश्वपदातिवती ययाविभवतो सेना, एकतः पाश-कूटोपगा यथाविभागशः । नित्यत्रस्ताः तत्र ते मृगाः स्वजात्यादिभिः परितुद्यमाना मरणभयोद्विग्नाः । ८. वही, पृ० ३२ : संतग्रहणाग्निरुपहतशरीर-बयो-ऽवस्था अक्षीणपराक्रमाः । Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४१ प्रध्ययन १:टिप्पण ७०-७४ वृत्तिकार ने इसको शतृ प्रत्यय का बहुवचन मात्र माना है ।' हमने इसका अर्थ श्रान्त किया है। श्लोक ३५ : ७०. बाध को (वज्झ) बत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-वध और 'बन्ध'। इसका अर्थ है-बन्धन के आकार में व्यवस्थित वागुरा आदि। बन्धन बांधने के कारण बंध कहलाते हैं । इसका संस्कृत रूप 'वर्ध' ही होना चाहिए । ७१. पदपाश से (पयपासाओ) चूर्णिकार ने 'पदपाश' का अर्थ 'कूट' किया है। वत्तिकार ने पदपाश के दो अर्थ किए हैं। 'पदपाश' को एक शब्द मानकर उसका अर्थ वागुरा आदि बन्धन किया है और 'पद' तथा 'पाश' को भिन्न-भिन्न मानकर पद का अर्थ कूट और पाश का अर्थ बन्धन किया है।' श्लोक ३६ ७२. विषमान्त-संकरे द्वार वाले (विसमते...) वृत्तिकार ने 'विसमतेणुवागते' इस पद की दो प्रकार से व्याख्या की है। (१) विषमान्तकूट, पाश आदि से युक्त प्रदेश से उपागत (२) विषम अन्त वाले कूटपाश आदि में स्वयं को फंसाने वाला।' चणिकार ने 'विसमंतेणुवागये'-इनको तीन पद मानकर 'विसम' को वागुरा-द्वार का विशेषण माना है।' श्लोक ३७: ७३. अनार्य (अणारिया) अनार्य तीन प्रकार के होते हैं-ज्ञान अनार्य, दर्शन अनार्य और चारित्र अनार्य।' वृत्तिकार ने असद् प्रवृत्ति करने वाले को अनार्य माना है। प्रज्ञापना में आर्य और म्लेच्छ (अनार्य) के अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं। ७४. अशंकनीय के प्रति.........शंका नहीं करते (असंकियाइं.........असंकिणो) वे मिथ्यादृष्टि अनार्य ज्ञान, दर्शन, और चरित्र तथा जो अशंकनीय हैं उनके प्रति शंका करते हैं और कहते हैं कि संसार जीव-बहुल है, अतः यहां अहिंसा का पालन नहीं किया जा सकता। जिन कुदर्शनों के प्रति शंकित रहना चाहिए उनके प्रति वे श्रद्धा व्यक्त करते हैं और उन पर विश्वास करने हैं।" १. वृत्ति, पत्र ३३ : (वेगवन्तः) सन्तः । २. वृत्ति, पत्र ३३ : वज्झं ति वधं यदि वा बन्धनाकारेण व्यवस्थित वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद् बन्धमुच्यते । ३. चणि, पृ० ३३ : पदं पासयतीति पदपाश: कूड: उपको वा। ४. वृत्ति, पत्र ३४ : पदे पाशः पदपाशो-वागुरादिबन्धनं तस्मान्मुच्येत, यदि वा पदं-कूटं पाश:-प्रतीतः । ५. वृत्ति, पत्र ३४ : विषमान्तेन कूटपाशादियुक्तेन प्रदेशेनोपागतः, यदि वा-विषमान्ते-कूट पाशादिके। ६. चूणि, पृ० ३३ । ७. वही, पृ० ३३ : अणारिय त्ति णाण-दंसण-चरित्त-अणारिया । ८. वृत्ति, पत्र ३४ : अनार्या अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायिनः । ६. प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ८८-१२६ । १०. चूणि, पृष्ठ ३३ : ते असंकिताई संकिंती, णाण-दंसण-चरित्ताई (असंकणिज्जाइं) ताई तपोभीरुत्वाद् अन्यैश्च जीवबहुत्वादिभिः पदैर्नात्र शक्यते अहिंसा निष्पादयितुमिति संकति ण सद्दहंति, संकिताई कुदसणाई ताई असंकिणो सद्दहति पत्तियंति । Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडौ १ ४२ अध्ययन १ : टिप्पण ७५-७६ श्लोक ३८ ७५. अव्यक्त (अवियत्ता) अव्यक्त का अर्थ है-अपरिपक्व बुद्धि वाले । जो हिंसा और अहिंसा में भेद करना नहीं जानते उन्हें यहां अव्यक्त कहा गया अव्यक्त की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। जिसके कोख आदि में केश नहीं आ जाते तब तक वह अव्यक्त होता है। सोलह वर्ष की आयु के नीचे वाला व्यक्ति अव्यक्त होता है।' ७६. मोहमूढ (मूढगा) मूढ दो प्रकार के होते हैं-अज्ञानमूढ और दर्शनमूढ ।' वृत्तिकार ने सहज सद्विवेक से विकल व्यक्ति को मूढ माना है।' ७७. शंका करते हैं (संकति) धर्म-प्रज्ञापना के विषय में उनका मत है कि इसकी आराधना कठिन है । अथवा वे उन पर श्रद्धा ही नहीं करते। अथवा यह ऐसा ही है या नहीं, ऐसी शंका करते हैं-जैसे पृथ्वी आदि प्राणियों में जीवत्व है या नहीं ?" श्लोक ३६ : ७८. श्लोक ३९ प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त सर्वात्मक, व्युत्कर्ष, नूम और अप्रीतिक-ये चारों शब्द चार कषाय के वाचक हैं । लोभ सब कषायों में व्याप्त रहता है अथवा सब कषाय लोभ में व्याप्त रहते हैं, इसलिए उसका नाम 'सर्वात्मक' है। अभिमान में अपने उत्कर्ष का अनुभव होता है, इसलिए उसका नाम 'व्युत्कर्ष' है । ''म' देशी शब्द है। उसका अर्थ है-गहन । गहन का अर्थ है-दुर्ग या अप्रकाश । माया में छिपाव या गहनता होती है, इसलिए उसका नाम 'नूम' है । क्रोध प्रीति का विनाश करता हैं, इसलिए उसका नाम अप्रीतिक है। ७९. अकर्माश (सिद्ध) (अकम्मसे) जहां कर्म का अंशमात्र भी शेष न हो उस अवस्था को अकर्माश अवस्था कहते हैं। यह सिद्ध अवस्था है । कषाय के नष्ट होने पर मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। उसके नष्ट होने पर साधक आगे बढ़ता हुआ विशिष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) को प्राप्त होता है और अन्त में भवोपग्राही कर्मों को नष्ट कर, अकर्मांश होकर, सिद्ध हो जाता है। १.णि, पृष्ठ ३२ : अवियत्ता णाम अव्यक्ताः णाऽऽरंभादिसु दोसेसु विसेसितबुद्धयः । २. निशीथभाष्य, गाथा ६२३७, चूणि : जाव कक्खादिसु रोमसंभवो न भवति ताव अम्वत्तो............. अहवा जाव सोलसवरिसो ताव अव्वत्तो। ३. चूणि, पृष्ठ ३३ : मूढा अज्ञानेन दर्शनमोहेन । ४. वृत्ति, पत्र ३४ : मुग्धाः-सहजसद्विवेकविकलाः । ५. चूणि, पृष्ठ ३३ : धम्मपण्णवणा-तीसे संकंति बेभेन्ति दुक्खं कज्जति अधवा ण सद्दहति । अधवा किमेवं ण व त्ति वा संकेति, पृथिव्यादिजीवत्वं । ६.णि, पृष्ठ ३४ : सर्वत्राऽऽत्मा यस्य स भवति सर्वात्मकः, अथवा जे भावकषायदोसा ते वि सव्वे लोभे संभवंतीति सव्वप्पगं । ............। विविध जात्यादिभिर्मवस्यानैरात्मानं उक्कस्सति विउक्कस्सति । नम गहनमित्यर्थः । दव्वण्णमं दुग्गं अप्पगासं वा, भावण्णूमं माया। ..... ....... । किंचि अप्पत्तियं णाम रूसियवं, तदपि अप्पत्तियं । ७. चूर्णि, पृष्ठ ३४। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण८०-८१ ५०. मग को भांति अज्ञानी (मिगे) जैसे मुग पाश के प्रति जाता हुआ प्रचुर तृण और जल वाले स्थान से तथा स्वतन्त्रता से घूमने फिरने तथा वन में रहने के सुख से रहित होकर मृत्यु के मुंह में जा गिरता है, वैसे ही ये नियतिवादी भी अकर्माश होने की स्थिति से भ्रष्ट हो जाते हैं।' ८१. श्लोक २८-४० नियतिवादी क्रियावाद ओर अक्रियावाद दोनों में विश्वास नहीं करते । उनका दर्शन यह है-कुछ लोग क्रिया का प्रतिपादन करते हैं और कुछ अक्रिया का प्रतिपादन करते हैं । ये दोनों समान हैं। 'मैं करता हूं'-यह मानने वाला भी कुछ नहीं करता और 'मैं नहीं करता हूं-यह मानने वाला भी कुछ नहीं करता। सब कुछ नियति करती है। यह सारा चराचर जगत् नियति के अधीन है। अज्ञानी पुरुष कारण को मानकर इस प्रकार जानता है। मैं दु:खी हो रहा हूं, शोक कर रहा हूं, खिन्न हो रहा हूं, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, परितप्त हो रहा हूं, यह सब मैंने किया है। दूसरा पुरुष जो दुःखी हो रहा है, शोक कर रहा है, खिन्न हो रहा है, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा है, पीड़ित हो रहा है, परितप्त हो रहा है, यह सब उसने किया है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष कारण को मानकर स्वयं के दुःख को स्वकृत और पर के दुःख को परकृत मानता है। मेधावी पुरुष कारण को मानकर इस प्रकार जानता है । मैं दुःखी हो रहा हूं, शोक कर रहा हूं, खिन्न हो रहा हूं, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, परितप्त हो रहा हूं। यह सब मेरे द्वारा कृत नहीं है । दूसरा पुरुष जो दुःखी हो रहा है, शोक कर रहा है, खिन्न हो रहा है, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा है, पीड़ित हो रहा है, परितप्त हो रहा है। यह सब उसके द्वारा कृत नहीं है। इस प्रकार वह मेधावी पुरुष कारण (नियति) को मानकर स्वयं के और पर के दुःख को नियतिकृत मानता है। मैं (नियतिवादी) कहता हूं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे सब नियति के कारण ही शरीरात्मक संघात, विविध पर्यायों (बाल्य, कौमार आदि अवस्थाओं), विवेक (शरीर से पृथक् भाव) और विधान (विधि विपाक) को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार वे सब सांगतिक (नियति जनित) हैं इस उत्प्रेक्षा से । वे ऐसा नहीं जानते, जैसे-क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग हैं । इस प्रकार वे नाना प्रकार के कर्म-समारंभों के द्वारा भोग के लिए नाना प्रकार के कामभोगों का समारंभ करते हैं। (सूयगडो २।११४२-४५) भगवती (शतक १५) में नियतिवादी गोशालक के सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन मिलता है। भगवान महावीर सद्दालपुत्त के कुंभकारोपण में विहार कर रहे थे। उस समय सद्दालपुत्त घड़ों को धूप में सुखा रहा था। भगवान महावीर ने पूछा-'सद्दालपुत्त ! ये घड़े कैसे किये जाते हैं ?' सद्दालपुत्त ने कहा-'भंते ! पहले मिट्टी लाते हैं, फिर उसमें जल मिलाकर रोंदते हैं, फिर उसमें राख मिलाते हैं, फिर मिट्टी का पिंड बना उसे चाक पर चढ़ाते हैं। इस प्रकार ये घड़े तैयार किये जाते हैं। भगवान महावीर ने कहा-'सद्दालपुत्त ! ये घड़े उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम से किए जाते हैं ? या अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से किए जाते हैं ?' सद्दालपुत्त ने कहा-'भंते ! ये सब अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से किए जाते हैं। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम का कोई अर्थ नहीं हैं। सब भाव नियत हैं। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने नियतवादियों के एक तर्क का उल्लेख किया है। नियतिवादी मानते हैं कि अकृत का फल नहीं होता। मनुष्य जो फलभोग करता है उसके पीछे कर्तृत्व अवश्य है, किन्तु वह कर्तृत्व मनुष्य का नहीं है। यदि मनुष्य का कर्तृत्व हो, वह क्रिया करने में स्वतन्त्र हो तो वह सब कुछ मन चाहा करेगा। उसे जो इष्ट नहीं है, वह फिर क्यों करेगा ? किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। मनुष्य बहुत सारे अनीप्सित कार्य भी करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सब कुछ नियति करती है। १. चणि, पृष्ठ ३४ : यथा मृगः पाशं प्रति अभिसर्पन् प्रचुरतृणोदकगोचरात् स्वैरप्रचाराद् वनसुखाद् भ्रष्टः मृत्युमुखमेति एवं ते वि णियतिवादिणो। २. उवासगदसाओ ७१६-२४ ॥ ३. चूणि, पृ. ३२३ : न चाकृतं फलमस्तीत्यतः णियती करोति, जति पुरिसो करेज्ज तेन सर्वमोप्सितं कुर्यात्, न चेदमस्तीति ततो नियती करेइ, नियतिः कारिका । Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ८२ बौद्ध साहित्य में नियतिवाद के सिद्धान्त का निरूपण इस प्रकार मिलता है -'प्राणियों के संक्लेश का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है । बिना किसी हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी संक्लेश पाते हैं। प्राणियों की विशुद्धि का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है। बिना किसी हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्ध होते हैं। आत्मशक्ति नहीं है, परशक्ति नहीं है, पुरुषकार नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष-सामर्थ्य नहीं है, पुरुष-पराक्रम नहीं है । सभी सत्व, प्रागी, भूत और जीव अवश, अबल, अवीर्य हैं । वे नियति के वश में हैं । वे छह अभिजातियों में सुख-दुख का अनुभव करते हैं। ___ चौदह सौ हजार प्रमुख योनियां हैं । साठ सौ भी हैं, पांच सौ भी हैं। पांच सौ कर्म, पांच कर्म, तीन कर्म, एक कर्म, आधा कर्म है । बासठ प्रतिपद (मार्ग), बासठ अन्त कल्प, छह अभिजातियां, आठ पुरुषभूमियां, उनचास सौ आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नागावास, बीस सौ इन्द्रियां, तीस सौ नरक, छत्तोस रजोधातु, सात संजी-गर्भ, सात असंगी-गर्भ, सात निगंठी-गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात पवुट, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न तथा अस्सी लाख छोटे-बड़े कल्प हैं । इन्हें मूर्ख और पण्डित पुरुष जानकर इनका अनुगमन कर दुःखों का अन्त कर सकते हैं। वहां यह नहीं है कि इस शील से, इस व्रत से अथवा तप से या ब्रह्मचर्य से आरिपक्व कर्म को परिपक्व करूंगा, परिपक्व कर्म को भोगकर उसका अंत करूंगा। इस पर्यन्तकृत संसार में सुख और दुःख द्रोण (नाप) से नपे हुए हैं। घटना-बढ़ना नहीं होता । उत्कर्ष और अपकर्ष नहीं होता। जैसे सूत की गोली फैकने पर खुलती हुई गिर पड़ती है वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर, आवागमन में पड़कर, दुःख का अन्त करेंगे।" श्लोक ४१: ८२.श्लोक ४१: अज्ञानवादी दार्शनिकों के विचारों का निरूपण प्रस्तुत आगम के १२१२,३ में मिलता है। उस समय अज्ञानवाद की विभिन्न शाखाएं थीं। उनमें संजयवेलट्ठिपुत के अज्ञानवाद या संशयवाद का भी समावेश होता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने अज्ञानवाद की प्रतिपादन-पद्धति के सात और प्रकारान्तर से चार भागों का उल्लेख किया है १. जीव सत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? २. जीव असत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ३. जीव सत्-असत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ४. जीव अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ५. जीव सत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ६. जीव असत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ७. जीव सत्, असत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? प्रकारान्तर से चार भंग १. पदार्थ की उत्पत्ति सत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? २. पदार्थ की उत्पत्ति असत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ३. पदार्थ की उत्पत्ति सत्-असत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ४. पदार्थ की उत्पत्ति अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? अज्ञानवादी आत्मा, परलोक आदि सभी विषयों को जिज्ञासा का समाधान इसी पद्धति से करते थे।' १. दीघनिकाय ११२॥४॥१६॥ २. चणि पष्ठ २०६,२०७ : इमे दिट्ठिविधाणा-सन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण जातेण? सदसन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? अवचनीयो जीव को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? पक, एवं सदवचनीयः असदवचनीयः, सदसदवचनीय ....सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? असती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? सबसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति? कि वा ताए णाताए ? अवचनीया भावोत्पत्ति: को वेत्ति? किवा ताए णाताए ? .........." Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४५ अध्ययन १ टिप्पण ८२ दीघनिकाय में संजय वेलट्ठपुत्त के अनिश्चयवाद ( या संशयवाद या अज्ञानवाद) का निरूपण इन शब्दों में मिलता है 'तुम पूछो कि क्या परलोक है तो यदि मुझे ज्ञात हो कि वह है तो मैं तुम्हें बतलाऊं कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, अन्यथा भी मैं नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, परसोक नहीं नहीं है परलोक है भी और नहीं भी है परलोक न है और न नहीं है। 1 "तुम पूछो कि क्या देवता है तो यदि मुझे ज्ञात हो कि वे हैं तो मैं तुम्हें बतलाऊं कि देवता है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, अन्यथा भी मैं नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वे नहीं हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि वे नहीं नहीं है। देवता नहीं हैं, देवता नहीं नहीं है। देवता हैं भी और नहीं भी हैं देवता न हैं और न नहीं है। 1 ****** "तुम पूछो कि क्या अच्छे-बुरे कर्म का फल है तो यदि मुझे ज्ञात हो कि वह है तो मैं तुम्हें बतलाऊं कि अच्छे-बुरे कर्म का फल है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, अन्यथा भी मैं नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं हैं। अच्छे-बुरे कर्म का फल है। अच्छे-बुरे कर्म का फल नहीं नहीं है । अच्छे-बुरे कर्म का फल है भी और नहीं भी है। अच्छे-बुरे कर्म का फल न है और न नहीं है। तुम पूछो कि तथागत मरने के बाद होते हैं या नहीं होते तो यदि मुझे ज्ञात हो कि तथागत मरने के बाद होते हैं तो मैं तुम्हें बतलाऊं कि वे होते हैं और यदि मुझे ज्ञात हो कि तथागत मरने के बाद नहीं होते तो मैं बतलाऊं कि वे नहीं होते । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, अन्यथा भी मैं नहीं कहता। मैं यह भी नहीं कहता कि वे नहीं होते। मैं यह भी नहीं कहता कि वे नहीं नहीं होते । तथागत मरने के बाद नहीं होते, वे नहीं नहीं होते, तथागत मरने के बाद होते भी हैं ओर नहीं भी होते । तथागत मरने के बाद न होते हैं और न नहीं होते हैं । ' पंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है 'आधुनिक जैन दर्शन का आधार 'स्यादवाद' है, जो मालूम होता है कि संजय के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंग वाला किया गया है। संजय ने तत्त्वों (परलोक, देवता) के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इंकार करते हुए उस इन्कार को चार प्रकार कहा है नहीं कह सकता । (१) है ? (२) नहीं नहीं कह सकता। (३) है भी और नहीं भी नहीं कह सकता । (४) न है और न नहीं है— नहीं कह सकता । इसकी तुलना कीजिए जैनों के सात प्रकार के स्याद्वाद से (१) है ? - हो सकता है । (स्याद अस्ति ) - हो सकता है। (स्याद् नास्ति ) (२) नहीं है ? नहीं भी (३) है भी और नहीं भी ? है भी और नहीं भी हो सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च । उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते है ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं - (४) 'स्याद' - ( हो सकता है) – क्या यह कहा जा सकता (वक्तव्य ) है ? नहीं, स्याद् अवक्तव्य है । (५) 'स्याद् अस्ति ' - क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्याद् अस्ति अवक्तव्य है । (६) 'स्याद् नास्ति ' - क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्याद् नास्ति अवक्तव्य है । (७) स्याद् अस्ति च नास्ति च क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्याद् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य है । दोनों को मिलाने से मालूम होगा कि जैनों ने अपने स्यादवाद की छह भंगियां बनाई है और उसके चौबे यह सातवां भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की। १. बीघनिकाय १।२।४।३१ । संजय के पहले वाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके वाक्य 'न है और न नहीं है' को छोड़कर, 'स्पा' भी अवतव्य है Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ * अध्ययन १ : टिप्पण ८२ उपलध सामग्री से मालूम होता है कि संजय अपने अनेकान्सवाद का प्रयोग परलोक, देवता, कर्मफल, मुक्तपुरुष जैसे परोक्ष विषयों पर करता था। जैन संजय की युक्ति को प्रत्यक्ष वस्तुओं पर भी लागू करते हैं । उदाहरणार्थं सामने मौजूद घट की सत्ता के बारे में यदि जैन दर्शन से प्रश्न पूछा जाए तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा (१) घट यहां है ? - हो सकता है (स्याद् अस्ति ) | (२) घट यहां नहीं है ? नहीं भी हो सकता है ( स्वाद नास्ति ) । (३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है ? - है भी और नहीं भी हो सकता है । (स्याद् अस्ति च नास्ति च ) । (४) 'हो सकता है' (स्याद्) - क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, स्याद् यह अवक्तव्य है । (५) घट यहां हो सकता है ( स्यादस्ति ) - क्या यह कहा जा सकता है ? — नहीं, घट यहां हो सकता है - यह नहीं कहा जा सकता । (६) घट यहां नहीं हो सकता है ( स्यान्नास्ति ) - क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, घट यहां नहीं हो सकतायह नहीं कहा जा सकता । (७) घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है— क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, यह नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (वाद) की स्थापना न करना, जो कि संजय का वाद था। उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर, जैनों ने अपना लिया और उसके चतुभंगी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया।" पंडित राहुल सांकृत्यायन ने काल्पनिक तथ्यों के आधार पर स्थापनाएं प्रस्तुत की हैं (१) संजय वेलट्ठपुत्त के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंग वाला किया गया है । (२) एक भी सिद्धान्त की स्थापना न करना, जो कि संजय का वाद था, उसी को संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों ने अपना लिया। 1 ये दोनों स्थापनाएं बहुत ही भ्रामक और वास्तविकता से परे हैं। संजयवेलट्ठिपुत्त का दृष्टिकोण अज्ञानवादी या संशयवादी था। इसलिए वे किसी प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर नहीं देते थे । भगवान् महावीर का दृष्टिकोण अनेकांतवादी था। वे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर निश्चयात्मक भाषा में देते थे । भगवती तथा अन्य आगमों में भी भगवान् महावीर के साथ हुए प्रश्नोत्तरों का विशाल संकलन है । उसके अध्ययन से पता चलता है कि भगवान् महावीर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- इन दो नयदृष्टियों से प्रश्नों का समाधान देते थे। ये ही दो नय अनेकान्तवाद के मूल आधार हैं। स्याद्वाद के तीन भंग मौलिक हैं- स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति और स्यात् अवक्तव्य । भगवान् महावीर ने प्रश्नों के समाधान में और तत्त्व के निरूपण में बार-बार इनका प्रयोग किया है। संजय वेलट्ठपुत्त की अपनी चतुर्भगात्मक प्रतिपादन शैली और भगवान् महावीर की प्रतिपादन शैली त्रिभंगात्मक थी। फिर इस कल्पना का कोई आधार नहीं है कि संजय के अनुवादियों के लुप्त हो जाने से जैनों ने उसके सिद्धान्त को अपना लिया। सत् असत् सद्-असत् और अनुभव (अवक्तव्य ) -- ये चार भंग उपनिषद् काल से चले आ रहे हैं । उस समय के सभी प्रायः दार्शनिकों ने इन भंगों का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया है । फिर यह मानने का कोई अर्थ नहीं है कि जैनों ने संजयवेलट्ठिपुत्त के भंगों के आधार पर स्याद्वाद की सप्तभंगी विकसित की । 'स्यात् अस्ति' का अर्थ 'हो सकता है' - यह भी काल्पनिक है। जैन परम्परा में यह अर्थ कभी मान्य नहीं रहा है । भगवान् महावीर से पूछा गया भंते! द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है ? अनात्मा है ? या अवक्तव्य है ? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- द्विप्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है, स्यात् आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है । "भंते! यह कैसे ? १. दर्शन-दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पृ० ४६८, ४६६ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ८३ 'गौतम ! द्विप्रदेशी स्कंध स्व की अपेक्षा से आत्मा है, पर की अपेक्षा से आत्मा नहीं है और उभय की अपेक्षा से अवक्तव्य यह संशयवाद या अज्ञानवाद नहीं है। इसमें तत्त्व का निश्चयात्मक प्रतिपादन है। यह प्रतिपादन सापेक्ष दृष्टिकोण से है, इसलिए यह अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भगवती में आए हुए पुद्गल-स्कंधो की चर्चा के प्रसंग में स्याद्वाद के सातों ही भंग फलित होते हैं । भगवती सूत्र दर्शन युग में लिखा हुआ कोई दार्शनिक ग्रंथ नहीं है। वह महावीरकालीन आगम सूत्र है । इससे यह ज्ञात होता है कि स्याद्वाद को संजयवेलट्टिपुत्त के सिद्धान्त से उधार लेने की बात सर्वथा आधार शून्य है। अज्ञानवादी कहते हैं- अनेक दर्शन हैं और अनेक दार्शनिक। वे सब सत्य को जानने का दावा करते हैं, किन्तु उन सब का जानना परस्पर विरोधी है। सत्य परस्पर विरोधी नहीं होता। यदि उन दार्शनिकों का ज्ञान सत्य का ज्ञान होता तो वह परस्पर विरोधी नहीं होता। वह परस्पर विरोधी है, इसलिए सत्य नहीं है। जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ की भाषा के आशय को समझे बिना केवल उसे दोहरा देता है, वैसे ही सब अज्ञानी (सम्यग्ज्ञानशून्य दार्शनिक) अपने-अपने ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी निश्चयार्थ (वास्तविक सत्य) को नहीं जानते । यदि वे निश्चयार्थ को जानते होते तो परस्पर विरोधी अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते। वे अपने मत-प्रवर्तक को सर्वज्ञ मानते हैं, पर वे स्वयं सर्वज्ञ नहीं हैं तब सर्वज्ञ की बात कसे समझ सकेंगे? असर्वज्ञ सर्वज्ञ को नहीं जानता। कोई व्यक्ति सर्वज्ञ है और उस समय के लोग उसकी सर्वज्ञता को जानना चाहते हैं, किन्तु सर्वज्ञ के द्वारा जो ज्ञेय है उसे वे समग्रता से नहीं जान पाते, इसलिए वे कैसे जान सकते हैं कि वह व्यक्ति सर्वज्ञ है ? दूसरों की चित्तवृत्ति को जानना सरल नहीं है । उपदेष्टा ने किस विवक्षा से क्या कहा है, उसे पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिए कोई भी दार्शनिक, भले फिर वह किसी भी दर्शन का अनुयायी हो, निश्चयार्थ को नहीं जानता। वह अपने दर्शन के हार्द को समझे बिना उस म्लेच्छ की भांति वाणी को दोहरा रहा है, शास्त्र की रट लगा रहा है, इसलिए अज्ञान ही श्रेय है।' यह प्रस्तुत सूत्र के वृत्तिकार शीलांकसूरी की व्याख्या है। उनके अनुसार इन तीनों श्लोकों (४१, ४२, ४३) में अज्ञानवाद का समर्थन है और चालीसवें श्लोक से उसका प्रतिपादन शुरू होता है। देखें-१२/१ का टिप्पण। ५३. श्रमण (समणा) चूणिकार ने इसका अर्थ श्रमण और वृत्तिकार ने 'परिव्राजक विशेष' किया है। श्रमणों के अन्तर्गत परिव्राजकों का समावेश १. भगवई १२/२१८, २१६: आया भंते ! दुपएसिए खंधे ? अण्णे दुपएसिए खंधे ? गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं....। से केणठेणं भंते ! एवं....... ? गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया, परस्स आदिठे नो आया, तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्वं ...... । २. वृत्ति, पत्र ३५ : एके केचन ब्राह्मणविशेषा: तथा श्रमणाः परिवाजकविशेषाः सर्वेऽप्येते ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं-हेयोपादेयार्थाऽऽविर्भावकं परस्परविरोधेन व्यवस्थितं स्वकं आत्मीयं बदन्ति, न च तानि ज्ञानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्तत्वात् सत्यानि,......। ....."यथा मलेच्छः अमलेच्छस्य परमार्थमजानानः केवलं तद् भाषितमनुभाषते, तथा अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः श्रमणा ब्राह्मणा वदन्तोऽपि स्वीयं स्वीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थभाषणात् निश्चयार्थं न जानन्ति, तथाहि-ते स्वकीयं तीर्थकरं सर्वज्ञत्वेन निर्धार्य तदुपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन्, न च सर्वज्ञविवक्षा अग्दिशिना ग्रहीतुं शक्यते, नासर्वज्ञः सर्वज्ञं जानातीति न्यायात्, तथा चोक्तम्-'सर्वज्ञोऽसाविति ह्यतत् तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ?' एवं परचेतोवृत्तीना दुरन्वयत्वाद् उपदेष्टरपि यथाव स्थित विवक्षया ग्रहणासंभवान्निश्चयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव । ..... 'अतोऽज्ञानमेव श्रेय इति । ३. (क) चूणि, पृष्ठ ३४ : समणा समणा एव । (ख) वृत्ति, पृष्ठ ३५ : श्रमणाः परिव्राजकविशेषाः। Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १: टिप्पण८४-८६ सूयगडो १ ४८ भी होता था, ऐसा प्राचीन उल्लेख प्राप्त होता है। अतः वृत्तिकार का अर्थ भी संगत है। श्लोक ४३: ५४. अज्ञानी (पूर्ण ज्ञान से शून्य) (अण्णाणिया) अज्ञानिक का अर्थ है-पूर्ण ज्ञान से शून्य ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सम्यग् ज्ञान से रहित किया है।' श्लोक ४४: ८५. विमर्श (वीमंसा) चूणिकार ने संशय, सन्देह, वितर्क, ऊह और विमर्श को पर्यायवाची माना है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-पर्यालोचन तथा मीमांसा ।' श्लोक ४५ ८६. श्लोक ४५ प्रस्तुत श्लोक में दिग्मूढ पथदर्शक के द्वारा होने वाले अपाय का निर्देश किया गया है। किसी गहन वन में एक पथिक पथभ्रष्ट हो गया। वह दिग्भ्रान्त होता हुआ पथ की टोह में घूम रहा था। इतने में ही उसे दूसरा पथिक दिखाई दिया। उसने पूछा'भाई ! पाटलिपुत्र नगर किस दिशा की ओर है ? उस पथिक ने कहा-चलो, मैं तुम्हें वहां ले चलता हूं।' दोनों साथ हो गए। वह भी पाटलीपुत्र का मार्ग नहीं जानता था। दोनों जंगल में ही भटकते रहे। रास्ते में पर्वत, पत्थर, नदियां, गुफाएं, वृक्ष, गुल्म, लता, वितान, जंगल आदि भयंकर स्थान आए। वहां वे दोनों कष्ट पाते हुए भी गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाए। किसी सार्थवाह ने स्कंधावार से एक मार्गदर्शक साथ ले लिया। वह स्वयं दिग्भ्रान्त था। वह दूसरी ही दिशा में चल पड़ा। उसके पीछे-पीछे सारा सार्थ चलता गया। सार्थ के बीच में चलने वाले मनुष्य तथा अन्त में चलने वाले मनुष्य मार्ग के ज्ञाता थे। परन्तु आगे-आगे चलने वाला मार्ग से अजान था। वे सब उस दिग्भ्रान्त नेता का अनुगमन कर कष्ट पाते रहे। १.(क) निशीथमाष्य गाथा, ४४२० : णिग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा।। चूणि-णिग्गंथा साधू खमणा वा सक्का रत्तपडा, तावसा वणवासिओ, गेरआ परिवायया, आजीवगा गोसालसिस्सा पंडर भिक्खुआ वि भणति । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३१-३३ : निग्गंथ सक्कं तावस, गेल्य आजीव पंचहा समणा । तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासण भवा मुणिणो॥ सक्का य सुगय सीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया । जे धाउरवत्था तिवंडिणो गेरूया ते उ॥ जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा । समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धि मिमे ॥ २. चूणि, पृष्ठ ३५ : अत्रिकालाभिज्ञा इव न सद्भावतो वदन्ति । ३. वृत्ति, पत्र ३५ : अज्ञानिकाः सम्यग्ज्ञानरहिताः। ४. चूणि, पृष्ठ ३५ : संशयः संदेहो वितर्कः ऊहा वीमसेत्यनान्तरम् । ५. वृत्ति, पत्र ३६ : विमर्शः पर्यालोचनात्मको मीमांसा वा-मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा। ६. चूणि, पृष्ठ ३५। Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ८७. घोर ( तिव्वं ) तीव्र के दो अर्थ हैं- अत्यन्त, असह्य ין re ८८. जंगल में (सोयं) इसके तीन अर्थ , खोत (भयद्वार), जंगल, शोक पर्वत, चट्टानें, नदियां, कन्दरा, तथा वृक्ष, गुल्म और लताओं के झुरमुट तथा जंगल - ये भय पैदा करने वाले होते हैं। अतः ये श्रोत हैं ।' श्लोक ४६ : अध्ययन १ : टिप्पण ८७-२ ८६. दूर मार्ग में चला जाता है ( दूरमद्धाण गच्छई ) इसका तात्पर्य है - विवक्षित मार्ग से दूर चला जाता है। एक अंधा मनुष्य दूसरे अंधे के पास आकर बोला- 'चलो, मैं तुम्हें उस गांव या नगर में ले चलता हूं जहां तुम जाना चाहते हो ।' वह अंधा उसके साथ चल पड़ा । ले जाने वाला भी अंधा और जाने वाला भी अंधा । ले जाने वाला नहीं जानता कि उसे कहां ठहरना है, कहां चलना है। मार्ग का यह अपरिमाण ही मार्ग से दूर भटकना है । * ६०. उत्पथ में चला जाता है (आवज्जे उप्पहं जंतू) इस प्रकार दोनों अंधे अपने पादस्पर्श से मार्ग को पहचानते हुए क्षण भर सही मार्ग पर चलते हैं, फिर उत्पथ में चले जाते हैं । उस उत्पथ पर चलते हुए प्रपात, कांटे, सर्प, हिंस्र पशुओं से वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। * श्लोक ४७ : ११. मोक्षार्थी (गियागट्ठी) पूर्णिकार ने 'गिवायी' का संस्कृत प्रतिकर 'नियाकार्य' किया है। तात्पर्यार्थ में इसके दो किए हैं-नियत- मोक्ष और नियत - नित्य ।" वृतिकार ने 'निमान' का अर्थ मोक्ष या सद्धमं किया है। नियाग का नियत शब्द से सीधा संबंध नहीं है। इसका संबंध 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'पन्' धातु से संगत लगता है। ६२. अधर्म के मार्ग पर चलते हैं (अहम्ममावज्जे) कुछ लोग धर्म की आराधना के लिए दीक्षा स्वीकार करते हैं। तथाकथित मान्यता अथवा जीवन यात्रा की कठिनाइयों के कारण वे आरंभ में प्रवृत्त रहते हैं। इस प्रकार वे धर्म के लिए जीवन-यापन करते हुए भी अधर्म में चले जाते हैं। चूर्णिकार ने एक महत्त्वपूर्ण बात का उल्लेख किया है कि आजीवक श्रमण बहुत कठोर तपश्चर्या करते थे, किन्तु वे भी अधर्मानुबंधी धर्म का आचरण करने के कारण धर्म से अधर्म की ओर चले जाते थे।" । १. (क) णि, पृष्ठ २५ (ख) वृत्ति, पत्र ३६ : तीव्रम् असह्यम् । २. गि, पृष्ठ ३५ पर्यंत-म-सरित् कन्दरा वृक्ष गुल्मता-वितान-व्हनं भवन्ति तेनेति श्रोतं भवद्वारमित्यर्थः । : ३. वही, पृष्ठ ३५: जधा कोई अंधो अद्धाणे अद्धाणद्वाणे वा किचि अन्धमेव समेत्य ब्रवीति — अहं ते अभिदमितं गानं नगरं वा गेमि त्ति तेण सध पट्टितो।' नासौ जानाति यत्र वस्तव्यं यातव्यं वा इत्यतस्तस्य तदपरिमाणमेव अध्वानमित्यतो दूराध्वानम् । ४. वही, पृष्ठ ३५ स एवं पधेणं पत्थितो वि क्षणान्तरं पादस्पर्शेन गत्वा उत्पथमापद्यते यत्र विनाशं प्राप्नुते प्रपात कण्टका-हिश्वापदादिभ्यः । ५. वही, पृष्ठ ३६ : नियतो नाम मोक्षः, नियतो नित्य इत्यर्थः, नियाकेन यस्यार्थः स भवति निमाकार्थः । ६. वृत्ति, पत्र ३६ नियागो मोक्ष: सद्धर्मो वा । ७ चूर्णि पृष्ठ ३६ : अधर्ममापद्यन्ते यथाशक्त्या आरम्भप्रवृत्ता धर्मायोत्थिता अधर्ममेव आपद्यन्ते । येऽपि च कष्टतपः प्रवृत्ता आजीविकावयपि धर्म अधर्मानुबन्धिनं प्राप्य पुनरपि गोशालवत् संसारायेव भवन्ति । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ९३ सबसे सीधे मार्ग (संयम) पर ( सब्वज्जुयं ) इसका अर्थ है - संयम । संयम सब ओर से ऋजु होता है । वृत्तिकार ने इसके तीन बर्ष किए हैं- संयम, सद्धर्म और सत्य दशवंकालिक सूत्र में ऋदर्शी का अर्थ संयमदर्शी मिलता है।' ५० १४. कुछ अज्ञानवादी (एगे ) चूर्णिकार ने 'एगे' का अर्थ परतंत्र तीर्थंकर किया है। जैन आगमों में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है । बौद्ध साहित्य में छह तीर्थंकरों का उल्लेख उपलब्ध है ।" तीर्थंकर का अर्थ होता है- प्रवचनकार । शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कपिल, कणाद आदि को सीकर कहा है। इन सारे संदर्भों में चूर्णिकार का 'परतंत्र तीर्थंकर' यह प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है। ६५. दूसरे ( विशिष्टज्ञानी) की ( अण्णं) श्लोक ४८ : यहां 'अन्य' से सर्वज्ञ और सर्वदर्शी का ग्रहण किया गया है।" ४. पकुधो कच्चायनो ५. सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो" ६. निगण्ठो माटपुत्तो... ६. वे अपने वितर्कों के द्वारा (अध्पणो य वियक्काह) इसका अर्थ है - अपने वितर्कों के द्वारा। वे अज्ञानवादी मन ही मन वितकंणा करते हैं कि व्यास ने अमुक ऋषि के द्वारा कथित इतिहास का प्रणयन किया था। कणाद ऋषि ने महेश्वर की आराधना कर उनकी कृपा से वैशेषिक मत का प्रवर्तन किया था। इस प्रकार आत्म-वितर्क और परोपदेश के द्वारा वे बतलाते हैं—यह मार्ग ऋजु है, अथवा यह मार्ग ऋजु नहीं है ।" बितर्क और मीमांसा एकार्थक हैं।' ७. ऋजु (अंजू ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ ऋजु किया है।" वृत्तिकार ने इसका प्रधान अर्थ व्यक्त या स्पष्ट तथा वैकल्पिक अर्थ ऋजु या अकु १. भूपृष्ठ ३६ सजग नाम जो २. वृत्ति, पत्र ३७ : सर्वैः प्रकारैर्ऋऋ जु: - प्रगुणो विवक्षितमोक्षगमनं प्रत्यकुटिलः सर्वर्जु :- संयमः सद्धर्मो वा' अध्ययन १ टिप्पण ६३-६७ ...तित्थकरो 'तित्थकरो लिकरो..... सर्वर्जुकं — सत्यम् । ३. दसवेलियं ३ / ११, वृत्ति पत्र ११६ : ऋजुदर्शन इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात् संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुर्दाशिनः । ४. चूर्ण, पृष्ठ ३६ : एते इति ये उक्ताः परतन्त्रतीर्थकराः । ५. दोघनिकाय I, २ / २ / २-७ पृ० ४१, ४२ : १. पूरण कस्सपो...... .तित्थकरो २. मक्ख लिगोसालो "तित्थकरो ३. अजितो केसकम्बलो 'यदि वा "तित्थकरो ******* ६. ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, अ० २, पाद १, सूत्र ११, भाष्य, पृ० ३८८ प्रसिद्ध माहात्म्यानुमतानामपि तीर्थकराणां कपिलकणभुवमभूतीनां .....। ७. चूर्णि पृष्ठ ३६ : अन्ये नाम ये छद्मस्थलोकादुत्तीर्णाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शनः । वही, पृष्ठ २६ यथा व्यासः अमुकेन ऋषिणा एवमुक्तमितिहासमानयति यथा रुणादो ऽपि महेश्वरं किलाऽऽराध्य तत्प्रसादपूतमनाः वैशेविक [म] मकरोत् एतंरारम वितर्कः परोपदेशश्च यथास्वं अयमस्मिन् मार्गः ऋजुः अजु . वही, पृष्ठ २६ वितक मीमांसेत्यनर्थान्तरम् । १०. वही, पृष्ठ ३६ : ऋजुः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १: टिप्पण ९८-१०१ सूयगडो १ टिल किया है। श्लोक ४६ ६८. धर्म और अधर्म को (धम्माधम्मे) चूर्णिकार ने धर्म और अधर्म के दो-दो अर्थ किए हैंधर्म-१. द्रव्य और पर्याय का स्वभाव में अवस्थान । २. जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सधता है तथा जो सुख का कारण है । अधर्म-१. द्रव्य और पर्याय का स्वभाव में अनवस्थान । २. जो दुःख का कारण बनता है। वृत्तिकार ने उदाहरण के द्वारा इसकी व्याख्या की है । क्षान्ति आदि धर्म और हिंसा आदि पाप-अधर्म ।' ६६. जैसे पक्षी पिंजरे से (सउणी पंजरं जहा) जैसे शुक', कोकिल, मैना आदि पक्षी पिंजरे को तोड़ने में सफल नहीं होते अर्थात् पिंजरे से अपने आपको मुक्त नहीं कर सकते। १००. दुःख से (दुक्खं) चणिकार ने दुःख का अर्थ संसार किया है। कारण में कार्य का उपचार कर दुख का वैकल्पिक अर्थ अधर्म किया है। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-असाता का उदय अथवा मिथ्यात्व के द्वारा उपचित कर्म-बंधन ।' श्लोक ५० १०१. श्लोक ५० अपने सिद्धांत की प्रशंसा और दूसरे सिद्धांत की गर्दा करना वर्तमान की मनोवृत्ति ही नहीं है, यह बहुत पुरानी मनोवृत्ति है । 'यही सत्य है, दूसरा सिद्धान्त सत्य नहीं है'—इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। 'इदमेवकं सत्यं, मम सत्यं'-इस आग्रह से जो असत्य जन्म लेता है, उससे बचने के लिए अनेकान्त को समझना आवश्यक है। अनेकान्तदृष्टि वाला दूसरे सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किन्तु सत्य को सापेक्षदृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धान्त को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धान्तों का खंडन करते थे तब भगवान् महावीर ने कहा-नियतिवाद ही तत्त्व है, इस प्रकार का गर्व दुःख के पार पहुंचाने वाला नहीं, दुःख के जाल में फंसाने वाला है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्तदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है। चूर्णिकार ने 'विउस्संति'- इस क्रिया पद का अर्थ-विशेष गर्व करना किया है। इस अर्थ के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'व्युत्स्रयन्ति' होता है। दृत्तिकार ने 'विउस्संति' का अर्थ-विद्वानों की भांति आचरण करते हैं अथवा अपने शास्त्र के विषय में विशिष्ट युक्ति का कथन करते हैं-किया है। १. वृत्ति, पत्र ३७ : 'अंजु' रिति निर्दोषत्वाद व्यक्तः-स्पष्टः, परैस्तिरस्कर्तुमशक्यः, ऋजुर्वा-प्रगुणोऽकुटिलः। २. चूणि, पृष्ठ ३६ : धर्मो नाम यथाद्रव्यपर्यायस्वभावावस्थानम्, विपरीतोऽधर्म इति । अथवा धर्मोऽभ्युदय-नैश्रेयसिकः सुखकारणमिति, दुःखकारणमधर्मः। ३. वृत्ति, पत्र ३७। ४. चूणि, पृ० ३६ : यथा शुकः कोकिला मदनशिलाका द्रव्यपञ्जरं नातिवर्तते । ५ वही, पृष्ठ ३६ : दुःखं संसारो । अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वाऽपदिश्यते संसारदुःखकारणमधर्मः । ६. वृत्ति, पत्र ३७ : 'दुःखम्' असातोदयलक्षणं तद्धतुं वा मिथ्यात्वाद्य पचितकर्मबन्धनम् । ७. चूणि, पृष्ठ ३७ : विउस्संति, विशेषेण उस्संति इदमेवैकं तत्त्वमिति विशेषेण उच्छ्यंति गम्वेणं उस्संतीति । ८. वृत्ति, पत्र ३८ : 'विद्वस्यंते' विद्वांस इवाऽचरन्ति, तेषु वा विशेषेणोशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं ववन्ति । Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५२ अध्ययन १: टिप्पण१०२-१०६ इन अर्थों के मूल में इनके दो संस्कृत रूप हैं-विद्वस्यते और विशेषेणोशन्ति' । चूणि में 'विउस्सिया' पाठ उपलब्ध नहीं है। वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-'न्युत्थिताः' और 'व्युसिताः'।' श्लोक ५१: १०२. क्रियावादी दर्शन (किरियावाइदरिसणं) चूणिकार ने 'कर्म' को क्रिया का पर्यायवाची मानकर इसका अर्थ-कर्मवादी दर्शन किया है। १०३. जो प्राचीनकाल से निरूपित है (पुरक्खायं) 'पुराख्यात' शब्द के अनेक अर्थ हैं'१. जितने दर्शन प्रचलित हैं, उनसे पूर्व कहा हुआ। जैसे गंगा के बालु कणों की गिनती नहीं की जा सकती उसी प्रकार अनगिन बुद्ध हुए हैं, उनके द्वारा कहा हुआ। २. प्राचीन काल के मिथ्या दर्शनों में आख्यात । ३. प्रख्यात । १०४. कर्म-विषयक चिन्तन सम्यक् दृष्ट नहीं है (कम्मचितापणट्ठाणं) कर्म जैसे, जिससे, जिसके और जिन हेतुओं में प्रवर्त्तमान व्यक्ति के बंधता है, उस चिन्ता से रहित । कर्म-बंध या अबंध के विषय में अगले श्लोक के टिप्पण में स्पष्ट कथन किया गया है। १०५. दुःख-स्कंध को बढ़ाने वाला है (दुक्खखंधविवद्धणं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-कर्म समूह को बढ़ानेवाला' और वृत्तिकार ने दुःख-परम्परा को बढ़ाने वाला किया है।' श्लोक ५१-५५ १०६. श्लोक ५१-५५ अहिंसा के विषय में चिन्तन की अनेक कोटियां रही हैं । प्रस्तुत प्रकरण में बौद्धों का अहिंसक विषयक चिन्तन प्रस्तुत हैं । क्या जीव का वध होने पर हिंसा होती है ? क्या जीव का वध न होने पर हिंसा होती है ? क्या जीव का वध होने पर भी हिंसा नहीं होती ? अहिंसा के चिन्तन में ये तीन महत्वपूर्ण प्रश्न रहे हैं। इन प्रश्नों का सभी धर्माचार्यों ने अपनी-अपनी शैली से समाधान दिया है । बौद्धों ने इन प्रश्नों का उत्तर इस भाषा में दिया-(१) सत्त्व है (२) सत्त्व-संज्ञा है (३) मारने का चिन्तन है और (४) प्राणी मर जाता है-इन चारों का योग होने पर हिंसा होती है, हिंसा से होने वाला कर्म का उपचय होता है। जिन परिस्थितियों में हिंसा नहीं होती उसका उल्लेख सूत्रकार ने किया है । नियुक्तिकार के अनुसार वे चार हैं:१. वृत्ति, पत्र ३८ : विविधम्-अनेकप्रकारम् उत्—प्राबल्येन श्रिताः-संबद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः । २. चूणि, पृष्ठ ३७ : क्रिया कर्मत्यनन्तरम्, कर्मवादिदर्शनमित्यर्थः।। ३. वही, पृष्ठ ३७ : त एवं ब्रवते—'गंगावालिकासमा हि बुद्धाः, तैः पूर्वमेवेदमाख्यातम् । अथवा पुराख्यातमिति पूर्वेषु मिथ्यादर्शन प्रकृतेष्वाख्यातम् । अथवा प्रख्यातं पुराख्यातम् ।। ४. वही, पृष्ठ ३७ : कमचिता णाम यथा येन यस्य येषु च हेतुषु प्रवर्तमानस्य कर्म बध्यते ततो कर्मचिन्तातः प्रनष्टाः । ५. वही, पृष्ठ ३७ : दुःखस्कन्धविवर्द्धनम्, कर्मसमूहवर्द्धनमित्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र ३८ : 'दुःखस्कन्धस्य' असातोदयपरम्पराया विवर्धनं भवति । ७. चणि, पृष्ठ ३७ : कथं पुनरुपचीयते ? उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च सञ्चिन्त्य जीविताद् व्यपरापणं प्राणातिपातः। क. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा २८ : कम्मं चयं ण गच्छति चतुविधं भिक्खुसमयम्मि। Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १०६ १. परिज्ञोपचित केवल मन से पर्यालोचन करने से किसी प्राणी का वध नहीं होता इसलिए उससे हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। २. अविज्ञोपचित-अनजान में प्राणी का वध हो जाने पर भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। ३. ईर्यापथ-चलते समय कोई जीव मर जाता है, उससे भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता, क्योंकि उसकी मारने की अभि ___ संधि नहीं होती। ४. स्वप्नान्तिक-स्वप्न में जीव-वध हो जाने पर भी हिंसा-जनित कर्म का चय नहीं होता। इन चारों से मात्र कर्म का स्पर्श होता है जो सूक्ष्म तन्तु के बन्धन की भांति तत्काल छिन्न हो जाता है अथवा सूखी भीत पर गिरने वाली धूली की भांति तत्काल नीचे गिर जाता है। उसका विपाक नहीं होता। पाराजिक में हिंसा विषयक बौद्ध दृष्टिकोण प्रतिपादित है जो मनुष्य जानकर मनुष्य को प्राण से मारे, या शस्त्र खोज लाए या मरने को अनुमोदन करे, मरने के लिए प्रेरित करेअरे पुरुष ! तुझे क्या है इस पापी दुर्जीबन से ? तेरे लिए जीने से मरना श्रेय है-इस प्रकार के चित्त-विचार तथा चित्त-विकल्प से अनेक प्रकार से मरने की जो अनुमोदना करे या मरने के लिए प्रेरित करे तो वह भिक्षु पाराजिक होता है । वह भिक्षुओं के साथ सहवास के अयोग्य होता है।' सूत्रकार ने उक्त प्रकरण के संदर्भ में तीन आदानों का प्रतिपादन किया है१. अभिक्रम्य २.प्रेष्य ३. अनुमोदन जीव वध के प्रति कृत, कारित और अनुमति-इन तीनों का प्रयोग होने पर कर्म का चय होता है। इनमें से किसी एक या सब का प्रयोग होने पर हिंसा-जनित कर्म का चय होता है। परिज्ञोपचित ओर अनुमोदन एक नहीं है। परिज्ञोपचित में केवल मानसिक चिंतन होता है और अनुमोदन में दूसरे द्वारा किए जाने वाले जीव-वध का समर्थन होता है।' बौद्धदृष्टि के अनुसार जहां कृत, कारित और अनुमोदन नहीं होता वहां जीव वध होने पर भी कर्म का चय नहीं होता । इस तथ्य की पुष्टि के लिए सूत्रकार ने मांस-भोजन का दृष्टान्त उपस्थित किया है । आर्द्र कुमार और बौद्ध भिक्षुओं के वार्तालाप के प्रसंग में भी इस विषय की चर्चा उपलब्ध है। वहां बौद्ध दृष्टिकोण इस रूप में प्रस्तुत है ___'कोई पुरुष खल की पिंडी को पुरुष जानकर पकाता है, तुंबे को कुमार जानकर पकाता है, फिर भी वह जीव-वध से लिप्त होता है । इसके विपरीत कोई म्लेच्छ मनुष्य को खल की पिंडी समझकर शूल में पिरोता है, कुमार को तुंबा समझकर पकाता है, फिर भी वह जीव-बध से लिप्त नहीं होता। खल-पिंडी की स्मृति से पकाया गया मनुष्य का मांस बुद्धों के लिए अग्राह्य नहीं होता। इस प्रसंग से भी यह फलित होता है कि मन से असंकल्पित जीव-वध होने पर कर्म का चय नहीं होता। १. विनयपटिक ११३ राहुल सांकृत्यायन सन् १९३५ । २. वत्ति, पत्र ३६ : परिज्ञोपचितावस्यायं भेदः-तत्र केवलं मनसा चिन्तनमिह स्वपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदनमिति । ३. सूयगडो २।६।२६-२८ : पिण्णागपिंडीमवि विद्ध सूले केई पएज्जा पुरिसे इमे त्ति। अलाउयं वा वि 'कुमारग त्ति' स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। अहवावि विqण मिलक्ख सूले पिण्णागबुद्धीए णरं पएज्जा। कुमारगं वा वि अलाउएं त्ति ण लिप्पई पाणिवहेण अम्हं ।। पुरिसं च विण कुमारगं वा सूलंमि केइ पए जायतेए। पिण्णागपिडि सइमारहेता बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए। Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ अध्ययन १ : टिप्पण १०७ वसुबन्धु ने प्राणातिपात की व्याख्या में बतलाया है -'इसको मारूंणा-ऐसा जानकर उसे मारता है और वह उसी को मारता है किसी दूसरे को नहीं मारता तब प्राणातिपात होता है । संकल्प के बिना किसी को मारता है, अथवा जिसे मारना चाहता है उसे नहीं मारता किंतु किसी दूसरे को मारता है, वहां प्राणातिपात नहीं होता।' प्रस्तुत सूत्र में बौद्धों के इस अहिंसा विषयक दृष्टिकोण को आलोच्य बतलाया गया है । इसे आलोच्य बतलाने के पीछे हिंसा का एक मानदंड है । वह है-प्रमाद । हिंसा का मुख्य हेतु है-प्रमाद, फिर हिंसा करने का संकल्प हो या न हो । अप्रमत्त और वीतराग के मन में हिंसा का संकल्प उत्पन्न ही नहीं होता। उनके द्वारा कोई जीव-वध हो जाता है तो उनके हिंसा-जनित कर्म-बंध नहीं होता । जो वीतराग नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है, उसके द्वारा किसी जीव का वध होता है तो उसके हिंसा-जनित कर्म-बंध अवश्य होता है । कोई बच्चा हो अथवा कोई समझदार मनुष्य भी नींद में हो अथवा कोई जानबूझ कर हिंसा न कर रहा हो, फिर भी इन सब अवस्थाओं में यदि प्राणातिपात होता है तो वे हिंसा के दोष से मुक्त नहीं हो सकते । संकल्पकृत हिंसा और असंकल्पजनित हिंसा से होने वाले कर्म-बन्ध में तारतम्भ हो सकता है, किन्तु एक में कर्म का बन्ध और दूसरी में कर्म का अबंध-ऐसा नहीं हो सकता। संकल्प व्यक्त मन का एक परिणाम है। प्रमाद अव्यक्त चेतना (अध्यवसाय, अन्तर्मन या सूक्ष्म मन) का कार्य है । यदि वह विरत नहीं है तो स्यूल मन का संकल्प न होने पर भी जीव-वध होने पर हिंसा होगी और यदि प्रमाद नहीं है तो जीव-वध होने पर भी द्रव्यतः हिंसा होगी, किन्तु उससे कर्म-बन्ध नहीं होगा। बौद्ध इष्टिकोण में हिंसा और अहिंसा के बीच संकल्प और असंकल्प को भेदरेखा खींची गई है। जैन दृष्टिकोण में उनके बीच प्रमाद और अप्रमाद की भेदरेखा खींची गई है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर बौद्ध दृष्टि की आलोचना की गई है। १०७. श्लोक ५५ भिक्षु त्रिकोटि शुद्ध मांस को खाता हुआ पाप से लिप्त नहीं होता। इस विषय में चूणिकार ने एक उदाहरण दिया है-एक भिक्ष उपासिका के घर गया। उसने बटेर को मार, उसे पका भिक्षु को दिया । गृहस्वामी ने आश्चर्य के साथ कहा-देखो, यह कैसा निर्दय है। इससे ज्ञात होता है कि भिक्षु मांस लेते थे। उद्दिष्ट मांस का बुद्ध ने भिक्षु के लिए निषेध किया था। 'भिक्षुओ ! जानबूझकर अपने उद्देश्य से बने मांस को नहीं खाना चाहिए। जो खाए उसे दुक्कर दोष है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूं (अपने लिए मारे को) देखे, सुने, संदेहयुक्त-इन तीन बातों से शुद्ध मछली और मांस के खाने की ।" चूणिकार ने त्रिकोटि मांस का उल्लेख किया है । वे तीन कोटियां उक्त उद्धरण में स्पष्ट हैं-अदृष्ट, अश्रुत, अशंकित । सूत्रकार ने पुत्र को मारने का उल्लेख किया है। यह भी निराधार नहीं है । चूणिकार ने पुत्र के तीन अर्थ किए हैं-नरपुत्र, सूअर या बकरा । निम्रन्यों ने बौद्धों के मांसाहार के विषय में कोई बातचीत की और वह बातचीत बुद्ध के पास पहुंची । तब बुद्ध ने पूर्वजन्म की घटना बताते हुए कहा पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य काल में बोधिसत्व उत्पन्न हुए वे प्रवजित होकर हिमालय में चले गए। एक बार वे भिक्षा के लिए वाराणसी में आए। एक गृहस्थ तंग करने के लिए, उनको अपने घर ले गया। भोजन परोसा। तपस्वी ने भोजन किया। अन्त में गृहस्थ ने कहा-'मैंने तुम्हारे लिए ही प्राणियों का वध कर मांस का यह भोजन तैयार किया था। इसका पाप केवल हमें ही न लगे, तुमको भी लगे । गृहस्थ ने यह गाथा कही-हन्त्वा झत्वा वीधत्वा च देति दानं असञतो। एदिसं भत्तं भुञ्जमानो स पापेन उपलिप्यति । -असंयमी व्यक्ति प्राणियों को मारकर परितापित कर, वध कर दान देता है। इस प्रकार का भोजन खाने वाला पाप से लिप्त होता है। १. अभिधर्मकोश ४१७३ : प्राणातिपातः सञ्चिन्त्य परस्याभ्रान्तिमारणम् । अदत्तादानमन्यस्य स्वीक्रिया बलचौर्यतः॥ २. चूर्णि, पृष्ठ ३८ : भिक्षुः त्रिकोटिशुद्धं भुजानोऽपि मेधावी कम्मुणा गोवलिप्पते। तत्रोदाहरम् उपासिकाया भिक्षुः पाहणओ गतो। ताए लावगो मारेऊण ओवक्खडेत्ता तस्स दिण्णो । घरसामिपुच्छा । अहो ! णिग्धिण त्ति । ३. विनयपिटक ६४६, राहुल सांकृत्यायन पृष्ठ २४५ । ४. चूणि, पृष्ठ ३८ : किमंग णरपुत्रं शूकरं वा छागलं वा । Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gist १ उत्तर में बोधिसत्व ने कहा ५५ पुत्तदारम्मिने वा देति दानं असन्तो मुज्जमानोदि सोन पापेन उपलिप्यति ॥ - यदि कोई व्यक्ति अपने पुत्र या स्त्री को मारकर भी उनके मांस का दान करता है तो प्रज्ञावान भिक्षु उसे खाता हुआ भी पाप से लिप्त नहीं होता ।' श्लोक ५६ : १०८. जो मन से ...... कुशल चित्त नहीं होता (मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसि ण विज्जइ ) चूर्णिकार के अनुसार इन दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है सबसे पहले व्यक्ति के मन में प्राणियों के प्रति निर्दयता उत्पन्न होती है । फिर यह प्रतिपादन होता है कि जो हमारे भोजन के लिए दूसरा व्यक्ति जीवों का वध करता है, उसमें कोई दोष नहीं है । जो व्यक्ति उद्दिष्ट भोजन का आहार करते हैं वे अप्रदुष्ट होने पर भी उनका मन द्वेषयुक्त ही होता है । वे निरंतर संघभक्त तथा मत्स्य-मांस का भोजन करने में मूच्छित होते हैं तथा इन्द्रियों के व्यापार में नित्य अभिनिविष्ट होते हैं, अतः उनके चित्त नहीं होता । सूत्रकार ने 'चित्त नहीं होता' ऐसा प्रयोग किया है । इसका तात्पर्य है कि उनके कुशल चित्त नहीं होता । अशुभ चित्त या व्याकुल चित्त को अ-चित्त ही कहा जाता है । व्यवहार में भी देखा जाता है कि जो व्याकुल चित्त होता है वह कहता है- मेरे चित्त है या नहीं । अध्ययन १ टिप्पण १०८ १०६ (अणवज्जं अतहं) जो हिंसा आदि आरंभ में प्रवृत्त होते हैं, उनके अनवद्य योग ( कर्मोपचय का अभाव ) नही होता । जो लोग आरंभ में प्रवृत्त व्यक्ति के अनवद्य योग मानते हैं, वह अतथ्य है । कर्म बंध के हेतुओं से निवृत्त (संबुडचारिणो ) संवृत का अर्थ है—संयम का उपक्रम । जो संयम का उपक्रम करता है वह संवृतचारी होता है । अतंबूतचारी प्रद्वेष, निव मात्सर्य आदि आश्रयों में वर्तमान रहने के कारण तद् अनुरूप कर्म बांधते हैं।' इलोक ५७ : १०६. इन दृष्टियों को स्वीकार कर (इब्वेवाह विट्ठीहि ) आगम युग में दर्शन के वर्ष में 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग प्रमुखता से होता था पूर्ववर्ती श्लोकों में नाना सिद्धान्त निरूपित हैं। उन्हीं के लिए यहां दृष्टि शब्द का प्रयोग किया गया है । दृष्टि का अर्थ नय होता है । जो दार्शनिक एक ही दृष्टि या नय का आग्रह करते थे, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहा जाता था । ४१ और ५६ वें श्लोक में मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रयोग मिलता है । चूर्णिकार ने इस पद के द्वारा पूर्वोक्त नियतिवादी आदि की दृष्टियों को स्वीकार किया है । " १. जातक अट्ठकथा, सं० २४६, तेलीवाद जातक । २. चूर्ण, पृष्ठ ३८ : पूर्व हि सत्वेषु निर्घृणतोत्पद्यते, पश्चादपदिश्यते -पः परः जीववहं करोति न तत्र दोषोऽस्तीति । ते हि पुण्यकामकाः मातुरपि स्तनं खित्वा तेभ्यो ददति । अप्रदुष्टा अपि मनसा दुष्टा एव मन्तव्याः य उद्देशककृतं भुञ्जते । एवं तेषां भादिषु मत्स्याद्यसनेषु च मूतानां प्रामादिव्यापारेषु च नित्याभिनिविष्टानां कुशलचितं न विद्यते संध्या " वा तदचितमेव यथा अशीलवती लोकेऽपि दृष्टम्याकुलचिता भवति (भगत) अविचितओ हं । 1 २. वह पृष्ठ ३८ तचारिणो नाम संवृतः संयमोपमः तच्चरणशीलः संवृतचारी । ४. वही, पृष्ठ २८ नित्यमेव हि ते असंवुडचारिणो बन्धषु वर्तन्ते हि तत्त्रदोषनिव मात्सर्वादिभ्यश्रवद्वारेषु यथास्वं वर्तमानास्तदनुरूपमेव च यचापरिणामं कर्म नन्ति । ५. पूर्णि, पृष्ठ २९ एताहि ति इहाध्याये वा अपविष्टा निवतिकायाः। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण ११०-११३ वृत्तिकार ने केवल 'चार प्रकार का कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता'-इस बौद्ध दृष्टि को स्वीकार किया है।' शारीरिक सुखों में आसक्त (सायागारवणिस्सिया) चूणिकार ने इसका अर्थ शरीर-सुख के प्रति आसक्त किया है।' गौरव के तीन प्रकार हैं-ऋद्धि गौरव, रस गौरव, और साता गौरव । प्रस्तुत प्रसंग में साता गौरव का कथन है। इसका अर्थ है-सुखशीलता में आसक्त ।' श्लोक ५८: ११०. सच्छिद्र नौका (आसाविणि णावं) __ ऐसी नौका जिसके कोष्ठ (चहारदिवारी) नहीं किया गया है या जिसका कोष्ठ भग्न हो गया है, उसे आश्राविणी नौका कहते हैं। जन्मान्ध (जाइअंघो) ___इसका अर्थ है-जन्मान्ध । चूर्णिकार के अनुसार जात्यंध का ग्रहण इसलिए किया गया है, कि वह न नौका के मुख-अग्रभाग को जानता है और न उसके पृष्ठभाग को जानता है और न वह नाव खेने के उपकरणों का उपयोग जानता है। वह निश्च्छिद्र नौका को भी नहीं चला सकता, फिर छेद वाली नौका को कैसे चला सकता है ? श्लोक ६० १११. श्रद्धालु गृहस्थ (सड्डी) यह विभक्ति रहित पद है। यहां 'सड्डीहिं'-तृतीया विभक्ति होनी चाहिए। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रद्धावान् अथवा एक साथ रहने वाले।' ११२. पूतिकर्म (पूइकडं) पूतिकृत-आधाकर्म से मिश्रित आहार आदि । देखें-दसवेआलियं ५।११५५ का टिप्पण न० १५४ । ११३. फिर भी वह द्विपक्ष का सेवन करताहै (दुपक्खं चेव सेवई) वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं(१) गृहस्थ पक्ष और प्रवजित पक्ष । (२) ईर्यापथ और सांपरायिक । (३) पूर्वबद्ध कर्म-प्रकृतियों को गाढ करना तथा नये कर्मों को बांधना। १. वृत्ति, पत्र ४१ : 'इत्येताभिः' पूर्वोक्ताभिश्चतुविधं कर्म नोपचयं यातोति 'दृष्टिभिः' अभ्युपगमैः । २. चूणि, पृष्ठ ३६ : सातागारवो नाम शरीरसुक्खं तत्र निःसृताः (नि:श्रिताः) अज्झोववण्णा इत्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र ४१ : 'सातगौरवनिःधिताः' सुखशीलतायामासक्ताः । ४. आप्टे संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी-कोष्ठम् A Surrounding Wall, भागवत ४।२८५६ । ५. चूणि, पृष्ठ ३६ : आश्रवतीति आश्राविणी अकतकोट्टा भुण्णकोट्ठा वा। ६. वही, पृष्ठ ३६ : जात्यन्धग्रहणं नासौ नावामुखं पृष्ठं वा जानीते, यो वा अवल्लकपत्रादेरुपकरणस्य यथोपयोगः । ........ ............... सो हि णिछिटुं पि ण सक्केइ वट्टावेत, किमंग पुण सचिहुं ? ७. चणि, पृष्ठ ४०: श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी...............अधवा सडि ति जे एगतो वसंति । ८. वृत्ति, पत्र ४२ : 'द्विपक्ष' गृहस्थपक्ष प्रवजितपक्षं. ............. यदि वा-'द्विपक्ष' मिति ईर्यापथः सांपरायिकं च, अथवा-पूर्वबद्धा निकाचिताद्यवस्थाः कर्मप्रकृतीनयत्यपूर्वाश्चादत्ते । Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७ अध्ययन १ टिप्पण ११४-११० चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं - गृहस्थ पक्ष और प्रव्रज्या पक्ष । वह व्यक्ति वेश की दृष्टि से संयमी और आचरण में असंयमी होता है, इसलिए वह गृहस्थ और साधु —दोनों पक्षों का सेवन करता है ।' श्लोक ६१ : ११४. कर्मबन्ध के प्रकारों को ( विससि) चूर्णिकार का कथन है कि कर्म-बंध विषम होता है। उसे तोड़ना सरल नहीं होता। आठ कर्मों में प्रत्येक कर्म अनेक प्रकार का है और उसका बंध अनेक कारणों से होता है। प्रत्येक कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं, अतः कर्म-बंधन से मुक्त होना विषम कार्य है।" वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैंसन कर्मबंध अथवा चतुर्गतिक संसार' ११५. नहीं जानते (अकोदिया) जो मनुष्य प्रत्युत्पन्न में आसक्त होते हैं और भविष्य में होने वाले दोषों को नहीं जानते वे अकोविद होते हैं । वैसे व्यक्ति दुःख को प्राप्त होते हैं । ११६. विशालकाय मत्स्य (मच्छा बेसालिया) पूर्णिकार ने बसालिय' के तीन अर्थ किए हैं' (१) विशाल का अर्थ है - समुद्र, उसमें होने वाले मत्स्य । (२) विशालकाय मत्स्य । (३) 'विशाल' नामक विशिष्ट मत्स्य जाति में उत्पन्न मत्स्य । वृतिकार ने भी ये ही तीन अर्थ किये हैं।' ज्वार के साथ नदी के मुहाने पर आते हैं (उदगस्सऽभियाग मे ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ - पानी का समुद्र से बाहर फेंका जाना किया है। मतांतर में इसका अर्थ ज्वार का आना और जाना भी किया है।" ११७. कम हो जाता है ( पभावेणं) अल्पभाव का अर्थ है-थोड़ा ।' वृत्तिकार ने इसको 'प्रभाव' शब्द मानकर व्याख्या की है। उनका कहना है कि ज्वार के पानी के प्रभाव से वे विशालकाय मत्स्य नदी के मुहानों पर आ जाते हैं ।' वृत्तिकार का यह अर्थ उचित नहीं लगता, क्योंकि यह 'उदगस्सऽभियागमे' में आ गया है । अतः यहां 'अल्पभाव' वाला अर्थ ही उचित है । दव्वतो लिंग भावतो असंजतो। एवं ते : १. चूर्ण, पृष्ठ ४० दुक्खं णाम पक्षौ द्वौ सेवते, तद्यथा - गृहित्वं प्रव्रज्यां च । प्रव्रजिता अपि भूत्वा आधाकर्मादिभोजने गृहस्था एव सम्पद्यन्ते । २. वही, पृष्ठ ४० : विसमो णाम बंध मोक्खो, कम्मबंधो वि विसमो, जतो एक्केक्कं कम्मणे गप्पगारं अगेह च पगारेहिं वज्झते...... ......... ३.४२ अकारकर्मबन्धो भकोटिभिरपि दुर्गेश चतुर्गतिसंसारो या । " ४. णि, पृष्ठ ४० तेन प्रत्युत्पन्नाः अनागतदोष (पादन] आपकोदिभिः कर्मबद्धाः संसारे दुःखमाप्नुवन्ति । ५. वही, पृ० ४० : विशाल समुद्रः विशाले भवाः वैशालिकाः, बृहत्प्रमाणा: अथवा विशालकाः वैशालिका: । ६. वृत्ति, पत्र ४२ । ७. चूर्णि, पृ० ४० : उदगस्य अभ्यागमो नाम समुद्रान्निस्सरणम् केचित्तु पुनः प्रवेशः 1 ८. चूर्णि पृ० ४० : अप्पभावो णाम उदगस्स अल्पभावः । ६. वृत्ति, पत्र ४२ : उदकस्स प्रभावेन नदीमुखमागताः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण ११८-१२० ११८. नदी को बालू सूख जातो है तब (सुक्क म्मि) पानी का प्रवाह आता है और तत्काल चला जाता है तब वहां कुछ पानी शेष रह जाता है या कीचड़ बन जाता है। ये सारी अवस्थाएं 'शुष्क' शब्द से गृहीत हैं।' ११६. मांसार्थी (आमिसत्थेहि) हमने इसको ढंक और कंक पक्षियों का विशेषण माना है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसे विशेषण न मान कर स्वतन्त्र माना है। मांसार्थी अर्थात् शृगाल, पक्षि, मनुष्य, मार्जार आदि । यह चूर्णिकार का अर्थ है।' वृत्तिकार के अनुसार वे मनुष्य जो मांस और चर्बी पाने के इच्छुक हैं तथा वे जो मत्स्य आदि को बेचकर अपनी आजीविका चलाते हैं वे मांसार्थी कहलाते हैं । दुःखी (दुही) कुछ मत्स्य जो ज्वार के साथ तट पर आ जाते हैं, वे भाटा के आने पर पानी के साथ पुनः समुद्र में चले जाते हैं और कुछ मत्स्य थोड़े से पानी में फंस जाते हैं । मांसार्थी पशु-पक्षी अपने तीक्ष्ण दांतों और चोंचों से उनका मांस नोंच-नोंच कर खाते हैं तब वे मत्स्य बहुत दुःखी होते हैं। १२०. ढंक और कंक पक्षियों के द्वारा (ढंकेहि य कंकेहि य) प्रस्तुत आगम में ये शब्द तीन स्थानों पर आए हैं। दो स्थानों पर ढंक और कंक तथा एक स्थान पर ढंक आदि । १. ढंकेहि य कंकेहि य (१६११६२) २. जधा ढंका य कंका य (१।११।२७) ३. ढंकादि (१३१४१२) चूर्णिकार ने प्रथम निर्दिष्ट स्थान में इनका कोई अर्थ नहीं किया है। तात्पर्यार्थ में ये मांसभक्षी पक्षी हैं । दूसरे स्थल पर इनका अर्थ जलचर पक्षी, जो तृण नहीं खाते, केवल उदक का आहार करते हैं-पानी के जीवों का भोजन करते हैं, किया है । तीसरे स्थल पर इन्हें केवल पक्षी माना है।' वृत्तिकार ने तीन स्थानों पर इनके अर्थ इस प्रकार किए हैं१. मांस में आसक्त रहने वाले पक्षी विशेष । २. मांसाहारी पक्षी विशेष जो जलाशयों पर रहते हैं और मछलियों को पाने में तत्पर रहते हैं। ३. मांसभक्षी क्षुद्रजीव । बौद्ध शब्दकोष में ढंक का अर्थ काक (crow) किया है।' १. चूगि पृ०४० : प्रत्यावृत्ते उद्गे शुष्का एवं बालुका संवृत्ता पङ्को वा । २. चणि, पृ० ४० : आमिषाशिनः शृगाल-पक्षि-मनुष्य-मार्जारादयः । ३. वृत्ति, पत्र ४२ : मांसवसाथिभिर्मत्स्यबन्धादिभिर्जीवन्त एव । ४. चूणि, पृ० ४० : यहच्छया च केचित् पुन: वीची नासाद्य वर्द्धमाने च उदके समुद्रमेव विशन्ति । दुहि ति तैस्तीक्ष्णतुण्डः पिशिता शिभिरश्यमानास्तीव दुःखमनुभवन्तो अट्टदुहट्टवसट्टा मरंति । ५. (क) चूणि पृ० ४० ... एतेनान्ये आमिषाशिनः । (ख) वही, पृ० २०१...''जलचरपक्षिजातिरेव..."एते हि न तृणाहारा: केवलोदकाहारा वा। (ग) वही, पृ० २२८...."ढङ्कः पंखो। ६. (क) वृत्ति पत्र ४२ : आभिषप्रध्नुभिङ्कः कङ्कश्च पक्षि विशेषः । (ख) वही, पृ० २०७ : ढङ्कादयः-पक्षिविशेषा जलाशयाश्रया आमिषजीविनो मत्स्यप्राप्तिं ध्यायन्ति । (ग) वही पृ० २४६ : 'ढङ्कादयः'-झुद्रसत्वाः पिशिताशिनः । ७. पालि इंगलिश डिक्शनरी (P.T.S.) Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५६ राजस्थानी में डंक को 'डींकड़ा' (बड़ा काम) कहते हैं। पिशेल ने 'ढंक' का संस्कृत रूप 'ध्वांक्ष' किया है । महाराष्ट्री में इसे 'ढंख' कहा जाता है ।" प्रश्नव्याकरण में अनेक पक्षियों के नाम आए हैं कंक शब्द के दस अर्थ हैं। उनमें चार अर्थ कंकस्तरंगे गुप्ते च गृधे कुले मधुरिपो कोके, पिके हिन्दी शब्दसागर में कंक के तीन अर्थ किए हैं १. मांसाहारी पक्षी जिसके पंख बागों में लगाए जाते हैं। २. सफेद चील -- इसका पृष्ठभाग बहुत मजबूत और लोहवर्ण का होता है । ३. बगुला, बतख । उनमें एक पक्षी का नाम है 'ढिक' ।' यह भी 'ढंक' का ही वाचक है । काक, कोक (चक्रवाक) और पिक (कोयल) ये पक्षीवाची हैं। काके युधिष्ठिरे । वैकस्वतेऽप्यथ ॥ १२१. मृत्यु को प्राप्त होते हैं (घात में ति) समुद्र के विशालकाय मत्स्य ज्वार-भाटे के पानी के साथ बहकर चर पर आ जाते हैं। जाता है । मत्स्य विशालकाय होने के कारण उस थोड़े से पानी में तैर नहीं सकते और मुड़ते समय चूर्णिकार ने 'घंत' पाठ मान कर इसके दो अर्थ किए हैं- १. घात से होने वाला अंत । २. मृत्यु ।' वृत्तिकार ने 'घात' का अर्थ विनाश किया है । ' अध्ययन १ टिप्पण १२१-१२३ : श्लोक ६३ : १२२. वर्तमान सुख की एषणा करने वाले कुछ अमण (समणा एगे वट्टमानतुहेतिणो ) चूर्णिकार ने अन्यतीर्थिक और पार्श्वस्थ (स्वतीर्थिक शिथिलाचारी मुनि) को श्रमण माना है। वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शाक्य, पाशुपत, और जैन मुनियों का सूचन किया है।" वर्तमान सुख की एषणा करने वाले व्यक्ति परिणाम पर ध्यान नहीं देते। वे केवल वर्तमान क्षण का ही विचार करते हैं । प्रस्तुत श्लोक में उन मुनियों को वर्तमान सुख की एपणा करने वाला माना है जो आधाकर्म आदि अशुद्ध आहार की प्राप्ति में ही सुख का अनुभव करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि आधाकर्म के उपभोग से क्या-क्या कटु परिणाम उन्हें भोगने होंगे ।' १२३. अनंत बार......प्राप्त होते हैं (एसंतणं तसो ) यहां दो शब्द हैं- एष्यन्ति और अनन्तशः । १. पिशल, पेरा २१५ पृ० ३३३ । २. पवारमा १० ३. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी 'कंङ्कः', पृ० ५१६ । ४. चूर्णि पृ० ४० : स च महाकायत्वान्न तत्र शक्नोति तर्तुम्, परिवर्तमानो वा नदीमुखे लग्यते । ५. चूर्ण, पृ० ४० ॥ ६. वृत्ति, पत्र ४२ । ७ चूर्णि, पृ० ४० : अण्णउत्थिया पासत्यादयो वा । ८. वृत्ति, पत्र ४२ : श्रमणाः ६. वृत्ति, पत्र ४२ : वर्तमानसुखेषिणः 'शाक्यपाशुपतादयः स्वयूथ्या वा । पानी का प्रवाह वेग से लौट वहीं फंस जाते हैं। "तत्काला वाप्त सुख ल वास तचेतसोऽनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवाः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १२४-१२६ मत्स्य केवल उसी भव में मारे जाते हैं, किन्तु जो श्रमण वर्तमान सुखैषी होते हैं वे अनन्त जन्म-मरण करते हैं।' वृत्तिकार ने 'एष्यन्ति' का अर्थ 'अनुभव करेंगे'—किया है। इसका धात्वर्थ है-प्राप्त होंगे। श्लोक ६४ : १२४. देव द्वारा उप्त है (देवउत्ते) जैसे कृषक बीजों का वपन कर फसल उगाता है वैसे ही देवताओं ने बीज वपन कर इस संसार का सर्जन किया है। 'उत्त' शब्द के संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं-उप्त, गुप्त और पुत्र । इनके आधार पर 'देवउत्त' शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं १. देवउत्त-देव द्वारा बीज वपन किया हुआ । २. देवगुप्त–देव द्वारा पालित । ३. देवपुत्र-देव द्वारा उत्पादित । १२५. ब्रह्मा द्वारा उप्त है (बंभउत्ते) इसका अर्थ है-ब्रह्मा द्वारा बीज-वपन किया हुआ। कुछ प्रावादुक मानते हैं कि ब्रह्मा जगत् का पितामह है। जगत् सृष्टि के आदि में वह अकेला था। उसने प्रजापतियों की सृष्टि की। उन्होंने फिर क्रमशः समस्त संसार को बनाया।' इनके भी तीन अर्थ होते हैं१. ब्रह्मउप्त-ब्रह्मा द्वारा बीज-वपन किया हुआ । २. ब्रह्मगुप्त-ब्रह्मा द्वारा पालित । ३. ब्रह्मपुत्र-ब्रह्मा द्वारा उत्पादित । श्लोक ६५: १२६. कुछ कहते हैं-यह (लोक) प्रधान-प्रकृति द्वारा कृत है (पहाणाइ पहावए) प्रधान का अर्थ है-सांख्य सम्मत प्रकृति । इसका अपर नाम अव्यक्त भी है । सत्त्व, रजस् और तमस्-इन तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है । वह पुरुष (आत्मा) के प्रति प्रवृत्त होती है। ___इस शब्द में प्रयुक्त आदि शब्द से वृत्तिकार ने प्रकृति से सृष्टि के सर्जन का क्रम उल्लिखित किया है-प्रकृति से महान (बुद्धि), महान् से अहंकार, अहंकार से षोडशक गण (पांच बुद्धीन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच तन्मात्र और मन), फिर पांच तन्मात्र से पांच भूतों की सृष्टि होती है । अथवा आदि शब्द से स्वभाव आदि का ग्रहण किया है। कुछ प्रावदुक कहते हैं-जैसे कांटों की तीक्ष्णता स्वभाव से ही होती है, वैसे ही यह लोक भी स्वभाव से ही बना है। १. चूणि, पृष्ठ ४० : मच्छा एगभवियं मरणं पावेंति एवमणेगाणि जाइतब्वमरितव्वाणि पावंति । २. वृत्ति, पत्र ४२ : एष्यन्ति अनुभविष्यन्ति । ३. (क) चणि, पृष्ठ ४१ : देवउत्ते..... .. देवेहि अयं लोगो कतो, उत्त इति बीजवद् वपितः आविसर्गे.... 'देवगुत्तो देवैः पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवर्जनित इत्यर्थः । (ख) वृत्ति, ४३ : देवेनोप्तो देवोप्त , कर्षकेणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थः देवैर्वा गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देव पुत्रो वा। ४. वही, पत्र ४३ : तथाहि तेषामयमभ्युपगमः-ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक एव जगदादावासीत्तेन च प्रजापतयः सृष्टाः तश्च क्रमेणतत्सकलं जगदिति । ५.णि, पृष्ठ ४१ : एवं बंभउत्ते वि तिणि विकप्पा भाणितब्वा-बंभउत्तः बंभगुत्तः बंभपुत्त इति वा । Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण १२६ कुछ प्रावादुक कहते हैं- मयूर की पांखों की तरह यह लोक भी नियति द्वारा कृत है।' 'पहाणाइ'- इस शब्द में 'कडे' शब्द शेष रहता है । 'पहाणाइ कडे'-ऐसा होना चाहिए। इस विशाल जगत् का मूल कारण क्या है, इस विषय में सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से चिन्तन प्रस्तुत किया है। सांख्य दर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं-चेतन और अचेतन । ये दोनों अनादि और सर्वथा स्वतंत्र हैं। चेतन अचेतन का अथवा अचेतन चेतन का कार्य या कारण नहीं हो सकता। इस दृष्टि से सांख्य दर्शन सृष्टिवादी नहीं है। वह सत्कार्यवादी है। अचेतन जगत का विस्तार 'प्रधान' से होता है, इस अपेक्षा से सूत्रकार ने सांख्य दर्शन को सृष्टिवाद की कोटि में परिगणित किया है। प्रधान का एक नाम प्रकृति है। वह त्रिगुणात्मिका होती है। सत्व, रजस् और तमस्-ये तीन गुण हैं । इनकी दो अवस्थाएं होती हैं- साम्य और वैषम्य । साम्यावस्था में केवल गुण ही रहते हैं। यही प्रलयावस्था है। वैषम्यावस्था में वे तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में परस्पर मिश्रित होकर सृष्टि के रूप में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार अचेतन जगत् का मुख्य कारण यह 'प्रधान' या 'प्रकृति' ही है। प्रकृति की विकाररहित अवस्था मूल प्रकृति है। उससे महत्-बुद्धि नामक तत्त्व उत्पन्न होता है। महत् से अहंकार, अहंकार से मन, दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां) और पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) उत्पन्न होती हैं। इन पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं-शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है। शब्द तन्मात्रा सहित स्पर्श तन्मात्रा से वायु उत्पन्न होता है। शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं से युक्त रूप तन्मात्रा से तेज उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से युक्त रस तन्मात्रा से जल उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्राओं से युक्त गन्ध तन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न होती है। इन चौबीस तत्त्वों में प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं होती। वह अनादि है। उसका कोई मूल नहीं है । इसलिए उसे मूल कहा जाता है' मूल प्रकृत्ति अविकृति होती है। महत् अहंकार और पांच तन्मात्राएं- ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति दोनों में होते हैं । इनसे अन्य तत्त्व उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये प्रकृति हैं और ये किसी न किसी अन्य तत्त्व से उत्पन्न होते हैं, इसलिए विकृति भी हैं। सोलह तत्त्व (दस इन्द्रियां, पांच महाभूत और मन) केवल विकृति हैं। पुरुष किसी को उत्पन्न नहीं करता इसलिए वह प्रकृति नहीं है और वह किसी से उत्पन्न नहीं होता, इसलिए वह विकृति भी नहीं है । मूल प्रकृति पुरुष-दोनों अनादि हैं। शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं । यही प्रधानकृत सांख्य-सृष्टि का स्वरूप है। सृष्टिवाद के विविध पक्षों का निरूपण वैदिक और श्रमण साहित्य में मिलता है। सूत्रकार ने सृष्टि विषयक जिन मतों का संकलन किया है उनका आधार इस साहित्य में खोजा जा सकता है। सृष्टि के संबंध में कुछ अभिमत यहां प्रस्तुत हैं १. ऋग्वेद के दसवें मंडल में सृष्टि के विषय की अनेक ऋचाएं हैं। ८१,८२ वीं ऋचा में कहा गया है कि विश्वकर्मा ने संसार की सृष्टि की। ८१वीं ऋचा में पूछा गया-सृष्टि का आधार क्या है ? सृष्टि की सामग्री क्या थी? आकाश और पृथ्वी का निर्माण कैसे हुआ? इनके उत्तर में कहा गया है----एक ईश्वर था। वह चारों ओर देखता था। उसका मुंह सभी दिशाओं में था । उसके हाथ-पैर सर्वत्र थे । आकाश-पृथ्वी के निर्माण के समय उसने उन सबका प्रयोग किया। सारी सृष्टि बन गई। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में पुरुष (आदिपुरुष) को सृष्टि का कर्ता माना है । उसके हजार सिर, हजार आंखें और हजार पैर थे । सारी सृष्टि उसकी है । उस पुरुष से 'विराज' उत्पन्न हुआ और उससे दूसरा पुरुष 'हिरण्यगर्भ' पैदा हुआ। कुछेक सूक्तों में कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, जो स्वर्ण-अंड के रूप में था। वही प्रजापति है। १ वृत्ति, पत्र ४३। २. सांख्यकारिका, श्लोक २२ : प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ।। ३. सांख्य सूत्र १/६७ : मूले मूलाभावादमूलं मूलम् । ४. सांख्यकारिका, श्लोक ३ : मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । ___षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। ५. गीता १३/१९ : प्रकृति पुरुषं चैव विड्यनादी उभावपि । Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण १२६ २. अथर्ववेद में सृष्टि के विषय में अनेक उल्लेख हैं । वे सब ऋग्वेद के ही उपजीवी कहे जा सकते हैं। इस वेद के १९ वे कांड के ५३, ५४ में काल को सृष्टि का सर्जक माना है। काल ने ही प्रजापति, स्वयंभू, काश्यप आदि को उत्पन्न किया। उससे ही सारी सृष्टि पैदा हुई। विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथों में भी सृष्टि विषयक चर्चा उपलब्ध होती है१. सत्पथ ब्राह्मण ६/१/१ में पहले असत् (अव्यक्त) था। वह ऋषि और प्राणरूप था। सात प्राणों से प्रजापति की उत्पत्ति हुई । प्रजापति के मन में यह विकल्प उठा-'मैं एक से अधिक होऊ।' उन्होंने तपस्या की। तपस्या में थक जाने के कारण उन्होंने पहले ब्रह्मा को उत्पन्न किया। उसने पानी को उत्पन्न किया। उससे अंडा पैदा हुआ। प्रजापति ने उसे छूआ। उससे पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए। २. इसी ब्राह्मण ग्रंथ के ११/१/६/१ में इस प्रकार का वर्णन है पहले केवल पानी था। पानी के मन में उत्पन्न करने की बात उठी। पानी तपस्या करने गया। एक अंडा जन्मा जो एक वर्ष तक पानी पर तैरता रहा। एक वर्ष बाद पुरुष, प्रजापति का जन्म हुआ। उसने अंडे को तोड़ा। उसने अपने श्वास से देवताओं को जन्म दिया । फिर अग्नि, इन्द्र, सोम आदि पैदा हुए। ३. तैतरीय ब्राह्मण II २/९/१: पहले कुछ नहीं था। न स्वर्ग था। न पृथ्वी थी। न आकाश था । उस असत् ने 'होने' की बात से मन को पैदा किया। वही सृष्टि । (इदं वा अग्रे नैव किंचनासीत् । न द्यौरासीत् । न पृथिवी । न चान्तरिक्षम् । तदसदेव सन् मनो अकुरुत स्यामिति ।) उपनिषदों में सृष्टि-निर्माण की विभिन्न कल्पनाएं हैं१. बृहदारण्यक उपनिषद् I ४/३, ४,७: पहले एक ही आत्मा पुरुष के रूप में था। उसे अकेले में आनन्द नहीं आया। उसमें एक से दो होने की भावना जागी। उसने अपनी आत्मा को दो भागों में बांटा। एक भाग स्त्री और दूसरा भाग पुरुष बना। दोनों पति-पत्नी के रूप में रहे। उससे सारी मानव-सृष्टि का अस्तित्व आया। फिर प्राणी जगत् बना । फिर नाम-रूप में आत्मा का प्रवेश हुआ। २. छान्दोग्य उपनिषद् ६/२३-४; ६/३/२-३ : पहले केवल सत् था। एक से अनेक होने की चाह जगी। उसने तेज उत्पन्न किया। तेज से पानी उत्पन्न हुआ। पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई । दिव्य शक्ति ने तीनों तेज, पानी और पृथ्वी में प्रवेश कर उन्हें नाम-रूप दिया। ३ ऐतरेय उपनिषद् III ३: पहले केवल आत्मा था। कुछ भी सचेतन नहीं। उसने सोचा-मैं सृष्टि की रचना करूं। पहले अंभस् को उत्पन्न किया। उसके बाद मरीचि-आकाश, मृत्यु और पानी को उत्पन्न किया।.........फिर विश्व का भर्ता आदि-आदि । ४. तैतरीय उपनिषद् ॥ ६ : वात्मा था। उसने सोचा-अकेला हूं, बहुत होऊ। तपस्या कर विश्व की सृष्टि की। सर्जन के पश्चात् उसमें प्रवेश कर दिया। पहले केवल असत् था, फिर सत् उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में पहले अव्यक्त था, फिर व्यक्त हुआ। ब्रह्मा स्वयं जगत् के स्रष्टा हैं और सजित हैं। ५. श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२-३ रुद्र सृष्टि का स्रष्टा है। ईश्वर 'मायी' है। उसमें असीम शक्ति है। वह माया के द्वारा विश्व की सृष्टि करता है। माया इश्वरीय शक्ति है। १.वी प्रिन्सिपल उपनिषदाज, भूमिका पृ० ८२-८३ डा० राधाकृष्णन । " Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण १२७ मुंडक उपनिषद् २/१ में कहा गया है कि ब्रह्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी, पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई। आकाश का एक गुण है शब्द । वायु में दो गुण हैं-शब्द और स्पर्श । अग्नि में तीन गुण हैं-शब्द, स्पर्श और वर्ण । पानी में चार गुण हैं-शब्द, स्पर्श, वर्ण और स्वाद । पृथ्वी में पांच गुण हैं-शब्द, स्पर्श, वर्ण, स्वाद और गंध । इनके विभिन्न मात्रा के मिश्रण से सृष्टि की रचना हुई। सुबाला उपनिषद् १११ में उल्लेख है कि ऋषि सुबाला ने ब्रह्मा से सृष्टि विषयक प्रश्न पूछा । ब्रह्मा ने कहा-पहले अस्तित्व था-ऐसा भी नहीं है, पहले अस्तित्व नहीं था-ऐसा भी नहीं है, पहले अस्तित्व था भी और नहीं भी-ऐसा भी नहीं है । सबसे पहले तमस् पैदा हुआ । उससे भूत उत्पन्न हुए। उनसे आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से अप् और अप् से पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसके बाद अंडा उत्पन्न हुआ। एक वर्ष की परिपक्वता के बाद वह अंडा फूटा। ऊपर का भाग आकाश, नीचे का पृथ्वी और मध्य में दिव्य पुरुष । ............ उसने मृत्यु को उत्पन्न किया। वह तोन आंखों, तीन सिर ओर तीन पैरों से युक्त खंड परशु था। ब्रह्मा उससे भयभीत हो गया। मृत्यु उसी में प्रविष्ट हो गई । ब्रह्मा ने सात मानस-पुत्रों को जन्म दिया। उन्होंने सात पुत्रों को जन्म दिया। वे प्रजापति कहलाए। ...... स्मृतियों में सृष्टि की रचना विषयक चर्चा१. मनुस्मृति I, ५-१६ पहले केवल तमस् व्याप्त था। वह अविमृश्य, अतयं और अज्ञात था। ईश्वरीय शक्ति ने तमस का नाश किया। उसने अपने ही शरीर से विविध प्रकार के प्राणियों की रचना करने के लिए सबसे पहले पानी की सृष्टि की। उसमें अपना बीज बोया । वह बीज स्वर्ण-अंडे के रूप में विकसित हुआ। वह सूर्य जैसा तेजस्वी था। उस अंडे में स्वयं वह उत्पन्न हुआ। वह ब्रह्मा कहलाया। वही नारायण नाम से अभिहृत हुआ, क्योंकि पानी को 'नारा' (नारा के अपत्य) कहा गया है और वह पानी ब्रह्मा का प्रथम विश्रामस्थल था । सृष्टि का प्रथम कारण न सत् था, न असत् था। उससे जो उत्पन्न हुआ वह ब्रह्मा कहलाया। स्वर्ण-अंडे में वह दिव्य शक्ति एक वर्ष तक रही। अंडे के दो भाग हुए। एक भाग स्वर्ग बना और एक भाग पृथ्वी। इन दो के मध्य मध्यलोक, आठ दिशाएं और समुद्र बना। उस दिव्य शक्ति ने अपने से मन निकाला ............। मन से अहंकार और महत्-आत्मा उत्पन्न हुए। सारी सृष्टि तीन गुणों का मिश्रण मात्र है। २. मनुस्मृति I, ३२-४१ ब्रह्मा ने अपने शरीर को दो भागों में बांटा-एक पुरुष, दूसरा स्त्री। स्त्री ने 'विराज' को उत्पन्न किया। उसने तपस्या कर एक पुरुष को जन्म दिया । वही मनु कहलाया। मनु ने पहले दस प्रजापतियों को जन्म दिया। उनसे सात मनु, ईश्वर, देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, अप्सराएं, सर्प, पक्षी तथा अन्यान्य सभी जीव और नक्षत्र उत्पन्न हुए। ३. मनुस्मृति I, ७४.७८ ब्रह्मा गाढ़ निद्रा से जागृत हुए । सृष्टि का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने पहले आकाश को उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से पानी और पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई। यह समूची सृष्टि का आदि-क्रम है। इसी प्रकार महाभारत के अध्याय १७५-१८० के अनेक स्थलों में सृष्टि की चर्चा प्राप्त है। विभिन्न पुराणों में भी सृष्टि की चर्चा मिलती है। इन सारी उत्तरवर्ती चर्चा का मूल स्रोत ब्राह्मण ग्रंथ और उपनिषद् हैं । सृष्टि की रचना अंडे से हुई, यह सिद्धान्त बहुमान्य रहा है । छांदोग्य आदि उपनिषदों में भी इसकी चर्चा है। ऋषिभाषित में भी अंडे से उत्पन्न सृष्टि की संक्षिप्त चर्चा प्राप्त है। श्रीगिरि अर्हत् के अनुसार पहले केवल जल था। उसमें एक अंडा उत्पन्न हुआ। वह फूटा और लोक निर्मित हो गया। उसने श्वास लेना प्रारंभ किया। यह वरुण-विधान है । जल का देवता वरुण है । इसलिए यह सृष्टि वरुण की सृष्टि है।' १२७. स्वयंभू ने इस लोक को बनाया (सयंभूणा कडे लोए) सृष्टि स्वयंभू कृत है । ब्रह्मा का अपर नाम स्वयंभू है, क्योंकि वे अपने आप उस अंडे से उत्पन्न हुए थे। चौदह मनुओं में पहले मनु का नाम 'स्वयंभू' है। १. इसिमासियाई, अध्ययन ३७, पृ० २३७ : एत्थ अंडे संतत्ते एत्थ लोए संभूते । एत्थं सासासे । इयं णे वरुणविहाणे......। Jain Education Intemational cation Intemational For Private & Personal use only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६४ १२८. मृत्यु से युक्त माया की रचना की ( मारेण संयुया माया) प्रस्तुत चरण में वैदिक साहित्य में उल्लिखित मृत्यु की उत्पत्ति की कथा का संकेत है ब्रह्मा ने जीवाकुल सृष्टि की रचना की। पृथ्वी जीवों के भार से आक्रान्त हो गई। वह और अधिक भार वहन करने में असमर्थ थी । वह दोड़ी-दौड़ी ब्रह्मा के पास आकर बोली- 'प्रभो ! यदि सृष्टि का यही क्रम रहा तो मैं भार कैसे वहन कर सकूंगी ? यदि सब जीवित ही रहेंगे तो भार कैसे कम होगा ? उस समय परिषद् में नारद और रुद्र भी थे। ब्रह्मा ने कहा- मैं अपनी सृष्टि का विनाश कैसे कर सकता हूं ? उन्होंने विश्व प्रकाश से एक स्त्री का निर्माण किया। वह दक्षिण दिशा से उत्पन्न हुई, इसलिए उसका नाम मृत्यु रखा। उसे कहा- तुम प्राणियों का विनाश करो । यह सुनते ही मृत्यु कांप उठी। वह रोने लगी । अरे, मुझे ऐसा जघन्य कार्य करना होगा । उसकी आंखों से आंसू पड़ने लगे । ब्रह्मा ने सारे आंसू इकट्ठे कर लिए। मृत्यु ने पुनः तपस्या की । ब्रह्मा ने कहा- ये लो तुम्हारे आंसू। जितने आंसू हैं उतनी ही व्याधियां -- रोग हो जाएंगे। इनसे प्राणियों का स्वतः विनाश होगा । वह धर्म के विपरीत नहीं होगा। मृत्यु ने बात मान ली ।' चूर्णिकार ने इसका विवरण इस प्रकार दिया है— विष्णु ने सृष्टि की रचना की । अजरामर होने के कारण सारी पृथ्वी जीवाकुल हो गई । भार से आक्रान्त होकर पृथ्वी प्रजापति के सम्मुख उपस्थित हुई। प्रजापति ने प्रलय की बात सोची । सब प्रलय हो जाएगा—यह देखकर पृथ्वी भयभीत होकर कांपने लगी । प्रजापति ने उस पर अनुकंपा कर व्याधियों के साथ मृत् सर्जन किया। उसके पश्चात् धार्मिक तथा सहज-सरल प्रकृति वाले सभी मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होने लगे। सारा स्वर्ग उनके अत्यधिक भार से आक्रान्त हो गया। स्वर्ग प्रजापति के पास उपस्थित हुआ । तब प्रजापति ने मृत्यु के साथ माया का सर्जन किया । लोग माया प्रधान होने लगे। वे नरक में उत्पन्न होने लगे। प्रजापति ने स्वगं से कहा- 'लोग शास्त्रों को जानते हुए तथा अपने संशयों को नष्ट करते हुए भी, शास्त्रानुसार प्रवृत्ति नहीं करेंगे । ( इसके अभाव में वे स्वर्ग में उत्पन्न नहीं होंगे ।) इसलिए स्वर्ग ! तुम जालो अब तुम्हें कोई नहीं है।' था सूत्रकृतांग के प्रस्तुत श्लोक (१।६६ ) के अन्तिम दो चरण इस प्रकार हैं- 'मारेण संयुया माया, तेण लोए असासए ।' यह वाक्य उक्त कथानक का पूरा द्योतक नहीं है। आचार्य नागार्जुन ने इस स्थान पर जो श्लोक मान्य किया है वह अक्षरश: इस कथानक का द्योतक है । वह श्लोक इस प्रकार है भूमिकार ने 'मार' का अर्थ विष्णु किया है। विष्णु को सृष्टि का कर्ता मानने वाले कहते से एक अंश में अवतीर्ण होकर इन सभी लोकों की सृष्टि की वह सब सृष्टि का विनाशकर्ता है "अतिवडिय जीवा णं, मही विष्णवते पभुं । ततो से माया संजुत्ते, करे लोगस्सभिद्दवा ||" पूर्णिकार ने यह श्लोक 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' कह कर उद्धत किया है। वास्तव में यही श्लोक यहां होना चाहिए अध्ययन १ : टिप्पण १२८ १. महाभारत, द्रोणपर्व अध्याय ५३ । २. चूर्ण, पृष्ठ ४१ यदा विष्णुना सुष्टा लोकास्तदा अजरामरत्वात् तैः सर्वा एवेयं मही निरन्तरमाकीर्णा, पश्चादसावतीयभाराकांता मही प्रजापतिमुपस्थिता ।......... ..... ततस्तेन परिक्षा (जा) व स्वयं मह्या विज्ञप्तेन मा भूल्लोकः सर्व एव प्रलयं यास्यति इति भूमेरभावात् तांच लिङ्गी अनुरूपता व्याधिपुर मृत्युः सुष्टः सतस्ते धर्म पिष्ठाः प्रकृत्यार्जवयुक्ता मनुष्याः सर्व एव देवेपपद्यते स्म । ततः स्वर्गेऽपि अतिगुरुभाराक्रान्तः प्रजापतिमुपतस्थौ ततस्तेन मारेण संस्तुता माया, मारो णाम मृत्युः संस्तवो नाम साङ्गत्यम्, उक्तं हि मातृपुण्वसंथवः, मृत्यु सहगता इत्यर्थः । ततस्ते मायाबहुला मनुष्याः केचिदेकमृत्युधर्ममनुभूय नरकादिषु यथाक्रमत उपपद्यन्ते स्म । उक्तं च जानन्तः सर्वशास्त्राणि छिन्दन्तः सर्वसंशयान् । न ते तथा करिष्यन्ति गच्छ स्वर्गं न ते भयम् ॥ २. पृष्ठ ४१ ॥ . " हैं कि विष्णु ने स्वयं स्वर्गलोक इसलिए 'विष्णु' को ही 'मार' Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १२६-१३० कहा है। वे 'मार' का अर्थ मृत्यु भी करते हैं। वृत्तिकार का कथन है कि स्वयंभू ने लोक की सृष्टि की। वह अतिभार से आक्रान्त न हो जाए, इस भय से उसने 'यम' नामक 'मार' (मृत्यु) की सृष्टि की। उस 'मार' ने माया को जन्म दिया। उस माया से लोक मरने लगे।' श्लोक ६७ १२९. यह जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ है (अंडकडे) चूर्णिकार का कथन है कि ब्रह्मा ने अण्डे का सर्जन किया। वह जब फूटा तब सारी सृष्टि प्रकट हुई।' वृत्तिकार ने माना है कि ब्रह्मा ने पानी में अंडे की सृष्टि की । वह बड़ा हुआ । जब वह दो भागों में विभक्त हुआ तब एक भाग ऊध्वं लोक, दूसरा भाग अधोलोक और उनके मध्य में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, नदी, पर्वत आदि आदि की संस्थिति हुई। वृत्तिकार ने एक श्लोक उद्धृत करते हुए यह बताया है कि सृष्टि के आदि-काल में तमस् ही था। श्लोक ६८ : १३०. श्लोक ६८: पूर्ववर्ती चार श्लोकों (६४-६७) में सृष्टिवाद का मत उल्लिखित कर प्रस्तुत श्लोक में सूत्रकार अपना अभिमत प्रदर्शित करते हैं । जगत् के विषय में दो नयों से विचार किया गया है। इस जगत् को सृष्टि माना भी जा सकता है और नहीं भी माना जा सकता । द्रव्याथिक नय की दृष्टि से यह जगत् शाश्वत है। जितने द्रव्य थे उतने ही रहेंगे । एक अणु भी नष्ट नहीं होता और एक अणु भी नया उत्पन्न नहीं होता। पर्यायाथिक नय की दृष्टि से इस जगत् को सृष्टि कहा जा सकता है, किन्तु यह है कर्ता-विहीन सृष्टि । यह किसी एक मूल तत्त्व के द्वारा निष्पन्न सृष्टि नहीं है। मूल तत्त्व दो हैं-चेतन और अचेतन । ये दोनों ही अपने अपने पर्यायों द्वारा बदलते रहते हैं । सृष्टि का विकास और ह्रास होता रहता है । इस सिद्धान्त की पुष्टि भगवान महावीर के एक संवाद से होती है। एक प्रश्न के उत्तर में महावीर ने कहा-द्रव्य की दृष्टि से लोक नित्य है। पर्याय उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, इस दृष्टि से वह अनित्य है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स्व-पर्याय का अर्थ आत्माभिप्राय किया है। किन्तु दोनो नयों की दृष्टि से विचार करने पर स्वपर्याय का अर्थ द्रव्यगत पर्याय ही उचित प्रतीत होता है। १. चूणि, पृष्ठ ४१ : तत्र तावद् विष्णुकारणिका ब्रुवते-विष्णुः स्वर्लोकादेकांशेनावतीर्य इमान् लोकानसृजत्, स एव मारयतीति कृत्वा मारोऽपदिश्यते। २. वही, पृष्ठ ४१ : मारो णाम मृत्युः। ३. वृत्ति, पत्र ४३ : स्वयंभुवा लोकं निष्पाद्यातिमारभयाद्यमाख्यो मारयतीति मारो व्यधायि, तेन मारेण 'संस्तुता' कृता प्रसाधिता माया, तया च मायया लोका म्रियन्ते । ४. चूणि, पृष्ठ ४२ : ब्रह्मा किलाण्डमसृजत्, ततो भिद्यमानात् शकुनवल्लोकाः प्रादुर्भूताः । ५. वृत्ति, पत्र ४३, ४४ : ब्रह्माऽप्स्वण्डमसृजत्, तस्माच्च क्रमेण वृद्धात्पश्चाद्विधाभावमुपगतादूर्वाधोविभागोऽभूत्, तन्मध्ये च सर्वाः प्रकृतयोऽभूवन्, एवं पृथिव्यप्तेजोवायवाकाशसमुद्रसरित्पर्वतमकराकरनिवेशादिसंस्थितिरभूदिति, तथा चोक्तम् आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥ ६. अंगसुत्ताणि (भाग २) भगवई, ७५६ : दवट्टयाए सासया, भावट्ठयाए असासया। ७. (क) चूणि, पृष्ठ ४२ : स्वपर्यायो नाम आत्माभिप्रायः अप्पणिज्जो गमकः । (ख) वृत्ति, पत्र ४४ : 'स्वकः' स्वकीयः 'पर्यायः' अभिप्रायैर्युक्तिविशेषः । Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ मध्ययन १ : टिप्पण १३१-१३२ श्लोक ६: १३१. श्लोक ६९: दुःख, दुःख-हेतु, दुःख-संवर और दुःख-संवर के हेतु-ये चार प्रश्न सभी दार्शनिकों में चचित रहे हैं । दुःख के स्वरूप और दुःख उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत और व्याख्याएं उपलब्ध होती हैं। कुछेक लोग दुःख की उत्पत्ति के कारणों को नहीं जानते। वे दुःख-निरोध कैसे जान पाएंगे ? निरोध से पूर्व उत्पत्ति का ज्ञान आवश्यक है । वे मानते है-इस संसार में जो सुखरूप माना जाता है, वह भी वास्तव में दुःख ही है । चलना दुःख है, ठहरना दुःख है, बैठना दुःख है, सोना दुःख है, भूख भी दुःख है, तृप्ति भी दुःख है। ये सब सृष्टि से पूर्व नही थे। बाद में इनकी उत्पत्ति हुई है । इसलिए ये सब दुःख हैं और ये सारे ईश्वर-कृत हैं, हमारे द्वारा कृत नहीं हैं । इस प्रकार का अभिमत रखने वाले लोग दुःख की उत्पत्ति को भी सम्यक्तया नहीं जानते तब वे उसके निरोध को कैसे जान पाएंगे? चूर्णिकार ने इस भावना को स्पष्ट करते हुए लिखा है-दुःख स्वयं के द्वारा ही कृत है और उसका स्वयं में ही फलभोग होता है, जैसे-कृषि आदि मनुष्य स्वयं करता है और उसका फल-भोग करता है तब वह कहता है-यह सब ईश्वर का प्रसाद है। इस प्रकार दुःख के कर्तृत्व और फल-भोक्तृत्व के बारे में धारणा स्पष्ट न हो तब दुःख-निरोध का प्रयत्न कैसे हो सकता है ? उसका दायित्व किस पर होगा? दुःख का निरोध व्यक्ति स्वयं करेगा या यह ईश्वर-कृत होगा? इस चिन्तन में दुःखनिरोध के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ प्रज्वलित नहीं होता। श्लोक ७०-७१: १३२. श्लोक ७०,७१ प्रस्तुत दो श्लोकों में अवतारवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित है। चूणिकार के अनुसार यह राशिक संप्रदाय का अभिमत है। वृत्तिकार ने इसे गोशालक का मत बतलाया है। आचार्य हरिभद्र ने त्रैराशिक का अर्थ आजीवक संप्रदाय किया है। गोशालक उसके आचार्य थे। इस दृष्टि से चूणि और वृत्ति परस्पर संवादी है। चूर्णिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में त्रैराशिक मत को मान्यता को इस प्रकार व्याख्यायित किया है कोई जीव मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी अपने धर्म-शासन की पूजा और अन्यान्य धर्म-शासनों की अपूजा देखकर मन ही मन प्रसन्न होता है । अपने शासन की अपूजा देखकर वह अप्रसन्न भी होता है। इस प्रकार वह सूक्ष्म और आन्तरिक राग-द्वेष के वशीभूत होकर पुनः मनुष्य-भव में जन्म लेता है। जैसे स्वच्छ वस्त्र काम में आते-आते मैला होता है, वैसे ही वह राग-द्वेष की रजों के द्वारा मैला होकर संसार में अवतरित होता है। यहां मनुष्य भव में प्रव्रज्या ग्रहण कर, संवृतात्मा श्रमण होकर मुक्त हो जाता है और फिर संसार में अवतरित होता है । काल की लम्बी अवधि में यह क्रम चलता ही रहता है। प्रस्तुत प्रसंग में क्रीडा का अर्थ मानसिक प्रसन्नता या राग तथा प्रदोष का अर्थ द्वेष है। वृत्तिकार का मत भी चूणि से १. (क) चूणि, पृष्ठ ४२,४३ । जं पि किंचि सुखसणितं तं पि दुक्खमेव, चक्कम्मितं दुवखं, एवं ठिति आसितं सयं दुक्खं, छुधा वि धातगत्तणं पि दुक्खं । एवमादीणि पुव्वं णासी पश्चाज्जायन्त इति दुक्खाणि, तानि चेश्वरकृतानि नास्माभिरिति ।....." का तर्हि भावना ? तद्धि तैरात्मनैव पूर्व पापं कृतम्, पश्चाद् हेत्वन्तरतः तेष्वपि विपक्कं, तद्यथानाम कृष्यादीनि कर्माणि स्वयं कृत्वा तत्फलमुपभुजाना ब्रुवते यदस्मासु किञ्चित् कर्म विपच्यते तत् सर्वमीश्वरकृतमिति । (ख) वृत्ति, पत्र ४६ । २. चूणि, पृ० ४३: तेरासिइया इदाणि-ते वि कडवादिणो चेव । ३. वृत्ति, पत्र ४६ राशिका गोशालकमतानुसारिणः। ४. नंदीवृत्ति, हरिभद्रसूरी, पृ० ८७ : त्रैराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ भिन्न नहीं है।' बौद्ध साहित्य में 'खिड्डापदोसिका' नामक देवों का उल्लेख मिलता है। वहां उनके शाश्वत और अशाश्वत - दोनों स्वरूप प्रतिपादित हैं। यह अभिमत मिध्यादृष्टि स्थानों में उल्लिखित है, किन्तु यह किस सम्प्रदाय का है, इसका स्पष्ट उल्लेख वहां प्राप्त नहीं है।' १३३. गुरुकुल में (बंभचेरं) ६७ श्लोक ७२ : जैन आगमों में यह शब्द 'गुरुकुलवास' के लिए प्रयुक्त होता है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ द्रव्य ब्रह्मचयं किया है । जहां चरित्र हम्य नहीं होता वह गुरुकुलवास वास्तविक नहीं होता, इसलिए वह द्रम्य ब्रह्मचर्य कहलाता है। पूर्णिकार ने बताया है कि मुनि ऐसे गुरुकुलवास में न रहे। उसके साथ सम्पर्क भी न रखे।' श्लोक ७३ : १३४. सिद्धि (मोक्ष) से पूर्व इस जन्म में भी ( अथोऽवि ) अध्ययन १ टिप्पण १३३-१३५ : चूर्णिकार ने 'अघोहि' पाठ मानकर उसका अर्थ अवधिज्ञान किया है।" वृत्तिकार ने अधोऽवि' पाठ का अर्थ 'सिद्धेरारात्' सिद्धि से पहले किया है । ' पाठ-शोधन में प्रयुक्त 'ख' संकेत की प्रति में 'अघोधि' पाठ मिला। हमने पाद टिप्पण में उसे दिया है और टिप्पणी करते हुए लिखा है कि लिपिदोष के कारण 'वि' के स्थान में 'धि' हो गया है । किन्तु 'सिद्धि' और 'सिद्ध' शब्द पर हमने जिस अर्थ पर विचार किया है, उसके अनुसार चूर्णि सम्मत 'अधोहि' या 'अधोधि' पाठ संगत लगता है । अवधिज्ञान सिद्धि का एक अंग है । उसे उपलब्ध कर पुरुष सिद्ध बनता है। १३५. सब कामनाएं समर्पित हो जाती हैं (सव्वकामसमप्पिए) साधक के प्रति सभी कामनाएं समर्पित होती हैं, इसलिए सिद्ध-साधक सर्वकाम समर्पित होता है। कामनाओं की पूर्ति सिद्धि के द्वारा होती है। सिद्धियों के अनेक प्रकार है-अणिमा, महिमा, विमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईहित्य, कामरूपित्व, आदि-आदि।" १. (क) चूर्णि, पृष्ठ ४३ । तस्य हि स्वशासन पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि (च) क्रीडा भवति, मानसः प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोषः ततोऽसौ सूक्ष्मे रागे द्वेषे वायुगान्तरात्मा शनैः शनैः निर्मलपटययुपभुज्यमानः कृष्णानि कर्मावित्य स्वगौरवात्तेन रजसाऽवतार्यते । (ख) बुति पत्र ४६ २. दीघनिकाय १०३ पृ० ४५,४६ । २.१.१४०१... सुयं भवेरं वा । ४. भूमि पृ० ४३ ते निर्वाणायेति द्रव्यब्रह्मरं न तं बसे ति तं रोएन्जा आवरेना वा न वा तेहि समं वा संग्गिया कुर्यात् तेहिति । ५. वही, पृ० ४४ : अधोहि नाम अवधिज्ञानम् । ६. वृत्ति, पत्र ४७ ॥ ७, वही, पत्र ४७ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १: टिप्पण १३६-१३८ श्लोक ७४: १३६. श्लोक ७३-७४ चूणिकार और वृत्तिकार ने सिद्धि का अर्थ निर्वाण किया है। अगले श्लोक (७४) में प्रयुक्त 'सिद्ध' शब्द के संदर्भ में 'सिद्धि' शब्द का अर्थ 'विशेष अनुष्ठान की सिद्धि' प्रतीत होता है । सिद्धि प्राप्त पुरुष ही सिद्ध होता है । सिद्धपुरुष सिद्धि को सामने रखकर ही साधना करता है, यह 'सिद्धिमेव पुरोकाउं' (श्लोक ७४) पद से स्पष्ट है। सिद्ध का अर्थ मुक्त नहीं है, किन्तु सिद्धपुरुष है। चूणिकार ने लिखा है-सिद्धपुरुष शरीरी होकर भी नीरोग होता है। वह वात आदि दोषजनित रोगों तथा आगन्तुक रोगों से पीड़ित नहीं होता और वह इच्छा-मरण से शरीर को छोड़कर निर्वाण में चला जाता है। प्रस्तुत श्लोक (७४) में 'अरोगा य' इस शब्द से सिद्धपुरुष को प्राप्त होने वाली कामसिद्धि की ओर संकेत किया गया है। तंत्रशास्त्र का अभिमत है कि योगी को जब आठ सिद्धियां प्राप्त होती हैं तब उसे देह सिद्धि की भी उपलब्धि सहज हो जाती है। देहसिद्धि का तात्पर्य यह है कि उसका शरीर आकर्षक, मोहक, रोगों से अनाकान्त और वज्र की तरह दृढ़ बन जाता है। देहसिद्धि के दो प्रकार हैं-सापेक्ष देहसिद्धि और निरपेक्ष देहसिद्धि। सापेक्ष देहसिद्धि असम्यक् होती है और निरपेक्ष देहसिद्धि सम्यक होती है। इनको समझने के लिए गोरखनाथ के जीवन की एक घटना प्रस्तुत की जाती है। गुरु गोरखनाथ को कायसिद्धि प्राप्त थी। उनका शरीर वज्रमय बन गया था। किसी प्रकार के माघात का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता था। एक बार उनके मन में अपनी सिद्धियों का चमत्कार दिखाने की भावना जागी। वे उस समय के महासिद्ध 'अल्लाम प्रभुदेव' के पास आए और बोले-मुझे काय सिद्धि प्राप्त है। आप परीक्षा कर देखें। मेरे शरीर पर तलवार का प्रहार करें। कहीं घाव नहीं होगा। प्रभुदेव ने उस बात को टालना चाहा । गोरखनाथ ने अपना हठ नहीं छोड़ा और प्रभुदेव को परीक्षा करने का बार-बार आग्रह किया । प्रभुदेव ने तलवार से गोरखनाथ के शरीर पर प्रहार किया। एक रोंआ भी नहीं कटा। तलवार का आघात लगते ही ऐसा टंकार हुआ जैसे पर्वत पर वज्र का प्रहार करने से होता है । गोरखनाथ का मन अहं से भर गया। उस अहं को तोड़ने के लिए प्रभुदेव बोले--तुम्हारी कायसिद्धि सम्यक् नहीं हैं । सम्यक् काय सिद्धि वह है जो मृत्यु को पार कर जाए, जिस पर प्रहार करने से कोई शब्द न हो। गोरखनाथ प्रभुदेव की परीक्षा करने के लिए उद्यत हुए। तलवार से उन पर गहरे प्रहार किए। तलवार शून्य आकाश में जैसे चलती रही। न शब्द और न आघात । प्रभुदेव का शरीर आकाश की भांति आघातविहीन और निर्विकार रहा। गोरखनाथ ने प्रभुदेव के रोम-रोम में तलवार चुभाने का प्रयास किया पर व्यर्थ । वह शरीर आकाशमय बन गया था।' श्लोक ७५: १३७. कल्प-परिमित काल तक (कप्पकालं) 'कल्प' शब्द दीर्घ काल का सूचक है। वैदिक काल-गणना में इसका परिमाण इस प्रकार मिलता है-ब्रह्मा का एक दिन अथवा हजार युग का काल अथवा ४३२००००००० वर्षों का कालमान। १३८. आसुर और किल्विषिक (आसुरकिब्बिसिय) चूर्णिकार ने आसुर और किल्विषिक को भिन्न-भिन्न माना है।' बत्तिकार ने दोनों को एक शब्द मान कर इसका अर्थ-नागकुमार आदि असुर जाति के देवों में किल्विषिक देव के रूप में (उत्पन्न होते हैं) किया है। १. (क) चूणि, पृ० ४४ : सिद्धिरिति निर्वाणम् । (ख) वृत्ति, पत्र ४७ : सिद्धिम् अशेषसांसारिकप्रपञ्चरहितस्वभावम् । २. चणि, पृ० ४४ : ते हि रिद्धिमन्तः शरीरिणोऽपि भूत्वा सिद्धा एव भवन्ति नीरोगाश्च । नीरोगा णाम वातादिरोगरागन्तुकैश्च न पीड्यन्ते, ततः स्वेच्छातः शरीराणि हित्वा निर्वान्ति । ३. तंत्र सिद्धान्त और साधना पृष्ठ १५५-१५८ । ४. चूणि, पृ० ४४ : आसुरेषूपपद्यन्ते किल्विषिकेषु च । Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो१ ES अध्ययन १ : टिप्पण१३६-१४१ ये देव अधम जाति वाले और सेवक स्थानीय होते हैं। इनकी ऋद्धि भी अल्प होती है और भोग-सामग्री भी अल्प होती है । इनका आयुष्य-काल भी कम और शक्ति भी कम होती है।' उत्तराध्ययन सूत्र में भी आसुरी भावना और किल्विषिक भावना का पृथक-पृथक उल्लेख हुआ है। ये दो भिन्न स्थान हैं, अतः चूर्णिकार की व्याख्या संगत प्रतीत होती है। श्लोक ७६ : १३९. वे प्रावादुक (एते) चूर्णिकार ने इस शब्द से कुतीथिक और लिंगस्थ-इन दोनों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने पंचभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, सृष्टिकर्तृत्ववादी तथा गोशालक के मत को मानने वाले राशिकवादियों का ग्रहण किया है। १४०. गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देते हैं (सितकिच्चोवएसगा) 'सित' शब्द के दो अर्थ हैं-बद्ध और गृहस्थ ।' इस पद का अर्थ है-गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देने वाले । वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप देकर भिन्न अर्थ किया है १. सितकृत्योपदेशगा:-गृहस्थों की पचन-पाचन आदि हिंसाकारी प्रवृत्ति करने वाले । २. सितकृत्योपदेशकाः-गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देने वाले । वृत्तिकार ने इसके अर्थ की एक और कल्पना की है। उसके अनुसार 'सिया' को क्रियापद के रूप में प्रयोग मान कर उसका संस्कृत रूप 'स्युः' दिया है । 'कृत्य' का अर्थ गृहस्थ किया है। इस संदर्भ में पूरे पद का अर्थ होगा-वे गृहस्थोचित हिंसा का उपदेश देने वाले होते हैं। श्लोक ७७: १४१. वह मुनि अपना उत्कर्ष "यापन करे (अणुक्कसे "जावए) उत्कर्ष का अर्थ है-मद या अहंकार । मद के आठ स्थान हैं-जाति, कुल, रूप, बल आदि । जो इन मद-स्थानों का सेवन नहीं करता वह अनुत्कर्ष होता है । अणवलोणे 'अपनलीन' उत्कर्ष का विरोधी भाव है। उस युग में जातिवाद उच्चता और हीनता का एक मुख्य मानदंड था, इसलिए १. वृत्ति, पत्र ४८ : आसुरा:-असुरस्थानोत्पन्ना नागकुमारादयः तत्रापि न प्रधाना: किं तहि ? किल्बिषिका:' अधमा: प्रेष्यभूता अल्पर्धयोऽल्पभोगा: स्वल्पायुः सामर्थ्याद्य पेताश्च भवन्तीति । २. उत्तरज्झयणाणि, ३६१२६५,२६६ । ३. चूणि, पृ० ४५ : एते....... "कुतित्था लिंगत्था य । ४. वृत्ति, पत्र ४६ : एत इति पञ्चभूतकात्मतज्जीवतच्छरीरादिवादिनः कृतवादिनश्च गोशालकमतानुसारिणस्त्रैराशिकाश्च । ५. चूणि, पृ० ४५ : सिता: बद्धा इत्यर्थ ...... "सिता: गृहस्थाः । ६. वृत्ति, पत्र ४६ : सितकृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा । ७. वही, पत्र ४६ : यदिवा-सिया इति आर्षत्वादहुवचनेन व्याख्यायते स्युः भवेयुः कृत्यं कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या गृहस्थास्तेषामुपदेशः-संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः । ८. चूणि, पृ० ४५ : अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानयत्कर्ष गच्छति । Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडौ १ मध्ययन १: टिप्पण १४२-१४५ उच्च मानी जाने वाली जातियों में जन्म लेने वाला व्यक्ति उत्कर्ष का और तुच्छ मानी जाने वाली जातियों में जन्म लेने वाला व्यक्ति सीनता का अनभव करता था। भगवान् महावीर ने सामायिक धर्म का प्रतिपादन कर दोनों प्रकार की मनोवत्ति वाले भिक्षओं के सामने यह शिक्षापद प्रस्तुत किया कि आत्म-विकास का मार्ग उत्कर्ष और अपकर्ष-दोनों से परे है, इसलिए सामायिक की साधना करने वाले व्यक्ति को मध्यम मार्ग से चलना चाहिए। चूणिकार ने इसी आशय की व्याख्या की है। उन्होंने एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है कि राग और द्वेष-दोनों से बचकर मध्य-मार्ग से चलना चाहिए। प्रस्तुत श्लोक का यह भाव आचारांग के इस सूत्र की सहज ही स्मृति करा देता है-'णो हीणे णो अइरित्त' (आयारो, २/४६) वृत्तिकार ने 'अप्पलीणे' पाठ मान कर उसका अर्थ-अन्यतीथिक, गृहस्थ या पार्श्वस्थों के साथ परिचय या संश्लेष न करना -किया है। श्लोक ७८ : १४२. परिग्रही ..... (सपरिग्गहा...) कुछ धार्मिक पुरुष यह घोषणा करते हैं कि निर्वाण के लिए आरंभ और परिग्रह को छोड़ना कोई तात्त्विक बात नहीं है।' जैन श्रमण का आचार ठीक इससे विपरीत है। उसके लिए अपरिग्रही और अनारंभी (अहिंसक) होना अनिवार्य है। इसलिए ज्ञानी भिक्षु को परिग्रह और आरंभ के आकर्षण से बचकर चलना चाहिए। सहज ही प्रश्न होता है कि अपरिग्रही और अनारंभी मनुष्य शरीर-यापन कैसे कर सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर अगले श्लोक में स्वयं सूत्रकार देते हैं । १४३. ज्ञानी (जाणं) इसका अर्थ है- ज्ञानवान् ।' वृत्तिकार ने इसके स्थान पर 'ताणं' पाठ मान कर 'शरण' अर्थ किया है।' श्लोक ७६ : १४४. गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत (कडेसु) पूर्व श्लोक में कहा गया है कि मुनि अहिंसक और अपरिग्रही होकर जीवन यापन करे। पचन-पाचन आदि हिंसायुक्त क्रियाओं को किए बिना तथा परिग्रह का आदान-प्रदान किए बिना व्यक्ति अपना जीवन कैसे चला सकता है ? भोजन के बिना शरीर नहीं चलता और हिंसा तथा परिग्रह (धन) के बिना भोजन की उत्पत्ति और प्राप्ति नहीं हो सकती। शरीर धर्म का साधन है। अतः इसके निर्वाह के लिए हिंसा और परिग्रह आवश्यक हैं। इसका समाधान प्रस्तुत श्लोक में इस प्रकार मिलता है-(१) गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए उसकी एषणा या याचना करे। (२) गृहस्थ के द्वारा प्रदत्त भोजन की एषणा करे । (३) प्राप्त भोजन को अनासक्त भाव से खाए। (४) विप्र मुक्त रहे-आहार के प्रति मूर्छा न करे । जहां इष्ट आहार मिले उस कुल या ग्राम से प्रतिबद्ध न बने । (५) भोजन कम हो अर्थात् भोजन लेने पर दूसरों को कठिनाई का अनुभव हो, वैसे भोजन का परिवर्जन करे । १४५. प्रदत्त आहार का भोजन करे (दत्तेसणं चरे) तुलना-दाणभत्तेसणे रया (दसवे ११४) १. वृत्ति, पत्र ४६ : अप्रलीन: असंबद्धस्तीथिकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् । २. चूणि, पृ० ४७ : यदेषामारम्भ-परिग्रहावाख्यातौ निर्वाणाय अतत्त्वम् । ३. वही, पृ० ४७ : ज्ञानवान् ज्ञानी। ४. वृत्ति, पत्र ५०: त्राणं शरणम् । Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूगडो १ १४६. आहार में अनासक्त (अगिडे) प्रस्तुत चरण में प्रयुक्त दो शब्द 'अ' और 'विप्रमुक्त' मुनि की एपना से संबंधित है एषणा के तीन प्रकार हैंगवेषणा, ग्रहण - एषणा, और ग्रासपणा 'अगृद्ध' शब्द के द्वारा ग्रास एषणा की सूचना दी गई है । 'विप्रमुक्त' शब्द से गवेषणा और ग्रहण एषणा के ४२ दोषों का सूचन होता है । यह चूर्णिकार की व्याख्या है ।' ७१ वृत्तिकार की व्याख्या इससे भिन्न है वे पूर्व चरण में प्रयुक्त 'कडे' शब्द से सोलह उद्गम दोषों का निवारण, 'दत्त' शब्द से उत्पादन के सोलह दोषों का निवारण, 'एषणा' शब्द से दस उषणा के दोषों का निवारण और 'अगृद्ध' तथा 'विप्रमुक्त' शब्द से प्रासंषणा के पांच दोषों का निवारण मानते हैं। इस प्रकार यह पूरा श्लोक भोजन से संबंधित ४२ + ५ दोषों के निवारण का द्योतक है।" अध्ययन ५ । विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं, १४७. अवमान संखड़ी (विशेष प्रकार का भोज) (ओमाणं) यह शब्द विशेष जीमनवार का द्योतक है। इसका अर्थ है - ऐसा भोज जिसमें निमंत्रित व्यक्तियों की संख्या नियत हो । मुनि यदि वहां जाता है तो भोज्य-सामग्री की न्यूनता हो सकती है अतः निमंत्रित व्यक्तियों के व्यापात होता है। इसलिए इस प्रकार के भोज में जाने का वर्जन किया गया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-मुनि अपने तपोमद, ज्ञानमद आदि का प्रदर्शन कर दूसरे की अवमानना न करे ।' यह अर्थ प्रसंग से दूर प्रतीत होता है । देखें - दसवे आलियं, चूलिका २/६ श्लोक ८० अध्ययन १ : टिप्पण १४६ - १४८ १४८. लोकवाद को (लोगवायं ) प्रस्तुत श्लोक में सूत्रकार ने 'लोकवाद' को सुनने और जानने का निर्देश दिया है। लोकवाद के दो अर्थ है—' १. अन्यतीथिकों तथा पौराणिक लोगों के 'लोक' संबंधी विचार । २. लोक मान्यता - अन्यतीथिकों की धार्मिक मान्यता । लोक शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं—जगत्, पाषण्ड और गृहस्थ यहां इसका प्रथम अर्थ प्रासंगिक प्रतीत होता है । चूर्णिकार ने इसके पाषण्ड और गृहस्थ-ये दो अर्थ मान्य किए हैं । वृत्तिकार ने इसके पाषण्ड और पौराणिक ये दो अर्थ बतलाए हैं। चूर्णिकार ने लौकिकमत को कुछ उदाहरणों द्वारा समझाया है— सन्तानहीन का लोक नहीं होता । गाय को मारने वाले का लोक १. चूर्ण, पृ० ४६ : बायालीस दोसविप्यमुक्कं एसणं २. पत्र ५० 2 चरेदिति गवेसणा गहणेसणा य गहिताओ । अगिद्धे त्ति घासेसणा । परिहारः सूचितदतमिति अनेन षोडसोत्पादनदोषाः परिग्रहीता इष्टव्याः, - विप्रमुक्तः, अनेनापि च प्रासेषणादोषाः पञ्च निरस्ता अवसेयाः । परावमवशित्वम् । पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः । अगृद्ध' ३. वही पत्र ५० परेवायमानं ४. ( क ) वही पत्र ५० : लोकानां : (ख) चूर्णि पृ० ४६ । ५. चूर्णि, पृ० ४६ : लोका नाम पाषण्डा गृहिणश्च । ६. वृत्ति, पत्र ५० : लोकानां पाखण्डिनां पौराणिकानां वा । ७. चूर्णि पृ० ४६ : लोकवादस्तावत् अनपत्यस्य लोका न सन्ति गावान्ता: नरका तथा गोभिर्हतस्य गोधनस्य नास्ति लोकः । तथा 'जेसि 'सुणया जक्खा, विप्पा देवा पितामहा काया । ते लोग दुख मोनला विबोधितुं ।' तथा पुरुष: पुरुष एव, स्त्री स्त्रीत्येव । तथा पाषण्डलोकस्यापि पृथक् तयोरिव प्रसृताः केषाञ्चित् सर्वगतः असर्वगतः नित्योऽनित्यः अस्ति नास्ति चारमा, तवा केचित् सुखेन धर्म केचिद्दुःखेन केचि ज्ञानेन केचिदाभ्युदयिकधर्मपरा नैव मोक्षमिच्छन्ति । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सूयगडा १ अध्ययन १ टिप्पण: १४६-१५० नहीं होता। इस मत के अनुसार कुत्तों को यक्ष, ब्राह्मणों को देव और कौओं को पितामह माना जाता है । यह भी लौकिक मान्यता रही है कि पुरुष पुरुष ही रहता है और स्त्री स्त्री ही रहती है । पाषण्डवाद के उदाहरण ये हैं-कुछ दार्शनिक आत्मा को सर्वगत मानते हैं और कुछ असर्वगत मानते हैं। कुछ उसे नित्य मानते हैं और कुछ अनित्य । कुछ उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और कुछ उसके नास्तित्व का प्रतिपादन करते हैं। मोक्ष के बारे में चार मान्यताएं हैं १. सुखवादी-सुख से मोक्ष प्राप्त होना। २. दुःखवादी-दुःख से मोक्ष प्राप्त होना। ३. ज्ञानवादी-ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होना। ४. आभ्युदयिक धर्मवादी-मोक्ष को अस्वीकार करते हैं । १४६. जो दूसरे की कही हुई बात का अनुगमन मात्र है (अण्णवृत्त-तयाणुगं) चणिकार ने बताया है कि अन्यतीथिकों के शास्त्र एक-दूसरे के वचन को प्रमाण मानते हैं। व्यास ऋषि भी दूसरे के वचन को प्रमाण मानते हए लिखते हैं--'अनुकप' नामक ऋषि ने इस प्रकार साक्षात् किया, देखा तथा अमुक ऋषि ने ऐसा देखा आदिआदि । वे दूसरों के वचनों का अतिवर्त नहीं करते। वृत्तिकार का अर्थ सर्वथा भिन्न है । उनके अनुसार इसका अर्थ है-अविवेकी व्यक्तियों द्वारा कथित का अनुगमन करने वाला सिद्धान्त । विवरीयपण्णसंभूयं........... विवरीयपण्णसंभूयं, अण्णवुत्त-तयाणुगं'-ये दोनों चरण लोकवाद के विशेषण हैं। सूत्रकार का प्रतिपाद्य यह है कि लोकवाद विपरीत प्रज्ञा से उत्पन्न है तथा वचन प्रामाण्य पर आधारित है। इसलिए यह आस्थाबन्ध के योग्य नहीं है। प्रस्तूत श्लोक में सत्य की खोज का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र उद्घाटित हुआ है । वह यह है कि जो सत्य वचन के प्रामाण्य पर आधारित होता है, उसमें विरोधी प्रज्ञाओं के दर्शन होते हैं । एक दार्शनिक एक बात कहता है तो दूसरा दूसरी बात कहता है। परोक्ष ज्ञान में इन समस्याओं को कभी नहीं सुलझाया जा सकता। अनुभव ज्ञान अपनी साधना से उपलब्ध होता है। उसमें विरोधी प्रज्ञा उपस्थित नहीं होती। सम्यदर्शी या प्रत्यक्षदर्शी जितने होते हैं उन सबका अनुभव एक ही जैसा होता है। सूत्रकार स्वयं परोक्षदशियों द्वारा प्रतिपादित कुछ विरोधी वादों को उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं । श्लोक ८१-८२ : १५०. श्लोक ८१-८२ प्राचीन काल में लोक सान्त है या अनन्त, यह बहुचचित प्रश्न था । पिंगलक निर्ग्रन्थ ने स्कन्धक से यह पूछा-मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? स्कन्धक इसका समाधान नहीं दे सका। वह भगवान् महावीर के पास पहुंचा । उसने उस प्रश्न का समाधान चाहा । भगवान् महावीर ने प्रश्न के उत्तर में कहा- स्कन्धक ! मैंने लोक को चार दृष्टियों से प्रज्ञप्त किया है। द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है, काल और भाव की दृष्टि से वह अनन्त है । द्रव्य की दृष्टि से लोक एक है, इसलिए वह सान्त है और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सपरिमाण है, इसलिए वह सान्त है।' १. चूणि, पृष्ठ ४६ : अन्योन्यस्य ......... तत् कथ्यं (कथम् ?), व्यासोऽपि हि इतिहास्यमानयनम (? यन्न)न्यस्य वचः प्रमाणी करोति, तद्यथा-अनुकपेन ऋषिणा एवं दृष्टम्, अन्येनैवम् इति, नान्योन्यस्य वचनमतिवर्तते, प्रायेण हि वार्तानुवात्तिको लोकः । २. वृत्ति, पत्र ५० : अन्यैः-अविवेकि भिर्यदुक्तं तदनुगम् । ३. अंगसुत्ताणि (भाग २), भगवई २१४५ : एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा-दन्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते । खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खं भेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडोओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अस्थि पुण वे अंते । ...... .... सेत्तं खंदगा! दम्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणते, भावओ लोए अणंते । Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १५० भगवान् महावीर ने एक दूसरे प्रसंग में कहा—'जमाली! लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। इस प्रसंग में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक-इन दो नयो की दृष्टि से यह निरूपण किया गया है। प्रस्तुत दोनों श्लोकों की व्याख्या द्रव्य, क्षेत्र आदि चार दृष्टियों तथा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों की दृष्टि से की जा सकती है। केवल अनन्तवाली दृष्टि के सामने यह दृष्टि प्रस्तुत की गई कि लोक अनन्त ही नहीं, सान्त भी है। अपरिमाणवाली दृष्टि के सामने सपरिमाण दृष्टि प्रस्तुत की गई है। उसका हार्द यह है कि कोई भी अवस्था असीम नहीं है। प्रत्येक अवस्था ससीम है । इस लोकवाद का जीववाद से संबंध प्रतीत होता है। अगले श्लोक के संदर्भ में यहां 'लोक' का अर्थ जीव या आत्मा अधिक संगत लगता है। हिंसा और अहिंसा की चर्चा में आत्मा नित्यत्व का दृष्टिकोण उपस्थित होता था। कहा जाता था-आत्मा शाश्वत है फिर हिंसा किसकी होगी? दूसरी बात आत्मा सर्वव्यापी है, फिर हिंसा किसकी होगी? इस दृष्टिकोण के उत्तर में सूत्रकार ने सान्त और परिमित का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। चूणिकार ने अनन्तवाद का ताप यह समझाया है कि बस बस ही रहता है और स्थावर स्थावर ही। बस कभी स्थावर नहीं होता और स्थावर कभी त्रस नहीं होता। इस प्रकार पुरुष सदा पुरुष, स्त्री सदा स्त्री और नपुंसक सदा नपुंसक ही रहता है। प्रत्येक जन्म मे उन्हें यही अवस्था उपलब्ध होती है । पुरुष मृत्यु के पश्चात् स्त्री नहीं होता और स्त्री मृत्यु के पश्चात् कभी पुरुष नहीं होती। उक्त शाश्वतवाद का प्रतिवाद अगले श्लोक में किया गया है। चूणि और वृत्ति में प्रस्तुत दोनों श्लोकों की व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई है। चर्चाणकार के अनसार सांख्य मतावलंबी लोक को अनन्त और नित्य मानते हैं। क्योकि उनके द्वारा सम्मत 'पष सर्वव्यापी और कूटस्थ है, अपरिणमनशील है। उन्होंने वैशेषिकों की मान्यता का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे परमाणु को शाश्वत मानते हुए भी क्रियाशील मानना वे न कभी नष्ट होते हैं और न कभी उत्पन्न । अंतवं णितिए लोए-यह पौराणिकों की मान्यता है। पौराणिक मानते हैं कि क्षेत्र की दृष्टि से लोक सात द्वीप और सात समुद्र परिमाण वाला है । वह काल की दृष्टि से नित्य है । यह चूणिकार का उल्लेख है।' सांख्य सत्कार्यवादी हैं। वे पदार्थ को कूटस्थ-नित्य मानते हैं। वे मानते हैं कि कारण रूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व विद्यमान है। कोई भी नया पदार्थ न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। केवल उनका आविर्भाव-तिरोभाव होता है। वृत्तिकार ने अनन्त के दो अर्थ किए हैं। अनन्त वह होता है जिसका निरन्वय नाश नहीं होता । जिस भव में जो जिस रूप में रहता है, अगले भव में भी वह उसी रूप में जन्म लेता है । पुरुष पुरुष ही रहता है और स्त्री स्त्री ही। अनन्त का दूसरा अर्थ है-अपरिमित, अवधि से शून्य । उन्होंने किसी भी मत का उल्लेख न करते हुए लिखा है-लोक शाश्वत है, क्योंकि यणुक आदि कार्यद्रव्य की अपेक्षा से वह अशाश्वत होते हुए भी उसका जो मूल कारण परमाणु है, उसका कभी परित्याग नहीं होता तथा दिग्, आत्मा और आकाश आदि का कभी विनाश नहीं होता। यह सांख्यमत का हा उल्लेख है। १. अंगसुत्ताणि (भाग २), भगवई ६।२३३ : ............ सासए लोए जमाली। ............ असासए लोए जमाली। २.णि, पृ० ४७: साङ्ख्याः तेषां सर्वगतः क्षेत्रज्ञः कूटस्थः ग्रहणम् । ३. वही, पृ० ४७ : वैशेषिकाणां परमाणवः शाश्वतत्वेऽपि सति क्रियावन्तः .... ..... न तेषां कश्चिद् भावो विनश्यति उत्पद्यते वा। ४. वही, पृ० ४७ : यथा पौराणिकानां सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः क्षेत्रलोकपरिमाणम्, कालतस्तु नित्यः । ५. सांख्यकारिका श्लोक ६ । ६. वृत्ति, पत्र ५०: नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः, न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहि-यो यादृगिहभवे स तागेव परभवे. ___ऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अङ्गनवेत्यादि । ७. वही, पत्र ५० : यदिवा अनन्तः अपरिमितो निरवधिक इति यावत् । ८. वही, पत्र ५० : तथा शश्वद्भवतीति शाश्वतो दयणुकादिकार्य द्रव्यापेक्षयाऽशश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणत्वं परित्यजतीति तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया । Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १ : टिप्पण १५१-१५२ श्लोक ८२ चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक को सर्वज्ञतावादियों के मत का निरूपण करने वाला माना है। उनका कथन है कि सर्वज्ञवादी दो प्रकार का अभिमत प्रस्तुत करते हैं १ कुछ सर्वज्ञवादी कहते हैं कि सर्वज्ञ अनन्त ज्ञान का धारक होता है । वह सब कुछ जानता है। उसका ज्ञान सर्वत्र अप्रतिहत होता है। २ कुछ सर्वज्ञवादी मानते हैं कि सर्वज्ञ तियग, ऊर्ध्व और अधोलोक को क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित रूप में ही जानता है। वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में दो मतों का निर्देश है । कुछ मतावलम्बी मानते हैं कि कोई सर्वज्ञ नहीं होता । हमारे अतीन्द्रियद्रष्टा ऋषि क्षेत्र की दृष्टि से अरिमित क्षेत्र को जानते हैं और काल की दृष्टि से अपरिमित काल को जानते हैं । किन्तु वे सर्वज्ञ नहीं हैं। 'अपरिमित' शब्द का यह एक तासर्य है । इसका दूसरा अर्थ यह है हमारे ऋषि आवश्यक तत्त्व को जानने वाले अतीन्द्रियद्रष्टा हैं । यह प्रसिद्ध श्लोक है ___ सर्व पश्यतु वा मा वा ईष्टमथं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते । कोई सब कुछ देखने वाला (सर्वज्ञ) हो या न हो, कोई बात नहीं है । जो इष्ट अर्थ है उसको देखना आवश्यक है । कीड़ों की संख्या का ज्ञान निरर्थक है । उस ज्ञान से किसी का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। दूसरा मत यह है-कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सर्वज्ञ कोई होता ही नहीं । क्षेत्र और काल की दृष्टि से परिमित को ही जाना जा सकता है। ब्रह्मा हजार दिव्य वर्ष तक सोता रहता है। उस अवस्था में वह कुछ भी नहीं देखता। फिर जागृत होता है और हजार दिव्य वर्ष तक जागता रहता है । उस अवस्था में वह देखता है।' श्लोक ८३ १५१. श्लोक ८३: इस श्लोक में पूर्ववर्ती दोनों श्लोकों का प्रत्युत्तर है। उसमें यह कहा गया था कि कुछेक दार्शनिक लोक को नित्य मानते हुए कहते हैं कि त्रस प्राणी सदा त्रस ही रहते हैं और स्थावर प्राणी सदा स्थावर ही रहते हैं। बस कभी स्थावर नहीं होते और स्थावर कभी त्रस नहीं होते। प्रस्तुत श्लोक में कहा गया है कि त्रस निर्वर्तक नामकर्म का उपचय कर प्राणी त्रस होता है और स्थावर निर्वर्तक नामकर्म का उपचय कर प्राणी स्थावर होता है । स्थावर त्रस हो सकते हैं और त्रस स्थावर हो सकते हैं। जिस जन्म में जो पर्याय व्यक्त होता है उसी के आधार पर हम उसको त्रस या स्थावर कहते हैं। कोई भी पर्याय अनन्त और असीम नहीं होता। जो इस जन्म में पुरुष होता है वह अगले जन्म में स्त्री हो सकता है और जो स्त्री होता है वह पुरुष हो सकता है। श्लोक ८४: १५२. जोव दुःख नहीं चाहता (अकंतदुक्खा) चूर्णिकार ने अकान्त का अर्थ अप्रिय किया है। वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-आक्रान्त और अकान्त । आक्रान्त का अर्थ है-अभिभूत और अकान्त का अर्थ १. चूणि, पृ. ४६ : केषाञ्चित् सर्वज्ञवादिनां अनन्तं ज्ञानं सर्वत्र चाप्रतिहतमिति ..................... सर्वत्रेति तिर्यगूर्वमधश्चेति क्षेत्रतः कालतः। २. वृत्ति, पत्र ५१। ३. चूणि, पृ० ४८ : कान्तं प्रियमित्यर्थः, न कान्तमकान्तम् । Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ सूयगडो १ है-अनभिमत उनके अनुसार सन्नता व इस पद का अर्थ होगा-सभी प्राणियों को दुःख अनभिमत है, अत्रिय है।' १५३. श्लोक ८४ : 1 अनन्तवाद और अपरिमाणवाद के आधार पर हिंसा का समर्थन करने वाले दृष्टिकोण का प्रतिवाद प्रस्तुत श्लोक में मिलता है । आत्मा नहीं मरती और वह सर्व व्यापक है- ये दोनों हिंसा के समर्थन सूत्र नहीं बन सकते । हिंसा और अहिंसा का विचार आत्मा की अमरता या शाश्वतता के आधार पर नहीं किया गया है किन्तु वह उसके परिवर्तनशील पर्यायों के आधार पर किया गया है। वर्तमान पर्याय की वास्तविकता यह है कि सब प्राणी मृत्यु को दुःख मानते हैं और दुःख किसी को भी प्रिय नहीं है, इसलिए सब प्राणी अहिंस्य हैं। कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, यह अहिंसा का एक आधार बनता है । श्लोक ८५ : १५४. श्लोक : ८५ : ज्ञान का सार क्या है ? यह प्रश्न चिर अतीत आचारांग निर्युक्ति में उल्लेख मिलता है - अंग (ज्ञान) विकसित होती है । जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है। सूत्रकार ने इस जानना क्या शेष बचता है ? १५५. संयमी धर्म में स्थित रहे ( बुसिते) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-धर्म में स्थित किया है।' किया है । चक्रवाल की विशद जानकारी के लिए देखें - उत्तराध्ययन का २६ वा अध्ययन । १५६. किसी भी इन्द्रिय विषय में आसक्त न बने ( विगय गिद्धि ) अध्ययन १ टिप्पण १५३-१५७ : से पूछा जाता रहा है। सूत्रकार ने ज्ञान का सार अहिंसा बतलाया है । का सार आचार है।" अहिंसा परम आचार है। यह समता के आधार पर जीवों को दुःख अप्रिय है - इस समता का अनुभव जितना विकसित होता समता पर बल देते हुए लिखा है- ज्ञान का विषय यही है । इससे आगे श्लोक ८६ : वृत्तिकार ने इसका अर्थ - दश प्रकार की चक्रवाल समाचारी में स्थित चूर्णिकार ने 'गिद्धी' के स्थान पर पाठान्तर 'गेही' पाठ माना है और उसका संस्कृत रूप 'ग्रेधि' किया है ।" पिशेल ने गृद्धी से गेही का विकास क्रम इस प्रकार माना है-गृद्धी – गिद्धी - गेद्धि — गेहि । " १५७. आत्मा का संरक्षण करे (आयाणं सारक्खए ) 'आयाणं' के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-आत्मानं और आदानम् । आत्मा की असंयम से रक्षा करना आत्म-संरक्षण है । ज्ञान आदि का संरक्षण आदान है ।" चरिया......... चूर्णिकार ने चर्या से ईर्यासमिति, आसन और शयन से आदान-निक्षेप समिति और भक्त पान से एषणा समिति की सूचना "अकात अनभिमतम् । १. वृत्ति, पत्र ५२ : आक्रान्ता-अभिभूता २. (क) आचासंगनिति, याचा १६ अंगा हि सारो ? आधारो...। (ख) आवश्यक्ता १३ सामाइयमाई सुवाणं जाव विदुसराओ । तस्स वि सारो चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं ॥ कस्मिन् ? धर्म । २. वृषि, पृ० ४ सिते ति स्थितः ४. वृत्ति, पत्र ५३ : विविधम्- अनेकप्रकारमुषितः स्थितो दशविधचक्रवालसमाचार्यां व्युषितः । ५. चूर्ण, पृ० ४८ : पठ्यते (च) अकषायी सदाऽधिगतगेधी प्रधिः लोभः । ६. पिशेल, प्राकृत व्याकरण, पृ० १२८ । ७. चूणि, पृ० ४८ आयाणं सारक्लए ति आत्मनं सारक्वति अजमाती, आदीयत इति आदानं ज्ञानादि तं सारक्यति मोखहेतुं । t Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ૭૬ दी है। वैकल्पिक रूप में चर्या से पांचों समितिओं तथा आसन-शयन से तीनों गुप्तियों का ग्रहण किया है।" श्लोक ८७ : १५८. मान, क्रोध, माया ( उक्कसं जलणं णूमं) जिसके द्वारा आत्मा दर्प से भर जाती है, उसको उत्कर्ष कहा जाता है। यह मान का वाचक है । जो आत्मगुणों को या चारित्र को जलाता है वह है ज्वलन अर्थात् क्रोध । 'म' यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है-गहन । यह माया का वाचक है । माया गहन होती है। उसका मध्य उपलब्ध नहीं होता १५. लोभ (अज्झत्थं ) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अभिप्रेत । लोभ सबके द्वारा अभिप्रेत है, इसलिए यह शब्द लोभ का वाचक है।' प्रस्तुत श्लोक में शिष्य ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि आगमों में कषायों का एक क्रम है। उसमें क्रोध पहला कषाय है । प्रस्तुत श्लोक में मान को पहला स्थान प्राप्त है। यह आगम प्रसिद्ध क्रम का उल्लंघन है। क्यों ? इसका समाधान यह है कि मान में क्रोध की नियमा है और क्रोध में मान की भजना है। इसको उपदर्शित करने के लिए ही इसमें व्यतिक्रम किया है।' १६०. पांच संवरों से संवृत भिक्षु (पंचसंवरसंबुठे ) पांच संवर ये हैं१. प्राणातिपात विरमण ७. मृषावाद विरमण ३. अदत्तादान विरमण ४. मैथुन विरमण ५. परिग्रह विरमण । अध्ययन १ टिप्पण १५८-१६१ श्लोक : १६१. बंधे हुए लोगों के बीच में (सितह ) बंधन अनेक प्रकार के होते हैं । गृहवास, पुत्र, कलत्र आदि के प्रति जो आसक्ति है, वह भी बंधन है।' इसी प्रकार अपनी मान्यता, मतवाद भी एक बंधन है। भिक्षु सभी प्रकार की आसक्तियों और पूर्वाग्रहों से बचे । : .. १. भूमि, पृ० ४८, ४ चरियति इरियासमिती महिला अधवा परियागहण समितीओ गहिताओ, आसण- सम्यगण कायगुती, एक्कम हवं ति काऊन मगवद्गुलीओ वि महिताओ मत-पाचगहण एसणासमिई एवं आबाच परिद्वावनिवाई सूइयाओ । २. वहीं, पृ० ४९ : उक्कस्यतेऽनेनेति उक्कसो मानः । ज्वलत्यनेनेति ज्वलनः क्रोधः । नूमं णामं अप्रकाशं माया । ३. वही, पृ० ४६ : अज्झत्थो णाम अभिप्रेतः, स च लोभः । ४. वृत्ति, पत्र ५३ : ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेण्यामारुढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थमागमप्रसिद्धं क्रममुल्लङ] प्यादी मागस्योपन्यास इति है अत्रोच्यते माने सत्यवश्यंभावी कोधः कोधे तु मान स्याद्वा न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति । " ५. पूर्णि, पृ० ४९ सिता बडा इत्यर्थ हि पापण्डादिभिकलन-विषादिभिः सये सिताः । : - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीनं श्रज्झयरगं बेयालिए दूसरा अध्ययन वैतालीय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'वैतालीय' या 'वैतालिक' है। निर्युक्तिकार के अनुसार इसका निरुक्तगत नाम 'वैदारिक' तथा छंदगत नाम 'वैतालीय' है। यह वैतालीय छंद विशेष में रचित है । वृत्तिकार ने छन्द-रचना की प्रामाणिक जानकारी देते हुए उसका लक्षण इस प्रकार बतलाया है 'वैतालीयं तंगनैधनाः षडयुक् पादेऽष्टौ समे चला । न समोऽत्र परेण युज्यते नेतः षट् च निरन्तरा युजो: । ( छंदोनुशासनं ३ / ५३ ) वाचस्पत्यं में वैतालीय छन्द के लक्षण का यह श्लोक है 'षड् विषमेsort समे कलास्ताश्च समे स्युर्नो निरन्तराः । न समात्र पराश्रिता कला वैतालीयेऽन्ते रलौ गुरुः ॥ (४६७२ ) वैतालीय छन्द में प्रथम और तृतीय चरण में छह-छह मात्राएं तथा द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में आठ-आठ मात्राएं होती हैं । द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में वे मात्राएं निरन्तर एक समान नहीं होतीं, निरन्तर गुरु या निरन्तर लघु नहीं होतीं। वे कहीं गुरु और कहीं लघु होती हैं। प्रथम तथा तृतीय चरण के लिए यह नियम नहीं है। पूर्वाद्धं तथा उत्तरार्द्ध में जो मात्राएं बतलाई गई है, उनमें दूसरी, चौथी तथा छुट्टी मात्राएं गुरु न हों। चारों चरणों के लिए जो मात्राएं निर्दिष्ट हैं उनके आगे एक-एक रगण, एक-एक लघु और एक-एक गुरु होना चाहिए । बौद्ध साहित्य में भी 'वैतालीय' - वेयालीय छन्द में निबद्ध अध्ययनों का अस्तित्व प्राप्त है । कर्म - विदारण के आधार पर इसको वैदारिक मानना केवल काल्पनिक हो सकता है, क्योंकि अन्य अध्ययन भी कर्म - विदारण के हेतुभूत बनते हैं । इस दृष्टि से इस अध्ययन का नाम "वैतालीय" ही उपयुक्त लगता है । इस अध्ययन की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं 'कामं तु सासतमिणं कथितं अट्ठावयम उसमेणं । अट्ठाणउति सुताणं सोउण य ते वि पव्वता ॥ ' (२२६) भगवान् ऋषभ प्रव्रजित हुए और कैवल्य प्राप्त कर विहरण करने लगे । उनका ज्येष्ठ पुत्र भरत भारतवर्ष (छह खंडो ) पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती हुआ । उसने अपने इठ्ठानवें भाईयों से कहा- तुम सब मेरा अनुशासन स्वीकार करो या अपने-अपने राज्य का आधिपत्य छोड़ दो। वे सारे भाई असमंजस में पड़ गए। भरत की बात उन्हें अप्रिय लगी। राज्य का विभाग महाराज ऋषभ ने किया था, अतः वे उसे छोड़ना नहीं चाहते थे । उस समय भगवान् ऋषभ अष्टापद पर्वत पर विहार कर पूछा - भगवन् ! भरत हम सबको अपने अधीन करना चाहता है। है | अब आप बताएं, हम क्या करें ? क्या हम उसकी अनुशासना में चले जाएं ? हमारा मार्ग-दर्शन करें ।' तब भगवान् ऋषभ ने दृष्टान्त देकर समझाते हुए इस अध्ययन रहे थे । वे सारे भाई वहां गए। भगवान् को वंदना कर उन्होंने उसने हम सबको उसका स्वामित्व स्वीकार करने के लिए कहा क्या हम अपनी प्रभुसत्ता को छोड़ दें ? आप का कथन किया । ऋषभ के पुत्रों ने इस अध्ययन को सुनकर जान लिया कि संसार असार है। विषयों के विपाक कटु और निःसार होते हैं । आयुष्य मदोन्मत्त हाथी के कानों की भांति चंचल है, पर्वतीय नदी के वेग के समान यौवन अस्थिर है । भगवान् की आज्ञा या मागंदर्शन ही श्रेयस्कर है । यह जानकर इट्ठानवें भाई भगवान् के पास प्रव्रजित हो गए । यह तथ्य चूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों द्वारा मान्य है ।' १. (क) चूर्ण, पृ० ५१ । (ख) वृत्ति, पत्र ५५ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ८० अध्ययन २ : प्रामुख इस तथ्य की पुष्टि प्रस्तुत अध्ययन के अन्तिम श्लोक (७६) में प्रयुक्त "एवं से उदाहु' से होती है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स' से भगवान् ऋषभ को ग्रहण किया है और कहा है कि भगवान् ऋषभ ने अपने पुत्रों को उद्दिष्ट कर इस अध्ययन का प्रतिपादन किया है। परिमाण और प्रतिपाद्य प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक और ७६ श्लोक हैं-पहले उद्देशक में २२, दूसरे में ३२ और तीसरे में २२ श्लोक हैं । नियुक्तिकार के अनुसार इन तीन उद्देशकों का प्रतिपाद्य (अर्थाधिकार) इस प्रकार हैपहला उद्देशक-हित-अहित, उपादेय और हेय का बोध तथा अनित्यता की अनुभूति । दूसरा उद्देशक-अहंकार-वर्जन के उपायों का निर्देश तथा इन्द्रिय-विषयों की अनित्यता का प्रतिपादन । तीसरा उद्देशक-अज्ञान द्वारा उपचित कर्मों के नाश के उपायों का प्रतिपादन । वस्तुतः यह अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि प्राणी की भोगेच्छा अनन्त है और उसे पदार्थों के उपभोग से कभी उपशान्त नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपादित कुछ विचार-बिन्दु • जागना दुर्लभ है । जो वर्तमान क्षण में नहीं जागता और जागने की प्रतीक्षा करता रहता है, वह कभी जाग नहीं पाता। • वर्तमान क्षण ही जागृति का क्षण है, क्योंकि मृत्यु के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है। • जागृति का अर्थ है-अहिंसा और अपरिग्रह की चेतना का निर्माण । • हिंसा और परिग्रह साथ-साथ चलते हैं। • अनित्यता का बोध संबोधि की ओर ले जाता है। ० मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिए। ० सही अर्थ में प्रवजित वह होता है जो विषय और वासना-दोनों से मुक्त होता है। ० अकिंचनता (नग्नत्व) और तपस्या (कृशत्व) मुक्ति के हेतु हैं, साधन नहीं। मुक्ति का साधन है-कषाय-मुक्ति । • अहंकार न करने के तीन कारण • अहंकारी का वर्तमान, अतीत और भविष्य-तीनों काल दुःखपूर्ण होते हैं । • ऊंची-नीची अवस्था अवश्यंभावी है, फिर अहंकार कैसे ? • अहंकारी को मोक्ष, बोधि और श्रेय प्राप्त नहीं होते। ० धर्मकथा करने का अधिकारी वह होता है जो संवृतात्मा हो, विषयों के प्रति अनासक्त हो और स्वच्छ हृदयवाला हो। • अकेला वह है जो राग-द्वेष तथा संकल्प-विकल्प से मुक्त है। • असमाधि का मूल कारण है-मूर्छा । • दुःख का स्पर्श अज्ञान से होता है और उसका क्षय संयम से होता है। प्रस्तुत अध्ययन में 'अणुधम्मचारिणो' (श्लोक ४७) और 'कस्सव' (श्लोक ४७) शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। अनुधर्मचारी का अर्थ अनुचरणशील होता है। अनुधर्म में विद्यमान 'अनु' शब्द को चार अर्थों में व्युत्पन्न किया है—अनुगत' अनुकूल, अनुलोम और अनुरूप । अनुगत + धर्म अनुधर्म अनुकूल + धर्म=अनुधर्म अनुलोम + धर्म=अनुधर्म अनुरूप + धर्म=अनुधर्म १. (क) चूणि, पृ० ७६ : से इति सो उसमसामी अट्ठावते पन्वते अट्ठाणउतीए सुताणं आह कथितवान् । (ख) वृत्ति, पत्र ७८ : स ऋषभस्वामी स्वपुत्रानुद्दिश्य उदाहृतवान् प्रतिपादितवान् । Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैतालीय काश्यप ८१ मुनि सुव्रत और अहं अरिष्टनेमि के अतिरिक्त शेष सभी तीर्थंकर के हैं। उनका गोत्र काश्यप है। भगवान् ऋषभ का एक नाम काश्यप है। शेष सभी तीर्थंकर इनके अनुवर्ती हैं, इसलिए वे सभी 'काश्यप' कहलाते हैं। काश्यप के द्वारा भगवान् ऋषभ और महावीर का ग्रहण भी होता है । इसका एक कारण यह भी है कि दोनों की साधना पद्धति समान थी। दोनों ने पांच महाव्रतों की साधना-पद्धति का विधान किया था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है। १. छत्र - माया २. प्रशंसा - लोभ ३. उत्कर्ष मान ४. प्रकाश - क्रोध इसी अध्ययन के पचासवें श्लोक में प्रयुक्त पांच शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और वे तत्कालीन समाज व्यवस्था और मुनि की आचार-व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं। वे शब्द ये हैं १. काथिक, २. प्राश्निक, ३. संप्रसारक, ४. कृतक्रिय ५. मामक । प्रस्तुत अध्ययन के इकावनवें श्लोक में चार कषायों के वाचक चार नए शब्द प्रयुक्त हुए हैं इसी प्रकार प्रस्तुत आगम के ६/११ में इन चार कषायों के लिए निम्न चार नाम प्रयुक्त हैं १. माया -- पलिउंचण ( परिकुंचन ) २. लोभ- भजन ३. क्रोध - स्थंडिल ४. मान- उच्छ्रयण अध्ययन २ : प्रामुख बावनवें श्लोक में प्रयुक्त 'सहिए' (सहित) शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । उसकी अर्थ-परम्परा पर ध्यान देने से कुछेक योग प्रक्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है । देखें - टिप्पण | सत्तावनवें श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने ऐतिहासिक जानकारी देते हुए पूर्वदिशा निवासी आचार्यों और पश्चिमी दिशा निवासी आचार्यों के अर्थभेद का उल्लेख किया है । चौसठवें और पैसठवें श्लोक में सूत्रकार ने एक चिरंतन प्रश्न की चर्चा की है। वह प्रश्न है— वर्तमान प्रत्यक्ष है । किसने देखा है परलोक | इस चितन के गुण-दोष की चर्चा वहां की गई है । धर्म की आराधना गृहवास में भी हो सकती है। इस तथ्य का स्पष्ट प्रतिपादन सड़सठवें श्लोक में प्राप्त है । इसी प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में एकत्व भावना, अशरण भावना, अनित्य भावना आदि का सुन्दर विवेचन प्राप्त है । इसमें ब्रह्मचर्यं कर्म विपाक, शिक्षा, अनुकूलपरीष, मान-विसर्जन कर्म-अचय, सत्योपक्रम, धर्म की पैकालिकता, आदि महत्त्वपूर्ण विषयों का श्री सुन्दर समावेश है। एक शब्द में कहा जा सकता है कि यह अध्ययन वैराग्य को वृद्धिगत करने और संबोधि को प्राप्त कर समाधिस्थ होने के सुन्दर उपायों को निर्दिष्ट करता है। पहला अध्ययन तात्विक है और यह अध्ययन पूर्णत: आध्यात्मिक तथ्यों का प्रतिपादक है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोनं अज्झयणं : दूसरा अध्ययन वेयालिए : वैतालीय पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक १. संबुज्झह किण्ण बुज्झहा संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हवणमंति राइओ णो सुलभं पुणरावि जोवियं ।। संस्कृत छाया संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं, संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो खलु उपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥ २. डहरा बुड्डा य पासहा गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वयं हरे एवं आउखयंमि तुट्टई ।२। दहरा वृद्धाश्च पश्यत, गर्भस्था अपि च्यवन्ते मानवाः । श्येनो यथा वर्तकं हरेत्, एवं आयुःक्षये त्रुट्यति । हिन्दी अनुवाद १. (भगवान् ऋषभ ने अपने पुत्रों से कहा-) 'संबोधि को प्राप्त करो। बोधि को क्यों नहीं प्राप्त होते हो? जो वर्तमान में संबोधि को प्राप्त नहीं होता, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती। बीती हुई रातें लौट कर नहीं आतीं। जीवन-सूत्र के टूट जाने पर उसे पुनः सांधना सुलभ नहीं है।' २. 'तुम देखो-बालक, बूढ़े और गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार बाज बटेर का हरण करता है, उसी प्रकार आयु के क्षीण होने पर मृत्यु जीवन का हरण करती है, जीवन-सूत्र टूट जाता है। ३. 'मनुष्य कदाचित् माता-पिता से पहले ही मर जाता है। अगले जन्म में सुगति' (सुकुल में जन्म) सुलभ नहीं है। इन भय-स्थानों को देखकर सुव्रत (श्रेष्ठ संकल्प वाला) मनुष्य हिंसा (और परिग्रह) से विरत हो जाए। ४. इस जगत् में प्राणी अपने-अपने कर्मों के द्वारा लुप्त होते हैं-' सुख-स्थानों से च्युत होते हैं। वे स्वयं की क्रियाओं के द्वारा कर्म का उपचय करते हैं। वे उसके विपाक से अस्पृष्ट होकर उससे मुक्त नहीं हो सकते।' ३. मायाहि पियाहि लुप्पई णो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाइ भयाइ देहिया आरंभा विरमेज्ज सुव्वए।३। मातृभिः पितृभिः लुप्यते, नो सुलभा सुगतिश्च प्रत्य । एतानि भयानि दृष्ट्वा , आरम्भात् विरमेत् सुव्रतः ।। ४ जमिणं जगई पुढो जगा कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहई जो तस्स मुच्चे अपुट्ठवं ।४। यदिदं जगति पृथग् जन्तवः, कर्मभिः लुप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतैः गाहते, नो तस्य मुच्यते अस्पृष्टवत् ।। ५. देवा गंधव्वरक्खसा असुरा भूमिचरा सिरीसिवा । राया णरसेट्टिमाहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ।५। देवा __ गन्धर्वराक्षसाः, असुराः भूमिचरा: सरीसृपाः । राजानः नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः, स्थानात् तेऽपि च्यवन्ते दुःखिताः ।। ५. देव', गन्धर्व, राक्षस, असुर, पातालवासी नागकुमार, राजा, जनसाधारण, श्रेष्ठी और ब्राह्मण-ये सभी दुःखपूर्वक अपने-अपने स्थान से च्युत हो जाते Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०२: वैतालीय: श्लोक ६-१० सूयगडो १ ६. कामेहि य संथवेहि य कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुए एवं आउखयम्मि तुट्टई।६। कामैश्च संस्तवैश्च, कर्मसहाः कालेन जन्तवः । तालो यथा बन्धनच्युतः, एवं आयुःक्षये त्रुट्यति ॥ ६. मृत्यु के आने पर मनुष्य कामनाओं और भोग्य-वस्तुओं से संबंध तोड़कर अपने अजित कर्मों के साथ (अज्ञात लोक में) चले जाते हैं। जैसे (स्वभावतः या किसी निमित्त से) ताड का फल वृन्त से टूटता है वैसे ही (स्वभावतः या किसी निमित्त से) आयु के क्षीण होने पर मनुष्य का जीवनसूत्र टूट जाता है। ७. जे यावि बहुस्सुए सिया धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया । अभिणूमकडेहिं मुच्छिए तिव्वं से कम्मेहि किच्चती।७। यश्चापि बहुश्रु तः स्यात्, धार्मिकः ब्राह्मणः भिक्षुकः स्यात् । अभिणमकृतैः मूच्छितः, तीव्र स कर्मभिः कृत्यते ।। ७. जो कोई बहुश्रुत" (शास्त्र-पारगामी) ___ या धार्मिक" (न्यायवेत्ता) अथवा ब्राह्मण या भिक्षु भी यदि मायाकृत असत् आचरण में२ मूच्छित होता है" तो वह कर्मों के द्वारा तीव्र रूप में छिन्न होता है। ८.अह पास विवेगमुट्ठिए अवितिण्णे इह भासई धुतं । णाहिसि आरं को परं? वेहासे कम्महिं किच्चई ।। अथ पश्य विवेकं उत्थितः, अवितीर्णः इह भाषते धुतम् । ज्ञास्यसि आरं कुतः परं, विहायसि कर्मभिः कृत्यते । ८. हे शिष्य ! तू देख, कोई भिक्षु (परिग्रह और स्वजन-वर्ग का परित्याग कर) संयम के लिए उत्थित हुआ है, किन्तु (वित्त षणा और सुतैषणा के सागर को) तर नहीं पाया है, वह धुत की कथा" करता है। तू उसका अनुसरण कर गृहस्थी को ही जानेगा, प्रव्रज्या को नहीं जान पाएगा। जो गृहस्थी और प्रव्रज्या के अन्तराल में रहता है वह कर्मों (या कामनाओं) से छिन्न होता है।" ६. जइ वि य णिगिणे किसे चरे जइ वि य भुंजिय मासमंतसो। जे इह मायादि मिज्जई आगंता गम्भादणंतसो ।। यद्यपि च नग्नः कृशश्चरेत, ६. यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह यद्यपि च भुञ्जीत मासमन्तशः ।। को कृश करता है और मास-मास के य इह मायादिना मीयते, अन्त में एक बार खाता है, फिर भी आगन्ता गर्भादनन्तशः ।। माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है । १०.पुरिसोरम पावकम्मुणा पलियंतं मणुयाण जीवियं । सण्णा इह काममुच्छिया मोहं जंति जरा असंवुडा ॥१०॥ पुरुष! उपरम पापकर्मणा, पर्यन्तं मनुजानां जीवितम् । सन्ना इह काममूच्छिताः, मोहं यान्ति नराः असंवृताः ।। १०. हे पुरुष ! (जिससे तू उपलक्षित हुआ है) उस पाप-कर्म से उपरमण कर, (क्योंकि) मनुष्य-जीवन का अन्त अवश्यंभावी है । जो स्त्री आदि में निमग्न होकर इन्द्रिय-विषयों में मूच्छित हैं वे असंवृत पुरुष मोह को प्राप्त होते Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ११. जययं विहराहि पंचा अणुपाणा अणुसासणमेव वीरेह सम्म जोगवं दुरुत्तरा । पक्कमे १२. विरया बीरा समुट्टिया कोहाकायरिया पीसणा 1 पाणे ण ण हणंति सम्यसो पावाओ विरयाऽभिणिम्बुडा | १२| वे ॥११॥ १३. ण वि ता अहमेव लुप्पए लुप्ती लोगंसि पाणिणो । एवं सहिएऽहिपासए अणिहे से पुट्ठेऽहियासए |१३| १४. धुणिया कुलियं व लेववं कसए देहमण सणादिहि | अहिंसामेव पठवए अनुधम्मो मुणिमा पवेइज | १४| १६. उयमणगारमेसणं १५. सउणी जह पंसुगुंडिया विहणिय धंसयई सियं रयं । एव दविलवाणवं कम्मं स तवस्ति माहणे |१५| समणं ठाणटियं तबस्सणं । डहरा वुड्ढा य पत्थए अवि सुहसे ण य तं सने जगा |१६| ८५ यतमानः बिहर योगवान् !, अणुप्राणाः पन्यानः दुरुतराः । अनुशासनमेव प्रक्रामेत्, वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ॥ विरताः भीराः समुत्थिताः, क्रोधकातरिका दिपेषणाः प्राणान् न घ्नन्ति सर्वशः, पापात् विरता अभिनिर्वृताः ॥ नापि तावत् अहमेव लुप्ये, लुप्यन्ते लोके प्राणिनः । सहितोभिपश्यति, अनिहः सः स्पृष्टोऽधिसत || एवं ॥ धूत्वा कुड्यं लेपवत्, कर्णयेत् देहमनशनादिभिः || अविहिसामेव प्रव्रजेत्, अनुधर्मः मुनिना मुनिना प्रवेदितः ॥ शकुनिः यथा पांसुगुण्ठितो, विधूय ध्वंसयति सितं रजः । एवं द्रव्य: उपधानवान्, कर्म क्षपयति तपस्वी ब्राह्मणः ।। उत्थितमनगारमेषणां, श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् । दहरा वृद्धाश्च प्रार्थयेयुः अपि शुष्येयुः न च तं लभेरन् जनाः ॥ प्र० २ : बेतालोय श्लोक ११-१६ : ११. हे योगवान् !"तू यतनापूर्वक विह रण कर। मार्ग सूक्ष्म प्राणियों से संकुल हैं" (अत: अयतापूर्वक चलने वाला जीववध किए बिना उन पर नहीं चल सकता। तू अहंतों के द्वारा सम्यग् प्रवेदित अनुशासन का " अनुसरण कर । १२. वीर वे हैं जो विरत हैं, संयम में उत्थित हैं, क्रोध, माया आदि कषायों का चूर्ण करने वाले है, जो साथियों की हिंसा नहीं करते, जो पाप से विरत है और उपशान्त हैं । १३. इस संसार में मैं ही केवल दुःखों से पीड़ित नहीं होता, परन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीड़ित होते हैं - इस प्रकार ज्ञान संपन्न पुरुष अन्तर्दृष्टि से देखे और वह परिषहों से स्पृष्ट होने पर उनसे आहत न हो, किन्तु उन्हें सहन करे । १४. "कर्म - शरीर को प्रकंपित कर । जैसे गोबर आदि से लीपी हुई भींत को धक्का देने पर उसका लेप टूट जाता है और वह कृश हो जाती है, वैसे ही अनशन आदि के द्वारा (मांस और शोणित से उपचित) देह को कृश कर । अहिंसा में प्रव्रजन कर । महावीर के द्वारा प्रवेदित अहिंसा धर्म अनुधर्म है-" पूर्ववर्ती ऋषभ आदि सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रवेदित है । १५. जैसे पक्षिणी ( धूल- स्नान के कारण ) धूल से अवगुंठित होने पर अपने शरीर को कंपित कर, लगे हुए रजकणों को दूर कर देती है, वैसे ही रामद्वेय रहित तपस्वी श्रमण " तपस्या के द्वारा कर्मों को क्षीण कर देता है । १६. जो अनगारस्य (अनिकेतच या मोक्ष की एपना के लिए उचित है, जो श्रमणोचित स्थान (ज्ञान आराधना, चरित्र आराधना आदि) में स्थित है, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्र०२:वैतालीय: श्लोक १७-२१ १७. जइ कालुणियाणि कासिया जइ रोयंति य पुत्तकारणा। दवियं भिक्खू समुट्टियं णो लब्भंति णं सण्णवेत्तए।१७। यदि कारुणिकानि अकार्षः, यदि रुदन्ति च पुत्रकारणम् । द्रव्यं भिक्षं समुत्थितं, नो लप्स्यन्ते एनं संज्ञापयितुम् ।। १८. जइ तं कामेहि लाविया जइ आणेज्ज तं बंधिता घरं। तं जीवित णावकंखिणं णो लन्भंति तं सण्णवेत्तए।१८। यदि तं का निमंत्र्य, यदि आनयेत् तं बध्वा गृहम् । तं जीवितस्य नावकांक्षिणं, नो लप्स्यन्ते एनं संज्ञापयितुम् ।। जो तपस्वी है, उस श्रमण को बच्चे या बुढे पुनः घर में आने की प्रार्थना करते हैं। वे प्रार्थना करते-करते थक जाते हैं किन्तु उस श्रमण को संयम मार्ग से च्युत नहीं कर सकते। १७. यद्यपि वे कौटुम्बिक उस श्रमण के पास आकर करुण विलाप करते हैं, पुत्र-प्राप्ति के लिए रुदन करते हैं (एक पुत्र को उत्पन्न कर तुम प्रव्रजित हो जाना—ऐसा कहते हैं), फिर भी वे राग-द्वेष रहित उस श्रमण को समझाबुझाकर पुनः गृहस्थी में नहीं ले जा सकते: १८. यद्यपि वे कौटुम्बिक उस श्रमण को कामभोग के लिए निमंत्रित करते हैं२५ अथवा उसे बांध कर घर ले आते हैं, परन्तु जो असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करता उसे वे समझा-बुझाकर पुनः गृहस्थी में नहीं ले जा सकते। १६. अपनापन दिखाने वाले माता, पिता, पुत्री और पत्नी-ये सभी उस श्रमण को सीख देते हैं-'तू हमारा पोषण कर। तू पश्यक (दीर्घदर्शी) है। (हमारी सेवा से वंचित रहकर) तू परलोक को सफल नहीं कर पायेगा, इसलिए तू हमारा पोषण कर । २०. कुछ मुनि (उनकी बातें सुनकर माता, पिता, पत्नी या पुत्री में) मूच्छित होकर मोह को प्राप्त होते हैं तथा इन्द्रिय और मन के संवर से रहित हो जाते हैं-पुनः गृहस्थी में लौट आते हैं। असंयमी से द्वारा असंयम में लाए हुए वे मनुष्य पुनः पाप करने के लिए लज्जा रहित हो जाते हैं। १६. सेहति य णं ममाइणो माय पिया य सुया य भारिया। पोसाहि णे पासओ तुमं लोग परं पि जहासि पोसणे सेधन्ति च एनं ममायिनः, माता पिता च सुता च भार्या । पोषय नः पश्यकस्त्वं, लोकं परमपि जहासि पोषय नः ।। २०. अण्णे अण्णेहि मुच्छिया मोहं जंति जरा असंवुडा । विसमं विसमेहि गाहिया ते पाहिं पुणो पगम्भिया ।२०॥ अन्ये अन्यैः मूच्छिताः, मोहं यान्ति नराः असंवृताः । विषमं विषमैः ग्राहिताः, ते पापैः पुन: प्रगल्भिताः ॥ २१. तम्हा दवि इक्ख पंडिए तस्मात् द्रव्यः ईक्षस्व पंडितः, पावाओ विरएभिणिव्वुडे । पापात् विरतः अभिनिव॑तः । पणए वोरे महाविह प्रणत: वीरः महावीथि, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ।२१।। सिद्धिपथं नैर्यात्रिक ध्रुवम् ।। २१. इसलिए राग-द्वेष रहित पंडित मुनि (विरत और अविरत मनुष्यों के गुणदोषों को) देखकर पाप से विरत और (कषाय से) उपशान्त हो जाए। वीर पुरुष लक्ष्य तक ले जाने वाले उस शाश्वत महापथ के प्रति प्रणत होते हैं जो सिद्धि का पथ है। Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ २२. वालियमग्गमागओ मणवयसा काएण संवुडो । चिच्चा वित्तं च णायओ आरंभ च सुसंबुडे चरे । २२। -त्ति बेमि ॥ २३. तय सं व जहाइ से रयं इइ संखाय मुणी ण मज्जई। गोयण्णतरेण माहणे अहसेकरी अण्णेसि इंखिणो |१| २४. जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महं । अदु इंखिणिया उ पाविया इइ संखाय मुणी ण मज्जई |२| २५. जे पावि अणायगे सिया जे वि य पेसगपेसगे सिया इव मोणपर्य उवट्टिए णो लज्जे समयं सया चरे |३| २६. सम अण्णयरम्मि संजमे संसुद्धे समणे परिव्वए । आवकहा समाहिए दविए कालमकासि पंडिए |४| जा ८७ 1 वैतालीयमार्गमागतः, मनसा वचसा कायेन संवृतः । त्यक्त्वा वित्त च ज्ञाती:, आरंभ च सुसंवृतश्चरेत् ।। - इति ब्रवोमि ॥ बोधो उद्देसो दूसरा उद्देशक स्वयं स्वामिव जहाति स रजः, इति संख्याय मुनिर्न माद्यति । गोत्रान्तरेण ब्राह्मणः, अथ अर्थ वस्करी अन्येषां 'इंखिणी' || श्र० २ : वैतालीय : श्लोक २२-२६ २२. वैतालीय मार्ग को प्राप्त कर मुनि मन, वचन और काया से संवृत होकर, धन, स्वजन और हिंसा का त्याग कर संयम में विचरण करे । -- ऐसा मैं कहता हूं ॥ यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्तते महत् । अब 'इंखिणिका' तु पातिका, इति संख्याय मुनिनं माद्यति ॥ यश्चापि अनायकः स्यात् योऽपि च प्रव्यकव्यकः स्यात् । इदं मौनपदं उपस्थितः, नो लज्जेत समतां सदा चरेत् ॥ समे अम्यतरस्मिन् संयमे, संशुद्धः समना: परिव्रजेत् । यावत् यावत्कथा समाहितः, द्रव्यः कालमकार्षीत पंडितः ॥ २८ २२. जिस प्रकार (ए) अपनी कंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही मुनि रज को " छोड़ देता है । ( अकषाय अवस्था में रज क्षीण होता है) यह जानकर मुनि मद न करे । गोत्र और अन्यतर (कुल, बल, रूप, श्रुत आदि ) " तथा अपनी विशिष्टता का बोध – ये सब मद के हेतु हैं । ( मद से मत्त होकर ) दूसरों की अवहेलना करना श्रेयस्कर नहीं है । २४. जो गोत्र आदि की हीनता के कारण दूसरे की अवहेलना करता है वह दीर्घकाल तक संसार" (एकेन्द्रिय, डीन्द्रिय आदि हीन शातियों) में उत्पन्न होता रहता है । इसलिए यह अवहेलना पाप को उत्पन्न करने वाली या पतन की ओर ले जाने वाला" है-यह जानकर मुनि मद न करे । २५. एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा उसके नौकर का नौकर हो। वह सर्वोच्च अधिपति मुनिपद की प्रव्रज्या स्वीकार कर (पहले से प्रव्रजित अपने नौकर के नौकर को वन्दना करने में ) लज्जा का अनुभव न करे, सदा समता का आचरण करे ।" २६. जो मुनि सम संयमस्थान या अधिक संयमस्थान में स्थित " ( पूर्व प्रब्रजित मुनि को वंदना करता है), वह अहंकार शून्य है और सम्यक् मन वाला" होकर परिव्रजन करता है । वह पंडित मुनि जीवन पर्यन्त, मोत आए तब तक, समाधियुक्त और रागद्वेष रहित होकर मद नहीं करता । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७. दूरं अणुपस्सिया अणुपस्सिया तीचं धम्ममणागयं फरसहि पुट्ठे अवि हण्णू समयंसि २८. पणसम सया २९. बहुजणणमणम्मि मुणी तहा। समताधम्ममुदाहरे सुहमे उ सया अलूसए णो कुज्के णो माणि माहणे | ६ | ३१. धम्मस्स माहणे रीयइ | ५ | संवडे सव्वट्ठेहिं णरे अणिस्सिए । सया अणाविले हरए व धम्मं पादुरकासि कासवं 1७1 जए मुणी । ३०. बहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं समर्थ समीहिया । जे मोणपर्यं उबडिए विरदं तत्व अकासि पंडिए दा य पारगे मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए । सोयंति य णं ममाइणो जो व लभंती निवं परिमाह ॥६॥ ३२. इहलोगे दुहावहं विक पर लोगे दुहं दुहावहं । विद्वंसणधम्ममेव तं इइ विज्जं को गारमावसे ? |१०| ३३. महया पलिगोव जाणिया जा वि य वंदणपूयणा इह सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज्ज संथवं । ११। दूरं अतीतं ८८ अनुदृश्य धर्ममनागतं परुषैः स्पृष्ट: अपि हत्नुः समये समाप्तप्रज्ञः सदा समताधर्ममुदाहरेद् सूक्ष्मे तु सदा नो वेद नोमानी मुनिः, तथा । ब्राह्मणः, रोयते ॥ यतः, मुनिः । अलूषकः, अ० २ : बेतालीय इलोक २७-३३ : ब्राह्मणः ॥ बहुजननमने संवृतः, सर्वार्थषु नरः अनिश्चितः । अनाविलः, हद इव धर्म प्रादुरकार्षीत् काश्यपम् ।। सदा बहवः प्राणाः पृथग् थिताः । प्रत्येकं समतां समोहिताः । यो मौनपदं उपस्थितः, विरतिं तत्र अकार्षीत् पंडित: ।। धर्मस्य च पारगो मुनिः आरंभस्य च अन्तके स्थितः । शोचन्ति च ममायिनः नो च लभन्ते निजं परिग्रहम् ।। इहलोके दुःखावहं विद्वान्, परलोके च दुःखं दुःखावहम् । विध्वंसनधर्ममेव तद्, इति विद्वान् कः अगारमावसेत् ॥ महान्तं परिगोपं ज्ञात्वा, यापि च वन्दनपूजना इह | सूक्ष्मं शल्यं दुरुद्धरं, विद्वान् मत्वा प्रजह्यात् संस्तवम् ।। २७. मुनि अतीत और अनागत धर्म की दीर्घकालीन परम्परा" ( कभी उच्चता और कभी हीनता की अवस्थाओं) को देखकर (मद नहीं करता) हिंसा का अनुशीलन करने वाला कठोर वचन से तर्जित तथा हत प्रहत होने पर भी समता में रहता है ।" २८. कुशल प्रज्ञा वाला और सदा अप्रमत्त मुनि समता धर्म का निरूपण करे । वह सूक्ष्मदर्शी मुनि धर्म कथा में) किसी को बाधा सदा अहिंसक रहे न पहुंचाए ।" वह न क्रोध करे और न अभिमान करे ।" २६. जो मनुष्य धर्म में संवृत, सब विषयों के प्रति अनासक्त और हृद की भांति सदा स्वच्छ है, उसने काश्यप (भगवान् महावीर ) के धर्म को प्रगट किया।" ३०. संसार में अनन्त प्राणी हैं । उनका अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । प्रत्येक प्राणी में समता है - सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय यह देखकर जो मुनिपद में उपस्थित है, वह पंडित विरति करे किसी प्राणी का उपघात न करे । ३१. धर्म का पारगामी मुनि आरंभ (हिंसा ) के अन्त में स्थित होता है । परिग्रह के प्रति ममत्व रखने वाला शोक करता है । वह अपने विनष्ट परिग्रह को प्राप्त नहीं करता । ३२. परिषद इस लोक में भी दुखावह होता है और परलोक में भी अत्यन्त दुःखावह होता है। वह विध्वंसधर्मा हैऐसा जानकर कौन घर में रहेगा ? २३. जो यह वंदना-पूजा वह महा कीचड़ है । वह ऐसा सूक्ष्म शल्य है जो सरलता से नहीं निकाला जा सकता । यह जानकर विद्वान् पुरुष को संस्तव ( वंदना-पूजा) का परित्याग करना चाहिए। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ ३४. एगे चरे ठाणमासणे सयणे एमे समाहिए सिया मिक्स वइगुत्ते ३५. णो वारं पोहे ण यावपंगुणे सुण्णघरस्स संजए । पुट्ठे ण उदाहरे वई ण समुच्छे णो परे त । १३। ३६. जत्थत्यमिए अणाडले समवितमाणि मुणी हिपासए। चरगा अदुवा वि भेरवा अदुवा] तत्थ सिरोसिवा सिया |१४| उवहाणवोरिए अज्झत्थसंवडे |१२| ३७. तिरिया मया व दिव्यगा उवसग्गा तिविहा धियासए लोमादीयं पि ण हरिसे सुष्णागारगए ३८. णो अभिकलेन्ज जीवि णो वि य पूयणपत्यए लिया। अन्त्यमुति सुन्नागारगयस्स महाणी |१५| मेरवा भिक्खुणो । १६। ३९. उवणीयतरस्स ताइणो भयमाणस्स विविक्कभासणं । सामाइयमाहू तस्स जं जो अप्पाण भए ण दंसए | १७| ४०. उसिणोदगतत्तभोइणो धम्मठियस्स मुणिस्स होमतो । संसग्गि असाहू राह असमाही उ तहागयस्स वि।१८। ८६ एकश्चरेत् स्थानासने, शयने एकः समाहितः स्यात् । भिक्षुः उपधानवीर्यः, वाग्गुप्तः अध्यात्मसंवृतः ।। नो पिदध्यात् न च अपवृणुयात्, द्वारं शून्यगृहस्य नोदाहरेत् संयतः । वार्थ, पृष्टः न समुच्छिन्द्यात् नो संस्तृणुयात् तृणम् ॥ यत्रास्तमित: अनाकुल:, समविषमाणि मुनिः अध्यासीत । अथवाऽपि भैरवाः, अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ॥ चरकाः श्र० २ : वैतालोय : श्लोक ३४-४० ३४. वचन का संयम, मन का संवर ओर तपस्या में शक्ति को लगाने वाला भिक्षु अकेला" चले और कायोत्सर्ग करे, अकेला बैठे और सोए तथा अकेला ध्यान करे । तैरश्वान् मानुषान् च दिव्यकान् उपसर्गान् त्रिविधान् अध्यासीत । लोमादिकमपि न हृष्येत्, शून्यागारगतो महामुनिः ॥ नो अभिकांक्षेत् जीवितं, नो अपि च पूजनप्रार्थकः स्यात् । अभ्यस्तमुपयन्ति भैरवाः, शून्यागारगतस्य भिक्षोः ॥ उपनोततरस्य त्राविणः, भजमानस्य विविक्तमासनम् । सामायिकमाहुः तस्य यत्, यः आत्मानं भये न दर्शयेत् ॥ ।। उष्णोदकतप्तभोजिनः, धर्मस्थितस्य मुनेः होमतः | संसर्ग: असाधुः राजभिः, असमाधिस्तु तथागतस्याऽपि ॥ ३५. "एकलविहारी मुनि शून्यगृह का" द्वार न बंद करे और न खोले । पूछने पर ४५ न बोले, न घर का प्रमार्जन करे और न घास बिछाए । ३६. ( चलते-चलते जहां सूर्य अस्त हो ( वहीं ठहर जाए) । सम या विषमजैसा भी स्थान मिले उसे अनाकुलभाव से सहन करे, चाहे वहां चींटी, खटमल आदि" अथवा भैरव (पिशाच, हिस्रपशु) आदि, अथवा सांप आदि हों । ३७. शून्यगृह में ठहरा हुआ महामुनि तिर्यञ्चकृत मनुष्यकृत और देवकृत इन तीनों प्रकार के उपसर्गों को सहन करे तथा भय से रोमाञ्चित न हो । ३८. वह भिक्षु न जीवन की आकांक्षा करे और न पूजा का प्रार्थी बने । शून्य गृह में ठहरे हुए मुनि के लिए भैरव ( पिशाच, श्वापद आदि कृत उपसर्ग ) अभ्यस्त हो जाते हैं । ३६. आत्मा के अत्यन्त निकट पहुंचे हुए, सेवन त्रायी, एकान्त आसन का करने वाले और जो (परीषह तथा उप सगं आने पर ) भय से विचलित नहीं होता, उस साधक के सामायिक होता है । ४०. गर्म और तप्त जल को पीने वाले, " धर्म में स्थित और लज्जा सहित मुनि के लिए राजा का संसर्ग अच्छा नहीं होता, क्योंकि उससे तथागत ( अप्रमत्त ) के" भी समाधि होती है।" Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० अ०२: वैतालीय : श्लोक ४१-४७ सूयगडो १ ४१.अहिगरणकरस्स भिक्खुणो वयमाणस्स पसज्झ दारुणं । अछे परिहायई बहू अहिंगरणं ण करेज्ज पंडिए ।१६। ४२. सीओदग पडिदुगंछिणो अपडिण्णस्स लवावसक्कियो। सामाइयमाह तस्स जं जो गिहिमत्तेऽसणं ण भुंजई ।२०। ४३.ण य संखयमाहु जोवियं तह वि य बालजणो पगभई बाले पावेहि मिज्जई इइ संखाय मुणो ण मज्जई।२१। अधिकरणकरस्य भिक्षोः, ४१. कलह करने वाले, तिरस्कारपूर्ण और वदतः प्रसह्य दारुणम् । कठोर वचन बोलने वाले भिक्षु का अर्थः परिहीयते बहुः, परम अर्थ नष्ट हो जाता है, इसलिए अधिकरणं न कुर्यात् पंडितः ।। पण्डित भिक्षु को कलह नहीं करना चाहिए। शीतोदकस्य प्रतिजुगुप्सिनः, ४२. शीतोदक (सजीव जल)" न पीने अप्रतिज्ञस्य लवावष्वष्किनः । वाले, निष्काम, प्रवृत्ति से दूर रहने सामायिकमाहुः तस्य यद्, वाले" और जो गृहस्थ के पात्र में यो गृह्यमत्रे अशनं न भुङ्क्ते ।। भोजन नहीं करता, उस साधक के सामायिक होता है। न च संस्कृतमाहः जीवितं, ४३. (टूटे हुए) जीवन-सूत्र को जोड़ा नहीं तथाऽपि च बालजनः प्रगल्भते ।। जा सकता। फिर भी अज्ञ मनुष्य (हिंसा बाल: पापैर्मीयते, आदि करने में) धृष्ट होता है। वह इति संख्याय मुनिन माद्यति ।। अज्ञ (अपने हिंसा आदि आचरणों द्वारा जनित) पाप-कर्मों से भरता जाता है यह जानकर मुनि मद नहीं करता । छन्देन प्रलीयते इयं प्रजा, ४४. बहुत माया वाली, मोह से ढकी हुई बहुमाया मोहेन प्रावृता । यह जनता स्वेच्छा से विभिन्न गतियों विकटेन प्रलीयते ब्राह्मणः, में पर्यटन करती है। मुनि सरल भाव शीतोष्णं वचसा अध्यासीत ।। से संयम में लीन रहता है और वचन (मन और काया) से शीत और उष्ण को सहन करता है। ४४. छंदेण पलेतिमा पया बहुमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलेति माहणे सीउण्हं वयसा हियासए ।२२। ४५. कुजए अपराजिए जहा अक्खेहि कुसलेहिं दीवयं । कडमेव गहाय णो कलि णो तेयं णो चेव दावरं ।२३। कुजयोऽपराजितो यथा, अक्षैः कुशलैः दीव्यन् । कृतमेव गृहीत्वा नो कलिं, नो त्रेतं नो चैव द्वापरम् ॥ ४६. एवं लोगम्मि ताइणा बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्ह हियं ति उत्तम कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ।२४। एवं लोके त्रायिणा, उक्तो यो धर्मः अनुत्तरः । तं गृहाण हितं इति उत्तम, कृतमिव शेषमपहाय पंडितः ॥ ४५-४६. जैसे अपराजित द्यूतकार कुशल चूतकारों के साथ खेलता हुआ कृत दाव को ही लेता है, कलि, त्रेता या द्वापर को नहीं लेता। इसी प्रकार इस लोक में त्रायी (महावीर) के द्वारा कथित जो अनुत्तर धर्म है उसको कृत दाव की भांति हितकर और उत्तम समझकर स्वीकार करे। जैसे सफल द्युतकर शेष सभी दावों को छोड़कर केवल कृत को ही लेता है, उसी प्रकार पंडित मुनि, सब कुछ छोड़कर, धर्म को ही ग्रहण करे। ४७. उत्तर मणुयाण आहिया गामधम्म इति मे अणुस्सुयं । जंसो विरया समुट्ठिया कासवस्स अणुधम्मचारिणो ।२५॥ उत्तरा: मनुष्याणां आख्याता:, ग्राम्यधर्माः इति मया अनुश्रुतम् । यस्मिन् विरताः समुत्थिता:, काश्यपस्य अनुधर्मचारिणः ।। ४७. मैंने परंपरा से यह सुना है"-ग्राम्य धर्म (मैथुन) मनुष्यों के लिए सब विषयों में प्रधान" कहा गया है। किंतु काश्यप (महावीर या ऋषभ)" के द्वारा आचरित धर्म का अनुचरण करने वाले मुनि" उत्थित होकर उससे विरत रहते हैं। Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०२: वैतालीय : श्लोक ४८-५३ सूयगडो १ ४६.जे एय चरंति आहियं णाएण महया महेसिणा। ते उद्विय ते समुट्ठिया अण्णोणं सारेंति धम्मओ ।२६। ये एनं चरन्ति आहृतं, ज्ञातेन महता महर्षिणा । ते उत्थिताः ते समुत्थिताः, अन्योन्यं सारयन्ति धर्मतः ।। ४८. जो महान् महर्षि ज्ञातपुत्र द्वारा कथित धर्म का आचरण करते हैं वे उत्थित हैं, समुत्थित हैं । वे एक दूसरे को धर्म में (धार्मिक प्रेरणा से) प्रेरित करते ४६. मा पेह पुरा पणामए अभिकंखे उहि धुणित्तए। जे दूवण ण ते हि णो णया ते जाणंति समाहिमाहियं ।२७। मा प्रेक्षस्व पुरा प्रणामकान्, ४६. पूर्वकाल में भुक्त भोगों की ओर न अभिकांक्षेद् उपधिं धूनयितुम् ।। देखें । उपधि (मान या कर्म) को दूर ये दुरुपनता न ते हि नो नता:, करने की अभिलाषा करें। जो विषयों के प्रति नत होते हैं वे स्वाख्यात ते जानन्ति समाधिमाहृतम् ।। समाधि को नहीं जान पाते और जो उनके प्रति नत नहीं होते वे ही स्वाख्यात समाधि को जान पाते हैं। ५० णो काहिए होज्ज संजए पासणिए ण य संपसारए । णच्चा धम्मं अणुत्तरं कयकिरिए य ण यावि मामए ।२८। नो काथिको भवेत् संयतः, प्राश्निक: न च संप्रसारकः । ज्ञात्वा धर्म अनुत्तरं, कृतक्रियः च न चापि मामकः ।। ५०. संयमी भोजन आदि की कया न करे, साक्षी (मध्यस्थ या पंच) न बने, लाभअलाभ, मुहूर्त आदि न बताए, अनुत्तर धर्म को जानकर गृहस्थ के द्वारा किए गए आरम्भ की प्रशंसा न करे और 'यह मेरा है, मैं इसका हूं'-इस प्रकार ममत्व न करे। ५१. छण्णं च पसंस णो करे ण य उक्कोस पगास माहणे । तेसि सुविवेगमाहिए पणया जेहि सुझोसियं धुयं ।२६। छन्न च प्रशसा ना कुयात्, ५१. मुनि माया और लोभ का आचरण न न च उत्कर्ष प्रकाशं ब्राह्मणः । करे। मान और क्रोध न करे । तेषां सुविवेक आहृतः, जिन्होंने धुत का सम्यक् अभ्यास प्रणताः यः सुजुष्टं धुतम् ।। किया है और जो (धर्म के प्रति) प्रणत हैं उन्हें सम्यक् विवेक उपलब्ध हो गया है। ५२. अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। विहरेज्ज समाहितिदिए आतहितं दुक्खेण लब्भते।३०। अस्निहः सस्वहितः सुसंवतः, धर्मार्थी उपधानवीर्यः । विहरेत् समाहितेन्द्रियः, आत्महितं दुःखेन लभ्यते ।। ५२. मुनि स्नेह रहित", आत्महित में रत", सुसंवृत, धर्मार्थी, तप में पराक्रमी और शांत इन्द्रिय वाला होकर विहार करे । आत्महित की साधना बहुत दुर्लभ ५३. ण हि णूण पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो अणुट्टियं । मुणिणा सामाइयाहियं जगसव्वदंसिणा।३१॥ न हि नूनं पुरा अनुश्रुतं, अथवा तत् तथा नो अनुष्ठितम् । मुनिना सामायिकं आहृतं, ज्ञातकेन जगत्सर्वदशिना॥ ५३. विश्व में सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र मुनि ने जो सामायिक का आख्यान किया है वह निश्चित ही पहले अनुश्रुत-परंपराप्राप्त नहीं है अथवा वह जैसे होना चाहिए वैसे बनुष्ठित नहीं है। Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५४. एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया बहू जणा । छंदावलगा गुरुणो विरया तिण्ण महोघमाहियं । ३२। । ५५. संयुकम्मरस जं दुक्खं तं मरणं हेच्च वयंति पंडिया |१| ५६ जे विष्णवणाहोसिया । संतिष्णेहि समं वियाहिया । लम्हा उ ति पासहा अद्दक्खू कामाई ५७. अगं धारेंती - ति बेमि ॥ एवं भिक्खुणो पुढं अबोहिए। संजमओडवचिज्जई रोगवं |२| वणिएहि आहिये रायाणया इहं । परमा महव्वया अक्खाया उ सराइभोयणा | ३| ५८. जे इह सायाणुगा णरा अम्भोवण्णा कामेहि मुच्छिया । किवणेण समं पगबिभया वि जाति समाहिमाहियं |४| ५९. वाहेण जहा व बिच्छ अबले होइ गवं पचोइए । से अंतसो अप्यचामए णाईव चए अबले विसोयइ | ५ | ६२ एवं मत्वा महदन्तरं, धर्ममिमं सहिताः बहवो जनाः । छन्दानुवर्तका, गुरो: विरताः तीर्णाः महीषमाहृतम् ।। - इति ब्रवीमि । तइओ उद्देसो तीसरा उद्देशक संवृतकर्मण: भिक्षो: यत् दुःखं स्पृष्टं अयोध्या । संयमतः अपचीयते, तत् मरणं हित्वा व्रजन्ति पंडिता: ।। ये विज्ञापनाभिः सन्तीर्णः समं अजुष्टा, व्याहृताः । तस्मात् ऊर्ध्वमिति पश्यत, अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥ अयं वणिगृभिराहितं धारयन्ति राजका: इह । एवं परमाणि महाव्रतानि आख्यातानि तु सरात्रिभोजनानि ॥ श्र० २ : वैतालीय : श्लोक ५४-५६ ५४. इस प्रकार ( सामायिक की पूर्व परंपरा और वर्तमान परंपरा के महान् अन्तर को जानकर, धर्म को समझकर, आत्महित में रत गुरु के अनु सार चलने वाले विरत बहुत सारे मनुष्य इस संसार समुद्र का पार पा गए हैं । ये इह सातानुगाः नराः, अध्युपपन्नाः कामेषु मूच्छिताः । कृपणेन समं प्रगल्भता:, नापि जानन्ति समाधिमाहृतम् ॥ व्यापेन यथा वा विक्षतः, अबलो भवति गौः प्रचोदितः । स अन्तश: अल्पस्थामा, नातीव शक्नोति अबलो विषोदति ॥ - ऐसा मैं कहता हूं । ७१ ५५. संवृत कर्म वाले भिक्षु के जो अज्ञान के द्वारा दुःख (कर्म) स्पृष्ट होता ७२ है" वह संयम के द्वारा विनष्ट हो जाता है (उसके विनष्ट होने पर) पंडित मनुष्य मरण ( कर्म या संसार) को छोड़कर (मोक्ष) चले जाते हैं। ७५ ५६. जो स्त्रियों के प्रति अनासक्त हैं, " वे (संसार को तरे हुए के समान कहे गए है इसलिए तुम (मोक्ष) की ओरण देवी, कामभोगों को रोग के समान देखो । ५७. व्यापारियों द्वारा लाए गए श्रेष्ठ ( रत्न, आभूषण आदि) को राजा लोग धारण करते हैं, वैसे ही रात्रि भोजन-विरमण सहित पांच महाव्रत परम बतलाए गए हैं । (उन्हें संयमी मनुष्य धारण करते हैं ।) ५८. जो के पीछे दौड़ने वाले हैं", सुख आसक्त है", कामभोगों में हैं, कृपण के समान ढीठ हैं", वे महावीर द्वारा कथित समाधि को नहीं जान सकते । ५-६०. जैसे गाडीवान द्वारा" प्रताड़ित और प्रेरित बैल अन्त में अल्प प्राण हो जाता है (तथा) वह दुर्बल होकर गाडी को विषम मार्ग में नहीं खींच पाता, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६०. एवं कामेसणाविऊ अज्ज हुए पपहेन्ज संघवं । कामी कामे ण कामए लड़े या वि अलद्ध ६ ६१. मा पच्छ असाहुया भवे अच्चेही अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहू सोयई से यणई परिवेवई बहुं 1७1 जीवियमेव पासहा तरुण एव वाससयस्स तुट्टई । इत्तरवासं व बुज्झहा गिद्ध णरा कामेसु मुखिया ॥८॥ ६२. इह इह आरंभणिस्सिया आयदंड एगंलूगा गंता ते पावलोपर्य चिररायं आसुरियं दिसं ॥ 8 । ६३. जे ६४. य संखयमाहू जीवियं तह विय बालजणो पग भई । पच्चुयष्णेच कारिय के दठ्ठे पर लोगमागए ? | १० | ६५. अदव ! दवखुवाहियं सद्दहस हंदि ! अवक्खुदंसणा ! | सुनिरुद्धदंसणे मोहणिज्जेण कडेण कम्मुणा । ११ । हु ६३ एवं कामैषणा विद्वान्, अथ श्वः प्रजह्यात् संस्तवम् । कामी कामान् न कामयेत, लब्धान् वापि अलब्धान् कुतश्चित् ॥ मा पश्चाद् असाधुता भवेत्, अत्येहि अनुशाधि आत्मकम् । अधिकच असाधुः शोचति, स स्तनति परिदेवते बहु || इह जीवितमेव पश्यत, तरुण एव वर्षशतस्य त्रुट्यति । इत्वरवास वा बुध्यध्वं, गुद्धाः नराः कामेषु मूच्छिताः । ये इह आरंभनिश्रिताः, आत्मदण्डाः एकान्तलूषकाः । गन्तारस्ते पापलोकक चिररात्रं आसुरीयां दिशम् ।। न च संस्कृतमाहुः जीवितं, तथापि च बालजनः प्रगल्भते । प्रत्युत्पन्नेन कार्य, कः दृष्ट्वा परलोकमागतः ? अद्रष्टृवत् ! श्रद्धस्व द्रष्टव्याहृतं, अद्रष्टृदर्शनः ! हन्त ! खलु सुनिरुद्धदर्शन:, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥ श्र० २ : वैतालीय : श्लोक ६०-६५ कीचड़ में फंस जाता है इसी प्रकार कामैषणा को जानने वाला ( काम के संत्रास से पीडित होकर सोचता है कि ) मुझे आज या कल यह संस्तव ( काम भोग ) " छोड़ देना चाहिए। ( वह उस संस्तव को छोड़ना चाहते हुए भी कुदुम्बपोषण आदि के दुःखों से प्रताडित और प्रेरित होकर उन्हें छोड़ नहीं पाता। प्रत्युत् उस बैल की भांति अल्प प्राण होकर उनमें निमग्न हो जाता है।) इसलिए मनुष्य कामी होकर कहीं भी प्राप्त या अप्राप्त कामों की कामना न करे । ६१. मरणकाल में असाधुता (शोक या अनुताप न हो इसलिए तु कामभोगों का अतिक्रमण कर अपने को अनुशासित कर । ( जितना अधिक) जो असाधु होता है वह उतना ही अधिक शोक करता है, क्रन्दन करता है और बहुत विलाप करता है। ६२. यहीं जीवन को देखो। सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य तारुण्य में ही मर जाता है । यह जीवन अल्पकालिक वास है इसे तुम जानो (फिर भी ) आसक्त मनुष्य कामभोगों में मूच्छित रहते हैं। ६३. जो हिंसा परायण, आत्मघाती और विजन में लूटने वाले हैं वे नरक में " जायेंगे और उस आसुरी दिशा में चिरकाल तक रहेंगे । ६४. (टूटे हुए) जीवन को सांधा नहीं जा सकता। फिर भी अज्ञानी मनुष्य घृष्टता करता है-हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है। ( वह सोचता है) मुझे वर्तमान से प्रयोजन है को देखकर कौन लौटा है ? परलोक ६५. हे अन्धतुल्य ! हे द्रष्टा के दर्शन से शून्य ! ( हे अर्वाग्दर्शी ! ) तुम द्रष्टा के वचन पर श्रद्धा करो | अपने किए हुए मोहनीय कर्म के द्वारा तुम्हारा दर्शन निरुद्ध है, इसे तुम जानो । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६६. दुक्खी णिव्वदेज्ज एवं आयतुलं पाणेहि संजए । १२ । ६७. गारं पिव आपसे गरे अणपुखं पाणेहि संजए। समया सव्वत्थ सुव्वए देवाणं गच्छे ६८. सोचा मोहे सच्चे तत्थ भगवाणुसासणं करेज्जुवक्कमं । विणीयमच्छरे सव्वत्य उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे । १४ । ६९. स पुणो पुणो सिलोगपूयणं । सहिएऽहिपासए धम्मट्टी गुत्ते जुत्ते सया आयपरे सलोगयं |१३| णच्चा अहि उवहाणवीरिए । ७१. अग्भागमियम्मि ७२. सन्ये ७०. वित्तं पसवो य णाइओ तं वाले सरणं ति मण्णई। एए मम तेसि वा अहं णो ताणं सरणं ण विम्बई । १६। जए परमायतट्ठिए | १५ | अहयोवक्कमिए एगस्स गई य विदु मंता सरणं ण वा दुहे भवंतिए । सयकम्मकप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडति भयाउला सढा जाइजरामरणेहि भिड्या | १८ | आगई मण्णई | १७| ૪ दुःखी मोहे पुनः पुनः, निविद्यात् श्लोकपूजनम् । एवं सहितः अधिपश्येद्, आत्मतुलां प्राणैः संयतः ॥ अगारमपि च आवसन् प्राणेषु अनुपूर्व समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत् सलोकताम् ॥ श्र ुत्वा सत्ये तत्र सर्वत्र उच्छं भिक्षुः सर्वं धर्मार्थी गुप्तः आत्मपरः ज्ञात्वा युक्तः नरः, संयतः । भगवदनुशासनं, कुर्यादुपक्रमम् । विनीतमत्सरः, विशुद्धमाहरेत् ।। अधितिष्ठेत्, उपधानवीर्यः । सदा यतः, (परमायायिकः ॥ वित्त पशवश्च ज्ञातयः, तद् बालः शरणं इति मन्यते । एते मम तेषां वा अहं नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥ अभ्यागमिके वा दु:खे, अथवा औपक्रमिके भवान्तिके । एकस्य गतिश्च आगति, विद्वान् मत्वा शरणं न मन्यते ॥ सर्वे स्वककर्मकल्पिता, अव्यक्तेन दुःखेन प्राणिनः । हिण्डन्ते भयाकुलाः शठाः, जातिजरामरणैरभिव्रताः अ०२ वैतालीय श्लोक ६६-७२ 00 II ६६. दु:खी मनुष्य पुनः पुनः मोह को प्राप्त होता है । तुम श्लाघा और पूजा से विरक्त रहो। इस प्रकार सहिष्णु", और संयमी सब जीवों में आत्मतुला को देखे- उन्हें अपने समान समझे ६७. मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी क्रमशः प्राणियों के प्रति संयत होता है । वह सर्वत्र समभाव और श्रेष्ठ व्रतों को स्वीकार कर देवों की सलोकता (देवगति) को प्राप्त होता है।" ६८. भगवान् के अनुशासन को सुनकर सत्य को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। भिक्षु सबके प्रति मात्सर्य" रहित होकर विशुद्ध उध (माधुकरी मिना ) " लाए। ६६. धर्मार्थी, तप में पराक्रम करने वाला, मन-वचन और शरीर से गुप्त, समाधिस्थ स्व और पर के प्रति सदा संयत, मोक्षार्थी" पुरुष सब (हेव और उपादेय) को जानकर आचरण करे । 1 ७०. अज्ञानी मनुष्य धन", पशु, और ज्ञातिजनों को शरण मानता है । वह मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूं । पर ये धन आदि त्राण और शरण नहीं होते । ७१. अध्यामिक (असातावेदनीयके उदय से होने वाले ) दुःख को ( अकेला ही भोगता है ।) अथवा औपक्रमिक ( किसी निमित्त से होने वाली ) मृत्यु के आने पर अकेला ही जाता-आता हैयह जानकर विद्वान् पुरुष किसी को शरण नहीं मानता। ७२. सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों से विभक्त हैं ।" वे अव्यक्त दुःख से दुःखी, भयाकुल, (तपश्चरण) में आलसी जन्म जरा और मरण से उसीडित होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं । 2 १०१ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगटो १ ७३. इणमेव खणं वियाणिया णो सुलभं बोहि च आहिये । एवं सहिएऽहिपासए आह जिणे इणमेव सेसगा | १६ | ७४. अभवसु पुरा वि भिक्खवो आएसा वि भविसु सुव्वया । एया गुणाई आहू कासवरस अणुधम्मचारिणो | २० | ७५. तिबिहेण वि पाण मा हणे आपहिए अणियाण संबुडे । एवं सिद्धा अनंतगा संपद जे व अणागवावरे |२१| ७६. एवं से उदाहू अणुतरणाणी अणुत्तरवंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे । बरहा णायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए | २२ | -त्ति बेमि ॥ ax विजानीयात्, इममेव क्षणं नो सुलभा वोभिश्व आहूता । सहित: अधिपश्यति, बाह जिनः इदमेव शेषकाः ।। एवं श्र० २ : वैतालीय : श्लोक ७३-७६ ७३. 'इसी क्षण को‍ जानो ।' यह आख्यात बोधि " सुलभ नहीं है—यह जानकर ज्ञानी मनुष्य ( उस सत्य को देखे। यह बात ऋषभ ने अपने पुत्रों से ) कहीं। शेष तीर्थकरों ने भी (जनता से ) यही कहा । अभुवन् पुराऽपि भिक्षवः !, आगमिष्या अपि भविष्यन्ति सुव्रताः । एतान् गुणान् बस्ते, काश्यपस्य अनुधर्मचारिणः ॥ विविधेन अपि प्राणान् मा हन्यात् आत्महितः अनिदानः संवृतः । एवं सिद्धा अनन्तकाः, संप्रति ये च अनागता अपरे ॥ एवं स उदाह अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनघरः । अर्हन् ज्ञातपुत्रः, भगवान वैज्ञालिकः व्याहृतः । - इति ब्रवीमि ॥ ७४, हे श्रेष्ठव्रती भिक्षुओ ! अतीत में भी जिन हुए हैं और भविष्य में भी होंगे । उन्होंने इन ( अहिंसा आदि ) गुणों का निरूपण किया है। उन्होंने काश्यप (भगवान् ऋषभ ) के. द्वारा प्रतिपादित धर्म का ही प्रतिपादन किया है । ७५. साधक मन, वचन और काया, कृत, कारित और अनुमति इन तीनों प्रकारों से किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, आत्मा में लीन रहे, सुखों की अभिलाषा न करे, इन्द्रिय और मन का संयम करे। इन गुणों का अनुसरण कर अनन्त मनुष्य (अतीत में) सिद्ध हुए है कुछ वर्तमान में) हो रहे हैं और (भविष्य में होंगे। ७६. अनुत्तरानी अनुत्तरदर्शी, अनुत्तरज्ञान दर्शनधारी पुत्र वंशा लिक और व्याख्याता भगवान् ने ऐसा कहा है। Tou - ऐसा मैं कहता हूं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन २ श्लोक १: १. श्लोक १: जागना दुर्लभ है-यही प्रस्तुत श्लोक का हार्द है। जो वर्तमान क्षण में जागृत नहीं होता, समय की प्रतीक्षा में रहता है, वह जाग नहीं पाता। कोई भी व्यक्ति युवा होकर पुनः शिशु नहीं होता और वृद्ध होकर पुनः युवा नहीं होता। शैशव और यौवन की जो रात्रियां बीत जाती हैं वे फिर लौटकर नहीं आतीं। जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिए जागति के लिए वर्तमान क्षण ही सबसे उपयुक्त है । जो मनुष्य भविष्य में जागृत होने की बात सोचते हैं वे अपने आपको आत्म-प्रवंचना में डाल देते हैं। श्लोक २: २. श्लोक २: आचारांग सूत्र में बताया गया है कि मृत्यु के लिए कोई अनागम नहीं है-वह किसी भी अवस्था में आ सकती है। प्रस्तुत श्लोक का हृदय यह है कि जो वर्तमान अवस्था में जागृत नहीं होता वह भावी अवस्था में जागने की आशा कैसे कर सकता है? मृत्यु के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है, इस स्थिति में वर्तमान क्षण ही जागति का क्षण हो सकता है। ३. बटेर (वट्टयं) बटेर तीतर की जाति का एक पक्षी है जो तीतर से कुछ बड़ा होता है।' श्लोक ३: ४. श्लोक ३: कुछ मनुष्य माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के स्नेह से बंधकर जागृत नहीं होते। वे सोचते हैं कि माता-पिता आदि की मृत्यु हो जाने पर हम जागृत बनेंगे। किन्तु यह कौन जानता है कि माता-पिता की मृत्यु पहले होगी या सन्तान की? इस अनिश्चित अवस्था में जागृति के प्रश्न को भविष्य के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। जागृति का अर्थ है-अहिंसा और अपरिग्रह की चेतना का निर्माण । जो हिंसा और परिग्रह की चेतना निर्मित करता है, वह सदा सुप्त रहता है। परिग्रह हिंसापूर्वक होता है। अहिंसक के परिग्रह नहीं होता। परिग्रह के लिए हिंसा होती है, इसलिए हिंसा और परिग्रह-ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। जो परिग्रह का निर्देश हो वहां हिंसा का और जहां हिंसा का निर्देश हो वहां परिग्रह का निर्देश स्वयं गम्य है।' ५. सुगति (सुकुल में जन्म) (सुगई) चूर्णिकार ने इसका अर्थ सुकुल किया है। वृत्तिकार इसका अर्थ सुगति (अच्छी गति) करते हैं।' १. आयारो ४११६ : नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि । २. (क) चूणि, पृ० ५२ : बट्टगा नाम तित्तिरजातिरेव ईषदधिकप्रमाणा उक्ता वार्तकाः । (ख) वृत्ति, पत्र ५६ : वर्तकं तित्तिरजातीयम् । ३. चूणि, पृ० ५२ : आरम्भो नाम असंयमः अनुक्तमपि ज्ञायते परिग्रहाच्च । कथम् ? आरम्भपूर्वको परिग्रहः स च निरारम्भस्य न __भवतीत्यत आरम्भग्रहणम् । ४. वही, पृ० ५२ : सुगतिर्नाम सुकुलम् । ५. वृत्ति पत्र ५६ ॥ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समगडो १ ९७ अध्यवन २: टिप्पण ६-१२ श्लोक ४: ६. लुप्त होते हैं (लुप्पंति) नरक आदि गतियों में प्राणी विवध दुःखों से पीड़ित होते हैं। वे सारे सुख-सुविधा के स्थानों से च्युत हो जाते हैं।' ७. श्लोक ४: प्रस्तुत श्लोक में तीन सिद्धान्त प्रतिपादित हैं१. जीवों के कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं । २. कर्म स्वयं द्वारा कृत होता है, किसी अन्य के द्वारा नहीं। ३. कृत-कर्म का फल भुगते बिना उससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। श्लोक ५-६ ८. देव (देवा) चूणिकार ने 'देव' शब्द से वानव्यन्तर देवों का' और वृत्तिकार ने ज्योतिष्क तथा सौधर्म आदि देवों का ग्रहण किया है। ६. श्लोक ५: मनुष्य अपने मोह के कारण अनित्य को नित्य मानकर उसमें आसक्त हो जाता है। उसकी आसक्ति जागति में बाधा बनती है । अनित्यता का बोध उस बाधा के व्यूह को तोड़ता है । देव और मनुष्य के भोग अनित्य हैं । उनका जीवन ही अनित्य है तव उनके भोग नित्य कैसे हो सकते हैं ? इस सत्य का बोध हो जाने पर मनुष्य जागृति के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। श्लोक ६: संकल्प से काम और काम से संस्तव (गाढ़ परिचय) उत्पन्न होता है। उससे कर्म का बन्ध होता है। मनुष्य जब मरता है तब कामनाएं और परिचित भोग उसके साथ नहीं जाते। वह उनके द्वारा अजित कम-बन्धनों के साथ परलोक में जाता है। स्वभावतः या किसी निमित्त से मृत्यु के आने पर मनुष्य का जीवन-सूत्र टूट जाता है। काम और परिचित भोग-सामग्री यहां रह जाती है और वह कहीं अन्यत्र चला जाता है। संयोग का अन्त वियोग में और जीवन का अन्त मृत्यु में होता है, इसलिए मनुष्य को जागरण की दिशा में प्रमत्त नहीं होना चाहिए। श्लोक ७: १०. बहुश्रुत (शास्त्र-पारगामी) (बहुस्सुए) चूणिकार ने इसका कोई अर्थ नहीं किया है । वृत्तिकार ने आगम और उसके अर्थ के पारगामी को बहुश्रुत माना है।' ११. धार्मिक (न्यायवेत्ता) (धम्मिए) चूणिकार ने धार्मिक का अर्थ न्यायवेत्ता' और वृत्तिकार ने धर्मशील किया है।' १२. मायाकृत असत् आचरण में (अभिण मकहिं) नूम के दो अर्थ हैं-माया और कर्म । प्राणी विषयों के द्वारा उन (माया और कम) के अभिमुख हाते हैं । इसलिए चूर्णिकार १. चूणि, पृ० ५२ : नरकादिषु विविधैर्दुःखलृप्यन्ते सर्वसुखस्थानेभ्यश्च च्यवन्ते । २. वही, पृ० ५३ : देवग्रहणाद् वाणमंतरभेदाः । ३. वृत्ति, पत्र ५७ : देवा ज्योतिष्कसौधर्माद्याः। ४ वही, पत्र ५७ : बहुश्रुता: शास्त्रार्थपारगाः । ५. चूणि, पृ० ५३ : धर्मे नियुक्तो धार्मिकः । ६. वृत्ति, पत्र ५७ : धार्मिका धर्माचरणशीलाः । Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सूयगडो १ अध्ययन २ : टिप्पण १३-१७ ने 'अभिनूमकर' का अर्थ विषय किया है। वृत्तिकार ने 'अभिनूमकृत' पाठ के अनुसार उसका अर्थ माया या कर्म के द्वारा कृत असद् अनुष्ठान किया है। १३. मूच्छित होता है (मुच्छिए) । मूर्छा जागृति में बाधक है । विषयों में मूच्छित होने वाला गृहस्थ ही कर्मों से बाधित नहीं होता, किन्तु ब्राह्मण और भिक्षु भी विषयों में मूच्छित होकर कर्मों से बाधित होता है। श्लोक ८: १४. धुत को कथा (धुतं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ वैराग्य किया है । मतान्तर के अनुसार इसका अर्थ है-चारित्र ।' १५. गहस्थी को ही....''प्रव्रज्या को नहीं (आरं....परं) 'आर' के तीन अर्थ प्राप्त हैं १. गृहस्थी । २. इहलोक । ३. संसार। 'पर' के भी तीन अर्थ हैं १. प्रव्रज्या। २. परलोक। ३. मोक्ष। १६. (णाहिसी........"किच्चई) ___ सही अर्थ में प्रव्रजित वह होता है जो विषय और वासना-दोनों से मुक्त होता है। जो विषय से मुक्त होकर भी वासना से मुक्त नहीं होता वह प्रवृजित के वेष में गृहस्थ होता है। जिसके अन्तःकरण में वैराग्य का बीज अंकुरित नहीं होता फिर भी जो वैराग्य का उपदेश देता है परंतु स्वयं उसका आचरण नहीं करता, उसके साथ रहकर कोई व्यक्ति प्रवजित और गृहस्थ का अन्तर कैसे जान सकता है ? संसार और मोक्ष का भेद कैसे जान सकता है ? इस भेद को नहीं जानने वाला अधर में होता है-न पूरा गृहस्थ होता है और न पूरा प्रवजित । यह कर्म (कामनाजनित प्रवृत्ति) को छिन्न करने का नहीं किन्तु उससे छिन्न होने का मार्ग है। यह जागृति का विघ्न है, इसलिए आचार्य ने शिष्य को सावधान किया है। विवेक, यतना, संयम, जागरूकता और अप्रमाद-ये सब एकार्थक हैं। श्लोक: १७. नग्न रहता है, बेह को कृश करता है (णिगिणे किसे) नग्नत्व अकिंचनता का सूचक है । कृशत्व तपस्या का सूचक है।' अकिंचनता और तपस्या-ये दोनों निर्वाण के हेतु हैं, १. चूणि, पृ० ५३ : नूमं नाम कर्म माया वा, अभिमुखं नमीकुर्वन्तीति अभिनूमकराः विषयाः । २. वृत्ति, पत्र ५७ : तेऽप्याभिमुख्येन मं न्ति कर्म माया वा तत्कृतैः असदनुष्ठानः । ३. चूणि, पृ० ५३ धुतं णाम येन कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः। चारित्रमपि केचिन् भणन्ति । ४. (क) चूणि, पृ० ५४ : आरं गृहस्थत्वम्, परं प्रव्रज्या ।......'आरमिति अयं लोकः परस्तु परलोकः । अयं सोत्रोऽर्थः-आरः संसारः, परः मोक्षः। (ख) वृत्ति, पत्र ५७,५८। ५. चणि, पृ० ५४ : णिगिणो नाम नग्नः । कृशस्तपोनिष्टप्तत्वाद् आतापनादिभिः । Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो१ अध्ययन २: टिप्पण १८-२१ किन्तु साधन नहीं हैं । उसका साधन है-कषायमुक्ति । आन्तरिक कषायों से मुक्ति मिले बिना नग्नता और तपःजनित कृशता होने पर भी निर्वाण उपलब्ध नहीं होता। इसलिए इस वास्तविकता की विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि निर्वाण-प्राप्ति का साधन (साधकतम उपाय) कषाय मुक्ति ही है। श्लोक ११: १८. हे योगवान् (योगवान्) चूर्णिकार ने योगवान् का अर्थ विस्तार से किया है । उनके अनुसार योग का अर्थ है-संयम । योगवान् अर्थात् संयमी । ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग-इन पर जिनका अधिकार हो जाता है, वह योगवान् होता है। यह चूर्णि सम्मत दूसरा अर्थ है। जो समितियों और गुप्तियों (मन, वचन और काया) के प्रति सतत उपयुक्त, निरन्तर जागृत होता है वह योगवान् होता है । जो काम कोई दूसरा करता है और चित्त किसी दूसरे काम में लगता है, वह उस क्रिया के प्रति योगवान् नहीं होता। लोकप्रवाद में भी कहा जाता है कि मेरा मन किसी दूसरे काम में लगा हुआ था इसलिए मैं उसे नहीं पहचान सका। शारीरिक क्रिया और मानसिक क्रिया-दोनों एक साथ चले, यह स्वाधीन योग है। स्वाधीन योग वाला व्यक्ति ही योगवान् होता है। चूर्णिकार ने भावक्रिया के सूत्र को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। शरीर की क्रिया और मन का योग नहीं होता उसे द्रव्य-क्रिया कहा जाता है। शरीर और मन की क्रिया का योग भाव-क्रिया है । यह साधना और सफलता का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। जैन परंपरा में योग, संयम, संवर-ये एकार्थक शब्द हैं। महर्षि पतंजलि ने अपनी साधना पद्धति में 'योग' शब्द को प्रधानता दी है। जैन साधना-पद्धति में संयम और संवर शब्द की प्रधानता है। फिर भी आगमकारों ने अनेक स्थानों पर योग और योगवान् का प्रयोग किया है।' दिगंबर परंपरा में कायक्लेश के छह भेद निर्दिष्ट हैं- अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग । योग के अनेक प्रकार हैं-आतापनायोग, वृक्षमूलयोग, शीतयोग आदि । देखें-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अन्तर्गत 'कायक्लेश' शब्द । १६. सूक्ष्म प्राणियों से संकुल हैं (अणुपाणा) इस पद का अर्थ 'अनुपानका'-जूते न पहनने वाले किया जाए तो संभावना से दूर नहीं होगा। २०. अनुशासन का (अणुसासणं) हमारी पृथ्वी जीवों से भरी हुई है। यात्रा के मार्ग भी जीवों से खाली नहीं होते। इस स्थिति में अहिंसापूर्वक चलना कैसे संभव हो सकता है ? इस विषय में आचार्य ने मार्ग-दर्शन दिया है। यतना (संयम या अप्रमत्तभाव) पूर्वक चलने वाला ही अहिंसक हो सकता है। इस विषय की समग्र जानकारी के लिये देखें-दसवेआलियं, अध्ययन पांच और आयारचूला अध्ययन तीन । श्लोक १४: २१. श्लोक १४: ___'कर्म शरीर को प्रकंपित कर'-यह इस श्लोक का मुख्य प्रतिपाद्य है। चूणिकार ने कर्म को प्रकंपित कर—यह लिखा है।' इसकी स्पष्टता आयारो (५/५६) के 'धुणे कम्मसरीरगं' इस सूत्र से होती है। शेष श्लोक में प्रकंपन की प्रक्रिया बतलाई गई है। प्रज्ञापना के अनुसार मनुष्य में काम-संज्ञा प्रधान होती है। स्थानांग सूत्र में काम-संज्ञा की उत्तेजना के चार कारण बतलाए हैं। १. चूणि, पृ० ५४,५५ : योगो नाम संयम एव, योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् । जोगा वा जस्स वसे वति स भवति योगवान् णाणादीया। अथवा योगवानिति समिति-गुप्तिषु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः, यो हि अन्यत् करोति अन्यत्र चोपयुक्तः स हि तत्प्रवृत्तयोग प्रति अयोगवानिव भवति । लोकेऽपि ध वक्तारो भवन्ति-विमना अहं, तेन मया नोपलक्षितमिति । अत: स्वाधीनयोग एव योगवान् । २. सूयगडो २१५३५ भावणाजोगसुद्धप्पा...शा२७: माणजोगं समाहट्ट । उत्तरज्झयणाणि १९२४ : जोगवं उवहाणवं। ३. चूणि, पृष्ठ ५५ : धुणिया णाम धुणेज्जा कम्मं । ४. प्रज्ञापमा ८८ : मणुस्सा....''ओसाणकारणं पडुच्च मेहुणसण्णोवगया। Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १०० अध्ययन २: टिप्पण २२-२४ उनमें एक कारण है-रक्त और मांस का उपचय ।' उपचित रक्त और मांस काम-केन्द्र को उत्तेजित करते हैं। मनुष्य का ऊर्जा-केन्द्र (प्राणशक्ति या कुण्डलिनी शक्ति) काम-केन्द्र के पास अवस्थित है । जिनका काम-केन्द्र उत्तेजित रहता है उसकी ऊर्जा का प्रवाह उर्ध्वगामी नहीं होता। वह कर्मशरीर को प्रकंपित नहीं कर सकता और उसे प्रकंपित किए बिना प्रज्ञा, सहज प्रसन्नता आदि विशिष्ट शक्तियों का विकास नहीं हो सकता । इस दृष्टि से अनशन आदि के द्वारा स्थूल शरीर को कृश करना आवश्यक है। वह कश होता है, इसका अर्थ है कि कर्मशरीर भी कृश हो रहा है। कर्मशरीर के कृश होने का अर्थ है-राग-द्वेष और मोह कृश हो रहा है। इनके कृश होने का अर्थ है- ज्ञान और दर्शन की शक्ति का विकास । राग, द्वेष और मोह के कृश होने पर मनुष्य में अहिंसा या विराट् प्रेम का स्रोत प्रवाहित हो जाता है। यह महावीर का अनुभव-वचन है। केवल महावीर का ही नहीं, पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों का यही अनुभव है। राग, द्वेष और मोह का विलय होने पर सभी ने अहिंसा धर्म का उद्घोष किया । आचारांग सूत्र में इस तथ्य को विस्तार से समझाया गया है।' २२. अनुधर्म है (अणुधम्मो) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. ऋषभ आदि तीर्थकरों ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है उसी का प्रतिपादन महावीर ने किया है। २. सूक्ष्म धर्म। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ ये हैं-' १. मोक्ष के प्रति अनुकूल धर्म, अहिंसा । २. परीषह, उपसर्ग आदि को सहन करने की तितिक्षा । श्लोक १५: २३. श्रमण (माहणे) चणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रमण और ब्राह्मण । वृत्तिकार ने इसका अर्थ अहिंसक किया है।' श्लोक १७: २४. पुत्र-प्राप्ति के लिए (पुत्तकारणा) चूर्णिकार ने पुत्र की वांछा के तीन हेतु माने हैं १. कुल-परंपरा को चलाने के लिए। २. पितृ-पिंडदान के लिए। ३. संपत्ति की सुरक्षा के लिए। १. ठाणं ४५८१ : चहि ठाणेहि मेहुणसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा चित्तमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तबट्ठोवओगेणं । २. आयारो ४११,२ : से बेमि-जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूति-सवे पाणा सम्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहि पवेइए। ३. चूणि, पृ० ५६ : अनुधर्मो अनु पश्चाद्भावे यथाऽन्यस्तीर्थकरैस्तथा वर्द्धमानेनापि मुनिना प्रवेदितम् । अणुधर्मः सूक्ष्मो वा धर्मः । ४. वृत्ति, पत्र ५६ : अनुगतो-मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मः । ५. चूणि, पृ० ५६ : समणे त्ति वा माहणे त्ति वा । ६. वृत्ति, पत्र ५६ : माहण त्ति वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स प्राकृतशैल्या माहणेत्युचत इति । ७. चूणि, पृ० ५६ : पुत्रकारणाद् एकमपि तावत् कुलतन्तुवर्द्धनं पितृपिण्डदं धनगोप्तारं च पुत्रं जनयस्व । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन २: टिप्पण २५-२८ श्लोक १८: २५. निमन्त्रित करते हैं (लाविया) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-धन आदि का प्रलोभन देकर अनेक प्रकार से निमंत्रण देना—किया है।' वृत्तिकार से 'लावयन्ति' के दो अर्थ किए हैं—निमंत्रित करना, उपलब्ध करना।' श्लोक २१: २६. लक्ष्य तक ले जाने वाले (णेयाउयं) इसका संस्कृत रूप 'नर्यात्रिक' होता है । इसका अर्थ है-ले जाने वाला। चूणि' और वृत्ति में यही अर्थ सम्मत है। कुछ व्याख्या ग्रन्थों में 'नेयाउयं' का अर्थ न्याययुक्त और उसका संस्कृतरूप 'नयायिक' किया गया है। यह शब्दशास्त्रीय दृष्टि से चिन्तनीय है। नैयायिक शब्द का प्राकृतरूप 'णेयाउय' नहीं बनता। ऋकार को उकार का आदेश होने के कारण 'नर्यात्रिक' का 'णेयाउय' रूप बनता है। विशेष विवरण के लिए देखें उत्तरज्झयणाणि ३।६ का टिप्पण, पृष्ठ २७ । २७. महापथ के प्रति (महाविहि) चूर्णिकार ने महावीथि का अर्थ संबोधि-मार्ग, सिद्धिमार्ग किया है। प्रस्तुत अध्ययन का प्रारंभ संबोधि से ही होता है। इसमें उसके विभिन्न उपायों और विघ्नों का उल्लेख किया है। 'महाविहि' शब्द में 'वि' दीर्घ होना चाहिए किन्तु छन्द की दृष्टि से उसे ह्रस्व किया गया है । श्लोक २३: २८. श्लोक २३ : चैतन्य आत्मा का स्वभाव है। मनुष्य जब चैतन्य के अनुभव में रहता है तब उसके रज का बंध नहीं होता । जब वह कषाय के अनुभव में रहता है तब उसके रज का बंध होता है । कषाय को अवस्था में होने का अर्थ है-चैतन्य के प्रति जागृत न होना । यह रज के बंध का हेतु है । अकषाय की अवस्था में होना चैतन्य के प्रति जागृत होना है। यह रज को क्षीण करने का हेतु है। इस अवस्था में रज या कर्म परमाणु अपने आप क्षीण होते हैं । मद कषाय का एक प्रकार है। इससे अभिभूत व्यक्ति गोत्र आदि के उत्कर्ष का अनुभव करता है। उत्कर्ष के अनुभव का अर्थ है दूसरों की हीनता का अनुभव करना । समता धर्म की आराधना करने वाले के लिए यह सर्वथा अवांछनीय है । चूर्णिकार ने 'माहण' शब्द की व्याख्या में बताया है कि अहिंसक सुन्दर होता है और अन्य व्यक्ति अशोभन होते हैं । इस भावना को भी मद का रूप नहीं देना चाहिए। १. चूणि, पृ० ५७ : लाविय त्ति णिमंतगा । जइ कामेहि धगेण वा बहुप्पगारं उवणिमंतेज्ज । २. वृत्ति, पत्र ६० : लावयन्ति उपनिमन्त्रयेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः । ३. चूणि, पृ०५८ : नयतीति नैयायिकः । ४. वृत्ति, पत्र६१ : नेतारम् । ५. (क) उत्तराध्ययन ३९, चूणि, पृ० ६८, १९२ : नयनशीलो नैयायिकः । (ख) वही, वृत्ति पत्र १८५ : नैयायिक: न्यापोपपन्न इत्यर्थः । ६. चणि, पृ० ५७ : महाविधि....... "जो हेटा संबोहणमग्गो भणितो........."तत्र द्रव्यवीधी नगर-ग्रामादिपथा: भाववीधी तु सिद्धिपन्थाः । ७. वही, पृ० ५६ : अकषायत्वेनेति वाक्पशेषः अषायस्य हि सर्पत्वगिवावहीयते रजः । ८. वही, पृ० ५६ : माहणो साधू अहिंसगो सुन्दरो अण्णे असोमणा । Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सूयगडो १ अध्ययन २ : टिप्पण २९-३३ २६. रज को (रयं) रज का शाब्दिक अर्थ है-चिपकने वाला द्रव्य ।' ३०. गोत्र और अन्यतर (कुल, बल, रूप, श्रुत आदि) (गोयण्णतरेण) मद के आठ प्रकार हैं-जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद।' प्रस्तुत शब्द में 'गोत्र' शब्द के द्वारा जाति और कुल का ग्रहण किया गया है। शेष छह मद 'अन्यतर' शब्द के द्वारा गृहीत श्लोक २४ : ३१. संसार (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि होन जातियों) में (संसारे) जन्म के आधार पर जातियां पांच हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनमें जन्मगत क्षमता की दृष्टि से पंचेन्द्रिय जाति श्रेष्ठ है । गोत्र या जाति का अभिमान कर दूसरों की अवज्ञा करने वाला एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि हीन जातियों में जन्म लेता है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-किसी के प्रति घृणा मत करो, किसी को हीन मत समझो। ३२. पाप को उत्पन्न करने वाली या पतन को ओर ले जाने वाली (पाविया) चूणिकार ने 'पातिका' शब्द की व्याख्या की है। वृत्तिकार ने पापिका और पातिका-दोनों अर्थ किए हैं । अवज्ञा सदोष है, इसलिए वह पापिका है। वह स्व-स्थान से नीचे की ओर ले जाती है, इसलिए वह पातिका है।' श्लोक २५: ३३. श्लोक २५: अनायक का अर्थ है-जिसका कोई नायक-नेता न हो, जो सर्वथा स्वतंत्र हो । जो अनायक होता है वह सर्वोच्च अधिपति होता है। प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि निर्ग्रन्थ परंपरा में व्यक्ति विशेष की पूजा नहीं होती, संयम-पर्याय की पूजा होती है। जो संयम-पर्याय में ज्येष्ठ होता है, वह पश्चात् प्रव्रजित व्यक्तियों द्वारा वन्दनीय होता है। यह वंदना की परंपरा संयम-पर्याय की काल-अवधि के आधार पर निर्धारित है। मनुष्यों में चक्रवर्ती सर्वोच्च अधिपति होता है। इसी प्रकार बलदेव, वासुदेव तथा महामांडलिक राजा भी अपनी-अपनी स्थिति में सर्वोच्च होते हैं। ऐसी स्थिति भी बनती है कि उनके दास का दास पूर्व प्रवजित हो जाता है और वे पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । ऐसी स्थिति में वह दास का दास उनके द्वारा वंदनीय होता है, क्योंकि वह संयम-पर्याय में ज्येष्ठ है। प्रस्तुत श्लोक में यह निर्देश दिया गया है कि चक्रवर्ती आदि उच्च व्यक्ति भी प्रव्रज्या-ज्येष्ठ अपने दासानुदास को वंदना करने में कभी लज्जा का अनुभव न करें। वे ऐसा न सोचें-मुझे अपने दास के दास को वंदना करनी पड़ेगी। साथ ही साथ वह पूर्व १. चूणि, पृ० ५६ : रज्यत इति रजः। २. ठाणं ८।२१ : अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता तं जहा--जातिभए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुतमए, लाभमए, इस्सरियमए । ३. चूणि, पृ० ५६ : गोत्रं नाम जातिः कुलं च गृह्यते, अन्यतरग्रहणात् क्षत्रियः ब्राह्मण इत्यादि, अथवा अन्यतरग्रहणात् शेषाण्यपि मद स्थानानि गृहीतानि भवन्ति । ४. चणि, पृ० ५६ : संसारे...... विसेसेण सुकुच्छितासु जातीसु एगेंदिय-बेइंदियादिसु । ५. आयारो, २०४६ :.....'णो होणे, णो अइरित्ते........ ६. चूणि, पृ० ५६ : पातिका ..."प्रागुक्ता पातयति नीचगोत्रादिषु संसारे व त्ति । ७. वृत्ति, पत्र ६२: पापिकव दोषवत्येव अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिका । Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगगे १ १०३ अध्ययन २ : टिप्पण ३४-३७ प्रवजित दास भी अहंकार न करे कि अब मेरे सर्वोच्च स्वामी मेरी पूजा करेंगे, वंदना करेंगे। लज्जा और अहं का विसर्जन ही मोक्ष का साधक हो सकता है। वासुदेव निदानकृत होते हैं, अतः वे प्रव्रज्या के अधिकारी नहीं होते।' श्लोक २६: ३४. सम संयम स्थान या अधिक संयम स्थान में स्थित (अण्णयरम्मि संजमे) अन्यतर का अर्थ है-विषम या अधिक । सबका संयम समान नहीं होता, परिणामों की निर्मलता भी समान नहीं होती. फिर भी यह संघीय व्यवस्था है कि जो पहले प्रवजित होता है वह पूज्य होता है।' ३५. सम्यक् मन वाला (समणे) 'समण' शब्द का एक निरुक्त है-सम्यक् मनवाला। चूणिकार ने प्रस्तुत 'समण' शब्द का वही निरुक्त किया है।' अनुयोगद्वार सूत्र में भी 'समण' शब्द का यह निरुक्त उपलब्ध है। श्लोक २७: ३६. दीर्घकालीन परम्परा (दूरं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ दीर्घ किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मोक्ष और दीर्घ ।' ३७. श्लोक २७ : चूर्णिकार ने अहंकार-मुक्ति के आलम्बन की तीन व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं१. अहंकार करने वाले व्यक्ति का अतीत और भविष्य दुःखपूर्ण होते हैं, इसलिए अहंकार नहीं करना चाहिए। २. यह जीव अतीतकाल में कभी उच्च अवस्था में और कभी हीन अवस्था में रहता आया है। कोई भी जीव एक जैसी अवस्था में नहीं रहता, इसलिए अहंकार नहीं करना चाहिए। ३. अहंकारी मनुष्य से मोक्ष, बोधि और श्रेय दूर रहते हैं, इसलिए उसे अहंकार नहीं करना चाहिए। १. चूणि, पृ०५६। २. (क) चूणि, पृ०६०: अण्णयरे व त्ति विसमे वा छट्ठाणपडितस्स तेसु सम्यक्त्वादपि पूज्यः संयम इति कृत्वा अन्यतरे अधिके वर्तमाना पूज्यः संयतत्वादेव । (ख) वृत्ति, पत्र ६३ । ३. चूणि, पृ०६० : समणे ति सम्यग् मणे समणे वा समणे । ४. अनुयोगद्वार, सूत्र ७०८, श्लोक ६ : तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥ ५. चूणि, पृ० ६० : दूरं नाम दीर्घम् ।। ६. वृत्ति, पत्र ६३ : दूरो-मोक्षस्तमनु-पश्चात् तं दृष्ट्वा यदिवा दूरमिति दीर्घकालम् । ७. चूणि, पृ० ६० : दूरं नाम दीर्घमनुपश्य । तोतं धम्ममणागतं तधा, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः वर्तमानो धर्मो हि कालानादित्वाद् दूरः वर्तमान: स तु अविरतत्वान्मानादिमदमत्तस्य दुःखं भूयिष्ठोऽतिक्रान्तः । किञ्च -'इमेण खलु जीवेण अतीतद्धाए उच्च-णीय-पशिमासु गतीसु असति उच्चगोते असति णीयगोते होत्था (भग०१२) तथा च अतीतकाले प्राप्तानि सर्वदुःखान्यनेकशः एवमनागतधर्ममपि । अथवा दूरमणुपस्सिअ त्ति दढं पस्सिय, अथवा मोक्षं दूरं श्रेय पस्सिय दुर्लभबोधितां पस्सिय, जात्यादिमदमत्तस्य च दूरतः श्रेयः एवमणपस्सिय इत्येवमाद्यतीताऽनागतान् धर्मान् अणुपस्सिता। Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ ३८. (जए "सुहुमे" .....अलूसए) चूर्णिकार ने 'जए' को मुनि का विशेषण मानकर उसका अर्थ ज्ञानवान् या अप्रमत्त किया है।' वृत्तिकार ने 'जए' को क्रियापद मानकर उसका संस्कृतरूप 'जयेत्' (जीतना) किया है।" चूर्णिकार ने 'सुहुमे' के दो अर्थ किए हैं—संयम और सूक्ष्म बुद्धिवाला । वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम किया है। चूर्णिकार के अनुसार 'अलूसए' का अर्थ है-अनाशंसी और वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- अविराधक । हमने इसका अर्थ अहिंसक किया है। आचारांग के संदर्भ में चूर्णिकार के अर्थ सूत्रकार की भावना के अधिक निकट हैं ।" ૦૪ श्लोक २८ ३६. न क्रोध करे और न अभिमान करे ( णो कुम्भे णो माणि माहणे ) 1 जिसकी प्रज्ञा कुशल होती है और जो सूक्ष्मदर्शी होता है उसी साधक को वैराग्यपूर्ण और तात्विक दोनों प्रकार की धमकथा करने का अधिकार है। इसीलिए धर्मकधी को प्रज्ञा सम्पन्न और सूक्ष्मदर्शी होना चाहिए जो स्वयं प्रमत्त होता है यह दूसरे को अप्रमाद का उपदेश नहीं दे सकता, इसलिए उसे सदा अप्रमत्त होना चाहिए। समता धर्म की व्याख्या करने वाला किसी को बाधा नहीं पहुंचा सकता, इसलिए उसे अलूसक या अहिंसक होना चाहिए। धर्मकथा के किसी प्रसंग से रुष्ट होकर कोई व्यक्ति तर्जना या ताड़ना करे तो धर्मरूपी को क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। धर्मकथा की विशिष्टता पर अभिमान नहीं होना चाहिए ।" 'माणी' के स्थान पर 'माणि' विभक्ति रहित पद का प्रयोग है । श्लोक २६ १. संवृतात्मा २. विषयों के प्रति अनासक्त ४०. इलोक २६ : उपलब्ध अंग साहित्य आर्य सुधर्मा द्वारा रचित है। उन्होने अंग सूत्रों में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म की व्याख्या की है । उनका अभिमत है कि जिन लोगों ने धर्म की व्याख्या की है, कर रहे हैं या करेंगे, वे इन लक्षणों से युक्त होने चाहिए— अध्ययन २ टिप्पण : ३८-४० १. चूणि, पृ० ६० : जते त्ति ज्ञानवान् अप्रमत्तश्च । २. वृत्ति, पत्र, ६३ : जयेत् । ३. चूर्णि, पृ० ६० : सुहुमो नाम संयम ३. स्वच्छ हृदय । प्रायः सभी लोग धर्म के प्रति प्रणत होते हैं, इसलिए चूर्णिकार ने 'बहुजणणमण' पद का अर्थ धर्मं किया है । वृत्तिकार का 'अहवा सुहुमेति सूक्ष्मबुद्धि: । ४. वृत्ति पत्र ६३ : सूक्ष्मे तु संयमे । ५. चूर्णि, पृ० ६०, ६१ : अलूषकस्तु स एवमनाशंसी न च मार्गविराधनां करोति । ६. वृत्ति, पत्र ६३ : अलूषकः अविराधकः । ७. देखें--- जए -- आयारो ३।३८, ४।४१ सुहुम- आयारोमा २३ लसए - आयारो ६।६५, ६६ ८. देखें- आयारो २।१७४-१७८ ६।१००-१०५ । 8. चूर्णि, पृ० ६१ : बहुजनं नामयतीति बहुजननामनः, बहुजनेन वा नम्यते, स्तूयत इत्यर्थः, स धर्म एव । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १०५ अध्ययन २ : टिप्पण ४१-४२ भी यही अभिमत है।' अधार्मिक मनुष्य भी यह नहीं कहता कि मैं अधर्म करता हूं। यह तथ्य एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया महाराज श्रेणिक राज्य सभा में बैठे थे। धर्म की चर्चा चल पड़ी। प्रश्न उपस्थित हुआ कि धार्मिक कौन है ? पार्षदों ने कहा-धार्मिक कहां मिलता है ? प्रायः सभी लोग अधामिक हैं। अभयकुमार ने इसके विपरीत कहा। इस संसार में अधार्मिक कोई नहीं है। पार्षदों ने इसे मान्य नहीं किया। तब परीक्षा की स्थिति उत्पन्न हो गई । अभयकुमार ने दो भवन निर्मित करवाए-एक धवल और एक काला । नगर में घोषणा करवाई गई-जो धार्मिक हैं वे धवल भवन में चले जाएं और जो अधार्मिक हैं वे काले भवन में चले जाएं। सभी नागरिक धवल गृह में चले गए। अधिकारियों ने एक व्यक्ति से पूछा-क्या तुम धार्मिक हो ? उसने कहा-मैं किसान हूं। हजारों पक्षी मेरे धान्य-कणों को चुगकर जीते हैं, इसलिए मैं धामिक हूं। दूसरे ने कहा-मैं वणिक हूं। मैं प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन कराता हूं, इसलिए मैं धार्मिक हूं। तीसरे ने कहा-मैं अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करता हूं, कितने कष्ट का काम है यह ! फिर मैं धामिक कैसे नहीं हूं ? चौथे ने कहा-मैं कसाई हूं। मैं अपने कुलधर्म का पालन करता हूं। मेरे धन्धे से हजारों मांसभोजी लोग पलते हैं। इसलिए मैं भी धार्मिक हूं। इस प्रकार सभी लोगों ने अपने आपको धार्मिक बतलाया। अभयकुमार विजयी हो गया। दो व्यक्ति काले भवन में गए। पूछने पर बताया-हम श्रावक हैं। धार्मिक मनुष्य सदा अप्रमत्त रहते हैं । हमने एक बार मद्यपान कर लिया। हमारा अप्रमाद का व्रत भंग हो गया। हम अधार्मिक हैं, इसलिए हम धवल भवन में नहीं गए। अधिकांश लोग अपने आपको धार्मिक मानते हैं और प्रत्येक आचरण या कुलक्रमागत कार्य को धर्म का ही रूप देते हैं। अधर्म नाम किसी को प्रिय नहीं है। इसी लोक-भावना को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने धर्म के लिए 'बहुजननमन' शब्द का प्रयोग किया है। कुछ व्याख्याकारों ने बहुजननमन' का अर्थ लोभ भी किया है। प्रायः सभी लोग लोभ के प्रति प्रणत होते हैं। इस आधार पर यह अर्थ असंगत भी नहीं है। धर्मोपदेष्टा को लोभ का संवरण करने वाला होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से भी यह असंगत नहीं श्लोक ३३: ४१. वंदना-पूजा (वंदणपूयणा) आक्रोश, ताड़ना आदि को सहन करना सरल है, किन्तु वंदना और पूजा के समय अनासक्त रहना बहुत कठिन है। इसलिए वन्दना और पूजा को सूक्ष्म शल्य कहा गया है। यह ऐसा हृदय-शल्य है जिसे हर कोई सहज ही नहीं निकाल पाता। श्लोक ३४: ४२. अकेला (एगे) 'एक' शब्द की व्याख्या द्रव्य और भाव-दो दृष्टिकोणों से की गई है। द्रव्य की दृष्टि से एकलविहारी भिक्षु अकेला होता है और भाव की दृष्टि से राग-द्वेष रहित होना अकेला होना है। एकलविहारी भिक्षु को पवनयुक्त या पवन रहित, सम या विषम जैसा १.वृत्ति, पत्र ६३ ॥ २. (क) चूणि, पृ० ६१। (ख) वृत्ति, पत्र ६३-६४ । ३. चूणि, पृ०६१: सर्वलोको हि धर्ममेव प्रणतः न हि कश्चित् परमाधामिकोऽपि ब्रवीति-अधम्मं करेमि। ४. वही पृ०६१ : अन्ये त्वाहु :-बहुजननमनः लोमः सर्वो हि लोकस्तस्मिन् प्रणतः। ५. (क) चूणि, पृ० ६३ : शक्यमाक्रोशताडनादि तितिक्षितुम्, दुःखतरं तु वन्द्यमाने पूज्यमाने वा विषयैर्वा विलोभ्यमाने निःसङ्गता भावयितुमिति एवं सूक्ष्मं भावशल्यं दुःखमुद्धतं हृदयादिति । (ख) वृत्ति, पत्र ६५॥ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूयगडो १ १०६ अध्ययन २: टिप्पण ४३-४६ भी शयन-आसन मिलें उसमें वह अकेला होने का अनुभव करे-राग-द्वेष न करे । जन-संपर्क का माध्यम है-वचन । जो उसका प्रयोग नहीं करता, वह अपने आप अकेला हो जाता है। मन के विकल्प व्यक्ति को दंत में ले जाते हैं। उसका संवरण करने वाला अपने आप अकेला हो जाता है। भाव की रष्टि से प्रत्येक भिक्षु को अकेला होना चाहिए । द्रव्य की दृष्टि से अकेले रहने का निर्देश उस भिक्षु के लिए है जो साधना के लिए संघ से मुक्त होकर एकलविहारी हो गया है। श्लोक ३५: ४३. श्लोक ३५: प्रस्तुत श्लोक में एकलविहारी मुनि की चर्या प्रतिपादित है। एकलविहारी मुनि पूछने पर भी नहीं बोलता । कुछेक वचन बोलता है। कोई संबोधि प्राप्त करने वाला हो तो उसके लिए एक, दो, तीन या चार उदाहरणों का प्रतिपादन कर सकता है । वह अपने बैठने के स्थान का प्रमार्जन करता है, किन्तु शेष घर का प्रमार्जन नहीं करता।' ४. शून्यगृह का (सुग्णघरस्स) चूर्णिकार ने शून्य शब्द के दो निरुक्त किए हैं १. शूनां हितं शून्यं-जो कुत्तों के लिए हितकर हो। २. शून्यं वा यत्राऽन्यो न भवति-जिसमें दूसरा कोई न हो। ४५. (वई) चूर्णिकार के अनुसार एकलविहारी मुनि पूछने पर चार भाषाएं बोल सकता है। वे चार भाषाएं हैंयाचनी-याचना से सम्बन्ध रखने वाली भाषा । प्रच्छनी-मार्ग आदि तथा सूत्रार्थ के प्रश्न से सम्बन्धित भाषा। अनुज्ञापनी--स्थान आदि की आज्ञा लेने से सम्बन्धित भाषा । पृष्टव्याकरणी-पूछे हुए प्रश्नों का प्रतिपादन करने वाली भाषा। वृत्तिकार ने सावध वचन बोलने का निषेध किया है और जो अभिग्रहवान तथा जिनकल्पिक है, उसे निरवद्य भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए, ऐसा मत प्रगट किया है।" श्लोक ३६ : ४६.चींटी, खटमल आदि (चरगा) इसका शाब्दिक अर्थ है-चलने-फिरने वाले प्राणी । चूर्णिकार ने चींटी, खटमल आदि को इसके अन्तर्गत माना है। वृत्तिकार ने चरक शब्द से दंश, मशक का ग्रहण किया है। शब्द की दृष्टि से चूर्णिकार का मत उपयुक्त लगता है। दंश, मशक उड़ने वाले प्राणी हैं, न कि चलने वाले । १. चूणि, पृ० ६३ : द्रव्ये एगलविहारवान्, भावे राग-द्वेषरहितो वीतरागः ........... एगो राग-द्दोसरहितो, सम्वत्यपवाद-णिवाद ___सम-विसमेसु ठाण-णिसीयण-प्तयणेसु एगभावेण भवितव्वं । २. वही, पृ०६३ । ३. वही, पृष्ठ ६३ : अवस्सं संबुज्झितुकामस्स वा एगनायं एवावागरणं वा जाव चत्तारि। णिसीयणढाणे मोत्तण सेसं वधि ग __समुच्छति ति ण पमज्जति । ४. वही, पृष्ठ ६३ : शुनां हितं शून्यं, शून्यं वा यत्रान्यो न भवति । ५. वही, पृ०६३ : एगल्लविहारी ... 'चत्तारि भासाओ मोत्तण ण उदाहरति यि । ६. ठाणं ४१२२ : पडिमापडिवण्णस्स गं अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, तंजहा-जायणी, पुच्छणी, अणुण्णवणी पुट्ठस्स वागरणी। ७. वृत्ति, पत्र ६६ : सावद्यां वाचं ....'न ब यात्, आभिग्रहिको जिनकल्पिकादिनिरवद्यामपि न वयात् । ८. चूणि, पृष्ठ ६४ : चरन्तीति चरका: पिपीलिका-मत्कुण-घृतपायिकादयः । ६. वृत्ति, पत्र ६६ : चरन्तीति चरका-वंशमशकादयः । Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगजे १ १०७ अध्ययन २: टिप्पण ४७-५१ श्लोक ३६ ४७. बायो (ताइणो) त्राता तीन प्रकार के होते हैं १. आत्मत्राता-जिनकल्पिक मुनि । २. परत्राता-अर्हत् । ३. उभयत्राता-गच्छवासी मुनि । ४८. "आसन का (आसणं) पीढ, फलक आदि आसन हैं । चूर्णिकार ने इस शब्द के द्वारा उपाश्रय का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ वसति माना है।' श्लोक ४० ४६. गर्म और तप्त जल को पीने वाले (उसिणोदगतत्तभोइणो) उष्ण और तप्त-ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। चूर्णिकार ने बताया है कि धूप से गरम बना हुआ पानी मुनि को नहीं लेना चाहिए । यह तप्त शब्द द्वारा सूचित किया है। वृत्तिकार ने 'उष्णोदकतप्तभोजी'-इस शब्द का अर्थ अत्यन्त उबले हुए पानी को पीने वाला किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-गर्म पानी को ठंडा किए बिना पीने वाला। ५०. तथागत (अप्रमत्त) के (तहागयस्स) चूर्णिकार ने 'तथागत' का अर्थ-वैराग्यवान्, वीतराग या अप्रमत्त किया है ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'जहावाई तहाकारी' अर्थात् वीतराग किया है। ५१. असमाधि होती है (असमाही) असमाधि का मूल कारण है-मूर्छा । राजाओं की ऋद्धि देखकर मूर्छा उत्पन्न न हो, इस दृष्टि से उनके संसर्ग का निषेध प्रस्तुत श्लोक में किया गया है । यह चूर्णिकार का अभिमत है। वृत्तिकार ने बतलाया है कि राजाओं का संसर्ग अनर्थ का हेतु है । उस संसर्ग में स्वाध्याय आदि में बाधा उपस्थित होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह ज्ञात होता है कि जैन मुनि धर्म को राज्याश्रित बनाने के पक्ष में नहीं थे। राजा की इच्छा का पालन करने पर अपनी समाचारी का भंग होता है और उसकी इच्छा का अतिक्रमण करने पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडता है, इसलिए राजाओं के संसर्ग को हितकर नहीं माना। १. चणि, पृष्ठ ६४ : त्रायतीति त्राता, स च त्रिविध:-आत्म० पर० उभयत्राता जिनकल्पिका-ऽहंब-गच्छवासिनः । २. वही, पृ०६४ : आसनग्रहणादुपाश्रयोऽपि गृहीतः । ३. वृत्ति, पत्र ६७ : आस्यते-स्थीयते यस्मिन्निति तवासनं-बसत्यादि । ४. चणि, पृ० ६४ : उसिणग्रहणात् फासुगोदग-सोवीरग-उण्होदगादीणि, तप्तग्रहणात् स्वाभाविकस्याऽतपोदकादेः प्रतिषेधार्थः । ५. वत्ति, पत्र ६७ : उष्णोदकतप्तभोजिन: त्रिदण्डोद्वत्तोष्णोदकभोजिन: यदि वा उष्णं सन्न शोतीकुर्यादिति तप्तग्रहणम् । ६. चणि, पृ०६४ : तधागतस्सवि त्ति वैराग्यगतस्यापि । अथवा यथाऽन्ये, यथा ज (जि) नादयो गता वीतरागा तथा सो वि अप्रमादं प्रति गतः। ७. वृत्ति, पत्र ६७ : तथागतस्य यथोक्तानुष्ठायिनः। ८ चूणि, पृ० ६४ : रिद्धि दृष्ट्वा ता मा भून्मूच्छा कुर्यात् मूर्च्छतश्च असमाधी भवति । ६. वृत्ति, पत्र ६७ : राजादिभिः साद्धं यः संसर्गः सम्बन्धोऽपावसाधुः अनर्थोदयहेतुत्वात् .........राजादिसंसर्गवशाद् असमाधिरेव अपध्यानमेव स्यात् न कदाचित् स्वाध्यायादिकं भवेदिति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jain Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १०८ अध्ययन २ : टिप्पण ५२-५७ श्लोक ४१ ५२. अर्थ (अट्ठे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ मोक्ष और उसके कारणभूत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि किया है। वृत्तिकार ने इसके द्वारा मोक्ष और उसके कारणभूत संयम को ग्रहण किया है। श्लोक ४२ ५३. शीतोदक (सजीव जल) (सीओदग) ___ इसका शाब्दिक अर्थ है-ठंडा पानी। आगमिक परिभाषा में इसका अर्थ है-सजीव पानी। गर्म जल या शस्त्रभूत पदार्थों से उपहत जल निर्जीव हो जाता है। ५४. न पीने वाले (पडिदुगंछिणो) प्रतिजुगुप्सी का अनुवाद 'न पीने वाले' किया गया है । जो जिसका सेवन नहीं करता, वह उसके प्रति जुगुप्सा करता है। यह चूर्णिकार की व्याख्या है। उन्होंने बताया है कि ब्राह्मण गोमांस, मद्य, लहसुन और प्याज से जुगुप्सा करते हैं, इसलिए उन्हें नहीं खाते । वे गोमांस आदि खाने वालों से भी जुगुप्सा करते हैं।' ५५. निष्काम (अपडिण्णस्स) कामनापूर्ति के लिए संकल्प नहीं करने वाला अप्रतिज्ञ कहलाता है। 'इस तपस्या से मुझे यह फल मिलेगा'-इस आशंसा से तप नहीं करना चाहिए। स्थान, आहार, उपधि और पूजा के लिए भी कोई प्रतिज्ञा नहीं करनी चाहिए। मुनि को सर्वथा निष्काम होना चाहिए। ५६. प्रवृत्ति से दूर रहने वाले (लवावसक्किणो) इसमें दो शब्द हैं-लव और अवष्वष्की। लव का अर्थ है-कर्म। जिस प्रवृत्ति से कर्म का बंध होता है उससे दूर रहने वाला 'लव-अवष्वष्की' कहलाता है।' ५७. गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करता (गिहिमत्तेऽसणं ण भुजई) गृहस्थ के पात्र में भोजन करने से पश्चात्-कर्म दोष होता है। भिक्षु शीतोदक से जुगुप्सा करता है और गृहस्थ भोजनपात्र को साफ करने लिए शीतोदक का प्रयोग करता है, इसलिए संयमभाव की सुरक्षा के लिये यह निर्देश दिया गया है कि भिक्षु गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे ।' देखें-दसवेआलियं ६।५१ का टिप्पण । १. चूणि, पृ०६५ : अर्थो नाम मोक्षार्थः तत्कारणादीनि च ज्ञानादीनि । २. वृत्ति, पत्र ६७ : अर्यो मोक्ष: तत्कारणभूतो वा संयमः । ३. (क) चूणि, पृ० ६५ : सीतोदगं णाम अविगतजीवं अफासुगं । (ख) वृत्ति, पत्र ६७ : सीओदग इत्यादि शीतोदकम्-अप्रासुकोदकम् । ४. चूणि, पृ०६५ : प्रतिदुगुंछति णाम ण पिबति यो हि यन्नाऽसे वति स तद् जुगुप्सत्येव, जधा धीयारा गोमांस-मद्य-लसुन-पलण्डं दुगुंछति, न केवलं धोयारा गोमांसं दुगुंछति तदाशिनोऽपि जुगुप्सति । ५. (क) चूणि पृ०६५ : अपडिण्णो णाम अप्रतिज्ञः नास्थ प्रतिज्ञा भवति यया मम अनेन तपसा इत्थं णाम भविष्यतीति......आहार उवधि-पूयाणिमित्तं वा अप्रतिज्ञः ।। (ख) वृत्ति पत्र ६७ : न विद्यते प्रतिज्ञा-निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिज्ञोऽनिदान इत्यर्थः । ६. (क) चूगि पृ० ६५ : लवं कर्म येन तत् कर्म भवति तत आधवात स्तोकादपि अवसक्कति । (ख) वृत्ति, पत्र ६७ : लवं कर्म तस्मात् अवसप्पिणो ति -अवसर्पिण: यदनुष्ठान कर्मबन्धोपादानभूतं तत्परिहारिण इत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० ६५ : मा भूत् पच्छाकम्मदोषो भविस्सति । णढे हिते वीसरिते स एव सीतोदगवधः स्यादिति । Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १०६ अध्ययन २: टिप्पण ५८-६१ श्लोक ४७: ५८. मैंने परम्परा से यह सुना है (अणुस्सुयं) यह परंपरा का सूचक शब्द है। सूत्रकार कहते हैं-मैंने स्थविरों से सुना और उन्होंने अपने पूर्ववर्ती स्थविरों से सुना। इस प्रकार यह परंपरा से श्रुत है।' ५६. सब विषयों में प्रधान (उत्तर) मैथुन स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है। चूर्णिकार के अनुसार शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में यह सबसे दुर्जेय है, इसलिए यह सबसे बड़ा या प्रधान है। 'उत्तरा' के स्थान पर यह विभक्तिरहित पद है। ६०. काश्यप (महावीर या ऋषभ) के (कासवस्स) मुनि सुव्रत और अर्हत् अरिष्टनेमि के अतिरिक्त शेष सब तीर्थकर ईक्ष्वाकुऽवंश के हैं। इन सबका गोत्र काश्यप है। भगवान् ऋषभ का एक नाम कश्यप है । शेष सभी तीर्थकर उनके अनुवर्ती हैं, इसलिए वे सभी काश्यप कहलाते हैं । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने काश्यप के दो अर्थ किए हैं-भगवान् महावीर और भगवान ऋषभ ।' भगवान् ऋषभ और भगवान महावीर की साधना-पद्धति में सर्वाधिक साम्य है। दोनों की साधना-पद्धति में पांच महाव्रतों का विधान है, इसलिए काश्यप शब्द के द्वारा ऋषभ और महावीर का सूचन देना ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान् है । देखें-२०७४ का टिप्पण । ६१. आचरित धर्म का अनुचरण करने वाले मुनि (अणुधम्मचारिणो) ___अनुधर्मचारी का अर्थ अनुचरणशील होता है। गुरु ने जैसा आचरण किया वैसा आचरण करने वाला शिष्य अनुधर्मचारी होता है।' अनुधर्म शब्द में विद्यमान 'अनु' शब्द को चार अर्थों में व्युत्पन्न किया गया है-अनुगत, अनुकूल, अनुलोम, अनुरूप । अनुगत+धर्म=अनुधर्म अनुकूल+धर्म=अनुधर्म अनुलोम+धर्म=अनुधर्म अनुरूप+धर्म=अनुधर्म । आचारांग का-'से जं च आरभे, जं च णारभे, अणारखं च णारभे'-यह सूत्र 'अनुधर्म' की व्याख्या प्रस्तुत करता है । इसका तात्पर्य है-वह (कुशल) किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी का आचरण नहीं करता; मुनि उसके द्वारा अनाचीर्ण प्रवृत्ति १. (क) चूणि पृष्ठ ६६ : अनुश्रुतं स्थविरेभ्यः तैः पूर्व श्रुतम् पश्चात् तेभ्यो मयाऽनुश्रुतम् । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : मयतदनु-पश्चाद् श्रुतं एतच्च सर्वमेव प्रागुक्तं यच्च वक्ष्यमाणं तन्नाभेयेनाऽऽदितीर्थकृता पुत्रानुद्दिश्याभिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रभृतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयन्ति अतो मयतदनुश्रुतमित्यनवद्यम् । २. चूणि, पृष्ठ ६६,६७ : उत्तरा नाम शेषविषयेभ्यः ग्रामधर्मा एव गरीयांसः ।.........अथवा उत्तराः शब्दादयो ग्रामधर्मा मनुष्याणां चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-मण्डलिकानाम् । ३. (क) चणि, पृ० ६७ : काश्यपः वर्द्धमानस्वामी........ अथवा ऋषभ एव काश्यपः । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्धमानस्वामिनो वा। ४. चूणि, पृष्ठ ६७ : अणुधम्मचारिणो.........तेन चीर्णमनुचरन्ति यथोद्दिष्टम् । ५. वही, पृष्ठ ७६ : अनुगतो वा अनुकूलो वा अनुलोमो वा अनुरूपो वा धर्मः अनुधर्मः । Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११० अध्ययन २: टिप्पण ६२-६३ का आचरण न करे। निशीथ भाष्य में लोकोत्तर धर्मों को 'अनुगुरु' बतलाया गया है।' चूर्णिकार ने लिखा है-वे प्रलंब सब तीर्थंकरों, गौतम आदि गणधरों तथा जम्बू आदि आचार्यों द्वारा अनाचीर्ण हैं । वर्तमान आचार्यों द्वारा भी अनाचीर्ण हैं, इसलिए वर्जनीय हैं। इस प्रतिपादन पर शिष्य ने प्रश्न उपस्थित किया-जो तीर्थंकरों द्वारा अनाचीर्ण है, वह हम सबके लिए अनाचीर्ण है। क्या यह सही है ? गुरु ने उत्तर दिया-यह सही है। और इसलिए सही है कि लोकोत्तर धर्म 'अनुधर्म' होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आचार्यों के द्वारा जो चीर्ण, चरित, आचेष्टित है वह उत्तरकालीन शिष्यों द्वारा भी अनुचरणीय है। इसका अर्थ है-अनुधर्मता।' तीर्थकर या गुरु का कोई अतिशय है, उसमें अनुधर्मचारिता नहीं होती। अन्य साधुओं में जो सामान्य धर्मता है वहां अनुधर्म का विचार किया जाता है। श्लोक ४६: ६२. जो विषयों के प्रति नत होते हैं (दूवण) यह शब्द 'दूम' धातु से निष्पन्न है। इसका अर्थ है-संताप करने वाला। मैथुन मनुष्य को संतप्त करता है इसलिए इसे 'दूअण' कहा गया है । प्राकृत में 'मकार' के स्थान पर 'वकार' होता है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विषयों के प्रति अत्यन्त आसक्त किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-दुष्ट धर्म के प्रति उपनत, मन को दुःखी करने वाला या उपतापकारी शब्द आदि विषय ।' श्लोक ५०: ६३. श्लोक ५० प्रस्तुत श्लोक में काहिए, पासणिए, संपसारए, कयकिरिए और मामए-ये पांच शब्द विशेष विमर्श योग्य हैं । प्रस्तुत आगम के नौवें अध्ययन के सोलहवें श्लोक में संपसारी, कयकिरिए और पसिणायतणाणि-ये तीन शब्द मिलते हैं। वहां 'संपसारए' के स्थान पर 'संपसारी' तथा 'पासगिए' के स्थान पर 'पसिणायतणाणि' का प्रयोग किया गया है । चूर्णिकार ने भी वहां 'पासणियायतनानि' पाठ स्वीकार किया है। आयारो ५८७ में ये पांच शब्द प्राप्त हैं—काहिए, पासणिए, संपसारए, ममाए, कयकिरिए। वहां इनका अर्थ इस प्रकार ० काथिक-काम-कथा, शृंगार-कथा करने वाला। • पश्यक-स्त्रियों को वासनापूर्ण दृष्टि से देखने वाला। • संप्रसारक-एकान्त में स्त्रियों के साथ बातचीत करने वाला। १. आयारो २०१८३, पृ० १०७ । २. निशीथभाष्य गाथा ४८५५ : अवि य हु सम्वपलंबा, जिणगणहरमाइएहिऽणाइण्णा । लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण तव्वज्जा। ३. वही, गाथा ४८५५, चूणि पृ० ५२२ : ते य सम्वेहि तित्यकरहिं गोयमादिहिं य गणधरेहि, आदिसद्दातो जंबूणाममादिएहि आयरिएहि जाव संपदमवि अणाइण्णा, तेणं कारणेणं ते वज्जणिज्जा : आह 'तो कि जं जिणेहि अणाइण्णा तो एयाए चेव आणाए वज्जणिज्जा?' ओमित्युच्यते, लोउत्तरे जे धम्मा ते अणुधम्मा। किमुक्तं भवति ? जं तेहिं गुरूहि चिण्णं चरिए आचेट्ठियं तं पच्छिमेहि वि अणुचरियव्वं, जम्हा य एवं तम्हा तेहि पलंबा ण सेविया, पच्छिमेहि वि ण सेवियव्वा । अतो ते वज्जणिज्जा । एवं अणुधम्मया भवति । ४. वही, गाथा ४८५६, चूणि भाग ३, पृ० ५२२ : कहं ? उच्यते - गुरु तीर्थकरः । अतिशयास्तस्यैव भवंति नान्यस्य । अत्रानुधर्मता न चिन्त्यते । ५. चूणि, पृष्ठ ६७ : दूपनताः शाक्यादयः ते हि मोक्षाय प्रपन्ना अपि विषयेषु प्रणता रसादिषु । ६. वृत्ति, पत्र ६६ : दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिनस्तीथिकाः यदि वा-दूमण त्ति दुष्टमनःकारिण उपतापकारिणो वा शब्दा क्यो विषयास्तेषु । Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ • मामक - ममत्व करने वाला । ० कृतक्रिय — स्त्रियों को वश में करने के लिए साज-श्रृंगार करने वाला । ये सारे अर्थ स्त्री से संबंधित हैं । निशीथ भाष्य, चूर्णि आदि में इनके अर्थ भिन्न हैं । १११ काहिए इसका अर्थ है - कथा से आजीविका करने वाला । आख्यानक, गीत, शृंगारकाव्य, दंतकथा तथा धर्म, अर्थ और काममिश्रित संकीर्ण कथा करता है वह काथिक कहलाता है । निशीथ चूर्णि के अनुसार जो देशकथा, भक्तकथा आदि कथा करता है वह काथिक है । # जो धर्मकथा भी आहार, वस्त्र, पात्र आदि की प्राप्ति के लिए करता है, जो यश को चाहने वाला है, पूजा और वन्दना का व है, जो सूत्रपौषी और अर्थ का पूरा पालन नहीं करता, जो रात-दिन धर्मकथा पढ़ने और कहने में लगा रहता है, जिसका कर्म केवश धर्मकथा करना ही है, वह काथिक कहलाता है। आज के शब्दों में उसे कथावाचक या कथाभट्ट कहा जा सकता है। उक्त व्याख्याओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि संयमी मुनि को धर्मकथा के अतिरिक्त सभी प्रकार की कथाओं का वर्जन करना चाहिए । धर्मकथा स्वाध्याय का पांचवां प्रकार है। उससे मनुष्य संबोधि को प्राप्त होता है, तीर्थ की अव्युच्छित्ति होती है, शासन की प्रभावना होती है। उसके फलस्वरूप कर्मों की निर्जरा होती है, इसलिए वह की जा सकती है। किन्तु वह भी हर समय नहीं, उस सीमा में ही करनी चाहिए जिससे अवश्यकरणीय कार्य-अध्ययन, सेवा आदि में विघ्न उपस्थित न हो । पासणिए यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है - साक्षी । देशी नाममाला में साक्षी के अर्थ में 'पासणिभ' और 'पासाणिब, ये दो शब्द प्राप्त हैं।" १. आधारांवृत्ति पत्र १११ । २. वृत्ति पत्र, ७० कथया चरति कायिकः । ३. निशी १३ / ५६ भूमि पृ० ३१८ समझायादिकरण ४. निशीय माध्य, गाथा ४३४३-५५ पूर्ण पृष्ठ ११०,३२२ अध्ययन २ टिप्पण ६३ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'पासणिए' शब्द की व्याख्या प्राश्निक शब्द के आधार पर की है। चूर्णिकार ने प्रालिक का अर्थ- गृहस्थ के व्यवसाय और व्यवहार के संबंध में निर्णण देने वाला - किया है। इसी सूत्र की ९ / १६ की चूर्णि में इसका अर्थ इस प्रकार है- प्रश्न का निर्णय देने वाला, लौकिक शास्त्रों के भावार्थ का प्रतिपादन करने वाला ।" वृत्तिकार ने राजा आदि के इतिहास - ख्यापन तथा दर्पण, अंगुष्ठप्रश्न आदि विद्या के द्वारा आजीविका करने वाले को प्राश्निक जोगे मोतुं जो देसकहादि कहातो कति सो काहितो। आहारादीपट्टा, जसहे अहव पणनिमित्तं । तक्कम्मो जो धम्मं कति सो काहिलो होति ॥ कामं खलु धम्मकहा, सज्झायस्सेव पंचमं अंगं । अव्वोच्छित्त ततो, तित्थस्स पभावणा चेव ॥ तह वियण सवाल, धम्मका जीइ सब्वपरिहाणी । नाउं व खेत्तकालं, पुरिसं च पवेदते धम्मं ॥ वत्थपातादिनिमित्तं जसरथी वा वंदना विपूयाणिमितं वा सुत्तस्यपरिसि तदेवास्य केवलं कर्म तवकम् एवं विधो काहितो भवति । ..धम्मक पि जो करेति आहाराविणिमितं वावारो अहो य रातो य धम्मका दिपठणकणव सव्वकालं धम्मो ण चोदग आह— "णणु सञ्झाओ पंचविधो वायणादिगो । तस्स पंचमो भेदो धम्मकहा। तेण भव्वसत्ता पडिबुज्भंति, तित्थे य अग्वोच्छित्ती पभावणाय भवति, अतो ताओ णिज्जरा चैव भवति, कहं काहियत्तं पडिसिज्झति ? कव्वा जतो पडलेहणादि संजमजोगाण सुत्तत्थपोरिसीण य आयरियगिलाणमादी किच्चाण य परिहाणी भवति, अतो न काहियत्तं कायवं । ५. देशीनाममाला ६।४१ : पासणिओ पासाणिओ अ सक्खिम्मि || ६. णि, पृ० ६७ ७. बड़ी, पृ० १७८ पासमिओ नाम गिहीणं व्यवहारेष प्रस्तुतेषु पणियगादि वा प्राश्निको न भवति । पासणियो नाम यः प्रश्नं इन्वति तद्यथा-व्यवहारेष (शास्त्रेषु) वा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११२ कहा है। इसी सूत्र की १/१६ की वृत्ति में वृत्तिकार ने चूर्णिकार का अनुसरण किया है।' निशीथ भाष्य और चूर्णि में इसका अर्थ कुछ विस्तार से मिलता है। एक जैसी प्रतीत होने वाली वस्तुओं का विभाजन करना, दो प्रतियोगियो या प्रतिस्पर्धियों के विवाद का निपटारा करना, लौकिक शास्त्रों के सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन करना, अर्थशास्त्र की व्याख्या करना, सेतुबंध आदि का तथा स्त्रीवेद, श्रृंगारकथा आदि ग्रन्थों का विवेचन करना - इन सबको करने वाला 'पास' होता है।' आप्टे के 'संस्कृत-इंग्लिश कोष' में प्राश्निक शब्द के ये अर्थ मिलते हैं - ( १ ) An examiner ( परीक्षक ), An arbitrator ( मध्यस्थ) A judge (न्यायाधीश), An umpire (निर्णायक ), अहो प्रयोगाभ्यंतर प्राश्निकाः । तद् भगवत्या प्राश्निकपदमभ्यादितव्यम् । संपसारए जो मुनि वर्षा आदि के संबंध में तथा पदार्थों के मूल्य बढ़ने घटने संबंधी बात बताता है वह संप्रसारक होता है । यह चूर्णि की व्याख्या है ।" प्रस्तुत सूत्र के ८१६ में चूर्णिकार ने गृहस्थों के असंयममय कार्यों का समर्थन करने वाले तथा उनका उपदेश देने वाले को संप्रसारी माना है ।" वृत्तिकार ने संप्रसारक का अर्थ वृष्टि, अर्थकाण्ड आदि की सूचक कथा का विस्तार करने वाला किया है। प्रस्तुत सूत्र के ५ की वृत्ति में संप्रसारण का अर्थ है-- पर्यालोचन या उपदेश-दान । मुनि गृहस्थों के साथ सांसारिक पर्यालोचन न करे और उन्हें असंयमप्रवृत्ति का उपदेश न दे। * असंयममय कार्य का विवरण निशीथ भाष्य और चूर्णि में मिलता है। गृहस्थ को निष्क्रमण और प्रवेश का मुहूर्त्त देना, सगाइ कराना, 'विवाहपटल' आदि ज्योतिष ग्रंथों के आधार पर विवाह का मुहूर्त्त देना, 'अर्थकांड' आदि ग्रंथों के आधार पर द्रव्य के क्रयविक्रय का निर्देश देना - ये सब असंयममय कार्य हैं। इन्हें करने वाला संप्रसारी होता है । " १. वृत्ति पत्र ७० प्रश्नेन राजाविकिवृत्तरूपेण दर्पणा विप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकः । २ वृत्तपत्र १८१ : प्रश्नस्य - आदर्श प्रश्नादेः आयतनम् आविष्करणं कथनं यथा विवक्षितप्रश्न निर्णयनानि यदि वा प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यव्हारे मिध्याशास्त्रगतसंशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितायनद्वारेणायतनानि निर्णयानीति । ३. निशीय माध्य, गावा ४३६-४३५०, भूमि, पृष्ठ २६६ श्रध्ययन २ : टिप्पण ६३ लोइयवहारे लोए सत्थादिए कन्तु । पासणियतं कुगतो, पारात्रि सो व नाययो ॥ साधारणे विरेगं, साहति पुत्तपडए य आहरणं । दोह य एगो पुसो, दो महिलाओ एस्स | जिस अर्थ वा लोइयान सत्यार्थ भाववसाहत एनियादी उत्तरे ॥ छंदा दियाणं लोगसत्याणं सुत्तं कहेति अत्थं वा, अहवा अत्थं व ति अत्थसत्थं सेतुमादियाण वा बहूणे कव्वाणं, कोहल्ल याण य, वेसियमादियाण य भावत्थं पसाहति । छलिय सिंगारकहा त्थोवण्णगादी । ४. चूर्णि, पृ० ६७ : संपसारको नाम सम्प्रसारकः, तद्यथा - इयं वरिसं कि देवो वासिस्सति ण वत्ति ? कि मंडं अग्धहिति वा न वा ? ५. वही, पृ० १७८ : संपसारगो णामं असंजताणं असंजमकज्जेसु साम छंदेति उवदेसं वा । ६. वृत्ति पत्र ७० संप्रसारकः देवष्ट्यर्धकाण्डादिचकवा विस्तारकः । ७. वृत्ति, पत्र १८१ : सम्प्रसारणं -- पर्यालोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः एवमसंयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशदानम् । ८. निशीथ भाष्य, गाथा ४३६१-४३६२ : अस्संजयाण भिक्खु, कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु । जो देती सामत्थं, संपसारओ सो य णायव्वो । चूर्णि, पृष्ठ ४०० : ........ आवाहो विडिया अत्मादिए गये वाह विवाह विषयक था। गुरुलाघवं कहते, गिहियो व पसारीओ ॥ गिहीणं असंजयाणं गिहाओ दिसि जत्तए वा णिग्गमयं देति । गिहि (स्स) जत्ताओ वा आगयस्स पावेसं देति । सुहं दिवसे कहेलि मा वा एयरस देहि इमस वा देहि विवाहाविएहि जोतिसह विवाहयेदेति । इमं व विवाह, दमं वा किणाहि । एवमादिए कम्जेसु गिहीनं गुरुलाप कहें तो संपसारसणं पावति Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११३ अध्ययन २: टिप्पण ६४ कयकिरिए गृहस्थ कोई आरंभ करता है, प्रवृत्ति या निर्माण करता है, संयमी को उसमें तटस्थ रहना चाहिए-गृहस्थ के आरंभ की प्रशंसा या अनुमोदना नहीं करनी चाहिए। जो ऐसा करता है उसे 'कृतक्रिय' कहा जाता है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-संयमपूर्ण क्रिया करने वाला किया है।' मामए मेरा देश, मेरा गांव, मेरा कुल, मेरा पुरुष-इस प्रकार ममत्व करने वाला 'मामक' कहलाता है । दशवकालिक सूत्र की चूलिका में यह निर्देश है कि मुनि ग्राम आदि में ममत्व न करे। निशीथभाष्य चूणि में 'मामक' की विशद परिभाषा प्राप्त होती है। जो व्यक्ति ऐसा कहता है-मेरे उपकरणों का कोई दूसरा व्यक्ति उपयोग न करे। मेरी स्थंडिल भूमि में कोई दूसरा न जाए। मेरे आहार, पानी आदि का कोई उपभोग न करें-वह मामक होता है। उसका अपने समस्त भोगोपभोग के प्रति ममत्व है, इसीलिए प्रतिषेध करता है। जो यह कहता है-'यह कितना सुन्दर देश है । यह वृक्ष, कुए, सरोवर, तालाब आदि से युक्त है। ऐसा देश दूसरा नहीं है । यहां सुखपूर्वक रहा जा सकता है। यहां स्थान, भक्त-पान, उपकरण आदि की उपलब्धि सुलभ है। यहां अनेक प्रकार के धान्य निष्पन्न होते हैं । यहां दूध की प्रचुरता है। यहां के लोगों का वेश और शरीर सुंदर है । यहां के लोग आभिजात्य और नवीन हैं । वे साधुओं के भक्त हैं, उपद्रवकारी नहीं हैं।' इस प्रकार की भावना अभिव्यक्त करने वाला भी 'मामक' होता है।' प्रस्तुत आगम के ४।१२ में "कुशील" शब्द की व्याख्या में चूर्णिकार ने काथिक, प्राश्निक, संप्रसारक और मामक को कुशील माना है। श्लोक ५१: ६४. (छण्णं च.........पगास माहणे) चूर्णिकार ने छन्न का अर्थ माया, प्रशंसा का अर्थ प्रार्थना या लोभ, उत्कर्ष का अर्थ मान और प्रकाश का अर्थ क्रोध किया १. चूणि, पृ०६७ : कतकिरिओ णाम कृतं परैः कर्म पुट्ठो अपुट्ठो वा भणति शोभनमशोभनं वा एवं कर्तव्यमासिद् न वेति वा । २. वृत्ति, पत्र ७० : कृता-स्वभ्यस्ता क्रिया-संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियः । ३. चूणि, पृ० ६५ : मामको णाम ममीकारं करोति देशे ग्रामे कुले वा एगपुरिसे वा। (ख) वृत्ति, पत्र ७० : मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहाग्रही । ४. दशवकालिक चूलिका २१८ : गामे कुले वा नगरे व देसे । ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ॥ ५.निशीथ भाष्य गाथा ४३५६,४३६० : आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे। पडिसेहं च ममत्तं, जो कुणति मामतो सो उ॥ अह जारिसओ देसो, जे य गुणा एत्य सस्सगोणादी। सुंदरअभिजातजणो, ममाइ निक्कारणोवयति ॥ निशीथ चूणि, पृ० ४०० ....... .. उवकरणादिसु जहासंभवं पडिसेहं करेंति, मा मम उवकरणं कोइ गेण्हउ । एवं अण्णेसु वि वियारभूमिमादिएसु पडिसेहं सगच्छपरगच्छयाणं वा करेति । आहारा दिएसु चेव सब्वेसु ममत्तं करेति । भावपडिबंधं एवं करेंतो मामओ भवति । अह त्ति अयं जारिसो देसो रुक्ख-वावि-सर-तडागोवसोभितो एरिसो अण्णो णस्थि । सुहविहारो। सुलभवसहिभत्तोवकरणादिया य बहू गुणा । सालिक्खुमादिया य बहू सस्सा णिप्फज्जंति य । गो-महिस-पडरत्ततो य पउरगोरसं । सरीरेण वत्यादिएहि सुंदरो जणो, अभिजायत्तणतो य कुलीणो, ण साहुसुवद्दवकारी, एवमादिएहिं गुणेहिं भावपडिबद्धो णिक्कारणिओ वा वयति-प्रशंसतीत्यर्थः । ६. चूणि, पृ० १०७ : कुत्सितसोला कुशीला पासत्थादयः पंच णव वा।..."एते य पंच, इमे य चत्तारि-काधिय-पासणिय-संपसारग मामगा। Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११४ अध्ययन २ टिप्पण ६५-६६ है । उन्होंने बताया है कि अन्तर्गत क्रोध नेत्र, मुख आदि के विकार से प्रगट हो जाता है इसलिए क्रोध के लिए प्रकाश शब्द का प्रयोग किया गया है।" वृत्तिकार ने प्रत्येक शब्द का हार्द समझाया है । माया के द्वारा अपने अभिप्राय को छिपाया जाता है, इसलिए उसका नाम 'छन्न' है । 'पसंस' पद का संस्कृत रूप प्रशंस्य मानकर वृत्तिकार ने लिखा है कि लोभ सबके द्वारा प्रशस्य माना जाता है, इसलिए उसका नाम प्रशस्य है | मान उत्कर्ष की भावना उत्पन्न करता है, इसलिए उसका नाम उत्कर्ष है । क्रोध अन्तर में रहता हुआ भी मुख, दृष्टि और भौंहें आदि के विकार से प्रगट होता है, इसलिए उसका नाम प्रकाश है ।" प्रस्तुत सूत्र के १।३९ में भी लोभ आदि के लिए इनसे भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है । प्रस्तुत सूत्र के ९।११ में क्रोध, मान, माया और लोभ के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है । भगवती १२११०३-१०६ में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची शब्द संकलित हैं। वहां उत्कर्ष शब्द मान के पर्यायवाची शब्दों में उल्लिखित है । शेष शब्द वहां उपलब्ध नहीं हैं । ६५. घुत का (घुवं इसका अर्थ है - प्रकंपित करना । कर्मबंध को प्रकंपित करने वाला आचरण धुत कहलाता है । ६६. सम्यक विवेक (सुविवेयं) विवेक का अर्थ है - विवेचन या पृथक्करण । घर परिवार आदि को छोड़ना बाह्य विवेक है और आन्तरिक दोषों- कषाय आदि को छोड़ना आन्तरिक विवेक या कषाय-विवेक है। चूर्णिकार ने सुविवेक, सुनिष्क्रान्त और सुप्रव्रज्या को पर्यायवाची माना है ।" श्लोक ५२ : ६७. स्नेह रहित (अणिहे) भूमिकार ने इसका संस्कृतरूप 'अति' किया है। उनके अनुसार मुनि परिषद्दों से निहत नहीं होता, उपस्या करने में शक्तिहीनता का परिचय नहीं देता, इसीलिए वह अनिहत कहलाता है ।" वृत्तिकार ने 'अनिह' का मूल अर्थ अस्निह और वैकल्पिक अर्थ उपसर्गों से अपराजित किया है ।" ६८. आत्महित में रत (सहिए) ' और वृत्ति दोनों में 'सहिए' पद के 'सहित' और 'स्वहित' दोनों अर्थ किए गए है जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र में सम्यक् प्रकार से स्थापित होता है वह 'सहित' और जो आत्मा में स्थापित होता है वह 'स्वहित' कहलाता है । आयारो ( ३।३८, ६७, ६६) में 'सहिए' शब्द का प्रयोग मिलता है। उसके चूर्णिकार ने वही अर्थ किया है जो सूत्रकृतांग की १, चूणि, पृ० ६८ : द्रव्यच्छन्नं निधानादि, भावच्छन्नं माया । भूशं शंसा प्रार्थना लोभः । उक्कसो मानः । प्रकाशः क्रोधः । स हि अन्ततोऽपि नेत्र-वपत्रादिभि । २. वृत्ति, पत्र ७० छन्नंति ति माया तस्याः स्वाभिप्रायप्रच्छादनरूपत्वात् तां न कुर्यात्, घशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः तथा प्रशस्यते - सर्वैरप्यविगानेनाद्रियत इति प्रशस्यो- लोभस्तं च न कुर्यात्, तथा जात्यादिभिर्मदस्थानैर्लघुप्रकृति पुरुषमुत्कर्षयतीत्युकर्षको मानस्तमपि न कुर्यादिति सम्बन्ध:, तथाऽन्तव्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टि मङ्गविकारः प्रकाशोभवतीति प्रकाश: क्रोधः । ३ चूर्णि पृ०१८ हदारादिभ्यो विवेक बाह्य आभ्यन्तरस्तु कषायविवेकः ... सुविवेगोत्ति वा सुणिक्खंतं ति वा सुपव्वज्जत्ति वाए । ४. चूर्ण, पृ० ६८ : अनिहो नाम अनिहतः परोषहैः तपः कर्मसु वा नात्मानं निधयति । ५. वृति पत्र ६७ इत्यादिति इति निह न निहा अस्निहः सर्वत्र ममत्वरहित इत्यर्थः परिवा परीषहोपनियते इति निः, न निहनि उपसरपराजितइत्यर्थः । " ६. ०६८ मानदिषु सम्य हितः सहितः जाणावीहि में आस्मनि वा हितः स्वहितः । ७. वृत्ति पत्र ७० सह हितेन वर्तत इति सहितः सहितो को या ज्ञानादिभिः स्वहितः आत्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११५ अध्ययन २ : टिप्पण ६९-७१ चूणि में प्राप्त है। योग ग्रंथों में 'सहित' का प्रयोग कुंभक-प्राणायाम के संदर्भ में भी मिलता है। 'सहितकुंभक' सगर्भ और निर्गर्भ-दोनों प्रकार का होता है । जो मंत्र-जप, संख्या और परिणाम के साथ किया जाता है वह सगभं और जो मंत्र-जप आदि के बिना किया जाता है वह निर्गर्भ होता है।' 'सहितकुंभक' करने वाला आत्मस्थ हो जाता है, इसलिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त होना तथा कुंभक की अवस्था में होना-इन दोनों के फलितार्थ में कोई भेद नहीं प्रतीत नहीं होता। हो सकता है, 'सहित' का अर्थ श्वास निरोध या श्वास को शान्त करना रहा हो और व्याख्या-काल में उसकी विस्मृति हो गई हो । युक्त शब्द का अर्थ जो गीता में है वह आगम सूत्रों के व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है । इसी प्रकार 'सहित' शब्द का अर्थ भी व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध न रहा हो। जिस परंपरा में महाप्राणध्यान की साधना का उल्लेख प्राप्त है वहां 'सहिए' का कुंभक अर्थ ही रहा हो-इसमें कोई संदेह नहीं है। ६६. (आतहितं.........) मुनि को समाहित इन्द्रिय वाला क्यों होना चाहिए ? उसे इन्द्रिय-विषयों के प्रति रुष्ट और तुष्ट क्यों नहीं होना चाहिए ? समभाव की साधना बहुत कठिन है, उसके लिए प्रयत्नशील क्यों होना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर में सूत्रकार ने बताया कि यह दुर्लभ अवसर है । यह जो प्राप्त है वह बार-बार नहीं मिलता। इस अवसर में आत्महित साधा जा सकता है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस दुर्लभता का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है-स होना, पांच इन्द्रियों की प्राप्ति, मनुष्य जन्म, आर्यदेश, प्रधान कुल, अच्छी जाति, रूप आदि की संपन्नता, पराक्रम, दीर्घ आयुष्य, ज्ञान, सम्यक्त्व और शील की संप्राप्ति-ये सब दुर्लभ हैं । आत्महित की साधना के लिए इन सबकी अपेक्षा है। इसलिए आत्महित साधना सहज सुलभ नहीं है।' श्लोक ५५ : ७०. संवृत कर्म वाले (संवुडकम्मस्स) संवर महावीर की साधना-पद्धति का मौलिक तत्त्व है । अपाय का निरोध किए बिना मनुष्य उससे मुक्त नहीं हो सकता। सवर का अर्थ है-अपाय का निरोध। संवर की साधना करने वाला संवृत होता है। हिंसा आदि आस्रव, इन्द्रियां, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा मन, वचन और शरीर की चंचलता-इन सभी अपायों का निरोध करने वाला संवृतकर्मा कहलाता ७१. अज्ञान के द्वारा (अबोहिए) दुःख का स्पर्श अज्ञान से होता है और उसका क्षय संयम से होता है। प्रश्न होता है कि दुःख का स्पर्श अज्ञान से कैसे हो सकता है ? प्रज्ञापना सूत्र (२३१६, १०) में बतलाया गया है कि कर्म का बंध राग और द्वेष-इन दो कारणों से होता है। राग और द्वेष का प्रयोग असंयम है । असंयम से स्पृष्ट दुःख संयम से क्षीण होता है क्या यह प्रतिपादन अधिक संगत नहीं होता ? कर्मबंध का विचार दो दृष्टिकोणों में किया जाता है१. कर्म का बंध किन कारणों से होता है ? २. फर्म का बंध कैसे होता है ? १. आचारांग चूणि, पृ० ११४ । २. घेरण्ड संहिता ५१४६ : सहितो द्विविधः प्रोक्तः प्राणायाम समाचरेत् । सगो बीजमुच्चार्य, निगर्भो बीजवजितः ॥ ३. (क) चूणि पृ०६८। (ख) वृत्ति पत्र ७०। ४. चूर्णि, पृ० ६६ : संवृतानि यस्य प्राणवधादीनि कर्माणि स भवति संवुडकम्मा। इन्द्रियाणि वा यस्य संवृतानि स भवति संवृतः, निरुद्धानीत्यर्थः । यस्य वा यत्नवतः चकमणादीणि कम्माणि संवृतानि, अथवा मिथ्यादर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगा यस्य संवृता भवन्ति स संवृतकर्मा । Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११६ अध्ययन २: टिप्पण ७२-७५ प्रस्तुत स्थल में कर्म का बंध कैसे होता है- इसका निर्देश मिलता है। इसकी स्पष्ट व्याख्या प्रज्ञापना सूत्र में मिलती है। ज्ञानावरण कर्म का अनुभव (वेदन) करने वाला जीव दर्शनावरणीय कर्म का अनुभव करता है। दर्शनावरणीय कर्म का अनुभव करने वाला दर्शन-मोहनीय कर्म का अनुभव करता है । दर्शन-मोहनीय कर्म का अनुभव करने वाला मिथ्यात्व का अनुभव करता है-अतत्त्व में तत्त्व का अध्यवसाय करता है । मिथ्यात्व के अनुभव से आठ कर्मों का बंध होता है।' कर्मबंध की इस प्रक्रिया में कर्मबंध का प्रथम अंग ज्ञानावरण का उदय या अज्ञान है । इस आधार पर अज्ञान से दुःख का स्पर्श होता है, यह कहना संगत है। तालाब के नाले बन्द कर दिए जाते हैं तब उसमें रहा हुआ जल हवा और सूर्य के ताप से सूख जाता है। इसी प्रकार कर्म के आस्रव-द्वारों का निरोध कर देने पर, इन्द्रियों का संयम होने पर, स्पृष्ट दुःख अपने आप विनष्ट हो जाता है। . ... ७२. दुःख (कर्म) (दुक्खं) __आगम साहित्य में दुःख का प्रयोग कर्म और दुःख-इन दो अर्थों में होता है। कर्म दुःख का हेतु है, इसलिए उसे भी दुःख कहा जाता है । चूर्णिकार ने यहां दुःख का अर्थ कर्म किया है।' ७३. स्पृष्ट होता है (पुट्ठ) कर्म की तीन प्रारम्भिक अवस्थाएं ये हैं १. बद्ध--राग-द्वेष के परिणाम से कर्म-योग्य पुद्गलों का कर्मरूप में परिणत होना। २. स्पृष्ट-कर्म-पुद्गलों का आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लेष होना। ३. बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट-कर्म पुद्गलों का प्रगाढ़ बंध होना।' चूर्णिकार ने कर्म की चार अवस्थाएं निर्दिष्ट की हैं१. बद्ध, २. स्पृष्ट, ३. निधत्त, ४. निकाचित ।' श्लोक ५६ : ७४. स्त्रियों के प्रति (विण्णवणा) स्त्रियां रति-काम का विज्ञापन करती हैं अथवा मोहातुर पुरुषों के द्वारा स्त्रियों के समक्ष रति-काम का विज्ञापन किया जाता है, इसलिए विज्ञापना' शब्द का प्रयोग स्त्री के अर्थ में किया गया है।' ७५. अनासक्त हैं (अजोसिया) चूर्णिकार ने 'जुषी प्रीति-सेवनयोः' इस धातु से इसको निष्पन्न कर इसका अर्थ-अनादर करते हुए किया है।" इन्द्रियों के पांचों विषय स्वाधीन होते हैं । चूर्णिकार ने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है पुप्फ-फलाणं च रसं सुराए मंसस्स महिलियाणं च । जाणंता जे विरता ते दुक्करकारए वंदे ॥ पुष्प, फल, मदिरा, मांस और स्त्री के रस को जानते हुए जो उनसे विरत होते हैं वे दुष्कर तप करने वाले हैं । उनको मैं १. पन्नवणा २३॥३॥ २. चूणि, पृष्ठ ६६ : तं पंचणालिबिहाडिततडागदृष्टान्तेन निरुद्धसु च नालिकामुखेषु वाता-ऽऽतपेनापि शुष्यते, ओसिच्चमाणं सिग्यतरं सुक्खति, एवं संयमेन निरुद्धाश्रवस्य पूर्वोपचितं कर्म क्षीयते। ३. वही, पत्र ६६ : दुक्खमिति कम्मं । ४. प्रज्ञापना २३।१५, वृत्ति, पत्र ४५६ । ५. चूणि, पृ०६६ : पुटुंणाम बद्ध-पुट्ठ-णिधत्त-णिकाइतं । ६.(क) चूणि, पृष्ठ ७० : विज्ञापयन्ति रतिकामाः विज्ञाप्यन्ते वा मोहातुरैविज्ञापनाः स्त्रियः। (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : कामाथिभिविज्ञाप्यन्ते यास्तदथिन्यो वा कामिनं विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः स्त्रियः । ७. चूणि पृ०७० । 'जुषी प्रीति-सेवनयोः' अभूषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११७ अध्ययन २ : टिप्पण ७६-७८ वंदन करता हूं।' वृत्तिकार ने 'अजुष्टा' संस्कृत रूप देकर इसका अर्थ असेवित किया है।' ७६. ऊर्ध्व (मोक्ष) की ओर (उड्ढे) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मोक्ष और मोक्षसुख।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल मोक्ष किया है। उत्तराध्ययन सूत्र (६/१३) में 'बहियाउड्डमादाय' में भी 'उड्ड' शब्द का यही अर्थ है । ऊवं का शाब्दिक अर्थ है-ऊपर । जैन मत के अनुसार लोक के अत्यन्त ऊर्ध्वभाग में मुक्तिशिला है । वही मोक्ष है, इसीलिए ऊर्ध्व शब्द मोक्ष का वाचक बन गया। अन्य दर्शनों में जो 'पर' शब्द का अर्थ है, वही अर्थ जैनदर्शन में 'ऊर्व' का है। श्लोक ५७: ७७. श्रेष्ठ (रत्न, आभूषण आदि) को (अग्गं) इसका अर्थ है उत्तम । जो वर्ण, प्रभा और प्रभाव से उत्तम होता है उसे अग्ग (अग्र) या श्रेष्ठ कहा जाता है । वह वस्त्र, आभूषण, हाथी, घोड़ा, स्त्री या पुरुष-कुछ भी हो सकता है । जिस क्षेत्र में जो द्रव्य प्रधान होता है, वह श्रेष्ठ कहलाता है।' ७८. श्लोक ५७ : प्रस्तुत श्लोक में महाव्रतों के साथ रात्रीभोजन-विरमण का भी उल्लेख है । स्थानांग (५/१) और उत्तराध्ययन (२३/२३) के अनुसार भगवान महावीर ने पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया था। वहां रात्रीभोजन-विरमण का उल्लेख नहीं है। स्थानांग (९।६२) में रात्रीभोजन विरमण का उल्लेख भी नहीं मिलता। प्रस्तुत श्लोक से ज्ञात होता है कि रात्रीभोजन-विरमण की व्यवस्था भी पांच महावतों की व्यवस्था के साथ जुड़ी हुई है। छठे अध्ययन के अठाइसवें श्लोक से भी यह तथ्य पुष्ट होता है। वहां बताया गया कि भगवान् महावीर ने स्त्री और रात्रीभोजन का वर्जन किया-'से वारिय इत्थी सराइभत्ते' । प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने पूर्व दिशा निवासी और पश्चिम दिशा निवासी आचार्यों के अर्थभेद का उल्लेख किया है । जो अनुवाद किया गया है वह पूर्व दिशावासी आचार्य की परम्परा के अनुसार है। पश्चिम दिशावासी आचार्यों के अनुसार प्रस्तुत श्लोक का अर्थ इस प्रकार होता है-व्यापारियों द्वारा लाये गए रत्नों को राजा या उनके समकक्ष लोग ही धारण करते हैं । किन्तु इस संसार में रत्नों के व्यापारी और खरीददार कितने हैं ? इसी प्रकार परम महाव्रत (रत्नों की भांति) अत्यन्त दुर्लभ हैं। उनके उपदेष्टा और धारण करने वाले कितने लोग हैं ? बहुत कम हैं। भगवान महावीर के समय में जैन मुनियों का विहार-क्षेत्र प्रायः पूर्व में ही था। वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु के समय द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा। उस समय साधुओं के कुछ गण दक्षिण भारत में चले गए और कुछ गण मालव प्रदेश में । उज्जैनी जैन धर्म का मुख्य केन्द्र बन गया। वीर निर्वाण की तीसरी शताब्दी में महाराज संप्रति ने सौराष्ट्र, महाराष्ट्र आदि पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उनकी प्रेरणा से उन प्रदेशों में जैन मुनि विहार करने लगे और वे प्रदेश जैन धर्म के मुख्य केन्द्र बन गए। वहां विहार करने वाले आचार्य ही पश्चिम दिशा निवासी हैं । १. चूणि, पृ० ७० । २. वृत्ति, पत्र ७२ : अजुष्टाः-असेविताः। ३. चूणि, पृ०७० : ऊवमिति मोक्षः तत्सुखं वा । ४. वृत्ति, पत्र ७२ : ऊर्ध्वमिति मोक्षम् । ५. (क) चूणि, पृष्ठ ७० : यदुत्तमं किञ्चित् तदग्गं, तद्यथा वर्णतः प्रकाशत प्रभावतश्चेत्यादि, तच्च रत्नादि तत्तु द्रव्यं वणिम्भिरानीतं राजानो धारयन्ति तत्प्रतिमा वा तत्तु वस्त्रनाभरणादि वा, तथैव चाश्वो हस्ती स्त्री पुरुषो वा, यो वा यस्मिन् क्षेत्रे प्रधान स तत्र तत् प्रधानं द्रव्यं धारयति । (ख) वृत्ति, पत्र ७२। ६. चूणि, पृष्ठ ७० : पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः। प्रतीच्यापरदिग्निवासिनस्त्वेवं कथयन्ति'... "धारयन्ति शतसाहस्राण्य्र्घनयाणि वा राजान एव धारयन्ति, तत्तल्या तत्प्रतिमा वा। कियन्तो लोके हस्तिवणिजः क्रायिका वा ? एवं परमाणि महन्वताणि रत्नभूतान्यतिदुर्वराणि, तेषामल्पा एवोपवेष्टारो धारयितराश्च । Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सूर्यगडौ १ अध्ययन २ : टिप्पण ७९-८१ श्लोक ५८ ७६. सुख के पीछे दौड़ने वाले (सायाणगा) जो ऐहिक और पारलौकिक अपायों से निरपेक्ष होकर केवल सुख के पीछे दौड़ते हैं, वे 'सातानुग' कहलाते हैं।' ८०. आसक्त हैं (अज्झोववण्णा) जो ऋद्धि, रस और साता-इन तीन गौरवों में अत्यन्त आसक्त होते हैं वे अध्युपपन्न कहलाते हैं।' ८१. कृपण के समान ढीठ हैं (किवणेण समं पगम्भिया) चूर्णिकार ने 'किमणेण' पाठ मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कोई व्यक्ति अतिचारों का सेवन करता है। दूसरा उसे अतिचार-निवृत्ति की प्रेरणा देता है तब वह कहता है-इस छोटे से दोष-सेवन से क्या होना-जाना है ? वह प्रत्येक अतिचार की उपेक्षा करता रहता है। धीरे-धीरे उसकी पापाचरण की वृत्ति बढ़ती जाती है और फिर वह बड़ा पाप करने में भी नहीं हिचकता। एक संस्कृत कवि ने कहा है-'करोत्यादौ तावत् सधृणहृदयः किंचिदशुभं ।" चूर्णिकार ने इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है-एक व्यक्ति सफेद कपड़े पहने हुए था। उस पर कुछ कीचड़ लग गया। व्यक्ति ने सोचा-इस छोटे से धब्बे से क्या अन्तर आएगा? उसने उसकी उपेक्षा कर दी। उसे उसी समय धोकर साफ नहीं किया। फिर कभी उसी वस्त्र पर स्याही, श्लेष्म, चिकनाई आदि लग गई। उसने उसकी भी उपेक्षा कर दी। धीरे-धीरे वस्त्र अत्यन्त मलिन हो गया। कमरे के फर्श पर किसी बच्चे ने मल-मूल विसजित किए। उसे वहीं घिस डाला। इसी प्रकार श्लेष्म, नाक का मेल आदि भी वहीं डालते गए और घिसते गए। धीरे-धीरे गंदगी बढ़ती गई। एक दिन ऐसा आया कि सारा कमरा गन्दगीमय हो गया और उससे अत्यन्त दुर्गन्ध फूटने लगी। इसी प्रकार जो मुनि अपने चारित्र पटल पर लगने वाले छोटे से धब्बे की उपेक्षा करता है वह अपने संपूर्ण चारित्र को गंवा देता है। चूणिकार ने दो दृष्टान्तों की सूचना दी है-(१) भद्रक महिष और (२) आम्रभक्षी राजा (उत्तराध्ययन ७/११)।' १. (क) चूणि, पृ० ७० : सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा इहलोगपरलोगनिरवेक्खा । (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : सात-सुखमनुगच्छन्तीति सातानुगाः-सुखशीला ऐहिकामुष्मिकापायभीरवः । २. (क) चूणि, पृ०७० : एवं इड्-िरस-सायागारवेसु अज्झोववण्णा अधिकं उपपण्णा अज्झोववण्णा । (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : समृद्धिरससातागोरवेषु अध्युपपन्ना गृद्धाः। ३. चूणि, पृ० ७० : ते पि अइयारेषु पसज्जमाणा यदा परैश्चोद्यन्ते तदा ब्रवते-किमनेन स्वल्पेन दोषेण भविष्यति ? वितधं वा दुप्पडिलेहित-दुब्भासित-अणाउत्तगमणादि? एवं थोवयोवं पावमायरंता पदे पदे विसीदमाणा सुबहून्यपि पापान्याचरन्ति । ४. चणि, पृ० ७०: चूर्णिकार ने श्लोक का यह एक चरण मात्र दिया है। यह पूरा श्लोक इस प्रकार उपलब्ध होता है 'करोत्यादौ किञ्चत् सघृणहृदयस्तावदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्य प्रकुरुते । तृतीयं निःशंको विगतघृणमन्यच्च कुरुते, ततः पापाभ्यासात् सततमशुभेषु प्ररमते ।। (बृहत्कल्पभाष्य गाथा ६६४, वृत्ति पृ० ३१३ में उद्धृत) ५. चूणि, पृ० ७१ : दिलैंतो जधा - एगस्स सुद्ध वत्थे पंको लग्गो। सो चितेति-किमेत्तियं करिस्सति ? ति तत्थेव हसितं, एवं वितियं मसि-खेल-सिंघाणग-सिणेहादीहि सव्वं मइलीभूतं । अधवा मणिकोट्टिमे चेडरूवेण सण्णा वोसिरिता, सा तत्थेव घट्ठा। एवं खेल-सिंघाणादीणि वि 'किमेताणि करिस्संति ?' ति तत्थेव तत्थेव घट्टाणि । जाव तं मणिकोट्टिम सव्वं लेक्खादीहि-श्लेष्मादिभिः मलिनीभूतं दुग्गंधिगं च जातं । भद्दगमहिसो वि एत्य दिळंतो भाणितब्वो । अंबभक्खी राया दिलैंतो य । एवं पदे पदे विसीदंतो किमणेण दुम्मासितेण वा स्तोकत्वावस्य चरित्तपडस्स मलिणीमविस्सति ? जाव सम्वो चरित्तपडो मइलियो अचिरेण कालेण, चरित्तमणिकोट्टिम वा। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन २ : टिप्पण ८२-८६ श्लोक ५० ५२. गाडीवान द्वारा (वाहेण) चूणिकार और वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ व्याध और वैकल्पिक अर्थ गाडीवान किया है।' श्लोक ६० ८३. संस्तव (कामभोग का परिचय) (संथवं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-पूर्वापर संबंध और वृत्तिकार ने काम संबंधी परिचय किया है। ८४. (सोयई, थणई, परिदेवई) चर्णिकार ने 'सोयई' का अर्थ मनस्ताप, 'थणई' का अर्थ वाचिक क्रन्दन और 'परिदेवई' के स्थान पर 'परितप्पई' पाठ मानकर उसका अर्थ आन्तरिक और बाह्य शारीरिक दुःख का वेदन करना किया है। वत्तिकार ने शोचति का अर्थ-शोक करना, स्तनति का अर्थ सशब्द निःश्वास लेना और 'परिदेवते' का अर्थ बहुत विलाप या क्रन्दन करना किया है।' श्लोक ६२ : ८५. यह जीवन अल्पकालिकवास है (इत्तरवास) सौ वर्ष की परम आयुष्य वाला मनुष्य अल्पवय में भी मर जाता है, इसलिए इस जीवन को 'इत्वरवास'-अल्पकालिक कहा गया है।" मनष्य का परम आयुष्य सौ वर्ष का माना जाता है। यह भी हजारों वर्ष की आयुष्य की अपेक्षा से कतिपय निमेषमात्र का ही होता है । अतः इसे अल्पकालिक कहा गया है। श्लोक ६३ ५६. आत्मघाती (आयदंड) दंड का अर्थ है-हिंसा। दूसरे प्राणियों की हिंसा करने वाला अपनी हिंसा भी करता है। दूसरों को दंडित करने वाला १ (क) चणि, पृ० ७१ : वाहो णाम लुद्धगो.........वाहतीति वाहः शाकटिकोऽन्यो वा । (ख) वृत्ति, पत्र ७२ : व्याधेन लुब्धकेन.........यदिवा-वाहयतीति वाहः-शाकटिकस्तेन । २. चूणि, पृ०७१: संथवो णाम पुव्वा-ज्वरसंबंधो। ३. वृत्ति, पत्र ७३ : परिचयं कामसम्वन्धम् । ४.णि, पृ०७२: शोचनं मानसस्तापः, निस्तननं तु वाचिकं किञ्चित् कायिकं च । सर्वतस्तप्यते परितप्यते बहिरन्तश्च काय-बाङ मनोभिर्वा। पनि पत्र ७३ : शोचति, स च पौधामिकः कदीमानस्तिया वा क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थं स्तनति सशब्दं निःश्वसिति, तथा परिदेवते विलपत्याक्रन्दति सुबह्वितिहा माम्रियत इति त्राता नैवास्ति साम्प्रतं कश्चित् । कि शरणं मे स्यादिह दुष्कृतचरितस्य पापस्य ? ॥ ६. चूणि, पृ० ७२ : इत्तरमिति अल्पकालमित्यर्थः। ७. वत्ति, पत्र ७४ : साम्प्रतं सुबहप्यायुर्वषेशतं तच्च तस्य तदन्ते त्रुटयति, तच्च सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषप्रायत्वात् इत्वरवास कल्पं वर्तते-स्तोकनिवासकल्पम् । Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२० अध्ययन २ : टिप्पण ८७-८ अपने आपको भी दंडित करता है, इसलिए हिंसक आत्मचंद कहलाता है, हिंसक का न इहलोक होता है और न परलोक होता हैन वर्तमान का जीवन अच्छा होता है और न भविष्य का जीवन अच्छा होता है। इस दृष्टि से भी उसे आत्मदंड कहा गया है। ८७. विजन में लूटने वाले ( एगंतलूसमा ) पूर्णिकार ने इसका अर्थ एकान्त हिंसक किया है।' वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं—१. एकान्ततः प्राणियों को हिसा करने वाले, २. सद्अनुष्ठान के ध्वंसक चूर्णिकार और टीकाकार के अर्थ स्पष्ट भावना को प्रस्तुत नहीं करते। इसका अर्थ- 'विजन में लूटने वाले' उपयुक्त लगता है । हिंसा की बात 'आरंभनिस्सिया' में आ चुकी है । अतः यहां हिंसा का अर्थ समीचीन नहीं लगता । 'लूषक' के दो अर्थ हैं --अवयवों का छेदन करने वाला और लूट-खसोट करने वाला ।" ८. नरक में (पावलोगयं) चूर्णि और वृत्ति में पापलोक का अर्थ नरक किया है ।" ८. आसुरी दिशा में (आसुरियं ) असुर शब्द का संबंध क्रोध और रौद्र कर्म से है । जिसके क्रोध की परंपरा लम्बी होती है, उसकी भावना को आसुरिका भावना कहा जाता है।' देवों के चार निकाय हैं-भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनमें भवनपति और व्यतर- इन दोनों को असुर कहा गया है । असुर भवनपति देवों की एक जाति है, किन्तु सुर और असुर के विभाग में असुर का अर्थ व्यापक हो जाता है । इसी आधार पर अभयदेवसूरि ने असुर का अर्थ भवनपति और व्यंतर दोनों किया है।" भवनपति और व्यंतर देवों से संबंधित दिशा को भी आसुरी या आसुरिका दिशा कहा जाता है। यहां आसुरिका दिशा का तात्पर्य नारकीय दिशा है। क्रोधी और रौद्रकर्मकारी मनुष्य असुर होते हैं और वे अपनी आसुरी वृत्ति के कारण उस दिशा में जाते हैं जहां क्रोध और रौद्र कर्म के परिणाम भुगतने की परिस्थितियां होती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र ( ७ / ५-१०) में हिसा करने वाले झूठ बोलने वाले, लूटपाट करने वाले मांस खाने वाले आदि-आदि क्रूर कर्म करने वाले को आसुरी दिशा में जाने वाला बतलाया है। , चूर्णिकार ने आसुरिका के दो प्रकार किए हैं १. द्रव्यतः असूर्या - जहां सूर्य न हो- नरक आदि । २. भावत: असूर्या - जिन जीवों के चक्षु न हों— एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीव । वृत्तिकार के अनुसार अज्ञान-तप आदि के कारण उस प्रकार के देवत्व की प्राप्ति होती है तो भी वे बासुरी दिशा की ओर ही जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि वैसे लोग देव बनकर भी दूसरे देवों के कर्मकर और किल्विषिक देव -- अधमदेव होते हैं । १. चूर्णि पृष्ठ ७२ : परदण्डप्रवृत्ता आत्मानमपि दण्डयन्ति, अथवा ण तेसि इमो लोगो न परलोगो तेनाऽऽत्मानं दण्डयन्ति । २. णि, पृष्ठ ७२ गंगा एतहिना इत्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र ७४ : एकान्तेनैव जन्तूनां लूषकाः -- हिंसकाः सद्नुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः । ४. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी: To hurt, to plunder. ५. (क) चूणि, पृ० ७२ : पापानि पापो वा लोकः नरकः । (ख) वृत्ति, पत्र ७४ : पापं लोकं पापकर्मकारिणां यो लोको नरकादिः । ६. उत्तरज्झणाणि ३६ / २६६ । ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र २० : असुरा: भवनपतिव्यन्तराः । ८. चूर्णि पृष्ठ ७२, ७३ : आसूरिका दव्वे भावे य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधवा एगिदियाणं सूरो णत्थि जाव तेइंदिया असूरा वा भवंति । ६. वृत्ति पत्र ७४ तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथाविधदेवत्वावाप्तिस्तचाप्यतुराणामियनामुरी तो दिशं पन्ति । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२१ श्लोक ६५ : ६०. श्लोक ६४-६५ : मनुष्य दो प्रकार की दृष्टि वाले होते हैं । कुछ मनुष्य दोनों जन्मों के प्रति आस्थावान होते है। कुछ मनुष्य इन दो श्लोकों में सूत्रकार ने एक चिरंतन प्रश्न की चर्चा की है। इहलोक के साथ-साथ परलोक को भी स्वीकार करते है-वर्तमान और भावी अपने अस्तित्व को वर्तमान जीवन तक हो सीमित मानते हैं । जिनमें पारलौकिक जीवन की आस्था होती है वे वर्तमान जीवन के प्रति जागरूक होते हैं । वे जीवन को नश्वरता को समझते हैं और वर्तमान जीवन में किए गए असद् आचरणों का परिणाम अगले जन्म में भी भुगतना होता है, इसलिए हिंसा आदि के आचरण में ढीठ नहीं बनते । आगामी जीवन में आस्था न रखने वाले निश्चित भाव से हिंसा आदि के आचरणों में प्रवृत्त हो सकते हैं। इसलिए उनमें ढीठता आ जाती है। उनका स्पष्ट तर्क होता है— हमें वर्तमान से मतलब है, परलोक की कोई चिंता नहीं है । किसने देखा है परलोक ! परलोक साक्षात् दृश्यमान नहीं है। फिर उसे कैसे माना जाए ? यह प्रश्नचिन्ह परलोक में आस्था रखने वालों के सामने भी है । इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने ६५ वें श्लोक में दिया है। कोई अंधा आदमी सूर्य के प्रकाश को नहीं देख पाता । इसका अर्थ यह नहीं होता कि प्रकाश नहीं है । इसी प्रकार मोह से अंध मनुष्य आत्मा के पारलौकिक अस्तित्व को नहीं देख पाता, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वह नहीं है । सूत्रकार अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि जैसे अंधा मनुष्य प्रकाश के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वैसे ही अचाक्षुप पदार्थों को साक्षात् देजने वाले देशों और अन्तरानी पुरुषों ने जो कहा है, उस पर तुम भरोसा करो ।' श्लोक ६६ : १. सहिष्णु (सहिए ) चूर्णिकार ने ' सहित ' का अर्थ-ज्ञान आदि से युक्त किया है । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-हित सहित तथा ज्ञान आदि से युक्त । ज्ञान आदि से युक्त के लिए केवल 'सहित' शब्द का प्रयोग ठीक नहीं लगता । केवल 'सहित' शब्द का प्रयोग किए गए अर्थों से भिन्न अर्थ की सूचना देता है । सहित शब्द का एक अर्थ है-सहनशील, सहिष्णु ।" यह अर्थ समुचित प्रतीत होता है । देखें - २५१, ५२ के टिप्पण | १. (क) चूणि, पृ० ७३ । (ख) वृत्ति, पत्र ७४ । अध्ययन २ टिप्पण ४०-१२ श्लोक ६७ : २. श्लोक ६७ : धर्म की आराधना के लिए गृहवास और गृहत्याग — दोनों अवस्थाएं मान्य हैं। गृहवास में रहने वाला व्यक्ति भी धर्म का क्रमिक विकास कर सकता है । सबसे पहले धर्म का श्रवण, फिर ज्ञान, विज्ञान और संयमासंयम ( श्रावक के बारह व्रत ) को स्वीकार किया जाता है । यह गृहस्थ के लिए धर्म की आराधना का क्रम है । सामायिक व्रत के द्वारा सर्वत्र समता का अनुशीलन करने वाला गृहस्थ दिव्य उत्कर्ष को उपलब्ध होता है । उत्तराध्ययन के ५। २३, २४ वें श्लोक में यह विषय कुछ विस्तार से चर्चित है । प्रस्तुत सूत्र में 'देवाणं गच्छे सलोगयं'– यह पद है । उत्तराध्ययन में 'गच्छे जक्ख सलोगयं' - यह पद मिलता है । प्राचीन काल में 'यक्ष' शब्द देव के अर्थ में प्रयुक्त होता था । देखें- उत्तराध्ययन ५।२४ का टिप्पण | २. चूर्ण, पृ० ७३ : सहितो नाम ज्ञानादिभिः । २. वृति पत्र ७५ सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियुक्तो वा । ४. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी सहित - Borne, endured. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूयगडो १ १२२ अध्ययन २: टिप्पण ६३-६६ श्लोक ६८: ६३. अनुशासन को (अणुसासणं) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रुतज्ञान अथवा श्रावक धर्म ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-आज्ञा, आगम या संयम किया है। अनुयोगद्वार सूत्र में शासन को आगम का पर्यायवाची बताया गया है। १४. मात्सर्य......... (मच्छरे.........) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अभिमान पूर्वक किया जाने वाला रोष । इसकी उत्पत्ति के चार कारण हैं-(१) क्षेत्र (२) वस्तु (३) उपधि (४) शरीर । जो जाति, लाभ, तप, ज्ञान आदि से सम्पन्न है उसके प्रति भी मात्सर्य न रखे । यह अनुभव न करे कि यह इन गुणों से युक्त है, मैं नही हूं अथवा गुणों की समानता में भी मात्सर्य न करे। ___ वृत्तिकार के अनुसार क्षेत्र, वस्तु, उपधि और शरीर के प्रति राग-द्वेष रखना मात्सर्य है। इनके प्रति निष्पिपासित होना अमात्सर्य है। ६५. उंछ (माधुकरी) (उंछ) चूर्णिकार ने इसके दो प्रकार किए हैं(१) द्रव्य उंछ-नीरस पदार्थ । (२) भाव उंछ-अज्ञात चर्या । भिक्षु अपनी जाति, कुल वंश आदि के आधार पर भिक्षा प्राप्ति का प्रयत्न न करे। वह अज्ञात रूप से भिक्षा ले।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-भिक्षा से प्राप्त वस्तु किया है।' देखें-दसवेआलियं ८।२३ का टिप्पण । १६. समाधिस्थ (जुत्ते) इसका अर्थ है-समाधिस्थ । चूणिकार ने इसका अर्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहित अथवा तप, संयम में प्रवृत्त णिया है। वृत्ति में भी यही अर्थ है ।' ज्ञान, दर्शन और चारित्र—यह समाधित्रिक है। इससे मनुष्य समाधिस्थ या समाहित होता है। गीता के अनुसार 'युक्त' चित्त की एक विशेष अवस्था का नाम है। जब एकाग्रताप्राप्तचित्त बाह्य चिंतन को छोड़कर केवल आत्मा में ही स्थित होता है, दृष्ट और अदृष्ट सभी कामभोगों के प्रति निस्पृह हो जाता है, तब वह 'युक्त' कहलाता है।" १. चूणि, पृ० ७४ : अनुशास्यते येन तवनुशासनम्, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । अथवा अनुशासनस्य श्रावकधर्मस्य । २. वृत्ति, पत्र ७५ : शासनम्-आज्ञामागमं वा ............ तदुक्ते संयमे वा। ३. अणुओगद्दाराई, सूत्र ५१, गाथा १; बृहत्कल्पभाष्य गाथा १७४, पीठिका पृ०५८ : सुय-सुत्त-नांथ-सिद्धत, सासणे आण-वयण-उवएसे । पण्णवण-आगमे य, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥ ४. चणि, पृ०७४ : मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरी रोषः। स चतुर्द्धा भवति, तं जधा-खेत्तं पडुच्च, वत्थु पडच्च, उर्वाध पहच्च, ___ सरीरं पडुच्च । एतेसु सम्वेसु उत्पत्तिकारणेसु विनीतमत्सरेण भवितव्वं । तथा जाति-लाम-तपो-विज्ञानादिसम्पन्ने च परे न मत्सर। कार्यः-यथाऽयमेभिर्गुणैर्युक्तोऽहं नेति, तद्गुणसमाणे वा । ५. वृत्ति, पत्र ७५ : विणीयमच्छरे............सर्वत्रापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्तद्विष्टः क्षेत्रव (वा) स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः । ६. चूणि, पृ०७४ : दब्बुंछ उक्खलि-खलगादि, भावुछ अज्ञातचर्या । ७. वृत्ति, पत्र ७४ : उंछंति भक्ष्यम् । ८. चूणि पृ० ७४ : जुत्तो णाम णाणादीहिं तव-संजमेसु वा । ६. वृत्ति, पत्र ७६ : युक्तो ज्ञानादिभिः । १०. गीता ६१८: यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तवा ।। Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगगे १ १२३ अध्ययन २: टिप्पण ६७-१०० ६७. मोक्षार्थी (आयतढिए) ___दशवकालिक सूत्र में दो स्थानों (२२२३४, ६४सू ४) में 'आययट्ठिए' पाठ का प्रयोग मिलता है। चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ-भविष्य में हित चाहने वाला किया है। उनके अनुसार आयति+अर्थिक शब्द बनता है। चूणिकार जिनदास ने आयत अर्थी शब्द मानकर 'आयत' का अर्थ मोक्ष किया है । आयतार्थी-मोक्ष चाहने वाला। प्रस्तुत सूत्र की चूणि में आयत का अर्थ-दृढ़ ग्रहण किया है।' इसकी व्याख्या आयति+अथिक और आयत+अथिकदोनों के आधार पर की जा सकती है । आयति-अर्थिक-भविष्य का हित चाहने वाला और आयत-अर्थिक-दूर का हित चाहने वाला। श्लोक ७० १८. धन (वित्त) वित्त का अर्थ है धन, धान्य और हिरण्य-सोना चांदी आदि।' श्लोक ७१ EE. अभ्यागमिक...'औपक्रमिक (अब्भागमियम्मि..... ओवक्कमिए) चूर्णिकार ने अभ्यागमिक का मुख्य अर्थ धातुक्षोभ से होने वाला व्याधि-विकार और वैकल्पिक अर्थ-आगन्तुक रोग (चोट आदि) किया है। वृत्तिकार के अनुसार पूर्वाजित असातवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला दुःख अभ्यागमिक कहलाता है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार औपक्रमिक का अर्थ अनानुपूर्वी से होने वाला कर्मोदय है जो कर्मोदय विपक्व नहीं है किन्तु प्रयत्न के द्वारा उसका विपाक किया गया है।' प्रज्ञापना में आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी-दो प्रकार की वेदना बतलाई गई है। मलयगिरी ने आभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ-अपनी इच्छा से स्वीकृत पीड़ा किया है। सूर्य का आतप सहन करने से जो शारीरिक पीड़ा होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। स्वतः या प्रयत्न के द्वारा उदयप्राप्त वेदनीय कर्म के विपाक से होने वाला कष्ट का अनुभव औपक्रमिकी वेदना है। श्लोक ७२ १००. प्राणी अपने-अपने कर्मों से विभक्त हैं (सयकम्मकप्पिया) जैन दर्शन में ईश्वरकर्तृत्व मान्य नहीं है। ऐसी कोई परम सत्ता नहीं है जो हमारे भाग्य का नियमन करती हो । प्रत्येक १. दशवकालिक, ५।२।३४ अगस्त्यणि पृ० १३३ : आयतट्ठी आगामिणि काले हितमायतीहितं, आततिहितेण अत्थी आयत्याभिलासी। २. दशवकालिक, २२१३४ जिनदासचूणि पृ० २०२ : आयतो-मोक्खो भण्णइ, तं आययं अत्ययतीति आययट्ठी। ३. चूणि, पृ० ७४ : आयतार्थिकत्वम्, अत्थो णाम णाणावि, आयतो णाम दृढग्राहः, आयतविहारकमित्यर्थः । ४. (क) चूणि, पृ० ७४ : वित्तं हिरण्णादि । (ख) वृत्ति पत्र ७६ : वित्तं धनधान्यहिरण्यादि । ५. चूणि, पृ० ७५ : अभिमुखं आगमिक अभ्यागमिकं व्याधिविकारः, स तु धातुक्षोभादागन्तुको वा । ६. वृत्ति, पत्र ७६ : पूर्वोपात्तासातवेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे। ७. (क) चूणि, पृ० ७५ : उपक्रमाज्जातमिति औपक्रमिकम्, अनानुपूा इत्यर्थः, निरुपक्रमायुःकरणम् । (ख) वृत्ति, पत्र ७६ : उपक्रमकारणरुपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वा । ८. प्रज्ञापना पद ३५, वृत्ति पत्र ५५७ : तत्राभ्युपगमिको नाम या स्वयमभ्युपगम्यते, तथा साधुभिः केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः शरीरपोडा, अभ्युपगमेन - स्वयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः, उपक्रमणमुपक्रमः-स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निर्वृत्ता औपक्रमिको, स्वपमुदोर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीयकमणो विपाकानुभवनेन निर्वता इत्यर्थः। _ dain Education liternational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२४ अध्ययन २ : टिप्पण १०१-१०४ मनुष्य अपने कृतकर्म के अनुसार नाना अवस्थाओं को प्राप्त होता है। पृथ्वी, पानी आदि जीवों का विभाग भी अपने किए हुए कर्मों के कारण ही है। सत्तर से बहत्तरवें श्लोक तक 'अशरण भावना' प्रतिपादित है। ईश्वरवादी किसी को शरण मान सकता है किन्तु कर्मवादी किसी को शरण नहीं मानता। प्रत्येक कार्य और उसके परिणामों के प्रति अपने दायित्व का अनुभव करता है। उस दायित्व के अनुभव का एक महत्वपूर्ण सूत्र है-अशरण अनुप्रेक्षा । इसका प्रतिपादन 'आयारो' में भी हुआ है । देखें आयारो २१४-२६ । १०१. (तपश्चरण) में आलसी (सढ) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. तपश्चरण में उद्यम नहीं करने वाला। २. तपस्या में माया करने वाला। उन्होंने तात्पर्याथं में पापकर्मों से ओतप्रोत को शठ माना है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मायावी किया है।' १०२. जन्म, जरा और मरण से (जाइजरामरणेहि) चणिकार ने 'जाइ' के स्थान पर 'वाहि' (व्याधि) पाठ मानकर व्याख्या की है। उन्होंने सूचित किया है कि नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य-इन तीन गतियों के जीव व्याधि का अनुभव करते हैं । जरा-बुढ़ापा केवल तिर्यञ्च और मनुष्य गति में ही होता है और मरण-चारों गतियों में होता है।' श्लोक ७३: १०३. क्षण को (खणं) क्षण का अर्थ होता है-उपलब्धि का क्षण। चूर्णिकार ने क्षण का मूल्यांकन करते हुए चार प्रकार के क्षणों की चर्चा की है–सम्यक्त्व सामायिक क्षण, श्रुत सामायिक क्षण, गृहस्थ सामायिक क्षण और मुनि सामायिक क्षण। इनमें सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक के क्षण दुर्लभ हैं। चारित्र सामायिक (गृहस्थ सामायिक और मुनि सामायिक) के क्षण दुर्लभतर हैं। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है-'वर्तमान में उपलब्ध मुनि-सामायिक के क्षण का मूल्यांकन करो। इस बोधि-चारित्र के क्षण का मिलना सुलभ नहीं है। वृत्तिकार ने क्षण का अर्थ अवसर किया है। उन्होंने क्षण के चार प्रकारों की चर्चा की है-द्रव्यक्षण, क्षेत्रक्षण, कालक्षण और भावक्षण। १०४. बोधि (बोधि) बोधि तीन प्रकार की होती है-ज्ञान बोधि, दर्शन बोधि और चारित्र बोधि । वृत्तिकार के अनुसार बोधि का अर्थ हैसम्यक् दर्शन की प्राप्ति । जो धर्म का आचरण नहीं करते उन्हें बोधि प्राप्त नहीं होती। किन्तु यहां बोधि चारित्र के अर्थ में विवक्षित है। चूणिकार ने चारित्रबोधि की दुर्लभता प्रतिपादित की है। आवश्यक नियुक्ति में कहा है-जो बोधि को प्राप्त कर उसके अनुसार १. चूणि, पृ० ७५ : सढा नाम तपश्वरणे नियमाः शठी भूता वा पापकर्मभिः ओतप्रोता इत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र ७६ : शठकर्मकारित्वात् शठा: । ३. चूणि, पृ० ७५ : वाधि-जरा-मरणेहऽभिदुता, नारक-तिर्यग् मनुष्येषु व्याधिः, जरा-तिर्यग्-मनुष्येषु, मरणं चतुसृष्वपि गतिषु । ४. चूणि, पृ० ७५ : क्षीयत इति क्षण :, स तु सम्मत्तसामाइयादि चतुर्विधस्यापि एक्केक्कस्स चतुर्विधो खणो भवति, तं जधा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिक्ख (क्क) खणो। ५. वृत्ति, पत्र ७७ : द्रव्यक्षेत्रकालमावलक्षणं क्षणम् अवसरम् । ६. ठाणं ३/१७६ : तिविहा बोधी पण्णता, तं जहा-णाणबोधी, सणबोधी, चरित्तबोधी। ७. वृत्ति, पत्र ७७ : बोधि च सम्यग्दर्शनावाप्तिक्षणाम् । क. चूणि, पृ०७५। Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२५ अध्ययन २: टिप्पण १०५-१०६ आचरण नहीं करता और अनागत बोधि की आकांक्षा करता है, उसे भला किस मूल्य पर बोधि प्राप्त होगी ? किसी मूल्य पर नहीं।' इसलिए साधक को प्राप्त बोधि का उपयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति श्रामण्य से च्युत हो गया है, उसे बोधि की प्राप्ति सुदुर्लभ है । वह अर्द्धपुद्गल परावर्त तक (उत्कृष्ट रूप से) संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।' १०५. काश्यप (भगवान् ऋषभ) के द्वारा (कासवस्स) चूणिकार' और वृत्तिकार-दोनों ने काश्यप शब्द से भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर का ग्रहण किया है। भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर-दोनों कश्यपगोत्रीय हैं। भगवान् ऋषभ आद्य-काश्यप और भगवान महावीर अन्त्य-काश्यप कहलाते हैं । किन्तु संदर्भ की दृष्टि से यहां काश्यप का अर्थ केवल भगवान् ऋषभ ही होना चाहिए, क्योंकि अगला शब्द 'अणुधम्मचारिणो' यही द्योतित करता है। देखें-२/४७ में 'कासवस्स' का टिप्पण। श्लोक ७३-७४ १०६. श्लोक ७३-७४ भगवान् ऋषभ अष्टापद (हिमालय की एक शाखा) पर्वत पर विहार कर रहे थे। वह उनकी तपोभूमि थी। वहां ऋषभ के अठानवें पुत्र आए। भगवान् ने उन्हें संबोधि का उपदेश दिया और अन्त में कहा-वर्तमान क्षण ही संबोधि को प्राप्त करने का क्षण है। भगवान् का उपदेश सुन उनके सभी पुत्र संबुद्ध हो गए। सूत्रकार का मत है कि भगवान् ऋषभ ने जिस संबोधि का प्रतिपादन किया, सभी तीर्थंकर उसी संबोधि का प्रतिपादन करते हैं । इससे यह ज्ञात होता है कि संबोधि एक ही है। वस्तुतः सत्य एक ही है, वह दो हो नहीं सकता। प्रतिपादन की पद्धति और संदर्भ देश-काल के अनुसार बदल जाते हैं, किन्तु सत्य नहीं बदलता। प्रस्तुत आगम के एक श्लोक में इसी सत्य का प्रतिपादन हुआ है-अतीत में जो बुद्ध (बोधिप्राप्त) हुए हैं और जो होंगे उन सबका आधार है शांति। उन सबने शांति को आधार मानकर धर्म का प्रतिपादन किया। आचारांग के अहिंसा-सूत्र से भी यह मत समर्थित होता है-'जो अर्हत् भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापना करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है।' १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १११० : लद्धेल्लियं च बोधि अकरेंतो अणागतं च पत्थितो। अण्णं दाई बोधि लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं? ॥ २. चूणि, पृ० ७५ : विराहित सामण्णस्स हि दुल्लभा बोधी भवति, अवड्ढं पोग्गलपरियट उक्कोसेणं हिंडति । ३. चूणि, पृ० ७६ : काश्यपः उसभस्वामी बद्धमाणस्वामी वा। ४. वृत्ति, पत्र ७७ : काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा । ५. (क) चूणि, पृ० ७५ : रिसमसामी भगवं अट्ठावए पुत्तसंबोधणत्थं एवमाह । (ख) वृत्ति, पत्र ७७ : नाभेयोऽष्टापदे स्वान् सुतानुद्दिश्य । ६. वृत्ति, पत्र ७७ : अनेनेदमुक्तं भवति–तेषामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवायातमिति, ते सर्वेऽत्येतान्-अनन्तरोदितान् गुणान् 'आहुः' अभिहितवन्तः, नात्र सर्वज्ञानां कश्चिन्मतभेद इत्युक्तं भवति, ते च 'कश्यपस्य' ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति, अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एव मोक्षमार्ग इत्यावेदितं भवतीति । ७. सूयगडो-१/११/३६ जे य बुद्धा अतिक्कंता, जे य बुद्धा अणागया। संती तेसि पइट्ठाणं भूयाण जगई जहा ॥ ८. आयारो ४/१ : से बेमि- जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति-सव्वे पाणा सवे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयम्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२६ अध्ययन २: टिप्पण १०७ यद्यपि संबोधि के अहिंसा, संवर आदि गुणों का सभी तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है, फिर भी उनके प्रतिपादन में जितनी समानता ऋषभ और महावीर में है, उतनी अन्य तीर्थंकरों में नहीं है। बाईस तीर्थंकरों ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया, उस स्थिति में ऋषभ और महावीर ने पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया। सभी तीर्थकर धर्म की व्याख्या स्वतंत्र भाव से करते हैं। वे किसी पूर्व परंपरा से प्रतिबद्ध होकर उसकी व्याख्या नहीं करते, किसी परंपरा का अनुसरण नहीं करते । इसलिए सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित धर्म में समानता खोजने का प्रयत्न सार्थक नहीं है। किन्तु धर्म का मूल तत्त्व सबके प्रतिपादन में समान होता है। यही प्रस्तुत दो श्लोकों का प्रतिपाद्य है। श्लोक ७६ः १०७. श्लोक ७६: मिलाएं-उत्तरज्झयणाणि ६/१७ । Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयरणं उवसग्गपरिण्णा तीसरा अध्ययन उपसर्गपरिज्ञा Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'उपसर्गपरिज्ञा' है।' जब मुनि अपनी संयम-यात्रा प्रारम्भ करता है तब उसके समक्ष अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होते हैं । उन उपसर्गों को समतापूर्वक सहने की क्षमता वाला मुनि अपने लक्ष्य को पा लेता है और उनसे पराजित हो जाने वाला मुनि लक्ष्यच्युत होकर विनष्ट हो जाता है । इसलिये मुनि को उपसर्गों के प्रकारों, उनकी उत्पत्ति के सामान्यविशेष निमित्तों तथा उपसर्ग-विजय के उपायों का ज्ञान होना चाहिए। इस अध्ययन में उपसर्ग और परीसह-दोनों का निरूपण है। चूणिकार ने बताया है उपसर्ग और परीसह की एकत्व की विवक्षा कर, दोनों के लिये 'उपसर्ग' शब्द व्यवहृत किया है।' उपसर्ग का अर्थ है-उपद्रव । स्वीकृत मार्ग पर अविचल रहने तथा निर्जरा के लिये कष्ट सहना परीसह है। उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में बावीस परीसहों (उपसर्गों) का उल्लेख है। प्रस्तुत अध्ययन में इस संख्या का उल्लेख नहीं है, किन्तु अनेक उपसर्गों का विस्तार से वर्णन प्राप्त है० शीत (श्लोक ४) ० आक्रोश (श्लोक ६-११) ० उष्ण (श्लोक ५) ० स्पर्श (श्लोक १२) ० याचना (श्लोक ६,७) • केशलुंचन-ब्रह्मचर्य (श्लोक १३) • वध (श्लोक ८) ० वध-बंध (श्लोक १४-१६) इन शारीरिक उपसर्गों के अतिरिक्त सूत्रकार ने मानसिक उपसर्गों के प्रसंग में इस तथ्य का सांगोपांग निरूपण किया है कि संयम में आरूढ मुनि को उसके ज्ञातिजन या अन्य व्यक्ति किस प्रकार भोग भोगने के लिये निमन्त्रित करते हैं और किस प्रकार उसे पथच्युत कर पुनः गृहवास में आने के लिये प्रेरित करते हैं। जो मुनि उन ज्ञातिजनों के इस भोगनिमन्त्रण रूप अनुकूल उपसर्ग के जाल में फंस जाते हैं, वे कामनाओं के वशवर्ती होकर संसार की वृद्धि करते हैं। बौद्ध साहित्य में भी परीसहों के वर्जन का उल्लेख है। सारिपुत्र ने भगवान् बुद्ध से भिक्षु-जीवन का मार्ग-दर्शन मांगा। बुद्ध ने उस प्रसंग में अनेक परीसहों (पालि० परिस्सया) का उल्लेख किया है। उनमें रोग, क्षुधा, शीत, उष्ण, अरति, परिदेवन, अलाभ, याचना, शय्या, चर्या आदि मुख्य हैं।' प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक तथा बयासी श्लोक हैं। उनकी विषयगत मार्गणा इस प्रकार है० पहला उद्देशक-प्रतिलोम उपसगों का निरूपण । (श्लोक ४-१६) • दूसरा उद्देशक-अनुलोम उपसर्गों का निरूपण । (श्लोक १८-३६) ० तीसरा उद्देशक-अध्यात्म में होने वाले विषाद के कारण और निवारण का निरूपण तथा परतीथिकों की कछेक मान्यताओं का प्रतिपादन । (श्लोक ४३ आदि) १. (क) चूर्णि, पृ० ७७ : इदाणि उवसग्गपरिणत्ति अझयणं । (ख) वृत्ति, पत्र १०२ : उपसर्गपरिज्ञायाः......... । २. चूर्णि, पृ० ७६ : तत्थोवसग्गा परोसहा य एगं चेव काउं उवदिस्संति । ३. सूयगडो, अध्ययन २, उद्देशक २ । ४. सुत्तनिपात ५४, सारिपुत्त सुत्तं, ६-१८ । प्रस्तुत प्रसंग में बाधा-विघ्न के अर्थ में 'परिस्सय' शब्द प्रयुक्त हुआ है-कति परिस्सया (६)। विक्खंभये तानि परिस्सयानि (१५) । Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सूयगडो १ अध्ययन ३ : प्रामुख ० चौथा उद्देशक-कुतीथिकों के कुतर्को से पथच्युत होने वाले व्यक्तियों की यथार्थ अवस्था का निरूपण ।' (श्लोक ४७-६०) सूत्रकृतांग की नियुक्ति में उपसर्गों के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं१. नाम उपसर्ग ४. क्षेत्र उपसर्ग २. स्थापना उपसर्ग ५. काल उपसर्ग ३. द्रव्य उपसर्ग ६. भाव उपसर्ग। द्रव्य उपसर्ग चेतन द्रव्य उपसर्ग-तिर्यञ्च और मनुष्य द्वारा अपने अवयवों से चोट लगाना। अचेतन द्रव्य उपसर्ग- मनुष्य द्वारा किसी को लाठी आदि से पीटना । द्रव्य उपसर्ग के दो वैकल्पिक प्रकार ये हैं- आगन्तुक और पीड़ाकर ।' चूर्णिकार के अनुसार तिर्यञ्चों और मनुष्यों द्वारा उत्पादित उपसर्ग आगन्तुक कहलाते हैं और वात, पित्त तथा कफ से उत्पन्न उपसर्ग पीड़ाकर कहलाते हैं।" वृत्तिकार रे 'आगन्तुको च पीलाकरो' की व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उन्होंने 'पीड़ाकर' शब्द को 'आगन्तुक' का विशेषण मानकर इसका अर्थ-देव आदि से उत्पन्न उपसर्ग जो शरीर और संयम के लिये पीड़ाकर होता है-किया है। किन्तु यह विमर्शनीय है। क्षेत्र उपसर्ग क्षेत्र से होने वाला उपसर्ग । जैसे किसी क्षेत्र में क्षेत्र सम्बन्धी भय उत्पन्न होता है। चूर्णिकार ने लिखा है कि जब भगवान् महावीर छद्मस्थ अवस्था में 'लाट' (लाड) क्षेत्र में गये तब वहां कुत्तों के अनेक उपसर्ग हुए।' यह उदाहरण चेतन द्रव्य उपसर्ग के अन्तर्गत भी आ सकता है। काल उपसर्ग काल से संबंधित अनेक प्रकार के उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । जैसे काल-चक्र के छठे अर-एकांत दुष्षमा में सदा दुःख प्रवर्तमान रहता है । इस अर में उत्पन्न होने वाले प्राणी अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं। अथवा शीतकाल में अत्यधिक सर्दी का और ग्रीष्मकाल में अत्यधिक गर्मी का उपसर्ग सदा बना रहता है।' भाव उपसर्ग इसके दो प्रकार हैं १. नियुक्ति गाथा, ४१-४२ : पड मम्मि य पडिलोमा मायादि अणुलोयगा य बितियम्मि । ततिए अज्झत्थुवदसणा य परवादिवयणं च ॥ हेउसरिसेहिं अहेउएहि ससमयपडितेहि णिउणेहि । सोलखलितपण्णवणा कया चउत्थम्मि उद्देसे ॥ २. नियुक्ति गाथा, ४३-४४ । ३. नियुक्ति गाथा, ४३ : आगंतुको य पीलाकरो य जो सो उवस्सग्गो। ४. चूणि, पृ० ७७ : आगंतुको चतुप्पदलउडादीहि । पीलाकरो धातिय-पेत्तियादि । ५. वृत्ति, पत्र ७८ : अपरस्माद् दिव्यादेः आगच्छतीत्यागन्तुको योऽसावुपसर्गो भवति, स च देहस्य संयमस्य वा पीडाकारीति। ६. चूणि, पृ० ७७-७८ : जधा बहूपसग्गो लाढाविषयो जहिं भट्टारगो पविट्ठो आसि छतुमत्थकाले, सुणगादिहिं तत्थ णिद्धम्मा खाति। ७. चूणि, पृ० ७८ : कालोवसग्गो एगंतदूसमा । सीतकाले वा सीतपरिसहो वा णिदाघकाले उसिणपरीसहो वा, एवमादि कालोवसग्गो भवति । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १३१ अध्ययन ३ : प्रामुख (क) अधिक भाव उपसर्ग - ज्ञानावरणीय दर्शनमोहनीय, अशुभनामकर्म, नीचगोन, अन्तराय कर्म के उदय से होने वाला उपसर्ग | (ख) औपक्रमिक भाव उपसर्ग - दंड, शस्त्र आदि से उदीरित वेदनीय कर्म द्वारा उत्पन्न उपसर्ग ।' -- स्थानांग सूत्र में उपसमों के चार मुख्य भेद माने हैं (१) दैविक (२) मानुषिक (३) तैरश्मिक (४) आत्मसंवेदनीय इन चारों के अवान्तर भेद चाद-चार हैं।" उपसर्ग का यह अन्तिम विभाग 'आत्म-संवेदनीय' बहुत महत्वपूर्ण है। मनुष्य के दुःखों का हेतु बाहर ही नहीं है, वह उसके भीतर भी है । कर्मों के उदय से उसके कर्मशरीर में अनेक प्रकार के रासायनिक परिवर्तन होते हैं और वे वात, पित्त और कफ को प्रभावति करते हैं। उनसे ग्रन्थियां प्रभावित होती हैं। उस प्रभावित अवस्था में होने वाले ग्रन्थियों के स्राव मनुष्य में विविध प्रकार की अवस्थाएं पैदा करते हैं। उनसे मनुष्य का सारा व्यवहार प्रभावित होता है । आत्म-संवेदनीय उपसर्ग के वैकल्पिक रूप में वातिक, पैत्तिक, श्लेष्मिक और सान्निपातिक – ये चार प्रकार बन जाते हैं। इस अध्ययन में अनुकूल परीग्रहों का सुन्दर चित्रण हुआ है। कोई व्यक्ति प्रव्रजित होने के लिये उद्यत है अथवा कोई पहले ही प्रव्रजित हो चुका है, उसके समक्ष माता-पिता, बन्धु या स्नेहिल व्यक्ति इस प्रकार स्नेह और अनुराग प्रदर्शित करते हैं कि उसके मन में करुणा का भाव जाग जाता है और वह उनके स्नेहसूत्र में बंध जाता है। इस प्रसंग में सूत्रकार ने 'सुहमा संगा' शब्दों का प्रयोग किया है। संग, विघ्न और व्याक्षेप तीनों एक हैं। ये सूक्ष्म होते हैं, प्राणीवध की भांति स्थूल नहीं होते। यहां सूक्ष्म का अर्थ है - निपुण । ये अनुलोम उपसर्ग व्यक्ति को धर्म-च्युत करते हैं। पूजा, प्रतिष्ठा स्नेह इन उपसर्गों से बच पाना अत्यन्त कठिन होता है । चूर्णिकार ने इन्हें " पाताला व दुरुत्तरा " - पाताल की भांति दुरुत्तर माना है ।' अनुकूल उपसर्ग मानसिक विकृति पैदा करते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग शरीर-विकार के कारण बनते हैं। अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म होते हैं और प्रतिकूल उपसर्गं स्थूल होते हैं । " प्रस्तुत अध्ययन में आजीवक, बौद्ध तथा वैदिक परंपरा की अनेक मान्यताओं का उल्लेख है। पूर्णिकार और वृत्तिकार ने उन मान्यताओं का वर्णन किया है। हमने उनको तुलनात्मक टिपणों के माध्यम से विस्तार दिया है। श्लोक इक्कीस में "एवं लोगो भविस्सई" से लौकिक मान्यता का उल्लेख हुआ है । श्लोक ५१-५५ में आजीवक परंपराभिमत कुछ तथ्य हैं-आजीवक भिक्षु गृहस्थों की थालियों में और कांस्य के बर्तनों में भोजन करते थे । वे अपने पात्रों के प्रति आसक्त रहते थे । जो आजीवक भिक्षु रुग्ण हो जाते, भिक्षा लाने में असमर्थ होते, उन्हें अन्य भिक्षु भिक्षा लाकर नहीं देते थे । वे गृहस्थों द्वारा भोजन मंगवाते थे । श्लोक ६१-६४ में अनेक ऋषि-परंपराओं का उल्लेख है। इनमें सात ऋषिओं के नाम हैं - वैदेही नमि, रामगुप्त, बाहुक, तारागण, आसिल देविल, द्वैपायन और पाराशर । -- १. पूणि, पृ० ७८ भावोवसम्यो कम्मोदयो । सो पुण दुविधो-ओहतो उपस्कगतो या ओहतो जधा मागावरणं वंसत्यमोहणीयं असुमणामं णियागोतं अंतरायिकं कम्मोदयं ति । उवक्कमियं जं वेदणिज्जं कम्मं उदिज्जति । दंड-कस-सत्थरज्जू" २. (क) डा ४/५७-६०१ । (ख) कृषि, १०७८ ३. चूर्णि, पृ० ७८ : आयसंवेतणीया चउविधा अधवा वातिता पेत्तिया संभिया सन्निवाइया । ४. वही, पृ० ८३ ******* मा गाम गिउगा, न प्राणव्यपरोपणवत् स्थूरमूर्तयः उपायेन धर्मात् यावयन्ति ...... भगुलोमा पुन पूजासत्कारादयः.. दुरुत्तरा भवति । वक्ष्यत हि - 'पाताला व दुरुत्तरा ।'संगो त्ति वा वग्धोति वा वक्खोडो त्ति वा एगट्ठ । ५, वत्ति, पत्र ८५ : ते च सूक्ष्नाः प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तराः न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १३२ अध्ययन ३ : प्रामुख _ 'इह संमया'-इस वाक्य द्वारा सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि ये महापुरुष जैन ग्रन्थों में वर्णित हैं तथा 'अणुस्सुयं' पद के द्वारा यह पूचित होता है कि इनका वर्णन प्राचीन परंपरा में भी प्राप्त है। चूर्णिकार ने इन सबको राजर्षि माना है और प्रत्येक बुद्ध की श्रेणी में गिना है।' उन्होंने लिखा है कि वैदेही नमि का वर्णन उत्तराध्ययन (नौवें अध्ययन) में प्राप्त है और शेष ऋषियों का वर्णन जैन ग्रन्थ 'ऋषिभाषित' में है।' किन्तु वर्तमान में प्राप्त ऋषिभाषित ग्रन्थ में 'पाराशर' ऋषि का नाम नहीं है। औपपातिक (९६-११४) आगम में आठ ब्राह्मण परिव्राजकों तथा आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख मिलता है। उसमें पराशर और द्वीपायन को ब्राह्मण परिव्राजक में गिनाया है। ७०-७२ वें श्लोक में स्त्री-परिभोग का समर्थन करने वालों का दृष्टिकोण तथा उसका निरसन सुन्दर उदाहरणों द्वारा किया गया है। ७६ वें श्लोक में मृषावाद और अदत्तादान को त्यागने का उल्लेख है- 'मुसावायं विवज्जेजा अदिण्णादाणं च वोसिरे'चूणिकार ने यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि मूलगुण की व्यवस्था में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का क्रम उपलब्ध है, फिर यहां प्रारंभ में हिंसा का वर्जन न कर मृषावाद के वर्जन की बात क्यों कही गई ? उन्होंने इसका समाधान इस प्रकार किया है- सत्यनिष्ठ व्यक्ति के ही व्रत होते हैं, महाव्रत होते हैं, असत्यनिष्ठ व्यक्ति के नहीं होते। असत्यनिष्ठ व्यक्ति अन्य व्रतों का लोप करके भी कह देता है कि वह व्रतों का पालन कर रहा है। उसके मृषा बोलने का त्याग नहीं है। इस प्रकार उसके कोई व्रत बचता नहीं।' एक व्यक्ति ने मृषावाद को छोड़कर शेष व्रत ग्रहण किये। कालान्तर में मानसिक कमजोरी आई और वह एक-एक कर सभी व्रतों का लोप करने लगा। सत्य का व्रत न होने के कारण पूछने पर कहता मैंने बतों का लोप कहां किया है। इस प्रकार वह संपूर्ण व्रतों का लोप कर बैठा । इसलिये मृषावाद का त्याग करना अन्यान्य व्रतों का कारण बन सकता है। आचार्य विनोबा भावे का अभिमत था कि जैन धर्म में अहिंसा का स्थान मुख्य है, सत्य का स्थान गौण है, किन्तु प्रस्तुत उल्लेख से उसका समर्थन नहीं होता। जैन धर्म में अहिंसा और सत्य दोनों का सापेक्ष स्थान है, कहीं अहिंसा की मुख्यता प्रतिपादित है तो कहीं सत्य की मुख्यता प्रतिपादित है। प्रस्तुत प्रसंग में यह स्पष्ट है। छासठवें श्लोक में बद्धों का एक बहुमान्य सिद्धान्त–'सातं सातेण विज्जई-सुख से सुख प्राप्त होता है-का प्रतिपादन कर आगे के दो श्लोकों में उसका निरसन किया गया है। बौद्ध कहते हैं हम यहां (वर्तमान में) सुखपूर्वक जी रहे हैं, मौज कर रहे हैं। यहां से मरकर हम मोक्षसुख को प्राप्त करेंगे । सुख से ही सुख प्राप्त होता है। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है-- मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चापराले। द्राक्षाखंडं शर्करा चार्द्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः॥ बुद्ध ने इस प्रसंग पर निग्रन्थों पर आक्षेप करते हुए कहा -निग्रन्थ ज्ञात पुत्र तपस्या आदि कायक्लेश से मोक्ष की प्राप्ति, सुख की प्राप्ति बतलाते हैं । इसका तात्पर्य है कि दुःख से सुख मिलता है । यह मिथ्यावचन है । सुख से ही सुख मिल सकता है। निर्ग्रन्थ परंपरा न सुख से सुख प्राप्ति को स्वीकार करती है और न दुःख से सुख प्राप्ति की बात कहती है । यदि सुख से सुख प्राप्त हो तो फिर राजा, अमीर आदि पुरुष सदा सुखी ही होंगे। यदि दुःख से सुख मिलता है तो फिर अनेक प्रकार के दुःख झेलने वाले लोग अगले जन्मों में सुखी होंगे। किन्तु ऐसा होता नहीं है। ___ इसलिये सुख से सुख प्राप्त होता है या दुःख से सुख प्राप्त होता है- ये दोनों मिथ्या सिद्धान्त हैं। सुख की प्राप्ति कर्मनिर्जरा से होती है । भगवान् महावीर ने कहा है-'जे निज्जिण्णे से सुहे।" १. चूणि, पृ० ६५-६६ : राजानो भूत्वा वनवासं गताः .... एतेसि पत्तेयबुद्धाणं । २. चूणि, पृ०६६ : इह सम्मत त्ति इहापि ते इसिभासितेसु पढिज्जंति। णमी ताव णमिपब्वज्जाए सेसा सव्वे अण्णे इसिभासितेसु ।... ३. वही, पृ० १०० : कस्मान्मृषावादः पूर्वमुपदिष्टः ? न प्राणातिपातः? इति, उच्यते, सत्यवतो हि व्रतानि भवन्ति, नासत्यवतः, अनृतिको हि प्रतिज्ञालोपमपि कुर्यात्, प्रतिज्ञालोपे च सति किं बतानामवशिष्टम् ? ४. भगवती, ७/१६० । Jain Education Intemational Education International Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : प्रामुख कुछेक व्यक्ति (अन्य यूथिक या स्वयूथिक) कष्टों से घबराकर कहते हैं 'सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ते । तस्मात् सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुखप्रदाता लभते सुखानि ॥' सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख से घबराते हैं । इसलिये सुखेच्छु व्यक्ति सदा सुख देने का प्रयत्न करे, क्योंकि जो सुख देता है, वह सुख पाता है। 'मणुण्णं भोयणं भोच्चा, मणण्णं झायए सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणो ॥' मनोज्ञ भोजन, मनोज्ञ शयनासन और घर-मकान से चित्त प्रसन्न होता है, उससे समाधि मिलती है और समाधि से मुक्ति प्राप्त होती है। इसलिये स्वतः सिद्ध है कि सुख से सुख मिलता है।' इसका निरसन करते हुये वृत्तिकार ने अनेक सुन्दर श्लोक उद्धृत किये हैं।' 'सातं सातेण विज्जई'- इस प्रसंग में भगवान् बुद्ध द्वारा धर्म समादान के चार विभागों का वर्णन द्रष्टव्य है। एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती नगरी के जेतवन में अनाथ पिण्डक के आराम में विहरण कर रहे थे। उन्होंने भिक्षुओं को आमंत्रित कर कहा-धर्म समादान चार प्रकार का है' १. वर्तमान में सुख, भविष्य में दुःख । २. वर्तमान में दुःख, भविष्य में दुःख । ३. वर्तमान में दुःख, भविष्य में सुख । ४. वर्तमान में सुख, भविष्य में सुख । उक्त विभागों में चौथे विभाग को 'सातं सातेण विज्जई' का आधार बनाया जा सकता है, किन्तु भावना की दृष्टि से और बौद्ध मान्यता की दृष्टि से यह सही नहीं है। यहां चौथे विभाग की भावना यह है -जो भिक्षु वर्तमान जीवन में तीव्र राग, तीव्र द्वेष, तीव्र मोह वाला नहीं होता, वह उनसे होने वाले दुःख और दौर्मनस्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता। वह अनुकूल धर्मों से निवृत्त होकर अध्यात्म में लीन रहता है । वह यहां भी सुख पाता है और मरकर भी सुगति और स्वर्ग लोक में उत्पन्न होता है। इसलिये 'सातं सातेण विज्जई' उन्हीं बौद्धों की मान्यता हो सकती है जो वर्तमान में इन्द्रिय विषयों के भोगों को भोगते हुए साधना करते हैं और मरने के पश्चात् मोक्षगमन का विश्वास रखते हैं । १. वृत्ति, पत्र ९७। २. देखें-वृत्ति, पत्र ६७ ॥ ३. मज्झिमनिकाय ४५/१-६ : चत्तारिमानि भिक्खवे धम्मसमादानानि अत्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चप्पन्नसुखं आयति दुक्ख विपाकं । अत्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आतिं दुक्खविपाकं । अस्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नदुक्खं आयति सुखविपाकं । अस्थि भिक्खवे धम्मसमादानं पच्चुप्पन्नसुखं आयति सुखविपाकं ।। ४. मज्झिमनिकाय । ४५/५/६ । Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल १. सूरं मण्णइ अप्पार्ण जाव जेयं ण पस्सई । जुतं दधम्मा [न्ना ? ] णं सिसुपालो व महारहं |१| २. पवाया सूरा रणसोसे संगमम्मि उबट्ठिए । माया पुत्तं ण जाणाइ जेएण परिच्छिए |२| ३. एवं सेहे वि अप्पुट्ठे भिक्खुचरिया अकोविए । सूरं मण्गइ अप्पार्ण जाव लुहं ण सेवए |३| ४. जया हेमंतमासम्म सीयं कुस सवायनं । तत्थ मंदा विसीयंति रज्जहीणा व खत्तिया |४| ५. पुडे विमणे गिम्हाहितावेणं सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसोयंति मच्छा अप्पोदए जहा |५| ६. सया दत्तेसणा युव जायणा दुप्पणोल्लिया । कम्मता दुग्गा देव इच्चाहं पुढोजणा |६| ७. एए सद्दे अचायंता गामेलु नगरेस वा । तत्थ मंदा विसोयंति संगामम्मि व भीरुणो ॥७॥ : तदयं प्रभवणं तोसरा अध्ययन उवसग्गपरिण्णा उपसर्गपरिज्ञा पढमो उद्देसो पहला उद्देशक संस्कृत छापा शूरं मन्यते आत्मानं, यावज्जेतारं न पश्यति । युध्यमानं दृढधर्माणं ( धन्वानं ), शिशुपाल इव महारथम् ॥ प्रयाता. शूराः रणशीर्षे, संग्रामे उपस्थिते । माता पुत्रं न जानाति, जेत्रा परिविज्ञतः ॥ एवं सेवोऽपि अपुष्ट, भिक्षुचर्या-अकोविदः शूरं मन्यते आत्मानं, यावत् रूक्षं न सेवते ॥ यथा हेमन्तमासे, शोतं स्पृशति स्वातकम् । तत्र मन्याः विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः ॥ स्पृष्टो प्रोष्माभितापेन, विमनाः सुपिपासितः । तत्र मन्दाः विषीदन्ति, मत्स्याः अल्पोदके यथा ॥ सदा दत्तैषणा याचना कर्मान्ता इत्याहुः दुःखं, दुष्प्रगोया । दुर्भगाश्चैव पृथग्जनाः ॥ एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तः ग्रामेषु नगरेषु वा । तत्र मन्दा विषोदन्ति, संग्रामे इव भोरवः ।। हिन्दी अनुवाद १. जब तक जूझते हुए दृढ़ सामर्थ्य ( धनुष्य ) वाले' विजेता को नहीं देखता तब तक (कायर मनुष्य भी ) अपने आपको शूर मानता है, जैसे कि कृष्ण को देखने से पूर्व मिथुन' । २. अपने आपको शूर मानने वाले वे युद्ध के उपस्थित होने पर उसकी अग्रिम पंक्ति में जाते हैं । (जिसके आतंक से भयभीत ) माता अपने पुत्र को नहीं जान पाती, (ऐसे भयंकर युद्ध में) विजेता के द्वारा क्षतविक्षत होने पर वे दीन हो जाते हैं ।) २. इसी प्रकार अधर्माभि की चर्या में अनिपुग शैक्ष (नव दीक्षित) भी तब तक अपने आपको शूर मानता है जब तक वह रूक्ष (संयम) का सेवन नहीं करता । ४. जब जाड़े के महीनों में बर्फीली हवा और सर्दी लगती है तब मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे राज्य से च्युत राजा' । ५. जब गर्मी में धुप से पृष्ट होकर विमनस्क और बहुत प्यासे हो जाते हैं तब वे मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे थोड़े पानी में मछली । ६. निरंतर दत्त भोजन की एषणा करना कष्टकर है। याचना दुष्कर है । साधारण जन भी यह कहते हैं- ये अभागे कर्म से पलायन किए हुए हैं ।" ७. गावों और नगरों में इन ( जन साधारण द्वारा कहे गये) शब्दों को सहन न करते हुये मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे संग्राम में भीरू । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ अप्येकः क्षधितं भिक्ष, ० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ८-१६ ८. कोई क्रूर कुत्ता क्षुधित (भिक्षा के लिए पर्यटन करते हुए) भिक्षु को काट खाता है, उस समय मंद व्यक्ति वैसे ही विषाद को प्राप्त होता है जैसे अग्नि के छू जाने पर प्राणी। ६. (साधु-चर्या से) प्रतिकूल पथ पर चलने वाले" कुछ लोग कहते हैं-इस प्रकार का जीवन जीने वाले ये कृत का प्रतिकार कर रहे हैं। (अपने किये हुये कर्मों का फल भोग रहे हैं।) सूयगडो १ ८. अप्पेगे खुझियं भिक्खु सुणी डंसइ लूसए। तत्थ मंदा विसीयंति तेउपुट्ठा व पाणिणो ।। ६. अप्पेगे पडिभासंति पाडिपंथियमागया । पडियारगया एए जे एए एव-जीविणो।। १०. अप्पेगे वई जंजंति णिगिणा पिंडोलगाहमा। मुंडा कंडू-विणठेंगा उज्जल्ला असमाहिया ।१०। ११. एवं विप्पडिवण्णेगे अप्पणा उ अजाणया। तमाओ ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउडा ।११॥ १२. पुट्ठो य दंसमसगेहि तणफासमचाइया । ण मे दिट्टे परे लोए कि परं मरणं सिया ? ॥१२॥ १०. कुछ लोग कहते हैं-ये नग्न, पिंड मांग कर खाने वाले," अधम, मुंड, खुजली के कारण विकृत शरीर वाले," मैले," और दुःखी हैं।" तत्र मन्दाः विषीदन्ति, तेजःस्पृष्टा इव प्राणिनः ॥ अप्येके प्रतिभाषन्ते, प्रातिपथिकत्वमागताः प्रतिकारगता एते, ये एते एवं-जीविनः ।। अप्येके वाचं युञ्जन्ति, नग्नाः पिण्डोलकाधमाः । मुण्डाः कण्डविनष्टाङ्गाः, उज्जल्लाः असमाहिताः ॥ एवं विप्रतिपन्ना एके, आत्मना तु अज्ञाः । तमसस्ते तमो यन्ति, मन्दा मोहेण प्रावृताः ।। स्पष्टश्च दंशमशकैः, तृणस्पर्शमशक्नुवन् । न मया दृष्टः परो लोकः, किं परं मरणं स्यात् ? ॥ ११. कुछ भिक्षु स्वयं अजान होने के कारण उक्त वचनों से मिथ्या धारणा बना लेते हैं। वे मंद मनुष्य मोह से" आच्छन्न होकर अन्धकार से (और भी घने) अन्धकार में जाते हैं।" १२. मुनि डांस और मच्छरों के" काटने पर तथा तण स्पर्श (घास के बिछौने) को न सह सकने के कारण (सोचने लगता है)-परलोक मैंने नहीं देखा, (तो फिर इस कष्टमय जीवन का) मृत्यु के अतिरिक्त और क्या (फल) होगा? १३. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराइया तत्थ मंदा विसीयंति मच्छा पविट्ठा व केयणे ।१३। सन्तप्ताः केशलोचेन, ब्रह्मचर्यपराजिताः । तत्र मन्दाः विषोदन्ति, मत्स्याः प्रविष्टा इव केतने ॥ १३. केशलोच" से संतप्त और ब्रह्मचर्य में पराजित मंद मनुष्य वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे जाल में फंसी हुई मछलियां। १४. आत्मघाती चेष्टा करने वाले", मिथ्यात्व से ग्रस्त भावना वाले, हर्ष (क्रीडाभाव)" और द्वेष से युक्त कुछ अनार्य मनुष्य मुनियों को कष्ट देते हैं। १४. आयदंडसमायारा मिच्छासंठियभावणा । हरिसप्पओसमावण्णा केई लूसंतिऽणारिया ॥१४॥ १५. अप्पेगे पलियंतंसि चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बंधति भिक्खयं बाला कसायवसणेहि य।१५। १६. तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा। णाईणं सरई बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ आत्मदण्डसमाचाराः, मिथ्यासंस्थितभावनाः । हर्षप्रदोषं आपन्नाः, केचिद लूषयन्ति अनार्याः ॥ अप्येके पर्यन्ते, चारः चोर इति सुव्रतम् । बध्नन्ति भिक्षुकं बालाः, कषायवसनैश्च ॥ तत्र दण्डेन संवीतः, मुष्टिना अथवा फलेन इव । ज्ञातीनां स्मरति बालः, स्त्री वा क्रुद्धगामिनी॥ १५. सीमान्त प्रदेश में रहने वाले" कुछ अज्ञानी मनुष्य सुव्रती भिक्षु को 'यह गुप्तचर है, यह चोर हैऐसा कहकर लाल वस्त्रों से" बांधते हैं। १६. वहां डंडे, घूसे या थप्पड़ से" पीटे जाने पर अज्ञानी भिक्षु वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है" जैसे रूठ कर घर से भाग जाने वाली स्त्री। Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७. एए भो कसिणा फासा फरुसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवीता कीवा वसगा गया गिहं ॥ १७ ॥ —ति प्रेमि ॥ १८. अहिमे सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुस्तरा । जत्य एमे बिसीयंति ण चयंति जवित्तए |१| १६. अप्पे णायओ दिस्स रोयंति परिवारिया । पोसणे तात! पुट्टो सि करस तात ! जहासि थे |२| २०. पिया ते थेओ तात ! ससा ते खुड्डिया इमा । भायरो ते सवा तात ! सोयरा कि जहासि मे ? ॥३॥ २१. माय पियरं पोस एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं तात ! जे पालेति उ मायरं ॥४ २२. उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते तात ! खुड्डया | भारिया ते णवा तात ! मा सा अण्णं जणं गमे ॥ ५ ॥ २३. एहि तात ! घरं जामो मा तं कम्म सहा वयं । बीयं पि ताव पासामो जामु ताव सयं गिहं | ६ | २४. तुं तात ! पुणाप्रगच्छे ण तेणाऽसमणो सिया । अकामगं परक्कमंत को तं वारेउमरहद ? 1७1 १३७ एते भोः! कृत्स्ना स्पर्शाः, परुषाः दुरध्यासकाः । हस्तिनः इव शरसंवीताः, क्लीबाः वशकाः गताः गृहम् ॥ इति ब्रवीमि ॥ बोश्रो उद्देसो : दूसरा उद्देशक अथ इमे सूक्ष्मा: संगाः, भिक्षूणां ये दुरुतराः । यत्र एके विषीदन्ति न शक्नुवन्ति यापयितुम् ॥ अप्येके ज्ञातीः दृष्ट्वा, रुदन्ति परिवार्य । पोषय नः तात ! पुष्टोऽसि, कस्मै तात ! जहासि नः ॥ पिता ते स्थविरकस्तात !, स्वसा ते क्षुद्रिका इयम् । भ्रातरस्ते श्रवास्तात !, सोदराः किं जहासि नः ॥ मातरं पितरं पोषय, एवं लोको भविष्यति । एवं खलु लौकिकं तात !, ये पालयन्ति तु मातरम् ॥ उत्तरा मधुरोल्लापाः, पुत्रास्ते तात ! क्षुद्रकाः । भार्या ते नवा तात !, मा सा अन्यं जनं गच्छेत् ॥ प्र० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : ग्लो० १७-२४ १७. हे वत्स ! ये सारे स्पर्श (परिषह) कठोर और दुःसह हैं। इनसे विवश होकर पौहीन भिक्षु वैसे हो पर लौट आता है जैसे (संग्राम में) बाणों से बींधा हुआ हाथी । एहि तात ! गृहं यामः, मा त्वं कर्मसहाः वयम् । द्वितीयमपि तावत् पश्यामः, यामः तावत् स्वकं गृहम् ॥ गत्वा तात ! पुनरागच्छे, न तेन अश्रमणः स्यात् । अकामकं पराक्रमन्तं, कस्त्वां वारयितुमर्हति ? ॥ - ऐसा मैं कहता हूं । १५. ये सूक्ष्म संग (ज्ञाति-संबंध ) " भिक्षुओं के लिये दुस्तर होते हैं। वहां कुछ विषाद को प्राप्त होते हैं, इन्द्रिय और मन का संयम करने में समर्थ नहीं होते । १६. कुछ ज्ञातिजन ( प्रब्रजित होने वाले या पूर्व - प्रव्रजित को) देखकर उसे घेर लेते हैं और रोते हुये कहते हैं—हे तात ! हमने तुम्हारा पोषण किया है, अब तुम हमारा पोषण करो। फिर तात ! तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो ? २०. 'तात ! तुम्हारा पिता स्थविर" है । तुम्हारी यह बहिन छोटी है । तात ! तुम्हारे वे सगे भाई आज्ञाकारी हैं, फिर तुम हमें क्यों छोड़ रहे हो ?' २१. 'तात ! तुम माता-पिता का पोषण करो, इस प्रकार तुम्हारा लोक ( यह और पर सफल ) हो जायेगा ।" तात ! लौकिक आचार" भी यही है-मातापिता का पालन करना ।' २२. 'तात ! तुम्हारे उत्तम और मधुरभाषी ये छोटेछोटे" पुत्र हैं । तात ! तुम्हारी पत्नी नवयौवना " है । वह दूसरे मनुष्य के पास न चली जाये । २३. 'आओ नात ! घर चलें। तुम काम मत करना । हम काम करने में समर्थ हैं ।" हम पुनः तुम्हें घर में देखना चाहते हैं । आओ, अपने घर चलें ।' २४. 'तात ! घर जाकर तुम पुनः आ जाना | इतने मात्र से तुम अ-श्रमण नहीं हो जाओगे । निष्काम पराक्रम करने वाले तुमको कौन रोक सकेगा ?' Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो१ प्र.३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० २५-३३ यत् किञ्चिद् ऋणकं तात!, २५. 'तात ! तुम्हारा जो कुछ ऋण था उस सबको हमने तदपि सर्व समोकृतम् । चुका दिया है। व्यापार आदि के लिये तुम्हें जो हिरण्यं व्यवहाराय, धन की आवश्यकता होगी, वह भी हम तुम्हें देंगे। तदपि दास्यामः ते वयम् ॥ २५. जं किंचि अणगं तात ! तं पि सव्वं समीकतं । हिरण्णं ववहाराइ तं पि दाहामु ते वयं ।। २६. इच्चेव णं सुसेहंति कालुणीयउवट्ठिया । विबद्धो णाइसंगेहि तओsगारं पहावई ।। २७. जहा रुखं वणे जायं मालुया पडिबंधई। एवं णं पडिबंधति णायओ असमाहिए।१०। इत्येव तं सुसेधन्ति, कारुण्यमपस्थिताः । विबद्धो ज्ञातिसंगैः, ततः अगारं प्रधावति ॥ २६. इस प्रकार वे करुण क्रन्दन करते हुये उसे विपरीत शिक्षा देते हैं।" ज्ञातिजनों के सम्बन्धों से बंधा हुआ वह घर लौट आता है। यथा रूक्षं बने जातं, मालका प्रतिबध्नाति । एवं तं प्रतिबध्नन्ति, ज्ञातयः असमाधिना ॥ २७. जिस प्रकार वन में उत्पन्न वृक्ष को मालुका लता" वेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार ज्ञातिजन उसको असमाधि में जकड़ देते हैं । २८. जैसे नया पकड़ा हुआ हाथी (उचित उपायों से) बांधा जाता है वैसे ही वह ज्ञातियों के संग से बंध जाता है।" ज्ञाति जन उसके पीछे वैसे ही चलते हैं जैसे नई ब्याई हुई गाय अपने बछड़े के पीछे।४५ २८. विबद्धो णाइसंगेहि हत्थी वा वि णवग्गहे। पिट्टओ परिसप्पंति सूती गो व्व अदूरगा।११। २६. एए संगा मणुस्साणं पायाला व अतारिमा। कीवा जत्थ य किस्संति णाइसंगेहि मुच्छिया ।१२। विबद्धो ज्ञातिसंगैः, हस्तो वापि नवग्रहे । पृष्ठतः परिसर्पन्ति, सूतिका गौरिव अदूरगा। एते संगा मनुष्याणां, पाताला इव अतार्याः । क्लीबा यत्र च क्लिश्यन्ति, ज्ञातिसंगैः मच्छिताः ॥ २६. मनुष्यों के लिये ये ज्ञाति-संबंध पाताल (समुद्र") की भांति दुस्तर हैं। ज्ञाति-संबंधों में मूच्छित पौरुषहीन व्यक्ति वहां क्लेश पाते हैं। ३०. तं च भिक्ख परिण्णाय सव्वे संगा महासवा। जीवियं णावखेज्जा सोच्चा धम्ममणुत्तरं ।१३। तं च भिक्षः परिज्ञाय, सर्वे संगाः महाश्रवाः । जीवितं नावकाक्षेत्, श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥ ३०. सभी संग महान् आश्रय (कर्म-बंध के हेतु) हैं इसे जानकर तथा अनुत्तर धर्म को सुनकर भिक्षु गृहवासी-जीवन की आकांक्षा न करे । ३१. अहिमे संति आवट्टा कासवेण पवेइया। बुद्धा जत्थावसप्पंति सीयंति अबुहा जहि ॥१४॥ अथ इमे सन्ति आवर्ताः, काश्यपेन प्रवेदिताः । बुद्धाः यत्र अपसर्पन्ति, सीदन्ति अबुधा यत्र ॥ ३१. ये (वक्ष्यमाण) आवर्त हैं-ऐसा काश्यप (भगवान् महावीर) ने कहा है। बुद्ध उनसे दूर रहते हैं और अ-बुद्ध उनमें फंस जाते हैं । ३२. रायाणो रायऽमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया। णिमंतयंति भोगोह भिक्खुयं साहुजीविणं ।१५॥ राजानो राजामात्याश्च, ब्राह्मणा अथवा क्षत्रियाः । निमन्त्रयन्ति भोगः, भिक्षुकं साधुजी विनम् ॥ ३२. राजा, राजमंत्री, ब्राह्मण" अथवा क्षत्रिय" संयमजीवी भिक्षु को भोगों के लिये निमन्त्रित करते हैं -५१ ३३. हत्यस्स-रह-जाणेहि विहारगमणेहि य। भंज भोगे इमे सग्घे महरिसी ! पूजयामु तं ॥१६॥ हस्त्यश्वरथयानैः, विहारगमनैश्च भुङ क्ष्व भोगान् इमान् श्लाघ्यान्, महर्षे! पूजयामस्त्वाम् ।। ३३. तुम हाथी, घोड़े, रथ और यान तथा उद्यानक्रीड़ा के द्वारा इन श्लाघनीय भोगों को भोगो । महर्षे ! हम (इन वस्तुओं का उपहार देकर) तुम्हारी पूजा करते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३४. वत्थगंधमलंकार इत्थीओ सय गाणि य। भुजाहिमाई भोगाई आउसो ! पूजायामु तं ॥१७॥ ३५. जो तुमे णियमो चियो भिक्खुभावम्मि सुब्बया!। अगारमावसंतस्स सव्वो संविजए तहा।१८। ३६. चिरं दूइज्जमाणस्स दोसो दाणि कुओ तव ?। इच्चेव णं णिमंतेंति णीवारेण व सूयरं ।१६। ३७. चोइया भिखुचरियाए अचयंता जवित्तए। तत्थ मंदा विसीयंति उज्जाणंसि व दुब्बला ।२०। ३८. अचयंता व लहेण उवहाणेण तज्जिया। तत्थ मंदा विसीयंति पंकसि व जरगवा ॥२१॥ १३६ प्र० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ३४-४१ वस्त्रगंधालंकारं, ३४. वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्रियां और पलंग-इन भोगों स्त्रियः शयनानि च । को भोगो । आयुष्मन् ! हम (इन वस्तुओं का उपभुङन इमान् भोगान्, हार देकर) तुम्हारी पूजा करते हैं। आयुष्मन्! पूजयामस्त्वाम् ॥ यस्त्वया नियमः चाणः, ३५. हे सुव्रत ! तुमने भिक्षु-जीवन में जिस नियम का भिक्षुभावे सुव्रत !। आचरण किया है, वह सब घर में बस जाने पर अगारमावसतः, भी वैसे ही विद्यमान रहेगा।" सर्वः संविद्यते तथा ॥ चिरं द्रवतः, ३६. तुम चिरकाल से (मुनिचर्या में) विहार कर रहे दोष इदानों कुतस्तव ?। हो, अब तुममें दोष कहां से आयेगा ?' वे भिक्षु को इत्येवं तं निमन्त्रयन्ति, इस प्रकार निमंत्रित करते हैं जैसे चारा५ डालकर नीवारेण इव सूकरम् ॥ सूअर को। चोदिताः भिक्षचया, ३७. भिक्षुचर्या में चलने वाले किन्तु उसका निर्वाह करने अशक्नुवन्तः यापयितुम् । में असमर्थ मंद पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त तत्र मन्दाः विषोदन्ति, होते हैं जैसे ऊंची चढाई में" दुर्बल (बैल)। उद्याने इव दुर्बलाः ।। अशक्नवन्तः वा रूक्षेण, ३८. संयम-पालन में असमर्थ तथा तपस्या से" तजित मंद उपधानेन तजिताः । पुरुष वैसे ही विषाद को प्राप्त होते हैं जैसे कीचड़ तत्र मन्दाः विषीदन्ति, में बूढ़ा बैल । पंके इव जरद्गवाः ॥ एवं निमन्त्रणं लब्ध्वा, ३६. विषयों में मूच्छित, स्त्रियों में गृद्ध और कामों में मूच्छिताः गृद्धाः स्त्रीषु । आसक्त भिक्षु इस प्रकार का निमंत्रण पाकर, अध्युपपन्नाः कामेष, समझाने-बुझाने पर भी घर चले जाते हैं । चोद्यमानाः गृहं गताः ॥ इति ब्रवीमि ॥ -ऐसा मैं कहता हूं। ३६. एवं णिमंतणं लद्ध मुच्छिया गिद्ध इत्थिसु। अझोववण्णा काहि चोइज्जंता गिहं गय ।२२॥ -त्ति बेमि॥ तइप्रो उद्दे सो : तोसरा उद्देशक ४०. जहा संगामकालम्मि पिओ भीरु वेहइ। वलयं गहणं णूमं को जाणइ पराजयं ?॥१॥ ४१. मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स मुहुत्तो होइ तारिसो। पराजियाऽवसप्पामो इति भीरू उवेहई ।२। यथा संग्रामकाले, ४०. जैसे युद्ध के समय डरपोक सैनिक पीछे की ओर पृष्ठतः भोरूः प्रेक्षते । गढे," खाई और गुफा" को देखता है, कौन जाने वलयं गहनं 'णूम', पराजय हो जाये ? को जानाति पराजयम् ?॥ महत्तानां महर्तस्य, ४१. घड़ी और घड़ियों में कोई एक घड़ी ऐसी होती है महत्तॊ भवति तादृशः । (जिसमें जय या पराजय होती है)। पराजित होने पराजिता अवसामः, पर हम पीछे भागेंगे, इसलिए वह डरपोक सैनिक इति भोरूः उपेक्षते ॥ (पीछे की ओर छिपने के स्थान को) देखता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४२. एवं तु समणा एगे अबलं णच्चाण अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स अवकप्पंतिमं सुयं ।३। ४३. को जाणइ वियोवातं इत्थीओ उदगाओ वा?। चोइज्जंता पवक्खामो ण णे अस्थि पकप्पियं ।।। ४४. इच्चेवं पडिलेहंति वलयाइ पडिलेहिणो। वितिगिछसमावण्णा पंथाणं व अकोविया ॥५॥ ४५. जे उ संगामकालम्मि णाया सूरपुरंगमा। ण ते पिट्ठमुवेहिति किं परं मरणं सिया ?।६। १४० प्र० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ४२-५० एवं तु श्रमणा एके, ४२. इसी प्रकार कुछ श्रमण अपने को दुर्बल जानकर, अबलं ज्ञात्वा आत्मकम् । भविष्य के भय को देखकर इस श्रुत (निमित्त, अनागतं भयं दृष्ट्वा , ज्योतिष आदि) का अध्ययन करते हैं। अवकल्पयन्ति इदं श्रुतम् ।। को जानाति व्यवपातं, ४३. 'कौन जाने स्त्री या जल के (परीसह न सह सकने स्त्रीतः उदकाद् वा। के) कारण संयम से पतन हो जाये !' हमारे पास चोद्यमानाः प्रवक्ष्यामः, धन अजित नहीं है इसलिए प्रश्न पूछने पर हम न नः अस्ति प्रकल्पितम् ॥ (निमित्त आदि विद्या का प्रयोग करेंगे । इत्येवं प्रतिलिखन्ति, ४४. गढ़ों को देखने वाले इसी प्रकार सोचा करते हैं । वलयादिप्रतिलेखिनः । पथ को नहीं जानने वाले जैसे पथ के प्रति संदिग्ध विचिकित्सासमापन्नाः, होते हैं, वैसे ही वे श्रमण (अपने श्रामण्य के प्रति) पन्थानं इव अकोविदाः ॥ संदिग्ध रहते हैं। ये तु संग्रामकाले, ज्ञाताः शूरपुरङ्गमाः । न ते पृष्ठं उपेक्षन्ते, किं परं मरणं स्यात् ॥ ४५. जो लोग प्रसिद्ध, शूरों में अग्रणी हैं वे संग्राम-काल में पीछे मुड़कर नहीं देखते। (वे यह सोचते हैं) मरने से अधिक क्या होगा ?९४ ४६. एवं समुट्टिए भिक्खू वोसिज्जा गारबंधणं । आरंभं तिरियं कट्ट अत्तत्ताए परिव्वए।७। एवं समुत्थितः भिक्षुः, पुत्सृज्य अगारबन्धनम् । आरम्भं तिर्यक् कृत्वा, आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥ ४६. इस प्रकार घर के बन्धन को छोड़कर (संयम में) उपस्थित भिक्षु आरंभ (हिंसा) को छोड़कर आत्म-हित के लिसे" परिव्रजन करे । ४७. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविणं । जे एवं परिभासंति अंतए ते समाहिए। तमेके भिक्षकं ये एवं अन्तके परिभाषन्ते, साधुजोविनम् । परिभाषन्ते, ते समाधेः ॥ ४७. कुछ अन्यतीथिक साधु-वृत्ति से जीने वाले उस भिक्षु की निंदा करते हैं। जो इस प्रकार निंदा करते हैं वे समाधि से दूर हैं । ४८. संबद्धसमकप्पा हु अण्णमण्णेसु मुच्छिया। पिंडवायं गिलाणस्स जं सारेह दलाह य ।। सम्बद्धसमकल्पाः खलु, अन्योन्यं मूच्छिताः । पिण्डपातं ग्लानस्य, यद् सारयत दत्त च॥ ४८. (वे कहते हैं -) आप एक-दूसरे में मूच्छित होकर गृहस्थों के समान आचरण करते हैं । आप रोगी के लिये पिंडपात (आहार) लाकर उन्हें देते ४६. एवं तुब्भे सरागत्था अण्णमण्णमणव्वसा । णट्ठ-सप्पह-सब्भावा संसारस्स अपारगा।१०॥ एवं यूयं सरागस्थाः , अन्योन्यं अनवशाः । नष्टसत्पथसद्भावा:, संसारस्य अपारगाः ॥ ४६. इस प्रकार आप रागी, एक-दूसरे के वशवर्ती, सत्पथ की उपलब्धि से दूर तथा संसार का पार नहीं पाने वाले हैं। ५०. अह ते पडिभासेज्जा भिक्खू मोक्खविसारए। एवं तुब्भे पभासंता दुपक्खं चेव सेवहा ॥११॥ अथ तान् प्रतिभाषेत, भिक्षः मोक्षविशारदः । एवं यूयं प्रभाषमाणाः, द्विपक्षं चैव सेवध्वे ॥ ५०. मोक्ष-विशारद भिक्षु उन तीथिकों से कहे-'इस प्रकार आप (हम पर) आरोप लगाते हैं, (और स्वयं) द्विपक्ष का सेवन करते हैं । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५१. भुजह पाएसु गिलाणाभिहडं ति य । तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देस्ताद जंक ॥१२॥ ५२. लिता तिथ्याभितावेणं उज्झिया असमाहिया । जाइकंडूइयं सेयं अरुयस्सावरज्भई ||१३| ५३. तत्तेण अणुसिद्धा ते अपडिपेण जाणया । ण एस णियए मग्गे असमिक्खा वई किई ।१४। ५४. एरिसा जावई एसा अग्गे वेणु व्य करिसिया । गिहिणं अभिहर्ड सेयं जि प उ भिक्खुणं ॥ १६ ॥ ५५. धम्मपण्णवणा जा सा सारम्माण विसोहिया ण उ एयाहि दिट्ठीहिं पुव्वमासि पगप्पियं ॥१७॥ ५६. साहि अणुजुतीहि अचयंता जवित्तए । तो वायं णिराकिच्या ते भुज्जो वि पगमिया | १८ ५७. रागदोसाभिभूयप्पा मिच्छत्तेण अभिया । अक्कोसे सरणं जंति टंकणा इव पव्ययं । १६ ५८. बहुगुणप्पकप्पाई कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणणे ण विरुज्भेज्जा तेणं तं तं समायरे ॥२०॥ ५६. इमं च धम्ममायाय कासवेण पवेदयं । कुण्या भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए।२१। १४१ सूर्य भुङ रु पात्रेषु, ग्लानाभिहृतं इति च । तच्च बीजोदर्क भुक्त्वा, तदुद्देशकादि यत्कृतम् ॥ लिप्ता: तीव्राभितापेन, उज्झताः असमाहिताः । कण्डूि श्रेयः, अरुष: अपराध्यति ॥ तत्त्वेन अनुशिष्टाः ते अप्रतिज्ञेन जानता । न एष नियतो मार्गः, असमीक्ष्या वा कृतिः ॥ ईशी या वान् एषा, अग्रे वेणुरिव कविता | गृहिणां अभिहृतं श्रेयः, भोक्तुं न तु भिक्षूणाम् ।। धर्मप्रज्ञापना या सारम्भाणां विशोधिका । न तु एताभिः दृष्टिभिः, पूर्वमासीत् प्रकल्पितम् ॥ सर्वाभिः अनुयुक्तिभिः, अशक्नुवन्तः यापयितुम् । ततः याद निराकृत्य, ते भूयोऽपि प्रगल्भताः ॥ रागदोषाभिभूतात्मानः, मिथ्यात्वेन अभिद्रताः । आक्रोशान् शरणं यान्ति, तङ्गणा इव पर्वतम् ॥ सा. बहुगुणप्रकल्पानि, कुर्यात् आत्मसमाहितः । येनान्यः न विरुध्येत तेन तत् तत् समाचरेत् ।। इमं च काश्यपेन कुर्याद् भिक्षुः अगिलया धर्ममादाय, प्रवेदितम् । ग्लानस्य, समाहितः ॥ प्र० ३ : उपसर्गपरिक्षा श्लो० ५१-५६ : ५१. धापा में बाते हैं और रोगी के लिये भोजन मंगवाते हैं । आप कन्द-मूल खाते हैं, कच्चा जल पीते हैं और मुनि के निमित्त बना भोजन लेते हैं । लिप्त ५२. आप तीव्र कषाय से असमाहित हैं । " व्रण को (विवेक) शून्य" और अधिक खुजलाना ठीक नहीं है ( क्योंकि उससे ) कठिनाई पैदा होती है । ' ५२. अप्रतिज्ञ (विषय के संकल्प से") और ज्ञानी भिक्षु उन्हें तत्त्व से अनुशासित करते हुये कहते 'आपका यह मार्ग युक्तिसंगत" नहीं है। आपकी कथनी और करनी भी सुचिन्तित नहीं है। - ५४. 'गृहस्थ द्वारा लाया हुआ भोजन खाना ठीक है, भिक्षु द्वारा लाया हुआ भोजन ठीक नहीं है'आपका इस प्रकार कहना बांस की फुनगी की तरह कृश है— निश्चय तक पहुंचाने वाला नहीं है । ५५. यह धर्म - त्रज्ञापना (ग्लान मुनि के लिये आहार लाकर देने से ) गृहस्थों के पाप की विशुद्धि होती है । (सूत्रकार पूर्वपक्ष के प्रति कहते हैं) तुम्हारी पूर्व परम्परा में इन दृष्टियों की प्रकल्पना नहीं है । " ५६. वे जब सभी अनुयुक्तियों के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना करने में असमर्थ हो जाते हैं तब वाद को छोड़कर फिर धृष्ट हो जाते हैं ।" ५७. राग-द्वेष से अभिभूत और मिच्या शरणाओं से भरे हुए गाली-गली की शरण में चले जाते हैं, जैसे तंगण" पर्वत की शरण में । २५. वात्म-समाहित युवाकाल में) बहुगुणउत्पादक चर्चा करे । वैसा आचरण (हेतु आदि का (प्रयोग) करे जिससे कोई विरोधी न बने । ५६. काश्यप ( भगवान् महावीर ) के द्वारा बताये गये इस धर्म को स्वीकार कर शान्तचित्त भिक्षु अग्लानभाव से" रुग्ण भिक्षु की सेवा करे । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६०. संखाय पेसलं धम्म दिदिमं परिणिव्वुडे । उवसग्गे णियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।२२॥ -त्ति बेमि॥ १४२ संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिर्वतः । उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् । इति ब्रवीमि ॥ ० ३ : उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ६०-६६ ६०. दृष्टिसंपन्न और प्रशान्त भिक्षु पवित्र धर्म को जान, मोक्ष-प्राप्ति तक उपसर्गों को सहता हुआ परिव्रजन करे। -ऐसा मैं कहता हूं। चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक ६१. आहंसु महापुरिसा पुवि तत्ततवोधणा। उदएण सिद्धिमावण्णा तत्थ मंदो विसीयइ।१ आहुः महापुरुषाः, पूर्व तप्ततपोधनाः । उदकेन सिद्धिमापन्नाः, तत्र मन्दो विषीदति ॥ ६१. कहा जाता है कि अतीत काल में" तप्त तपोधन महापुरुष सचित्त जल से स्नान आदि करते हुए सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। यह सोचकर मंद भिक्षु (अस्नान आदि व्रतों में) विषण्ण (संदिग्ध) हो जाता ६२. अभुजिया णमी वेदेही रामउत्ते य भुजिया। बाहुए उदगं भोच्चा तहा तारागणे रिसी।२। अभक्त्वा नमिः वदेही, रामपुत्रश्च भुक्त्वा । बाहुकः उदकं भुक्त्वा, तथा तारागणः ऋषिः ।। ६२. विदेह जनपद के राजा नमि ने भोजन छोड़कर, (राजर्षि) रामपुत्र ने भोजन करते हुए तथा बाहुक और तारागण ऋषि ने केवल जल पीते हुए (सिद्धि प्राप्त की।) ६३. आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी। पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य।३। आसिलः देविलश्चैव, द्वीपायनो महर्षिः । पाराशरः दकं भुक्त्वा, बीजानि हरितानि च ॥ ६३. तथा आसिल-देविल, द्वैपायन और पाराशर महर्षियों ने सचित्त जल, बीज और हरित का सेवन करते हुए (सिद्धि प्राप्त की।)" ६४. एए पुव्वं महापुरिसा आहिया इह संमया। भोच्चा बीयोदगं सिद्धा मेयमणुस्सुयं ।।। एते पूर्व महापुरुषाः, आहृताः इह सम्मताः । भक्त्वा बीजोदकं सिद्धाः, इति ममैतद् अनुश्रुतम् ॥ ६४. अतीत में हुए ये महापुरुष (भारत आदि पुराणों में) आख्यात हैं और यहां (ऋषिभाषित आदि जैन ग्रन्थों में) भी सम्मत हैं। इन्होंने सचित्त बीज और जल का सेवन कर सिद्धि प्राप्त की-यह मैंने परम्परा से सूना है। ६५. तत्थ मंदा विसीयंति वाहच्छिण्णा व गद्दभा। पिओ परिसप्पंति पीढसप्पीव संभमे ।। तत्र मन्दा विषीदन्ति, ६५. (यह सोचकर) मंद भिक्षु विषाद को प्राप्त होते वाहच्छिन्ना इव गर्दभाः ।। हैं । भार को बीच में ही डाल देने वाले" गधे की पृष्ठतः परिसर्पन्ति भांति वे (अस्नान आदि व्रतों को) बीच में ही छोड़ पीठसपिणः इव सम्भ्रमे ।। देते हैं। वे कठिनाई के समय" मोक्ष की ओर प्रस्थान करने वाले मुमुक्षुओं से पंगु" की भांति पीछे रह जाते हैं। ६६. इहमेगे उ भासंति सातं सातेण विज्जई। जे तत्य आरियं मग्गं परमं च समाहियं ।। इह एके तु भाषन्ते, सातं सातेण विद्यते । यस्तत्र आर्यो मार्गः, परमश्च समाधिकः ॥ ६६. कुछ दार्शनिक कहते हैं-'सुख से सुख प्राप्त होता है।' जो आर्य मार्ग है। (वह सुखकर है) उससे परम समाधि (प्राप्त होती है।) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १४३ ०३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो० ६७-७५ मा एतं अपमन्यमानाः, अल्पेन लुम्पथ बहुम् । एतस्य अमोक्षे, अयोहारी इव खिद्यध्वे ॥ ६७. इस अप-सिद्धांत को मानते हुते आप थोड़े के लिये बहुत को न गवाएं। इस अप-सिद्धान्त को न छोड़ने के कारण कहीं आप लोहवणिक् की भांति" खेद को प्राप्त न हों।" प्राणातिपाते वर्तमानाः, मषावादे असंयता: । अदत्तादाने वर्तमानाः, मैथने च परिग्रहे । ६८. [इस अप-सिद्धान्त के कारण ही आप] हिंसा करते हैं, मृषावाद के प्रति संयत नहीं हैं, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह में भी प्रवृत्त हैं । ६७. मा एयं अवमण्णंता अप्पेणं लुपहा बहुं। एयस्स अमोक्खाए अयोहारि व्व जूरहा ॥७॥ ६८. पाणाइवाए वढ्ता मुसावाए असंजया। अदिण्णादाणे वटुंता मेहुणे य परिग्गहे ।। ६६. एवमेगे उ पासत्था पण्णवेंति अणारिया। इत्थीवसं गया बाला जिणसासणपरंमुहा । ७०. जहा गंडं पिलागं वा परिपीलेत्ता मुहत्तगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया?॥१०॥ ६६. कुछ अनार्य, स्त्री के वशवर्ती, अज्ञानी और जिन शासन के पराङ्मुख पार्श्वस्थ' इस प्रकार कहते एवमेके तु पावस्थाः , प्रज्ञापयन्ति अनार्याः । स्त्रीवशं गताः बालाः, जिनशासनपराङ मुखाः ॥ यथा गण्डं पिटकं वा, परिपीड्य मुहूर्त्तकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ?॥ ७०. जैसे कोई गांठ या फोड़े को दबाकर कुछ समय के लिये (मवाद को निकाल देता है) वैसे ही स्त्री के साथ भोग कर" (कोई वीर्य का विसर्जन करता है) उसमें दोष कैसा? ७१.जहा मंधादए णाम थिमियं पियति दगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया?॥११॥ यथा 'मन्धादकः' नाम, स्तिमितं पिबति दकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ?॥ ७१. जैसे मेंढा जल को गुदला किये बिना धीमे से उसे पी लेता है, वैसे ही (चित्त को कलुषित किये बिना) स्त्री के साथ कोई भोग करता है, उसमें दोष कैसा? ७२. जहा विहंगमा पिंगा थिमियं पियति दगं । एवं विण्णवणित्थीसु दोसो तत्थ को सिया? ॥१२॥ यथा विहंगमा पिंगा, तिमितं पिबति दकम् । एवं विज्ञापना स्त्रीषु, दोषस्तत्र कुतः स्यात् ? ॥ ७२. जैसे पिंग'०५ नामक पक्षिणी आकाश में तैरती हुई (जल को क्षुब्ध किये बिना) धीमे से चोंच से जल पी लेती है, वैसे ही (राग से अलिप्त रह कर) स्त्री के साथ कोई भोग करता है, उसमें दोष कैसा ? ७३. एवमेगे उ पासत्था मिच्छादिट्ठी अणारिया। अज्झोववण्णा काहि पूयणा इव तरुणए ।१३। एवमेके तु पाश्वस्थाः , मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । अध्युपपन्नाः कामेषु, पूतना इव तरुणके ॥ ७३. इस प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि, अनार्य, पार्श्वस्थ काम भोगों में वैसे ही आसक्त होते हैं जैसे भेड़ अपने बच्चे में। ७४. अणागयमपस्संता पच्चुप्पण्णगवेसगा । ते पच्छा परितप्पंति झीणे आउम्मि जोवणे।१४। अनागतं अपश्यन्तः, प्रत्युत्पन्नगवेषकाः ते पश्चात् परितप्यन्ते, क्षीणे आयुषि यौवने ॥ ७४. भविष्य में होने वाले दुःख को दृष्टि से ओझल कर वर्तमान सुख को खोजने वाले वे आयुष्य और यौवन के क्षीण होने पर परिताप करते हैं । ७५. जेहि काले परक्कंतं ण पच्छा परितप्पए। ते धीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवियं ॥१५॥ यः काले पराक्रान्तं, न पश्चात् परितप्यते । ते धीराः बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षति जीवितम् ॥ ७५. जिन्होंने ठीक समय पर पराक्रम किया है वे बाद में परिताप नहीं करते। वे धीर पुरुष (कामासक्ति के) बंधन से मुक्त होकर (काम-भोगमय) जीवन की आकांक्षा नहीं करते । Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०३: उपसर्गपरिज्ञा : श्लो०७६.८२ ७६. जैसे वैतरणी नदी (तेज प्रवाह और विषम तट बंध के कारण) दुस्तर मानी गई है, वैसे ही अबुद्धिमान् पुरुष के लिये इस लोक में स्त्रियां दुस्तर होती यथा नदी वैतरणी, दुस्तरा इह सम्मता । एवं लोके नार्यः, दुस्तरा! अमतिमता ।। यैः नारीणां संयोगाः, पूतनाः पृष्ठतः कृताः। सर्वमेतत् निराकृत्य, ते स्थिताः सुसमाधौ ॥ एते ओघं तरिष्यन्ति, समुद्रं इव व्यवहारिणः । यत्र प्राणाः विषण्णासीनाः, कृत्यन्ते स्वककर्मणा॥ ७७. जिन्होंने विकृति पैदा करने वाले" स्त्रियों के संयोगों को पीठ दिखा दी है और जिन्होंने इस समग्र (अनुकूल परीसह) को निरस्त कर दिया है, वे समाधि में स्थित हैं। सूयगडो १ ७६.जहा गई वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता। एवं लोगंसि णारीओ दुत्तरा अमईमया ॥१६॥ ७७. जेहिं णारीण संजोगा पूयणा पिटुओ कया। सव्वमेयं णिराकिच्चा ते ठिया सुसमाहीए।१७। ७८. एए ओघं तरिस्संति समुदं व ववहारिणो। जत्थ पाणा विसण्णासी किच्चंती सयकम्मुणा ।१८॥ ७६. तं च भिक्खू परिणाय सुव्वए समिए चरे। मुसावायं विवज्जेज्जा ऽदिण्णादाणं च वोसिरे ।१६। ८०. उड्ढमहे तिरियं वा जे केई तसथावरा। सव्वत्थ विरति कुज्जा संति णिव्वाणमाहियं ।२०॥ ८१. इमं च धम्ममायाय कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए।२१॥ ८२.संखाय पेसलं धम्म दिट्टिमं परिणिन्डे । उवसग्गे णियामित्ता आमोक्खाए परिव्वएज्जासि।२२॥ -त्ति बेमि॥ ७८. ये (काम-वासना को जीतने वाले) संसार-समुद्र का पार पा जायेंगे, जैसे व्यापारी समुद्र का पार पा जाता है, जिस (संसार-समुद्र) में प्राणी विषण्ण नोकर रहते हैं और अपने कर्मों के कारण छिन्न होते हैं। ७६. इसे जानकर भिक्षु सुव्रत और समित होकर विहरण करे । वह झूठ बोलना छोड़े और चोरी को त्यागे। ८०. ११५ ऊची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में" उनकी हिंसा से विरत रहे। (विरति ही) शांति है और शांति ही निर्वाण है। तच्च भिक्षः परिज्ञाय, सुव्रतः समितश्चरेत्। __ मृषावादं विवर्जयेत्, अदत्तादानं च व्युत्सृजेत् ॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यक वा, ये केचित् त्रसस्थावराः। सर्वत्र विरति कुर्यात्, शान्तिः निर्वाणमाहृतम् ।। इमं च धर्ममादाय, काश्यपेन प्रवेदितम्। कुर्यात् भिक्षुः ग्लानस्य, अगिलया समाहितः ॥ संख्याय पेशलं धर्म, दृष्टिमान् परिनिर्वत.। उपसर्गान् नियम्य, आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ -इति ब्रवीमि ॥ ५१. काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा बताये गये इस धर्म को स्वीकार कर शांतचित्त भिक्षु अग्लानभाव से रुग्ण भिक्षु की सेवा करे। ८२. दृष्टि-संपन्न और प्रशान्त भिक्षु पवित्र धर्म को जान, मोक्ष-प्राप्ति तक उपसर्गों को सहता हुआ परिव्रजन करे। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ३ श्लोक १: १. दृढ सामर्थ्य वाले (वढधम्माणं) इसका संस्कृत रूप होगा 'दृढधर्माणम्' । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-समर्थ स्वभाव वाला अर्थात् युद्ध को दृढ़ता से लड़ने के स्वभाव वाला किया है।' चूर्णिकार ने 'दढधन्नाणं' पाठ मानकर उसका अर्थ दृढ़ धनुष्यवाला किया है। इसका संस्कृत रूप होगा 'दृढधन्वानम्' । यह महारथ का विशेषण है । २. कृष्ण को (महारह) चूर्णिकार और टीकाकार-दोनों ने इसका अर्थ कृष्ण किया है।' ३. शिशुपाल (सिसुपालो) एक नगर में दमघोष नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम माद्री था। वह कृष्ण की बहिन थी। उसके पुत्र का जन्म हुआ। उसके चार भुजाएं थीं। वह बहुत बल-संपन्न था। चतुर्भुज पुत्र को देख माता को बहुत आश्चर्य हुआ। एक ओर उसके मन में पुत्र-प्राप्ति का हर्ष था तो दूसरी ओर पुत्र के चतुर्भुज होने के कारण भय । उसने नैमित्तिकों को बुला भेजा। नैमित्तिक आये, पुत्र को देखकर बोले-यह शिशु पहान् पराक्रमी और संग्राम में दुर्जेय होगा। जिसको देखकर इसकी दो अतिरिक्त भुजायें नष्ट हो जायेंगी, उसी व्यक्ति से इसको भय होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।' यह सुनकर माता का मन भय से भर गया। माद्री को पूत्रजन्म की बधाई देने के लिये अनेक लोग आये। माद्री सबको अपना पुत्र दिखलाती और यथायोग्य सबके चरणों में उसे लुटाती। कृष्ण भी वहां आये । माद्री ने उनके चरणों में पुत्र को लुटाया। कृष्ण के देखते ही शिशु की दो अतिरिक्त भुजाएं विलीन हो गई। यह देख माद्री कृष्ण के पास गई और पुत्र को अभय देने की प्रार्थना की । कृष्ण ने कहा-मैं इसके सौ अपराधों को क्षमा कर दूंगा। आगे नहीं।' दिन बीते । शिशुपाल युवा हुआ। वह अपने यौवन के मद से अन्धा होकर कृष्ण की असभ्य वचनों से अवहेलना करने करने लगा। समर्थ होते हुए भी कृष्ण उसे सहते रहे। शिशुपाल वैसे ही करता रहा। जब सौ बार अपराध हो चुके तब कृष्ण ने उसे सावधान किया। किन्तु शिशुपाल नहीं माना । अन्त में कृष्ण ने अपने चक्र से उसका शिर काट डाला।' श्लोक २: ४. माता अपने पुत्र को नहीं जान पाती (माया पुत्तं ण जाणाइ) इस चरण के द्वारा संग्राम की भीषणता प्रदर्शित की गई है। जब योद्धाओं द्वारा आयुधों का परस्पर प्रहार होता है और उनके द्वारा नागरिक भी क्षत-विक्षत होते हैं तब माताएं भी भयभ्रांत होकर अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को छोड़कर भाग जाती हैं अथवा उनके हाथ या कटि से बच्चों के गिर जाने पर भी उन्हें पता नहीं चलता। इस प्रकार का आतंकपूर्ण संग्राम 'माता-पुत्रीय १. बत्ति, पत्र ८०: दृढः-समर्यो धर्म:-स्वभावः सङ्ग्रामामङ्गरूपो यस्य स तथा तम् । २. चूणि, पृ० ७१ : दृढं धनुर्यस्य स भवति दृढधन्वा तं दृढयवानम् । ३. (क) चूणि, पृ०७१ : मधारधो केसवो। (ख) वृत्ति, पत्र ८० : महान रथोऽस्येति महारथः, स च प्रक्रमावत्र नारायणः । ४. (क) चूणि, पृ० ७८,७६ । (ख) वृत्ति, पत्र ८२। Jain Education Intemational Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ संग्राम' कहलाता है।' १४६ लोक ३ : ५. अपुष्टधर्मा (अपुट्ठे) पूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ अष्टधर्मा और विकल्प में परीषहों से अस्पष्ट या अवृष्टधर्मा किया है। वृतिकार केवल 'अस्पृष्ट' अर्थ ही करते हैं । प्रसंगवश चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत पहला अर्थ ही संगत लगता है । देखें १ / १४ / ३ का टिप्पण । ६. अपने आपको शूर मानता है (सूरं मण्णइ अप्पाणं) वह प्रव्रजित होते समय सोचता है— प्रव्रज्या में दुष्कर है ही क्या ? जिसने निश्चय कर लिया है उसके लिए कौन-सा कार्य दुष्कर होता है । आदमी सिंह, बाघ आदि के साथ भी लड़ सकता है, संग्राम में जा सकता है, आग में कूद सकता है—इस प्रकार संयम के कष्टों को न जानने वाला व्यक्ति अपने आपको शूर मानता है । ७. रूक्ष (संयम) का (लूहं ) संयम रूक्ष होता है, क्योंकि उसमें कर्म-बंध नहीं होता । जैसे रूक्ष पट पर रजें नहीं चिपकतीं, वैसे ही संयम में कर्मों का श्लेष नहीं होता । अतः रूक्ष शब्द का अर्थ है - संयम । " अध्ययन ३ टिप्पण ५-८ संयम का पालन कष्टकर होता है कुछ अधीर व्यक्ति साधुत्रों को मैले-कुचैले देखकर संयम से युत हो जाते हैं। कुछ आधे केशलुंचन में और कुछ केशलुंचन की समाप्ति पर उससे घबड़ा कर भाग खड़े होते हैं । कुछ व्यक्ति केशों के परिष्ठापन के लिए जाते हैं और वहीं से घर चले जाते हैं। इस प्रकार संयम का पालन कष्टकर होता है । ' श्लोक : ८. जाड़े के महीनों में (हेमंतमासम्म ) इस शब्द के द्वारा पौष और माघ —- ये दो महीने गृहीत हैं । चूर्णिकार के अनुसार इन महीनों में भयंकर ठंड पड़ती है, आकाश में वर्षा के बादल उमड़ आते हैं और वायु भी तीव्र हो जाती है ।" १ (क) चूर्ण, पृ० ७६ : माता पुत्तं ण याणाति, अमाता-पुत्रो यदा सङ्ग्रामो भवति । का भावना ? तस्यामवस्थायां माता पुत्रं मुक्तं उसानशयं क्षीराहारमजङ्गमं भयोभ्राग्ालोचना अप्पा (च्या) दण्णा न यानाति, नो (ना) पेक्षते, नत्राणायोद्यमते हस्तात् कटीतो वा भ्रश्यमानं भ्रष्टं वा न जानीते । (ख) वृत्ति पत्र ८० ततः सप्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकमसतिस २. चूर्णि पृ० ७६ : अपुट्ठो नाम अप्पुट्ठधम्मो, अस्पृष्टो वा परीषहै, अद्दष्टधर्मा इत्यर्थः । 00 परीवहैः 'अस्पृष्टः' अच्युतः । ३. वृति पत्र १ ४. नि, पृ० ७६ सति तत्र च सर्वस्याकुलीभूतत्वात् 'माता पुत्रं न जानाति' कटीतो भ्रश्यन्ते स्तनन्धयमपि न सम्यक् प्रतिजागर्त्तीत्येवं मातापुत्रीये सङ्ग्रामे । ५. (क) चूणि, पृ० ७९ : रूक्षः संयम एव, रूक्षत्वात् तत्र कर्माणि न श्लिष्यन्ति रजोवत् । (ख) वृत्ति पत्र संयमं कर्मसंश्लेष कारणाभावात् । सोपवतो चिले भणति य-कि बजाए बुक का ति ? कि सिक्करं ? जणु सोहबन्धेहि विस जुज्भिज्जति, संगामे य पविसिज्जति, अग्गिपडणं च कोरह । ६. नि, पृ० ७ तत्र केचिद् दृष्टेव साधून जल्लादहि लिप्ताङ्गान् विकृते सोये केचित् परिसमाप्ते केशान् खष्टं मात एव यान्ति । ७. णि, पृ० ७१ यत्रातील शीतं भवति, वर्ण-वर्वसाथमा वा तीव्रयाता भवन्ति यातग्रहणात् सोह-बग्ध-विरालोपाख्यानं बधा पो : वामहे वा । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३: टिप्पण ९-१३ सूयगो १ १४७ ६.राजा (खत्तिया) इसके अनेक अर्थ हैं-सामन्त, श्रेष्ठी (ग्राम-शासक) राजा आदि ।' यहां इसका अर्थ 'राजा' किया है।' श्लोक ५: १०. कर्म से पलायन किए हुए हैं (कम्मंता) कर्मान्त का अर्थ है-कृषि, पशुपालन आदि ।' वृत्तिकार ने 'कम्मत्ता' पाठ मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है(१) अपने पूर्वकर्मों का फल भोगने वाले। (२) कृषि, पशुपालन आदि कार्यों से अभिभूत । श्लोक ६: ११. (साधुचर्या से) प्रतिकूल पथ पर चलने वाले (पाडिपंथियमागया) जो जिसके प्रतिकूल है वह उसके लिये प्रातिपथिक होता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-साधुओं के विद्वेषी किया है। १२. ये कृत का प्रतिकार कर रहे हैं (पडियारगया एए) मुनि अहिंसा और अपरिग्रह की दृष्टि से जो साधना स्वीकार करता है उसे प्रातिपथिक व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों का परिणाम बतलाते हैं । वे कहते हैं- इन मुनियों ने अन्य जन्मों में मार्ग त्याग दिया था, इसलिये ये नग्न घूम रहे हैं। इन्होंने दान नहीं दिया था, इसलिये इन्हें आहार नहीं मिल रहा है और यदि मिल रहा है तो ये ले नहीं पा रहे हैं। इन्होंने किसी को पानी नहीं पिलाया था, इसलिये ये निर्मल पानी भी नहीं पी रहे हैं।' श्लोक १० १३. पिण्ड मांगकर खानेवाले (पिंडोलग) इसका अर्थ है-भिक्षा से निर्वाह करने वाला। पिंड का अर्थ है-भोजन और ओलग्ग (ओलग) का अर्थ है-पीछे लगा १ देखें-दसवेआलियं ६/२ में 'खत्तिय' शब्द का टिप्पण। २ (क) चूणि, पृ० ७६ : खत्तिओ णाम राया। (ख) वृत्ति, पत्र ८१ : क्षत्रिया राजानः । ३. चूणि, पृ० ८० : कृषी-पशुपाल्यादिभिः कर्मान्तः । ४. वत्ति, पत्र ८२ : पूर्वाचरितः कर्मभिरार्ताः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदिवा-कर्मभिः-कृष्यादिभिरातः-तत्कर्तुमसमर्था उद्विग्नाः । ५. चूणि, पृ० ८१ : पद्यतेऽनेनेति पन्थानं प्रति योऽन्यः पन्थाः स प्रतिपथः प्रतिपन्या वा, ........' अथवा यो यस्य विलोमका स तस्य प्रातिपथिको भवति । ६. वृत्ति, पत्र ८२ : प्रतिपथ:-प्रतिकूलत्वं तेन चरन्ति प्रातिपान्थिकाः-साधुविद्वेषिणः । ७. चूणि, पृ० ८१ : पडियारगता एते, करणं कृतिर्वा कारः ते, कारं प्रति योऽन्यः कारः प्रतिकारः, तं गताः पडियारगताः पडियाई कम्माई वेदंति, एतेहि अण्णाए जातीए पंथा उच्छुढा तेण णियणा हिंडंति, ण य दत्ताई वाणाई तेण न लमंति, लई पि पण गेण्हंति, ण वा उदगाणि वत्ताणि तेण ताणि ण पिबंति । प्रातिपायका Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूयगडो १ १४८ हुआ । अर्थात् जो भिक्षा के पीछे लगा हुआ है, भिक्षा से ही जीवन यापन करता है वह 'पिंडोलग' कहलाता है। देखें - उत्तरज्भयणाणि ५ / २२ का टिप्पण | १४. खुजली के कारण विकृत शरीर वाले (कंडू-विणरूंगा) पसीने, मैल या मांकड के काटने पर व्यक्ति शरीर को अंगुली, नख, शुक्ति या शलाका आदि से खुजलाता है। धीरे-धीरे उसका शरीर विकृत होता जाता है, विनष्ट होता जाता है । " खुजली करने से शरीर में कहीं घाव और कहीं रेखायें उभर आती हैं । इनसे शरीर विकृत हो जाता है । कुछ व्यक्ति अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करते । शरीर कभी रोगग्रस्त हो जाता है और उससे कोई न कोई शरीर का अंग विकृत होकर नष्ट हो जाता है ।' अध्ययन ३ : टिप्पण १४ - १८ सनत्कुमार चक्रवर्ती थे । उन्हें संसार की असारता का बोध हुआ । दिया । बेले बेले की तपस्या करने लगे। एक बार पारणे में उन्हें बकरी की तपस्या की । पारणे में प्रान्त और नीरस आहार लेने के कारण उनके शरीर में वर्षों तक वे इन्हें सहते रहे । तपस्या का क्रम चलता रहा। शरीर विकृत हो गया । १५. मंले (उज्जल्ला) उत् अर्थात् ऊपर आ गया है, जल्ल अर्थात् सूखा पसीना, उसे 'उज्जल्ल' कहा जाता है। तात्पर्य में इसका अर्थ होगा--- १७. मोह से (मोहेण) वे प्रव्रजित हो गये । उन्होंने शरीर का परिकर्म छोड़ छाछ मिली। उससे पारणा किया। फिर बेले की कण्डू आदि सात व्याधियां उत्पन्न हुई । सात सौ मैला ।" १६. दुःखी हैं (असमाहिया) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थं किये हैं- असुन्दर अथवा दुःखी । वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - जो मनुष्य असुन्दर, 'बीभत्स या दुष्ट होता है वह दूसरों में असमाधि उत्पन्न करता है । श्लोक ११: भूमिकार ने मोह का अर्थ अज्ञान और वृतिकार ने 'मिथ्यादर्शन किया है।" १८. अन्धकार से ( और भी घने अंधकार में जाते हैं (तमाओ ते तमं जंति ) तम का अर्थ है—अज्ञान । अज्ञान से घोर अज्ञान में जाते हैं अर्थात् वे मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति वाले मोहनीय, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का बंध करते हैं । वे एकेन्द्रिय आदि एकान्त तमोमय योनियों में जन्म लेते हैं तथा सदा अन्धकार से व्याप्त १. (क) चूर्णि पृष्ठ ८१ : पिंडेसु दीयमानेमु उल्लेति पिडोगा । (ख) वृत्ति, पत्र ८२ : 'पिंडोलग' त्ति पर पिण्डप्रार्थकाः । २. चूर्ण, पृ० ८१ : स्वेद- मल-मत्कुणा दिभिः खाद्यमाना अङ्गुल-नखशुक्ति-शलाकादीनां कण्डकितमार्ग: विणट्ठगा । २. वृत्ति पत्र तथा रेखाभिर्वा विनष्टाः- विकृतशरीरा, अतिकर्मशरीरतया वा स्वचिद्रोगसम्ब सनत्कुमारवद्विष्टाङ्गः । ४. (क) वृत्ति, पत्र ८२ तथोद्गतो जल्लः- शुष्कप्रस्वेदः । (ख) चूर्ण, पृष्ठ ८१ : उज्जल्ल त्ति उवचितजल्ला मलसकटाच्छादिताङ्गाः । ५. ]ि पृ० ८१ असमाहितति अशोचना विवृताङ्गत्वात् अथवा असमाहिता दुविखता । ६. वृत्ति, पृ० ८२, ८३ : असमाहिता अशोभना बीभत्सा दुष्टा वा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयन्तीति । ७. चूणि, पृ० ८१ : मोहो अण्णाणं । ८. वृत्ति पत्र ८३ : मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबो १ नरक में उत्पन्न होते हैं ।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं। (१) प्राणी अज्ञान रूपी अन्धकार से घोर अन्धकार में जाते हैं । (२) निम्नतम गति में जाते हैं।' १६. डांस और मच्छरों के ( समसहि २०. केश (केस) सिन्धु ताम्रलिप्त (नामप्ति), कोंकण आदि देशों में देशों में विहरण करने वाले मुनियों को दंश-मशक परीषह का सामना करना पड़ता था । श्लोक १३ : २१. जाल में ( केणे ) इसका अर्थ है-मछली पकड़ने का जाल । १४६ जिनको खींचने से मनुष्य को क्लेश होता है, इसलिये बालों को केरा कहा जाता है।* श्लोक १२ : २२. आत्मघाती चेष्टा करने वाले (आयदंडसमायारा ) २३. हर्ष (कीड़ा भाव ) (हरिस) चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है—' केतन' चलनी के आकार का एक जाल होता है। ज्वार के लौटते समय पानी चला जाता है, मछलियां उस जाल (केतन) में फंस जाती हैं । " श्लोक १४ : जिनका आत्मा को दंडित करने का स्वभाव है वे आत्मदंड समाचार कहलाते हैं। बहुत होते थे ये देत मुनियों के विहार-क्षेत्र थे। इन वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं राग या क्रीड़ाभाव ।" अध्ययन २ : टिप्पण १६-२३ १. चूर्णि पृष्ठ ८५ : अज्ञानं हि तमः ते ततो अण्णाणतमातो तमंतरं कायाइ उक्कास कालद्वतीयं मोहणिज्जं कम्मं बंधंति, एवं णाणावर णिज्जं दंसणावर णिज्जं, एगिदियादिसु वा एगंततमासु जोणीसु उववज्जंति, विंधकारेसु वा गरएसु । २. वृत्ति, पत्र ८३ : तमसः अज्ञानरूपादुत्कृष्टं तमो यान्ति गच्छन्ति यदिवा - अधस्तादप्यधस्तनीं गतिं गच्छन्ति । ३. (क) चूर्ण, पृ० ८१ : सिंधु-तामलित्तिगादिषु विसएल अतीव दंसणा भवंति अप्रावृतास्ते भूशं बाध्यमानाः शीतेन च अत्थरणपाउरणला ताई सेवामा तेहि वित दे अधिकाशनका भवन्ति । (ख) वृति, पत्र बना ४. चूर्णि, पृ० ८२ : क्लिश्यन्त एमिराकृष्टा इति केशाः । ५. चूणि, पृ० ८२ : केयणं णाम कडवल्ल संठितं मच्छा पाणिए पडिणियते उत्तारिज्जं ति इत्यर्थः । ६. (क) चूर्णि पृ० ८२ : आत्मानं दण्डयितुं शीलं येषां ते भवन्ति आत्मदण्डसमाचाराः । (ख) वृत्ति, पत्र ८३ : आत्मा दण्ड्यते हितात् भ्रश्यते येन स आत्मदण्डः समाचाराः अनुष्ठानम् । ७. वृत्ति, पत्र ८३ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण २४-२५ f श्लोक १५: २४. सीमान्त प्रदेश में रहने वाले (पलियंसंसि) पर्यन्त का अर्थ है-सीमान्त प्रदेश ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अनार्य देश का सीमान्त प्रदेश किया है। २५. लाल वस्त्रों से (कसायवसणेहि) चूर्णिकार ने 'कषाय' और 'वसन' इन दोनों पदों के भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं। कुछ लोग साधुओं को देखकर स्वभाव से क्रुद्ध हो जाते हैं और कुछ लोगों का यह व्यसन होता है कि वे कार्प टिक और पाषंडियों को बाधित करते हैं और उन्हें नचाते हैं।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-कषायवचन-क्रोध प्रधान कटुक वचन किया है। वस्तुतः 'कषायवसन' का अर्थ लाल वस्त्र होना चहिये । प्राचीन काल में गुप्तचरों या चोरों को लाल वस्त्र से बांधने की प्रथा थी। श्लोक १६: २६. थप्पड़ से (फलेण) चूर्णिकार ने फल का अर्थ -चपेटा किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ बिजौरे के फल या खड्ग आदि किया है। २७. अज्ञानी भिक्षु वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है (णाईणं सरई बाले) पीटे जाने पर भिक्षु अपने ज्ञातिजनों को याद करता है। वह सोचता है यदि यहां मेरा भाई, बन्धु, मित्र या कोई संबंधी होता तो मुझे इस प्रकार की कदर्थना का सामना नहीं करना पड़ता । मेरे पर यह विपत्ति नहीं आती।' २८. रूठकर घर से भाग जाने वाली स्त्री (इत्थी वा कुद्धगामिणी) कोई स्त्री क्रूद्ध होकर अपने घर से निकल जाती है, किन्तु उसे कहीं भी आश्रय नहीं मिलता । लोग उसके पीछे लग जाते हैं । वे उसे पीड़ित करते हैं। चोर आदि लुटेरे भी उसे सताते हैं, तब उसे अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होता है और वह अपने ज्ञातिजनों का स्मरण करती है। वह सोचती है, यदि मैं अपना घर छोड़कर नहीं आती तो मुझे आज इस कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। चूर्णिकार ने यहां 'अचंकारिय भट्टा' के उदाहरण का संकेत किया है। वह उदाहरण इस प्रकार है एक गांव में एक सेठ रहता था। उसके आठ पुत्र थे। बाद में एक पुत्री हुई। उसका नाम अचंकारिय भट्टा रखा । वह युवती हुई तब अमात्य ने उसकी याचना की। सेठ ने कहा- मुझे पुत्री देने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु एक शर्त है कि इसके अपराध कर देने पर भी आप इसे उपालंभ नहीं दे सकेंगे। अमात्य ने इस बात को स्वीकार कर लिया। वह अमात्य की पत्नी हो १. चूणि, पृ०५२ : पडियंतं समन्तादन्तं परियन्तं । कस्य ? देशस्य । २. वृत्ति, पत्र ८४ : पलियंते सि ति अनार्यदेशपर्यन्ते । ३. चूणि पृ० ८२ : कसाय-बसणेहि य त्ति, तत्पुरुषः समास: द्वन्द्वो वाऽयम्, सभावत एव केचित् साधून् दृष्ट्वा कसाइज्जंति, वसणं केसिंच भवति-कप्पडिग-पासंडिया बाहेति णच्चावेंति वा । ४. वृत्ति, पत्र ८४ : कषायवचनैश्च क्रोधप्रधानकटकवचननिर्भसंयन्तीति । ५. चूणि, पृ० ८२ : फलं चवेडाप्रहारः । ६ वृत्ति, पत्र ८४ : फलेन वा मातुलिङ्गादिना खङ्गादिना वा। ७. (क) चूणि, पृ०८४ : जइ णाम णातयो केयि एत्थ होत्या (होता) भाति-मित्तादयो णाहमेवंविधा आवति पावेतो। (ख) वृत्ति, पत्र ८४ : कश्चिदपरिणतः बाल: अज्ञो 'ज्ञातीनां' स्वजनानां स्मरति, तद्यथा-यदत्र मम कश्चित् सम्बंधी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवाप्नुयामिति । ८. वृत्ति, पत्र, ८४ : यया स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जात पश्चात्तापा ज्ञातिनां स्मरति एवमसावपीति । ६. चूणि, पृ० ८२ : इत्थी वा कुद्धगामिणी , जधा सा अचंकातिभट्टा कुद्धा गच्छतो ति कुद्धगामिणी । Jain Education Intemational ducation Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण २६-३० गई। अमात्य राजकार्य से निवृत्त होकर विलम्ब से घर पहुंचता था। वह प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा में बैठी रहती। कुछ दिन बीते। वह कुपित हो गई। एक दिन उसने दरवाजे बन्द कर दिये। अमात्य आया। उसने कहा-द्वार खोल । उसने द्वार नहीं खोला । अमात्य प्रतीक्षा में बैठा रहा। अन्त में वह बोला-केवल तू ही इस घर की स्वामिनी नहीं है। यह सुनकर उसका अहं फुफकार उठा । वह उठी, द्वार खोला और अटवी की ओर चली गई । अटवी में उसे चोर मिले । चोरों ने उसे अपने सेनापति के समक्ष उपस्थित किया। सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा। वह ऐसा नहीं चाहती थी। चोर-सेनापति ने उसे जलोकवैद्य के हाथ बेच डाला । वह भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था। वह ऐसा नहीं चाहती थी। तब वैद्य ने रोषवश उसके शरीर पर मक्खन चुपड़ा और फिर जलोकों को छोड़ा । वे काटने लगे। शरीर लहुलुहान हो गया। फिर भी उसने वैद्य के साथ विवाह करना नहीं चाहा । ......... उसका रूप और लावण्य बिगड़ गया। उसका भाई ढूढ़ते-ढूढ़ते वहां आ पहुचा। अपनी बहिन को पहचान कर घर ले गया। वमन-विरेचन आदि चिकित्सा पद्धति से उसको नीरोग कर पुनः लावण्यवती और रूपवती बनाकर अमात्य को सौंपा । अब वह पूर्ण शांत हो चुकी थी। उसका अहं नष्ट हो चुका था। एक बार उसने घर पर लक्षपाक तैल बनाया। परीक्षा करने एक देव मुनि का वेष बनाकर उसके घर आया और लक्षपाक तैल मांगा। उसने दासी से लाने के लिये कहा । मार्ग में ही वह भांड फूट गया। दूसरा, तीसरा और चौथा भांड भी फुट गया। अचंकारिय भट्टा फिर भी रुष्ट नहीं हुई। फिर पांचवीं बार वह स्वयं भांड लाने गई। श्लोक १८: २८. सूक्ष्म संग (जाति-सम्बन्ध) (सुहुमा संगा) चूणिकार ने संग, विघ्न और व्याक्षेप को एकार्थक माना है।' सूक्ष्म का अर्थ हैं-निपुण । संग सूक्ष्म होते हैं । वे प्राणवध की भांति स्थूल नहीं होते। वे व्यक्ति को किसी उपाय के द्वारा धर्म च्युत करते हैं। ये अनुलोम उपसर्ग हैं। यह कहा जाता है कि जीवन में बाधा डालने वाले उदीर्ण उपसर्गों में भी मनुष्य मध्यस्थ रह सकता है, किन्तु पूजा, सत्कार आदि अनुलोम उपसर्गों का पार पाना बहुत कठिन है । ये पाताल की भांति दुरुत्तर हैं।' वृत्तिकार के अनुसार संग का अर्थ है-माता, पिता आदि ज्ञातिजनों का संबंध ।' ये संग प्रायः मानसिक विकृति को उत्पन्न करते हैं । ये संग आन्तरिक हैं, इसलिये इन्हें सूक्ष्म कहा है। प्रतिकूल उपसर्ग प्रायः शरीर-विकार के कारण बनते हैं, अतः वे स्थूल हैं। श्लोक १६: ३०. पोषण करो (पोस) ज्ञातिजन प्रवजित होने वाले या पूर्व-प्रवजित अपने व्यक्ति को कहते हैं-हे तात! हमने इसी आशा से तुम्हार पोषण किया है कि तुम बड़े होकर हम बूढ़ों का पोषण करोगे। अब इस अवस्था में हम काम करने में असमर्थ हैं। अब तुम हमारा पोषण करो। १. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति गाथा १०४-१०७, चूणि । २. चूणि, पृ० ८३ : संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडो त्ति वा एगलैं । ३. वही, पृ० ८३ : सुहुमा णाम णिउणा, न प्राणव्यपरोपणवत् स्थरमूर्तयः, उपायेन धर्माच्च्यावयन्ति । उक्तं हि-शक्यं जीवित विघ्न करैरप्युपसर्गरदीर्णः माध्यस्थ्यं भावयितुम् । अनुलोमा पुण पूजा-सत्कारादय ...."वक्ष्यति हि-पाताला व दुरुत्तरा (अतारिमा ३।२६)। ४. वृत्ति, पत्र ८५: सङ्गाः मातापित्रादिसम्बन्धाः। ५. वही, पत्र ८५ ते च सूक्ष्माः प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति । ६. (क) चूणि, पृ०६३ : ज्ञातयो माता-पित्रावि पब्वयंत पुग्वपम्वइतं वा बठूर्ण रुयंति । किधं ?, किवण-करुणाणि-नाथ ! पिय ! कत ! सामिय !" परिवारिया दश्वतो भावतोय। वयं वृद्धा कर्मासहिष्णवः, तदिदानी पोसाहि णे, आबाल्यात् पुट्ठो मादादिभिः। (ख) वृत्ति, पत्र ८५ : स्वजना मातापित्रादयः प्रव्रजन्तं प्रवजितं वा दृष्ट्वा उपलभ्य परिवार्य वेष्टयित्वा रुदन्ति रुदन्तो वदन्ति च दीनं, यथा-बाल्यात् प्रभृति स्वमस्माभिः पोषितो वृद्धानां पालको भविष्यतीति कृत्वा, ततोऽधुना नः अस्मानपि त्वं तात ! पुत्र! पोषय पालय, कस्य कृते-केन कारणेन कस्य वा बलेन तातास्मानू त्यजसि ?, नास्माकं भवन्तमन्तरेण कश्चित्त्राता विद्यत इति । Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३: टिप्पण ३१-३४ श्लोक २० ३१. स्थविर (थेरओ) जो अन्तिम दशा को प्राप्त है और जो लकड़ी के सहारे चलता है, वह स्थविर है ।' वृत्तिकार ने स्थविर उसे माना है जिसका आयुष्य सौ वर्षों से अधिक है। ३२. आज्ञाकारी (सवा) इसका संस्कृत रूप है-श्रवाः । चूणिकार ने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-शृण्वंतीति श्रवाः । जो आज्ञा, वचन और निर्देश का पालन करते हैं जो आज्ञाकारी होते हैं वे श्रवा कहलाते हैं।' वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'स्वका' और अर्थ-अपना, निजी किया है।' प्रस्तुत प्रसंग में चूणिकार का अर्थ ही उचित लगता है, क्योंकि अन्तिम दो चरणों में 'भायरो' 'सवा' और 'सोयरा'-ये तीन शब्द आये हैं। यदि हम 'सवा' का अर्थ स्त्रका-निजी करते हैं तो 'सोयरा' शब्द का कोई औचित्य नहीं रहता। अतः 'सवा' का अर्थ आज्ञाकारी ही उचित लगता है । शब्दकोष में भी आज्ञाकारी के अर्थ में आ+श्रवः शब्द मिलता है।" श्लोक २१ : ३३. इस प्रकार तुम्हारा लोक (यह और पर सफल) हो जाएगा (एवं लोगो भविस्सइ) इसका शाब्दिक अर्थ है-इस प्रकार लोक हो जायेगा। इसका तात्पर्य है कि सेवा-योग्य माता-पिता की सेवा करने से यह लोक और परलोक दोनों सफल होते हैं। सेवा करने वाले की इस लोक में कीर्ति होती है, यश और मंगल होता है। कहा भी गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंभृतम् । अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक! वसाम्यहम् ॥ कोत्ति ने कहा-'इन्द्र ! मेरा निवास वहां होता है जहां गुरुजन पूजे जाते हैं, जहां धान्य का भंडार भरा रहता है और दांतों की कटकटाहट नहीं होती, जहां दंत-कलह नहीं होता। गुरुजनों की सुश्रुषा से परलोक सफल होता है। श्रमण माता-पिता की सेवा करने की प्रतिकूल स्थिति में होते हैं। इसलिये जो गुरुजन के प्रत्यनीक होते हैं उनका लोक कैसे सुधरेगा और कैसे उनके जीवन में धर्म उतरेगा?' ३४. लौकिक आचार (लोइयं) इसका अर्थ है-लौकिक आचार, लौकिक मार्ग । वृद्ध माता-पिता का प्रतिपालन करना लौकिक मार्ग है।' १. चूणि, पृ०८४ : थेरगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः । २. वृत्ति, पत्र ८५ : स्थविरो वृद्धा शतातीकः (वर्षशतमानः) । ३. चूणि, पृ० ८४ : शृण्वन्तीति श्रवाः आणा-उववाय-वयण-णिद्देसे य चिट्ठति । ४. वृत्ति, पत्र ८५ : स्वका निजाः। ५. अभिधान चिंतामणि कोश ३९६ : आश्रवो वचने स्थितः। ६. (क) चूणि, पृ० ८४ : मातापितरौ हि शुश्रूषार्थी ताविदानी पुष्णाहि। एवं लोको भविष्यतीति अयं परश्च । अस्मिस्तावद् यशः कोत्तिश्च भवति मङ्गलं च । उक्तं हि गुरवो यत्र ......... । परलोकश्च भवति गुरुशुश्रूषया । एते हि पदोवसत्थिया समणगा भवंति जे माया-पितरं ण सुस्सूयंति, तेण तेसि गुरुपडिणीयाणं कतो लोगो धम्मो वा भविस्सति । (ख) वृत्ति, पत्र ८५ : एवं च कृते तवेहलोकः परलोकश्च भविष्यति । ७. वृत्ति, पत्र ८५ : लौकिकं लोकाचीर्णम् अयमेव लौकिकः पन्या यदुत-वृद्धयोर्मातापित्रोः प्रतिपालनमिति । Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण ३५-४० श्लोक २२: ३५. उत्तम (उत्तरा) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-प्रधान (उत्तम) और उत्तरोत्तर उत्पन्न ।' चूणिकार ने प्रतिवर्ष एक के बाद एक उत्पन्न होने वाले को 'उत्तर' माना है।' ३६. छोटे-छोटे (क्षुल्लक) इसके दो अर्थ हैं—अप्राप्तवय वाले और कर्म करने में अयोग्य ।' ३७. नवयौवना (णवा) यह भार्या का विशेषण है । चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं-(१) नववधू, (२) जिसके प्रसव न हुआ हो, (३) गभिणी। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-नवयौवना, नवपरिणीता। ३८. वह दूसरे मनुष्य के पास न चली जाए (मा सा अण्णं जणं गमे) वह नवोढ़ा पत्नी परित्यक्त होने पर दूसरे के पास न चली जाये । ऐसा होने पर महान् जनापवाद होगा । तुम्हारे जीवित रहते हुये यदि वह दूसरे मनुष्य को अपना पति चुन ले या मार्ग-भ्रष्ट हो जाये तो तुम्हें अधृति होगी, हमारी कीर्ति नष्ट होगी और लोग हमारी निन्दा करेंगे। श्लोक २३: ३६. श्लोक २३: चूर्णिकार ने इस श्लोक के प्रथम दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार की है 'तात ! हम जानते हैं कि तुमने कार्य के अधिक भार से डरकर प्रव्रज्या ग्रहण की है। अब हम काम करने में समर्थ हैं । हम तुम्हारा सहयोग करेंगे । अब कुमार ! तुम किसी काम के हाथ मत लगाना । काम की ओर आंख उठाकर भी मत देखना । एक तिनका भी इधर से उधर उठाकर मत रखना। हम सब कुछ कर लेंगे । तुम घर चलो' ।' श्लोक २५: ४०. चुका दिया है (समीकतं) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं- (१) जो कुछ तुम्हारे पर ऋण था उसको हम सबने सम्यक् प्रकार से विभाजित १. वृत्ति, पत्र ८५ : उत्तराः प्रधानाः उत्तरोत्तरजाता वा। २. चूणि, पृ०८४ : उत्तरा नाम प्रतिवर्षमुत्तरोत्तरजातका। समघटच्छिन्नगाः । ३. चूर्णि, पृ०८४ : खुड्डग त्ति अप्राप्तवयसः अकर्मयोग्या वा। ४. चूणि, पृ० ८४ : नवा नाम नववधूः अप्रसूतामिणी वा। ५. वृत्ति, पत्र ८६ : नवा प्रत्यग्रयौवना अभिनवोढा वा। ६. (क) चुणि, पृ० ८४ : मा सा अण्णं जणं गमेज्ज उन्मामए वा करेज्ज, जीवंत एव तुमम्मि अण्णं पति गेण्हेज्जा ततो तुज्य वि अद्धिती भविस्सति, अम्ह वि य जणे छायाघातो अवण्णओ य भविस्सतीति । (ख) वृत्ति, पत्र ८६ : मा असो त्वया परित्यक्ता सती अन्यं जनं गच्छेदुन्मार्गयायिनी स्याद्, अयं च महान जनापवाद इति । ७.णि, पृ० ८४ : जाणामो-जधा तुमं अतिकम्मा भीतो पव्वइतो, इवाणि वयं कम्मसमत्था कम्मसहा कम्मसहायकत्वं प्रति भवतः, तविदानी कुमार ! (क) अतियणिएणं? चंपगाणि वि हत्थेण मा छिवाहि, तणं वा उक्खिवाहित्ति दूरगतं च णं वळूण भगंति । आसणं वा गृहम्-आगच्छ । ८. वत्ति, पत्र ८६ : यत्किमपि भवदीयमणजातमासीत्तत्सर्वमस्माभिः सम्पग्विभज्य समीकूतं समभागेन व्यवस्थापितं, यदिवोत्कटं सत् समीकृतं-सुदेयत्वेन व्यवस्थापितम् । Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण ४१-४५ कर अपने अपने हिस्से में ले लिया है। (२) जो ऋण अधिक था उसे अब सहजतया देने योग्य बना दिया है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-ऋण चुकाना किया है। उन्होंने समीकृत, उत्तारित और विमुक्त को एकार्थक माना है।' श्लोक २६ : ४१. विपरीत शिक्षा देते हैं (सुसेहंति) इसका अर्थ है-विपरीत शिक्षा देना।' वृत्तिकार ने इस अर्थ के साथ एक अर्थ और भी किया है—अच्छी शिक्षा देना । यह व्यंग है।' श्लोक २७ : ४२. मालुकालता (मालुया) मालुका नाम की लता, जो पेड़ों से लिपटती है । वह शोभा के लिये बगीचों में लगाई जाती है। इसकी शाखाएं लंबी होती हैं और सैकड़ों फुट तक पहुंच जाती हैं। ४३. असमाधि में (असमाहिए) वृत्तिकार ने इस प्रसंग में एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है अमित्तो मित्तवेसेणं, कंठे घेत्तूण रोयइ । मा मित्ता सोग्गइ जाहि, दोवि गच्छामु दुग्गइं॥ __एक अमित्र मित्र के वेष में अपने मित्र को गले से लगाकर रोते हुये कहता है-मित्र ! तुम सुगति में मत जाओ । हम दोनों दुर्गति में साथ-साथ चलेंगे। श्लोक २८: ४४. जैसे नया पकड़ा हुआ हाथी .. ..."बन्ध जाता है (हत्थी वा वि.........) नये पकड़े हुये हाथी में धीरज उत्सन्न करने के लिये उसके स्वामी ईख आदि के द्वारा उसकी सेवा करते हैं और फिर अंकुश के प्रहार के द्वारा उसे पीड़ित करते हैं । इसी प्रकार जो उत्प्रवजित हो जाता है, प्रारंभ में ज्ञातिजन भी समस्त अनुकूल उपायों से उसकी सेवा करते हैं (कुछ समय बाद वे उससे दूर हो जाते हैं)।' ४५. (पिट्ठओ..... ... ''अदूरगा) तत्काल उत्पन्न हुआ बछड़ा, स्तनपान कर लड़खड़ाते हुए इधर-उधर दौड़ता है तब उसकी मां गाय पूंछ को ऊपर उठाकर, ग्रीवा को झुकाये हुये, रंभाती हुई उसके पीछे-पीछे चलती है, उसके बैठ जाने पर यह उसे चाटती है, उसके समीप बैठकर उसे स्नेहभरी दृष्टि से देखती है, उसी प्रकार उत्प्रजित व्यक्ति का नया जन्म मानकर वह कहीं दौड़ न जाये इस दृष्टि से वह जहां भी जाता है ज्ञातिजन उसके पीछे-पीछे जाते हैं, वह जो कुछ मांगता है वह उसे देते हैं और स्नेहमयी दृष्टि से उसके १. चणि, पृष्ठ ८५ : समीकतं ति वा उतारियति वा विमोक्खितं (ति) वा एगलैं । २. (क) चूणि पृष्ठ ८५ : सुसेहिति वा ओसिक्खावेतीत्यर्थः । (ख) वृत्ति पत्र ८६ : 'सुसेहंति' ति .............."व्युग्राह्यन्ति । ३. वृत्ति पत्र ८६ : 'सुसेहंति' ति सुष्ठ शिक्षयन्ति । ४. वृत्ति, पत्र ८६ : मालुया वल्ली। ५. वृत्ति, पत्र ८६ । ६. (क) चूणि, पृष्ठ ८५ : कञ्चित् कालं कासारोच्छखण्डादिभिरनुवृत्य पश्चाद् आराप्रहारैर्बाध्यते । (ख) वृत्ति, पत्र ८७ : धृत्युत्पादनार्थमिक्षशकलादिभिरुपचयते, एवमसावपि सर्वानुकूलरुपायरुपचर्यते Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगड १ आसपास रहते हैं ।' ४७. आवर्त (आवट्टा ) इसके दो प्रकार हैं ४६. पाताल (समुद्र) ( पायाला ) । पूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-तपामुख आदि ( महापाताल) अथवा समुद्र प्रथम अर्थ को उन्होंने सामयिक (आगमिक) और दूसरे अर्थ को लौकिक और आगमिक दोनों माना है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल समुद्र किया है। श्लोक ३१ : १५५ श्लोक २६ : १. द्रव्य आज नदि आदि में होने वाला गोलाकार भ्रमर । २. भाव आवर्त्त - उत्कट मोह कर्म के उदय से व्यक्ति में काम-भोग की अभिलाषा उत्पन्न होती है । तब व्यक्ति उसकी पूर्ति के लिये साधनों को जुटाने का प्रयत्न करता है। यह भाव आवर्त्त है ।" श्लोक ३२ : २. देखें-- ठाणं ४ / ३२६ : जंबुदीवस्स णं दीवस्स ईसरे । अध्ययन ३ : टिप्पण ४६-४८ ४८. राजमन्त्री ( राय मच्चा) - इसका अर्थ है - राजमंत्री । चूर्णिकार ने ईश्वर सामंत राजा, तलवर –— कोटपाल और मडंब ( ऐसा गांव जिसके चारों ओर एक योजन तक कोई गांव न हो) के अधिपति को राज अमात्य माना है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ मंत्री, पुरोहित आदि करते हैं ।" दशवैकालिक की अगस्यसिंह स्थविर कृत चूर्णि तथा जिनदास महत्तरकृत्त चूर्णि में अमात्य का अर्थ दण्डनायक, सेनापति आदि किया है ।' टीकाकार हरिभद्र ने इसका अर्थ मंत्री किया है । विशेष विवरण के लिये देखें - दसवेआलियं ६ / २ का टिप्पण । १. चूचि पृष्ठ ८५-८६ यथातदिनसूतिका गुष्टिः स्तमन्धकस्य पीतक्षीरस्य इताचेतत्व परिधावतो ईवनतवावधि सम्मतीया रम्भायमाणा पृष्ठतोऽनुसर्पति, स्थितं चैन उल्लिखति, अदूरतोऽस्यावस्थिता स्निग्धया दृष्ट्या निरीक्षते एवं बंधवा अप्यस्य उदकसमीपं वाऽन्यत्र वा गच्छन्तं मा णासिस्सेहिति त्ति पिठ्ठतो परिसप्पंति चेडरूवं वा से मगती देत शयानमासीनं चैनं स्नेहमिवोद्भिरन्त्यादृष्ट्या अरतो निरीक्षमाणा अवतिष्ठते। ...चत्तारि महापायाला पण्णत्ता, तं जहा वलयामुहे, केउए, जूबए, ३. चूर्णि, पृष्ठ ८३ : पाताला नाम वलयामुखाद्याः, सामयिकोऽयं दृष्टान्तः । उभयाविरुद्धस्तु पातालो समुद्र इत्यपदिश्यते । ४. वृति, पत्र ८७ : पाताला इव समुद्रा इवाप्रतिष्ठित भूमितलत्वात् । ५. (क) वृत्ति पत्र आवर्तयन्ति प्राणिनं भ्रामयन्तीत्यत्वतः तत्र ध्यावत नद्यावे भावावस्तुस्कटमोहोदयापादितविषयामिलाबादपत्यार्थनाविशेषाः । (ख) चूणि, पृ० ८६ : द्रव्यावर्त्ता नदीपूरो, भावावर्त्ता यैः प्रकारैरावन्ते संयमभीरवः । ६. चूर्ण, पृ० ८६ : रायमच्चा इस्सर-तलवर माडंबिगादि । ७. वृत्ति, पत्र ८७ : राजामात्याश्च मन्त्रीपुरोहितप्रभृतयः । ८. (क) दसवेआलियं, ६ / २ : अगस्यसह चूणि, पृ० १३८ : रायमत्ता अनञ्चसेणावतिपभितयो । (ख) जिनदासगि, पृ० २०८ राममन्दा अच्या डायना सेवाभियो । ६. बसवेलियं, ६ / २, हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र १९१ राजामात्याश्च मन्त्रिणः । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४२. ब्राह्मण (माहणा चूर्णिकार ने 'माहण' शब्द का अर्थ भट्ट किया है । आज भी भट्ट ब्राह्मणों की एक जाति है । प्रस्तुत प्रसंग में माहन शब्द का प्रयोग राज्य से संबंधित ब्राह्मणों के लिये किया गया है। राजा, राजामात्य, माहन और क्षत्रिय - ये सभी राज्य से सम्बन्धित है । ५०. क्षत्रिय ( खत्तिया ) १५६ चूर्णिकार के अनुसार गणपालक, गगराज्य में सम्मिलित होने के कारण जो राज्यच्युत हो गये हैं वे अथवा जो न राजा हैं और न राजवंशीय हैं उन्हें लत्रिय कहा गया है।' वृतिकार ने इश्वाकु आदि मंत्रों में उस व्यक्ति को दशकालिक सूत्र के व्याख्या ग्रन्थों में इसके अनेक अर्थ प्राप्त हैं । माना है।' देखें- दसवेआलियं ६ / २ का टिप्पण । ५१. निमन्त्रित करते हैं ( णिमंतयंति) राजा निमंत्रित करते हैं - इस प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उत्तराध्ययन सूत्रगत ब्रह्मदत्त और चित्त के कथानक की ओर संकेत दिया है । चित्त और संभूत दोनों भाई थे। दोनों मुनि बने । दोनों ने अनशन किया। संभूत ने निदान किया। उसके फलस्वरूप वह मरकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुआ । चित्त का जीव एक सेठ के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। बड़े होने पर वह दीक्षित हो गया । ब्रह्मदत्त और चित्त दोनों पूर्वभव के भाई थे। एक बार मुनि चित्त कांपिल्यपुर में आये । ब्रह्मदत्त को भाई की स्मृति हो आई । वह मुनि के पास आया। उन्हें पुनः गृहवास में लौट आने के लिये निमंत्रण देते हुये बोला- 'मुने ! ये विभिन्न प्रासाद हैं । पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य आदि से पूर्ण यह घर है, इसका तुम उपभोग करो। तुम नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों से परिवृत होकर इन भोगों को भोगो ।" पूरे कथानक के लिये देखें - उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन का आमुख | श्लोक ३४ : अध्ययन ३ : टिप्पण ४-५३ ५२. यान के द्वारा (जाणेह ) चूर्णिकार ने 'यान' को जल और स्थल इन दोनों से सम्बन्धित माना है। नौका आदि जलयान हैं। शिविका आदि स्थलयान हैं ।' ५२. उद्यानक्रीडा (बिहारगमणेहि ) इसका अर्थ है - उद्यानिकागमन – उद्यानक्रीड़ा। उत्तराध्ययन में इस अर्थ में विहारयात्रा का प्रयोग मिलता है । " १. चूर्ण, पृ० ८६ : माहणा भट्टा । २. चूर्ण, पृ० ८६ : खत्तिया नाम गणपालगा, गणभुत्तीए वा भ्रष्ट राज्याः, जे वा भरायाणो अरायवंसिया । ३. वृत्ति, यत्र ८७ क्षत्रिया इक्ष्वाकुवंशप्रभृतयः । ७. (क) पूथि, पृ० ८७ (ख) वृत्ति पत्र उत्तर ४. (क) चूर्णि पृ० ८६ तत्थ बंभदत्तेण चित्तो निमंतिओ । (ख) वृति, पत्र यथा ब्रह्मत्तवति नानाविधमपिमिश्रित इति। ५. उत्तरज्झयणाणि १३।१३, १४ : उच्चोयए महु कक्के य बम्भे, पवेइया आवसहा य रम्मा । हर्म हिं चित्तद्यणप्पभयं पसाहि पताह पंचाल गोववे ॥ नट्टेहि गीएहि य वाइएहि नारीजणाई परिवारयन्तो । जाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू ! मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ।। ६. चूणि, पृ० ८७ : जाणाणि सीदा-पंदमाणिपादोणि । तं पुण थले य, जले णावादि, थले सीता-संमाणियावी । विहारगनणा इति उपागमणा । विहारयमनेः विहरणं की बिहारस्तेन गमनानि विहारगमनानि उद्यानादी क्रीडया गमनानीत्यर्थः । २० / २ बिहारजतं निज्जाओ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १५७ अध्ययन ३: टिप्पण ५४-५७ श्लोक ३५: ५४. श्लोक ३५ भोगों के लिये भिक्षु को निमंत्रित करते हुए कहते हैं-भिक्षो ! यदि तुम आज गृहवास में भी आ जाओगे तो भी प्रव्रज्या ग्रहण करते समय जो महाव्रत अंगीकार किये थे, ते वैसे ही रहेंगे। उनका फल नष्ट नहीं होगा । वह तो तुमको अवश्य ही प्राप्त होगा, क्योंकि किये हुये सुकृत या दुष्कृत का कभी नाश नहीं होता। श्लोक ३६ : ५५. चारा (णीवार) इसका अर्थ है-चावलों की भूसी, चारा । उत्तराध्ययन १/५ में 'कणकुडग' शब्द आया है । ‘णीवार' और 'कणकुडग' एकार्थक प्रतीत होते हैं। चूर्णिकार ने णीवार का अर्थ--कुडग आदि किया है। उन्होंने लिखा है कि सूअर नीवार को पाकर घर में ही बैठा रहता है, वह जंगल में चरने नहीं जाता । अंत में वह मारा जाता है।' ___ वृत्तिकार ने 'नीवार' का अर्थ-विशेष प्रकार के चावल के कण किया है।' यह संभव है कि चावलों कि भूसी के साथ चावलों के कुछ कण भी मिश्रित कर सूअरों को दिये जाते थे। निशीथ भाष्य गाथा १५८८ की चूणि में कुक्कुस मिश्रित कणिका को 'कुंडक' कहा गया है। शब्दकोष में नीवार का अर्थ वनव्रीहि-जंगली चावल मिलता है।" विशेष विवरण के लिये देखें-उत्तरज्झयणाणि, १/५ का टिप्पण । ५६. श्लोक ३६ तुम्हें प्रवजित हुये लंबा समय बीत चुका है । तुमने धर्म की आराधना चिरकाल तक की है । विहार करते हुये तुमने अनेक प्रकार के देश, तपोवन और तीर्थ देखे हैं । ऐसी स्थिति में अब तुममें दोष ही क्या रह गया है ? यदि कोई व्यक्ति चोरी या व्यभिचार करता तो उसके दोष बढ़ते जाते किन्तु तुमने तो धर्म की आराधना की है, अतः तुम्हारे सारे दोष निःशेष हो गये हैं । तुमने महान तपस्याएं की हैं, जिनके फलस्वरूप तुम्हारे सारे दोष नष्ट हो गये हैं । अब तुम यदि श्रामण्य का परित्याग कर गृहवास में लौट आते हो तो भी लोग तुम्हारी निन्दा नहीं करेंगे । देखो, जो व्यक्ति तीर्थयात्रा के लिये घर से निकलता है, वह भी उचित अवधि के बाद पुनः घर लौट आता है। अतः तुम घर चलो, किसी बात की आशंका मत करो।' श्लोक ३७: ५७. ऊंची चढाई में (उज्जाणंसि) नदी, तीर्थस्थल और पर्वत की भूमि चढ़ाई युक्त होती है, अतः उसे उद्यान कहा जाता है। वृत्तिकार ने मार्ग के उन्नत भाग को उद्यान कहा है। १. (क) चूणि, पृ० ८७॥ __ (ख) वृत्ति, पत्र । २. चूणि, पृ० ८७ : णीयारो नाम कुंडगादि, स तेण णीयारेण द्वितो घरसूयरगो अडवि ण वच्चति मारिज्जति य । ३. वृत्ति पत्र ८८ : नीवारेण व्रीहिविशेषकणदानेन । ४. निशीथ भाष्य, गाथा १५८८ चूणि : तुसमुहोकणिया कुक्कुसमीसा कुंडग भण्णति । ५. अभिधानचिन्तामणि, ४।२४२ : नीवारस्तु वनव्रीहिः । ६. चूणि, पृष्ठ ८७ : चिरं तुमे धम्मो कतो, दूइज्जता य णाणा पगारा देसा दिठ्ठा तवोवणाणि तित्थाणि य । दोष इदानीं कुतस्तव ? कि त्वया चौरत्वं कृतं पारदारिकत्वं वा ? । अथवा दोसो पावं अधर्म इत्यर्थः, स कुतस्तव ?, क्षपितस्त्वया, कृतं सुमहत् तपः, ण य ते उप्पवयंतस्स वयणिज्जं भविस्सति, किं भवं चोरो पारदारिगो वा ? ननु तीर्थयात्रा अपि कृत्वा पुनरपि गृहमागम्यते। ७. चूणि पृ० ८७ : ऊवं यानं उद्यानम्, तत्र (तच्च) नदी तीर्थस्थलं गिरिपन्भारो वा। ८. वृत्ति, पत्र ८८ । ऊध्वं यानमुखानं- मार्गस्योन्मतो भाग उट्टमित्यर्थः । ७: चिरं तुमे धमलावारस्तु वनरोहित कुक्कुसमीसा कुंडग Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १५८ अध्ययन ३: टिप्पण ५८-६२ श्लोक ३८ ५८. तपस्या से (उवहाणेण) चूणिकार ने 'उवाहाणेण' के लिये 'तवोवहाणेण' का प्रयोग किया है। उत्तराध्ययन (२/४३) में भी 'तवोवहाण' का प्रयोग मिलता है। उपधान शब्द का प्रयोग तप के साथ भी मिलता है और स्वतंत्ररूप में भी मिलता है। यहां इसका प्रयोग संयम को सहारा देने वाले तप के अर्थ में हुआ है। जैसे तकिया सिर को सहारा देता है वैसे ही तप संयम को सहारा देता है । उपधान का एक अर्थ 'तकिया' भी है। प्रस्तुत सूत्र के ११/३५ में उपधानवीर्य का अर्थ तपोवीर्य किया है।' देखें-६/२० का टिप्पण । श्लोक ४० ५९. गढ़ा (वलय) चूणिकार ने इसका अर्थ किया है-एक द्वार वाला गर्ता-परिक्षेप (खाई का घेरा)। वह वलय के आकार का होता है इसलिए 'वलय' कहलाता है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-ऐसी वलयाकार खाई जिसमें पानी भरा हो या ऐसा जलरहित गढ़ा जिसमें प्रवेश या निर्गम कठिन हो।' ६०. खाई (गहन) चूर्णिकार ने वृक्ष, लता, गुल्म आदि के झुरमुट को 'गहन' माना है। वृत्तिकार ने कटिसंस्थानीय धव आदि वृक्षों से युक्त स्थान को 'गहन' माना है।' ६१. गुफा (णूम) ___णूम का अर्थ है-गुफा। चूर्णिकार के अनुसार 'नूम' का अर्थ है अप्रकाश (अन्धकार)। जहां व्यक्ति अपने आपको छिपाता है, उस गढ़े, गुफा आदि को 'नूम' कहा जाता है । वृत्तिकार ने प्रच्छन्न पर्वतीय गुफा को 'नूम' माना है।' श्लोक ४२ ६२. श्लोक ४२ अर्थोपार्जन और अर्थ-संग्रह का एक कारण है भविष्य की चिन्ता और आश्वासन । मनुष्य बुढ़ापे, बीमारी आदि कठिन परिस्थितियों में अपने आपको सुरक्षित रखने के लिये अर्थ का संग्रह करता है। मुनि की आत्मा भी दुर्बल होती है तब उसे भी भविष्य का भय सताने लग जाता है और वह भविष्य की चिंता से संत्रस्त होकर अर्थकरी विद्य-गणित, निमित्त, ज्योतिष, न्यायशास्त्र और शब्दशास्त्र का अध्ययन करता है। वृत्तिकार ने श्रुत की कुछ अन्य शाखाओं का भी उल्लेख किया है। जैसे १. सूयगडो ११॥३५, चूणि पृष्ठ २०३ : उपधानवीयं नाम तपोवोयं । २. चूणि पृ० ८८ : वलयं णाम एक्कद्वारो गड्डापरिक्खेवो वलयसंठितो वलयं भण्णति । ३. वृत्ति, पत्र ८९ : 'वलय' मिति यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितम् उदकरहिता वा गर्ता दुःखनिर्गमप्रवेशा। ४. चूर्णि, पृ०८६ : गृह्यते यत् तद् गहनं वृक्षगहनं लता-गुल्म-वितानादि च । ५. वृत्ति, पत्र ८९ : गहनं धवादिवृक्षः, कटिसंस्थानीयम् । ६. चूणि, पृष्ठ ८८ : नूम नाम अप्रकाशं जत्थ णूमेति अप्पाणं गड्डाए दरीए वा। ७. वृत्ति, पत्र ८९ : 'म' ति प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम् । ८. चूणि, पृष्ठ ८९ : इमानीति अर्थोपार्जनसमर्थानि गणिय-णिमित्त-जोइस-वाय-सहसस्थाणि । Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ वैद्यकशास्त्र, होराशास्त्र, मंत्र-विद्या आदि ।' १५६ इलोक ४३ : ६३. श्लोक ४३ : मुनि-धर्म से विचलित होने वाले व्यक्ति सोचते हैं कि न तो हमने पहले धन अर्जित किया था और न पैतृक धन प्राप्त है, इसलिये घर में जाने के बाद हम प्रवक्ता बनेंगे - जादू-टोना, विद्या मंत्र आदि का प्रयोग करेंगे । इस दृष्टि से वे पापत का अध्ययन करने सम जाते हैं।' श्लोक ४५ : ६४. श्लोक ४५ : 'ज्ञात' का अर्थ है -- लोक प्रसिद्ध । जो व्यक्ति नाम, कुल, कहते हैं। जैसे पवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिङ राजा आदि अर्थ किया है। अध्ययन ३ : टिप्पण ६३-६५ शौर्य और शिक्षा के आधार पर वृत्तिकार ने अगले श्लोक में 'एवं इस प्रकार के योद्धा एक दृढ़ संकल्प के साथ चलते हैं। उनका संकल्प होता है-- शत्रु सेना को जीतेंगे अथवा मर जायेंगे, किन्तु पीछे नहीं हटेंगे । चूर्णिकार ने इस प्रसंग में आवश्यक निर्युक्ति की गाथा उद्धृत की है— 'तरितव्वा व पइण्णिया, मरितध्वं वा समरे समत्यएणं । असरिजलाया हू सहितम्या कुले पसूयएम' प्रतिज्ञा का निर्वाह करेंगे अथवा समरांगण में प्राण दे देंगे। कुलीन पुरुष युद्ध में पीठ दिखाकर लोगों का ताना नहीं सह सकता ।" श्लोक ४६ ६५. छोड़कर ( तिरियं कट्टु ) पूर्णिकार ने इसका अर्थ-प्रतिकूल और वृत्तिकार ने इसका अर्थ छोड़कर किया है। आवारो (२/१२३) में विश्रुत होता है उसे 'ज्ञात' पद की व्याख्या में वहीं १. वृत्ति, पत्र १० : निष्किञ्चनोऽहं किं मम वृद्धावस्थायां ग्लानाद्यवस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्यादित्येवमाजीविका भयमुत्प्रेक्ष्य 'अवकल्पयन्ति' परिकल्पयन्ति मन्यन्ते - इदं व्याकरणं, गणितं, जोतिष्कं वैद्यकं, होराशास्त्रं, मन्त्रादिकं वा तमधीतं ममावमायो णावस्थादिति । २. (क) चूर्णि, पृ० ८६ परिसहजिता अमुकेण चैव लिंगेण कोंटल-वेंटलादीहि कज्जेहि अट्टज्भाणेण चोदिज्जंता पवक्खामो, चोदिज्जंता, जिंता प्रायशः कुण्डलडीओ लोगो समणं पुच्छति तत्य चरेस्सामा विश्वपस्ामो न अस्थिपत्ति किचि आम्हेहि पुग्यो धणं पेद्रवं वा एवं बच्चा पावपसंग करेति । (ख) वृत्ति, पत्र ६० : इत्येवं ते वराकाः प्रकल्पयन्ति, न नः अस्माकं किञ्चन प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यावस्थायामुपयोगं यास्यति, अत: 'चोद्यमानाः' परेण पृच्छ्यमाना हस्तिशिक्षा धनुर्वेदादिकं कुटिल विष्टलादिकं वा प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामः प्रयोक्ष्यामः । ३. पृष्ठता नाम प्रत्यभिज्ञाता नामतः कुतः शीतः शिक्षातः । तद्यथावदेव वासुदेव मण्डलीकादयः । 1 ४. वृत्ति, पत्र ९१ : एवं इत्यादि यथा सुभटा ज्ञाता नामत: कुलतः शौर्यत: शिक्षातश्च तथ। सन्नद्धबद्धपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिभट समितिमेविनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति। ५. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १२५६, चूर्णि, पृ० ८६ ते तु संपहारेंति-तरितव्वा व पइण्णिया परबलं जेतव्वं वा मरितव्वं वा । ६. णि, पृ० १० वितिरियं नाम वितिरिक्खं बोलेंति, अनुलोमेहि दुक्तमतिकाम्यन्ते नदीधोतोब ७. वृत्ति, पत्र १ : 'तिर्यक्कृत्वा' अपहृत्य । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३: टिप्पण ६६-६६ 'तिरिच्छ' शब्द आया है । आचारांग के चूर्णिकार और वृत्तिकार शीलांकसूरी ने उसका अर्थ प्रतिकूल किया है। हमने पूर्वापर संबंध के आधार पर आयारो के प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ 'मध्य' किया है।' ६६. आत्महित के लिए (अत्तताए) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं - १. आत्महित के लिए। २. मोक्ष या संयम के लिए। ३. आप्तात्मा-इष्ट या वीतराग की तरह । वृत्तिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ ये हैं - १. आत्मत्व-समस्त कर्म-मल से रहित आत्मत्व के लिए। २. मोक्ष के लिए। ३. संयम के लिए। श्लोक ४६: ६७. गृहस्थों... (संबद्ध...) पुत्र-स्त्री आदि के बंधन से बंधे व्यक्ति संबद्ध कहलाते हैं । यहां संबद्ध शब्द का प्रयोग गृहस्थ के अर्थ में किया गया है। ६८. श्लोक ४८: वे अन्यतीर्थक कहते हैं--आपका सारा व्यवहार गृहस्थों जैसा है। जैसे माता पुत्र में मूच्छित होती है और पुत्र माता में, उसी प्रकार आपकी परंपरा में आचार्य शिष्य में मूच्छित होते हैं और शिष्य आचार्य में। जैसे गृहस्थ रोगी की परिचर्या करता है वैसे ही आप भी आचार्य, वृद्ध और रोगी की परिचर्या करते हैं। उन्हें आहार, वस्त्र-पात्र तथा स्थान की सुविधाएं देते हैं। यह तो गहस्थ-नीति है कि परस्पर में एक दूसर का दान आदि से उपकार किया जाये। ये कार्य साधु के योग्य नहीं हैं। श्लोक ५० ६६. मोक्ष-विशारद (मोक्खविसारए) मोक्ष-विशारद का अर्थ है--मोक्षमार्ग का प्ररूपक । चूर्णिकार ने विशारद का अर्थ 'सिद्धान्त विज्ञायक" और वृत्तिकार १. (क) आचारांग चूणि पृ०८५ : पडिकूलेणं तिरिच्छेण वा। (ख) आचारांग वृत्ति पत्र १२५ : प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वा। २ आयारो, पृ०६७.... 'मध्य में........... ३ चूणि, पृ०६० : अत्तत्ताए आत्महिताय सर्वतो संव्रजेत्, सिद्धिगमनोद्यतेन मनसा। अथवा-आतो मोक्षः सञ्जमो वा अस्यार्थ: 'आतत्याए' । अथवा आप्तस्यात्मा आप्तात्मा, आप्तामेव आत्मा यास्य स भवति आप्तात्मा इष्टः वीतराग इव । ४. वृत्ति, पत्र ६१ : आत्मनो भाव आत्मत्वम्-अशेषकर्मकलडरहितत्वं तस्मै आत्मवत्ताय, यविवा-आत्मा-मोक्षः संयमो वा तद्भा वस्तस्मै तदर्थम् । ५. (क) चूणि, पृ० ९० : समस्तं बद्धाः संबद्धा पुत्रदाराविभिप्रेन्थैर्गहस्थाः । (ख) वृत्ति, पत्र ६१ : सम्–एकोभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः पुत्र-कलत्राविस्नेहपाशः सम्बद्धाः-गृहस्थाः । ६. (क) चूणि, पृष्ठ ६० : माता पुत्ते मुच्छिता पुत्तो वि मातरि, एवं भवन्तो ऽपि शिष्या-ऽऽचार्यादिभिः परस्परं संबद्धाः। अन्यच्चेदं कुर्वीत-............. भैक्षम्, एवं पिंडवायं गिलाणस्स आणेत्ता देध, यच्च परस्परतः सारेव वारेध पडिचोदेध सेज्जातो उट्ठवेध त्ति, जं च गिलाणस्स आयरिय-बुड-मामाएसु आहार-उवधि-वसधिमादिएहि य उवग्गहं करेह। (ख) वृत्ति, पत्र ६१, १२। ७. चूणि, पृ० ९१ : विसारदो नाम सिद्धान्तविज्ञायकः । Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ने 'रूपक' किया है।' ७०. द्विपक्ष (प) १६१ चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-- सांपरायिक कर्म तथा गृहस्यत्व वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिये हैं- 'दुष्पक्ष:' और 'द्विपक्ष:' और उनके भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं । असत् प्रतिज्ञा का स्वीकरण होने के कारण आप दुष्पक्ष हैं तथा दो पक्षों-राग और द्वेष का सेवन करने के कारण द्विपक्ष हैं। अपने सदोष सिद्धान्त का समर्थन करने के कारण आपमें राग और हमारे निर्दोष अभ्युपगम को दूषित करने के कारण आपमें द्वेष का सद्भाव है । ' अथवा संन्यास और गृहस्थ- इन दोनों पक्षों का सेवन करने के कारण आप द्विपक्षसेवी हैं । कन्द-मूल, दण्डित भोजन, कच्चा जल आदि लेने के कारण आप गृहस्थ पक्ष का सेवन करते हैं और साधुवेष को धारण करने के कारण आप संन्यासपक्ष का सेवन करते हैं । अथवा आप स्वयं असद्-अनुष्ठान करते हैं और दूसरे के सद-अनुष्ठान की निन्दा करते हैं - इस प्रकार द्विपक्षसेवी हैं ।' हमने द्विपक्ष से संन्यास और गृहस्थ का ग्रहण किया है। श्लोक ५१ : ७१. धातुपात्रों में ( पाए) हमने इसका अर्थ - धातुपात्र किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कांसी का पात्र किया है। चूर्णिकार का कथन है कि आजीवक श्रमण गृहस्थ के कांसी के पात्रों में भोजन करते हैं । " चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ-विस्तार किया है। जैन श्रमण अन्यतीर्थिकों को कहते हैं - आप जिन भिक्षा पात्रों में भिक्षा लेते हैं, उनके प्रति आसक्त होते हैं । आहार, उपकरण और स्वाध्याय, ध्यान में मूर्च्छा करते हैं । जो रुग्ण संन्यासी भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ होता है, उसके लिए भक्त उपासकों द्वारा, कुलक या दूसरे पात्रों में लाया हुआ भोजन आप स्वीकार करते हैं। इस प्रकार आप दूसरों के पात्र का उपभोग करते हैं। इससे बंध होता है । जो व्यक्ति भोजन लाता है, मार्ग में उससे जीववध भी होता है । वह आपके लिए भोजन लाता है। वह आपका उपासक होते हुए भी कर्मबंध से लिप्त होता है। यदि पात्र रखना दोष है तो पाणिपात्र होना भी दोषप्रद है । वह आपको भोजन देता हुआ क्या सत्पथ का अनुगामी है या उत्पथ का ? आप सब मृग की भांति अज्ञानी हैं। जैसे मृग शंकास्पद स्थानों के प्रति निःशंक और निःशंक स्थानों के प्रति शंकाशील होता है, वैसे ही आप हैं। १. वृत्ति, पत्र ६२ : विशारदो मोक्ष मार्गस्य - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य प्ररूपकः । २. चूर्ण, पृ० ९१: दुपक्खो णाम संपराइयं कम्मं भण्णति गृहस्थत्वं वा । ३. बुति ४ वृत्ति पत्र १२ ५. चूर्णि, पृ० ६१ ६. पूर्ण, पृ० ११ अध्ययन ३ : टिप्पण ७०-७१ १२ः पतिस्तमेव सेव पूपं यदिवा रागद्वेषात्मक पक्ष सेवा पूयं तथाहिसदोषस्याप्यात्मीयपक्षस्य समर्थनाद्रागो, निकस्याप्यस्मदम्युपगमस्य दूषणाद्वेष, अर्थ (घ) पयंसेव धूपं तद्यचावश्यमानीत्या बोजोकोद्दिष्टतमजित्वाद्गृहस्था यतिलिङ्गाभ्युपगमात्किल प्रवजिताश्वेत्येव पलायनं भवतामिति यदिवा स्वतोऽसयनुष्ठानमपरय सदनुष्ठायिना निन्दनमितिभावः । पात्रेषु कांस्यपाव्यादिषु गृहस्थभाजनेषु । : आजीवका परातकेसु कंसपादेसु भुजंति । हि म गेप तेहि आध आधारोवकरण समझाया करेध, गिलाणस्स य पिंडवातपडियाए गंतुमसमत्यस्स भत्तं मत्तेहि कुलगेण वा अण्णतरेण वा मत्तेहि अभिहडं मुंजध, एवं हि पापरिभोगेधितो भवति अन्तराय कायवधो सो य धणिमितं आणतो मतिमंतो वि कम्मबंधेण लिप्पति, पाणिपायं पि ण य कायध्वं जति पादे दोसो, स च किं तुज्ज देतो णट्टसप्पधसम्भावो ? उदाहु पधि वट्टति ? । अविण्णाण य मिगसरिसा तुम्भे जेण असंकिताई संकध संकितट्टाणाई ण संकध त्ति । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ : टिप्पण ७२-७८ सूयगडो १ ७२. कंदमूल... कच्चा जल (बीओदगं) यहां 'बीज' से कन्दमूल का तथा 'उदग' से कच्चे जल का ग्रहण किया है।' श्लोक ५२ : ७३. तीव्र कषाय से (तिव्वाभितावेण) चणिकार ने 'अभिताव' का अर्थ अमर्ष-दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला क्रोध, मानरूपी कषाय का उदय किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल कर्म-बंध किया है। चूर्णिकार का अर्थ तर्क-संगत लगता है। ७४. (विवेक) शून्य (उज्झिय) इसका अर्थ है-विवेक-शून्य । अन्यतीथिक विवेकशून्य हैं क्योंकि भिक्षापात्र न रखने के कारण उन्हें गहस्थों के घर गृहस्थों के पात्रों में खाना पड़ता है और वहां अपने निमित्त बनाए भोजन का स्वीकरण होता है।' ७५. असमाहित (असमाहिया) चूणिकार ने इसका अर्थ-आतुरीभूत और वृत्तिकार' ने शुभ अध्यवसाय से रहित किया है। श्लोक ५३ : ७६. अप्रतिज्ञ (विषय के संकल्प से अतीत) (अपडिण्णेण) चूणिकार ने इसका अर्थ-विषय और कषाय से निवृत्त किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-राग-द्वेष से अतीत किया है । 'मुझे असत् का भी समर्थन करना चाहिए'—जिसके ऐसी प्रतिज्ञा नहीं होती वह अप्रतिज्ञ है।' ७७. युक्तिसंगत (णियए) चर्णिकार ने इसका अर्थ नित्य-अव्याहत किया है। वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं—निश्चित और युक्तिसंगत ।" श्लोक ५४ ७८. बांस की फुनगी की तरह (अग्गे वेणुव्व) मुनि ग्लान मुनि को आहार लाकर न दे—यह आपकी सिद्धान्त वाणी वंश के अग्रभाग की भांति बहुत कृश है। वह युक्ति को झेलने में सक्षम नहीं है। इस व्याख्या का आधार वृत्ति है।" चूर्णिकार ने मूल पाठ 'अग्गि बेल्लव्व करिसिता' माना है। उसका अर्थ किया है-बिल्ब मूल में स्थूल और अग्रभाग में कृश होता है। वैसे ही आपकी वाणी अग्रभाग में कृश होने के कारण निश्चय १. चूणि, पृ० ६१ : बीओदगं...... 'कंदमूलाणि ताव सयं भुंजध, सीतोवर्ग पिबध । २. चणि, पृ० ६१: तिव्वामितावो णाम तीवोऽमर्षः : सणमोहणिज्जकम्मोदएणं कोध-माण-कसायोदएण य लित्ता। ३. वृत्ति, पत्र ६२ : तीवोऽभितापःकर्मबंधरूपः । ४. वत्ति, पत्र १२ : उझिय त्ति सद्विवेकशून्या भिक्षापात्रादित्यागात्परगृहभोजितयोद्देशकादिभोजित्वात् : ५. चूर्णि, पृ. ६१ : असमाहिता आतुरीभूता। ६. वृत्ति, पत्र ६३ : असमाहिताः शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेषित्वात् । ७. चूणि, पृ० १२ : अपडिण्णेणं ति विसय-कसायणियत्तेण । ८. वृत्ति, प्रत्र ६३ : अप्रतिज्ञेन नास्य मयेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञो-रागदेषरहितः । ६. चूणि, पृ० ६२ : णितिओ णाम णाम नित्यः अव्याहतः एषः । १०. वृत्ति, पत्र ६३ : नियतो, " निश्चितो 'युक्तिसङ्गतः। ११. वृत्ति, पत्र ६३ : यतिना ग्लानस्थानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद्-वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६३ अध्ययन ३ : टिप्पण ७६ तक ले जाने वाली नहीं है।' चूणिकार ने 'अग्गे वेणुव्व' की पाठान्तर के रूप में व्याख्या की है। जैसे-बांस के मुरमुट में कोई बांस मूल से कट जाने पर भी, परस्पर संबंद्ध होने के कारण उसे ऊपर से या नीचे से नहीं खींचा जा सकता। वह भूमि तक नहीं पहुंच पाता। इसी प्रकार आपकी बात निश्चय तक नहीं पहुंच पा रही है। आप गृहस्थ के द्वारा आनीत आहार को खाना श्रेय बतलाते हैं और मुनि के द्वारा आनीत आहार को खाना अर्थ य बतलाते हैं । यह सिद्धान्त युक्तिक्षम नहीं है।' व्यवहार भाष्य में भी वंश की उपमा प्राप्त है। जैसे बांसों की मुरमुट में मूल से कटा हुआ बांस भी, परस्पर संबद्ध होने के कारण भूमि तक नहीं पहुंचता, बीच में ही स्खलित हो जाता है।' श्लोक ५५ : ७६. श्लोक ५५: 'रुग्ण श्रमण की सेवा करने वाला गृहस्थ के समान आचार वाला होता है'-आजीवक जैन श्रमणों पर यह आरोप लगाते थे । ४७वें श्लोक में परिभासंति' शब्द की व्याख्या में आरोप लगाने वालों के रूप में आजीवक और दिगम्बर का उल्लेख किया है।' दिगंबर का उल्लेख स्वाभाविक नहीं है। प्रस्तुत सूत्र की रचना के समय श्वेताम्बर-दिगम्बर जैसा कोई विभाग नहीं था। यह आरोप आजीवकों का हो सकता है। इस प्रकरण से ज्ञात होता है कि जैन श्रमण रुग्ण श्रमण की परिचर्या करते थे, उसे भोजन लाकर देते थे और पात्र रखते थे। आजीवक ऐसा नहीं करते थे। वे रुग्ण अवस्था में गृहस्थों से परिचर्या करवाते थे। उनके द्वारा लाया हुआ भोजन लेते थे। आजीवकों का आरोप था जो श्रमण है, उसे दूसरे श्रमण को दान देने का अधिकार नहीं है। श्रमण को दान देने का अधिकार गृहस्थ को है । जो श्रमण रुग्ण श्रमण को आहार लाकर देते हैं वे गृहस्थ के समान हो जाते हैं। इस आरोप के उत्तर में जैन श्रमणों ने कहा-'ये दो विकल्प हैं-(१) श्रमण के द्वारा लाया हुआ आहार लेना (२) गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार लेना - इन दोनों में हम प्रथम विकल्प को श्रेष्ठ मानते हैं।' अजीवकों ने कहा-हम दूसरे विकल्प को श्रेष्ठ मानते हैं । जैन श्रमणों ने कहा-आपका यह वचन निश्चय तक पहुंचाने वाला नहीं है। जैसे बांस जड़ में स्थूल और अग्रभाग में पतला होता है वैसे ही आपका यह वचन संकल्प में स्थूल है किन्तु निश्चायक नहीं है । आप लोग गृहस्थों का लाया हुआ खाते हैं किन्तु भिक्षु के द्वारा लाया हुआ नहीं खाते । क्या गृहस्थ देखकर चलता है ? क्या वह चलते हुए हिंसा नहीं करता? क्या वह भिक्षु के लिये भोजन तैयार नहीं करता? वह इन सब दोषों का सेवन करता है, फिर भी आप लोग उसके द्वारा लाया हुआ भोजन स्वीकार करते हैं और एक भिक्षु अहिंसा पूर्वक भोजन लाकर देता है, उसे आप सदोष मानते हैं, इसलिए आपका वचन अहिंसा की दृष्टि से निश्चायक नहीं है। १.णि, पृ० ६२ : बिल्वो हि मूले स्थिरः अग्रे कर्षितः, एवमियं वाग् भवतां संकल्पस्थूरा, निश्चयाकृता न हि भवन्तः, न सम्बद्धकल्पाः । २ चणि पृ० ६२ : अथवा---एरिसा मे बई एसा अग्गे वेलु व्व करिसिति' ति, जधा व वंसीकडिल्ले वंसो (5) मूलच्छिण्णो न शक्यते अन्योन्यसम्बंधत्वान्न शक्यतेऽधस्ताद् उपरिष्टाद्वा कर्षितुम् । यथाऽसौ बसो ण णिव्वहति एवं भवतामपि इयं वाग न निर्वाहिका, तत्र अनिर्वाहिका गिहिणो अभिहडं सेयं, भवन्तो हि सम्प्रतिपन्ना निर्मुक्तत्वात् संसारान्तं करिष्यामः तन्न निर्वहति, कथम् ? यद् भवतां ग्लायतामग्लायता गृहस्थः कन्दादीनां मात्रेणाऽऽनयित्वा ददाति तत् किल भोक्तुं श्रेयः न तु यद् भिक्षुणाऽऽनीतमिति, एषा हि वाग् भवतां न निर्वाहिका । ३. व्यवहार भाष्य २४६ : वृत्ति पत्र ४५ : बंसकडिल्ले-वंशगहने छिन्नोऽपि वेणुको वंशो महीं न प्राप्नोति । अन्यैरन्यवंशेरपान्तराले स्खलितत्वात् । ४. (क) सूयगडो ३।४७ : परिभासंति, चूणि पृ० ६० : आजीविकप्रायाः अन्यतोयिकाः, सुत्तं अणागतोभासियं च काऊण बोडिगा। (ख) वृत्ति, पत्र ६१ : ते च गोशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा.......... परि-समन्ताभाषन्ते । ५. (क) चूणि, पृ० ६२ । (ख) वृत्ति, पत्र ६३ । Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६४ इलोक ५६ ८०. अनुयुक्तियों के द्वारा (अणुजुतीहि ) चूर्णिकार ने हेतु और तर्क की युक्तियों को अनुयुक्ति माना है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ- प्रमाणभूत हेतु और दृष्टान्त किया है ।" ८१. वाद को (वायं ) जो छ, जाति, निग्रहस्थान आदि से रहित हो' तथा जो सम्यग् हेतु और दृष्टान्तों से युक्त हो वह याद है। ८२. धृष्ट हो जाते हैं ( पगब्भिया ) मनुस्मृति, अंगों सहित वेद तथा चिकित्सा शास्त्र – ये चारों आज्ञा- सिद्ध हैं । उसके विषय में कोई तर्क नहीं होना चाहिए। युक्ति और अनुमान —ये धर्म वे तीर्थिक घृष्ट होकर कहते हैं- पुराण, इनमें जो कहा है उसे वैसा ही मान लेना चाहिए। परीक्षण के बहिरंग साधन हैं । इनका प्रयोजन ही क्या है ? हमारे द्वारा स्वीकृत या अभिमत धर्म ही श्रेय है, दूसरा नहीं। क्योंकि हमारे इस अभिमत के प्रति बहुसंख्यक लोग तथा राजा आदि विशिष्ट व्यक्ति आकृष्ट हैं । इस कथन के प्रत्युत्तर में जैन श्रमण कहते हैं- बहुसंख्यक अशानियों से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ?" श्रध्ययन ३ : टिप्पण ८०-८२ एरंडकटूरासी, जहा य गोसीसचंदनपलस्स । मोल्ले न होज्ज सरिसो, कित्तियमेत्तो गणिज्जंतो ॥१ तहवि गणणा तिरेगो, जह रासी सो न चंदनसरिच्छो । तह निव्विण्णाण महाजणोवि, सोज्झे विसंवयति ॥२ एस्को सचगो जह अंधलमा सहि बहाएहि । होइ वरं उडुब्यो, गहू ते बहुगा अपेच्ता ॥३ एवं बहुगावि मूढा, ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसारगमपध, गिरस य बंधमोक्सस्स ॥४ १.२. एक ओर एरंड वृक्ष के काठ का भारा है और एक ओर गोशीर्ष चन्दन का एक पल । दोनों का मूल्य समान नहीं हो सकता । गिनती में एरंड के काष्ठ के टुकड़े अधिक हो सकते हैं, पर उनका मूल्य चन्दन तक नहीं पहुच सकता। इसी प्रकार अज्ञानी लोगों की संख्या अधिक हो सकती है, पर उसका मूल्य ही क्या ? ३. हजारों अन्धों से एक आंख वाला अच्छा होता है । हजार अन्धे भी एकत्रित होकर कुछ भी नहीं देख पाते । अकेला आंख वाला सब कुछ देख लेता है । ४. इसी प्रकार मूढ़ व्यक्ति बहुसंख्यक होने पर भी प्रमाण नहीं होते, क्योंकि वे बंध और मोक्ष के उपायों को नहीं जानते और संसार से पार होने की गति के अजान होते हैं । १. नि, पृ० १३ २. वृत्ति पत्र ९३ : सर्वाभिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः सर्वैरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैः । ३. चूणि, पृ० ६३ : वादो णाम छल-जाति-निग्रहस्थानवर्जितः । ४. वृत्ति, पत्र ९३, ६४ : सम्यहेतुदृष्टान्तैर्यो वादो जल्पः । योजनं युक्तिः अनुपुभ्यत इति अनुपुक्तिः, अनुगता अनुक्ता वा युक्तिः अनुयुक्तिः सर्वे हेतु पुक्तिभिः सतर्क युक्तिभिर्वा । ५. वृति पत्र ४ स्मिताः पृष्ठतां गता इव वा पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् आशासिद्धा नि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥ अन्यच्च किमनया बहिरङ्गया युक्त्याऽनुमानादिकयाsत्र धर्मपरीक्षणे विधेये कर्त्तव्यमस्ति यतः प्रत्यक्ष एव बहुजनसंमतत्वेन राजाचाचपणाच्यादमेवास्मदभिप्रेतो धर्मः वापर इत्येवं विवदन्ते तेषमितरम्नानादि साररहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति । ६. वृषि, पृ० १३ वृत्ति, पत्र १४ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३: टिप्पण ८३-८४ श्लोक ५७: ८३. गाली गलौज की (अक्कोसे) इसका अर्थ है-गाली-गलौज, असभ्य वचन, दंड-पुष्टि आदि से मारना-पीटना ।' दुर्बल व्यक्ति हर बात का उत्तर क्रोध या गाली-गलौज में ही देते हैं। स्त्री और बालक जहां पराजय का अनुभव करते हैं, वहां रोना ही उनका उत्तर है। साधु प्रत्येक बात का उत्तर क्षमा से देते हैं।' ८४. तंगण (तंगण) - इसका अर्थ है-टंकण देश में रहने वाले म्लेच्छ जाति के लोक । ये लोग पर्वतों पर रहते थे और बहुत शक्तिशाली होते थे। जब शत्रु इन पर आक्रमण करता तब ये उसकी बड़ी से बड़ी हाथी-सेना और अश्व-सेना को पराजित कर देते थे। ये पराजित होने लगते तब आयुधों से लड़ने में असमर्थ होकर शीघ्र ही पर्वतों में जा छिपते थे ।' उत्तरापथ के म्लेच्छ देशों में यत्र-तत्र टंकण नाम के म्लेच्छ लोग निवास करते थे। दक्षिणापथ के ब्यापारी वहां कुछ वस्तुएं बेचने को आते थे। उस समय सारा लेनदेन वस्तु-विनिमय से ही होता था। उत्तरापथ में स्वर्ण और हाथीदांत की बहुलता थी। वहां के लोग इनके बदले में और-और वस्तुएं प्राप्त करते थे। दोनों देशों के लोग एक-दूसरे की भाषा से अनभिज्ञ थे। इस अनभिज्ञता के कारण परसर वस्तु-विनिमय कुछ कठिन होता था। वे लोग संकेतों से काम लेते थे। दक्षिणापथ के लोग अपनी वस्तुओं का एक स्थान पर ढेर कर देते और उत्तरापथ के टंकण लोग अपनी वस्तुओं (सोना, हाथीदांत आदि) का ढेर कर देते। वे दोनों पक्ष अपनी-अपनी वस्तुओं के ढेर पर हाथ रख खड़े हो जाते। जब दोनों की इच्छापूर्ति हो जाती, तब वे अपने हाथ उन वस्तुओं के ढेर से खींच लेते। जब एक पक्ष भी उस विनिमय से संतुष्ट नहीं होता तब तक वह अपना हाथ नहीं खींचता। इसका यह अर्थ समझा जाता कि अभी वह पक्ष वस्तु-विनिमय से संतुष्ट नहीं है। व्यापार तभी संपन्न होता जब दोनों पक्ष संतुष्ट होते। उनके व्यवसाय का यह प्रकार परस्पर वस्तु-विनिमय की विधि पर अवलंबित था। प्राकृत प्रोपर नेम्स के अनुसार टंकण लोग गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे हुए थे। उनका प्रदेश रामगंगा नदी से सरयू तक फैला हुआ था । मध्य एशिया में वे कशगर में भी व्याप्त थे । विशेषावश्यक भाष्य में टंकणविणक की उपमा प्राप्त है-० टंकण वणिओवमा समए । ० टंकण वणिओवमा जोग्गा ॥ १. (क) वृत्ति, पत्र ६४ : आक्रोशान् असभ्यवचनरूपांस्तथा दण्डमुष्ट्यादिभिश्च । (क) चूणि, पृ० ६३ : आक्रोशयन्ति यष्टि-मुष्टि भिश्चोत्तिष्ठन्ति ।। २.णि, पृ०६३ :प्रायेण दुर्बलस्य रोषो उत्तरं भवति आक्रोशश्च, रुदितोत्तरा हि स्त्रिय: बालकाश्च, क्षान्त्युत्तराः साधवः । ३. (क) चूणि पृ०६३ : टंकणा णाम म्लेच्छ जातयः पार्वतेयाः, ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि अस्सबलं वा हत्यिबलं वा प्रारभन्ते आगलिन्ति, पराजिता: सुशीघ्र पर्वतमाश्रयन्ति । (ख) वृत्ति पत्र १४ : 'टङ्कणा' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना स्वानीकादिनाऽभियन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधेर्योद्धम समर्थाः सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति । ४. (क) आवश्यक चूणि, प्रथम भाग, पृ० १२० : उत्तरावहे टंकणा णाम मेच्छा, ते सुवन्नदंतमादीहि दक्षिणावहगाई भंडाई गेहंति, ते य अवरोप्परं भासं न जाणंति, पच्छा पुंजे करेंति, हत्थेणं उच्छादेंति, जाव इच्छा ण पूरेति ताव ण अवणेति । पुन्ने अवणेति, एवं तेसि इच्छियपडिच्छितो ववहारो। (ख) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४४४, १४४५, वृत्ति : इहोत्तरापथे म्लेच्छदेशे क्वचिद् टङ्कमाभिधाना म्लेच्छाः । ते च सुवर्णसट्टन (प्र... मट्टेन) दक्षिणापथायातानि गृह्णन्ति, परं वाणिज्यकारकास्तदभाषां न जानन्ति, तेऽपीतरभाषां नावगच्छन्ति । ततश्च कनकस्य ऋयाणकानां च तावत् पुञ्जः क्रियते, यावदुभयपक्षस्यापीच्चापरिपूर्तिः यावच्चेकस्यापि पक्षस्येच्छा न पूर्यते, तावत् कनकपुञ्जात् क्रयाणकपुञ्जाच्च हस्तं नापसारयन्ति, इच्छापरिपूतौ तु तमपसारयन्ति । एवं तेषां परस्परमीप्सितप्रतीप्सितो व्यवहारः । ५. प्राकृत प्रोपर नेम्स, पृष्ठ २६४ । ६. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १४४४, १४४५ । Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूगडो १ ८५. आत्म-समाहित मुनि ( अत्तसमाहिए ) भूमिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं' १६६ श्लोक ५८ : १. अपने आपको द्रव्य, क्षेत्र और काल के अनुरूप समर्थ जानकर बाद में उतरने वाला मुनि । २. परिषद् में प्रवचन करते समय प्रवचन सुनने वाले कौन हैं ? वे किस मत को मानने वाले हैं ? इस प्रकार का विवेक कर आत्म-समाधि का अनुभव हो ऐसा प्रवचन करने वाला मुनि । ३. ऐसा वर्णन करने वाला मुनि जिससे दूसरे के लिए कोई घात या बाधा उपस्थित न हो । वृत्तिकार ने इसका अर्थ - चित्त की स्वस्थता किया है। इसका आशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-वादकाल में हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा स्वपक्ष की सिद्धि तथा माध्यस्थ्ययुक्त वचन आदि के द्वारा पर-पक्ष का उपघात न होना आत्म-समाधि है । ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त का प्रयोग करना चाहिए जिससे दूसरे विरोधी न बने, किन्तु उनमें समन्वय का भाव जागे । श्लोक ५६ : अध्ययन ३ टिप्पण ८५-८७ ८६. शान्तचित भिक्षु अग्लानभाव से ( अनिलाए समाहिए ) गिला का अर्थ है - ग्लानि । जो ग्लानि से रहित है, वह अगिला होता है । अगिलाए का अर्थ है - अग्लानभाव से । ' हमने समाहिए को भिक्षु का विशेषण मानकर उसका अर्थ शान्तचित्त किया है । चूर्णिकार ने 'अगिलाण' पाठ मानकर उसका अर्थ अपीड़ित, अव्यथित' किया है और 'समाहिए' का अर्थ समाधि के लिए किया है। ८७. पवित्र (पेसलं ) वृत्तिकार ने 'अगिलाए' का अर्थ अग्लानतया (यथाशक्ति) और समाहिए का अर्थ समाधि प्राप्त किया है । यह भिक्षु का विशेषण है । श्लोक ६० : पेशल दो प्रकार का होता है १. द्रव्य पेशल - प्रीति उत्पन्न करने वाले आहार आदि पदार्थ । २. भाव पेशल - समस्त दोषों से रहित वस्तु । भव्य पुरुषों के लिए वह धर्म ही है । " १. चूर्णि, पृ० ६४ : आत्मसमाधिर्नाम दव्वं खेत्तं कालं सामत्थं चडप्पणो वियाणित्ता । इति, अधवा के अयं पुरिसे ? कं च णते ? त्ति, एवं तथा तथा यथात्मनो समाधिर्भवति । उक्तं हि पडिपक्खो णायव्वो । अधवा आत्मसमाधिर्नाम यथा परवो न घातो भवति बाधा वा । २. (क) वत्ति, पत्र १४, १५ : आत्मनः समाधिः चित्तस्वास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसमाधिकः एतदुक्तं भवति येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टान्तादिना आत्मसमाधिः -- स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनदिना वा परानुपघातलक्षणः समुत्पद्यते तत् तत्कुर्यादिति । (ख) चूर्ण, पृ० १४ : लौकिक-परीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः हेतु प्रतिज्ञादयः । ३. व्यवहार, विभाग ४, वृत्ति पत्र २२ : गिला-ग्लानिः गिलायाः प्रतिषेधोऽगिला । ४. चूणि, पृ० ९४ : अगिलाणे अनादितेन अव्यथितेन । ५. चूर्ण, पृ० १४ : समाधिए त्ति आत्मनः समाधिहेतोः कर्त्तव्यम् । ६. वृत्ति, पत्र ६५ : अग्लानतया यथाशक्ति । ७. वृत्ति, पत्र ६५ : समाहितः समाधि प्राप्त इति । ८. चूर्ण, पृ० १४ : पेसलं दग्वे भावे य, दव्वे जं दव्वं पीतिमुत्पादेति आहारादि, भावपेसलस्तु सर्ववचनीय दोषापेतो भव्यानां धर्म एव । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूयगडो १ १६७ अध्ययन ३ : टिप्पण ८८-६१ वृत्तिकार ने इसका अर्थ सुशिलष्ट किया है। जो अहिंसा आदि की प्रवृत्ति के द्वारा प्राणियों में प्रीति उत्पन्न करता है वह पेशल होता है। श्लोक ६१ : ८८. अतीतकाल में (पुस्वि) चूर्णिकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए अतीतकाल से त्रेता और द्वापर युग का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल पूर्वकाल किया है।' ८६. महापुरुष (महापुरिसा) वे प्रधान पुरुष जो राजा होकर वनवास में गए और फिर निर्वाण को प्राप्त हुए। वृत्तिकार ने इसका अर्थ प्रधान पुरुष किया है और उदाहरण के रूप में वल्कलचीरी, तारागण आदि ऋषियों का उल्लेख किया है।' १०. सचित्त जल से स्नान आदि करते हुए सिद्धि को प्राप्त हुए हैं (उदएग सिद्धि मावणा) कुछेक ऋषि सचित्त जल का व्यवहार करते हुए सिद्ध हो गए-ऐसा परंपरा से सुना जाता है। वे सचित्त जल से शौचकार्य करते, स्नान करते तथा हाथ-पैर आदि बार-बार उसी से धोते, वे सचित्त जल पीते और जल के बीच खड़े होकर (नदी आदि में) अनुष्ठान करते। श्लोक ६२,६३ : ६१. श्लोक ६२,६३ : प्रस्तुत दो श्लोकों में ७ ऋषियों के नाम गिनाए हैं। वे ये हैं -(१) वैदेही नमि (२) रामगुप्त (३) बाहुक (४) तारागण (५) आसिल-देविल (६) द्वैपायन और (७) पाराशर । 'इह संमया' [३/६४]-इस वाक्य के द्वारा सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि ये महापुरुष ऋषिभाषित आदि जैन-प्रन्यों में वणित हैं तथा 'अणुस्सुयं' पद के द्वारा यह सूचित किया है कि भारत आदि पुराणों में भी इनका वर्णन प्राप्त है। चूणिकार के अनुसार ये सब राजर्षि और प्रत्येक-बुद्ध थे। इनमें से वैदेही नमि की चर्चा उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन में प्राप्त है और शेष राजर्षियों की चर्चा ऋषिभाषित नामक ग्रन्थ में है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ऋषिभाषित ग्रन्थ में पाराशर ऋषि का नाम प्राप्त नहीं है। इस ग्रन्थ में सबके नाम से एक-एक अध्ययन है और उन अध्ययनों में उनके विशिष्ट विचार संगृहीत हैं । १.वैदेही नमि-विदेह राज्य में दो नमि हुए हैं। दोनों अपने-अपने राज्य को छोड़कर अनगार बने । एक तीर्थंकर हुए और एक प्रत्येक बुद्ध । प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्येक बुद्ध नमि का कथन है। ये किस के तीर्थकाल में हुए यह ज्ञात नहीं है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन में 'नमि-प्रव्रज्या' में अभिनिष्क्रमण के समय ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र और नमि के बीच हुए वार्तालाप १. वृत्ति, पत्र ६५ : पेशलम् इति सुश्लिष्टं प्राणिनामहिंसाविप्रवृत्त्या प्रीतिकारणम् । २. चूणि, पृ०६५ : पुग्विमिति अतीते काले केचित् त्रेतायां द्वापरे च । ३. वृत्ति, पत्र ६५ : पूर्व-पूर्वस्मिन् काले । ४. चूणि, पृ० ६५ : महापुरिसा पहाणा पुरिसा, राजानो भूत्वा वनवासं गता पच्छा णिव्वाणं गताः । ५. वृत्ति, पत्र ६५ : महापुरुषा:-प्रधानपुरुषा वल्कलचीरितारागणषिप्रभृतयः । ६. चूणि, पृ०६५ : सोतोदगं णाम अपरिणतं, तेण सोयं आयरंता म्हाण-पाण-हत्यादीणि अभिक्खणं सोएंता तथाऽन्तर्जले वसन्तः सिद्धि प्राप्ताः सिद्धाः। ७. चूणि, पृ० ९६ : णमी ताव गमिपबम्जाए, सेसा सम्वे अण्णे इसिमासितेसु । Jain Education Intemational ducation Intomational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण ६१ का सुन्दर संकलन है । इनके पिता का नाम 'युगबाहु' और माता का नाम 'मदनरेखा' था।' २. रामपुत्र-ये पार्श्वनाथ के तीर्थकाल में होने वाले प्रत्येक-बुद्ध हैं । ऋषिभाषित के तीसवें अध्ययन में रामपुत्र अहं तर्षि के वचन संकलित हैं। इस गद्यात्मक अध्ययन में केवल तीन गद्यांश हैं । वृत्तिकार ने 'रामउत्ते' का संस्कृत रूप 'रामगुप्तः' दिया है । प्राकृत 'उत्त' शब्द के तीन संस्कृत रूप हो सकते हैं—उप्त, गुप्त, पुत्र । ३. बाहुक-ये अरिष्टनेमि के तीर्थकाल में होने वाले एक प्रत्येक-बुद्ध हैं।' ऋषिभाषित के चौदहवें अध्ययन में इनके सुभाषित संकलित हैं। यह अध्ययन भी गद्यात्मक है। नल का एक नाम बाहुक भी है।" ४. तारागण - ऋषिभाषित के छत्तीसवें अध्ययन में इनके विचार संकलित हैं। इसमें १७ पद्य हैं। प्रारंभ में उनके नाम के आगे 'वित्तण' शब्द है । ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा में इनका उल्लेख 'वित्त' नाम से किया है। किन्तु 'वित्त' शब्द उनका विशेषण होना चाहिए। वित्त का अर्थ है-संपदा । मुनि की संपदा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। वृत्तिकार ने 'नारायण' पाठ माना है।" ५. आसिल-देविल -ऋषिभाषित के तीसरे अध्ययन का नाम 'दविलज्झयणा' है। प्रारंभ में 'असिएण दविलेणं अरहता इसिणा बुइतं-ऐसा पाठ है । यहां ऋषि का नाम 'दविल' है और 'असिय' (असित) उनका गौत्र हो सकता है, ऐसा मुनि पुण्यविजयजी ने माना है। वृत्तिकार ने 'आसिल' और 'देविल' को पृथक्-पृथक् ऋषि माना है। ये अरिष्टनेमि के तीर्थकाल में होने वाले प्रत्येक बुद्ध हैं।" महाभारत के अनेक स्थलों में 'असितदेवल' नामक प्रसिद्ध ऋषि का नामोल्लेख प्राप्त है। इससे संभावना की जा सकती है कि 'असितदेविल'-यह एक ऋषि का नाम था। याज्ञवल्क्यस्मृति की अपरादित्य रचित व्याख्या" में देवल ऋषि का संवाद उद्धृत है। महाभारत के शान्तिपर्व में देवलनारद संवाद का भी उल्लेख प्राप्त है। वृद्ध देवल के सम्मुख उपस्थित होकर नारद ने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय के विषय में जिज्ञासा प्रगट की थी। महर्षि देवल ने उनका समाधान दिया। इसी प्रकार वायुपुराण में भी देवल के उद्धरण प्राप्त होते हैं। ये सांख्य दर्शन के एक आचार्य के रूप में प्रसिद्ध थे जो सांख्यकारिका के रचयिता ईश्वरकृष्ण से पहले हो चुके थे।" १. विशेष विवेचन के लिए देखें- उत्तरज्झयणाणि, नौंवा अध्ययन । २. उत्तरज्झयाणाणि भाग १, पृ० १०६।। ३. इसिभासियाई २३ वा अध्ययन ....... रामपुत्तेण अरहता इसिणा बुइतं । ४. वृत्ति, पत्र ६६ : रामगुप्तश्च । ५. उत्तरज्झयाणाणि, भाग १, पृ० १०६ । ६, इसिभासियाई, १४ वां अध्ययन ....... 'बाहुकेण अरहता इसिणा बुइतं । ७. महाभारत, वनखंड ६६।२० । ८.६. इसिभासियाई, अध्ययन ३६ : वित्तेण तारायणेण अरहता इसिणा बुइतं । १०. इसिभासियाई संगहिणी गाथा ५ :........ अद्दालए य वित्ते य । ११. वृत्ति पत्र ६६ : नारायणो नम महर्षि।। १२. चूणि, पृ० ६५, फुटनोट नं ८ : अत्र पाठे असिएणं इति गोत्रोक्तिवर्तते न पृथगृषिनाम । १३ वृत्ति, पत्र ६६ : आसिलो नाम महर्षिस्तथा देविलः । १४. उत्तरज्झयणाणि, भाग १, पृ० १०६ । १५. महाभारत को नामानुक्रमणिका, पृ० २६ । १६. याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय, श्लोक १०९ पर। १७. वायुपुराण, अध्ययन ६६, श्लोक १५१, १५२ । १८. सांख्यकारिका ७१, माठरवृत्ति : कपिलादासुरिणा प्राप्तमिदं ज्ञानं ततः पञ्चशिखेन तस्माद् भार्गवोलकवाल्मीकि-हारित-देवल प्रभृतीनामागतम् । ततस्तेभ्य ईश्वरकृष्णेन प्राप्तम् । Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ १६६ अध्ययन ३ : टिप्पण ६१ कुछ इनको विक्रम की तीसरी शताब्दी के मानते हैं और कुछ इनको महाभारत युद्ध काल से भी अधिक प्राचीन मानते हैं ।' ६. द्वीपायन -ये महावीर के तीर्थकाल में होनेवाले प्रत्येक बुद्ध थे । ऋषिभाषित के चालीसवें अध्ययन में इनके वचन गाथाओं में संकलित हैं । महाभारत के अनुसार यह माना गया है कि महर्षि पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न मुनिवर वेदव्यास यमुना के द्वीप में छोड़ दिए गए, इसलिए इनका नाम द्वैपायन ( द्वीपायन) पड़ा । * ७. पाराशर ऋषिभाषित में इनका नामोल्लेख प्राप्त नहीं है। महाभारत में पाराशर्य और पराशर नाम के ऋषियों का वर्णन प्राप्त है ।" औपपातिक सूत्र में आठ ब्राह्मण परिव्राजकों और आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख मिलता है १. कण्डू २. करकण्ट ३. अंबड ४. पराशर ५. कृष्ण ६. द्वीपायन ७ देवगुप्त और 5. नारद- ये आठ ब्राह्मण परिव्राजक हैं । १. शीलकी २. मसिहार ३ नग्नजित् ४. भग्नजित ५. विदेह ६. राजा ७. राम और ८. बल-ये आठ क्षत्रिय परिव्राजक हैं । वहां इनकी उपश्चर्या का विस्तार से निरूपण है । इन परिव्राजकों को सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहुउदक, कुलीव्रत और कृष्ण परिव्राजक - इन संप्रदायों के अन्तर्गत माना गया है । इनमें पराशर, द्वीपायन, विदेह - ये तीन नाम प्रस्तुत चर्चा से सम्बद्ध हैं। राम रामपुत्र का संक्षिप्त रूप हो सकता है । चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोकों की चूर्णि में सबको राजर्षि माना है । किन्तु औपपातिक सूत्र के संदर्भ में यह मीमांसनीय है । पराशर और द्वीपायन -- ये ब्राह्मण ऋषि ही प्रतीत होते हैं । चूर्णिकार ने बताया है कि 'ये सब प्रत्येक बुद्ध वनवास में रहते थे और बीज तथा हरित का भोजन करते थे । वहां रहते हुए उन्हें विशिष्टि प्रकार के ज्ञान प्राप्त हुए ।' उस समय के लोग इन ऋषियों की ज्ञानोपलब्धि की तुलना चक्रवर्ती भरत को आदर्शगृह में उत्पन्न ज्ञानोपलब्धि से करते थे । " चूर्णिकार ने इस तर्क के समाधान में लिखा है- भरत चक्रवर्ती को गृहस्थावस्था में ज्ञान तभी उत्पन्न हुआ था जब वे भावसाधु बन गए थे तथा उनके चार घात्यकर्म क्षीण हो गए थे। प्रश्नकार यह नहीं जानते कि किस अवस्था में विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है ? मुक्ति किस संहनन में होती है ? इसलिए वे यह कह देते हैं कि ये ऋषि कंद-मूल आदि खाते हुए तथा अग्नि का समारंभ करते हुए सिद्ध हुए हैं । १. सांख्यदर्शन का इतिहास, उदयवीरशास्त्रीकृत, पृ० ५०५ । २. उत्तरज्भवणाणि, भाग १, पृ० १०७ । ३. इसिमासियाई, चालीसवां अध्ययन, ४. महाभारत आदिपर्व ६३।६६ महाभारत नामानुक्रमणिका पृ० १६२ । ५. महाभारत, सभापर्व ४ । १३; ७|१३; आदिपर्व १७७११ । ६. औपपातिक, सूत्र ε६-११४ । ७. चूर्णि, पृ० ६५ : राजानो भूत्वा बनवासं गता: पच्छा णिग्वाणं गताः । ८०१६ एस वा वणवासे चेय वसंताणं बोयाणि हरिताणि य मुंजंताणं ज्ञानान्युत्पन्वानि यथा भरतस्य आहे पाणमुपणं । दीवायणेण अरहता इसिणा बुझतं । 2 चूर्णि पृ० ६६ : तं तु तस्स भावलिगं पडिवण्णस्स खीणचउकम्मस्स गिहवासे उप्पण्णमिति । ते तु कुतित्था ण जाणंति कस्मिन् भावे वर्तमानस्य ज्ञानमुत्पद्यते ? कतरेण वा संघतरेण सिज्झति ? अजानानास्तु ब्रुवते - ते नमी आद्या महर्षयः भोच्या सीतोदगं सिद्धा, भोच्च त्ति भुञ्जाना एव सीतोदगं कन्दमूलाणि च जोइं च समारम्भन्ता । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७० अध्ययन ३: टिप्पण ९२-९५ श्लोक ६५ : ६२. भार को बीच में डाल देने वाले (वाहच्छिण्णा...........) _ 'वाह' का अर्थ है-भारोद्वहन और छिण्ण का अर्थ है-टूटे हुए या दबे हुए -भार से दबे हुए गधे की भांति । गधे अधिक भार को न सह सको के कारण भार को मार्ग के बीच में ही डाल कर गिर जाते हैं, वैसे ही ये मंद भिक्षु संयम-भार को छोड़कर शिथिल हो जाते हैं । यह वृत्तिकार की व्याख्या है।' ६३. कठिनाई के समय (संभमे) संभ्रम का अर्थ है ... कठिनाई के समय । चूणिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है--वह कष्ट जिसमें व्यक्ति संभ्रांत हो जाता है, दिग्मूढ हो जाता है ।' वृत्ति कार ने अग्नि आदि के उपद्रव को संभ्रम माना है।' ६४. पंगु (पीढसप्पीव) इसका संस्कृत रूप 'पीठसपिन्' होगा। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'पृष्ठसपिन्' किया है।' आप्टे की डिक्शनरी में 'पीठसर्प' का अर्थ पंगु किया है।' श्लोक ६६ : ६५. सुख से सुख प्राप्त होता है (सातं सातेण विज्जई) सुख से सुख प्राप्त होता है--यह पक्ष चूणि और वृत्ति के अनुसार बौद्धों का है। जैन विचारधारा इससे भिन्न है। सुख से सुख प्राप्त होता है या दुःख से सुख प्राप्त होता है-ये दोनों सिद्धान्त वास्तविक नहीं हैं। यदि सुख से सुख प्राप्त हो तो राजा आदि अमीर आदमी अग ने जन्म में भी सुखी होंगे, किन्तु ऐसा होता नहीं है। दुःख से सुख प्राप्त हो तो अनेक दुःख झेलने वाले गरीब लोग अगले जन्म में सुखी होंगे, किन्तु ऐसा भी होता नहीं है।' बौद्ध साहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से यह कहलाया गया है कि गुख से सुख प्राप्य नहीं है, दुःख से सुख प्राप्य है। इसका पूरा संदर्भ इस प्रकार है एक समय महानाम ! में राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर रहता था। उस समय बहुत से निग्रंथ ऋषि गिरि की कालशिला पर खड़े रहने का व्रत ले, आसन छोड़, ता करते हुए दुःख, कटु, तीव्र वेदना झेल रहे थे। ....... कारण पूछने पर निर्ग्रन्थों ने कहा-निर्ग्रन्थ नातपुत्र सर्वज्ञ, सर्वदर्शी .. . . . . हैं । वे ऐसा कहते हैं -निर्ग्रन्थों ! जो तुम्हारे पहले का किया हुआ कर्म है, उसे इस कड़वी दुष्कर-क्रिया (तपस्या) से नाश करा और जो यहां तुम काय-वचन-मन से संयमयुक्त हो, यह भविष्य के लिए पाप का १. वृत्ति, पत्र ९६ : वहन वाहो-भारोद्वहनं तेन छिन्ना:-कर्षितास्त्रुटिता रासमा इव विषीदन्ति, यथा-रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितमारा निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोझ्य संयममारं शीतलविहारिणो भवन्ति । २. चूणि, पृ० ९६ : सम्भ्रमन्ति तस्मिन्निति सम्भ्रमः । ३. वृत्ति, पत्र ६६ : अग्न्यादिसम्भ्रमे । ४. वृत्ति, पत्र ६६ : पृष्ठसपिणः । ५. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृष्ठ १०२४ में उद्धृत-महाभारत ३१३५।२२ : कर्तव्ये पुरुषव्याघ्र किमास्से पीठसर्पवत, Lame, Crippled. ६. (क) चूणि, पृ० ६६ : इदानीं शाक्या: परामृश्यन्ते .......... (ख) वृत्ति, पत्र ६७। ७. (क) चूणि पृ० ६६,६७ : इह नैर्ग्रन्थशासने सात साले न विद्यते । का भावना?-न हि सुखं सुखेन लभ्यते । यदि चेतमेवं तेनेह राजादीनामपि सुखिनां परत्र सुखेन भाव्यम् । नरकाणां तु दुःखितानां पुनने रकेनेव भाव्यम् । (ख) वृत्ति पत्र ९७ : आर्य मार्ग सजैनेन्द्रप्रवचनं म्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं सुखं सुखेनैव विद्यते इत्यादिमोहेन मोहिताः। Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७१ न करना होगा । इस प्रकार तपस्या द्वारा पुराने कर्मों के अन्त होने और नए कर्मों के न जाएगा । भविष्य में मल न होने से कर्म का क्षय, कर्मक्षय से दुःखक्षय, दु:बशा से वेदना हो जाएंगे।' बुद्ध ने इस प्रकार निर्ग्रन्थों से पूछा कि क्या तुम्हें अपना होना ज्ञात है ? क्या तुमने उस समय पापकर्म किए थे ? क्या तुम्हें मालूम है कि इतना दुःख नष्ट हो गया, इतना बाकी है ? क्या तुम्हें मालूम है कि किस जन्म में पाप का नाश और पुण्य का लाभ प्राप्त करना है ? इसका उत्तर निर्ग्रन्थों ने 'नहीं' में दिया । इस प्रकार बुद्ध ने कहा- ऐसा होने से ही तो निर्ग्रन्थों ! जो दुनियां में रुद्र, खून रंगे हाथों वाले, क्रूरकर्मा मनुष्यों में नीच हैं, वे निर्ग्रन्थों में साधु बनते हैं ।' निर्ग्रन्थों ने फिर कहा-गोतम ! सुख से सुख प्राप्य नहीं है, दुःख से सुख प्राप्य है।' ६६. जो आर्यमार्ग है ( आरियं मग्गं ) वृत्तिकार ने आर्यमार्ग का अर्थ- जैनेन्द्र शासन में प्रतिपादित मोक्षमार्ग किया है। चूर्णिकार ने बौद्ध मत में सम्मत आर्यमार्ग का ग्रहण किया है।" १७. उससे परम समाधि ( प्राप्त होती है ) ( परमं च समाहियं ) वृत्तिकार ने 'परमं च समाधि' से ज्ञान, दर्शन और चारित्र समाधि का ग्रहण किया है। चूर्णिकार ने बौद्धों के अनुसार मनः समाधि को परम माना है ।" श्लोक ६७ ८. लोह-वणिक् की भांति (अयोहारि व्य कुछ व्यक्ति व्यापार करने के लिए देशान्तर के लिए प्रस्थित हुए। जाते-जाते एक महान् अटवी आई। वहां उन्हें एक लोह की खान मिली। सबने लोह लिया और आगे चल पड़े। कुछ दूर जाने पर उन्हें एक तांबे की खान मिली। सबने लोहा वहीं डालकर तांबा भर लिया, किन्तु एक व्यक्ति ने लोहे को छोड़ तांबे को लेने से इन्कार कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना । सब आगे चले । कुछ ही दूरी पर चांदी की खान आ गई। सबने तांबे तो छोड़कर चांदी भर ली, किन्तु लोहमार वाले ने लोहा ही रखा। आगे सोने की खान आई सबने चांदी का भार वहीं छोड़कर सोने को भर लिया। आगे रत्नों की खान पर सबने रत्न भर लिए और सोना छोड़ दिया। उस लोहार वाले ने लोहा ही रखा और अपनी दृढ़ता पर प्रसन्नता का अनुभव करने लगा । अध्ययन ३ : टिप्पण ६६-88 करने से भविष्य में चित्त निर्मल हो और वेदनाक्षय से सभी दु:ख नष्ट सब अपने-अपने घर पहुंचे। रत्नों के भरने वाले जीवन भर सुखी हो गए और लोहार वाला जीवन भर निर्धनता का जीवन बिताता हुआ दुःख और पश्चात्ताप करता रहा । ६६. श्लोक ६७ : चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या पहले बौद्ध सिद्धान्तपरक और बाद में जैन सिद्धान्तपरक की है । देखें- चूर्णि पृष्ठ ९६, ९७ । १. मज्झिमनिकाय १४ । २ ६-८ राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद, दर्शन दिग्दर्शन पृ० ४६६, ४६७ । २. वृत्ति, पत्र ε७ : आर्यों मार्गों जैनेन्द्रशासन प्रतिपादितो मोक्षमार्गः । | ३. पुर्ण पृ० १६ तेनास्मदीयामा ४. पत्र ५ परमं च समाधि' ज्ञानदर्शनवारिणात्मकम् । ५. चूर्ण, पृ० ६६ : मनः समाधिः परमा । ६. रायपसेणइय ७४४ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७२ अध्ययन ३: टिप्पण १००-१०३ श्लोक ६८ : १००. श्लोक ६८ : प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि शाक्य आदि श्रमग 'सातं सातेण विज्जई'-इस सिद्धान्त को मानते हुए पचन-पाचन आदि क्रियाओं में संलग्न रहते हैं । पचन-पाचन आदि सावद्य अनुष्ठानों से प्राणातिपात का सेवन करते हैं। जिन जीवों के शरीर का उपयोग किया जाता है, उनका ग्रहण उनके स्वामी की आज्ञा के बिना होता है, अतः अदत्तादान का आचरण होता है । गाय, भैंस, बकरी, ऊंट आदि को रखने और उनकी वंशवृद्धि करने के कारण मैथुन का अनुमोदन होता है। हम प्रवजित हैं-ऐसा कहते हुए भी गृहस्थोचित अनुष्ठान में संलग्न रहते हैं, अतः मृषावाद का सेवन होता है तथा धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि रखने के कारण परिग्रह का प्रसंग आता है।' श्लोक ६६: १०१. कुछ अनार्य (एगे) चूर्णिकार ने इसके द्वारा शाक्य तथा उसी प्रकार के अन्य दार्शनिकों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने इस शब्द के माध्यम से विशेष बौद्ध तथा नीलपट धारण करने वाले और नाथवादिक मंडल में प्रविष्ट शैव विशेष का ग्रहण किया है।' १०२. पार्श्वस्थ (पासत्था) यहां चूमिकार ने इसका अर्थ-अहिंसा आदि गुणों तथा ज्ञान-दर्शन से दूर रहने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. सद् अनुष्ठान से दूर रहने वाला । २. जैन परंपरा के शिथिल सावु-पार्श्वस्थ, अवसान, कुशील आदि जो स्त्री परीषह से पराजित हैं। यह शब्द इसी अध्ययन के ७३ वें श्लोक में भी आया है। वहां वृत्तिकार ने इस पद से नाथवादिक मंडलचारियों का ग्रहण किया है। विशेष विवरण के लिए देखें-११३२ का टिप्पण । श्लोक ७० १०३. स्त्री का परिभोग कर (विण्णवणित्थीसु) इसमें दो शब्द हैं-विण्णवणा और इत्थीसु । चूणिकार ने विज्ञापना का अर्थ परिभोग, आसेवना किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-स्त्री का परिभोग ।' वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'स्त्रोविज्ञापनायां किया है और इसका अर्थ 'युवती की प्रार्थना में किया है। हमने चूर्णिकार का अर्थ स्वीकार किया है। १. (क) चूणि, पृ० १७॥ (ख) वृत्ति, पत्र ६८। २. चूणि, पृ०६७ : एते इति एते शाक्याः अन्ये च तद्विधाः । ३. वृत्ति, पत्र ६८ : एके इति बौद्धविशेषा नीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः । ४. चूणि, पृ० ६७ : पार्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, केषाम् ?--अहिंसादीनां गुणानां णाणादीण वा सम्मइंसणस्स वा । ५. वृत्ति, पत्र, ९८ : पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्थाः स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजिताः। ६. वृत्ति, पत्र ६९ : सदनुष्ठानात् पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था नाथवादिकमण्डलचारिणः । ७. चूणि, पृ०६७ : विज्ञापना नाम परिभोगः . . . . . . . आसेवना । ८. वृत्ति, पत्र ६८ : स्त्रीविज्ञापनायां युवतिप्रार्थनायाम् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७३ अध्ययन ३ : टिप्पण १०४-१०६ श्लोक ७१: १०४. गुदला किए बिना (थिमियं) इसका अर्थ है-हिलाए बिना । मेंढा घुटने के बल पर बैठकर गोष्पद में स्थित थोड़े से जल को भी बिना हिलाए-डलाए, बिना गुदला किए, पी लेता है।' १०५. पिंग (पिंग) इसका अर्थ है- कपिजल पक्षिणी। पिंग पक्षिणी आकाश में उड़ते-उड़ते नीचे उड़ान भरती है और तालाब आदि से चोंच में पानी भर पी लेती है। वह अपने शरीर से न पानी को छूती है और न उस पानी को हिलाती-डुलाती है। १०६. श्लोक ७०-७२ : इन तीन श्लोकों में स्त्री-परिभोग का तीन दृष्टिकोणों से समर्थन किया गया है.---- १. स्त्री-परिभोग गांठ या फोड़े को दबाकर मवाद निकालने जैसा निर्दोष है। २. स्त्री-परिभोग मेंढे के जल पीने की क्रिया की तरह निर्दोष है । इसमें दूसरे को पीड़ा नहीं होती और स्वयं को भी सुख की अनुभूति होती है। ३. स्त्री-परिभोग कपिजल पक्षिणी के उदकपान की तरह है । पुरुष राग-द्वेष से मुक्त होकर, पुत्र की प्राप्ति के लिए, ऋतुकाल में शास्त्रोक्त विधि से मैथुन सेवन करता है तो उसमें दोष नहीं है। कपिजल पक्षिणी आकाश से नीचे उड़ान भरकर, पानी की सतह से चोंच में पानी भर प्यास मिटा लेती है। उसकी पानी पीने की इस प्रक्रिया से न पानी से उसका स्पर्श होता है और न पानी गुदला होता है । इस प्रकार उदासीन भाव से किए जाने वाले स्त्री मैथुन में दोष नहीं है। उपर्युक्त तीनों उदाहरणों का निरसन करते हुये नियुक्तिकार कहते हैं१. जैसे कोई व्यक्ति मंडलान (तलटार) से किसी मनुष्य का शिर काट पराङ्मुख होकर बैठ जाए तो भी क्या वह अपराधी के रूप में पकड़ा नहीं जाएगा? २. कोई विष का प्याला पीकर शान्त होकर बैठ जाए और यह सोचे कि मुझे किसीने नहीं देखा, तो भी क्या वह नहीं मरेगा? ३. कोई राजा के खजाने से रत्न चुराकर निश्चिन्त भाव से बैठ जाए, तो भी क्या वह राजपुरुषों द्वारा नहीं पकड़ा जाएगा? इन तीनों क्रियाओं में कोई उदासीन होकर बैठ जाए, फिर भी वह तद्-तद् विषयक परिणामों से नहीं बच सकता । सारे परिणाम उसे भुगतने ही पड़ते हैं। इसी प्रकार कितनी ही उदासीनता या निर्लेपता से मैथुन का सेवन क्यों न किया जाए, उसमें रागभाव अवश्यंभावी है। वह निर्दोष हो ही नहीं सकता।' १. (क) चूणि, पृ० १८ : सो जधा उदगं अकलुसेन्तो यण्णुएहि णिसोदितुं (णिसीदितुं) गोप्पए वि जलं अणाऽआलेतो पियति । (ख) वृत्ति, पत्र १८ : यथा मेषः तिमितम् अनालोडयन्नुदकं पिबत्यात्मानं प्रणियति, न च तथाऽन्येषां किञ्चनोपघातं विधत्ते । २. (क) चूणि, पृ०६८ : पिंगा पक्खिणी आगासेणऽवचरती उदगे अभिलीयमाना अविक्षोभयंती तज्जलं चंचूए पिबति । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : पिगे ति कपिजला साऽऽकाश एव वर्तमानाः तिमितं निभृतमुदकमापिबति । ३. (क) वृत्ति, पत्र ६६ : एवमुदासीनत्वेन व्यवस्थितानां दृष्टान्तेनैव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह जह णाम मंडलग्गेण सिरं छत्तू ण कस्सइ मणुस्सो। अच्छेज्ज पराहुत्तो कि नाम ततो ण धिप्पेज्जा ? ॥५१॥ जह वा विसगडूसं कोई घेत्तूण नाम तुण्णिहक्को । अण्णण अदीसंतो कि नाम ततो न व मरेज्जा! ॥५२॥ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण १०७-१०८ श्लोक ७३: १०७. भेड (पूयणा) इसके दो अर्थ हैं-भेड़ और डाकिन । चूर्णिकार ने केवल पहला अर्थ ही स्वीकार किया है।' वृत्तिकार ने डाकिन को मुख्य अर्थ माना है और वैकल्पिक अर्थ भेड़ किया है। हमने इसका अर्थ भेड़ स्वीकार किया है। वृत्तिकार के अनुसार 'पूयणा इव तरुणए' के दो अर्थ हैं(१) जैसे डाकिन छोटे बच्चों में आसक्त होती है, वैसे । (२) जैसे गड्डरिका अपने बच्चे में आसक्त होती है वैसे । चूणिकार ने केवल दूसरा विकल्प ही स्वीकार किया है। इस प्रसंग में एक सुन्दर कथानक चूणि और वृत्ति में उद्धृत एक बार कुछ मनुष्यों के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि किस जाति के जीव अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल होते हैं ? इसकी परीक्षा के लिए एक उपाय ढूंढा गया। एक बिना पानी के कुए में सभी जाति के जीवों के बच्चे डाल दिए गए। अपने-अपने बच्चों को विरह में कुछेक पशु कूए के पास आकर बैठ गए और अपने बच्चों के शब्दों को सुन-सुनकर रोने लगे किन्तु किसी ने कूए में कूदने का साहस नहीं किया। एक भेड़ वहां कूए के पास आई । कूए में गिरे हुए अपने बच्चे का शब्द सुनकर वह बिना किसी उपाय की चिन्ता किए कुए में कूद पड़ी। परीक्षकों ने जान लिया कि भेड़ अपने बच्चे के प्रति कितनी आसक्त होती है। श्लोक ७४: १०८. परिताप करते हैं (परितप्पंति) मरण-काल के प्राप्त होने पर अथवा यौवन के बीत जाने पर मनुष्य परिताप करते हैं।' चूणिकार ने एक श्लोक के द्वारा परिताप या शोक का चित्र प्रस्तुत किया है 'हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कुट्टनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ।' जह नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि णाम घेत्तृणं । अच्छेज्ज पराहुत्तो कि णाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥५३॥ (ख) चूणि, पृ० ६८ : चूर्णिकार ने नियुक्ति का उल्लेख किए बिना इन्हीं तीन गाथाओं का उल्लेख किया है। १. वृत्ति, पत्र ६६ : पूतना डाकिनी ...... 'यदिवा पूयण त्ति गड्डरिका । २. चूणि, पृ०६८ : पूयणा णाम औरणीया । ३. वृत्ति, पत्र ६६ : यथा वा पूतना डाकिनी तरुणके स्तनन्धयेऽध्युपपन्ना ....... "यदि वा पूयण त्ति गडरिका आत्मीयेऽपत्येऽ ध्युपपन्नाः। ४. चूणि, पृ०६८ : तस्या अतीव तण्णगे छावके स्नेहः । ५. (क) चूणि, पृ० ६८ : जतो जिज्ञासुभि: कतरस्यां कतरस्यां जातौ प्रियतराणि स्तन्यकानि ? सर्वजातीनां छावकानि अनुदके कूपे प्रक्षिप्तानि । ताश्च सर्वाः पशुजातय कूपतटे स्थित्वा सच्छावकानां शब्दं श्रुत्वा रम्भायमाणास्तिष्ठन्ति, नाऽऽत्मानं कूपे मुञ्चन्ति, तत्रैकया पूतनया आत्मा मुक्तः । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : यथा किल सर्वपशूनामपत्यादि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ क्षिप्तानि, तत्र चापरा मातरः स्वकीयस्तनन्धय शब्दाकर्णनेऽपि कूपतटस्था रुदन्त्यास्तिष्ठन्ति, उरभी त्वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्त बतीत्यतोऽपरपशुभ्यः स्वापत्येऽध्युपपन्नेति । ६. वृत्ति, पत्र १०० : क्षीणे स्वायुषि जातसंवेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति । Jain Education Intemational ducation Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ३: टिप्पण १०६-११२ मैंने मनुष्य जन्म पाकर यदि उत्तम अर्थ के प्रति आदर प्रदर्शित नहीं किया, मेरा यह आचरण वैसा ही हुआ है जैसे मैंने मुक्कों से आकाश को पीटा और तुषों का खलिहान रचने का सांग किया।' श्लोक ७५: १०६. ठीक समय पर (काले) चूणिकार ने 'काल' का अर्थ-तारुण्य-मध्यमवय किया है । उन्होंने वैकल्पिकरूप में जिसके ध्यान, अध्ययन और तप का जो काल हो, उसका ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने 'काल' का तात्पर्य धर्मार्जन करने का समय किया है। उनके अनुसार धर्मार्जन करने का समय या अवस्था निश्चित नहीं होती। विवेकी व्यक्ति के लिए सभी समय और सभी अवस्थाएं धर्मार्जन के लिए उपयुक्त होती हैं । चार पुरुषार्थों में धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है और प्रधान तत्त्व का आचरण सदा उपयुक्त होता है। इसलिए बाल्य, तारुण्य और बुढ़ापा-ये तीनों अवस्थाएं इसमें गृहीत हैं। ११०. परिताप..... करते (परितप्पए) यहां एकवचन का निर्देश छन्द की दृष्टि से हुआ है।" १११. जीवन की (जीवियं) इसका अर्थ है--असंयममय जीवन । चूणिकार ने इसका अर्थ पूर्वभुक्त भोगमय असंयम जीवन किया है।' वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ जीवन-मरण भी किया है।' श्लोक ७६ : ११२. वैतरणी नदी (वेयरणी) चूणि और वृत्ति के अनुसार इस नदी का प्रवाह अत्यन्त वेगवान् और इसके तट विषम हैं, इसीलिए इसे तरना बहुत कठिन होता है। नरक की एक नदी का नाम भी वैतरणी है, किन्तु प्रस्तुत श्लोक में निर्दिष्ट यह नदी नरक की नहीं है। उड़ीसा में आज भी वैतरणी नदी उपलब्ध है । वह बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है। उसका प्रवाह बहुत वेगवान् है और उसके तटबंध भी विषम हैं। अतः प्रस्तुत प्रसंग में यही वैतरणी होनी चाहिए। आधुनिक विद्वानों ने उड़ीसा के अतिरिक्त गढ़वाल और कुरुक्षेत्र में भी वैतरणी नदी की खोज की है। जातक में अनेक स्थलों पर इस नदी का उल्लेख हुआ है किन्तु बौद्ध विद्वानों ने उसको इस लोक की नदी न मानकर उसे यमलोक की नदी ही माना है।' बौद्ध साहित्य में आठ ताप नरक माने हैं। प्रत्येक नरक के सोलह-सोलह उत्सद (यातना स्थान) हैं। चौथा उत्सद वैतरणी नदी है। इसका जल सदा उबलता रहता है। इसमें प्रज्वलित राख होती है। दोनों तीरों पर हाथ में १. चूणि, पृ० ६८। २. चूणि, पृ० ६६ : कालो नाम तारुण्यं मध्यमं वयः, यो वा यस्य कालो ध्यानस्याध्ययनस्य तपसो वा। ३. वृत्ति, पत्र १०० : काले धर्मार्जनावसरे......... .. धर्मार्जनकालस्तु विवेकनां प्रायशः सर्व एव, यस्मात् स एव प्रधानपुरुषार्थ, प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो घटां प्राञ्चति, ततश्च ये बाल्यात्प्रभृत्यकृतविषयासङ्गतया कृततपश्चरणाः । ४. वृत्ति, पत्र १०० : एकदचननिर्देशस्तु सौत्रश्च्छान्दसत्वादिति । ५. चूणि, पृ० ६६ : जीवितं पुठवरत-पुवकोलितादिअसंजमजीवितं । ६. वृत्ति, पत्र १०० : असंयमजीवितं, यदिवा-जीविते मरणे वा। ७. (क) चूणि, पृष्ठ ६६ : सा हि तीक्ष्णश्रोतस्त्वाद् विषमतटत्वाच्च दुःखमुर्तीर्यते । (ख) वृत्ति, पत्र १०० : वैतरणी नदीनां मध्येऽत्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च । ८. बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ० १३६ । Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७६ अध्ययन ३ टिप्पण ११३-११६ असि, शक्ति और प्रास लिए हुए पुरुष होते हैं जो उन अपाय (नैरयिक) सत्वों को, जो उससे बाहर आना चाहते हैं, उसमें फिर ढकेल देते हैं । वे कभी वैतरणी के जल में मग्न होते हैं.....। इलोक ७७ : ११३. विकृति पैदा करने वाले (पूयणा) चूर्णिकार के अनुसार अन्न, पान, वस्त्र आदि से तथा स्नान, विलेपन आदि से शरीर की पूजा करना 'पूतना' है वैकल्पिक रूप में उनका मत है कि जो धर्म से नीचे गिराए या जो चारित्र का हनन करे वह 'पूतना' है अर्थात् विकृति है । हमने इस वैकल्पिक अर्थ को स्वीकार किया है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'पूजना' कर व काम-विभूषिता किया है। श्लोक ७६ : ११४. झूठ बोलना छोडे ( मुसावायं विवज्जेज्जा ) मूलगुण की व्यवस्था में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - यह क्रम उपलब्ध होता है, फिर यहां मृषावाद के वर्जन का उपदेश क्यों दिया गया ? चूर्णिकार ने यह प्रश्न उपस्थित किया है और इसका उत्तर भी दिया है। उनका उत्तर बहुत ही मनोवैज्ञानिक है । सत्यनिष्ठ के ही व्रत होते हैं, असत्यनिष्ठ के नहीं होते । असत्यनिष्ठ मनुष्य प्रतिज्ञा का लोप भी कर सकता है । प्रतिज्ञा का लोप होने पर कोई व्रत नहीं बचता, इसलिए सर्व प्रथम मृषावाद के वर्जन का उपदेश बहुत महत्त्वपूर्ण है । * श्लोक ८० : ११५. श्लोक ८० : चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर प्राणातिपात को ग्रहण किया गया है - १. ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् — इनसे क्षेत्र प्राणातिपात । २. त्रस और स्थावर - इनसे द्रव्य प्राणातिपांत । ३. सव्वत्थ ( सर्वत्र ) - इससे काल और भाव प्राणातिपात । प्रस्तुत श्लोक ८/१९ और ११/११ में भी है। ११६. सब अवस्थाओं में ( सव्वत्थ ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ- सभी अवस्थाओं में और वृत्तिकार ने सर्वत्र काल में सब अवस्थाओं में दिया है । " १. अभिधर्मकोश, पृ० ३७४ (आचार्य नरेन्द्रदेव ) २. पूर्ण, पृ० १६ धूपगा नाम वस्त्रान्नपानादिभिः स्नाना उङ्गरागादिभिश्च शरीरपूजना पूतनाः पातयन्ति धर्मात् पास्यन्ति या चारित्रमिति पूतनाः पूतीकुर्वन्नित्यर्थः । २. वृत्ति पत्र १०० जना कामदा ४. गि, पृ० १०० अवृतिको कस्मान्मृषावादः पूर्वमुपदिष्टः १ न प्राणातिपातः इति उपयले सत्ययतो हि व्रतानि भवन्ति नासस्ययतः प्रतिज्ञामपि कुर्यात् प्रतिज्ञालोपे च सति कितनामवशिष्टम् ? "अथवा त एवं नारीसंयोगा: ५. (क) चूणि, पृ० १०० : ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः । जे केई तस्थावरा इति द्रव्यप्राणातिपातः सर्वत्रेति प्राणाति पातभावश्च सर्वावस्थासु । (ख) वृति, पत्र १०१ । ६. चूर्ण, पृ० १०० : सर्वत्रेति प्राणातिपातभावश्च सर्वावस्थासु । ७. वृत्ति, पत्र १०१ सर्वत्र काले सर्वास्ववस्थासु । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११७. शांति है (संति) - चूर्णिकार ने शान्ति का अर्थ निर्वाण किया है । शान्ति, निर्वाण, मोक्ष और कर्मक्षय – ये एकार्थक हैं । वृत्तिकार ने इसका अर्थ कर्मदाह का उपशमन किया है।' यही श्लोक ८ / १६ में है । १७७ विरति ही शान्तिरूप निर्वाण है या विरति से शान्तिरूप निर्वाण प्राप्त होता है या जो विरत है वह स्वयं शान्तिरूप निर्वाण है।' अध्ययन ३ टिप्पण ११७ : १. पू. १० १०० शान्तिरेव निर्वाणम : २. वृत्ति, पत्र १०१ शान्ति इति कर्मदाहोपशमः । : २. नृणि, पृ० १०० विरति एवं हि संतिष्याणमाहितं विरतोओ वा विरतस्स या संतिषेयाणमाहितं । "अहवा संति त्ति वा णेव्वाणं ति वा मोक्खो त्ति वा कम्मखयो त्ति वा एगट्ठ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयरगं इत्यपरिणा चौथा अध्ययन स्त्री-परिज्ञा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम है—स्त्रीपरिज्ञा । तीसरे अध्ययन में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों के प्रकार और उनको सहने के उपाय निर्दिष्ट थे । अनुकूल उपसर्गों को सहना कठिन होता है। उनमें भी स्त्रियों द्वारा उत्पादित उपसर्ग अत्यन्त दुःसह होते हैं। हर कोई व्यक्ति उनको सहने में समर्थ नहीं हो सकता । इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है - स्त्री संबंधी उपसर्गों की उत्पत्ति के कारणों का कथन और सुसमाहित मुनि द्वारा उनके निरसन के उपायों का निदर्शन । इसके दो उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में ३१ और दूसरे में २२ श्लोक है। पहले उद्देश संसर्ग का वर्जन करना चाहिए । जो मुनि स्त्रियों के साथ परिचय करता है, उनके साथ संलाप आदृष्टि से देखता है, वह मुनि पच्युत हो जाता है, संयमप्युत हो जाता है। दूसरे उद्देशक में कहा गया है कि जो मुनि (या गृहस्थ ) स्त्रियों के वशवर्ती होते हैं वे अनेक विडम्बनाओं को प्राप्त होते हैं । किस प्रकार स्त्रियां उन पर अनुशासन करती हैं और दास की तरह उन्हें नानाविध कार्यों में व्यापृत रखती हैं - यह भी सुन्दर रूप से वर्णित है । वह आचार से भ्रष्ट साधु अपने वर्तमान जीवन में स्वजनों से तथा दूसरे लोगों से तिरस्कार को प्राप्त होता है और घोर कर्म-बन्धन करता है । इस कर्म बंधन के फल स्वरूप वह संसार- भ्रमण से छुटकारा नहीं पा सकता । स्त्री का विपक्ष है पुरुष । साध्वी के लिए प्रस्तुत अध्ययन को 'पुरुष परिज्ञा' के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। नियुक्तिकार ने पुरुष के दस निक्षेप निर्दिष्ट किए हैं। वे इस प्रकार है' १. नाम- पुरुष - जिसकी संज्ञा पुल्लिंग हो, जैसे घट, पट आदि । अथवा जिसका नाम 'पुरुष' हो । २. स्थापना - पुरुष - लकडी या प्रस्तर से बनी प्रतिमा में किसी का आरोपण कर देना, जैसे - यह महावीर की प्रतिमा है । ३. द्रव्य- पुरुष - धन प्रधान पुरुष, धनार्जन की अति लालसा रखने वाला पुरुष, जैसे - मम्मण सेठ | ४. क्षेत्र - पुरुष -- क्षेत्र से संबोधित होने वाला पुरुष, जैसे- सौराष्ट्रिक मागधिक आदि । ५. काल पुरुष -- जो जितने काल तक 'पुरुष वेद' का अनुभव करता है । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - 'भंते ! पुरुष कितने समय तक पुरुष होता है ?' भगवान् ने कहा - गीतम! जवन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः कुछ न्यून सौ सागर तक । अथवा कोई पुरुष एक अपेक्षा से पुरुष होता है और दूसरी अपेक्षा से नपुंसक ।' ६. प्रजनन- पुरुष -- जिसके केवल पुरुष का चिह्न - शिश्न है, किन्तु जिसमें पुंस्त्व नहीं है, वह प्रजनन पुरुष है । ७. कर्म-पुरुष जो पन्त पोषयुक्त कार्य करता है। वृतिकार ने कर्मकर-नौकर को कर्मपुरुष माना है।' ८. भोग-पुरुष- भोग प्रधान पुरुष । १. नियुक्ति गाथा ४६ : णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पजणणे कम्मे । भोगे गुणे य भावे, दस एते पुरिसणिक्खेवा || १०२ । में कहा गया है कि मुनि को स्त्रीकरता है, उनके अंग-प्रत्यंग को - चूर्ण, पृ० १०१, २. पूर्ण, पृ० १०१ पुरिसे भंते पुरियो ति कालतो केवचिरं होति ? जय एवं समयं उनकोसे सायरस ॥ वृत्तिकार ने ( वृत्ति पत्र १०३ ) इस प्रसंग में भिन्न पाठ उद्धृत किया है--यथा- पुरिसेणं मंते ! पुरिसोत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गो० जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं जो जम्मि काले पुरिसो भवइ । ३. (क) कृषि, पृ० १०२ (जहा कोई एवम्मि पक्ले पुरिसो) एवम्मि पक्के नपुंसयो । (ख) वृत्ति पत्र १०३। ४. पृ० १०२ कम्मो नाम यो हि अतिपरवाणि सम्माणि करोति ५. वृत्ति पत्र १०३ : कर्म-अनुष्ठानं तत्प्रधान: पुरुष: कर्मपुरुषः कर्मकराविकः । सकर्मपुरुष: Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १८२ अध्ययन ४ : प्रामुख ६. गुण - पुरुष - पुरुष के चार गुण होते हैं - व्यायाम, विक्रम, वीर्य और सत्त्व । इन गुणों से युक्त पुरुष गुण- पुरुष कहलाता है । वृत्तिकार ने 'वीर्य' गुण के स्थान पर 'धैर्य' गुण माना है।' १०. भाव- पुरुष -- वर्तमान में 'पुरुष वेदनीय' कर्म को भोगने वाला । बल तीन प्रकार का होता है १. बुद्धिबल २. शारीरिक बल २. तपोवन जो व्यक्ति इन बलों से युक्त होते हैं, वे भी स्त्री के वश होकर नष्ट हो जाते हैं । उनका शौर्य शून्य हो जाता है। प्रसंग में निर्मुक्तिकार ने तीनों बलों के तीन दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं (क) अभयकुमार वृद्धि का धनी (ख) चंडपद्योत -- शरीरबल का धनी । (ग) कुलबाल - तपोबल का धनी । * अभयकुमार महाराज चंडप्रद्योत अभयकुमार को बंदी बनाना चाहते थे । उन्होंने इस कार्य के लिए एक गणिका को चुना। गणिका ने सारी योजना बनाई और शहर की दो सुन्दर और चतुर षोडशियों को तैयार किया। वे तीनों राजगृह में आई और अपने आपको धर्मनिष्ठ श्राविकाओं के रूप में विख्यात कर दिया। प्रतिदिन मुनि-दर्शन, धर्मश्रवण तथा अन्यान्य धार्मिक क्रियाकाण्डों को करने का प्रदर्शन कर जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर दिया । अभयकुमार भी इनकी धार्मिक क्रियाओं और तत्वज्ञान की प्रवणता को देखकर आकृष्ट हुआ। एक दिन अभयकुमार ने तीनों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। तीनों गई। भोजन से निवृत्त होकर, धार्मिक चर्चा की और उन तीनों ने अभयकुमार को अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया । उसने स्वीकार कर लिया । अभयकुमार ठीक समय पर उनके निवास स्थान पक पहुंचा। तीनों ने भावभरा स्वागत किया, भोजन कराया और चन्द्रहार सुरा के मिश्रण से निष्पन्न मधुर पेय पिलाया । तत्काल अभय को नींद आने लगी । सुकोमल शय्या तैयार थी। अभयकुमार सो गया । वह बेसुध सा हो गया । गणिकाएं उसे रथ में डालकर अवन्ती ले गई। चंडप्रद्योत को सौंप गणिकाएं अपने घर चली गई । अभय का बुद्धिवल पराजित हो गया । चंडप्रयोत अभयकुमार चंडप्रद्योत से बदला लेना चाहता था। चंडप्रद्योत वीर था । उसको आमने-सामने लड़कर पराजित कर पाना असंभव था । अभयकुमार ने गुप्त योजना बनाई। वह बनिए का रूप बनाकर उज्जयिनी आया। दो सुन्दर गणिकाएं साथ में थीं । बाजार में एक विशाल मकान किराए पर ले वहीं रहने लगा। चंडप्रद्योत उसी मार्ग से आता जाता था। उस समय वे स्त्रियां गवाक्ष में बैठकर हावभाव दिखाती थीं। चंडप्रद्योत उनके प्रति आकृष्ट हुआ और अपनी दासी के साथ प्रणय प्रस्ताव भेजा। एक दो बार वह दासी निराश लौट आई। तीसरी बार गणिकाओं ने महाराज को अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया । इधर अभयकुमार ने एक व्यक्ति को अपना भाई बनाकर उसका नाम प्रद्योत रख दिया। उसे पागल का अभिनय करने का प्रशिक्षण दिया। लोगों में यह प्रचारित कर दिया कि यह पागल है और सदा कहता है कि मैं प्रद्योत राजा हूं। मुझे जबरदस्ती पकड़ कर ले जा रहा है । निर्धारित दिन के अपरान्ह में चंडप्रद्योत गणिका के द्वार पर आया । गणिका ने स्वागत किया। चंडप्रद्योत एक पलंग पर लेट गया । इतने में ही अभय के सुभटों ने उसे धर दबोचा। उसे रस्सी से बांध कर चार आदमी अपने कंधों पर उठाकर बीच १ चूर्णि, पृ० १०२ : व्यायाम विक्रमो वीर्यं सत्त्वं च पुरुषे गुणाः । २. वृत्ति, पत्र १०३ : गुणाः व्यायामविक्रमधेयं सत्त्वादिकाः । ३ नियुक्ति, गाथा ५० : सूरा मो मण्णंता कइतवियाहि उवहि-नियडिप्पहाणाहि । गहिता तु अभय-पजोत-आधारादिणो बहवे ।। ४. वृत्ति, पत्र १०३ : कथानक त्रयोपन्यासस्तु यथाक्रमं अत्यन्तबुद्धिविक्रमतपस्विख्यापनार्थ इति । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यगडो १ अध्ययन ४: प्रामुख बाजार से ले चले। उसका मुंह ढंका हुआ था । वह चिल्ला रहा था, 'मुझे बचाओ। मैं प्रद्योत राजा हूं। मुझे जबरदस्ती पकड़कर ले जा रहे हैं। लोग इस चिल्लाहट को सुनने के आदी हो गए थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। उसे बंदी अवस्था में लाकर अभयकुमार ने श्रेणिक को सौंप दिया। कूलबाल महाराज अजातशत्रु वैशाली के प्राकारों को भंग करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी प्रतिज्ञा सफल नहीं हो रही थी। एक व्यन्तरी ने महाराज ने कहा-राजन् ! यदि मागधिका वेश्या तपस्वी क्लबाल को अपने फंदे में फंसा ले तो आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है। मागधिका वेश्या चंपा में रहती थी। महाराजा अजातशत्रु ने उसे बुला भेजा और अपनी बात बताई। वेश्या ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। कूलबाल तपस्वी का अता-पता किसी को ज्ञात नहीं था। गणिका ने श्राविका का कपटरूप बनाया। आचार्य के पास आने जाने से उसका परिचय बढ़ा और एक दिन मधुर वाणी से आचार्य को लुभा कर तपस्वी का पता जान ही लिया। वह तपस्वी कुलबाल अपने शाप को अन्यथा करने के लिए एक नदी के किनारे कायोत्सर्ग में लीन रहता था। जब कभी आहार का संयोग होता, भोजन कर लेता, अन्यथा तपस्या करता रहता । कायोत्सर्ग और तपस्या ही उसका कर्म था। गणिका उसी जंगल में पहुंची जहां तपस्वी तपस्या में लीन थे। उनकी सेवा-सुश्रुषा का बहाना बनाकर उसने वहीं पड़ाव डाला। मुनि को पारणे के लिए निमंत्रित कर, औषधि मिश्रित मोदक बहराए। उनको खाने से मुनि अतिसार से पीड़ित हो गए। यह देखकर मागधिका ने कहा- मुनिवर ! अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आप मेरे आहार से रोगग्रस्त हुए हैं। मैं आपको स्वस्थ करके ही यहां से हटूंगी।" अब वह प्रतिदिन मुनि का वैधावृत्य, अगमर्दन और भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा करने लगी । मुनि का अनुराग बढ़ता गया। दोनों का प्रेम पति-पत्नी के रूप में विकसित हुआ और मुनि अपने मार्ग से च्युत हो गए। ये तीनों दृष्टान्त इस बात के द्योतक हैं कि स्त्री-परवशता सबको पराजित कर देती है। वृत्तिकार ने 'सुसमत्थाऽवस मत्था .. ....[नियुक्तिगाथा ५६]' की व्याख्या के अन्तर्गत पन्द्रह श्लोकों में स्त्रियों के उन गुणों की चर्चा की है जिनके कारण वे अविश्वसनीय होती हैं। ग्रन्थकार यहां तक कहते है-'गंगा के बालुकणों को गिना जा सकता है, सागर के पानी का माप हो सकता है, और हिमालय का परिमाण जाना जा सकता है, उसे तोला जा सकता है, परन्तु महिलाओं के हृदय को जान पाना विचक्षण व्यक्तियों के लिए भी अशक्य है।' नियुक्तिकार ने अंत में यह भी प्रतिपादित किया है कि स्त्रियों के संसर्ग से जो-जो दोष पुरुषों में आपादित होते हैं, वे ही दोष पुरुषों के संसर्ग से स्त्रियों में भी आपादित होते हैं।' प्रस्तुत अध्ययन में उपमाओं के द्वारा समझाया गया है कि किस प्रकार स्त्रियां पुरुषों को (मुनियों को) अपने फंदे में फसाती हैं १. सोहं जहा व कुणिमेणं (श्लोक ८) २. अह तत्थ पुणो णमयंति, नहकारो व मि अणुपुम्वोए (श्लोक ९) ३. बद्धे मिए व पासेणं (श्लोक ६) ४. भोच्चा पायसं वा विसमस्सं (श्लोक १०) ५. विसलित्तं व कंटगं णच्चा (श्लोक ११) ६. जउकुम्भे जोइसुवगूढे (श्लोक २७) ७. णोवारमेवं बुज्झज्जा (श्लोक ३१) प्रस्तुत अध्ययन की चूणि और वृत्ति में कामशास्त्र संबंधी अनेक प्राचीन श्लोक संगृहीत हैं। उनका संकलन भी बहुत १. वृत्तिकार के अनुसार यह नियुक्ति का उनसठवां श्लोक है और चूणिकार के अनुसार यह बावनवां श्लोक है। २. वृत्ति, पत्र १०३-१०४ । ३. वृत्ति, पत्र १०४ : गंगाए वालुया सागरे जलं हिमवओ य परिमाणं । जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं ण जाणंति ॥ ४. नियुक्ति गाथा ५४ : एते चेव य दोसा पुरिसपमादे वि इत्थिगाणं पि । Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १८४ अध्ययन ४: प्रामुख महत्त्वपूर्ण है । उनके स्थल इस प्रकार हैं चूणि, पृष्ठ : १०३, १०४-१०७, १०६, ११०, ११२, ११३, ११५, ११६-१२१ । वृत्ति, पत्र १०५-१२० । प्रस्तुत अध्ययय के दूसरे उद्देशक में प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का भी सुन्दर वर्णन हुआ है । पथच्युत मुनि से स्त्री क्या-क्या कार्य करवाती है, क्या-क्या मंगाती है और उसको पुत्र-पालन के लिए कैसे प्रेरित करती है-इनका सजीव वर्णन हुआ है । रोते बालक को शान्त करने के लिए उस मार्ग-च्युत मुनि को 'लोरी' गानी पड़ती है। चूणि और वृत्तिकार ने उसका श्लोक प्रस्तुत किया है 'सामिओ मे णगरस्स य णक्कउरस्स य, हत्थवप्प-गिरिपट्टण-सीहपुरस्स य । अण्णतस्स चिण्णस्स य कंचिपुरस्स य, कण्णउज्ज-आयामुह-सोरिपुरस्स य॥" श्लोक ग्यारह में सूत्रकार ने केवल स्त्रियों में धर्म कथा करने का वर्जन किया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस औत्सर्गिक नियम में अपवाद का कथन भी किया है । उत्तराध्ययन सूत्र (अध्ययन १६) में भी केवल स्त्रियों में धर्मकथा करने का वर्जन मिलता है। श्लोक चार के 'णिमंतेति' शब्द की व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने एक मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रगट किया हैस्त्रियां सधवा हों या विधवा, उनकी ऐसी मनःस्थिति है कि आसपाम रहने वाले कूबडे या अन्धे व्यक्ति से भी कामवासना की पूर्ति करने की प्रार्थना कर लेती है। इसी प्रकार 'पासाणि' की व्याख्या में यह मनोवैज्ञानिक तथ्य उभरा है कि किसी को बांधना हो तो उसे अनुकूलता, अनुराग के पाश से बांधो। चूणि और वृत्ति में इसी आशय का एक प्रलोक उद्धृत हुआ है 'जं इच्छसि घेत्तुं जे पुग्वि ते आमिसेण गेण्हाहि । आमिसपासणिबद्धो काही कन्जं अकज्जं पि॥' -जिसको तुम पाना चाहते हो, उसे अनुराग से जीतो, पाने का प्रयत्न करो। अनुराग-स्नेह के पाश में बंधा हुआ व्यक्ति कार्य-अकार्य कुछ भी कर सकता है। इस प्रकार इस अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध हैं। इनसे कामवासना के परिणाम जानकर उनसे विरत होने की प्रबल प्रेरणा जागृत होती है। १. (क) चूणि पृ० ११६ । (ख) वृत्ति पत्र ११६ । २. चूणि, पृ० १०४ : ता हि सन्निरुद्धा सधवा विधवा वा, आसन्नगतो हि निरुद्धाभिः कुब्जोऽन्धोऽपि च काम्पते, किमु यो सकोविदः? ३. चूणि, पृ० १०४ । वृत्ति, पत्र १०६ । Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं : चौथा अध्ययन इत्थीपरिण्णा : स्त्रीपरिज्ञा पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल १.जे मायरं च पियरं च विप्पजहाय पुव्वसंजोगं । एगे सहिए चरिस्सामि आरतमेहुणो विवित्तेसी ॥१॥ २. सुहमेणं तं परक्कम्म छण्णपएण इत्थीओ मंदा। उवायं पि ताओ जाणंति जह लिस्संति भिक्खु णो एगे ।२। संस्कृत छाया यो मातरं च पितरं च, विप्रहाय पूर्वसंयोगम् । एक: सहितः चरिष्यामि, आरतमैथुनो विविक्तषी॥ सूक्ष्मेण तं पराक्रम्य, छन्नपदेन स्त्रियः मन्दाः । उपायं अपि ताः जानन्ति, यथा श्लिष्यन्ते भिक्षवः एके ॥ हिन्दी अनुवाद १. जो भिक्षु माता, पिता और पूर्व-संयोग को' छोड़कर (संकल्प करता है-) मैं अकेला', आत्मस्थ' और मैथुन से विरत होकर एकान्त में विचरूंगा।' २. मंद स्त्रियां निपुण और गूढ वाच्य वाले पदों का प्रयोग करती हुई मुनि के पास आती हैं। वे उस उपाय को भी जानती हैं जिससे कोई भिक्षु उनके संग में फंसता है। ३. वे उस भिक्षु के अत्यन्त निकट बैठती हैं, अधोवस्त्र को बार-बार ढीला कर उसे बांधती हैं, शरीर के अधोभाग को दिखलाती हैं और भुजाओं को ऊपर उठाकर कांख को बजाती हैं। ४. वे स्त्रियां कालोचित" शयन" और आसन के लिए कभी उसे निमंत्रित करती हैं।" उस मुनि को जानना चाहिए कि ये (निमंत्रण आदि) नाना प्रकार के उपक्रम उसके लिए बंधन ३. पासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिति । कार्य अहे वि संति बाहु मुटु कक्खमणुव्बजे ।३।। पार्वे भृशं निषीदन्ति, अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधति । कायं अधोऽपि दर्शयन्ति, बाहुमुद्धृत्य कक्षामनुवादयन्ति । ४. सयणासणेहि जोग्गेहि इत्थीओ एगया णिमंतेति । एयाणि चेव से जाणे पासाणि विरूवरूवाणि ।।। शयनासनेष योग्येष, स्त्रियः एकदा निमन्त्रयन्ति । एतान् चैव स जानीयात्, पाशान् विरूपरूपान् ॥ ५. णो तासु चक्खु संधेज्जा णो वि य साहसं समणुजाणे। णो सद्धियं पि विहरेज्जा एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ।। नो तासु चक्षुः सन्दध्यात्, नो अपि च साहसं समनुजानीयात् । नो सार्धकं अपि विहरेत्, एवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥ ५. मुनि उनसे (स्त्रियों से) आंख न मिलाए । उनके साहस (मैथुनभावना) का अनुमोदन न करे । उनके साथ विहार भी न करे । इस प्रकार आत्मा सुरक्षित रहता है।" ६. स्त्रियां भिक्षु को आमंत्रित कर (संकेत देकर) तथा उसकी आशंकाओं को शांत कर स्वयं सहवास का निमंत्रण देती हैं।" उस मुनि को जानना चाहिए कि ये नाना प्रकार के (निमत्रण रूप) शब्दर उसके लिए बंधन ६.आमंतिय ओसवियं वा भिक्खू आयसा णिमति । एयाणि चेव से जाणे सद्दाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ आमन्त्र्य उपशम्य वा, भिक्षु आत्मना निमन्त्रयन्ति । एतान् चैव स जानीयात्, शब्दान् विरूपरूपान् ॥ Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगटो १ ह ७. मणबंधणेहि कवणीयमुदािणं अदु मंजुलाई प्रासंति आणवयंति भिकाहि 101 मसीहं जहा व कुणि नेणं पासेणं । बंधति णिन्नयमेवचरं एवित्थियाओ संबुडमेगतियमणगारं ९. अह तत्थ पुणो णमयंति रहकारो व णेम अणुपुथ्वीए । बड़े मिए व पासेणं फंदते विमुच्चई ताहे || 15। १०. अह सेऽगुतप्पई पच्छा भोच्चा पायसं व विस मिस्सं । एवं विवागमायाए संवासो ण कप्पई दविए |१०| ११. तम्हा उ वञ्जए इत्बी विसलित्तं व कंटगं णच्चा । ओए कुलाणि वसवत्ती आधार ण से वि गिं |११| १२. जे एवं उंछं तमिद्धा अण्णयरा हु ते कुसीलाणं । सुतवस्सिए वि से भिक्खू णो बिहरे सहणमित्थी |१२| १३. अवि धूराहिं सुहाहि चाईहि अदुवा दासीहि । महतीह वा कुमारीह संथ से ण कुज्जा अणगारे ।१३। मनोबन्धनैः करण विनीतं अथवा आज्ञापयन्ति अनेक उपकृष्य । भाषस्ते, भित्रकथाभिः ॥ मंजुलानि सिंहं यथा वा निर्भयं एमचरं एवं स्त्रियः संवृतं एककं कुणपेन, पाशेन । बध्नन्ति, अनगारम् ॥ अथ तत्र पुनः नमयन्ति, रथकारः इव नेमि अनुपूर्व्या । बढ़ो मुग इव पाशेन, स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते तदा ॥ अथ स अनुतपति पश्चात्, भुक्त्वा पायसं इव विषमिश्रम् । एवं विपार्क आदाय, संवास: न कल्पते द्रव्यस्य ॥ तस्मात् तु वर्जयेत् स्त्रियं विषलिप्तं इव कण्टकं ज्ञात्वा । ओजः कुलानि वशवर्ती, आख्याति न सोऽपि निर्ग्रन्यः ॥ " ये एतद् उञ्छ तदनुगृद्धाः, अन्यतराः खलु ते कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि सः भिक्षु नो विहरेत् सह स्त्रीभिः ॥ अपि दुहितुभिः स्नुषाभिः धात्रीभि: अथवा दासीभिः । महतीभि: वा कुमारीभिः, संस्तर्ण स न कुर्यात् अनगारः ॥ ० ४ स्त्रीपरिज्ञा : इलो० ७-१३ 10 ७. वे मन को बांधने वाले अनेक ( शब्दों के द्वारा) दीन भाव प्रदर्शित करती हुई विनयपूर्वक भिक्षु के समीप आकर मीठी बोलती हैं और संयम से विमुख करने वाली कवा के द्वारा उसे वशवर्ती बना आज्ञापित करती २४ हैं । १५ 5. ८. जैसे (सिंह को पकड़ने वाले लोग ) निर्भय और अकेले रहने वाले सिंह को मांस का प्रलोभन दे पिंजड़े में बांध देते वैसे ही स्त्रियां संत और अकेले भिक्षु को (शद आदि विषयों का प्रलोभन देकर ) बांध लेती हैं । ९. फिर वे उस भिक्षु को वैसे ही झुका देती हैं जैसे बढई क्रमशः चक्के की पुट्ठी को । उस समय वह पाश से बंधे हुए मृग की भांति स्पंदित होता हुआ भी बंधन से छूट नहीं पाता । १०. वह (स्त्री के बंधन में फंसा हुआ भिक्षु) पीछे वैसे ही अनुताप करता है जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पछताता है । इस प्रकार अपने आचरण का विपाक जानकर रागद्वेष रहित भिक्षु" स्त्री के साथ संवास न करे।" ११. भिक्षु स्त्री को किसान जान कर उसका वर्जन करे। रागद्वेष रहित" और जितेन्द्रिय भिक्षु" भी घरों में जाकर केवल स्त्रियों में धर्मकथा करता है वह भी निर्ग्रन्थ नहीं होता (तब फिर दूसरे सामान्य भिक्षु का कहना ही क्या ! ) ।" १२. जो भक्त होकर विषयों की खोज करते हैं" वे कुशील व्यक्तियों की" श्रेणी में आते हैं। सुतपस्वी भिक्षु भी स्त्रियों के साथ न रहे। १३. भिक्षु बेटी, बहू, दाई अथवा दासियों, फिर वे बड़ी हो या कुमारी के साथ" भी परिचय न करे । " Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ १४. अदु गाइणं व सुहिणं वा अप्पियं दठ्ठे एगया होइ । गिद्धा सत्ता कामेह रक्खणपोसणे मणस्सोऽसि ॥१४२ १५. समणं पि दट्टूदासीगं तत्य विताय एगे कुष्पंति । अदु भोयणेहि इत्थदोससंकिणो ह होति ॥ १५ ॥ १६. कुब्वंति संथवं ताहि पढभट्ठा समा हिजोगेहि । तम्हा समणा ण समेंति आयहियाए सष्णिसेन्जाओ |१६| १७. बहवे गिहाई अवहट्ट मिस्सीमा पत्या एगे। पवयंति कुसीला ॥१७॥ धुवमग्गमेव बायावीरियं रव परिसाए अह रहस्सम्मि दुक्कडं कुणइ । जाणंति य णं णं तथावेदा माइले महाराज्यं ति | १८| १५. सु १६. सयं दुक्क दुक्कडं ण वयइ आइट्ठो वि पकत्वह बाले । durgats मा कासी चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥१६॥ वि इत्थिपोसेसु इथिवेण्णा । पुरिसा पण्णासमणिया बेगे नारीणं वसं उदकसंति |२०| २०. उनिया १८७ अथवा ज्ञातीनां वा सुहृदां वा अप्रियं दृष्टवा एकदा भवति । गृद्धाः सक्ताः रक्षणपोषणे कामेषु, मनुष्योऽसि ॥ श्रमणं अपि दृष्ट्वा उदासीन, तत्रापि तावत् एके कुप्यन्ति । अथ भोजनेषु यस्तेषु स्त्रीदोषशंकितः भवन्ति ॥ कुर्वन्ति संस्तवं ताभि, समाधियोगेभ्यः । प्रभ्रष्टाः तस्मात् श्रमणाः न समायन्ति आत्महिताय सग्निषयाः ॥ बहूनि गृहाणि अपहृत्य, मिश्रीभावं प्रस्तुता एके प्रवमार्गमेव वाग्वीर्यं शुद्धं रवति पर्षद, अथ रहस्ये दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तं तथावेदा मायावी महाशठोऽयं इति ॥ प्रवदन्ति कुशीलानाम् ॥ स्वयं दुष्कृतं न वदति, आदिष्टोऽपि प्रकत्थते बालः । वेदानुवीचि मा कार्षीः, बोद्यमानो ग्लायति स भूयः ॥ उषिता अपि पुरुषा: प्रज्ञासमन्विता नारीणां वशं ०४ : स्त्रीपरिक्षा श्लो० १४-२० १४. किसी समय स्त्री के साथ परिचय करते हुए भिक्षु को देखकर उसके ज्ञातियों" और मित्रों में अप्रियभाव उत्पन्न होता है। (वे सोचते हैं) ये भिक्षु कामभोगों में गूड हैं, हैं । ( फिर उस भिक्षु से कहते हैं -) 'तुम ही इसके पुरुष (स्वामी) हो । इसका रक्षण और पोषण तुम ही करो। " ४३ स्त्रीपोष स्त्रीवेदक्षेत्राः । वा एके, उपकषन्ति । १५. श्रमण को स्त्रियों के समीप बैठा हुआ" देखकर भी कुछ लोग कुपित हो जाते हैं । श्रमण को देने के लिए रखे हुए भोजन को देखकर स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लग जाते हैं । " १६. समाधि योग से" भ्रष्ट श्रमण स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं इसलिए आत्महित की दृष्टि से भ्रमण गृहस्थ की शय्या पर नहीं बैठते । २४९ १७. कुछेक लोग अपने-अपने घरों को छोड़ कर गृहस्थ और साधु - दोनों का जीवन जीते हैं। वे इसी को घुमा बतलाते हैं । कुशील लोग केवल वावीर होते हैं" (कर्मवीर नहीं ।) १८. कुशील मनुष्य परिषद् में अपने आपको शुद्ध" बतलाता है और एकान्त में पाप करता है । यथार्थ को जानने वाले" जान लेते है यह मायावी है, महाशठ है । * ५१ १६. ह स्वयं अपना दुष्कृत नहीं बत लाता । कोई उसे ( प्रमाद न करने के लिए) प्रेरित करता है" तब वह अपनी प्रशंसा करने लग जाता है ।" *मैथुन की कामना मत करो - यह कहने पर वह बहुत खिन्न होता है । २०. कुछ पुरुष स्त्री का सहवास कर चुके हैं, स्त्रियों के हावभाव " जानने में निपुण है, प्रज्ञा से समन्वित हैं, फिर भी वे स्त्रियों के वशीभूत हो जाते है ।" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. ४ : स्त्रीपरिज्ञा : श्लो० २१-२७ सूयगडो १ २१. अवि हत्थपायछेयाए अदुवा वद्धमंस उक्कते। अवि तेयसाभितावणाई तच्छिय खारसिंचणाइं च ।२१॥ अपि हस्तपादच्छेदाय, अथवा वर्धमांसः उत्कृत्तः । अपि तेजसा अभितापनानि, तष्ट्वा क्षारसेचनानि च ॥ २१. व्यभिचारी मनुष्यों के हाथ-पैर काटे जाते हैं, चमड़ी छीली जाती है और मांस निकाला जाता है। उन्हें आग में जलाया जाता है। उनके शरीर को काटकर नमक छिड़का जाता है। २२. अदु कण्णणासियाछज्ज कंठच्छेयणं तितिक्खंती। इति एत्थ पाव-संतत्ता ण य वेंति पुणो ण काहिति ।२२॥ अथ कर्णनासिकाच्छेद्यं, कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्ते । इति अत्र पापसंतप्ताः , न च ब्रुवन्ति पुनर्न करिष्यामः । २२. अथवा उनके नाक-कान काटे जाते है, कंठ-छेदन किया जाता है। वे इन सब कष्टों को सहते हैं । इस प्रकार पाप (परदारगमन) से संतप्त होने पर भी वे नहीं कहते-हम फिर ऐसा काम नहीं करेंगे।" २३. सुयमेयमेवमेगेसि इत्थीवेदे वि हु सुयखायं । एयं पिता वइत्ताणं अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ।२३। ___ इत्यावेदे व ताणं श्रुतं एतद् एवं एकेषां, स्त्रीवेदेऽपि खलु स्वाख्यातम् । एतद् अपि तावत् उक्त्वा, अथवा कर्मणा अपकुर्वन्ति ।। २३. (लोकश्रुति) में सुना गया है और स्त्री वेद (कामशास्त्र)२ में भी कहा गया है कि स्त्री किसी बात को वाणी से स्वीकार करती है किन्तु कर्म से उसका पालन नहीं करती (यह उसका स्वभाव २४. अण्णं मणेण चितेंति अण्णं वायाए कम्मुणा अण्णं । तम्हा ण सद्दहे भिक्खू बहुमायाओ इथिओ णच्चा ।२४। . अन्यद् मनसा चिन्तयन्ति, अन्यद् वाचा कर्मणा अन्यत् । तस्मात् न श्रद्दधीत भिक्षुः, बहुमायाः स्त्रियः ज्ञात्वा ।। २४. वह मन से कुछ और ही सोचती है, वचन से कुछ और ही कहती है तथा कर्म से कुछ और ही करती है। इसलिए भिक्षु स्त्रियों को बहुमायाविनी जान, उन पर विश्वास न करे । ५ २५. जुवती समणं बूया चित्तवत्थालंकारवि भूसिया । विरया चरिस्सहं रुक्खं धम्माइक्ख णे भयंतारो!।२५॥ युवतिः श्रमणं ब्रूयात्, चित्रवस्त्रालंकार - विभूषिता । विरता चरिष्यामि रूक्ष, धर्म आचश्व नः भदन्त !॥ २५. विचित्र वस्त्र और आभूषण से विभू ति स्त्री श्रमण से कहती है-भदन्त ! मुझे धर्म का उपदेश दें। मैं विरत है, संयम का पालन करूंगी। २६. अदु सावियापवाएणं अहगं साहम्मिणी य तुब्भं ति। जउकुम्भे जहा उवज्जोई संवासे विऊ विसीदेज्जा ।२६। अथ श्राविकाप्रवादन, अहकं सार्मिणी च युष्माकं इति । जतुकुम्भो यथा उपज्योतिः, संवासे विद्वान् विषीदेत् ।। २६. अथवा श्राविका होने के बहाने वह कहती है-मैं तुम्हारी सार्मिकी (समान-धर्म को मानने वाली) हूं। किन्तु मुनि इन बातों में न फंसे ।) विद्वान् मनुष्य भी आग के पास रखे हुए लाख के घड़े की भांति स्त्री के संवास से विषाद को प्राप्त होता है। २७. जउकुम्भे आसुभितत्ते एवित्थियाहि संवासेण जोइसुवगूढे णासमुवयाइ। अणगारा णासमुवयंति ।२७। जतुकुम्भो ज्योतिषोपगूढः, आशु अभितप्तो नाशमपयाति । एवं स्त्रीभिः अनगाराः, संवासेन नाशमुपयन्ति ।। २७. आग से लिपटा हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार स्त्रियों के संवास से नष्ट हो जाते हैं। Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ०४: स्त्रीपरिज्ञा : श्लो० २८-३४ सूयगडो १ २८. कुव्वंति पावगं कम्म वेगेवमाहंसु । णा हं करेमि पावं ति अंकेसाइणी ममेस ति।३। पृट्टा कुर्वन्ति पापकं कर्म, पृष्टाः वा एके एवमाहुः । नाहं करोमि पापं इति, अंकेशायिनी ममैषा इति ॥ २८. कुछ भिक्षु पाप-कर्म (अब्रह्मचर्य-सेवन) करते हैं और पूछने पर कहते हैं -- मैं पाप (अब्रह्मचर्य-सेवन) नहीं करता। यह स्त्री (बचपन से ही) मेरी गोद में सोती रही है। २६. बालस्स मंदयं बीयं जं च कडं अवजाणई भुज्जो। दुगुणं करेड़ से पावं पूयणकामो विसण्णेसी।२६। ३०. संलोकणिज्जमणगारं आयगयं णिमंतणेणाहंसु । वत्थं वा ताइ! पायं वा अण्णं पाणगं पडिग्गाहे ।३०। बालस्य मान्द्यं द्वितीयं, २६. मूढ की यह दूसरी मंदता है कि वह यच्च कृतं अपजानाति भूयः ।। किए हुए पाप को नकारता है। वह द्विगुणं करोति स पापं, पूजा का इच्छुक' और असंयम का पूजनकामः विषण्णषी॥ आकांक्षी होकर दूना पाप करता है। संलोकनीयं अनगारं, ३०. (अपनी सुन्दरता के कारण) दर्शनीय आत्मगतं निमन्त्रणेन आहुः । और आत्मस्थ अनगार को वह निमंवस्त्रं वा तायिन् ! पात्रं वा, त्रण की भाषा में कहती है-हे अन्नं पानकं प्रतिगृण्हीयाः ।। तायिन् ! आप वस्त्र, पात्र और अन्न पान को (मेरे घर से) स्वीकार करें। नीवारमेव बुध्येत, ३१. भिक्षु इसे नीवार" ही समझे । उनके नो इच्छेत् अगारमागन्तुम् ।। घर जाने की इच्छा न करे। जो बद्धो विषयपाशः, विषय-पाश से बद्ध हो जाता है वह मोहं आपद्यते पुनर्मन्दः॥ मंद मनुष्य फिर मोह में फंस जाता ३१. णीवारमेवं बुज्झज्जा णो इच्छे अगारमागंतुं। विसयपासेहि मोह मावज्जइ पुणो मंदे ॥३१॥ बद्ध -त्ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि॥ -ऐसा मैं कहता हूं। बोओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक ३२. ओए सया ण रज्जेज्जा भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा। भोगे समणाण सुहा जह भुंजंति भिक्खुणो एगे।। ओजः सदा न रज्येत, भोगकामी पुनः विरज्येत । भोगान् श्रमणानां शृणुत, यथा भुञ्जते भिक्षवः एके॥ ३३. अह तं तु भेयमावण्णं मुच्छियं भिक्खु काममइवटुं। पलिभिदियाण तो पच्छा पादुद्ध१ मुद्धि पहणति ।२। ३४. जइ केसियाए मए भिक्ख ! णो विहरे सहणमित्थीए। केसे वि अहं लुचिस्सं णण्णत्थ मए चरेज्जासि ॥३॥ अथ तं तु भेदमापन्नं, मच्छितं भिक्षु काममतिवृत्तम् । परिभिद्य ततः पश्चात्, पादौ उद्धृत्य मूनि प्रहन्ति ।। यदि केशिकया मया भिक्षो!, नो विहरेः सार्धं स्त्रिया । केशानपि अहं लञ्चिष्यामि, नान्यत्र मया चरेः॥ ३२. राग-द्वेष से मुक्त" होकर अकेला रहने वाला भिक्षु कामभोग में कभी आसक्त न बने । भोग की कामना उत्पन्न हो गई हो तो उससे फिर विरक्त हो जाए। कुछ श्रमण-भिक्षु जैसे भोग भोगते हैं, उनके भोगों को तुम सुनो। ३३. चारित्र से भ्रष्ट," मूछित और कामा सक्त" भिक्षु को वश में करने के बाद स्त्री उसके सिर पर पैर से प्रहार करती है। ३४- (भिक्षु को वश में करने के लिए कोई स्त्री कहती है-) मैं केश रखती हूँ। भिक्षु ! यदि तुम मेरे साथ विहार करना नहीं चाहते तो मैं केशलुंचन करा लूंगी। तुम मुझे छोड़ अन्यत्र मत जाओ। Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्र०४ : स्त्रीपरिज्ञा : श्लो० ३५-४३ ३५. जब वह भिक्षु पकड़ में आ जाता है" तब उससे नौकर का काम कराती है- कद्द काटने के लिए चाकू ला । अच्छे फल ला। ३६. शाकभाजी पकाने के लिए लकड़ी ला। उससे रात को प्रकाश भी हो जाएगा। मेरे पैर रचा।" आ, मेरी पीठ मल दे। सूयगडो १ ३५. अह णं से होइ उवलद्धे तो पेसेंति तहाभूएहि। अलाउच्छेयं पेहेहि वग्गुफलाइं आहराहि त्ति।४। ३६. दारूणि सागपागाए पज्जोओ वा भविस्सई राओ। पायाणि य मे रयावेहि एहि य ता मे पट्टि उम्महे ।। ३७. वत्थाणि य मे पडिलेहेहि अण्णं पाणमाहराहि त्ति। गंधं च रओहरणं च कासवगं च समणुजाणाहि ।। ३८. अदु अंजणि अलंकारं कुक्कययं मे पयच्छाहि । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च वेणुपलासियं च गुलियं च ७॥ ३६. कोठें तगरं अगरु च संपिढें सह उसीरेणं । तेल्लं मुहे भिलिंगाय वेणुफलाइं सण्णिहाणाए।। अथ सः भवति उपलब्धः, ततः प्रेषयन्ति तथाभूतैः । अलाबुच्छेदं प्रेक्षस्व, वल्गुफलानि आहर इति ॥ दारूणि शाकपाकाय, प्रद्योतो वा भविष्यति रात्रौ। पादौ च मे रञ्जय, एहि च तावत् मे पृष्ठिं उन्मर्दय ॥ वस्त्राणि च मे प्रतिलिख अन्नं पानं आहर इति । गन्धं च रजोहरणं च, काश्यपं च समनुजानीहि ॥ अथ अञ्जनी अलंकारं, 'कुक्कययं' में प्रयच्छ । लोध्र च लोध्रकुसुमं च, 'वेणुपलासियं' च गुटिकां च ॥ कोष्ठं तगरं अगरु च, संपृष्टं सह उशीरेण । तैलं मुखे 'भिलिंगाय', वेणुफलानि । सन्निधानाय । ३७. मेरे वस्त्रों को देख (ये फट गए हैं, नए वस्त्र ला)। अन्न-पान ले आ। सुगंध चूर्ण और कूची ला। बाल काटने के लिए नाई को बुला। ३८. अजनदानी," आभूषण" और तुंब वीणा"ला। लोध, लोध के फूल, बांसुरी" और (औषध की) गुटिका" ला। ३६. कूठ, तगर, अगर," खस के साथ पीसा हुआ चूर्ण, मुंह पर मलने के लिए" तेल" तथा वस्त्र आदि रखने के लिए बांस की पिटारी" ला । ४०. णंदीचुण्णगाइं पाहराहि छत्तोवाहणं च जाणाहि। सत्थं च सूवच्छेयाए आणीलं च वत्थं रावेहि ।। नन्दीचर्णकानि प्राहर, छत्रोपानहं च जानीहि । शस्त्रं च सूपच्छेदाय, आनीलं च वस्त्रं रञ्जय ॥ ४०. (होठों को मुलायम करने के लिए) नदी चूर्ण," छत्ता और जूते ला। भाजी" छीलने के लिए छुरी ला। वस्त्र को हल्के नीले रंग से रंगा दे । ४१. सुणि च सागपागाए आमलगाइं दगाहरणं च। तिलगकररांग अंजणसलागं घिसु मे विहुयणं विजाणाहि ॥१०॥ 'सुफणि' च शाकपाकाय, आमलकानि दकाहरणं च। तिलककरणी अञ्जनशलाका, ग्रीष्मे मे विधुवनं विजानीहि ।। ४१. शाक पकाने के लिए तपेली, आंवलें, कलश, तिलककरनी, अंजनशलाकार तथा गरमी के लिए पंखा ला। संदशकं च 'फणिह' च, 'सीहलिपासगं' च आनय । आदर्शकं च प्रयच्छ, दन्तप्रक्षालनं प्रवेशय॥ ४२. (नाक के केशों को उखाड़ने के लिए) संदशक, कंघी" और केश-कंकण'५ ला। दर्पण दे और दतवनला । ४२. संडासगं च फणिहं च सीहलिपासगं च आणाहि। आयंसगं च पयच्छाहि दंतपक्खालणं पवेसेहि ॥११॥ ४३. पूयफलं तंबोलं च सूई-सुत्तगं च जाणाहि । कोसं च मोयमेहाए सुप्पुक्खल-मुसल-खारगलणं च ।१२ पूगफलं ताम्बूलं च, सूचि-सूत्रक च जानीहि । कोशं च 'मोयमेहाय', सूपोदूखलमशलक्षारगालनकञ्च ॥ ४३. सुपारी, पान, सूई, धागा, मूत्र के लिए पात्र,०८ सूप, ओखली, मुसल और सज्जी गलाने का बर्तन ला । Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४४. बंदाल च करगं च यच्चघरगं च आउसो ! खणाहि । सरपायच जायाए गोरगं च सामणेराए |१३| ४५. पहि चेलगोल कुमारभूषाए । इममभिआवणं वासं आवसहं जाणाहि भत्ता ||१४| ४६. आसंदियं च वसुतं पाउल्लाई सह डिडिए संकट्ठाए । पुतदोहलट्ठाए अदु आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥ ४७. जाए फले समुपणे गेहसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे भारवहा हवंति उट्टा वा । १६। ४८. राओ विउट्टिया संता दारणं संठवेति घाई वा । सुहिरीमणा वि ते संता वत्थधुवा हवंति हंसा वा ॥ १७॥ ४६. एवं बहुि कयपुर भोगत्याए जेऽभियाणा। दासे मिए व पेस्से वा पसुभूए व से ण वा केई |१८| ५०. एवं खु तासु विष्णप्यं संभवं संवासं च चएज्जा । तज्जातिया इमे कामा वज्जकरा य एव मवखाया |१६| १६१ 'बंदालगं' च करकं च, वचगृहं च आयुष्मन् ! खन । शरपातकं च जाताय, गोरधर्क च श्रामणेराय || घटिकां चेलगोलं डिण्डिमवेन, कुमारभूताय । अभ्यापन्ना, वर्षा इय आवसथं जानीहि भर्तः ! ॥ अ० ४ : स्त्रीपरिज्ञा श्लो० ४४-५० : सह आसन्दिकां च नवसूत्रां 'पाउल्लाई' संक्रमार्थम् । पुत्र दोहदार्थ, अथ आज्ञाप्याः भवन्ति दासा इव ॥ समुत्पन्ने, हि । जाते फले गृहाण वा अथवा अथ पुत्रपोषिणः एके, भारवहा भवन्ति उष्ट्रा इव ॥ रात्रापि उत्थिताः सन्तः, दारकं संस्थापयन्ति धात्री इव । सुह्रीमनसोऽपि सन्तः, वस्त्रधाविनो भवन्ति हंसा इव ॥ एवं बहुभिः कृतपूर्वं भोगार्थाय ये अभ्यापन्नाः । दासः मृग इव प्रेष्य इव, पशुभूत इव सन वा कश्चित् ।। एवं खलु तासु विज्ञाप्यं, संस्तवं संवास च त्यजेत् । तज्जातिका इमे कामाः, वयंकराश्च एवं आख्याताः ॥ ! ४४. आयुष्मान् पूजाया और लघु पात्र" ला । संडास के लिए गढा खोद दे । " पुत्र के लिए धनुष्य"" और श्रामणेर ( श्रमण-पुत्र) के लिए" तीन वर्ष का बैल "" ले आ । डमरू और कपड़े की गेंद "" ला । हे भर्त्ता ! वर्षा सिर पर मंडरा रही है, इसलिए घर की ठीक व्यवस्था कर 15 ११६ ४५. बच्चे के लिए १५ घंटा, " १५० ४६. नी की खटिया और चलने के लिए काष्ठपादुका ता तथा गर्भकाल में स्त्रियां अपने दोहद (लालसा) को पूर्ति के लिए अपने प्रियतम पर दास की भांति शासन करती हैं। -११७ १२९ ४७. पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर ( वह कहती है) इसे (पुष को) से अथवा छोड़ दे।" (स्त्री के अधीन होने वाले कुछ पुरुष पुत्र के पोषण में लग जाते हैं और वे ऊंट की भांति भारवाही हो जाते है। ४८. वे रात में भी उठकर ( रोते हुए) बच्चे को धाई की भांति लोरी गाकर सुला देते हैं । ११५ वे लाजयुक्त मन वाले होते हुए भी धोबी की भांति (स्त्री और बच्चे के ) वस्त्रों को धोते हैं । ४९. बहुतों ने पहले ऐसा किया है। जो कामभोग के लिए भ्रष्ट हुए हैं वे दास की भांति समर्पित, मृग की भांति परवश, प्रेष्य की भांति कार्य में व्यापृत और पशु की भांति भारवाही" होते हैं । वे अपने आप में कुछ भी नहीं रहते । १९ .१२७ 1 ५०. इस प्रकार स्त्रियों के विषय में जो १११ कहा गया है ( उन दोनों को जानकर ) उनके साथ परिचय" और संवास का परित्याग करे। ये काम - भोग सेवन करने से बढ़ते हैं ।" तीर्थंकरों ने उन्हें कर्म-बन्धन कारक " बतलाया है .१३३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्र०४: स्त्रीपरिज्ञा: लो०५१-५३ सूयगडो १ ५१. एवं भयं ण सेयाए इइ से अप्पगं णिरु भित्ता। णो इत्थि णो पसु भिक्खू णो सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा।२० एवं भयं न श्रेयसे, इति स आत्मकं निरुध्य । तानो पशं भिक्षः, ५१. ये कामभोग भय उत्पन्न करते हैं। ये कल्याणकारी नहीं हैं । यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे-कामभोग से अपने को बचाए।" वह स्त्रियों और पशुओं से बचे तथा अपने गुप्तांगों को हाथ से न छुए।५ भिक्षु मन का । नो स्वयं पाणिना निलीयेत ॥ ५२. सुविसुद्धलेसे मेहावी परकिरियं च वज्जए णाणी। मणसा वयसा काएणं सव्वफाससहे अणगारे ।२१॥ सुविशुद्धलेश्यः मेधावी, परक्रियां च वर्जयेत् ज्ञानी। मनसा वाचा कायेन, सर्वस्पर्शसहः अनगारः॥ ५३. इच्चेवमाह से वीरे धुयरए धुयमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थविसुद्धे सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ।२२॥ इत्येवं आह स वीरः, धुतरजाः धुतमोहः स भिक्षुः । तस्मात् अध्यात्मविशुद्धः, सुविमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेत् ।। ५२. शुद्ध अन्तःकरण वाला मेधावी, ज्ञानी भिक्षु परक्रिया न करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए। वह अनिकेत भिक्षु मन, वचन और काया से सब स्पों (कष्टों) को सहन करे। ५३. भगवान महावीर ने ऐसा कहा है जो राग और मोह को धुन डालता है वह भिक्षु होता है । इसलिए वह शुद्ध अन्तःकरण वाला" भिक्षु काम-वांछा से मुक्त होकर बन्धन-मुक्ति के लिए परिव्रजन करे। --त्ति बेमि ॥ -इति ब्रवीमि॥ -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पूर्व संयोग को ( पुण्यसंजोगं) पूर्णिकार ने इसके अर्थ निम्न प्रकार से किए है १. गृहसंयोग २. भार्या, श्वसुर, पुत्र, धेवते आदि से होने वाला पश्चात् संबंध । ३. सारे संबंध - पहले के या बाद के । ४. द्रव्य से पूर्व संयोग-स्वजन संस्तव या नो-स्वजन संस्तव । ५. भाव से पूर्व संयोग - मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान आदि । देता है।' ३. आत्मस्थ (सहिए ) वृत्तिकार ने माता, पिता, भाई, पुत्र आदि के संबंध को पूर्व संयोग और सास-ससुर आदि के संबंध को पश्चात् संयोग माना है। यहां दोनों प्रकार के संयोग गृहीत हैं ।' २. अकेला ( एगे ) इसका अर्थ है - अकेला । अकेला वह होता है जो माता-पिता आदि स्वजनों की आसक्ति को अथवा कषायों को छोड़ देखें - २१५२ का टिप्पण | ४. एकान्त में विचरूंगा (विवित्तेसी) टिप्पण : अध्ययन ४ पुर्णिकार ने इसके भार अर्थ किए हैं' श्लोक १ १. द्रव्य से विविक्त का अर्थ है - शून्यागार-स्त्री पशु से वर्जित स्थान । २. भाव से विविक्त का अर्थ है- काम के संकल्प का वर्जन । ३. साधुओं के मार्ग की एषणा करने वाला । ४. कर्म से विविक्त अर्थात् मोक्ष की एषणा करने वाला | वृत्तिकार ने इसका अर्थ - ऐसा स्थान जो संयमचर्या का अवरोधक न हो- किया है ।" *****... १. चूर्ण, पृ० १०३ : पूर्व संयोगो गृहसंयोगः, अथवा जातः सन् यैः सह पश्चात् संयुज्यते स संयोगः, स तु भार्या - श्वशुर-पुत्र - दुहित्रादि, अथवा सर्व एव पूर्वापरसहसम्बन्धः पूर्वसंयोगो भवति । अथवा द्रव्य-भावतः पूर्वसंयोगः । द्रव्ये स्वजनसंस्तवो नोस्वजन संस्तवश्च । भावे मिच्छत्ता ऽविरति अण्णाणादि । २. वृत्ति पत्र १०५ : भ्रातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकपश्चात्संयोगं च । ३. वृत्ति, पत्र १०५ एको मातापित्राद्यभिष्वङ्गवजितः कषायरहितो वा । ४. णि १० १०३ विविसी, विवित्तं प्रथ्ये शून्यागारं स्त्री-पशुवजितम् भाये तत्सत्ययता दिवितान्येयसीति विविशेयो मार्गयतीत्यर्थः, विविक्तानां साधूनां नार्गमेषतीति विवित्तंसी । अथवा कर्म विवित्तो मोक्खो तमेवमेषतीति विवित्तमेसी । ५. वृति पत्र १०५ विषतं स्त्रीपण्डकादिरहितं स्थानंसंधानुपरोऽयेषितुं शीलमस्तथेति । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६४ श्लोक २ : ५. निपुण (सुमेण ) चूर्णिकार ने सूक्ष्म का अर्थ 'निपुण' किया है। उपाय का अध्याहार करने पर इसका अर्थ होता है— सूक्ष्म उपाय के द्वारा । वृत्तिकार का अर्थ भिन्न है। उनके अनुसार यह 'छष्णपण' का विशेषण है और इसका अर्थ है - बहाना कर । ६. गूढ़ वाच्यवाले पदों का (छण्णप एण) पूर्णिकार ने पद के दो अर्थ किए है १. अन्यापदेश - दूसरे के मिष से अपनी बात कहना । २. गुप्तपदों और संकेतों के द्वारा अपना आन्तरिक भाव प्रगट करना । वृत्तिकार को भी ये दोनों अर्थ मान्य हैं। चूर्णि और वृत्ति में इन दोनों को उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है funga चाइकिङगा लुकिया य सयणकिडगा व एते जोम्बणकिङगा पयन्नपई महिलिया ॥ स्त्रियां पुत्र, भाई, पौत्र या घेवता तथा स्वजन आदि संबंधों के बहाने उनके साथ प्रच्छन्न क्रीड़ा करती हैं । वे लोगों को दूसरा संबंध बताती हैं और उस पुरुष के साथ दूसरा संबंध रखती हैं यह अन्यापदेश का उदाहरण है । अध्ययन ४ टिप्पण १८ 4. 'काने प्रगुप्तस्य जनार्दनस्य मेघान्धकारासु च सर्वरी मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे! ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥' इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों- 'कामेमि ते ' मैं तुम्हारी कामना करती हूं के द्वारा स्त्री ने अपनी भावना व्यक्त की है । यह गूढ़पद का उदाहरण है । (ख) वृत्ति, पत्र १०५ । ७. पास आती है (परक्कम्म) इसका अर्थ है - निकट आकर । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से इसका अर्थ इस प्रकार किया है— अपने शील को संदित करने की योग्यता से मुनि को अभिभूत कर । श्लोक ३ : ८. अत्यन्त (भिसं ) इसको स्पष्ट करने के लिए चूर्णिकार और वृत्तिकार ने लिखा है कि वे स्त्रियां मुनि के ऊरु से ऊरु सटाकर आधे आसन १. चूणि, पृष्ठ १०३ : सुनेनेति निपुणेन, उपायेनेति वाक्यशेषः । २. यति पत्र १०५ सूक्ष्मेण अपरकार्यव्यपदेशमतेन पदेनेति । ३. चूर्ण, पृ० १०३ : छग्नपदेनेति अन्यापदेशेन ...अथवा छन्नपदेनेति छन्नतरैरभिधानैराकारैश्चैनं अभिसर्पति । वृत्ति, - ४. पत्र १०५ ... - नपचेनेति घना कपटजालेन पविया धन्नपवेनेति गुप्ताभिधानेन । १०३ । ५. (क) चूर्णि, पृ० ६. चूर्ण, पृ० १०३ : परक्कम्म त्ति पराक्रम्य अभ्यासमेत्य । ७. वृति पत्र १०५ पराक्रम्य तत्समीपमागत्य यदिवा पराक्रम्येति शीलनयोग्यतापत्या अभिभू Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ पर आकर बैठ जाती हैं ।' ६. अधोवस्त्र को ( पोसवत्थं ) 'पोस' का अर्थ उपस्थ (जननेन्द्रिय) है । स्थानांग ६।२४ में शरीर के नौ स्रोत बतलाएं हैं- दो कान, दो आंख, दो नासाएं, मुंह, पोष और पायुः । वृत्तिकार अभयदेवसूरी ने भी इसका यही अर्थ किया है। होता है। इससे 'पोसवत्थं' का अर्थ अधोवस्त्र फलित १६५ १०. ढीला कर उसे बांधती है (परिहिति) इसका अर्थ है- धारण करना या बांधना । स्त्रियां अपनी काम-भावना प्रगट करने के लिए तथा साधु को ठगने के लिए कसे हुए वस्त्र को ढीला कर पुनः उसे बांधने का दिखावा करती हैं ।" श्लोक ४ : अध्ययन ४ टिप्पण १-१३ ११. कालोचित (जोगोहि) जिस स्थान में उच्चार, प्रस्रवण, चंक्रमण, कायोत्सर्ग, ध्यान और अध्ययन की भूमियां हों, वह स्थान योग्य – कालोचित होता है। १२. शयन ( सयण ) इसका प्रचलित अर्थ है— शयन, शय्या, बिछौना । इसका व्युत्पत्तिलम्य अर्थ है - जिस पर सोया जाता है वह पलंग आदि ।" चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं— संस्तारक और उपाश्रय ।" वे स्त्रियां भिक्षु से कहती हैं- मुने! अन्दर ठंड है, बाहर बहुत गर्मी है, उपाश्रय में चलें। इस प्रकार वे उसे निमंत्रित करती हैं । वे उपाश्रय से धूल या कचरे को निकाल कर या उसे झाड़-पोंछ कर साफ करती हैं। यह भी लुभाने का एक उपाय है । १३. कभी ( एगया) चूर्णिकार ने एकदा का अर्थ - जिस समय वह अकेला या सहयोगी के लिए व्याकुल होता है— किया है । वृत्तिकार ने इसके द्वारा एकान्त स्थान और एकान्त समय का ग्रहण किया है।" १ (क) चूर्ण, पृ० १०४ : भृशं नाम अत्यर्थे प्रकर्षे, ऊरुणा ऊरुं अक्कमित्ता, दूरगता, हि नातिस्नेहमुत्पादयन्ति विश्रम्भवा तेण अद्धासणे णिसीदति सन्निकृष्टा वा । (ख) वृतपत्र १०६ भृशम् अत्यर्थमुख्यपीडयलिनेमा विकुर्वः । २. ठाणं ६२४ : णव सोत-परिस्सवा बोंदी पण्णत्ता, तं जहा—दो सोत्ता, दो णेत्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, पाऊ । ३. स्थानांग वृत्ति, पत्र ४२७ पोसेएत्ति-उपस्था । ४. चूणि, पृ० १०४ : पोसवत्थं नाम णिवणं । ५. (क) चूणि, पृ० १०४ : तमभीक्ष्णमभीक्ष्णमायरबद्धमपि शिथिलोकृत्वा परिर्हिति । (ख) वृत्ति १०६ तेन शिथिला दिव्यपदेशेन परिदप्रति स्वाभिलाषमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुननिबध्नन्तीति । ६. पू पृ० १०४ पोपहार उच्चार या सण-कम-श्याम-भाषाभूमीओ घेण्यंति। " ७. वृत्ति, पत्र १०६ : शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यङ्कादि । चणि, पृ० १०४ : सयणं णाम उवस्सयं ...सयणाणि वा । ६. चूर्ण, पृ० १०४ : सीतं इदाणि साहुं अंतो, अतीव गिम्हे वा पवाएण णिमंतेंति, धूलि वा कतवरं वा उवस्सग्गाड़ जीणंति, अण्णतरं वा सम्मजणा-ssa रिसीयणाति उवस्सगपकम्मं करेंति । १०. चूणि, पृ० १०४ : एकस्मिन् काले एकदा, यदा यदा स एकाकी भवति व्याकुलसखायो वा । ११ वृत्ति पत्र १०६ एकदा इति विविक्तदेशकालावी । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १४. निमन्त्रित करती हैं (णिमंतेंति) प्रश्न उपस्थित हुआ कि स्त्रियों के लिए कामतंत्र को जानने वाले अथवा काम के प्रयोजन की पूर्ति करने वाले बहुत लोग हैं, फिर वे भिक्षु को क्यों निमंत्रित करेंगी ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार ने एक मनोवैज्ञानिक रहस्य का उद्घाटन किया है । उन्होंने कहा – निरुद्ध स्त्रियां चाहे सधवा हो या विधवा आसपास रहने वाले व्यक्ति, फिर चाहे वह कूबड़ा हो या अन्धा, की कामना करने लग जाती हैं ।' उदाहरण की भाषा में एक गाथा प्रस्तुत है' - अंब वा निबं वा अन्भासगुणेण आह वल्ली 1 एवं इत्थीतोवि य जं आसन्नं तमिच्छन्ति ।। १६६ १५. बन्धन है (पासाणि) स्त्रियां प्रियता के द्वारा मनुष्यों को अपने वश में करती हैं। यहां एक मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रगट हुआ है कि किसी को बांधना हो तो उसे अनुकूलता के पास से बांघो पूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां एक गाथा उद्धृत की है— तं आणि गव्हाह काहि क अ वा ॥ इच्छसि आसपास श्लोक ५ : १६. उनसे (स्त्रियों से) आंख न मिलाए ( णो तासु चवखु संधेज्जा ) इसका अर्थ है - स्त्रियों के साथ आंख न मिलाए। चक्षु-संधान का अर्थ है- दृष्टि का दृष्टि के साथ समागम ।" मुनि स्त्री के साथ चक्षु-संधान न करे । स्त्री के साथ बात करने का अवसर आए तो मुनि उसे अस्निग्ध- रूखी और अस्थिर दृष्टि से देखे तथा अवज्ञाभाव से कुछ समय तक (एकबार ) देखकर निवृत्त हो जाए ।' वृत्तिकार ने इसी भाव का एक श्लोक उद्धृत किया है— १७. साहस (मैथुन भावना) का ( साहसं ) कायन्यतिमान्निरीक्षते योविदङ्गमस्थिरया । अस्निग्धया दृशाऽवज्ञया, ह्यकुपितोऽपि कुपित इव ॥ अध्ययन ४ : टिप्पण १४- १७ चूर्णिकार के अनुसार 'साहस' का अर्थ 'परदारगमन' है । असाहसिक व्यक्ति वैसा कर नहीं सकता । यह संग्राम में उतरने जैसा है। वहां मृत्यु भी हो सकती है, हाथ पैर आदि कट सकते हैं, व्यक्ति बांधा जा सकता है, पीटा जा सकता है । प्रव्रजित व्यक्ति के लिए अपनी त्यक्त पत्नी के साथ समागम करना भी साहसिक कार्य है तो भला परस्त्री गमन साहसिक कैसे नहीं होगा ? १. चूर्ण, पृ० १०४ : स्यात् किमासां भिक्षुणा प्रयोजनम् ? नन्वासामन्ये कामतन्त्रविदः तत्प्रयोजनिनश्च गृहस्था विद्यन्ते ताहि सन्निरुद्धा सधवा विधवा वा, आसन्नगतो हि निरुद्धा:भिः कुब्जोऽन्धयोऽपि च काम्यते, किमु यो सकोविदः ? १०४ । २. (क) चूणि, पृ० (ख) वृत्ति, पत्र १०६ । ३. पूर्ण पृ० १०४ वासयन्तीति पासा त एव हि पासा देखा न केवलं हाव-भाव-विभ्रमेङ्गितादयः न हि यलम् न तु ये दान-मान- सहकारा: शक्यन्ते छेत्तुम् । ४. (क) चूर्णि, पृ० १०४ । (ख) वृति पत्र १०६ । ५. (४) चूणि, पृ० १०५ संघणं नाम विट्ठीए दिट्टिसमायो (ख) वृत्ति पत्र १०६ : चक्षुः नेत्रं सन्दध्यात् सन्धयेद्वा, न तद्दृष्टौ स्वदृष्टि निवेशयेत् । ६. चूणि, पृ० १०५ : अकुटुओ विकुटुओ विय तासु णिच्चं भवेज्जा, कार्येऽपि सति अस्निग्धया दृष्ट्या अस्थिरया अवज्ञया चैना मोषनिरीक्षेत । ७. वृति पत्र १०६ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६७ अध्ययन ४: टिप्पण १५-२० उन्होंने इसका वैकलिक अर्थ 'मरण' किया है । इस का तीसरा अर्थ है -स्सी अपनी चपलता के कारण साहस करे तो भी मुनि उसका अनुमोदन न करे। वृत्तिकार ने इसका अर्थ अकार्यकरण किया है। दशवकालिक में साहसिक का अर्थ 'अविमृश्यकारी' मिलता है।' १८. साथ .......... भी (सद्धियं पि) चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. स्त्री के साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे । २. जहां स्त्रियां बैठी हो वहां न बैठे। ३. जहां मुनि बैठा हो वहां अचानक स्त्रियां आ जाएं तो मुनि वहां से निर्गमन कर दे, क्षण भर के लिए भी वहां न बैठे। वुत्तिकार ने इसके द्वारा स्त्री के साथ ग्राम आदि में विहार करने का निषेध किया है और 'अपि' शब्द से स्त्री के साथ एक आसन पर बैठने का निषेध किया है । उन्होंने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है 'मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ मुनि मां, बहिन या पुत्री के साथ भी एक आसन पर न बैठे। इन्द्रिय-समूह बहुत बलवान होता है । पंडित व्यक्ति भी यहां मूढ़ हो जाता है। १६. इस प्रकार आत्मा सुरक्षित रहता है (एवमप्पा सुरक्खिओ होइ) वृत्तिकार के अनुसार समस्त अपायों (दोषों) का मूल कारण है -सी के साथ संबंध । जो साधक स्त्री-संग का वर्जन करता है वह समस्त अपाय-स्थानों से बच जाता है, अपनी आत्मा को दोषाविल होने से बचा लेता है। इसलिए मुनि को स्त्री-संग का दूर से ही परिहार कर देना चाहिए।' चणिकार ने आत्मा के दो अर्थ किए हैं-शरीर और आत्मा । जो मैयुन से विरत होते हैं वे अपनी शरीर और आत्मादोनों की रक्षा दोनों लोकों में करते हैं।' श्लोक ६: २०. आमन्त्रित कर (संकेत देकर) (आमंतिय) चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-पति को पूछकर । १. चणि, पृ० १०५ : साहसमिति परदारगमनम्, न ह्यसाहसिकस्तत् करोति, सङ्ग्रामावतरणवत् तत्र हि सद्यो मरणमपि स्यात्, हस्ताविच्छेद-बन्ध-घातो वा, स्वदारमपि तावद् दीक्षितस्य साहसम्, किमु परदारगमनम् । अथवा साहस मरणम्, प्राणान्तिकेऽपि न कुर्यात् । अथवा यदसौ स्त्री चापल्यात् साहसं कुर्यात् । २. वृत्ति, पत्र १०६ : साहसम् --अकार्यकरणम् । ३. देखें-दसवेआलियं ९।२।२२ में 'साहस' शब्द का टिप्पण। ४. चूणि, पृ० १०५ : सद्धियं ति ताहि सह गामाणुगाम (ण) विहरेज्ज, जत्थ वा ताओ ठाणे अच्छति तत्थ ण चिद्वितव्वं, कयाइ पुग्वि ठितस्स रत्ति एज्जं ततो णिग्गंतव्वं, क्षणमात्रमपि न संवस्याः । ५. वृत्ति, पत्र १०६ : तथा नैव स्त्रीभिः साधं ग्रामादौ 'विहरेत्' गच्छन्, अपि शब्दात् न ताभिः साधं विविक्तासनो भवेत्, ततो महा पापस्थानमेतत् यतीनां यत् स्त्रीभिः सह साङ्गत्यमिति । ६. वृत्ति, पत्र १०६ : एवमनेन स्त्रीसङ्गवर्जनेनात्मा समस्तापायस्थानेभ्यो रक्षितो भवति, यतः-सर्वापायानां स्त्रीसम्बंधः कारणम्, अतः स्वहितार्थी तत्सङ्ग दूरतः परिहरेदिति । ७. चूणि पृ० १०५ : आत्मेति सरीरमात्मा च, स इह परे च लोके अतिरक्षितो भवति । प. पूर्णि, पृ० १०५ । भर्तारं आमन्त्र्य नाम पुच्छितुं तत्प्रयोजनावसितं वा स्थापयित्वा । Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १९८ अध्ययन ४ : टिप्पण २१-२२ वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं'(१) संकेत देकर (२) पूछकर । २१. (आमंतिय.........."णिमंतेति) चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ-विस्तार इस प्रकार किया है कोई निकट के घर की रहने वाली अथवा शय्यातर की पत्नी अथवा पड़ोसिन भिक्षु के पास आकर कहती है-'मुने ! दिन में मुझे अवकाश या एकांत नहीं मिलता । मैं आपके पास रात में आऊंगी।' वह चाहे धर्म सुनने के लिए कहे या कोई दूसरा प्रयोजन बताए तो भी भिक्षु उसको स्वीकार न करे । वह आगे कहती है-'भिक्षो ! यदि आप मेरे पति के विषय में शंका करते हैं तो मैं उन्हें पूछकर अपने प्रयोजन की बात बताकर आऊंगी।' अथवा वह कहती है-'मेरे पति दिन में कृषि आदि का काम निपटा कर जब घर आते हैं तब अत्यन्त श्रान्त हो जाते हैं, थक कर चूर हो जाते हैं । वे भोजन कर तत्काल सो जाते हैं। सोते ही उन्हें नींद आ जाती है और तब वे मृत की तरह पड़े रहते हैं । वे बहुत भद्र हैं। मेरे पर कभी कुपित नहीं होते। यदि वे मुझे पर-पुरुष के साथ आती-जाती देख भी लेते हैं तो भी कभी रुष्ट नहीं होते, शंका नहीं करते।' भिक्षु पूछता है-'क्या तेरा पति तेरा विरोध नहीं करता ?' वह कहती है-'मैं उन्हें पूछकर तथा विश्वास दिलाकर आती हूं। आप विश्वस्त रहें।' भिक्षु पूछता है-'तुम असमय में क्यों आई हो ?' वह कहती है-'भिक्षो ! मैं धर्म सुनने के लिए आई हूं। आप आज्ञा दें कि मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मैं आपकी सेवा करूं ? क्या मैं आपके चरण पखारूं ? क्या मैं आपका पादमर्दन करूं? मुने ! मेरे घर में जो कुछ है वह सब और मैं स्वयं आपकी हूं। यह शरीर आपका है । मैं तो आपके चरणों की दासी हूं।' इस प्रकार मीठी बातें करती हुई वह मुनि के पैर दबाए, आलिंगन-उपगृहन करे, गले पर हाथ रखे तब साधु उसे निवारित करे तो वह दीन होकर कहती है-भिक्षो ! अब आपके अतिरिक्त मेरा कौन सहारा है ? वृत्तिकार ने इन दो चरणों का अर्थ-विस्तार इस प्रकार किया है स्त्रियां स्वभाव से ही अकर्तव्य-परायण होती हैं। वे मुनि को अपने आने का स्थान और समय का संकेत देती हुई उसे विश्वास भरी बातों से विश्वस्त कर अकार्य करने के लिए निमंत्रण देती हैं तथा अपना उपभोग करने के लिए साधु से स्वीकृति ले लेती हैं । वे स्त्रियां मुनि की आशंका को दूर करने के लिए कहती हैं - 'मैं पतिदेव को पूछकर यहां आई हूं। मैं उनके भोजन, पद-धावन तथा शयन आदि की पूरी व्यवस्था करने के पश्चात् ही यहां आई हैं, अतः आप मेरे पति से संबंधित आशंकाओं को छोड़कर निर्भय हो जाएं'-इस प्रकार वह मुनि में विश्वास पैदाकर कहती है-'भिक्षो! यह शरीर मेरा नहीं है, आपका ही है। इस शरीर में जिस छोटे-बड़े कार्य की क्षमता हो, उसी में आप इसे योजित करें।' २२. (निमन्त्रण रूप) शब्द (सहाणि) इन्द्रियों के पांच विषयों में 'शब्द' एक विषय है। मुनि केवल गीत आदि शब्दों का ही वर्जन न करे, किन्तु निमंत्रणरूप शब्दों का भी वर्जन करे । ये शब्द दुस्तर होते हैं। ये निमंत्रणरूप शब्द अनेक प्रकार के होते हैं । चूर्णिकार ने एक श्लोक उद्धृत किया है १. वत्ति, पत्र १०६ : आमंतिय............"सकतं ग्राहयित्वा'.........."भर्तारमामन्यापृच्छय । २. चूणि, पृ० १०५। ३. वृत्ति, पत्र १०६, १०७ । ४. चूणि पृ० १०५ : शब्दा नाम ये शब्दादिविषयाः कथिताः, न केवलं गीताऽऽतोद्यशब्दा वाः, आत्मनिमन्त्रणादयो हि सुदुस्तराः शब्दाः । अथवा यानि सीत्कारादीनि सद्दाणि कज्जंति तान्येवैतानि विद्धि निमन्त्रणादीनि शब्दानि । Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. १६६ अध्ययन ४: टिप्पण २३-२४ णाह ! पिय ! कत ! सामिय ! दयित ! वसुला! होलगोल I गुललेहि ! जेणं जियामि तुब्भं पभवसि तं मे सरीरस्स ॥ -हे नाथ ! प्रिय ! कान्त ! स्वामिन् ! दयित ! वसुल ! होलगोल ! गुलल ! मैं आपके लिए ही जी रही हूं। आप ही मेरे शरीर के स्वामी हैं। वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा शब्द आदि पांचों विषयों को स्वीकार किया है।' श्लोक ७: २३. मीठी बोलती है (मंजुलाई) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. मन में लीन होने वाली। २. मनोनुकूल । ३. काम-वासना पैदा करने वाली। वृत्तिकार ने भी कुछ भिन्नता के साथ इसके तीन अर्थ किए हैं -सुन्दर, विश्वास पैदा करने वाली, काम-वासना पैदा करने वाली। २४. संयम से विमुख करने वाली कथा के द्वारा (पिण्णकहाहि) संयम का भेद करने वाली कथा को 'भिन्नकथा' कहा जाता है। जैसे स्त्री भिक्षु के पास आकर कहती है-'क्या आपने विवाह करने के पश्चात् प्रव्रज्या ली हे या अविवाहित हैं ? यदि आप विवाहित हैं और पत्नी को छोड़कर प्रवजित हुए हैं तो वह आपकी स्त्री आपके बिना कैसे जीवन यापन कर रही है? यदि आप कुमार अवस्था में प्रवजित हुए हैं तो आपकी इस कुमारावस्था की प्रव्रज्या से क्या लाभ ? क्योंकि जो सन्तान उत्पन्न नहीं करता उसका जन्म निरर्थक है। देखें, आप किसी बाला के साथ विवाह कर लें अयया मेरे साथ कामभोग भोगें। आपको वैराग्य कैसे हुआ? क्या आप कामभोग की परम्परा के जानकार हैं ? क्या आप भुक्तभोगी हैं या कुमारक ?" वृतिकार ने स्त्री के साथ की जाने वाली एकान्त बातचीत और मैयुत संबंधी बातचीत को भिन्नकथा माना है।' १. (क) चूणि, पृ० १०५। (ख) बत्तिकार ने अगले श्लोक 'मणबंधणेहि णेगेहि' की व्याख्या में इसी प्रकार का एक श्लोक उद्धृत किया है। वह श्लोक इस प्रकार है णाह पिय कंत सामिय दइय जियाओ तुम मह पिओत्ति । जीए जीयामि अहं पहवसि तं मे सरीरस्स ॥ नाथ ! प्रिय ! कान्त ! स्वामिन् ! बयित ! जीवन से भी आप मुझे प्रिय हैं । आप जी रहे हैं, इसीलिए मैं जीवित हैं। 'आप ही मेरे शरीर के स्वामी हैं। (वृत्ति पत्र १०७) २. वृत्ति, पत्र १०७ : शब्दादीन् विषयान् । ३. चूणि, पृ० १०६ : मणसि लीयते मनोऽनुकुलं वा मञ्जुलम्, मदनीयं वा मञ्जुलम् । ४. वृत्ति, पत्र १०७ : मञ्जुलानि पेशलानि विश्रम्भजनकानि कामोत्कोचकानि वा । ५. चूणि, पृ० १०६ : भेदकरी कंधा मिणकधा । तं जहा-तु सि कि वतवीवाहो पब्वइतो ण व ? त्ति, वृत्तवीवाह इति चेत् कथं सा जीवति त्वया विनैवंविधरूपेण ? इति, कुमार इति चेद् अनपत्यस्य लोका न सन्ति, किं ते तरुणगस्स पग्वज्जाए ? दारिका वरिज्जासु, मया वा सह भुञ्ज भोए, स्यात् कथं वैराग्यं वा? ६. वृत्ति, पत्र १०७ भिन्नकथाभी' रहस्याऽऽलापैमथुनसम्बर्वचोभिः । Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०० अध्ययन ४ : टिप्पण २५-२६ २५. वशवर्ती बना आज्ञापित करती हैं (आणवयंति) चूणिकार ने इसका अर्थ-झुकाना किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अकार्य करने के लिए प्रवर्तित करना तथा अपने वशवर्ती जानकर नौकर की भांति आज्ञा का पालन करवाना। श्लोक ८: २६. (सीहं जहा....."पासेणं) अकेला सिंह हजारों योद्धाओं के शिविर को नष्ट कर देता है। वह सदा अकेला रहता है। उसका कोई सहायक नहीं होता । वह अकेला घूमता है। उसका समूह नहीं होता। कहा भी है-'न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्वम्'- कभी किसी ने सिंह का टोला नहीं देखा। सिंह को जीवित पकड़ने के अनेक उपाय हैं। प्रस्तुत श्लोक में एक उपाय निर्दिष्ट है। चूर्णिकार ने इसको इस प्रकार स्पष्ट किया है-एक दुर्ग की गुफा में एक सिंह रहता था। उसके आतंक के कारण दुर्ग का मार्ग सूना हो गया था। कोई भी मनुष्य उस मार्ग पर आने से डरता था। एक बार सिंह को पकड़ने के उपाय जानने वाले विज्ञ पुरुषों ने एक बकरे को मारकर एक पिंजडे में डाल दिया। सिंह आया, मांसपिंड को देखकर पिंजरे में घुसा और उसे खाने लगा। लोगों ने उसे पकड़ लिया। श्लोक १०: २७. अनुताप करता है (अणुतप्पई) वह सोचता है "मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दह्य ऽहं, गतास्ते फलभोगिनः॥" मैंने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कठोर कर्म अजित किए हैं। अब मैं अकेला ही उन कर्मों का परिणाम भोग रहा हूं। परिणाम भोगने के समय वे कुटुम्बी कहीं भाग गए, वे मेरा हिस्सा नहीं बंटा रहे हैं। २८. विपाक (विवाग) चणिकार ने विपाक का अर्थ-स्त्री, पुत्र आदि के भरण-पोषण से होने वाला परिक्लेश किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अपने अनुष्ठान से फलित परिणाम किया है।' २६. राग-द्वेष रहित भिक्षु (दविए) इसका अर्थ है-राग-द्वेष रहित मुनि ।' वृत्तिकार ने इस अर्थ के साथ-साथ मुक्तिगमन योग्य मुनि को भी 'दविय' माना १. चूणि, पृ० १०६ :..........''आनम्यते । २. वृत्ति. पत्र १०७ : आज्ञापयन्ति प्रवर्तयन्ति स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्मकरवदाज्ञां कारयन्तीति । ३. चूणि, पृ० १०६ : येन प्रकारेण यया सहस्तिकोऽपि स्कन्धवारः सिंहेनैकेन भज्यते, क्वचिच्च पन्थाः सिंहेन दुर्गाश्रयेण निःसञ्चरः कृतः, स च तद्ग्रहगोपायविद्भिः पुरुषैश्छगलकं मारयित्वा तद्गोचरे निक्षिप्प पाशं च दद्यात्, तेन कुणिमकेन बध्यते, एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति । उक्तं च-न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्वम् । ४. वृत्ति, पत्र १०७ । ५. चूणि, पृ० १०६ : विवागो (वि) पाक: दारभरणादिपरिक्लेशः । ६. वृत्ति, पत्र १०८ : विपाकं स्वानुष्ठानस्य । ७. चूणि, पृ० १०६ : दविओ नाम राग-द्दोसरहितो। ८. वृत्ति, पत्र १०८ : द्रव्यभूते मुक्तिगमनयोग्ये रागद्वेषरहिते वा साधौ। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ४: टिप्पण ३०-३३ ३०. स्त्री के साथ संवास न करे (संवासो ण कप्पई) चूणिकार का कथन है कि काठ से बनी जड़ स्त्री के साथ भी भिक्षु को रहना उचित नहीं है तो भला सचेतन स्त्री के साथ भिक्षु का संवास कैसे उचित हो सकता है ? संवास से चार दोष उत्पन्न होते हैं - (१) परिचय बढ़ता है। (२) आलाप-संलाप होता है। (३) अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं । (४) संयम से विमुख करने वाली कथाएं होने लगती हैं।' श्लोक ११: ३१. विष-बुझे कांटे के समान जानकर (विसलितं व कंटगं णच्चा) विष से लिप्त कांटा जब शरीर के किसी अवयव में लग जाता है तब वह अनर्थकारी होता है, किन्तु स्त्रियां तो स्मरण मात्र से अनर्थ उत्पन्न करने वाली होती हैं। कहा भी है विषस्य विषयाणां च, दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि । विष और विषय में बहुत बड़ा अन्तर है । विष तो खाने पर ही मारता है किन्तु विषय स्मरण मात्र से मार डालते हैं। वारि (वरं) विस खइयं न विसयसुह इक्कसि विसिण मरंति । विसयामिस पुण घारिया नर णरएहि पडंति ।। विषय सुख को भोगने के बदले विष खाना अच्छा है। विष केवल एक बार ही मारता है । विषयों से मारे जाने वाले पुरुष नरकों में पड़ते हैं।' ३२. राग-द्वेष रहित (भिक्षु) (ओए) ओज का अर्थ है-अकेला, असहाय । चूणिकार ने इसका अर्थ-- राग-द्वेष रहित किया है।' ३३. जितेन्द्रिय भिक्षु (वसवत्ती) चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं १. घर जिसके वश में है। पहले गृहवास में रहे हुए होने के कारण वह जो-जो कहता है घर के सदस्य वैसा ही करते हैं। वह जो मांगता है, वे देते हैं। २. स्त्रियां जिसके वशवर्ती हैं। ३. इन्द्रियां जिसके वश में हैं। ४. जो गुरु के वश में है। वृत्तिकार ने 'वसवत्ती' का अर्थ-स्त्रियों का वशवर्ती किया है।' १. चूर्णि, पृ० १०६ : स्त्रीभिः सङ्गमो न कार्यः, काष्ठकर्मादिस्त्रीभिरपि तावत् संवासो न कल्पते, किमु सचेतनाभिः ? एगतो वासः संवासः, तदासणे वा संवसतो संयव-संलावादिदोसा असुभभावदर्शनं भिन्नकथा वा स्यात् । २. वृत्ति, पत्र १०८: विषदिग्धकण्टकः शरीरावयवे भग्नः सन्ननथनापादयेत् स्त्रियस्तु स्मरणादपि, तदुक्तम् -विषस्य विषयाणां ३. वृत्ति, पत्र १०८। ४. वृत्ति, पत्र १०८ : ओजः एकः असहायः । ५. चूणि, पृ० १०७ : ओयो णाम रागद्दोसरहितो । ६. चूणि, पृ० १०७ : वसे वर्तत इति वशवर्तीति, पूर्वाध्पुषितत्वाद् यदुच्यते तत् कुर्वन्ति ददति वा, स्त्रियो वा येषां वशे वर्तन्ते, कि पुनः स्वरस्त्रीजनेषु, वश्येन्द्रियो वा यः स वशवर्ती, गुरूणां वा वशे वर्तते इति वशवर्ती । ७. वृत्ति, पत्र १०८ : स्त्रीणां वशवर्तः । Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०२ अध्ययन ४: टिप्पण ३४-३७ ३४. श्लोक ११: प्रस्तुत श्लोक में केवल स्त्रियों में धर्मकथा करने का वर्जन किया गया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस औत्सर्गिक नियम में अपवाद का कथन भी किया है। यदि कोई उपासिका किसी कारणवश उपाश्रय में आकर धर्म सुनने में असमर्थ हो या वृद्ध हो तो मुनि, अन्य सहायक साधु के अभाव में, अकेला ही उपासिका के घर जाए और दूसरी स्त्रियों के साथ बैठी हुई उस उपासिका को धर्म का उपदेश करे। वे स्त्रियां पुरुषों के साथ हों तो भी धर्म का उपदेश करे । वह वहां स्त्रियों के निन्द्य कर्म, विषयवासना के प्रति जुगुप्सा पैदा करने वाली तथा वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा करे।' कदाचित् कोई स्त्री आकर कहे-भिक्षो ! यदि आप घर आकर धर्मकथा करने में असमर्थ हैं तो भिक्षाचर्या या पानक लेने या अन्य किसी कारण से मेरे घर आएं। आपको वहां देख कर हम अपनी दृष्टि को तृप्त करेंगी। आपको देखे बिना हमारा हृदय सूना-सूना सा लगता है। श्लोक १२ ३५. विषयों की खोज करते हैं (उंछं) चूणिकार ने उंछंति पाठ मानकर उसका अर्थ 'गवेषणा करना' किया है।' वृत्तिकार ने उंछ का अर्थ 'जुगुप्सनीय', गर्दा किया है और प्रस्तुत प्रसंग में स्त्री से संबंध करना अथवा एकाकी स्त्री परिषद् में कथा करना जुगुप्सनीय माना है।' ३६. कुशील व्यक्तियों की (कुसीलाणं) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने कुशीलों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया हैपांच प्रकार के कुशील१. पार्श्वस्थ २. अबसन्न ३. कुशील ४. संसक्त ५. यथाछंद । अथवा नौ प्रकार के कुशील-पांच उपरोक्त तथा १. काथिक २. प्राश्निक ३. संप्रसारक ४. मामक । ३७. साथ (सहणं) चूर्णिकार के अनुसार यह देशी शब्द 'सह' के अर्थ में प्रयुक्त है। वृत्तिकार ने 'सह' और 'ण' को अलग-अलग मानकर 'ण' को वावयालंकार के रूप में स्वीकृत किया है।" १. वृत्ति, पत्र १०८ : एक: असहायः सन् कुलानि गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवों तन्निर्दिष्टवेलागमनेन तदानुकूल्यं भजमानो धर्ममाख्याति योऽसावपि न निर्ग्रन्थो न सम्यक् प्रवजितो निषिद्धाचरणसेवनादवश्यं तत्रापायसम्भवादिति, यदा पुनः काचित कुतश्चिन्निमित्तादागन्तुमसमर्था वृद्धा वा भवेत्तदाऽपरसहायसाध्वभावे एकाक्यपि गत्वा अपरस्त्री वन्दमध्यगताया: पुरुषसमन्विताया वा स्त्रीनिन्दाविषयजुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति । २. चूणि, पृ० १०७ : आख्याति गत्वा गत्वा धर्म निष्केवलानां स्त्रीणां सहितानां पुंसाम् असावपि तावन्न निर्गन्थो भवति, किम यस्ताभिभिन्नकथां कथयति ? यदा पुनर्बद्धा सहागता पुरुष मिश्रा वा वन्देन वाऽऽगच्छेयुः तदा स्त्रीनिन्दा विषयजुगुप्सां अन्यतरां वा वैराग्यकथां कथयति । कदाचित् ब्रूयात-यदि वा गृहमागन्तुं न कथयसि तो भिक्खपाणगादिकारणेणं एज्जध, दृष्टिविश्रामतामपि तावत् त्वां दृष्ट्वा करिष्यामः, अपश्यन्त्या हि मे त्वां शून्यमेव हृदयं भवति । ३. चूणि, पृ० १०७ : जे वा एवंविधाणि इच्छन्ति (? उञ्छन्ति) गवसंतेत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १०८ : उंछन्ति जुगुप्सनीयं गां तदत्र स्त्रीसम्बन्धादिकं एकाकिस्त्रीधर्मकथनाविकं वा द्रष्टव्यम् । ५. (क) चूणि, पृ० १०७ : कुत्सितसीला कुसीला पासस्थादयः पंच णव वा। पंच ति-पासस्थ-ओसण्ण-कुसील-संसत्त-आधाछंदा । णव ति-एते य पंच, इमे च चत्तारि-काधिय-पासणिय-संपसारग-मामगा। (ख) वृत्ति, पत्र १०८। ६. चूणि, पृ० १०७ : सहणं ति देसीभासा सहेत्यर्थः। ७. वृत्ति, पत्र १०८ : सह......."णमिति वाक्यालङ्कारे। Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०३ श्लोक १३: ३८. दासियों (के साथ) (दासीहि ) मुनि दासियों के सम्पर्क से भी बचे। दासियां घर के काम के क्लेश से उत्तप्त रहती हैं । सूत्रकार उनसे भी बचने का निर्देश देते हैं तो फिर स्वतंत्र और अत्यन्त सुखमय जीवन बिताने वाली स्त्रियों के संपर्क का तो कहना ही क्या ?" वृत्तिकार ने दासी से घट स्त्री अर्थात् पानी लाने वाली घटदानी का ग्रहण किया है और उसे अत्यन्त निन्दनीय माना है ।" ३६. बड़ी हों या कुमारी के साथ ( महतीहि वा कुमारीह) चूर्णिकार ने इन दोनों शब्दों को भिन्न मानकर 'महती' का अर्थ वृद्धा और 'कुमारी' का अर्थ अवयस्क भद्रकन्या किया है। ४०. परिचय (संथवं ) संस्तव का अर्थ है - परिचय, घनिष्टता । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने स्त्रियों के साथ किए जाने वाले ध्वनिविकार युक्त आलाप-संलाप, हास्य, कन्दर्प क्रीड़ा आदि को संस्तव माना है । " चूर्णिकार ने इस प्रसंग में एक श्लोक उद्धृत किया हैमातृभगिनीभर नरस्यासंभवो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ 'यह सच है कि माता, भगिनी आदि के साथ मनुष्य का कुसंबंध नहीं होता, फिर भी इन्द्रियां बजवान होती हैं । उनके समक्ष पंडित भी मूढ़ हो जाता है ।" अध्ययन ४ : टिप्पण ३८-४१ वृत्तिकार ने संस्तव का अर्थ परिचय किया है। उनका कथन है यद्यपि पुत्र, पुत्रवधू आदि के प्रति मुनि का चित्त कलुषित नहीं होता फिर भी एकान्त या एक आसन पर उनके साथ रहने से देखने वाले दूसरे व्यक्तियों के मन में शंका उत्पन्न हो जाती है । अतः उस प्रकार की शंका उत्पन्न न हो, इसलिए मुनि को अपने स्वजनवर्गीय स्त्रियों के साथ घनिष्टता नहीं करनी चाहिए ।" ४१. श्लोक १३ : प्रस्तुत श्लोक में स्त्रियों के साथ जाने या बैठने का निषेध किया गया है। प्रश्न होता है कि भिक्षु कौनसी स्त्रियों का वर्जन करे ? चूर्णिकार कहते हैं कि जब अशंकनीय स्त्रियों का भी वर्जन करना विहित है तब भलां शंकनीय स्त्रियों का तो कहना ही क्या ? जो भिक्षु की स्वजन स्त्रियां हैं, वे अशंकनीय होती हैं, किन्तु भिक्षु को उनका भी वर्जन करना चाहिए तब फिर दूसरी स्त्रियों का वर्जन तो स्वतः प्राप्त है । " १. चूर्णि, पृ० १०७ : दासीग्रहणं व्यापारक्लेशोबतप्ताः दास्योऽपि वर्ज्याः, किमु स्वतंत्रा : स्वरसुखापेताः । २. वृत्ति, पत्र १०६ : दास्यो घटयोषितः सर्वापसदाः । ३. चूर्ण, पृ० १०७ : महल्ली वयोऽतिक्रान्ताः वृद्धाः, कुमारी अप्राप्तवयसा मद्रकन्यकाः । ४. वृत्ति पत्र १०१ संस्तयं परिचयं प्रत्यासत्तिरूपम् । ५. गि, पृ० १०७ संचयी उत्लाव- समुल्लाद-हास्य कन्दर्प- क्रीडादि । ६. चूर्ण, पृ० १०७ । ८. चूर्ण, पृ० १०७ : एवं ज्ञात्वा स्त्रीसम्बद्धा वसधी व किमु शङ्कनीया: ? ७. वृत्ति, पत्र १०९ : यद्यपि तस्थानगारस्य तस्यां दुहितरि स्नुबादौ वा न चित्तान्ययात्वमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तच्छङ्कानिरासार्थं स्त्रीसम्पर्कः परिहर्तव्य इति । कतराः स्त्रियो वर्ज्या ?, उच्यते, असङ्कनीया अपि तावद वर्ज्याः .. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो १ ४२. ज्ञातियों (णाइणं) जब स्त्री अपने पीहर ससुराल में चली जाती है तब ४३. श्लोक १४ : २०४ श्लोक १४ : 'सिर मुंडा हुआ है। मलिन और कुरूप हो रहा है। चूर्णिकार ने इस श्लोक का अर्थ विस्तार इस प्रकार किया है को मुनि के साथ एकान्त में बैठी देखकर उसके ज्ञातीजन कहते हैं - अहो ! हम इस स्त्री का भरण-पोषण करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं किन्तु यह मुनिवेष में इसका परिभोग करता है । वे मुनि से कहते हैं क्षपण ! तुम ही इस स्त्री का भरण-पोषण करो। तुम ही इसके स्वामी हो । यह तुम्हारे साथ दिनभर रहकर बातें करती रहती है । क्षपण ! देखो, स्त्री की रक्षा और भरण पोषण करने पर ही मनुष्य उसका स्वामी होता है, केवल बात बनाने से नहीं । तुम उसकी रक्षा करो, अन्यथा हम राजकुल में तुम्हारी शिकायत करेंगे। देखो, यह हमें छोड़कर तुम्हारे में आसक्त और गृद्ध हो रही है । यह हमें न आदर देती है और न हमारी आज्ञा ही मानती है । अब तुम ही इसके आदमी हो स्वामी हो । इसका भरण-पोषण करो । में रहती है तब तक माता, पिता, भाई आदि उसके ज्ञाती होते हैं । जब वह विवाहित होकर रान वाले उसके सगोत्र होते हैं, वहां वे ही ज्ञातीजन है।' वृत्तिकार ने इस श्लोक को इस प्रकार समझाया है अकेली स्त्री के साथ अनगार को देखकर ज्ञातिजनों के मन में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि ओह ! संयम जीवन बिताने वाला भी यह मुनि स्वी के शरीर को देखने में बस होकर अपनी मकिपात्रों को छोड़कर इस स्त्री के साथ निर्लज्जतापूर्वक बैठा हुआ है । नीतिकार कहते हैं अध्ययन ४ : टिप्पण ४२-४५ 'मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभं, चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा || मुंह से दुर्गन्ध आ रही है । घर-घर में भिक्षा मांगकर यह अपना पेट भरता है । सारा शरीर मेल से इतना होने पर भी आश्चर्य है कि इसके मन में कामभोग की अभिलाषा उठ रही है ।' इस प्रकार सोचकर वे ज्ञातिजन कुपित होकर कहते हैं— 'मुने। इस स्त्री की रक्षा और भरण-पोषण के लिए तैयार रहो । अब तुम ही इसके स्वामी हो । देखो, इसका भरण-पोषण तो हम कर रहे हैं किन्तु तुम ही इसके स्वामी हो क्योंकि यह घर का सारा काम छोड़कर समूचे दिन तुम्हारे पास अकेली बैठी रहती है । श्लोक १५: ४४. समीप बैठा हुआ ( उदासीणं) इसके दो अर्थ है १. स्वाध्याय, ध्यान, प्रत्युप्रेक्षण आदि संयमक्रियाओं की उपेक्षा करने वाला । २. राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ ।" ४५. (अदु भोयह "होंति) लोग स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लग जाते हैं । वे यह सोचते हैं कि ये नाना प्रकार के भोजन इस स्त्री ने साधु के लिए ही तैयार किए हैं वह सदा मुनि को ऐसा भोजन देती है, इसीलिए यह मुनि प्रतिदिन यहां आता है अथवा साधु के १. चूर्णि पृ० १०७ : जातयो णाम कुलधरे वसंतीए पितृ-भ्रात्रादयः, अथवा स्त्री येषां दीयते त एव तस्याः सगोत्रा भवन्ति ज्ञातकाश्च । २. चूर्णि, पृ० १०८ । ३. वृत्ति, पत्र १०९ । ४. पूर्ण १० १०८ स्वाध्याय व्यान प्रत्युपेक्षादिसंयमकरणोदासीगं । ५. वृत्ति, पत्र १०६ : उदासीनमपि रागद्वेषविरहान्मध्यस्थमपि । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०५ अध्ययन ४ : टिप्पण ४६-४8 आगमन से आकुल-व्याकुल होकर वह स्त्री श्वसुर आदि को जो भोजन देना है उसके बदले दूसरा ही देने लगती है या अधूरा परोस कर चली जाती है। कभी चावल परोस कर व्यंजन नहीं परोसती या केवल व्यंजन ही परोस कर रह जाती है। अति संभ्रम के कारण एक को देने की वस्तु दूसरे को दे देती है तथा करना कुछ होता है और करती कुछ है । एक गांव में एक बधू रहती थी । एक दिन नटमंडली वहां आई । नटों ने गांव के मध्य खेल प्रारंभ किया । वधू का मन नटों का खेल देखने के लिए आकुल हो गया । इतने में उसके श्वसुर और पति भोजन के लिए आ गए। उसने दोनों को भोजन के लिए बैठाया और जल्दी-जल्दी में तन्दुल के बदले राई को छोंक कर परोस दिया। श्वसुर ने देख लिया, किन्तु वह चुप बैठा रहा । पति ने उसे पकड़ कर पीटा। इसका चित्त दूसरे पुरुष में रमा रहता है - यह सोचकर उसे घर से निकाल दिया । श्लोक १६: ४६. समाधियोग से ( समाहिजोगेहि) चूर्णिकार ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र के योग को समाधियोग माना है । वृत्तिकार ने समाधि का अर्थ धर्मध्यान और धर्मंध्यान के लिए या धर्मध्यानमय मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग माना है । चूर्णि का अर्थ स्वाभाविक है । ४७. परिचय (संघ) स्त्री के घर बार-बार जाना, उसके साथ बातचीत करना, उसको कुछ देना लेना, उसको आसक्तदृष्टि से देखना आदि आदि संस्तव है, परिचय है। पूर्णिकार और वृत्तिकार दोनों ने संस्तव का यही अर्थ किया है। देखें - श्लोक १३ में प्रयुक्त 'संस्तव' शब्द का टिप्पण । श्लोक १७ : ४५. गृहस्थ और साधु दोनों का जीवन जीते हैं (मिस्सीभावं ) इसका अर्थ है - द्रव्यलिंग। ऐसे अनगार जो केवल वेष से मुनि होते हैं और भावना से गृहस्थ के समान, वे न एकान्ततः गृहस्थ होते हैं और न एकान्ततः साधु । वे गृहस्थ और साधु- दोनों का जीवन जीते हैं ।" ४. मार्ग (धुवमग्ग ) ध्रुव शब्द के तीन अर्थ हैं--संयम, वैराग्य और मोक्ष । १०६ सामुपकल्पितैरंसयमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमनिशमिहागच्छतीति यदि वा भोजनं यस्तै अर्धवः सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सवस्मिन् तस्येवात् ततस्ते स्त्रीदोषान भवेयुर्यथेयं दुःशीलाऽनेनैव सहास्त इति । निवर्शन मंत्र यथा— कयाचिद्वध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षण कगत चित्तया पतिश्वशुरयोर्मोजनार्थमुपविष्टयोस्तयोस्तण्डुला इतिकृत्वा राइकाः संस्कृत्य दत्ताः, तताऽसौश्वशुरेणोपलक्षिता, निजपतिना क्रुद्धेव ताडिता, अन्यपुरुषगतचित्राय स्वगृहानिरिति । (ख) चूर्णि पृ० १०८ । १. (क) वृत्ति २. पूर्ण, पृ० १०२ बाण-स-चरितोहि ३. वृत्ति, पत्र ११० : समाधियोगेभ्यः समाधिः - धर्मध्यानं तदर्थं तत्तप्रधाना वा योगा —— मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः । ४. (क) चूर्णि, पृ० १०९ : संथवो नाम गमणा. ऽऽगमण दास सभ्प्रयोग-प्रेक्षणादिपरिचयः । (ख) वृति पत्र ११० संस्तवं तद्गमनालापदानसम्प्रेशणादिरूपं परिचयम् । : : ५. (क) चूर्ण, पृ० १०६ (ख) वृत्ति पत्र ११० ६. (क) पूर्णि, पृ० १०६ (ख) वृति पत्र ११० मिश्रीभावो नाम द्रव्यलिङ्गमिति, न तु भावः अधवा पव्वज्जा: गिहवासो वि । मिश्रीभावं इति द्रव्यलिङ्गमासद्भावाद्भावतस्तु गृहस्थसमस्या इत्येवम्भूता मिश्रीभावम् ॥ मग्माम जो विगो वा । ध्रुवो मोक्षः संपमो या Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०६ प्रध्ययन ४ : टिप्पण ५०-५४ ५०. वाग्वीर होते है (वायावीरियं) वृत्तिकार के अनुसार द्रव्यलिंगी वाग्मात्र से यह प्ररूपणा करते हैं कि हम साधु हैं। वे सात गौरव और सुख-सुविधा में प्रतिबद्ध होकर शिथिल आचार वाले होते हैं अत: उनका अनुष्ठानगत कोई वीर्य नहीं होता। वे कहते हैं-'हम जिस मार्ग पर चल रहे हैं वही मध्यम-मार्ग श्रेयस्कर है। इस मार्ग पर चलने से प्रव्रज्या का निर्वहन होता है।' यह वाग्वीर्य है, अनुष्ठानगत वीर्य नहीं है।' श्लोक १८: ५१. शुद्ध (सुद्धं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-वैराग्य-पूर्ण अथवा विशुद्ध ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-दोषरहित आत्मा, आत्मीय अनुष्ठान ।' ५२. यथार्थ को जाननेवाले (तथावेदा) चर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-कामतंत्रविद् और प्रत्यक्षज्ञानी।' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ इंगित और आकार को जानने में कुशल व्यक्ति तथा वैकल्पिक अर्थ सर्वज्ञ किया है। पाप करने वाला व्यक्ति अपने पाप को छुपाना चाहता है। दूसरे उसके पाप को न भी जान सकें किन्तु सर्वज्ञ से वह पाप छुपा नहीं रह सकता।' ५३. जान लेते हैं (जाणंति) कामतंत्र को जानने वाले मनुष्य व्यक्ति के आकार-विकारों से तथा नख, दशन आदि के घावों से जान लेते हैं कि यह मनुष्य अकृत्यकारी है, व्यभिचारी है। जैसे मल-मूत्र विसर्जन करने वाला अन्धा मनुष्य दूसरों के द्वारा देखा जाता हुआ भी सोचता है कि उसे कोई नहीं देखता, वैसे ही राग-द्वेष से अन्धा बना हुआ मनुष्य यही सोचता है कि उसके पाप को कोई नहीं जानता, देखता । किन्तु प्रत्यक्षज्ञानी से कुछ भी छिपा नहीं रहता । वह प्रगट या एकान्त में किए हुए सभी कार्यों को जान लेता है।' ५४. यह मायावी है, महाशठ है (माइल्ले महासढेऽयं) तथाविद्-यथार्थ को जानने वाले जान लेते हैं कि अमुक मायावी है और अमुक महासठ है । व्यक्ति का आचरण स्वयं उसका स्वरूप प्रगट कर देता है। उसके लिए दूसरे की साक्षी आवश्यक नहीं होती। नीतिकार कहते हैं१. वृत्ति, पत्र ११० : ते द्रव्यलिङ्गधारिणो वाङ्मात्रेणव वयं प्रव्रजिता इति ब्रुवते न तु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं वीर्यमस्तीति । ते वक्तारो भवन्ति यथाऽयमेवास्मदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान् तथा हि-अनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतम् ।। २. चूणि, पृ० १०६ : सुद्धमिति वेरग्गं अथवा शुद्धमिति शुद्धमात्मानम् । ३. वृत्ति, पत्र ११० : शुद्धम् अपगतदोषमात्मानमात्मीयानुष्ठानं वा। ४. चूणि, पृ० १०६ : तथा वेदयन्तीति तथावेदाः, कामतन्त्रविद् इत्यर्थः। ....."तथावेदाः प्रत्यक्षज्ञानिनः । ५. वृत्ति, पत्र ११० : तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः-इङ्गिताकारकुशला निपुणास्तद्विव इत्यर्थः यदिवा सर्वज्ञाः । एतदुक्तं भवति-यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति । ६. चूणि, पृ० १०६ : ते हि कामयमानं आकार-विकारर्जानन्ति........'नख-दशनच्छेदनर्वा सूच्यन्ते यथतेऽकृत्यकारिणः । यथा अधो उच्चाराद्य त्सजन दृश्यमानोऽपि परैर्मन्यते न मां कश्चित् पश्यति एवमसावपि राग-द्वेषान्धो जानीते न मां कश्चित् पश्यति ज्ञायते च परिव्रजन्ननजलभृतवत् । अथवा यो यथावस्थितो भावतः तं तथावेदाः प्रत्यक्षज्ञानिनं ते हि आवीकम्मं रहोकम्मं सव्वं जाणंति । ७. (क) वृत्ति, पत्र ११० : मायावी तहाशठश्चायमित्येवं तथाविदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहिप्रच्छन्नाकार्यकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम्-न य लोणं.............। (ख) चूणि, पृ० १०६। Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०७ अध्ययन ४: टिप्पण ५५-५८ न य लोणं लोणिज्जइ, ण य तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा । किह सक्को वचेलं, अत्ता अणुहूय कल्लाणो ॥' नमक को नमकीन नहीं बनाया जा सकता। घी और तेल को स्निग्ध नहीं किया जा सकता। जिस आत्मा ने अपने कल्याण का अनुभव कर लिया है उसे कैसे ठगा जा सकता है ? श्लोक १६ : ५५. (प्रमाद न करने के लिए प्रेरित करता है (आइट्रो) वृत्तिकार ने इसका अर्थ आदिष्ट-प्रेरित किए जाने पर किया है। चूर्णिकार ने 'आकुट्ठ' शब्द देकर उसके तीन अर्थ किए हैं-प्रेरित, तृप्त और अभिशप्त।' ५६. प्रशंसा करने लग जाता है (पकत्थइ) इसका अर्थ है-अपनी प्रशंसा करना । जब मुनि को प्रमाद न करने के लिए कहा जाता है तब वह कहता है-मैं अमुक कुल में जन्मा हूं। मैं अमुक हूं। क्या मैं ऐसा अकार्य कर सकता हूं? मैंने वायु से प्रेरित होने वाली कनकलता की भांति कामदेव की वश्यता से कंपित होनी वाली भार्या को छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण की है । क्या मैं ऐसा कर सकता हूं? यदि सम्भाव्यपापोऽहमपापेनापि किं मया । निविषस्यापि सर्पस्य भृशमुद्विजते जनः । यदि लोग मुझे पापी के रूप में देखते हैं तो भला मैं अपापी होकर भी क्या करूंगा ! सर्प चाहे निर्विष ही क्यों न हो, लोग तो उससे भय खाते ही हैं।' ५७. मैथुन की कामना (वेयाणुवीइ) वेद का अर्थ है-पुरुष वेद का उदय और अनुवीचि का अर्थ है-अनुलोम गमन। इसका तात्पर्यार्थ है-मैथुन का सेवन । श्लोक २०: ५८. स्त्रियों के हावभाव (इत्थिवेय) स्त्रीवेद का अर्थ है-स्त्री की कामवासना। चूर्णिकार ने स्त्री की कामवासना को करीषाग्नि की भांति अतृप्त बताया है। इसको पुष्ट करने के लिए उन्होंने एक श्लोक उद्धृत किया है१. यह गाथा निशीथ भाष्य गाथा (१३४२ चूणि पृ० १७७) में इस प्रकार प्राप्त है ण वि लोगं लोणिज्जति, ण वि तुप्पिज्जति घतं व तेल्लं वा । किह णाम लोडंमग ! वट्टम्मि ठविज्जते वट्टो॥ २. वृत्ति, पत्र १११ : आदिष्टः चोदितः । ३. चूणि प्र० ११० : आक्रुष्टो नाम चोदितः आघ्रातः अभिशप्तो वा। ४ (क) चूणि, पृ० ११० : कत्थ श्लाघायाम् भृशं कत्थयति श्लाघत्यात्मानमित्यर्थः, अहं नाम अमुगकलप्पसूतो अमुगो वा होतओ एवं करेस्सामि? येन मया कनकलता इन बातेरिता मदनवशविकम्पमाना भार्या परित्यक्ता सोऽहं पुनरेवं करिष्यामि ? यदि सम्भाव्यपापो.............॥ (ख) वृत्ति, पत्र १११। ५. (क) चूणि, पृ० ११० : वेदः प्रवेदः तस्य अनुवीचिः अनुलोमगमनं मैथुनगमनमित्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र १११ : वेदः पुंवेदोदयस्तस्य अनुवीचि आनुकूल्यं मैथुनाभिलाषम् । ६. चूणि, पृ० ११० : इत्थिवेदो हि फुफुमअग्गिसमाणो अवितृप्तः । Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २०६ नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः । नांतसर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः ॥ , अग्नि लकड़ी से कभी तृप्त नहीं होती । समुद्र नदियों से कभी तृप्त नहीं होता । मौत प्राणियों से तृप्त नहीं होती । इसी प्रकार स्त्रियां पुरुषों से तृप्त नहीं होतीं । स्त्रीवेद का दूसरा अर्थ है— वैशिकतंत्र तेवीसवें श्लोक में नूषिकार ने इसका यही अर्थ किया है।' यह स्त्रियों के व्यवहार सम्बन्धी जानकारी देने वाला एक प्राचीन ग्रन्थ था । इसका अनुगोगद्वार' और नंदी' में भी उल्लेख मिलता है। वैशिकतंत्र में कहा है 'स्त्रियां हंसती हैं, रोती है धन के लिए। वे पुरुष को अपने विश्वास में लेती है किन्तु उन पर विश्वास नहीं करतीं । कुल और बीज संपन्न पुरुष उनको वैसे ही छोड़ दे जैसे श्मशान पर ले जाई जाने वाली इंडिया नहीं छोड़ दी जाती है।' 'स्त्रियां समुद्र की लहरों की भांति चंचल स्वभाववाली और सन्ध्या के मेघ की तरह अल्पकालीन अनुरागवाली होती हैं । अपना काम बन जाने पर स्त्रियां निरर्थक पुरुष को वैसे ही छोड़ देती हैं जैसे बिना पिसा हुआ अलक्तक छोड़ दिया जाता है ।' 'स्त्रियां सामने कुछ और कहती हैं और पीठ पीछे कुछ और ही । उनके हृदय में कुछ और ही होता है । उनको जो करना होता है, वे कर लेती हैं। ५६. श्लोक २० : स्त्री के स्वभाव का परिज्ञान दुर्लभ है - इस विषय में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने एक कथा प्रस्तुत की है । वह इस प्रकार है अध्ययन ४ : टिप्पण ५8 एक युवक कामशास्त्र का अध्ययन करने के लिए घर से निकला। उस समय पाटलिपुत्र में वैशिक ( कामशास्त्र) का अध्ययन होता था । वह पाटलिपुत्र की ओर प्रस्थित हुआ । मध्यवर्ती एक गांव में वह विश्राम के लिए ठहरा। उस नगर की एक स्त्री उससे मिली । उसने पूछा - 'युवक ! तुम आकृति से बहुत ही सुन्दर हो । तुम्हारे शरीर के अवयव बहुत कोमल हैं । कहां जा रहे हो ?' उसने कहा- 'तरुणी ! मैं कामशास्त्र का अध्ययन करने के लिए पाटलिपुत्र जा रहा हूं।' वह बोली- 'अध्ययन पूरा कर जब तुम घर लौटो तब मुझे मत भूल जाना । इस गांव में पुनः आना ।' उसने स्त्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली । वह पाटलिपुत्र पहुंचा । कामशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ हुआ । कुछ ही वर्षों में अध्ययन पूरा कर वह पुनः उसी गांव में आया और उसी स्त्री के घर गया । वह स्त्री उसे देखते ही संभ्रम से उठी और उसे ठहरने का स्थान दिया । अब वह विविध प्रकार से उसकी सेवा करने लगी। उसके लिए उचित भोजन, स्नान आदि की व्यवस्था कर उसने युवक का हृदय जीत लिया । वह उसके इंगित और आकार के अनुसार वर्तन करने लगी । युवक ने सोचा- 'यह मुझे चाहती है । यह मेरे में अनुरक्त है ।' उसने उस स्त्री का हाथ पकड़ा। स्त्री ने जोर से चिल्लाया । लोगों के एकत्रित होने से पूर्व ही उसने उस युवक के मस्तक पर पानी से भरा एक छोटा घड़ा फेंका। घड़ा फूट गया । घड़े का पृ० १११ इथिवेदो नाम वैशिकम् ॥ २. अनुयोगद्दाराई, सू० ४६ : लोइयं भावसुगं—जं इमं १. ३. नंदी, सू० ७२ : मिच्छसुत्तं जं इमं भारहं" ४. णि, पृ० ११० वैशिकतन्त्रम्- 'भारहं" "वेसितं । वेसियं । एता हसन्ति च रुदन्ति च अर्थहेतोः, विश्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुल- शीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः ॥ समुद्रवीचीव चलस्वभावाः, सन्ध्याभ्ररेखेव मुहूर्त्त रागाः । स्त्रियः कृतार्थाः पु निरर्थकं निष्योडितास स्पन्ति ।। तथा अण्णं भणति पुरतो अण्णं पासे णिवज्जमाणीओ । अयं सासि हिमए जं च खमेसे करेति महिलाओ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २०8 अध्ययन ४: टिप्पण ६०-६२ कंठ-भाग युवक के गले में लगा रहा । लोग आए । स्त्री ने कहा-मैंने इसकी मूर्छा मिटाने के लिए जल सींचा और ऐसा घटित हो गया । सारे लोग चले गए । तब वह युवक से बोली-'युवक ! क्या तुमने वैशिक (कामशास्त्र) के अध्ययन से स्त्री-स्वभाव का पूरा ज्ञान कर लिया ? स्त्री-स्वभाव को जानने में कौन समर्थ हो सकता है ? स्त्री का चरित्र दुर्विज्ञेय होता है । उसमें कभी विश्वास नहीं करना चाहिए । युवक वहां से चला गया।' श्लोक २२ ६०. पाप-परदारगमन (पाव) ___ चूर्णिकार ने यहां पाप का अर्थ मैथुन या परदारगमन किया है। वृत्तिकार ने पाप का अर्थ पापकारी कर्म किया है। और अठाइसवें श्लोक में पाप का अर्थ मैथुन का आसेवन किया है।' ६१. श्लोक २१, २२: इन दोनों श्लोकों की व्याख्या में चूर्णिकार ने तीन विकल्प प्रस्तुत किए हैं। प्रथम विकल्प में व्यभिचारी स्त्री और पुरुषदोनों को अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है, यह प्रतिपाद्य है। दूसरी वैकल्पिक व्याख्या इस प्रकार है कोई पुरुष व्यभिचारिणी स्त्री से कहता है-'तूने यह काम किया।' वह कहती है-मेरे जीवित अवस्था में ही हाथ-पैर काट लो, किन्तु ऐसा आरोपात्मक वचन मत बोलो । चाहे तुम मेरी चमड़ी उधेड़ दो, मेरा मांस नोंच लो, किन्तु अयथार्थ बात मत कहो । मुझे चाहे तुम उबलते हुए तेल के कडाह में डाल दो, या मेरे शरीर को तप्त संडासी से दाग दो या मुझे कड़ाही में पका दो या मेरे शरीर को काटकर उस पर नमक छिड़क दो या मेरे कान, नाक या कंठ काट दो, किन्तु दूसरी बार ऐसी बात मत कहना । मेरे पर लगाया जाने वाला यह झूठा आरोप सभी वेदनाओं से बढ़कर है। तीसरा विकल्प इस प्रकार है-- अभिशप्त होने पर वह कहती है चाहे मेरे हाथ-पैर काट लो, चाहे मेरी चमड़ी उधेड़ दो, मांस काट लो, मुझे कड़ाह में उबाल दो, तुणों में मुझे लपेट कर अग्नि लगा दो, शस्त्र से या अन्य प्रकार से मेर शरीर को काटकर उसमें नमक भर दो और चाहो मेरे कान, नाक ओठ, काट दो। मैं इस पुरुष को नहीं छोडूंगी। यह मेरे लिए बहुत मनोनुकूल है। मैं भी इसके लिए मनोनुकूल हूं। मैं इसके बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। वह मेरे वश में है, तुम जो चाहो करो।' श्लोक २३ : ६२. स्त्रीवेद (कामशास्त्र) (इत्थीवेदे) इसका अर्थ है-वैशिकशास्त्र । वह शास्त्र जिसमें स्त्री के स्वभाव आदि का वर्णन हो ।' देखें ४।१६ में 'इत्थीवेय' का टिप्पण । १.(क) चूणि, पृ० ११०, १११ । (ख) वृत्ति, पत्र १११ । २. चूणि, पृ० १११ : पापं तदेव परदारगमनं तत्राऽऽसक्ताः । ३. वृत्ति, पत्र ११२ : पापेन-पापकर्मणा । ४. वृत्ति, पत्र ११३ : मैथुनासेवनादिकम् । ५. चूणि, पृ० १११ । ६. (क) चूणि, पृ० १११ : इत्थिवेदो नाम वैशिकम् । (ख) बत्ति, पत्र ११२ : स्त्रियं यथावस्थितस्वभावतस्तत्सम्बन्धविपाकतश्च वेदयति-ज्ञापयतीति स्त्रीवेदो-वैशिकादिकं स्त्रीस्वभावाविर्भावकं शास्त्रमिति । Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २१० अध्ययन ४: टिप्पण ६३-६५ ६३. कहा गया है (सुयक्खाय) वैशिकणास्त्र में स्त्री के विषय में कहा गया है'-'दर्पण में प्रतिबिम्बित बिम्ब जिस प्रकार दुर्गाह्य होता है, उसी प्रकार स्त्री का हृदय भी दर्गाह्य होता है । पर्वत-मार्ग पर स्थित दुर्ग जिस प्रकार विषम होता है, वैसी ही विषम होती है स्त्री की भावना । उसका चित्त कमल पत्र पर स्थित पानी की बूंद की भांति चंचल होता है। वह कहीं एक स्थान पर स्थिर नहीं होता। जिस प्रकार विष-लताएं विषांकुरों के साथ बढ़ती हैं, वैसे ही स्त्रियां दोषों के साथ बढ़ती हैं।' 'अच्छी तरह से परिचित, अच्छी तरह से प्रिय और अच्छी तरह से विस्तृत होने पर भी अटवी और महिला में कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।' 'समूचे संसार में ऐसा कोई भी आदमी हो जो स्त्री की कामना करते हुए दु:खी न हुआ हो, वह अपनी अंगुली ऊंची करे।' 'स्त्रियों की यह प्रकृति है कि वे सभी में वैमनस्य पैदा कर देती हैं। जिससे इनकी कामना पूरी होती है, उसके साथ वैमनस्य नहीं करतीं। ६४. (एयं पिता....... अवकरेंति) स्त्री वाणी से यह स्वीकार करती है कि मैं ऐसा अकार्य आगे नहीं करूंगी, किन्तु आचरण में फिर वैसा ही करती है। अथवा अनुशास्ता के सम्मुख वैसा अकार्य न करने का वादा करती है और फिर उसी अकार्य में रस लेने लगती है। यही स्त्रीस्वभाव है। श्लोक २४ : ६५. विश्वास न करे (ण सद्दहे) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां एक कथा प्रस्तुत की है' एक गांव में दत्त नाम का व्यक्ति रहता था। वह कामशास्त्र का ज्ञाता था। एक गणिका ने उसे अपने फंदे में फसाना १. (क) चूणि, पृ० ११२ : दुर्गाह्य हृदयं यथैव वदनं यद् वर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयचपलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नार्यो नाम विषाङकुरैरिव लता दोषैः समं वद्धिताः ॥१॥ सुट्ठ वि जितासु सुठ्ठ वि पियासु सुट्ट वि य लद्धपसरासु । अडईसु य महिलासु य वीसंभो भे कायव्वो ॥२॥ हक्खुवउ अंगुलि ता पुरिसो सम्वम्मि जीवलोअम्मि । कामेंतएण लोए जेण ण पत्तं तु वेमणसं ॥३॥ अह एताण पगतिया सम्बस्स करेंति वेमणस्साई । तस्स ण करेज्ज मंतु जस्स अलं चेय कामतंतएण ॥४॥ (ख) वृत्ति, पत्र ११२। २. (क) चूणि, पृ० ११२ : यदा तु प्रस्थिता निवारिया भवति-मैवं कार्षीः तदा न भूयः करिष्यामि इति एवं पि वदित्ताणं अध पुण कम्मुणा अवकरेंति, अपकृतं नाम यद् ययोक्तं यथा प्रतिपन्नं वा न कुर्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र ११२ : अकार्यमहं न करिष्यामीत्येवमुक्त्वापि वाचा 'अदुव' त्ति तथापि कर्मणा-क्रियया 'अपकुर्वन्ति' इति विरूपमाचरन्ति, यदि बा अग्रतः प्रतिपद्यापि शास्तुरेवापकुर्वन्तीति । ३. चूणि, पृ० ११२ : दत्तो वैशिकः किल एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारेनिमन्त्रीयमाणोऽपि नेष्टवान् तदाऽसावुक्तवती-त्वत्कृतेऽग्नि प्रविशामीति । तदाऽसौ यद तद् तयोच्यते तत्र तत्रोत्तरमाह एतदप्यस्ति वैशिके । तदाऽसौ पूर्वसुरङ्गामुखे काष्ठसमूहं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रवेश्य सुरुङ्गया स्वगृहमागता। दत्तकोऽपि च एतदप्यस्ति वैशिके। एवं विल पन्नपि धूतत्तिकैश्चितकायां प्रक्षिप्तः । (ख) वृत्ति, पत्र ११२। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २११ अध्ययन ४: टिप्पण ६६-६७ चाहा । अनेक प्रकार के प्रलोभन दिए जाने पर भी दत्त उस गणिका में आसक्त नहीं हुआ। उस गणिका ने कहा- 'मैं दुर्भागिनी हूं। मेरे जीने का प्रयोजन ही क्या है ? तुम मुझे नहीं चाहते अतः मैं अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने आपको भस्म कर दूंगी।' दत्त ने कहा-'यह माया है । यह कामतंत्र में उल्लिखित है।' वह जो कहती, दत्त यही कहता कि यह सारा चरित्र कामशास्त्र में उल्लिखित है । गणिका ने कहा- मैं अग्नि में प्रविष्ट होकर जल मरूंगी।' चिता तैयार की गई। गणिका उस चिता के बीच बैठ गई । चिता में आग लगा दी। सबने समझा कि गणिका जल गई। किन्तु जिस स्थान पर चिता रची गई थी, वहां पहले से ही एक सुरंग खुदवा दी थी। गणिका उस सुरंग से अपने घर पहुंच गई। दत्त ने कहा-यह कामशास्त्र में आ चुका है। मैं पहले से ही जानता था । दत्त यह कहता रहा। धूतों ने उसे उठाकर चिता में डाल दिया। श्लोक २६ ६६. श्राविका होने के बहाने (सावियापवाएणं) इसका अर्थ है-श्राविका के मिष से । श्राविकाओं का विश्वास होता है । कुछ स्त्रियां नीषिधिका का उच्चारण कर उपाश्रय में प्रवेश करती हैं और साधु को वन्दन कर पास में बैठ जाती हैं। अथवा कोई संन्यासिनी या सिद्धपुत्री वहां मुनि के पास आकर कहती है-- आप संन्यासी हैं, मैं संन्यासिनी हूँ । इस प्रकार मैं आपकी सामिका हूं । यह कहकर वह मुनि के निकट बैठती है और फिर मुनि का स्पर्श करने लगती है।' वृत्तिकार के अनुसार- कोई स्त्री श्राविका के मिष से मुनि के निकट आकर कहती है मैं श्राविका हूं इसलिए आप श्रमणों की मैं सामिका हूं। यह कहकर वह मुनि के अति निकट आती है और उसे संयमच्युत कर देती है। यह कहा गया है कि ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संग महान अनर्थकारी होता है - तज्ज्ञानं तच्च विज्ञान, तत् तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे भ्रष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः ।। ज्ञान, विज्ञान, तप और संयम-ये सब स्त्री के सहवास से सहसा भ्रष्ट हो जाते हैं।' श्लोक २८: ६७. (पुट्ठा.......... पावं ति) जब आचार्य शिष्य को पाप-कर्म से उपरत रहने की प्रेरणा देते हैं तब शिष्य कहता है-मैं ऊंचे कुल में उत्पन्न हुआ है। मैं ऐसा पापकारी कार्य नहीं कर सकता। यह स्त्री मेरी बेटी के समान है। यह मेरी बहिन या पौत्री है। मेरी प्रवज्या से पूर्व तक यह मेरी गोद में ही सोती थी। पूर्व अभ्यास के कारण यह पर्यंक को छोड़कर मेरे पास सो रही है। मैं संसार के स्वरूप को जानता हूं। मैं ऐसा अकार्य कभी नहीं करूंगा, चाहे फिर मेरे प्राण ही क्यों न निकल जाएं।' १. चुणि, पृ० ११३ : श्राविकासु विथम्भ उत्पद्यते, नीषिधिकयाऽनुप्रविश्य वन्दित्वा विश्रामणालक्षेण सम्बाधनादि क्यवारकवत् । काइ तु लिगत्थिगा सिद्धपुत्ती वा भणति--अधं साधम्मिणी तुभं ति, स एवपासन्नवतिनीभिः श्लिष्यते । २. वृत्ति, पत्र ११३ : साविया - अनेन प्रवादेन व्याजेन साध्वन्तिकं योषिदुपसत् यथाऽहं श्राविकेतिकृत्वा युष्माकं श्रमणानां सामि णीत्येव प्रपञ्चेन नेदीयसी मूत्वा कलवालुकमिव साधु धर्माद् भ्रंशयति, एतदुक्तं भवति-योषित्सान्निध्यं ब्रह्म चारिणां महतेऽनय, तथा चोक्तम् -तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं .. . .....। ३. (क) चूणि, पृ० ११३ : एषा हि मम दुहिता भगिनी नप्ता वा । अड्के शेत इति अङ्कशायिनी, पूर्वाभ्यासादेवैषा मम अड्के शेते निवार्यमाणा पर्यके वा। (ख) वत्ति, पत्र ११३ : आचार्यादिना चोद्यमाना एवमाहु वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः तद्यथा -- नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतदकार्य पापो पादानभूतं करिष्यामि, ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वम् अङ्केशयिनी आसीत् तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचरति न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतभङ्ग विधास्य इति । Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ७०. असंयम का आकांक्षी (विसण्णेसी) ६८. मूढ़ की यह दूसरी मंदता है ( बालस्स मंदयं बीयं) मूढ़ व्यक्ति की यह दूसरी मंदता है । मंदता का अर्थ है - अल्पबौद्धिकता । जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का भंग करता है - यह उसकी पहली मंदता है और वह उस पाप को नकारता है - यह उसकी दूसरी मंदता है ।" ६६. पूजा का इच्छुक (पूयणकामो) इसका अर्थ है-- सत्कार पुरस्कार का अभिलाषी । यह अकार्य के अपलाप का एक मुख्य कारण है । वह सोचता है कि मेरा अकार्य प्रगट हो जाने से लोगों में मेरी निन्दा होगी, अतः इसका अपलाप करना ही अच्छा है। वह अपने अकार्य पर पर्दा डाल देता है ।" विषण्ण का अर्थ है- असंयम । जो असंयम की एषणा करता है, वह 'विसण्णेसी' कहलाता है | श्लोक ३१ : ७१. नीवार ( णीवार ) चूर्णिकार ने यहां 'निकिर' शब्द को स्वीकार कर उसका अर्थ प्रलोभन में डालने वाली वस्तु किया है । लिए घास, सूअर के लिए कणमिश्रित भूसा और मछली के लिए खाद्य-युक्त कांटा प्रलोभन का हेतु होता है, वैसे ही वस्त्र आदि पदार्थ प्रलोभनकारी होते हैं । * देखें-- ३।३६ का टिप्पण । २१२ श्लोक २६ : २. वृत्ति, पत्र ११३ : पूजनं ३. (क) चूर्ण, पृ० ११३ ७२. मोह में (मोहं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-संसार किया है ।" वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है - चित्त की व्याकुलता, किंकर्तव्यमूढ़ता ।' १. (क) वृति, ११३ बालस्य अशस्य रागद्वेषाकुलितस्यापरमादृश एतद्वितीयं मान्य असत्यम् एक तावदकार्यकरणेन चतुर्थ तो द्वितीयं तपन मृषावादः । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ (ख) चूणि, पृ० ११३ : द्वाभ्यामाकलितो बालो । मंदो दध्वे य भावे य, दव्वे शरीरेण उपचयाऽपचये, भावमन्दो मन्दबुद्धी अल्पबुद्धिरित्यर्थः । मन्दता नाम अबलतेव । कोऽर्थः ? तस्य बालस्य बितिया बालता यदसौ कृत्वाऽवजानाति नाहमेवंकारीति, ण वा एवं जाणामि । ४. (क) णि, पृष्ठ ११४ अध्ययन ४ : टिप्पण ६८-७२ : सत्कारपुरस्कारस्तत्काम:- तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्यं प्रच्छादयति । विष्णो अजमो तमसेति विससी । विषण्ण:- असंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषण्णैषी । : निकरणं निकीर्यते वा निकिरः, यदुक्तं भवति निकोर्यते गोरिव चारी, जधा वा सूकरस्स घण्णकुंडगं कुडादि णिगिरिज्जति पुट्ठो य वहिज्जति, गलो वा मत्स्यस्य यथा क्रियते, एवमसावपि मनुष्यशूकरकः वस्त्रादिनिकिरणेन णिमंतिज्जति । जैसे- गाय के मनुष्य के लिए ५. चूर्णि पृष्ठ ११४ ६. वृत्ति पत्र ११४ मोहं गच्छति कर्तव्यतामूढो भवति । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ : णीवार इत्यादि एतद्योषितां वस्त्रादिकमामन्त्रणं नीवारकल्पं बुध्येत जानीयात् यथा हि नीवारेण केनचिद् भक्ष्य विशेषेण सूकरादिर्वशमानीयते एवमसावपि तेनामन्त्रणेन वशमानीयते । मोहः संसारः। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो ७४. चारित्र से भ्रष्ट (भेयमावण्णं ) ७३. राग-द्वेष से मुक्त (ओए) ओज दो प्रकार का है-द्रव्य ओज और भाव ओज । परमाणु असहाय या अकेला होने के कारण द्रव्य ओज कहलाता है। भिक्षु राग-द्वेष से रहित और अकेला होने के कारण भाव ओज कहलाता है।' 'ओज' पद का शाब्दिक अर्थ 'विषम' है ।' प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ अकेला है । २१३ श्लोक ३२ : इलोक ३३: भेद चार प्रकार का होता है- १. चारित्र भेद २ जीवित-भेद ३. शरीर-भेद और ४. लिंग-भेद । प्रस्तुत प्रकरण में चारित्र-भेद गृहीत है ।" ७५. कामासक्त ( काममइबट्टू ) वृत्तिकार के अनुसार इसमें तीन शब्द हैं काम, मति और वर्त । काम का अर्थ है - इच्छारूप काम या मदनरूप काम मति का अर्थ है - बुद्धि या मन । वर्त्त का अर्थ है-वर्तन करना, प्रवृत्ति करना। पूरे पद का अर्थ है - कामाभिलाषुक । किन्तु हमने 'अइब" पद की व्याख्या की है। पूर्णिकार ने 'अ' का अर्थ अति अति वर्तमान किया है।" ७६. वश में (पलिभिदियाण) चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-याद दिलाकर । वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ - जानकर और वैकल्पिक अर्थ - याद दिलाकर किया है । वृत्तिकार का कथन है कि वह स्त्री यह जान लेती है कि यह पुरुष मेरा वशवर्ती हो गया है। मैं काला कहूंगी तो यह भी काला कहेगा और मैं श्वेत कहूंगी तो यह भी श्वेत कहेगा ।" चूर्णिकार और वृत्तिकार ने अपने अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है वह स्त्री उस पुरुष से कहती है देखो, मैंने अपना सर्वस्व तुम्हें दे डाला । अपने आपको भी समर्पित कर दिया। मैंने तुम्हारे लिए स्वजन वर्ग की अवहेलना की। अब मैं न इधर की रही और न उधर की। मेरा इहलोक भी बिगड़ा और परलोक भी बिगड़ा। तुम भी कोरे ठूंठ जैसे हो। तुम अपनी मर्यादा जीर जाति को भी ध्यान में नहीं रखते। अपने आपको स्वयं जानो। मैंने तुम्हें छोड़कर क्या कभी किसी दूसरे का कोई काम किया है ? तुम लुंचित शिर हो। तुम्हारा शरीर पसीने और मैल से भरा हुआ है वह है तुम्हारे कांस छाती और वस्तिस्थान में जूंओं का निवास है। मैंने कुल, शील, मर्यादा और लज्जा को छोड़कर तुम्हें अपना शरीर अर्पित किया, फिर भी तुम मेरी उपेक्षा करते हो। यह सुनकर उस स्त्री को कुपित जानकर वह विषयासक मनुष्य उसको विश्वास दिलाने के लिए उसके पैरों में गिर पड़ता है । तब वह कुछ दूर हटती हुई दूर हटो, मेरा सर्श मत करो ऐसा कहती हुई अपने बाएं पैर से उसके तिर पर प्रहार करती है । १. (क) चूर्णि, पृष्ठ ११४ : द्रव्यौजो हि असहायत्वात् परमाणुः । भावोजो राग-दोसरहितो । (ख) वृत्ति, पत्र ११४ : एको रागद्वेषवियुतः । २. चूर्णि, पृष्ठ ११४ : ओजो विषमः । ३. चूर्णि, पृष्ठ ११५ : भावभेदं चरित्रभेदमावण्णं, ण तु जीवितभेदं शरीरभेदं लिंगभेदं वा । मदभ्युपगतः अध्ययन ४ : टिप्पण ७३-७६ - ४. वृत्ति, पत्र ११५ : कामेषु - इच्छामदनरूपेषु मतेः बुद्धेर्मनसो वा वर्तो-वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः कामाभिलाषुक इत्यर्थः । अतिबट्ट् ५. पूर्ण पृष्ठ ११५ ६. चूणि, पृष्ठ ११५ : पलिभिदियाण पडिसारेऊण । ७. वृत्ति पत्र ११५ : परिमिद्य अतिगतं अतिवत्तमाणं । यदि वा परिभिद्य परिसार्य । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ नीतिकार ने कहा है ७६. अच्छे फल ( वग्गुफलाइं) ७७. पकड़ में आ जाता है ( उवलधे ) इसका अर्थ है-पकड़ में आ जाना । जब स्त्री यह जान लेती है कि यह पुरुष मेरे में अनुरक्त है और मेरे द्वारा निर्भर्त्स्यित किए जाने पर भी भाग नहीं जाएगा' - तब वह निश्चित हो जाती है । वह पुरुष के आकार, इगित और चेष्टाओं से उसे वशवर्ती जानकर फिर मनचाहा काम कराने लगती है । यह उपलब्ध का तात्पर्यार्थ है । २१४ व्याभिग्न केसरसिरसिहा नागाश्च दानमदराजिकृशैः कपोलैः । मेधाविनश्च पुरुषाः समरे च शूराः, स्त्रीसन्निधौ क्वचन कापुरुषा भवन्ति ॥ श्लोक ३५ : ७८. नौकर का ( तहाएहि ) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं - १. नौकर और २. लिंगस्थ के अनुरूप कार्य (साधुलिंग के योग्य कार्य ) । चूर्णिकार ने 'तच्चा रूवेहि' पाठ मानकर उसका यही अर्थ किया है। वह स्त्री अपने वशवर्ती मुनि से गृहस्थ योग्य कृषि आदि नहीं करवाती, मुनि वेष में जो कार्य किया जा सकता है, वही करवाती है।" सूत्रकार ने उन कार्यों का उल्लेख आगे किया है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ - धर्म कथा रूप वाणी से प्राप्त फल, वस्त्र आदि किया है ।" वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए है १. अच्छे फल - नारियल, अलाबु आदि । २. धर्मकथारूप वाणी से प्राप्त फल - वस्त्र आदि । १. (क) पूर्ण पृष्ठ ११५ । (ख) वृति पत्र ११५ । अध्ययन ४ : टिप्पण ७७-७६ स्त्री आसक्त भिक्षु से कहती है-तुम दिन भर गला फाड़कर, बोल-बोल कर लोगों को धर्म का उपदेश देते हो, क्या तुम उनसे कुछ मांग नहीं सकते ? अथवा तुम ज्योतिष, जादू-टोना आदि करते हो, उसके फलस्वरूप प्राप्त वस्त्र आदि क्यों नहीं लाते ?" इस प्रकार चूर्णिकार ने 'वग्गु' का अर्थ वाणी किया है और वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ - अच्छा या सुन्दर तथा गौण अर्थ वाणी किया है। २. (क) भूमि, पृष्ठ ११४ उबलो नाम वषो मामनुरको तो वि पसद लि (ख) वृत्ति, पत्र १९१५ : उपलब्धो भवति - आकारैरिङ्गितैश्चेष्टया वा मद्वशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः कपटनाटकनायिकामिः 1 स्त्रीभिः । ३. वृत्ति, पत्र ११५ । तथाभूतः कर्मकरव्यापारः" ४. यदि यातयामूर्तरिति थियो । पृष्ठ ११वाई नाम नाई लिंगत्यागुरुयाई, न तु कृष्यादिकर्माणि गृहस्थानुरूपाणि । ५. चूणि, पृ० ११५ : वग्गू णाम वाचा तस्याः फलाणि वग्गुफलाणि, धर्मकथाफलानीत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र ११५ : वल्गूनि - शोभनानि फलानि नालिकेरादीनि अलाबुकानि वा त्वम् आहर आनयेति, यदि वा वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वा वाचो यानि फलानि वस्त्रादिलाभरूपाणि । ७. चूर्ण, पृ० ११५: तुमं दिवसं लोगस्स बोल्लेण गलएण धम्मं कहेसि, जेसि च कहेसि ते ण तरसि मग्गितूणं ? अथवा जोइस कोंटल - वागरणफलाणि वा । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो १ ८१. मेरे पैर रचा (पायाणि य मे रयावेहि) इसके दो अर्थ है १. पात्रों को रंग दो । २. पैरों को महावर से रंग दो । ८०. (दारुणि भविस्सई राओ) स्त्री उस कामासक्त भिक्षु से कहती है-तुम जंगल में जाकर लकड़ी ले आओ। बाजार में जाकर उसे बेचो । कुछ लकड़ी बचा लो । उससे भोजन तथा नाश्ता पकालेंगे तथा जो रसोई ठंडी हो गई है, उसे पुनः गरम कर लेंगे। घर में तेल भी नहीं है, अतः दीपक नहीं जलेंगे । लकड़ियों के उस प्रकाश में हम सुख से रहेंगे । ८२. (त्याणि य मे पडिलेहेहि) ८२. पीठ मल दे ( पट्टि उम्मद्दे ) अधिक बैठे रहने के कारण मेरा शरीर टूट रहा है। बहुत पीड़ित कर रहा है । अतः तुम जोर-जोर से पीठ का मर्दन कर दो।' छाती आदि का तो मैं स्वयं मर्दन कर लूंगी। पीठ तक मेरा हाथ नहीं पहुंचता, अतः तुम उसका मर्दन कर दो ।" श्लोक ३७ : २१५ श्लोक ३६ : भूमिकार ने इसके अनेक अर्थ किए है--- १. तुम इन वस्त्रों को देखो, ये फट गए हैं, मैं नग्न सी हो गई हूं । २. क्या तुम नहीं देखते, ये वस्त्र कितने मैले हो गए हैं? मैं इन्हें स्वयं धोऊंगी या तुम इनको धोबी के पास ले जाओ धुलाकर ले आओ । और ३. तुम इन वस्त्रों को ठीक से देख लो, ताकि मुझे दूसरे मिल सकें। ४. गठरी में बंधे हुए इन वस्त्रों का तुम निरीक्षण करो, जिससे कि उन्हें चूहे न काट खाएं । अथवा इन कपड़ों को गठरी में बांध लो, ताकि इन्हें चूहे न काट सके । वृतिकार ने भी इसी प्रकार के विकल्प प्रस्तुत किए हैं।' ४. चूर्णि, पृ० ११६ ५. पूर्ण पृष्ठ ११६ अध्ययन ४ : टिप्पण ८०-८४ ८४. अंजनदानी (अंजण ) वृत्तिकार ने इसका अर्थ काजल को रखने की नलिका किया है। संभव है उस जमाने में काजल छोटी-छोटी नलिकाओं में १. ०११५ दारुणि आगय आनीय विक्रोणीहि अभ्ययागाय पदमानिया वा उबस्वडिजिहित्ति दोच्च वा परि हिति सीतलभूतेहि पोतो वा भविस्सति रातो मृशमुद्योतः दोवते पि गरि (यो हामी विद्याहामो वा । तेहि उन्होने मुहं हाथी २ वृत्ति, पत्र ११६ : पात्राणि पतग्रहादीनि 'रञ्जय' लेपय, येन सुखेनैव भिक्षाटनमहं करोमि, यदि वा पादावलक्तकादिना रञ्जयेति । २.वृत्ति ११६ बाधते ममाजितः संबाध पुनरवरं कार्यशेषं करिष्यसीति । : ६. वृत्ति, पत्र ११६ ॥ श्लोक ३८ : उत्प्राबल्येन : पट्टि उम्मद्दे, पुरिल्लं कायं अहं सक्केमि उव (म्म) हेतुं पिट्ठे पुण ण तरामि । स्वाणि पेतदरियाग जाया अहवा fere पस्ससि महलीभूताणि तेण धोवेनि ? रयगस्स वा णं णेहि । अहह्वा वत्थाणि मे पेहाहि त्ति जतो लभेज्ज | अहवा एयाई वत्थाई वेंटियाए पडिलेहेहि, मासे पुगारिया खज्जेज्ज । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ रखा जाता रहा हो।" ८५. आभूषण (अलंकार) हार तथा केश के कुछ अलंकरण । वृत्तिकार ने अलंकार के अन्तर्गत कंकण, बाजूबंद आदि का ग्रहण किया है ।" ८६. तुंबवीणा (कुक्कययं ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ तुंबवीणा किया है।" वृत्तिकार ने इस शब्द के समकक्ष 'खुखुणक' शब्द का प्रयोग किया है ।" देशी नाममाला में 'खुखुणय' का अर्थ 'नाक का अग्रभाग' ( नाक का छेद - पाइयसद्दमहण्णव ) किया है। इसके अनुसार यह कोई नाक का आभूषण प्रतीत होता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-विस्तार इस प्रकार दिया है. २१६ वह स्त्री कहती है- तुम मुझे 'खुंखुणक' दो, जिससे कि मैं सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित होकर वीणा बजाकर तुम्हारा मनोविनोद कर सकूं। संभव है यह एक प्रकार की वीणा भी रही हो । चूर्णिकार ने इसका अर्थ वीणा ही किया है । ८७. बांसुरी (वेणुपलासियं) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसको इस प्रकार समझाया है— बांस की कोमल छाल से बनी हुई बांसुरी जिसे दांतों में बाएं हाथ से पकड़कर दांएं हाथ से वीणा की भांति बजाया जाता है । चूर्णिकार ने इसका दूसरा नाम 'पिच्छोला' बताया है ।" गुटिका ( गुलि भूमिकार ने तीन प्रकार की टिकानों का उल्लेख किया है(१) औषधगुटिका - यौवन को स्थिर रखने वाली गुटिका । (२) अर्धगुटिका आदि का निर्माण करने वाली गुटिका । (३) अगदगुटिका - रोग को मिटाने वाली गुटिका । ८. कूठ (कोट्ठ) --- प्राचीन काल में यौवन को यथावत् बनाए रखने के लिए औषधियों से गुटिकाओं का निर्माण किया जाता था । तरुण स्त्रीपुरुष इन गुटिकाओं का सेवन करते थे। वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में केवल औषधगुटिका का ही उल्लेख किया है।" इलोक ३६ : अध्ययन ४ टिप्पण ८५-८ इसका अर्थ है - कूठ । वृत्तिकार के अनुसार यह गंधद्रव्य उत्पल से बनाया जाता है । " १. ११६ अंजगिमिति अकलाधारभूतां नलिका २. चूर्ण, पृ० ११६ : अलंकारे हार-नुकेशाद्यलङ्कारं वा सकेसियाण । ३. वृत्ति, पत्र ११६ : कटककेयूरादिकमलङ्कारं वा । ४. चूर्ण, पृ० ११६ : कुक्कुहगो णाम तंबवीणा । ५. वृत्ति, पत्र ११६ : कुक्कययं ति खुखुणकम् । ६. देशी नाममाला, २०७६ : खुखु खिं खुणय खुखुणओ घ्राणसिरा । ७. वृति पत्र ११६ चकं मे मम प्रयच्छ येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता दोषाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि । ८. (क) णि, पृ० ११६वलासी नाम नयी सरहका बिना सा तेहि य वामहस्वेग व पेणं दाहिणहत्येग व वीणा इव बाइज्जद, पिछोला इत्यर्थः । (ख) वृति पत्र ११६ पलासियत बंशात्मिका लाडिका सामहस्तेन प्रदक्षिणहस्तेन वीणावाद्यते । ६. चूर्ण, पृ० ११६ : गुलिया णाम एक्का ताव ओसहगुलिया अत्यगुलिया अगतगुलिया वा । घटिका तथाभूतामानय येनाहमविनष्टयौवना भवामीति । १०. वृति पत्र ११६ ११. वृत्ति, पत्र ११६ : कुष्ठम् – कुठं इत्यादि उत्पलकुष्ठम् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २१७ अध्ययन ४ : टिप्पण ६०-६७ १०. तगर (तगरं) यह वृक्ष कोंकण, अफगानिस्तान आदि में होता है। इसकी जड़ गन्ध-द्रव्य के रूप में काम आती है। इसे मदनवृक्ष भी कहते हैं। ६१. अगर (अगरु) अगरु नाम का वृक्ष जिसकी लकड़ी सुगंधयुक्त होती है। ६२. खस के (साथ) (उसीरेण) चूणिकार और वृत्तिकार-- दोनों ने कुष्ठ, तगर और अगर को खस के साथ पीसने की बात कही है। इनको खस के साथ पीसने से सुगन्ध होती है। ६३. मलने के लिए (भिलिंगाय) चूर्णिकार ने चुपड़ने के अर्थ में इसे देशी शब्द माना है।' ६४. तेल (तेल्लं) वृत्तिकार ने लोध, कुंकुम आदि से संस्कारित तेल को मुख की कांति बढ़ाने वाला माना है।' ६५. बांस की पिटारी (वेणुफलाई) चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं-बांस की बनी हुई संबलिका (छाबड़ी), संकोशक, पेटी, करंडक । वृत्तिकार ने दो अर्थ दिए हैं-बांस से बनी पेटी, करंडक । श्लोक ४०: ६६. नंदीचूर्ण (गंदीचुण्ण) होठों को मुलायम करने के लिए अनेक द्रव्यों के मिश्रण से बनाया गया चूर्ण । तुन के वृक्ष को नंदी वृक्ष कहा जाता है।' संभव है इस वृक्ष की छाल से यह चूर्ण निष्पादित होता है । ६७. भाजी (सूव) पत्रशाक को सूप कहा जाता है।' १. बृहद् हिंदी कोष । २. (क) चूणि, पृ० ११६ : एतानि हि प्रत्येकशः गंधगाणि भवति । (ख) वृत्ति, पृ० ११६ : एतत्कुष्ठादिकम् उगोरेग वीरणीमूलेन सम्पिष्टं सुगन्धि भवति । ३. चूर्णि, पृ० ११६ : मिलिंगाय त्ति देसीभासाए मक्खणमेव । ४. वृत्ति, पत्र ११६ : तैलं लोध्रकुङ्कुमादिना संस्कृत मुखमाश्रित्य । ५. चूणि, पृ० ११६ : वेणुफलाई ति वेलुपयी संबलिका संकोसको पेलिया करण्डको वा । ६. वृत्ति, पत्र ११६ : वेणुफलाई ति वेणकार्याणि करण्डकपेटकादीनि । ७. (क) चूणि, पृ० ११६ : गंदीचुण्णगं नाम जं संजोइमं ओट्ठभक्खणगं । (ख) वृत्ति, पत्र ११६ : नन्दीचुण्णगाई ति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते । ८. वृहद् हिंदी कोष । ६. (क) चूर्णि, पृ० ११७ : सूर्व णाम पत्रशाकम् । (ख) वृत्ति, पत्र ११७ : सूपच्छेदनाय पत्रशाकच्छेदनार्थम् । Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २१८ अध्ययन ४: टिप्पण ८-१०१ ६८. वस्त्र को हल्के नीले रंग से रंगा दे (आणीलं च वत्थं रावेहि) चूर्णिकार कहते हैं-आनील गुटिका से शाटक, सूत अथवा केंचुली रंगा दे। नीले रंग से इस वस्त्र को रंग। मैं कुसुंभे से वस्त्रों को रंगना जानती हूं, तुम रंग ला दो । मैं अपने वस्त्र भी रंग लूंगी तथा मूल्य लेकर दूसरों के वस्त्र भी रंग दूंगी।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है--पहनने के कपड़े गुटिका आदि से ऐसे रंग दो जिससे वे हल्के नीले या पूरे नीले हो जाएं। श्लोक ४१ ६६. तपेली (सुफणि) चूर्णिकार के अनुसार 'फणितं' का अर्थ है-पकाना, रांधना। जिस बर्तन में सरलरूप से पकाया या रांधा जा सके, उस बर्तन को 'सुफणि' कहा जाता है । लाट देशवासियों के अनुसार कढ़ाई सुफणि कहलाती है वराडअ (?), पत्तुल्ला (?) स्थाली, पिठर आदि को सुफणि माना गया है। इन बर्तनों में थोड़े इन्धन से भी ठंडे को गरम किया जा सकता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-तपेली, बटलोई, बहुगुना (भगोना) आदि ऐसे बर्तन जिनमें छाछ आदि पदार्थ सुखपूर्वक पकाए (उबाले) जाते हैं । ये बर्तन ऊंडे होते हैं, अतः तरल पदार्थ के उबलकर बाहर आने का भय नहीं रहता।' १००. आंवले (आमलगाई) चूर्णिकार ने आंवले के दो प्रयोजन बतलाएं हैं-शिर के बाल धोने के लिए तथा खाने के लिए। वृत्तिकार ने आंवले के तीन प्रयोजन दिए हैं.--१. स्नान के लिए, २. पित्त को शान्त करने के लिए तथा ३. खाने के लिए। १०१. तिलककरनी (तिलगकरणी) चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं१. हाथीदांत या सोने की बनी हुई शलाका जिससे गोरोचन आदि का तिलक किया जाता है। २. गोरोचन आदि पदार्थ जिनसे तिलक किया जाता है। ३. ऐसा ठप्पा (Block) जिसको गोरोचन आदि में डालकर ललाट पर लगाने से तिलक उठ जाता है। ४. जहां तिल तैयार किए जाते हैं या पीसे जाते हैं। १. चूणि, पृ० ११७ : आनीलो नाम गुलिया सावलिया, एतेण साडिगा सुत्तं कंचुगं वा रावेहि णोलीरागे वा इमं वत्थं छुहाहि । अधवा सा सयमेव कसुभगादिरागेण जाणति वत्थाणि रावेतुं तेग अप्पणो वा कज्जे वस्थरागं मग्गाति, जेसि वा रहस्सति मोल्लेण। २. वृत्ति, पृ० ११७ : वस्त्रम् अम्बरं परिधानार्थ गुलिकादिना रञ्जय यथा आनीलम् ईषन्नील सामस्त्येन वा नीलं भवति, उप लक्षणार्थत्वाद्रक्तं वा यथा भवतीति । ३. चूणि, पृ० ११७ : फणित णाम पक्कं रद्धं वा, सुखं फणिज्जति जत्य सा भवति सुफणी, लाडाणं हि कड्ढत्ति तं सुफणि त्ति बुच्चति, सुफणी वराडओ पत्तुल्लओ थाली पिहुडगो वा। तत्थ अप्पेण वि इंधणेणं सुहं सीतकुसुणं उप्फहामो। ४. वृत्ति, पत्र ११७ : सुणि च इत्यादि सुष्ठ सुखेन वा फण्यते --क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र तत्सुफणि-स्थालीपिठरादिकं भाजन मभिधीयते। ५. चूणि, पृ० ११७ : आमलगा सिरोधोवणादी-भक्खणार्थ वा। ६. वृत्ति, पत्र ११७ : आमलकानि धात्रीफलानि स्नानार्थ पित्तोपशमनायाभ्यवहारार्थ वा । ७. चणि, पृ० ११७ : तिलकरणी णाम दंतमइया सुवण्णगादिमइया वा, सा रोयणाए अण्णतरेण वा जोएणं तिलगो कीरद्द, तत्थ छोढुं भमुगासंगतगस्स उरि ठविज्जति तत्थ तिलगो उठेति, अथवा रोचनया तिलकः क्रियते, स एव तिलककरणी भवति, तिला वा जत्थ कोरंति पिस्संति वा। Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २१६ अध्ययन ४ : टिप्पण १०२-१०६ वृत्तिकार ने तीन अर्थ (१, २, ४) किए हैं।' १०२. अंजनशलाका (अंजणसलागं) इसका अर्थ है-आंख में अजन आंजने की शलाका । चूर्णिकार ने अजन के तीन अर्थ किए हैं-थोतांजन, जात्यंजन और काजल । वृत्तिकार ने अंजन का अर्थ सौवीरक अंजन किया है।' श्लोक ४२ १०३. संदशक (संडासगं) चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ इस प्रकार किया है-जिस व्यक्ति की जितनी संपन्नता होती है, वह उसके अनुसार मानदंड के रूप में सोने का कल्पवृक्ष बनाता है, उसे संदंशक कहा जाता है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-नाक के केश उखाड़ने का उपकरण-संडसी, चिमटी। वृत्तिकार ने यह वैकल्पिक अर्थ ही स्वीकार किया है। १०४. कंघी (फणिह) चूर्णिकार ने कंघी के तीन प्रयोजन बताए हैं-बालों को जमाना, बालों को सुलझाना और बालों में पड़ी हुई जूओं को निकालना । १०५. केश-कंकण (सोहलिपासगं) चूणिकार के अनुसार 'सीहली' का अर्थ है-चोटी । यह देशी शब्द है। उसको बांधने के उपकरण को 'सीहलीपासग' कहा जाता है। यह एक प्रकार का केश-कंकण है, जो अपने-अपने वैभव के अनुसार स्वर्ण आदि से बनाया जाता था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ चोटी को बांधने के लिए काम में आने वाला ऊन का कंकण किया है।' १०६. दतवन (वंतपक्खालणं) दांतों को साफ करने के लिए दतवन ।" १. वृत्ति, पत्र ११७। २. चूणि, पृ० ११७ : अञ्जनं अजनमेव श्रोताजनं जात्यञ्जनं कज्जलं वा, अंजनसलागा तु जाए अक्खि अंजिज्जंति । ३. वृत्ति, पत्र ११७ : अञ्जनं-सौवीरकादि शलाका-अक्षणोरञ्जननार्थ शलाका अञ्जनशलाका । ४. चूणि, पृ० ११७ : संडासओ कप्परुक्खओ कज्जति सोवग्णिओ, जस्स वा जारिसो विभवो। अधवा संडासगो जेण णासारोमाणि उक्खणंति । ५. वृत्ति, पत्र ११७ : संडासकं नासिकाकेशोत्पाटनम् । ६. चूणि, पृ० ११७ : फणिगाए वाला जमिज्जति ओलिहिज्जति जूगाओ वा उद्धरिज्जंति । ७. देशीनाममाला ८.५५ : .............."सिहणोमालिआसु सोहलिआ॥ सोहलिआ-शिखा नवमालिका चेति द्वयर्था । ८. चूणि, पृ० ११७ : सीहलिपासगो णाम कंकणं, तं पुण जधाविभवेण सोवणियं पि कीरति । सिहली णाम सिहंडओ, तस्स पासगो सिहलीपासगो। ६. वृत्ति, पत्र ११७ : सीहलिपासगं ति वेणीसंयमनार्थमूर्णामयं कङ्कणं । १०. वृत्ति, पत्र ११७ : बन्तप्रक्षालनं-दन्तकाष्ठम् । Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२० अध्ययन ४ : टिप्पण १०७-१११ श्लोक ४३: १०७. सुपारी (पूयफलं) इसका सामान्य अर्थ है-सुपारी । चूर्णिकार ने इससे पांच सुगंधित द्रव्यों का ग्रहण किया है । वे पांच द्रव्य हैं१. पान ४. लोंग २. सुपारी ५. कपूर । ३. इलायची १०८. (कोसं च मोयमेहाए) स्त्री कहती है-रात में मुझे भय लगता है। मैं प्रस्रवण करने के लिए बाहर नहीं जा सकती। इसलिए तुम मुझे प्रस्रवणपात्र ला दो, जिससे कि मुझे बाहर न जाना पड़े। श्लोक ४४: १०६. पूजा-पात्र (वंदालगं) देवताओं की पूजा करने के लिए प्रयुक्त होने वाला ताम्रमय पूजा-पात्र। चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार मथुरा मे इस पूजा-पात्र को 'वंदालक' या 'चंदालक' कहा जाता है।' ११०. लघु पात्र (करकं) चूर्णिकार ने 'करक' के तीन प्रकार बतलाए हैंशौचकरक। मद्यकरक । चक्करिककरक । वृत्तिकार ने इसका अर्थ पानी या मदिरा रखने का लघुपात्र किया है।" १११. संडास के लिए गढा खोद दे (वच्चघरगं च आउसो ! खणाहि) इस चरण में 'खणाहि' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह संडास-गृह की विशेष स्थिति की ओर निर्देश करता है। चूणिकार के अनुसार घर के एकान्त में एक कूई या गढ़ा खोदा जाता था और घर के सदस्य वहीं शौच-कार्य करते थे।' यह आज के 'सर्वोदय' संडासों से तुलनीय है। वृत्तिकार ने 'खणाहि' का अर्थ 'संस्कारित कर' किया है। किन्तु यह प्रस्तुत अर्थ को स्पष्ट नहीं करता। १. चूर्णि, पृ० ११७ : पूयफलग्रहणात् पञ्चसौगन्धिकं गृह्यते । २. वृत्ति, पत्र ११७ : तत्र मोच:-प्रस्रवणं कायिकेत्यर्थः तेन मेहः-सेवनं तवयं भाजनं ढौकय, एतदुक्तं भवति-बहिर्गमनं कर्तुमहम समर्था रात्रौ भयाद् अतो मम यथा रात्रौ बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु । ३. (क) चूर्णि, पृ० ११८ : वंदालको नाम तंबमओ करोडओ येनाऽहं दादि देवतानां अच्चणियं करेहामि, सो मधुराए वंदालओ वुच्चति। (ख) वृत्ति, पत्र ११७ : वन्दालकम् इति देवतार्चनिकाद्यथं ताम्रमयं भाजनं, एतच्च मथुरायां चन्दालकत्वेन प्रतीतमिति । ४. चूणि, पृ० ११८ : करकः करक एव सोयकरको मद्यकरको वा चक्करिककरको वा। ५. वृत्ति, पत्र ११७ : करको जलाधारो मदिराभाजनं वा। ६. चूणि, पृ० ११८ : वच्चघरगं हाणिमा, तं वच्चधरं पच्छन्नं करेहि कवि चत्य खणाहि । ७. वृत्ति, पत्र ११७ : खन संस्कुर । Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११२. धनुष्य (सरपायगं) इसका अर्थ है-धनुष्य । बच्चे इसका उपयोग खेलने के लिए करते थे । वे इससे एक-दूसरे पर तीर चलाते और प्रसन्न होते थे।' ११३. श्रामणेर (श्रमण-पुत्र) (सामणेराए) यहां श्रामणेर का प्रयोग श्रमणपुत्र के अर्थ में किया गया है।' ११४. तीन वर्ष का बैल (गोरहग) ११५. बच्चे के लिए (कुमारभूयाए) इसके दो अर्थ हैं - छोटे बच्चे के लिए अथवा वह पुरुष स्त्री से पूछता है- तू अपने बेटे के की मां तो मर चुकी । यह मेरा लाडला देवकुमार है । तुम फिर ऐसा कभी मत कहना । ११६. घंटा (डिगं २२१ तीन वर्ष का बैल जो रथ में जुतने योग्य हो जाता है उसे 'गोरथक' कहा जाता है ।' विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं ७।२४ का टिप्पण | श्लोक ४५ अध्ययन ४ टिप्पण ११२ ११६ राजकुमार रूप मेरे बच्चे के लिए। लिए इतनी चीजें मंगा रही है, क्या वह राजपुत्र है ? वह कहती है- राजपुत्र देवता की कृपा से मैंने ऐसे देवकुमार सदृश बेटे को जन्म दिया है। मुझे भूमिकार ने इसका अर्थ बच्चे का खिलौना किया है। वृतिकार ने इसे मिट्टी की कुल्नविका माना है। यह एक प्रकार का घंटा होना चाहिए जिससे बच्चे खेलते हैं । ११७. डमरू (डिडिएणं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- छोटा पटह और डमरू ।' वृत्तिकार ने इसे पटह आदि बाजे का वाचक माना है ।" ११. कपड़े की गेंद (चेलगोलं) ८. चूर्ण, पृ० ११८ : डिण्डिमगो णाम पडहिका डमरुगो वा । 1 इसका अर्थ है - वस्त्र या धागे से बना गेंद ।" १. (क) चूणि, पृ० ११८ : सरो अनेन पात्यत इति शरपातकं धणुहुल्लकम् । (ख) वृत्ति, पत्र ११७ : शरा- इषवः पात्यन्ते – क्षिप्यन्ते येन तच्छरपातं धनुः । २. (क) पूर्णि, पृ० ११८ अमणस्यापत्यं श्रामणेरः तस्मै श्रामणेराय । (ख) वृति, पत्र ११७ : सामणेराए त्ति श्रमणस्यापत्यं श्रामणिस्तस्मै श्रमणपुत्राय । ३. बुति पत्र ११० गोरगं ति त्रिहायणं बलीवर्दम् । ४. वृत्ति, पत्र ११७, ११८: कुमारभूताय क्षुल्लकरूपाय राजकुमारभूताय वा मत्पुत्राय । ५. चूर्ण, पृ० ११८: स तेनापदिश्यते-- किमेसो रायपुत्तो ? । सा भणति -माता हता रायपुत्तस्स, एसो मम देवकुमारभूतो, देवतापसादेण चैवाहं देवकुमारसच्छहं पुत्तं पसूता, मा हु मे एवं भणेज्जासु । ६. चूर्णि, पृ० ११८: घडिगा णाम कुंडिल्लगा चेडरूवरमणिका । ७. वृति पत्र ११७ घटिकां मृन्मयकुल्लडिकाम् । ६. वृत्ति, पत्र ११७ : डिण्डिमेन पटहकादिवादित्रविशेषेण । १०. (क) पुर्णि, पृ० ११५ चेतगोलो नाम चेतमओ गोल] तन्तुम। : (ख) वृत्ति, पत्र ११७ : चेलगोलं ति वस्त्रात्माकं कन्दुकम् । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ४: टिप्पण ११९-१२२ ११६. घर की ठीक व्यवस्था कर (आवसहं जाणाहि भत्ता !) ___ स्त्री कहती है- 'भर्ता ! वर्षा ऋतु शिर पर मंडरा रही है। यह घर स्थान-स्थान पर टूटा-फूटा हुआ है। अनेक स्थानों पर पानी चू रहा है । तुम इसको ठीक कर दो। इसे निति बना दो। कही भी पानी न चूए, ऐसा कर दो, जिससे कि हम वर्षाकाल के चार महीने सुखपूर्वक बिता सकें।' प्रस्तुत चरण में चूर्णिकार ने 'भत्ता' को संबोधन मानकर अर्थ किया है। वृत्तिकार ने 'भत्तं' शब्द मान कर इसका अर्थ तंदुल आदि किया है। संभव है लिपिकारों ने 'भत्ता' के स्थान पर 'भत्तं च' पाठ लिख दिया हो । श्लोक ४६ : १२०. खटिया (आसंदियं) बैठने के योग्य मंचिका तीन प्रकार की होती थी१. सूत के धागों से गूंथी हुई। २. चमड़े की डोरी से गूंथी हुई। ३. चमड़े से मढ़ी हुई। १२१. काष्ठपादुका (पाउल्लाइं) चुणिकार के अनुसार स्त्री कहती है-वर्षाकाल में चारों ओर कीचड़ हो जाता है। खड़ाऊ से कीचड़ को सुखपूर्वक पार किया जा सकता है । इसे पहन कर रात या दिन में भी कीचड़ पर चला जा सकता है। वृत्तिकार ने काठ की या मूंज की बनी पादुकाओं का उल्लेख किया है। स्त्री कहती है-पर्यटन करने के लिए मझे खड़ाऊ ला दो । मैं बिना पादुकाओं के एक पैर भी नहीं चल सकती। १२२. (अदु...."दासा वा) उस गर्भवती स्त्री के तीसरे महीने में दोहद उत्पन्न होता है, तब वह उस पुरुष को दास की भांति आज्ञा देती है और विविध प्रकार की वस्तुएं मंगाती है। वह कहती है-मुझे चावल रुचिकर नहीं लगते, कोई और चीज ला दो। यदि अमुक चीज नहीं मिलेगी तो मैं मर जाऊंगी अथवा मेरे गर्भपात हो जाएगा। वह आसक्त पुरुष उसकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करता है। वधर्माता १.णि, पृ० ११८ : तेण णिवायं णिप्पगलं च आवसधं जाणाहि भत्ता! जेण चत्तारि मासा चिक्खल्लं अच्छंदमाणा सहं अच्छामो ....... इधई वा इमो आवसहो सडिल-पडितो एतं संठवेहि ति । २. वृत्ति, पत्र ११८ : आवसथं गृहं प्रावटकालनिवासयोग्यं तथा भक्तं च तन्दुलादिकं तत्कालयोग्यं जानीहि निरूपय निष्पादय येन सुखेनैवानागतपरिकल्पितावसथादिना प्रावृटकालोऽतिवाह्यते इति । ३. (क) चूणि, पृ० ११८ : आसंदिगा णाम वेसणगं । णवसुत्तगो णवएण सुत्तेण उणट्ठिया (उण्णुट्टिया)-पट्टेण चम्मेण वा। (ख) वृत्ति, पत्र ११८ : आसंदियं इत्यादि आसन्दिकामुपवेशनयोग्यां मञ्चिका .......... 'सा नवसूत्रा ताम् उपलक्षणार्थत्वाद वध्रचर्मावनद्धाम् । ४. चूणि, पृ० ११८ : पाउल्लगाई ति कट्ठपाउगाओ, ताहि सुहं चिक्खल्ले संकमिज्जत्ति, रत्तिविरत्तेसु संकम वा करेसि चिक्खल्लस्स उरि । ५. वत्ति, पत्र ११८ : एवं च-मौजे काष्ठपादुके वा संक्रमणार्थ पर्यटनार्थ निरूपय, यतो नाहं निरावरणपादा भूमौ पदमपि दातुं समर्थेति । ६. चूणि, पृ० ११८ : जाहे सा गम्भिणी तइयमासे दोहिलणिगा भवति तो णं दासमिव आणवेति, आगलफलाणि वि मग्गइ ति, भत्तं मे ण रुच्चइ, अमुगं मे आणेहि, जह णाऽऽणेहिं तो मरामि गम्भो वा पडेति, स चापि दासवत् सर्व करोति आणत्तियं। Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२३ अध्ययन ४: टिप्पण १२३-१२४ श्लोक ४७: १२३. पुत्र रूपी फल के उत्पन्न होने पर (जाए फले समुप्पण्णे) ___ फल का अर्थ है-प्रधानकार्य । मनुष्यों के कामभोगों की प्रधान निष्पत्ति है-पुत्र का जन्म । नीतिकारों का कथन है 'पुत्र जन्म स्नेह का सर्वस्व है। यह धनवान और दरिद्र-दोनों के लिए समान है। यह चन्दन और खस से बना हुआ न होने पर भी हृदय को शीतलता देने वाला अनुपम लेप है।' तुतली बोली बोलने वाले बालक ने 'शयनिका' के स्थान पर 'शपनिका' कह डाला । सांख्य और योग को छोड़कर वह शब्द मेरे मन में रम रहा है। संसार में पुत्र का मुख अपना दूसरा मुख है । इस प्रकार पुरुषों के लिए पुत्र परम अभ्युदय का कारण है।' १२४. इसे (पुत्र को) ले अथवा छोड़ दे (गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि) __ पुत्र के उत्पन्न हो जाने पर स्त्रियां पुरुषों की किस प्रकार से विडंबना करती हैं, उसका दिग्दर्शन इस चरण में हुआ है। वे कहती हैं- 'तुम इस बालक को संभालो। मैं कार्य में व्यस्त हूं। मुझे क्षण मात्र का भी अवकाश नहीं है। चाहे तुम इस बच्चे को छोड़ दो। मैं इसकी बात भी नहीं पूछूगी।' कभी कुपित होने पर कहती है- 'मैंने इस बालक को नौ महीने तक गर्भ में रखा। तुम इसे कुछ समय तक गोद में उठाने के लिए भी उद्विग्न हो रहे हो !' दास अपने स्वामी के आदेश का पालन उद्विग्नता से भय के कारण करता है, किन्तु स्त्री का वशवी मनुष्य स्त्री के आदेश को अनुग्रह मानता है और उसके निष्पादन में प्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा है'--- मेरी स्त्री मुझे जो रुचिकर है, वही करती है। ऐसा वह मानता है। किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह स्वयं वही कार्य करता है जो अपनी प्रिया को रुचिकर हो । १. (क) चूणि, पृ० ११६ : फलं किल मनुष्यस्य कामभोगा: तेषामपि पुत्रजन्म । उक्तं च इदं तु स्नेहसर्वस्वं सममाढ्य-दरिद्रिणाम् । अचन्दनमनौशीरं हृदयस्यानुलेपनम् ॥१॥ यत् तत् थ-प-न केल्युक्तं बालेनाव्यक्तभाषिणा। हित्वा साङ्खयं च योगं च तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥ लोके पुत्रमुखं नाम द्वितीयं मुखमात्मनः ।....... साऽथ जाधे किचि आणत्ता भवति ताधे भणति-दारके वामहत्थे तुम चेव करेहि । अतिणिबंधे वा तस्स अप्पेतुं भणति-एस ते। (ख) वृत्ति, पत्र ११८: २. वृत्ति, पत्र ११८ : जाते तदुद्देशेन या विडम्बनाः पुरुषाणां भवन्ति ता दर्शयति-अमुं दारकं गृहाण त्वम्, अहं तु कर्माक्षणिका न मे ग्रहणावसरोऽस्ति, अथ चैनं जहाहि परित्यज नाहमस्य वार्तामपि पृच्छामि, एवं कुपिता सती ब्रूते, मयाऽयं नव मासानुदरेणोढः त्वं पुनरुत्सङ्गेनाप्युद्वहन स्तोकमपि कालमुद्विजस इति, दासदृष्टांतस्त्वादेशदानेनैव साम्यं भजते, नादेशनिष्पादनेन, तथाहि-दासो भयादुद्विजन्नादेशं विधत्ते, स तु स्त्रीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानो मुदितश्च तदादेश विधत्ते, तथा चोक्तम् यदेव रोचते मह्य, तदेव कुरुते प्रिया। इति वेत्ति न जानाति, तत्प्रियं यत्कारोत्यसौ ॥१॥ बदाति प्रार्थितः प्राणान्, मातरं हंति तत्कृते । किं न दद्यात् न कि कुर्यात्स्त्रीभिरभ्यथितो नरः ॥२॥ ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रक्षालयत्यपि । श्लेष्माणमपि गह्नाति, स्त्रीणां वशगतो नरा ॥३॥ Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२४ अध्ययन ४: टिप्पण १२५-१२७ याचना करने पर वह अपने प्राणों को भी दे देता है। प्रिया के लिए मां की हत्या भी कर डालता हैं। स्त्रियों के द्वारा मांगने पर वह क्या नहीं देता या क्या नहीं करता? (सब कुछ कर डालता है।) वह प्रिया को शौच का पानी ला देता है। उसके पैर पखारता है। उसके श्लेष्म को भी हाथ में ले लेता है। (उसे हाथों में थुकाता है।) श्लोक ४८ : १२५. (राओ वि........"धाई वा) ___ जब वह स्त्री विश्रान्त होकर सो जाती है, या सोने का बहाना कर आंखें मूंद लेती है या अहं या मजाक में रोते हुए बच्चे को नहीं उठाती, तब वह पुरुष उठता है और अकधात्री की भांति बच्चे को गोद में उठाकर, अनेक प्रकार के उल्लापकों के द्वारा उसे सुलाने का प्रयत्न करता है । वह लोरी गाते हुए कहता है-तुम इस नगर के, हस्तिकल्प, गिरिपत्तन, सिंहपुर, ऊंचे-नीचे भू भाग वाले कुक्षिपुर, कान्यकुब्ज और आत्ममुख सौर्यपुर के स्वामी हो । इस प्रकार असंबद्ध आलापकों से वह बच्चे को सुलाता है।' १२६.धोबी (हंसा) इसका अर्थ है-धोबी।' गृहस्थाश्रम में वह पुरुष शौचवादी था। प्रव्रज्या लेने के बाद वह आत्मस्थित हुआ। किन्तु प्रव्रज्या से च्युत होकर वह स्वयं अपनी प्रेयसी और बच्चे के सूतकवस्त्र धोने में लज्जा का अनुभव नहीं करता। वह धोबी की तरह उसके कपड़े धोता है। श्लोक ४६ १२७. (दासे मिए व पेस्से वा) चूर्णिकार की व्याख्या इस प्रकार है कामभोग के लिए प्रव्रज्या को छोड़कर जो भ्रष्ट हो गए हैं, उन पुरुषों के साथ स्त्रियां दास की भांति व्यवहार करती हैं, पालतू पशु की भांति मारती-पीटती है तथा प्रेष्य की भांति उसे अनेक प्रकार के कार्यों में नियोजित करती हैं। वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है१. (क) चूणि, पृ० ११६: यदा सा रतिभरवान्ता वा प्रसुप्ता भवति, इतरधा वा पसुत्तलक्खेण वा अच्छति, चेएन्तिया वा गब्वेण लोलाए वा बारगं रुतं पि णण्णति (ण गेण्हति) ताधे सो तं दारगं अंकधावी विव णाणाविधेहिं उल्लापएहि परियंवन्तो ओसोवेतिसामिओ मे णगरस्स य, हत्थवप्प-गिरिपट्टण-सोहपुरस्स य । अण्णतस्स भिण्णस्स य कंचिपुरस्स य, कण्णउज्ज-आयामुह-सोरिपुरस्स य॥ (ख) वृत्ति, पत्र ११६ । २. (क) चूणि, पृ० ११६ : हंसो नामा रजकः । (ख) वृत्ति, पत्र ११६ : हंसा इव रजका इव । ३. चूणि, पृ० ११६ : शौचवादिका गहवासे प्रव्रज्यायां वा सुठ्ठ वि आतट्ठिया होऊण एगंतसोला वा सूयगवत्थाणि धोयमाणा वत्थाधुवा भवंति। ४. चूणि, पृ० ११६ : दासवद् भुज्यते, मृगवच्च भवति, यथा मृगो वशमानीत: पच्यते मार्यते वा मुच्यते वा, प्रेष्यवच्च प्रेष्यते णाणाविधेसु कम्मेसु। ५. वृत्ति, पत्र ११६ : तथा यो रागान्धः स्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः परवशो मृग इव धार्यते, नात्मयशो भोजनादिक्रिया अपि कर्त लभते, तथा प्रेष्य इव कर्मकर इव क्रयकीत इव वर्च:शोधनादावपि नियोज्यते। Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगो २२५ अध्ययन ४: टिप्पण १२८-१३२ जो पुरुष स्त्रीवशवर्ती है उसे स्त्रियां निःशंक होकर दास की भांति अनेक कार्यों में नियोजित करती हैं। जैसे जाल में फंसा हुआ मृग परवश होता है, वैसे ही वह पुरुष स्त्री के जाल में फंसकर परवश हो जाता है । वह भोजन आदि करने में भी स्वतंत्र नहीं होता । स्त्रियां उससे क्रीतदास की भांति शौचालय साफ करना आदि अनेक काम करवाती हैं। १२८. पशु की भांति भारवाही (पसुभूए) वह पशु की भांति हो जाता है। पशु कर्त्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से शून्य होता है। उसमें हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने का विवेक नहीं होता। वैसे ही स्त्रीवशवर्ती मनुष्य भी विवेकशून्य होता है। जैसे पशु आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की संज्ञा में ही रत रहता है, वैसे ही वह पुरुष भी कामभोग में ही रत रहता है, इसलिए वह पशुतुल्य होता है।' १२६. अपने आपमें कुछ भी नहीं रहते (ण वा केई) वह पुरुष अपने आप में कुछ भी नहीं रहता। वृत्तिकार ने इसके अनेक विकल्प प्रस्तुत किए हैं१. वह स्त्रीवशवर्ती मनुष्य दास, मृग, प्रेष्य और पशुओं से भी अधम होता है, इसलिए वह कुछ भी नहीं होता। वह सब में अधम होता है, कोई उसकी तुलना नहीं कर सकता, अतः वह अनुपमेय होता है। २. दोनों ओर से भ्रष्ट होने के कारण वह कुछ भी नहीं होता। वह सद् आचरण से शून्य होने के कारण न साधु रहता है और तांबूल आदि का परिभोग न करने तथा लोच आदि करने के कारण न गृहस्थ ही रहता है। ३. इहलोक या परलोक के लिए अनुष्ठान करने वालों में से वह कोई भी नहीं है।' श्लोक ५० : १३०. परिचय का (संथवं) इसका अर्थ है-परिचय । स्त्रियों के साथ उल्लाप, समुल्लाप करना, उन्हें कुछ देना, उनसे कुछ लेना आदि संस्तव के ही प्रकार हैं। १३१. संवास का (संवासं) स्त्रियों के साथ एक घर में या स्त्रियों के निकट रहना 'संवास' है।' १३२. ये कामभोग सेवन करने से बढ़ते हैं (तज्जातिया इमे कामा) चुणिकार ने इसका एक अर्थ यह किया है-उस जाति के । उनके अनुसार काम चार प्रकार के हैं-शृंगार, करुण, रौद्र और बीभत्स । इसका दूसरा अर्थ है-वे काम जिनका सेवन उसी प्रकार के कामों को पैदा करता है, जैसे-मैथुन का सेवन करने से पुनः पुनः मैथुन-सेवन की कामना उत्पन्न होती है। कहा भी है १. वृत्ति, पत्र ११६ : कर्त्तव्याकर्त्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् पशुभूत इव, यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहा भिज्ञ एवं केवलम्, एवमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात् पशुकल्पः। २ (क) वृत्ति, पत्र ११६ : स स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्यपशुभ्योऽप्यधमत्वात् न कश्चित्, एतदुक्तं भवति--सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयते, अथवा—न स कश्चिदिति, उभयभ्रष्टत्वात्, तथाहि-न तावत्प्रवजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वात्, नापि गृहस्थः ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वाल्लोचिकामात्रधारित्वाच्च, यदि वा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति । (ख) चूणि, पृ० १२० । ३. चूणि, पृ० १२० : संथवो णाम उल्लाव-समुल्लावा-ऽदाण-ग्गहण-संपयोगादि । ४. चूणि, पृ० १२० : संवासो एगगिहे तदासन्ने वा । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२६ अध्ययन ४: टिप्पण १३३-१३५ 'भालस्यं मैथुनं निद्रा, सेवमानस्य वर्द्धते।' -आलस्य, मैथुन और निद्रा-ये सेवन करने से बढ़ते रहते हैं।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ रमणियों के संपर्क से उत्पन्न कामभोग किया है।' १३३. कर्मबन्ध कारक (वज्जकरा) चूणिकार ने 'वज्ज' के चार अर्थ किए हैं-कर्म, वज्र, पाप और चौर्ण ।' वृत्तिकार ने इस शब्द के संस्कृत रूप दो दिए हैं-'अवद्यकराः' और 'वज्रकाराः' । अवद्य का अर्थ पाप है और वज्र का अर्थ है-भारी भरकम वज।' श्लोक ५१ : १३४. यह जानकर भिक्षु मन का निरोध करे-कामभोग से अपने को बचाए (इइ से अप्पगं निरु भित्ता) ___ कामभोगों से अपने आपको बचाना ही श्रेयस्कर है । इहलोक में भी वही व्यक्ति सुखी होता है जो अपनी कामेच्छा का निरोध करता है, फिर परलोक की तो बात ही क्या ? कहा भी है 'जो मुनि लौकिक व्यापार से मुक्त है, उसके जो सुख होता है वह सुख चक्रवर्ती या इन्द्र के भी नहीं होता।' 'तृण-संस्तारक पर निविष्ट मुनि राग-द्वेष रहित क्षण में जिस मुक्ति-सुख का अनुभव करता है वह चक्रवर्ती को भी उपलब्ध नहीं होता। १३५. (णो इत्थि...णिलिज्जेज्जा) वृत्तिकार ने 'णिलिज्जेज्जा' क्रिया को दोनों चरणों में प्रयुक्त कर अर्थ किया है। उनके अनुसार तीसरे चरण का अर्थ होगा- मुनि स्त्री और पशु का आश्रय न ले अर्थात् स्त्री और पशु के संवास का परित्याग करे। चौथे चरण का अर्थ होगा-मुनि अपने हाथ से गुप्तांगों का संबाधन न करे। उन्होंने दोनों चरणों का संयुक्त अर्थ इस प्रकार किया है- मुनि स्त्री या पशु आदि को अपने हाथ से न छूए। चूर्णिकार ने चौथे चरण का अर्थ-हस्त कर्म न करना किया है। उन्होंने "णिलिज्जेज्जा' का अर्थ 'करना' किया है। उनके अनुसार-मुनि अपने हाथ से उस प्रदेश का स्पर्श भी न करे। हस्त-स्पर्श से होने वाली सुखानुभूति के निषेध कर देने से उस १. चूणि, पृ० १२० : तज्जातिया णामा तश्विधजातिगा। चतुविधा कामा , तं जधा सिंगारा १ कलुणा २ रोद्दा ३ बीमच्छा तिरिक्ख जोणियाणं पासंडीणं च ४। एतदुक्तं भवति–बीभच्छवेसानां तेषां बीभच्छा एव कामा, आकारीहि वि समं तं चेब, अथवा तदेव जनयन्तीति तज्जातिया मैथुनं ह्यासेवते तदिच्छा एव पुनर्जायते। उक्तं हि-आलस्यं मैथुनं निद्रा सेवमानस्य वर्द्धते । २. वृत्ति, पत्र ११६ । यतस्ताभ्यो रमणीभ्यो जातिः--उत्पत्तिर्येषां तेऽमी कामास्तज्जातिका-रमणीसम्पर्कोस्थाः । ३. चूणि पृ० १२० : वज्जमिति कम्म, वज्जं ति वा पातं ति वा चोणं ति वा। ४. वृत्ति, पत्र ११६ : अवयं पापं वज्र वा गुरुत्वावधः पातकत्वेन पापमेव तत्करणशीला अवद्यकरा वज्रकरा वेत्येवम् । ५. चूणि, पृ० १२० : इहलोकेऽपि तावद् णिरुद्धकामेच्छस्स श्रेयो भवति, कुतस्तहि परलोकः? । उक्त हि नवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहेव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य । [प्रशमरति आन्हिक १२८] तणसंथारणिवण्णो वि मुणिवरो भग्गराग-मय-दोसो। जं पावति मुत्तिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लभति ॥ [संस्तारक प्रकीर्णक गा० ४८] ६. वृत्ति, पत्र १२० : न स्त्रियं नरकवीथोप्रायां नापि पशु लीयेत आश्रयेत स्त्रीपशुभ्यां सह संवासं परित्यजेत् , 'स्त्रीपशुपण्डकविजिता शय्येतिवचनात्, तथा स्वकीयेन 'पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य 'न णिलिज्जेज्ज' ति न सम्बाधनं कुर्यात, यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शबलीकरोति, यदि वा-स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पाणिना न स्पृशेविति । Jain Education Intemational Sain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २२७ अध्ययन ४: टिप्पण १३६-१३८ क्रिया को कायिकरूप से करने की बात ही प्राप्त नहीं होती।' श्लोक ५२ : १३६. शुद्ध अन्तःकरण वाला (सुविसुद्धलेसे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-शुक्ललेश्या वाला मुनि किया है।' वृत्तिकार ने लेश्या का अर्थ-अन्तःकरण की वृत्ति किया है। इसका अर्थ होगा-शुद्ध अन्तःकरण वाला भिक्षु ।' १३७. परक्रिया न करे-स्त्री के पैर आदि न दबाए (परकिरियं) चूणिकार ने 'परक्रिया' शब्द के द्वारा स्त्री के पैरों का आमार्जन-प्रमार्जन- इस आलापक का निर्देश किया है। परक्रिया का पूरा प्रकरण आयारचूला के तेरहवें अध्ययन में उपलब्ध है। श्लोक ५३ : १३८. शुद्ध अन्तःकरण वाला (अज्झत्थविसुद्धं) अज्झत्थ का अर्थ है-संकल। जो मुनि राग-द्वेष से विमुक्त होता है, मान और अपमान तथा सुख और दुःख में सम होता है, जो स्व और पर को तुल्य मानता है, वह अध्यात्म-विशुद्ध होता है।" वृत्तिकार ने विशुद्ध अन्तःकरण वाले को अध्यात्म-विशुद्ध माना है।' १. चूर्णि, पृ० १२० : णो सयपाणिणा णिलेज ति हत्थकम्मं न कुर्यात, निलंजनं नाम करणं, अथवा स्वेन पाणिना त प्रदेशमपि न लीयते जहा पाणिसंहरिसो वि न स्यादिति, कुतस्तहि करणम् । २ चूणि, पृ० १२० : सुविसुद्धलेस्से नाम सुक्कलेस्से । ३. वृत्ति, पत्र १२० : सुष्ठु - विशेषेण शुद्धा-स्त्रीसम्पर्कपरिहाररूपतया निष्कलङ्का लेश्या-अन्तःकरणवत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतः । ४. चूणि, पृ० १२० : परकिरिया नाम नो इत्थीपाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा संवाहण ति जाव छत्तमउडं ति । ५. चूणि, पृ० १२१ : अज्झत्थविसुद्धे, अज्झत्थं णाम संकप्पातो विसुद्धं, संकप्पविसुद्धं राग-द्वेषविप्रमुक्तम्, समो माना-ऽवमानेषु समदुःखसुखं पश्यति आत्मानं च परं च मन्यते तुल्यम् । तथा चोक्तम् कस्य माता पिता चैव ? स्वजनो वा कस्य जायते ? ॥ न तेन कल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ।। ६. वृत्ति, पत्र १२० : अध्यात्मविशुद्धः सुविशुद्धान्तःकरणः । Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयरणं णरयविभत्ती पांचवां अध्ययन नरक-विभक्ति Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'नरक-विभक्ति'-नरकवास का विभाग है। चूर्णिकार ने 'नरक' का निरुक्त इस प्रकार दिया है 'नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माण इति नरकाः।' 'न रमन्ति तस्मिन् इति नरकाः।' नियुक्तिकार ने इस अध्ययन का प्रतिपाद्य बतलाते हुए नरक-उत्पति के अनेक कारणों में से दो कारणों--उपसर्ग-भीरता तथा स्त्री-वशवर्तिता का उल्लेख किया है। स्थानांग सूत्र में नरकगमन के चार हेतु बतलाए हैं-महा-आरंभ, महा-परिग्रह, पंचेन्द्रियवध और मांस-भक्षण ।' तत्त्वार्थ सूत्र में नारकीय आयुष्य के दो कारण निर्दिष्ट हैं१. बहु आरंभ-महान् हिंसा । २. बहु परिग्रह-महान् परिग्रह । मूल सूत्रकार ने प्रथम दो श्लोकों में अध्ययन का प्रतिपाद्य और आगे के तीन श्लोकों (३, ४, ५) में नरक गति के हेतुओं का दिग्दर्शन कराया है। जम्बूकुमार ने सुधर्मा से पूछा-'नरकों का स्वरूप क्या है ? किन-किन कर्मों के कारण जीव नरक में जाता है ? नरकों में नैरयिक किन-किन वेदनाओं का अनुभव करते हैं ?' सुधर्मा ने कहा-'आर्य जम्बू ! जैसे तुम मुझे पूछ रहे हो, वैसे ही मैंने भगवान् महावीर से पूछा था- भंते ! मैं नहीं जानता कि जीव किन-किन कर्मों से और कैसे नरक में उत्पन्न होता है ? आप मुझे बताएं।' भगवान् ने तब मुझे कहा- मैं तुमको उन जीवों के पापकर्म का दिग्दर्शन कराऊंगा, जिनसे वे उन विषम और चंड स्थानों में जाकर उत्पन्न होते हैं और भयंकर वेदनाओं को भोगते हैं । नरक के मुख्य हेतु हैं १. क्रूर पापकर्मों का आचरण । २. महान् हिंसा का आचरण । ३. असंयम में रति । ४. आस्रवों के सेवन में व्यग्रता । नरक पद के छह निक्षेप प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार, चूणिकार और वृत्तिकार ने निश्चित नरकावासों में उत्पन्न होना ही नारकीय जीवन नहीं माना है, किन्तु वे कहते हैं कि जिस जीवन में जो प्राणी नरक सदृश वेदनाओं, पीड़ाओं और दुःखों को भोगता है, वह स्थान या जन्म भी नरक ही है । १. नाम-नरक-किसी का नाम 'नरक' रख दिया । २. स्थापना-नरक-किसी पदार्थ या स्थान में 'नरक' का आरोपण कर दिया। १. चूणि, पृ० १२६ । २. नियुक्ति गाथा २३, चूणि, पृ० १६ : उपसग मीरुणो थीवसस्स गरएसु होज्ज उववाओ। ३. ठाणं ४।६२८ । ४. तस्वार्थ ६.१५: बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः। Jain Education Intemational ation Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३२ अध्ययन ५: प्रामुख ३. द्रव्य-नरक-मनुष्य अथवा पशु जीवन में बंदीगृह, यातनास्थान आदि स्थानों का आसेवन करना, जहां नरकतुल्य वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं। जैसे कालसौकरिक कसाई को मरणावस्था में अत्यन्त घोर वेदनाएं सहनी पड़ी थीं। द्रव्य-नरक के दो प्रकार हैं १. कर्मद्रव्य-द्रव्यनरक-नरक में वेदने योग्य कर्म-बंध । २. नोकर्मद्रव्यद्रव्य-नरक-वर्तमान जीवन में अशुभ रूप, रस, गंध, वर्ण, शब्द और स्पर्श का संयोग । ४. क्षेत्र-नरक-चौरासी लाख नरकवासों का निर्धारित भूविभाग । ५. काल-नरक–नारकों की कालस्थिति । ६. भाव-नरक-नरक आयुष्य का अनुभव, नरकयोग्य कर्मों का उदय । चूर्णिकार ने वर्तमान जीवन में नरकतुल्य कष्टों के अनुभव को भाव-नरक माना है । जैसे—कालसौकरिक ने अपने जीवनकाल में ही नरक का अनुभव कर लिया था। ___इसी प्रकार से 'विभक्ति' शब्द के निक्षेपों का चूर्णिकार और वृत्तिकार से विस्तार से वर्णन किया है।' वृत्तिकार ने क्षेत्रविभक्ति के अन्तर्गत आर्यक्षेत्रों को विस्तार से समझाया है। उन्होंने छह प्राचीन श्लोकों को उद्धृत कर साढे पच्चीस आर्य देशों तथा उनकी राजधानियों का नामोल्लेख किया है। इसी प्रकार उन्होंने अनार्य देशों के नाम तथा अनार्य देशवासी लोगों के स्वभाव का सुन्दर चित्रण किया है।' चूर्णिकार ने उनका केवल नामोल्लेख किया है। सात नरक माने जाते हैं । स्थानांग में उनके सात नाम और गोत्रों का उल्लेख है। वे नरक गोत्रों के नाम से ही पहचाने जाते हैं। नरकों के नाम१. धर्मा २. वंशा ३. शैला ४. अंजना ५. रिष्टा ६. मघा ७. माघवती। नरकों के गोत्र१. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. बालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमा ७. तमस्तमा । अधोलोक में सात पृथिवियां (नरक) हैं । इन पृथ्वियों के एक दूसरे के अन्तराल में सात तनुवात (पतली वायु) और सात अवकाशान्तर हैं । इन अवकाशान्तरों पर तनुवात, तनुवातों पर घनवात, घनवातों पर घनोदधि और इन सात घनोदधियों पर फूल की टोकरी की भांति चौड़े संस्थान वाली पृथ्वियां (नरक) हैं।' प्रस्तुत आगम के २।२।६० में समुच्चय में नरकावासों के संस्थान-आकार-प्रकार, उनकी अशुचिता तथा भयंकर वेदना का १. चूणि, पृ० १२२ : दव्वणिरओ तु इहेव जे तिरिय-मणुएसु असुद्धठाणा चारगादि खडा-कडिल्लग-कंटगा-वंसकरिल्लादीणि असुभाई ठाणाई, जाओ य गरगपडिरूवियाओ वेषणाओ दोसंति जधा सो कालसोअरिओ मरितुकामो वेदणासमण्णागओ ___ अट्ठारसकम्मकम्मकारणाओ वा वाधि-रोग-परपोलणाओ वा एवमादि . . . . . . . . . ' । २ चूणि, पृ० १२२ : भावणरगा . . . . . 'अधवा (सद्द-) रूव-रस-गंध-फासा इहेव कम्मुदयो रइयपायोग्गो, जधा कालसोअरियस्स इहमवे चेव ताई कम्माई नेरइयभाव-भाविताई भावनरकः । ३. (क) चूणि, पृ० १२२-१२३ । (ख) वृत्ति, पत्र १२१-१२३ । ४. वृत्ति, पत्र १२२। ५. वही, पत्र १२२। ६. ठाणं ७।२३-२४ । ७. ठाणं, ७.१४-२२। Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३३ अध्ययन ५ प्रमुख कथन है । वे नारकीय जीव न सोकर नींद ले सकते है, न बैठकर विश्राम कर सकते है, न उनमें स्मृति होती है, न रति, न धृति और न मति। वे वहां प्रगाढ़ और विपुल, चंड और रौद्र, असह्य वेदना का अनुभव करते हुए काल-यापन करते हैं । बौद्ध साहित्य में भी नारकीय वेदना का यही रूप है। वहां कहा गया है - वे अधमजीव नरक में उत्पन्न होकर अत्यन्त दुःखप्रद, तीव्र, दारुण और कटुक वेदना को भोगते हैं । ' नारकीय जीव तीन प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं १. परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पादित वेदना । २. परस्परोदीरित वेदना । ३. नरक के क्षेत्र विशेष में स्वाभाविकरूप से उत्पन्न वेदना । इन सात पृथ्वियों में प्रथम तीन - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा - में पनरह परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पादित कष्टों का अनुभव नारकजीव करते हैं। चार पृथिवियों - पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा और तमस्तमा में नारकीयजीव अत्यधिक वेदना का अनुभव करते हैं। यह क्षेत्रविपाकी वेदना है। उन नरकावासों का ऐसा ही अनुभाव है कि वहां रहने वाले प्राणी अत्यन्त दुःसह कष्टों का अनुभव करते हैं ।" उन नरकावासों में नारकीयजीव परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे को मारते हैं, पीटते हैं, अंगच्छेद करते हैं—यह वेदना भी वहां से प्राप्त है । प्रचुरता प्रथम तीन नरकों में तीनों प्रकार की वेदनाएं प्राप्त होती हैं और शेष चार में केवल दो प्रकार की वेदनाएं - क्षेत्रविपाकी वेदना और परस्परोदीरित वेदना- प्राप्त होती हैं। आगमकार के अनुसार छठी सातवीं नरक में नैरयिक बहुत बड़े-बड़े रक्त कुंथुओं को पैदा कर परस्पर एक-दूसरे के शरीर को काटते हैं, खाते हैं। स्थानांग सूत्र में नारकीय जीवों द्वारा भोगी जाने वाली दस प्रकार की वेदना का उल्लेख प्राप्त है १. शीत २. उष्ण ३. क्षुधा ४. पिपासा ५. खुजलाहट ६. परतंत्रता ७. भय ८. शोक ६. जरा १०. व्याधि । छतीसवें श्लोक में प्रयुक्त 'संजीवनी' शब्द से चूर्णिकार ने नरकावासों की स्वाभाविकता का वर्णन किया है। उन नरकावासों में नारकीय जीवों को सतत कष्ट पाना होता है। वे अपनी स्थिति से पहले मरते नहीं। वे छिन्न-भिन्नतया मूच्छित होकर भी भयंकर वेदना का अनुभव करते हैं । पारे की तरह उनका सारा शरीर बिखर जाता है, पर पानी के छींटे पड़ते ही वे पुनः जीवित हो जाते हैं । इसलिए उन नरकावासों को 'संजीवन' कहा गया है । बौद्ध परम्परा में आठ ताप नरक माने जाते हैं । आठवें नरक 'संजीव' का वर्णन भी उपरोक्त वर्णन की तरह ही है । संजीव नरक में पहले शरीर भग्न होते हैं, फिर रजःकण जितने सूक्ष्म हो जाते हैं । पश्चात् शीतलवायु से वे पुनः सचेतन हो जाते हैं ।' प्रस्तुत अध्ययन में अग्नि के विषय में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त होती है। नरक में बादर अग्नि नहीं होती । वहां के कुछ स्थानों के पुद्गल भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं । वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं । १. मज्झिमनिकाय ४५।२।२ : निरयं उपपज्जंति ते तत्थ दुक्खा तिव्वा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति । २. चूर्ण, पृ० १२३ । ते पुण जाव तच्चा पुढवी, सेसासु णत्थि । सेसासु पुण अणुभाववेदणा चैव वेदेति । ३. चूर्णि पृ० १२३ । वृत्ति, पत्र १२३ । ४. जीवाजीवाभिगम ३।१११ । ५. ठाणं १०।१०८ । ६. अभिधम्मकोश पृ० ३७२, आचार्य नरेन्द्रदेव कृत । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३४ ग्यारहवें श्लोक में काली आभा वाले अचित्त अग्निकाय का उल्लेख है । पैंतीसवें श्लोक में सूत्रकार ने अग्नि के साथ 'विधूम' शब्द का प्रयोग किया है । वह निर्धूम अग्नि का वाचक है। इंधन के विना धूम नहीं होता। नरक में धन से प्रज्वलित अग्नि नहीं होती निर्धूम अति की तुलना आज के विद्युत् से की जा सकती है । वह अग्नि वैक्रिय से उत्पन्न होती है । वह पाताल में उत्पन्न और अनवस्थित रहती है । उसमें संघर्षण प्रक्रिया की कोई आवश्यकता नहीं रहती । एक प्रश्न होता है कि नरकावासों में उत्पन्न जीवों की वेदना का आधार क्या है ? वर्तमान जीवन में वे जिस प्रकार का पापाचार करते है, उसी प्रकार के व्यवहार से उन्हें पीड़ित किया जाता है, अथवा दूसरे प्रकार से ? नारकीय जीव अपने-अपने कर्मों की मंदता, तीव्रता और मध्यम अवस्था के आधार पर मंद, तीव्र या मध्यम परिणाम वाली वेदना भोगते हैं । उनको पूर्व जीवन के पापाचरणों की स्मृति कराई जाती है । उनको उसी प्रकार से न छेदा जाता है, न मारा जाता है और न उनका वध किया जाता है। पुत्राचरित सारे पाप कर्मों की स्मृति कराकर उन्हें पीड़ित किया जाता है।" नारकीय जीवों की वेदना तीन प्रकार से उदीर्ण होती है-स्वतः परतः और उभयतः । उभयतः उदीर्ण होने वाली वेदना के कुछेक प्रकारों की सूचना चूर्णिकार ने छबीसवें श्लोक की चूर्णि में प्रस्तुत की है' - जो जीव पूर्वभव में मांस खाते थे उन्हें उन्हीं के शरीर का मांस खिलाया जाता है । झूठ बोलने वालों की जीभ निकाल ली जाता है । चारों के अंगोपांग काट दिए जाते हैं । परस्त्रीगामी जीवों के वृषण छेदे जाते हैं तथा अग्नि में तपे लोहस्तंभों से आलिंगन करने के लिए बाध्य किया जाता है । जो क्रोधी स्वभाव के थे उनमें क्रोध उत्पन्न कर पीटते हैं । जो मानी स्वभाव के थे उनकी अवहेलना की जाती है । जो मायावी थे उनको नानाप्रकार से ठगा जाता है । अध्ययन ५ प्रामुख प्रथम तीन नरकावासों – रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा - में परमाधार्मिक देव नारकीयजीवों को वेदना देते हैं । वे देव पनरह प्रकार के हैं । उनके नामों का और कर्मों का विवरण नियुक्तिकार ने प्रस्तुत किया है । उनके कार्यानुरूप नाम हैं । उनका विवरण इस प्रकार है १. अंब - अपने निवास स्थान से ये देव आकर अपने मनोरंजन के लिए नारकीय जीवों को इधर-उधर दौड़ाते हैं, पीटते हैं, उनको ऊपर उछालकर शूलों में पिरोते हैं। उन्हें पृथ्वी पर पटक-पटक कर पीड़ित करते हैं । उन्हें पुनः अंबर - आकाश में उछालते हैं, नीचे फेंकते हैं। २. अंबरिषी मुद्गरों से आहत, खड्ग आदि से उपहत, मूच्छित उन नारकियों को ये देव करवत आदि से चीरते हैं, उनके छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं। - ३. श्याम —– ये देव जीवों के अंगच्छेद करते हैं, पहाड़ से नीचे गिराते है, नाक को बींधते हैं, रज्जु से बांधते हैं । ४. शबल -- ये देव नारकीय जीवों की आंतें बाहर निकाल लेते हैं, हृदय को नष्ट कर देते हैं, कलेजे का मांस निकाल लेते हैं, चमड़ी उधेड़ कर उन्हें कष्ट देते हैं | ५. रौद्र – ये अत्यन्त क्रूरता से नारकीय जीवों को दुःख देते हैं । ६. उपरोधये देव नारकों के अंग-भंग करते हैं, हाथ हों । १. चूर्ण, पृ० १३७ : बिना काष्ठै: अकाष्ठा वैकिकालमवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था । २. बही, पृ० १३१ । वृत्ति, पत्र १९३२ । ३. वही, पृष्ठ १३३ ॥ को देते हैं। ऐसा एक भी कर्म नहीं, जो ये न करते Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३५ अध्ययन ५: प्रामुख ७. काल—ये देव नारकियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के कडाहों में पकाते हैं, उबालते हैं और उन्हें जीवित मछलियों की तरह सेंकते हैं। ८ महाकाल-ये देव नारकों के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, पीठ की चमड़ी उधेड़ते हैं और जो नारक पूर्वभव में मांसाहारी थे उन्हें वह मांस खिलाते हैं । ६. असि—ये देव नारकीय जीवों के अंग-प्रत्यंगों के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं, दुःख उत्पादित करते हैं। १०. असिपत्र (या धनु)--ये देव असिपत्र नाम के वन की विकुर्वणा करते हैं। नारकीय जीव छाया के लोभ से उन वृक्षों के नीचे आकर विश्राम करते हैं । तब हवा के झोंकों से असिधारा की भांति तीखे पत्ते उन पर पड़ते हैं और वे छिद जाते हैं । ११. कुंभि (कुंभ)-ये देव विभिन्न प्रकार के पात्रों में नारकीय जीवों को डालकर पकाते हैं । १२. बालुक-ये देव गरम बालू से भरे पात्रों में नारकों को चने की तरह भुनते हैं। १३. वैतरणी-ये नरकपाल बैतरणी नदी की विकुर्वणा करते हैं। वह नदी पीब, लोही, केश और हड्डियों से भरी-पूरी होती है। उसमें खारा गरम पानी बहता है । उस नदी में नारकीय जीवों को बहाया जाता है। १४. खरस्वर-ये नरकपाल छोटे-छोटे धागों की तरह सूक्ष्म रूप से नारकों के शरीर को चीरते हैं। फिर उनके और भी सूक्ष्म टुकड़े करते हैं । उनको पुनः जोड़कर सचेतन करते हैं । कठोर स्वर में रोते हुये नारकों को शाल्मली वृक्ष पर चढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं । वह वृक्ष वज्रमय तीखे कांटों से संकुल होता है। नारक उस पर चढ़ते हैं। नरकपाल पुनः उन्हें खींचकर नीचे ले आते हैं । यह क्रम चलता रहता है। १५. महाघोष-ये सभी असुरदेवों में अधम जाति के माने जाते हैं। ये नरकपाल नारकों को भीषण वेदना देकर परम मुदित होते हैं। यह पनरह परमाधार्मिक देवों-नरकपालों का संक्षिप्त विवरण है। नियुक्तिकार ने सतरह गाथाओं में नरकपालों के नाम और उन नामों के अनुरूप कायों का निर्देश दिया है।' चूर्णिकार ने इन गाथओं की विशेष व्याख्या नहीं की है। वृत्तिकार ने इनका विस्तार से वर्णन किया है।' प्रस्तुत अध्ययन के दो उद्देशक हैं । पहले उद्देशक में २७ और दूसरे में २५ श्लोक हैं। इन श्लोकों में नरकों में प्राप्त वेदनाओं का सांगोपांग वर्णन है । पचासवें श्लोक में कहा गया है कि प्राणी अपने पूर्व भव में तीव्र, मंद और मध्यम अध्यवसायों से पापकर्म करता है और उसी के अनुरूप उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम स्थिति वाले कर्मों का बन्ध कर उस काल स्थिति तक कर्मों का वेदन करता है। उन नरकों में 'अच्छिणिमोलियमेत्तं णस्थि सुहं किंचि कालमणुबद्ध-आंख की पलकें झपके उतने समय का भी सुख नहीं है। वस्तुतः यह अध्ययन अठारह पापों के आचरण के प्रति विरक्ति पैदा करता है। सूत्रकार के अनुसार नारकीय वेदना से मुक्त होने के उपाय हैं १. हिंसा-निवृत्ति २. सत्य आदि का आचरण ३. असंग्रह का पालन ४. कषाय-निग्रह ५. अठारह पापों से निवृत्ति ६. चारित्र का अनुपालन ।' १. नियुक्ति गाथा ५६-७५ । २. चूर्णि, पृ० १२३-१२६ । ३. वृत्ति, पत्र १२३-१२६ । ४. चूणि, पृ० १३६ । जारिसाणि तिब्व-मंद-मज्झिम-अज्झवसाएहि जघण्णमज्झिमुक्किट्ठठितीयाणी कम्माणि कताणि तं तधा अणुभवंति। ५. चूणि, पृ० १३० में उद्धृत । ६. सूयगडो ५.५१,५२। Jain Education Intemational al Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : पांचवां अध्ययन गरयविभत्ती : नरक-विभक्ति पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.पूच्छिसहं केवलियं महेसि कहंऽभितावा गरगा पुरत्या ? अजाणओ मे मुणि बूहि जाणं कहं णु बाला जरगं उर्वेति ? ॥१॥ अप्राक्षमहं कैवलिक महर्षि कथमभितापा नरकाः पुरस्तात् । अजानतो मे मुने ! ब्रूहि जानन्, कथं नु बाला नरकमपयन्ति ?॥ १. (सुधर्मा ने जंबू से कहा) मैंने केवल. ज्ञानी महर्षि महावीर से पूछा था कि नरक में कैसा ताप (कष्ट) होता है ? हे मुने ! मैं नहीं जानता, आप जानते हैं इसलिए मुझे बताएं कि अज्ञानी जीव नरक में कैसे जाते हैं ? २. एवं मए पुढे महाणुभावे इणमब्बवी कासवे आसुप्पण्णे। पवेयइस्सं दुहमट्ठदुग्गं आदीणियं दुक्कडिणं पुरत्या ।२। एवं मया पृष्टो महानुभावः, इदमब्रवीत् काश्यपः आशुप्रज्ञः । प्रवेदयिष्यामि दुःखार्थं दुर्ग, आदीनिकं दुष्कृतिनं पुरस्तात् ।। २. मेरे द्वारा ऐसा पूछने पर महानुभाव, आशुप्रज्ञ, कश्यपगोत्रीय महावीर ने यह कहा-'दुःखदायी, विषम,' अत्यन्त दीन और जिसमें दुराचारी जीव रहते हैं, उस नरक के विषय में मैं तुम्हें बताऊंगा। ३. जे केइ बाला इह जीवियट्टी पावाइं कम्माइं करेंति रुद्दा। ते घोररूवे तिमिसंधयारे तिव्वाभितावे णरए पडंति ।। ये केचिद् बाला इह जीवितार्थिनः, पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रुद्राणि । ते घोररूपे तमिस्रान्धकारे, तीव्राभितापे नरके पतन्ति ॥ ३. कुछ अज्ञानी मनुष्य जीवन के आकांक्षी होकर रौद्र पापकर्म करते हैं। वे महावोर, सघन अंधकारमय,' तीव्र ताप वाले नरक में जाते हैं । ४. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य तीवं त्रसान् प्राणिनः स्थावरांश्च, जे हिंसई आयसुहं पडुच्चा । यो हिनस्ति आत्मसुखं प्रतीत्य । जे लूसए होइ अदत्तहारी यो लूषको भवति अदत्तहारी, ण सिक्खई सेयवियस्स किचि ।। न शिक्षते सेव्यस्य किञ्चित् ॥ ४. जो अपने सुख के लिए क्रूर अध्यवसाय से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं, अंगच्छेद करते हैं, चोरी करते हैं और सेवनीय (आचरणीय) का अभ्यास नहीं करते (वे नरक में जाते हैं ।) ५. पागब्भि पाणे बहुणं तिवाई अणिव्वुडे घायमुवेइ बाले। णिहो णिसं गच्छइ अंतकाले अहोसिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ प्रागल्भी प्राणानां बहूनां अतिपाती, अनिर्वतः घातमुपैति बालः । न्यक् निशां गच्छति अन्तकाले, अधः शिरः कृत्वा उपैति दुर्गम् ।। ५. जो ढीठ मनुष्य" अनेक प्राणियों को मारते हैं, अशान्त हैं, वे अज्ञानी आघात को प्राप्त होते हैं। वे जीवन का अन्तकाल होने पर नीचे अंधकारपूर्ण रात्री को प्राप्त होते हैं और नीचे सिर हो दुर्गम नरक में उत्पन्न होते Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३८ प्र०५: नरकविभक्ति: श्लोक ६-१२ ६. हण छिदह भिदह णं दहेह हत छिन्त भिन्त दहत, ६. वे नैरयिक परमाधार्मिक देवों के 'मारो, सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं। शब्दान् श्रुत्वा पराधार्मिकाणाम् । काटो, टुकड़े करो, जलाओ'-ये शब्द ते णारगा ऊ भयभिण्णसण्णा ते नारकाः तु भयभिन्नसंज्ञाः, सुन कर भय से संज्ञाहीन हो जाते हैं कंखंति कंणाम दिसं वयामो?।६।। कांक्षन्ति का नाम दिशं व्रजामः?॥ और यह आकांक्षा करते हैं कि हम किस दिशा में जाएं ?" ७. इंगालरासि जलियं सजोइं अङ्गारराशिः ज्वलितः सज्योतिः, ७. वे जलती हुई ज्योति सहित अंगारतओवमं भूमिमणक्कमंता। तदुपमां भूमि अनुक्रामन्तः । राशि" के समान भूमि पर चलते हैं। ते डज्झमाणा कलुणं थणंति ते दह्यमानाः करुणं स्तन्ति, उसके ताप से जलते हुए वे चिल्लाअरहस्सरा तत्थ चिरट्टिईया।। ___ अरहःस्वराः तत्र चिरस्थितिकाः ॥ चिल्ला कर" करुण क्रन्दन करते हैं।" वे चिरकाल तक" उस नरक में रहते ८. जइ ते सुया वेयरणीऽभिदुग्गा यदि ते श्रुता वैतरणी अभिदुर्गा, ८. तेज छुरे जैसी तीक्ष्ण धार वाली अतिणिसिओ जहा खुर इव तिवखसोया। निशितो यथा क्षुर इव तीक्ष्णश्रोताः । दुर्गम वैतरणी नदी" के बारे में तुमने तरंति ते वेयरणीऽभिदुग्गं तरन्ति ते वैतरणीमभिदुर्गा, सुना होगा। वे नरयिक बाणों से बींधे उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा।। इषचोदिताः शक्तिभिर्हन्यमानाः ।। और भाले से मारे जाते हुए उस वैतरणी नदी में उतरते हैं। ६. कोलेहि विझति असाहुकम्मा कोलेहि' विध्यन्ति असाधुकर्माणः, ६. क्रूरकर्मा परमाधार्मिक देव (वैतरणी णावं ते सइविप्पहूणा। नावमुपयतः स्मृतिविप्रहीनान् ।। नदी से डर कर) नाव के पास आते अण्णे तु सूलाहि तिसूलियाहिं अन्ये तु शुलैः त्रिशूलैः, हुए उन स्मृतिशून्य" नैरयिकों की दोहाहि विभ्रूण अहे करेंति ।। दीर्धेः विद्ध्वा अधः कुर्वन्ति ।। गरदन को बींध डालते हैं। कुछ परमाधार्मिक उन्हें लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींध कर नीचे भूमि पर गिरा देते हैं। १०. केसि च बंधित्तु गले सिलाओ केषाञ्च बध्वा गले शिलाः, १०. कुछ परमाधार्मिक देव किन्हीं के गले उदगंसि बोलेंति महालयंसि। उदके ब्रोडयन्ति महति । में शिला बांधकर उन्हें अथाह पानी में कलंबुयावालुयमुम्मुरे य कलम्बुकाबालुकामुर्मुरे च, डुबो देते हैं। (वहां से निकाल कर) लोलेंति पच्चंति य तत्थ अण्णे ।१०। लोलयन्ति पचन्ति च तत्र अन्ये ॥ तुषाग्नि को भांति (वैतरणी के) तीर की" तपी हुई बालुका में उन्हें लोट पोट करते हैं ओर भूनते हैं। ११. असूरियं णाम महाभितावं असूर्य नाम महाभितापं, ११. असूर्य नाम का महान् संतापकारी अंधं तमं दुप्पतरं महंतं। अन्धंतमः दुष्प्रतरं महत् । एक नरकावास है। वहां घोर अंधकार उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु ऊर्ध्वमधश्च तिर्यगदिशासु, है। जिसका पार पाना कठिन हो समाहिओ जत्थगणी झियाइ।११। समाहितो यत्राग्निः धमति ॥ इतना विशाल है। वहां ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में निरंतर आग जलती है। १२. जंसी गुहाए जलणेऽतिवट्टे यस्मिन् गुहायां ज्वलनेऽतिवृत्तः, १२. उसकी गुफा में नारकीय जीव ढकेला अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो। अविजानन् दह्यते लुप्तप्रज्ञः । जाता है। वह प्रज्ञाशून्य नैरयिक सया य कलुणं पुण धम्मठाणं सदा च करुणं पुनर्घर्मस्थानं, निर्गम-द्वार को नहीं जानता हुआ" गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म १२॥ गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् उस अग्नि में जलने लग जाता है । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २३६ प्र० ५: नरकविभक्ति: श्लोक १३-१८ नैरयिकों के रहने का वह स्थान सदा तापमयर और करुणा उत्पन्न करने वाला है। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है।" १३. चत्तारि अगणीओ समारभेत्ता चतुरोग्नीन् समारभ्य, १३. क्रूरकर्मा नरकपाल नरकावास में चारों जहि करकम्मा भितवेंति बालं। यस्मिन क्र रकर्माणोऽभितापयन्ति बालम्।। दिशाओं में अग्नि जलाकर उन अज्ञानी ते तत्थ चिट्ठतऽभितप्पमाणा ते तत्र तिष्ठन्त्यभितप्यमाना :, नारकों को तपाते हैं ।५ वे ताप सहते मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥१३॥ मत्स्या इव जीवन्त उपज्योतिःप्राप्ताः ।। हुए वहां पड़े रहते हैं, जैसे अग्नि के समीप ले जाई गई जीवित मछलियां"। १४. संतच्छणं णाम महाभितावं सन्तक्षणं नाम महाभितापं, १४. संतक्षण" नाम का महान् संतापकारी ते णारगा जत्थ असाहुकम्मा। तान् नारकान् यत्र असाधुकर्माणः ।। एक नरकावास है, जहां हाथ में कुठार हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बध्वा लिए हुए नरकपाल अशुभकर्म वाले उन फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ।१४। फलकमिव तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥ नैरपिकों के हाथों और पैरों को बांध कर उन्हें फलक की भांति छील डालते हैं। १५. रुहिरे पुणो वच्च-समुस्सियंगे रुधिरे पुनः वर्चःसमच्छिताङ्गान्, भिण्णुत्तिमंगे परिवत्तयंता। भिन्नोत्तमाङ्गान् परिवर्तयन्तः । पयंति णं णेरइए फुरते पचन्ति नैरयिकान् स्फुरतः, सजीवमच्छे व अयो-कवल्ले ॥१५॥ सजीवमत्स्यानिवायस्-'कवल्ले' ॥ १५. वे नरकपाल खून से सने, मल से लथपथ, सिर फूटे, तड़फते नरयिकों को उलट-पुलट करते हुए उन्हें जीवित मछलियों की भांति लोहे की कडाही में पकाते हैं। १६. णो चेव ते तत्थ मसीभवंति नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, ण मिज्जई तिव्वभिवेयणाए। न म्रियन्ते तीव्राभिवेदनया । तमाणुभागं अणुवेययंता तमनुभागमनुवेदयन्तः, दुक्खंति दुक्खो इह दुक्कडेणं ।१६। दुःखन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥ १७. तहिं च ते लोलणसंपगाढे तस्मिश्च ते लोलनसंप्रगाढे, गाढं सुतत्तं अगणि वयंति। गाढं सुतप्तमग्नि व्रजन्ति । ण तत्थ सायं लभंतीऽभिदुग्गे न तत्र सातं लभन्तेऽभिदुर्ग, अरहियाभितावे तह वी तवेति ।१७। अरहिताभितापे तथापि तापयन्ति ।। १६. वे वहां (पकाने पर भी) जल कर राख नहीं होते । तीव्र वेदना से पीड़ित होकर भी वे नहीं मरते ।" वे अपने किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं और अपने ही दुष्कृत से दुःखी बने हुए दुःख का अनुभव करते हैं। १७. वे शीत से व्याप्त नरकावास में (शीत से पीड़ित होकर) घनी धधकती आग की ओर जाते हैं। किन्तु उस दुर्गम स्थान में वे सुख को प्राप्त नहीं होते । वे निरंतर ताप वाले स्थान में चले जाते हैं, फिर नरकपाल (गरम तेल डाल कर) उन्हें जलाते हैं।" १८. वहां दुःख से निकले हुए शब्दों का कोलाहल, नगर के सामूहिक हत्याकांड के समय होने वाले कोलाहल की भांति सुनाई देता है। उदीर्ण कर्म वाले नरकपाल,"बड़े उत्साह के साथ, उदीर्ण कर्म वाले नैरयिकों को बार-बार सताते हैं । १८. से सुव्वई गरवहे व सद्दे अथ श्रूयते नगरवध इव शब्दः, दुहोवणीताण पदाण तत्थ । दुःखोपनीतानां पदानां तत्र । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा उदीर्णकर्मणां उदीर्णकर्माणः, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ।१८। पुनः पुनस्ते सरभसं दुःखयन्ति ।। Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २४० १९. पाणेहि णं पाव विभोजयंति तं मे पवरसामि महाराणं । दंडेहि तत्था सरयंति बाला प्राणैः पापा वियोजयन्ति तद् भवद्द्भ्यः प्रवक्ष्यामि यथातथेन । दण्डैस्त्रस्तान् स्मारयन्ति बालाः, सम्वेहि दंडेहि पुराकएहि । १६ । सर्वैः " दण्डे पुराकृतैः ॥ २०. से हम्ममाणा परगे पति पुष्णे दुरुयस्स महाभितावे । ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभवखी तुति कम्मोगया किमीहि ॥२०॥ । २१. समा कसिणं पुण घम्मठाणं गाटोवणीयं अदुक्खधम्मं । अंदू पविखप्य विहतु देहं वेण सीसं सेऽभितावयंति । २१॥ २३. ते तिप्पमाणा तलसंपुड व्व राइदियं तत्थ थणंति बाला । गलति ते सोणिवपूयमंसं पन्जोइया २४. जइ ते सुया लोहियपूयपाई बालागणी तेपगुणा परेणं । कुंभी महंताऽहियपोरसीया समूसिया लोहिपूयपुण्णा | २४| ते पूर्णे हन्यमाना नरके पतन्ति, 'दुस्वरस' महाभितापे । ते तत्र तिष्ठन्ति ' दुरूव' भक्षिण:, तुदुद्यन्ते कर्मोपगता: कृमिभिः ॥ सदा कृत्स्नं पुनर्धर्मस्थानं, गाढोपनीतमतिदुः खधर्मम् अन्दूषु प्रक्षिप्य विहत्य देहं, वेधेन शीर्षं तस्याभितापयन्ति ॥ २२. छिति बालस्स सुरेण णवर्क ओट्ठे विछिदंति दुवे विकण्णे । जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमेत्तं तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति । २२ ॥ तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥ प्र० ५ : नरकविभक्ति: श्लोक १६-२४ १६. दुष्ट नरकपाल नारकियों के प्राणों (शरीर के अवयवों और इन्द्रियों) का वियोजन करते हैं। (वे ऐसा क्यों करते हैं ) उसका यथार्थ कारण मैं तुम्हें बताऊंगा । वे विवेकशून्य नरकपाल दंड से संत्रस्त नैरयिकों को उनके पहले किए हुए सब पापों की याद दिलाते हैं । छिन्दन्ति बालस्य क्षुरेण न औष्ठ अपि छिन्दन्ति द्वावपि कर्णौ । जिह्वां विनिष्कास्य वितस्तिमात्रां, खारपदिद्धियंगा | २३ | प्रद्योतिताः ते तिप्यमानास्तलसंपुट इव, रात्रिदिवं तत्र स्वनन्ति बालाः । गलन्ति ते शोणितपूवमासं क्षारप्रदिग्धाङ्गाः ॥ यदि तव श्रुता लोहितपूयपाचिनी, वालाग्नितेजोगणा परेण महत्यधिकपौरुषीया लोहितपूयपूर्णा ।। कुम्भी समुच्छ्रिता 1 २०. वे नारकीय जीव नरकपालों द्वारा पीटे जाने पर, छुपने के लिए इधर-उधर दौड़ते हुए, महान् संतापकारी, मल से भरे हुए, " नरकावास में जा पड़ते हैं।' वे अपने कर्म के वशीभूत होकर मल खाते हैं और कृमियों द्वारा काटे जाते हैं। म ४८ २१. नैरयिकों के रहने का संपूर्ण स्थान सदा तापमय होता हैं। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है । नरकपाल उनके शरीर को हृत प्रहत कर, बेड़ियों में डाल सिर को बींध, उन्हें ताते है। 7 २२. वे नरकपाल उस अज्ञानी नैरयिक का छुरे से नाक, होठ और दोनों कान काटते हैं और जीभ को वित्ता भर बाहर निकाल कर तीखे शूलों से बींधते हैं । २३. तप के संपुट की भांति" हाथों और पैरों को संपुटित कर देने पर वे अज्ञानी नैरयिक वहां रात-दिन चिल्लाते हैं। जले हुए तथा खार छिड़के हुए शरीर से लोही, पीब और मांस गिरते रहते हैं । 1 २४. यदि तुमने सुना हो, २ नरक में पुरुष से बड़ी" ची एक महान कभी" है। वह रक्त और पीब को पकाने वाली, अभिनव प्रज्वलित अग्नि से अत्यन्त तप्त और रक्त तथा पीब से भरी हुई है । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृस्सरे ते तं तृषादिता आर्ततरं रसन्ति सूयगडो १ २४१ अ०५: नरकविभक्ति : श्लोक २५-३० २५. पविखप्प तासु पपचंति बाले प्रक्षिप्य तासु प्रपचन्ति बालान्, २५. नरकपाल आर्त्त और करुण स्वर से अदृस्सरे ते कलुणं रसंते। आर्तस्वरान् तान् करुणं रसतः । आक्रन्दन करने वाले उन अज्ञानी नैरतण्हाइया ते तउतंबतत्तं तृषादितास्ते अपुताम्रतप्तं, यिकों को कुंभी में डालकर पकाते हैं। पज्जिज्जमाणट्टयरं रसंति ।२५॥ पाय्यमानाः आर्त्ततरं रसन्ति ।। प्यास से व्याकुल नैरयिकों को जब तपा हुआ शीशा और तांबा पिलाया जाता है तब वे अत्यन्त आर्त स्वर में चिल्लाते हैं। २६. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता आत्मनात्मानमिह वञ्चयित्वा, २६. पूर्ववर्ती अधम भवों में सैंकड़ों-हजारों भवाहमे पुव्वसए सहस्से । भवाधमे पूर्वशते सहस्र । बार स्वयं से स्वयं को ठग कर वे चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणः, क्रूर कर्म करने वाले प्राणी नरकावास जहाकडे कम्म तहा से भारे ।२६। यथाकृतं कर्म तथा तस्य भारः ॥ में पड़े रहते हैं। जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही उसका भार (दुःख-परिमाण) होता है।५८ २७. समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा संमयं कलषमनार्या, इठेहि कंतेहि य विष्पहूणा। इष्टः कान्तश्च विप्रहीनाः । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे ते दुरभिगन्धे कृष्णे च स्पर्श, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ।२७। कर्मोपगाः कूणपे आवसन्ति । २७. वे अनार्य पाप" का अर्जन कर, इष्ट और कांत विषयों से विहीन हो, कर्म की विवशता से दुर्गन्ध-युक्त और अनिष्ट स्पर्श वाले अपवित्र स्थान में आवास करते हैं। -त्ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि ।। ----ऐसा मैं कहता हूं। बोनो उद्देसो : दूसरा उद्देशक २८. अहावरं सासयदुक्खधम्म अथापरं शाश्वतदुःखधर्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं । तद् भवद्भ्यः प्रवक्ष्यामि यथातथेन । बाला जहा दुक्कडकम्मकारी बाला यथा दुष्कृतकर्मकारिणो, वेयंति कम्माइं पुरेकडाई।१॥ वेदयन्ति कर्माणि पुराकृतानि ।। २८. अब मैं तुम्हे शाश्वत दुःख-धर्म वाले दूसरे नरकों के विषय में यथार्थरूप में बताऊंगा। अज्ञानी प्राणी जैसे दुष्कृत कर्म करते हैं वैसे ही उन पूर्वकृत कर्मों का फल भोगते हैं। २६. हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बद्धवा, उदरं विकत्तंति खुरासिएहि । उदरं विकर्त्तयन्ति क्षुरासिकैः । गेण्हित्तु बालस्स विहत्तु देहं गृहीत्वा बालस्य विहत्य देह, वद्धं थिरं पिट्टउ उद्धरंति ।२॥ वज्र स्थिर पृष्ठत उद्धरन्ति ।। २६. नरकपाल नैरयिकों के हाथ और पैर बांधकर छुरे और तलवार से उनके पेट फाडते हैं, उन्हें पकड़ शरीर को हतप्रहत कर पीठ की" सुदृढ़ चमड़ी को बीच में बिना तोड़े उधेड़ते हैं। ३०. बाहू पकत्तंति य मूलओ से बाहू प्रकर्तयन्ति च मूलतस्तस्य, थूलं वियासं मुहे आडहंति । स्थलं विकाशं मुखे आदहन्ति । रहंसि जुत्तं सरयंति बालं रथे युक्तं सारयन्ति बाल आरुस्स विझति तुदेण पढें ।३। आरुष्य विध्यन्ति तोदेन पृष्ठे॥ ३०. वे नैरयिक की भुजाओं को मूल से ही काटते हैं। उसके मुंह को फाड़ कर बड़े-बड़े (तपे हुए लोहे के) गोलों से उसे जलाते हैं। उस अज्ञानी को रथ में जोत कर चलाते हैं और रुष्ट होकर पीठ पर कोड़े मारते हैं।" dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३१. अयं व तत्तं जलियं सजोई तओवमं भूमिमणुक्कर्मता । ते उज्झमाणा कलणं थणंति उसुच्चोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥४॥ ३२. बाला बला भूमिमणुक्कमंता पविज्जलं लोहपहं वततं । जंसीऽभिदुग्गंसि पवज्जमाणा पेसे व दंडेहि पुरा करेति ॥५॥ ३३. ते संपगाढंमि पवज्जमाणा सिलाहि हम्मेति भिपातिणीहि संतावणी णाम चिरईया संतप्पई जत्थ असाहुम्मा |६| ३४. कंदू पविखप्य पति बाल तओ विदड्ढा पुण उप्पतंति । ते उड्ढकाएहि पतजमाणा अवरेहि खज्जति सनकहिं 101 ३५. समूसियं णाम विधूमठाणं जं सोयतत्ता कतुणं वर्णति । अहोसिर कट्ट विगतिऊणं अयं व सत्थेहि समूसर्वेति |८| ३६. समूसिया तत्थ विसूणियंगा पवखीहि सज्जति अओोमुहेहि । संजीवणी णाम चिरट्टिईया जंसी पया हम्मइ पावचेया ॥ ६ ॥ २४२ अय इव तप्तां ज्वलितां सज्योतिषं तदुपमां भूमिमनुक्रामन्तः । ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति, इचोदितास्तप्तयुगेष मुक्ताः ॥ अ० ५ नरकविभक्ति: श्लोक ३१-३६ ३१. तप्त लोह की भांति जलती हुई अग्नि जैसी भूमि पर चलते हुए वे जलने पर" करुण रुदन करते हैं । वे बाण से बीधे जाते हैं और ये हुए हुए से जुते रहते हैं । वाला बलाद् भूमिमनुक्रामन्तः, 'प्रविज्जला' लोहपथमिव तप्ताम् । यस्मिन् अभिदुर्गे प्रपद्यमानाः प्रेष्यानिव दण्डैः पुरः कुर्वन्ति ॥ ते संप्रगाढे प्रपद्यमानाः, शिलाभिर्हन्यन्तेऽभिपातिनीभिः 1 संतापनी नाम चिरस्थितिका, सन्तप्यते यत्रासाधकर्मा || कन्दुषु प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततो विदग्धा: पुनरुत्पतन्ति । ते 'उड्डु' काकैः प्रखाद्यमानाः, अपरैः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥ समुच्छ्रित नाम विधूमस्थानं । यत् शोकतप्ताः करुणं स्तनन्ति । अधः शिरः कृत्वा विक, अजमिव शस्त्रेषु समुच्छ्राययन्ति ॥ समुच्छितास्तत्र विसूनिताङ्गाः, पक्षिभिः खाद्यतेऽयो | संजीवनी नाम चिरस्थितिका, यस्यां प्रजाः हन्यन्ते पापचेतसः ॥ ३२. नरकपाल उन अज्ञानी नैरयिकों को रक्त और पीब से सनी लोहपथ की भांति तप्त भूमि पर बलात् चलाते हैं। उस दुर्गम स्थान में चलते हुए उन नैरयिकों को प्रेष्यों की भांति डंडों से पीट-पीट कर आगे ढकेलते हैं । ३३. वे पथरीले मार्ग पर चलते हुए सामने से गिराई जाने वाली" शिलाओं से मारे जाते हैं। 'संतापनी" नाम की चिरकालीन स्थिति वाली" कुंभी में अशुभ कर्म वाले वे संतप्त किए जाते हैं । ३४. नरकपाल अज्ञानी नैरयिकों को कडाही में डाल कर पकाते हैं । वे भुने जाते हुए ऊपर उछलते हैं तब उन्हें द्राण (बड़े कौए) खाने लगते हैं। भूमि पर गिरे हुए टुकड़ों को दूसरे सिंह व्याप्त आदि" खा जाते हैं ।" ३५. वहां एक बहुत ऊंचा " विधूम अग्नि का स्थान" है, जिसमें जाकर वे नैरयिक शोक से तप्त होकर करुण रुदन करते हैं । नरकपाल उन्हें बकरे की भांति ओंधे शिर कर, उनके शिर को काटते हैं और शूल पर लटका देते हैं । ८६ ३६. शूल पर लटकते", चमड़ी उकेले हुए वे नरयिक लोहे की चोंच वाले पक्षियों द्वारा खाए जाते हैं । नरकभूमी 'संजी वनी " ( बार-बार जिलाने वाली ) होने के कारण चिरस्थिति वाली" है । उसमें पापचेता" प्रजा प्रताडित की जाती है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २४३ प्र०५: नरकविभक्ति: श्लोक ३७-४२ ३७. तिवखाहि सूलाहि ऽभितावयंति तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति, ३७. नरकपाल हाथ में आए श्वापद की वसोवगं सावययं व लद्धं । वशोपगं श्वापदकमिव लब्ध्वा । भांति नैरयिकों को पाकर उनको तीखे ते सूलविद्धा कलुणं थणंति ते शूलविद्धाः करुणं स्तनन्ति, शूलों से पीड़ित करते हैं। वे शूलों से एगंतदुक्खं दुहओ गिलाणा ॥१०॥ एकान्तदुःखं द्वितः ग्लानाः ॥ विद्ध होकर करुण रुदन करते हैं, एकांत दुःख तथा शारीरिक और मानसिक ग्लानि का अनुभव करते हैं।" ३८. सयाजलं ठाण णिहं महंतं सदाज्वलं स्थानं निहं महत्, जंसी जलंतो अगणी अकट्ठो। यस्मिन् ज्वलन्नग्निरकाष्ठः । चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणः, अरहस्सरा केइ चिरट्टिईया ।११॥ अरहस्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥ ३८. सदा जलने वाला एक महान् वध स्थान है। उसमें बिना काठ की आग जलती है।" वहां बहुत क्रूर कर्म वाले नैरयिक" जोर-जोर से चिल्लाते हुए" लंबे समय तक रहते हैं। ३६. चिया महंतीउ समारभित्ता चिताः महतीः समारभ्य, छु भंति ते तं कलुणं रसंतं । क्षिपन्ति ते तं करुणं रसन्तम् । आवट्टई तत्थ असाहुकम्मा आवर्तते तत्रासाधुकर्मा, सप्पी जहा छढं जोइमझे ।१२। सपिर्यथा क्षिप्तं ज्योतिर्मध्ये ॥ ३६. बड़ी" चिता बना नरकपाल करुण स्वर से रोते हुए नरयिक को उसमें डाल देते हैं । वहां अशुभ कर्म वाला नैरयिक वैसे ही गल जाता है जैसे आग में पड़ा हुआ घी। ४०. सया कसिणं पुण घम्मठाणं सदा कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्म । गाढोपनीतं अतिदुःखधर्मम् । हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं हस्तयोः पादयोश्च बध्वा, सत्तुं व दंडेहि समारभंति ।१३। शत्र मिव दण्डः समारभन्ते ॥ ४०. नैरयिकों के रहने का संपूर्ण स्थान सदा तापमय होता है। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है। वहां नरकपाल उनके हाथों और पैरों को बांध उन्हें शत्रु की भांति दंडों से पीटते हैं।" ४१. भंजंति बालस्स वहेण पट्ठि भञ्जन्ति बालस्य व्यथेन पृष्ठि, सीसं पि भिदंति अयोधणेहिं । शीर्षमपि भिन्दन्ति अयोधनः । ते भिण्णदेहा फलगा व तट्ठा ते भिन्नदेहाः फलका इव तष्टा:, तत्ताहि आराहि णियोजयंति ।१४। तप्ताभिः आराभिनियोज्यन्ते ।। ४१. नरकपाल लकड़ी आदि के प्रहार से" अज्ञानी नै रयिक की पीठ को तोड़ते हैं और लोह के घनों से उसके शिर को फोड़ते हैं। दोनों ओर से छीले हुए फलकों की भांति" भग्न अंग-प्रत्यंग वाले नरयिक तप्त आराओं से आगे ढकेले जाते हैं । ४२. अभिजुजिया रुद्द असाहुकम्मा अभियुक्ताः रुद्रं असाधुकर्माणः, उसंचोइया हत्थिवहं वहति । इषुचोदिता हस्तिवहं वहन्ति । एगं दुरूहित्तु दुवे तओ वा एकमारुह्य द्वौ त्रयो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से ।१५॥ आरुष्य विध्यन्ति 'ककाणओ' तस्य ।। ४२. असाधु कर्म वाले नैरयिक नरकपालों द्वारा क्रूरतापूर्वक कार्य में व्याप्त होते हैं और बाण से प्रेरित होकर हाथीयोग्य भार ढोते हैं। दो-तीन नरकपाल उस बेचारे की पीठ पर चढ, क्रुद्ध हो, उसकी गरदन को" वींध डालते हैं। Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४३. बाला बला भूमिमणुक्कमंता पविज्जलं कंटइलं महंतं । विवद्धतप्पेहि सिणचिसे समीरिया कोट्टबॉल करेंति । १६ । समीर्य ४४. वेयालिए णाम महाभितावे एगायए पस्वयमंतलिखे । हम्मति तत्वा बहूकूरकम्मा परं सहस्साण मुहत्तगाणं ॥ १७॥ ४५. संबाहिया दुक्कडिणी थणंति अहो व राम्रो परितप्यमाणा । एगंतकूडे णरए महंते कूडेण तत्या जिसमे हया उ।१८। ४६. भजंति णं पुव्वमरी सरोसं समुम्बरे ते मुसले गहे । ते भिण्णदेहा रुहिरं यमंता ओमुद्धगा धरणितले पति | १६ | ॥ ४७. अणासिया णाम महासियाला पन्या तत्व सयावकोया । सज्जति तत्था बहुकूरकम्मा अदूरमा संकलियाहि बढ़ा | २०| २४४ वाला बलाद् भूमिमनुक्रामन्तः, 'प्रविज्जला' कण्टकितां महतीम् । विबध्य 'तप्पे हि' विषण्ण चित्तान्, को बलि कुर्वन्ति ॥ अ० ५ नरकविभक्ति: श्लोक ४३-४८ वैतालिको नाम महाभितापः, एकायत: पर्वतः अन्तरिक्षे । हम्यन्ते तत्र बहुक्रूरकर्माणः, सहस्राणि परं मुहूर्तकानि ॥ संबाधिताः दुष्कृतिनः स्तनन्ति, अहनि च रात्री परितप्यमानाः । एकान्तकुटे नरके महति, कूटेन तंत्र विषमे हतास्तु ॥ भञ्जन्ति पूर्वारयः सरोषं, समुद्गरान् ते मुसलान् गृहीत्वा । ते भिन्नदेहाः रुधिरं वमन्तः, अवमूर्द्धकाः धरणीतले पतन्ति ॥ ४८. सयाजला णाम ईऽभिदुम्मा पविज्जला लोहविलीणतत्ता । जंसोऽभिसि पवज्जमाणा एगायताऽणुकमणं करेंति । २१। एककाः अनक्रमणं अनशिता नाम महावगालाः, प्रगल्भतास्तत्र सायन्ते तत्र अदूरगाः सदावकोपाः । बहुक्रूरकर्माणः, श्रृंखला भिर्बद्धाः || सदावला नाम नदी अभिदुर्गा, 'प्रविज्जला' लोहविलीनतप्ता । यस्यामभिदुर्गायां प्रपद्यमाना, कुर्वन्ति ॥ ४३. नरकपाल अज्ञानी नैरयिकों को रक्त और पीव से सनी, कंटकाकीर्ण विशाल भूमी पर बलात् चलाते हैं, फिर जल में प्रवाहित कर बांस के जालों में " फंसाते हैं । जब वे मूच्छित हो जाते हैं। तब उन्हें जल से निकाल", खंड-खंड कर, नगरबलि की भांति चारों ओर बिखेर देते हैं। ४४. नरक में 'वैतालिक" नाम का बहुत ऊंचा"" और अधर में झूलता हुआ महान् संतापकारी एक पर्वत है । (नरकपालों द्वारा उस पर्वत पर चढने के लिए प्रेरित) बहुत क्रूर कर्म करने वाले नैरयिक जब उस पर्वत पर चढने का प्रयत्न करते हैं, (तब उस पर्वत के सिकुड़ जाने पर) वे हत प्रहत होते हैं। यह क्रम दीर्घकाल तक चलता रहता है। १९ ११०८ ४५. दुष्कृतकारी नैरयिक अत्यन्त पीड़ित होकर "" दिन-रात परितप्त होते हुए आक्रन्दन करते हैं । अत्यन्त ऊबड़-खाबड़ भूमि वाले‍ विषम और विशाल नरक में वे नैरयिक गलपाश के द्वारा बांधे जाते हैं । ४६. " पूर्वजन्म के शत्रु "" नरकपाल हाथ में मुद्गर और मूसल लेकर, रुष्ट हो नैरयिकों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। वे भग्न शरीर होकर रक्त का वमन करते हुए ओंधे शिर धरणी तल पर गिर जाते हैं । ४७. भूसे बीठ और सदा कुषित रहने वाले " महाकाय शृगाल, एक दूसरे से सटे तथा सांकलों से बंधे हुए "" बहुत क्रूर कर्म वाले"" नैरयिकों को खाते हैं । ४८. सदाज्वला नाम की एक नदी है । वह अति दुर्गम, पंकिल और अग्नि के ताप से पिघले हुए लोह के समान गरम जल वाली है। उस अति दुर्गम नदी में अकेले चलते हुए नरयिक उसे पार करते हैं । १२३ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ४६. एयाई फासाई फुसंति बालं निरंतरं तत्य चिरद्वियं । ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं |२२| ५१. एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे ५०. जं जारिसं पुण्यमकासि कम्म तमेव तदेव आगच्छइ संपराए । एतदुक्खं भवमज्जिणित्ता वेदेति दुक्खी तमणं तदुक्खं ॥ २३॥ ण हिंसए कंचन सम्बलोए । एतदिट्ठी अपरिग्यहे उ बुझेन्ज लोगस्स वसं ण गच्छे | २४| ५२. एवं तिरिक्खमणुयामसुं चउरंतणं तं तयविवागं । स सव्वमेयं इइ वेयइत्ता कंबेज्ज कालं पुयमायते ॥ २५॥ -त्ति बेमि ॥ २४५ एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बालं, निरंतरं तत्र चिरस्थितिकम् । न हन्यमानस्य तु भवति त्राणं, एक: स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम् ।। यत् पारणं पूर्वमकार्षीत् कर्म, आगच्छति सम्पराये । भवमर्जयित्वा एकान्तदुःखं वेदयन्त दुःखिनः तद् अनन्तदुःखम् ।। श्र० ५ : नरकविभक्ति: श्लोक ४६-५२ ४६. ये स्पर्श (दुःख) लंबी स्थिति वाले अज्ञानी नैरयिक को निरंतर पीड़ित करते हैं। मार पड़ने पर उसे कोई त्राण नहीं देता । वह स्वयं अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । १२५ एतानि श्रुत्वा नारकाणि धीरः, न हिन्स्यात् कञ्चन सर्वलोके । एकान्तदृष्टि: अपरिग्रहस्तु, बुध्येत लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥ एवं चतुरन्तमनन्तं स सर्वमेतद् कांक्षेत् कालं तिर्थकमनुजामरे, तदनुविपाकम् । इति विदित्वा, धुतमाचरन् ॥ - इति ब्रवीमि ।। १२४ ' १२६ ८१२७ १२८ ५०. जिसने जो जैसा कर्म पहले किया है वैसा ही परलोक में फल पाता है । दुःखी प्राणी एकान्त दुःख वाले भव (नरक) का अर्जन कर अनन्त दुःखों को भोगते हैं । ५१. धीर मनुष्य इन नारकीय दुःखों को सुनकर संपूर्ण लोकवर्ती किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । लक्ष्य के प्रति निश्चित दृष्टि वाला और अपरिग्रही होकर स्वाध्यायशील रहे । वह कषाय का वशवर्ती न बने । "" १३० ५२. इस प्रकार तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवताओं (नैरयिकों ) - इन चारों गतियों में कर्म के अनुरूप अनन्त विपाक होता है। वह धीर पुरुष 'यह चतुर्गतिक संसार कर्म का विपाक है' ऐसा जानकर धुत का आचरण करता हुआ कर्मक्षय के काल की " आकांक्षा करे । - ऐसा मैं कहता हूं । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ५ श्लोक १: १. महर्षि (महेसि) इसके दो संस्कृत रूप बनते हैं-महर्षि और महैषी। इनका अर्थ है-महान् ऋषि और महान् अर्थात् मोक्ष की एषणा करने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ तीर्थंकर भी किया है।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-उग्र तपस्वी तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहने में सक्षम ।' २. पूछा था (पुच्छिसुहं) एक बार जंबूस्वामी ने सुधर्मा से पूछा-भंते ! नरक कैसे हैं ? किन-किन कर्मों के कारण जीव नरक में जाता है ? नरक की वेदनाओं का स्वरूप क्या है ?' इन प्रश्नों के उत्तर में सुधर्मा ने कहा-जम्बू ! जैसे तुम मुझे ये प्रश्न पूछ रहे हो वैसे ही मैंने भी केवलज्ञानी भगवान महावीर से ये प्रश्न पूछे थे ।' श्लोक २: ३. महानुभाव (महाणुभावे) अनुभाव का अर्थ है-माहात्म्य । वह दो प्रकार का होता है - १. द्रव्य अनुभाव- सूर्य आदि का प्रकाश । चक्षुष्मान् व्यक्ति प्रकाश में सांप, कंटक, अग्निपात आदि से अपना बचाव कर लेता है। २. भाव अनुभाव-केवलज्ञान, श्र तज्ञान आदि । इनसे मनुष्य अकुशल का परिहार करता है और मोक्ष-सुख की प्राप्ति कर लेता है। प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् महावीर को 'महानुभाव' कहा है। उनके ज्ञान, दर्शन आदि महान् थे।' वृत्तिकार ने चौतीस अतिशयरूप माहात्म्य को महानुभाव माना है।' ४. आशुप्रज्ञ (आसुपण्णे) प्रस्तुत आगम में सात बार 'आशुप्रज्ञ' का प्रयोग मिलता है। चूणि और वृत्ति में इसके सात अर्थ किए गए हैं१. चूर्णि, पृ० १२६ : महरिसी तित्थगरो। २. वृत्ति. पत्र १२६ : महर्षिम् उग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णम् । ३. (क) चूणि, पृ० १२६ : सुधम्मसामी किल जंबु सामिणा गरगे पुच्छितो केरिसा णरगा? केरिसेहिं वा कम्मेहिं गम्मति ? केरिसाओ वा तत्थ वेदणाओ? । ततो भणति---पुच्छिंसु हं पृष्ठवानहं भगवन्तं यथैव भवन्तो मां पृच्छन्ति । (ख) वृत्ति पत्र १२६ : जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः तद्यथा-भगवन् ! कि भूता नरकाः ? कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषत्पादः? कीदृश्यो दा तत्रत्या वेदना ? इत्येवं पृष्ट: सुधर्मस्वाम्याह-यदेतद्भवताऽहं पृष्टस्तदेतद्......श्रीमन्महा वीरवर्धमानस्वामिनं पुरस्तात् पूर्व पृष्टवानहमस्मि । ४. चूणि, पृ० १२६ : भावानुभागस्तु केवलज्ञानं श्रुतं वा, तदनुभावादेव च साधवोऽकुशलानि परिहरन्ति मोक्षसुखं चानुभवन्ते । ५. चूणि, पृ० १२६ : अनुभवनमनुभावः, महान्ति वा ज्ञानादीनि भजति सेवत इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १२६ : महाश्चतुस्त्रिशदतिशयरूपोऽनुभावो-माहात्म्यं यस्य स तथा । ७. सूयगडो ११५४२, १४६७, १।६।२५ १११४१४, १३१४१२२, २३५१, २।६।१८। Jain Education Intemational dain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २४७ अध्ययन ५ : टिप्पण ५-६ १. प्रश्न करने पर जिसको चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ में आ जाता है, ऐसी शीघ्र प्रज्ञा से संपन्न व्यक्ति । २. जो सदा-सर्वत्र उपयोगवान होता है।' ३. केवलज्ञानी । * ४. सर्वज्ञ । ५. तीर्थंकर ।" ६. क्षिप्रज्ञ - प्रतिक्षण जागरूक । ७. पटु । ५. दुःखदायी (दुमट्ठ) 'दुहम' शब्द में मकार अलाक्षणिक है। इसका संस्कृतरूप 'दुःखार्थ' है । 'जिसका अर्थ दुःख होता है, जिसका प्रयोजन दुःख होता है अथवा जो दुःख का निमित्त होता है, वह दुःखायें है। यह इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । इसका तात्पर्यार्थ है - नरक ।' वृत्तिकार ने निम्नोक्त अर्थ भी किए है- १. अस अनुष्ठान दुःख का हेतु है, इसलिए वह है। २. नरकावास दुःख है । ३. असातावेदनीय कर्म से तीव्र पीड़ा होती है, इसलिए वह दुःख है । ६. विषम ( दुग्गं ) इसका शाब्दिक अर्थ है-दुर्ग । वह विषम होता है, अतः नरक को दुर्ग माना है ।' १. (क) सूयगडो १।५।२ चूर्णि पृ० १२६ : आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चितेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः । आमशः आशुरेव प्रजानीते न चितमिवेत्यर्थः । (ख) १२६७ पुर्ण पृ० १४४ (ग) सूथगडो १०६ । २५ वृत्ति, पत्र १५१ २. (क)१।५।२ वृति पत्र १२६ (ख) १।६।२५ वृत्ति पत्र १५१ : आशुप्रज्ञः न छद्मस्थवत् मनसा पर्यालोच्य पदार्थ परिच्छित्ति विधत्ते । आशुः सर्वत्र सदोपयोगात् । शुप्रज्ञः सर्वत्र सोपयोगात् । ३. १६० भूमि पृ० १४४ केवलज्ञानत्वादशुमः । (ख) गडो २०५१ चूर्णि पृ० ४०३: प्रो केवली ४. सूयगडो २।६।१८ वृत्ति, पत्र १४५ : आशुप्रज्ञः सर्वज्ञः । एव । ५. सूयगडो २।५।१ चूर्णि पृ० ४०३ : आसुप्रज्ञः तीर्थंकर एव । ६. (क) गट १०१४१४ ० २२६ आसुत इति प्रियतः सग-लब-मुहूर्त प्रतिमानता । (ख) सूयगडो १।१४१४ वृत्ति पत्र २५० । ७. सूयगडो २०५१ वृत्ति, पत्र ११६ : आशुप्रज्ञः पटुप्रज्ञः । "दुःखस्यार्थं दुखमेवार्थः दुःखप्रयोजनो वा दुःखनिमित्तो वा अर्थ: दुहमठ्ठे । तस्य दुःखस्य कोऽर्थः ? वेदना, शरीरादि सुखार्था हि देवलोकाः, दुःखार्था नरकाः । २. पि१२६ दुखम् इति नरकं दुःखहेतुत्वात् अनुष्ठानं यदि वा नरकवास एवं दुःखयतीति दुःखं अथवा असातावेदनी ८. चूर्ण, पृ० १२६ : दुहमट्ठ योदयात् तीव्रपीडात्मकं दुःखमिति । यदि वा — दुहमट्टदुग्गं ति दुःखमेवार्थो यस्मिन् दुःखनिमित्तो वा दुःखप्रयोजनो वास दुःखार्थी - नरकः । १०. (क) वृषि, पृ० १२६ (ख) वृति पत्र १२६ " दुर्गम् नाम विषयम् । स (नरक) पूर्वी विषम दुतरस्यात् । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ७. अत्यन्त दीन (आदीणियं ) २४८ जिसमें चारों ओर दीनता ही दीनता हो वैसा स्थान । चूर्णिकार ने 'आदीन' का अर्थ 'पाप' किया है। श्लोक ३ : ८. सघन अंधकारमय ( तिमिसंधारे) ऐसा सघन अंधकार जहां अपनी आंखों से अपना शरीर भी न देखा जा सके। जहां अवधिज्ञानी भी दिन में उलूक पक्षी की भांति केवल थोड़ा ही देख सके, ऐसा सघन अंधकार । श्लोक ४ ९. अपने सुख के लिए (आय) आत्मसुख, अपना सुख । व्यक्ति अपने लिए तथा अपने परिवार आदि के लिए भी हिंसा करता है। दूसरे के लिए की जाने वाली हिंसा भी उसके मन को सुख देती है, अतः वह भी उसका ही सुख है ।" वृत्तिकार ने आत्मा का अर्थ स्व शरीर किया है । " १० क्रूर अध्यवसाय से ( तिब्वं ) तीव्र शब्द का तात्पर्य तीव्र अध्यवसाय-पूर्वक है । जो व्यक्ति प्राणियों की हिंसा कर अनुताप नहीं करता वह तीव्र अध्यवसित माना जाता है ।" (ख) वृत्ति, पत्र अध्ययन ५ टिप्पण ७-११ श्लोक ५ : ११. जो ढीठ मनुष्य (पागम) जो हिंसा करने का इच्छुक है या हिंसा कर डालने पर भी जिसके मन में कोई मृदुता पैदा नहीं होती, वह ढीठ होता है । जैसे- सिंह और कृष्ण सर्प । वृत्तिकार के अनुसार ढीठ वह होता है जो हिंसा करता हुआ भी ढिठाई के कारण उसको अन्यान्य प्रमाणों से सिद्ध करने का प्रयत्न करता है ।" १. वृत्ति १२६ आसमन्तादीनवादी आगि अत्यन्तदीन सरावः । - अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रयः २. चूर्ण, पृ० १२६ : आदोनं नाम पापम् । २. (क) गि, पृ० १२७ नाम पोरविविणं पसंति किखि ओहिया पेरवंति तं पिकासनियासरखं पेच्छं पेच्छति तमिरिका वा । १२७ : तमिसंधयारे त्ति बहलतमोऽन्धकारे यत्रात्मापि नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनापि मन्दं मन्दमुलूका इवानि पश्यन्ति । हि परा हिति तत्रापि तेषां मनः सुखमेोत्पद्यते पुत्रदारे मुखिय 1 ४. पू ० १२७ ५. वृत्ति पत्र १२० आप मतस्ते ६. चूणि, पृ० १२७ : तीव्राध्यवसिता जे तस-याबरे पाणे हिंसति न चानुतप्यन्ते । ये तु मन्दाध्यवसायाः तत्र स्थावरान् प्राणान् हिंसंति ते त्रिषु नरकेषूपपद्यन्ते । अथवा तीव्रनिति तीव्राध्यवसायाः तीव्रमिथ्यादर्शन निनश्चा तीव्र मिथ्याध्यवसिताश्च । ७ चूर्ण, पृ० १२७ : न तस्य कर्तुकामस्य कृत्वा या किचन मार्दवमुत्पद्यन्ते यथा सिंहस्य कृष्णसर्पस्य वा । ८. वृत्ति पत्र १२८ : प्रागल्भ्यं धान्यं तद्विद्यते यस्य स प्रागल्मी अतिधाष्ट्र्याद्विदति यथा-वेदाभिहिता हिंसा हिंसेब न भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत आखेटकेन विनोदक्रिया, यदि वा- -न मांसभक्षणे दोषो न मद्य न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला इत्यादि, तदेवं वत् प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठायो । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २४६ अध्ययन ५: टिप्पण १२-१५ १२. नीचे सिर हो (अहोसिरं) यह एक औपचारिक प्रयोग है । मृत्यु के पश्चात् शिर नहीं होता, फिर भी ऊंचाई से गिरने वाले को 'शिर नीचे लटकाए गिरा' कहा जाता है। वही उपचार यहां किया गया है।' श्लोक ६: १३. श्लोक ६ : तिर्यञ्च और मनुष्य भव में मरकर कुछ प्राणी नरक में उत्पन्न होते हैं । वे एक, दो या तीन समय वाली विग्रहगति से वहां उत्पन्न होते हैं । वहां एक अन्तर्महर्त में, अशुभ कर्मों के उदय से अपने-अपने शरीर का उत्पादन करते हैं। वे शरीर अण्डे से निकले हुए रोम और पंखविहीन पक्षियों के शरीर जैसे होते हैं । तत्पश्चात् पर्याप्तियों को प्राप्त कर वे नरकपालों के शब्दों को सुनते हैं। श्लोक ७: १४. अंगारराशि (इंगालरासि) नरक में बादर अग्नि नहीं होती। वहां के कुछ स्थानों के पुद्गल स्वत: उष्ण होते हैं। वे भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं। वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं । हमारी अग्नि से उस अग्नि की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि वहां की अग्नि का ताप महानगरदाह की अग्नि से उत्पन्न ताप से भी बहुत तीव्र होता है। तीसवें तथा अड़तीसवें श्लोक में भी बिना काठ की अग्नि का उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति वैक्रिय से होती है। यह अचित्त अग्नि है। __ प्रस्तुत अध्ययन में अनेक स्थानों पर नारकीय अग्नि का उल्लेख हुआ है-देखें श्लोक ११, १२, १३ आदि । १५. चिल्ला-चिल्ला कर (अरहस्सरा) अनुबद्ध स्वर, जोर-जोर से चिल्लाना।' १. चूणि, पृ० १२७, १२८ : अधोशिरा इति, उक्तं हि जयतु वसुमतो नपैः समग्रा, व्यपगतचौरभया वसन्तु देशाः । जगति विधुरवादिनः कृतघ्नाः, नरकमवाशिरसः पतन्तु शाक्याः । दूरात् पतने हि शिरसो गुरुत्वाद् अवाशिरसः पतन्ति, स एवोपचारः इहानुगम्यते, न तेषां तस्यामवस्थायां शिरोविद्यत इति । २. (क) चूणि, पृ० १२८ : एकसमयिक-दुसमयिग-तिसमएण वा विग्गहेण उववज्जंति, अंतोमुहुत्तेण अशुभकर्मोदयात् शरीराण्युत्पा दयन्ति, निनाण्डजसन्निभा निजपर्याप्तिभावमागताश्च शब्दान शृण्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १२८ : तिर्यङ्मनुष्यभवात् सत्त्वा नरकेष्त्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन निर्लनाण्डजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्ति भावमागताश्चातिभयानकान् शब्दान् परमाधामिकजनितान् शृण्वन्ति । ३. (क) चूणि, पृ० १२८ : जधा इंगालरासी जलितो धगधगेति एवं ते नरकाः स्वभावोष्णा एव, ण पुण तत्थ बादरो अग्गी अत्थि, Sण्णस्थ विग्गहगति समावण्णएहि । ते पुण उसिणपरिणता पोग्गला जंतवाडचुल्लीओ वि उसिणतरा । (ख) वृत्ति, पत्र १२६ : तत्र बादराग्नेरभावात्तदुपमा भुमिमित्युक्तम्, एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम्, अन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निना नोपमा घटते, ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना । ४. (क) चूणि, पृ० १३६ : विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलितः सेन्धनस्य ह्यग्नेरवश्यमेव धूमो भवति । (ख) चूर्णि, पृ० १३७ : वैक्रियकालमवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था। ५. चूणि, पृ० १२८ : अरहस्सरा णाम अरहतस्वराः अनुबद्धा सरा इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १२६ : अरहस्वरा प्रकटस्वरा महाशब्दाः । Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सूयगडो १ अध्ययन ५: टिप्पण १६-२२ १६. ऋन्दन करते हैं (थणंति) छोटा श्वास और कुछ-कुछ शब्द हो उसे लाट देश में निस्तनि-स्तनित कहा जाता है—ऐसा चूणिकार ने उल्लेख किया है।' १७. चिरकाल तक (चिरट्टिईया) नरक में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरोपम की होती है, इसलिए वहां चिरकाल तक रहना होता है। श्लोक ८: १८. अति दुर्गम (अभिदुग्गा) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'गंभीर तट वाली' नदी किया है। कुछ इसे परमाधार्मिक देवों द्वारा गहरी की हुई नदी मानते हैं और कुछ इसे स्वाभाविक रूप से गहरी नदी मानते हैं।' __ वृत्तिकार ने इसका अर्थ दुःख उत्पन्न करने वाली नदी किया है।' १६. वैतरणी नदी (वेयरणी) देखें-३७६ का टिप्पण। २०. भाले से (सत्तिसु) यहां तृतीया विभक्ति के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है। शक्ति का अर्थ है-भाला।' श्लोक: २१. स्मृति-शून्य (सइविप्पहूणा) चूर्णिकार का कथन है कि नैरयिकों की स्मृति सब स्रोतों में गरम पानी डालने के कारण पहले ही नष्ट हो जाती है और जब वे गले से बींधे जाते हैं तब उनकी स्मृति और अधिक नष्ट हो जाती है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-'कर्तव्य के विवेक से शून्य' किया है।' २२. गर्दन को (कोलेहिं) _ 'कोल' देशी शब्द है । इसका अर्थ है-गला। चूणिकार ने भी इसका अर्थ 'गला' किया है। उन्होंने समझाने के लिए १. चूणि, पृ० १२८ : स्तनितं नामं अप्रततश्वासमोषत्कूजितं यद् लाडानां निस्तनिस्तनितम् । २. (क) चूणि, पृ० १२८ : चिरं तेषु चिटुंतीति चिरद्वितीया, जहण्णेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। (ख) वृत्ति, पत्र १२६ । ३. चूर्णि, पृ० १२८ : अभिमुखं भृशं वा दुर्गा अभिदुर्गा गम्भीरतटा परमाधार्मिककृता, केचिद् ब्रवते स्वाभाविकैवेति । ४. वृत्ति, पत्र १२६ : आभिमुख्येन दुर्गा अभिदुर्गा-दुःखोत्पादिका। ५. वृत्ति, पत्र १२६ : शक्तिभिश्च ...तृतीयार्थे सप्तमी। ६. चूणि, पृ० १२८ : शक्तिभिः कुन्तैश्च । ७. चणि, पृ० १२८ । तेसि तेण चेव पाणिएण कलकलकलभूतेण सव्वसोत्ताणुपवेसणा स्मृतिः पूर्वमेव नष्टा, पुनः कोलविद्धानां भृशतरं नश्यति । ८. वृत्ति, पत्र १२६ : स्मृत्या विप्रहीणा अपगतकर्तव्यविवेकाः । ९.देशीनाममाला २१४५ :... . . . . . . 'कोलो गीवा कोप्पो.........। कोलो प्रोवा। Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५१ अध्ययन ५ : टिप्पण २३-२६ इसकी तुलना 'बिल' से की है।' वृत्तिकार ने 'कील' शब्द मानकर उसका अर्थ 'कंठ' किया है। संभव है यह भी देशी शब्द हो। 'कील' एक प्रकार का अस्त्र भी होता है। २३. नीचे भूमि पर गिरा देते हैं (अहे करेंति) नीचे भूमि पर गिरा देते हैं।' चूर्णिकार ने—'जल के नीचे या ओंधे मुंह कर देते हैं-यह अर्थ किया है।" श्लोक १० २४. तीर की (कलंबुया) संस्कृत शब्दकोष में 'कलम्ब' शब्द का अर्थ-नदी का तीर है।' २५. तपी हुई (मुम्मुरे) देखें-दसवेआलियं ४। सूत्र २० का टिप्पण । श्लोक ११: २६. असूर्य (असूरियं) असूर्य' नाम का नरकावास । ऐसा भी माना जाता है कि सभी नरकावास सूर्य से शून्य होते हैं, अत: उन सबको 'असूर्य' कहा जाता है।' २७. वहां घोर अंधकार है (अंधं तमं) जैसे जन्मांध व्यक्ति के लिए रात और दिन-दोनों अंधकारपूर्ण होते हैं, वैसे ही उस नरक में नैरयिकों के लिए सदा अंधकार ही रहता है। २८. निरन्तर (समाहिओ) इसका अर्थ है-एकीभूत, निरंतर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-व्यवस्थापित किया है।" २६. आग (अगणी) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-काली आभा वाला अग्निकाय किया है । वह अचेतन होता है।" १. चूणि, पृ० १२८ : कोलं नाम गलओ । उक्तं हि –कोलेनानुगतं बिलम् । भुजङ्गवद् । २. वृत्ति, पत्र १२६ : कोलेषु कण्ठेषु । ३. पाइयसद्दमहण्णवो। ४. वृत्ति, पत्र १२६ : अधोभूमौ कुर्वन्तीति । ५. चूणि, पृ० १२८ : अधे हेद्वतो जलस्स अधोमुखे वा। ६ आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ७. (क) चूणि, पृ० १२६ : यत्र सूरो नास्ति, अथवा सर्व एव नरका: असूरिकाः । (ख) वृत्ति, पत्र १३० : न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः असूर्यो-नरको बहलान्धकारः कुम्मिकाकृति। सर्व एव वा नरकावासोऽसूर्य इति व्यपदिश्यते । ८. चूणि, पृ० १२६ : यथा जात्यन्धस्य अहनि रात्रौ च सर्वकालमेव तम एवं तत्रापि स तु अगाधगुहासदृशः। ६ चूणि, पृ० १२६ : समाहितो सम्यग् आहितः समाहितः एकीभूतः निरन्तर इत्यर्थः । १०. वृत्ति, पत्र १३० : समाहितः सम्यगाहितो व्यवस्थापितः । ११. गि, पृ० १२६ : तस्य कालोभासी अचेयणो अगणिक्कायो । Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५२ अध्ययन ५: टिप्पण ३०-३४ श्लोक १०: ३०. प्रज्ञाशून्य नैरयिक (लुत्तपण्णो) प्रज्ञाशून्य नैरयिक नहीं जान पाता कि उस दुर्गम स्थान से निकलने का मार्ग कौनसा है। वेदना की अधिकता के कारण उसकी सारी प्रज्ञा नष्ट हो जाती है।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-उस समव अवधिज्ञान का विवेक लुप्त हो जाता है।' ३१. नहीं जानता हुआ (अविजाणओ) चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं .. १. उस गुहा में प्रविष्ट नैरयिक नहीं जानता कि द्वार कहां है । २. वह जानता है कि यहां मेरा उष्णता से परित्राण होगा। ३. मनुष्य-लोक में वह अज्ञानी था इसलिए उसने ऐसा कर्म किया। वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है-नैरयिक वेदना से अत्यन्त अभिभूत हो जाता है। अतः उसे अपने पूर्वकृत दुश्चरित याद नहीं रहते।' ३२. तापमय (घम्मठाणं) तापमय स्थान, उष्णस्थान ।' उष्ण वेदना वाले सारे नरक धर्मस्थान ही होते हैं। नरकपाल विशेष तापमय स्थानों की विकुर्वणा करते हैं। उन स्थानों में प्रवेश और निर्गम-दोनों दुःखद होते हैं।' देखें-टिप्पण ५०। ३३. कर्म के द्वारा (गाढ) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं:१. ऐसे कर्म जिनसे छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है, दुर्मोक्षणीय कर्म । २. निरन्तर। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'अत्यर्थ' किया है।' ३४. अत्यन्त दुःखमय है (अइदुक्खधम्मयं) वह स्थान ऐसा है जहां एक निमेष भर के लिए भी दुःख से विश्राम नहीं मिलता। कहा भी है अच्छिणिमोलणमेत्तं णत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । णिरए रइयाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ।। १. चूर्णि, पृ० १२६ : लुप्ता प्रज्ञा यस्य स भवति लुत्तपण्णो न जानाति कुतो निर्गन्तव्यम् ? इति वेदनाभिर्वाऽस्य प्रज्ञा सर्वा हता। २. वृत्ति, पत्र १३० : लुप्तप्रज्ञः अपगतावधिविवेकः ।। ३. चूणि, पृ० १२६ : अविजाणतो णाम नासौ तस्यां विजानाति 'कुतो द्वारम् ? इति । अथवा ऽसौ जानाति अध (? इध) में उसिण परित्राणं भविण्यति इह चासौ अविज्ञायक आसीद् यस्तद्विधानि कर्माण्यकरोत् । ४. वृत्ति, पत्र १३० अतिवृतः अतिगतो वेदनाभिभूतत्वात् स्वकृतं दुश्चिरितमजानन् । ५. वृत्ति, पत्र १३० : धर्मस्थानम् उष्णस्थानं तापस्थानमित्यर्थः।। ६. चूणि, पृ० १२६ : धर्मणः स्थानं धर्मस्थानम्, सर्व एव हि उण्हवेदना नरकाः धर्मस्थानानि, विशेषतस्तु विकुर्वितानि स्थानानि दुःखनिष्क्रमणप्रवेशानि । ७. चूणि पृ० १२६ : गाढं उण्हं दुक्खोवणितं गाढेर्वा दूर्मोक्षणीयैः कर्मभिः ।.... 'अथवा गाढमिति निरन्तरमित्यर्थ ।। ८. वृत्ति, पत्र १३० : गाढं ति अत्यर्थम् । १. वृत्ति, पत्र १३० : अतिदुःखरूपो धर्मः-स्वभावो यस्मिन्निति, इवमुक्तं भवति-अक्षिनिमेषमात्रमपि कालं न तत्र दुःखस्य विधाम इति । Jain Education Intemational Education Intermational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ २५३ अध्ययन ५ टिप्पण ३५-३८ नरक में नरयिकों को निरन्तर दुःख में पकना पड़ता है। निमेषभर के लिए भी उन्हें सुख की अनुभूति नहीं होती। वे निरन्तर दुःख ही भोगते रहते हैं।' चूर्णिकार ने भी 'धर्म' का अर्थ स्वभाव किया है । वे नरक स्वभाव से ही प्रतप्त होते हैं। श्लोक १३: ३५. क्रूरकर्मा नरकपाल........."तपाते हैं (कूरकम्मा भितवेंति बालं) . चूर्णिकार ने इस शब्द को नैरयिक और नरकपाल- दोनों का विशेषण माना है। पहले जिन्होंने क्रूरकर्म किए हैं वे नैरयिक अथवा वे नरकपाल जो सदा क्रूरकर्म करते रहते हैं, नरक की भीषणतम अग्नि से तप्त नैरयिकों को और अधिक तपाते हैं। वे मंदबुद्धि नरकपाल नरकप्रायोग्य कर्मों का उपचय करते हैं।' वृत्तिकार ने इस शब्द को नरकपाल से ही संबद्ध माना है।' ३६. जैसे अग्नि के समीप..... .. .. जीवित मछलियां (मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता) मछलियां शीत-योनिक जीव हैं। वे नहीं जानतीं कि ताप क्या होता है ? वे ताप सहन नहीं कर सकतीं। गर्म हवा से भी वे तप उठती हैं। अग्नि के समीप तो उन्हें अत्यन्त दुःख होता है। वे तड़फ-तड़फ कर मर जाती हैं। इसीलिए यहां नैरयिकों की तुलना मछलियों से की गई है। श्लोक १४: ३७. संतक्षण (संतच्छणं) इस नाम का एक नरकावास है, जहां नरयिकों को खदिर काष्ठ की भांति छीला जाता है। इस छीलने के कारण ही इसका नाम 'संतक्षण' पड़ा है। ३८. (ते णारगा".......असाहुकम्मा) वृत्तिकार ने नारक शब्द का अर्थ नरकपाल किया है और 'असाहकम्मा' को उसका विशेषण माना है। हमने 'नारक' शब्द से नैरयिक अर्थ ग्रहण किया है। 'असाहुकम्मा' उसका विशेषण है । १. वृत्ति, पत्र १३० । २. चणि, पृ० १२६ : धर्म: स्वभाव इत्यर्थः, स्वभावप्रतप्तेष्वेव तेषु । ३. चणि, पृ० १२६ : क्रूराणि कर्माणि ये: पूर्व कृतानि ते क्रूरकर्माणः नारकाः अथवा ते क्रूरकर्माणोऽपि णयरपाला जे गरयग्गितत्ते वि पुनरपि अभितापयन्ति, यत एव हि मंबा नरकपाला मन्दबुद्धय इत्यर्थः नरकप्रायोग्यान्येव कर्माण्युपचिन्वन्ति । ४. वृत्ति, पत्र १०३ : क्रूरकर्माणो नरकपालाः। ५. (क) चणि, पृ० १२६ : जीवं नाम जीवन्त एव । ज्योतिषः समीपे उपजोति पत्ता समीपगताभितापवद् मत्स्यास्तप्यन्ते, किमंग पुण तत्तेत एव छूढा अयोकवल्ले वा, सीतयोनित्वाद्धि मत्स्यानां उष्णदुःखानभिज्ञत्वाच्च अतीवाग्नौ दुःख मुत्पद्यते इत्यतो मत्स्यग्रहणम् । (खवृत्ति, पत्र १३० : यथा जीवन्तो मत्स्या मीना उपज्योतिः अग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गन्तुमसमस्तित्रैव तिष्ठन्ति, एवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णत्वादग्नावत्यन्तं दुःखमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ग्रहणमिति । ६. चूणि, पृ० १३० : समस्तं तच्छणं संतच्छणं णाम जत्थ विउविताणि वासि-परसु-पट्टिसाणि, तंबलिओ जहा खइरकलैं तच्छेति एवं ते वि वासीहि तच्छिज्जति अण्णे कुहाडएहि कट्टमिव तच्छिज्जति । ७. वृत्ति, पत्र १३० : नारका नरकपाला यत्र नरकावासे स्वभवनादागताः असाधुकर्माणः क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः । Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५४ अध्ययन ५: टिप्पण ३९-४३ ३९. हाथों और पैरों को (हत्थेहि पाएहि) वे नरपाल उन नैरयिक जीवों के हाथ-पैर रस्सी से या लोह की सांकलों से बांध देते हैं, जिससे कि वे कहीं भागकर न जा सकें, न उठ सकें और न चल सकें।' श्लोक १५: ४०. उलट-पुलट करते हुए (परिवत्तयंता) - जो नैरयिक उस लोहे की कडाही में ओंधे पड़े हैं, उनको सीधा कर तथा जो सीधे पड़े हैं उन्हें ओंधे कर, वे नरकपाल उन्हें पकाते हैं। श्लोक १६: ४१. तीव्र वेदना से.. ........ नहीं मरते (ण मिज्जई तिव्वभिवेयणाए) वृत्तिकार ने "मिज्जई' के दो संस्कृतरूप दिए हैं-'मीयते' और 'नियन्ते'। इनके आधार पर इस चरण के दो अर्थ हो जाते हैं--- १. आग में डाली हुई मछली की वेदना से भी नैरयिकों द्वारा अनुभूत तीव्र वेदना को उपमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह उससे तीव्रतम है। २. तीव्र वेदना को भोगते हुए भी, कर्मों का भोग शेष रहने के कारण वे नरयिक नहीं मरते।' चूर्णिकार ने 'तिव्वऽतिवेयणाए' पाठ माना है और उन्होंने बताया है कि वास्तव में 'अतितिव्ववेदणाए-ऐसा पाठ चाहिए था। किन्तु छन्द-रचना की दृष्टि से 'तिवऽतिवेयणाए' पाठ उपलब्ध है । उन्होंने 'मिज्जई' का संस्कृत रूप भ्रियन्ते किया है।' श्लोक १७: ४२. शीत से व्याप्त (लोलणसंपगाढे) चूर्णिकार ने संप्रगाढ़ का अर्थ निरन्तर किया है। जहां शीत के दुःख से निरन्तर उछलकूद करने वाले नैरयिक होते हैं, उस नरकावास के लिए 'लोलनसंप्रगाढ' का प्रयोग किया गया है। चूर्णि में 'लोलुअसंपगाढे' पाठ है ।' 'लोलुअ'—यह एक नरकावास का नाम है। वृत्तिकार ने संप्रगाढ़ का अर्थ-व्याप्त, भृत किया है।' ४३. वे निरन्तर ........... जलाते हैं (अरहियाभितावे तह वी तवेंति) 'अरहित' का अर्थ है निरन्तर और अभिताप का अर्थ है महादाह । वे नैरयिक निरंतर महादाह में तपते रहते हैं फिर भी १. चूणि, पृ० १३० : रज्जूहि य णियलेहि य अंदुआहि य किडिकिडिगाबधेणं बंधिऊणं मा पलाइस्संति उट्ठस्सेंति वा चलेसेंति वा । २. (क) चूणि, पृ० १३० : अयकवल्लेसु तम्मि चेव णियए रुधिरे उव्वत्तेमाणा परियत्तेमाणा। (ख) वृत्ति, पत्र १३१ : कथं पचन्तीत्याह-परिवर्तयन्तः उत्तानानवाङ्मुखान् वा कुर्वन्तः। ३. वृत्ति, पत्र १३१ : तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरमग्निप्रक्षिप्त मत्स्यादिकमप्यस्ति यन्मीयते-उपमीयते अनन्यसदृशीं तीव्र वेदनां वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः, यदि वा–तीवाभिवेदनयाऽप्यननुभतस्वकृतकर्मत्वान्न म्रियन्त इति । ४. चूर्णि, पृ० १३० : न वा म्रियन्ते, तिव्वा अतीव वेदणा, बन्धानुलोम्यादेवं गतम्, इतरधा तु अतितिब्ववेदणाइ त्ति पठ्येत । ५. चूणि पृ० १३० : भृशं गाढं प्रगाढं निरन्तरमित्यर्थः . . . . . . . . 'अथवा सामाविगअगणिणा तत्तं सीतवेदणिज्जा वि लोलुगा तेसु वि रइया सीएण हिमुक्कडअहुणपक्खित्ताई व भुजंगा लल्लक्कारेण सीतेणं लोलाविज्जति । ६. ठाणं,६१७०,७१। ७. वृत्ति, पत्र १३१ : सम्यक् प्रगाढो-व्याप्तो भृतः। Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ नरकपाल उन पर गरम तेल छिड़ककर और अधिक जलाते हैं ।" चूर्णिकार के अनुसार वे नारकीय जीव नरक में होने वाले स्वाभाविक दुःख से और विशेषतः नरकपालों के द्वारा उदीरित दुःखों से प्रायः वेदनामय जीवन जीते हैं । " २५५ श्लोक १८ : ४४. उदीर्ण कर्मवाले नरकपाल ( उदिष्णकम्माण उदिष्णकम्मा) नारकीय जीवों के प्रायः असातावेदनीय आदि अशुभ कर्म उदय में रहते हैं और नरकपालों के मोहनीय कर्म की प्रकृतियां मिथ्यात्व, हास्य, रति उदय में रहती हैं। अतः वे नारकीय जीवों को पीड़ा पहुंचाने में रस लेते हैं । श्लोक १६: ४५. श्लोक १६ : प्रस्तुत श्लोक में एक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया गया है। नरक में उत्पन्न होने वालों को कैसी वेदना दी जाती है ? क्या वे यहां जिस प्रकार से जो पाप कर्म करते हैं, नरक में उसी प्रकार से उनको पीड़ित किया जाता है अथवा दूसरे प्रकार से ? नैरयिकों को तीन प्रकार से वेदना प्राप्त होती है १. जिनके कर्म तीव्र हैं, वे तीव्र वेदना को भोगते हैं । २. जिनके कर्म मंद हैं, वे मन्द वेदना को भोगते हैं। ३. जिनके कर्म मध्यम (परिणाम वाले) हैं, वे मध्यम वेदना को भोगते हैं । जिस प्राणी ने जिस रूप में या जिस अवस्था में जो पाप कर्म किया है, उसका वैसे ही उनको स्मरण करवाते हैं। जैसे-राजा की अवस्था में उसने क्या-क्या पाप कर्म किए थे, अमात्य की अवस्था में या चारकपाल ( जेलर ) या कसाई की अवस्था में जो पाप कर्म किए हैं, उनका स्मरण करवाते हैं । अध्ययन ५ टिप्पण ४४-४५ उनको उसी प्रकार से न छेदा जाता है, न मारा जाता है, न उनका वध किया जाता है । केवल उनको उन-उन प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित किया जाता है। १. वृत्ति, पत्र १३१ : अरहितो निरन्तोऽभितापो महादाहो येषां ते अरहिताभितापा: तथापि तान्नारकांस्ते नरकपालास्तापयन्त्यत्ययं हन्तीति । २ (क) पूर्ण पृ० १२१ : २. णि, पृ० १३१ : अयोकवल्लादिसु तेषां नरकाणां गण्डस्योपरि पिटका इव जातास्ते ते स्वाभाविकेन नरकदुक्खेण विशेषतश्च नरकपालोदीरितेन पुनः पुनः समोहन्यमानाः प्रायं वेदनासमुद्धानैरिव कालं गमयन्ति । असातावेदभिन्नादिगाओ ओस अचाओ कम्पनडीयो उदिग्णामो अमुरकुमाराण विसिमि हास-रतीओओ इति असस्ते किम्मा मेरइयानं शरीराणोति वाक्यशेषः, कर्माणोऽमुराः । , (ख) वृति पत्र १३१ उदीर्णम्प्राप्तं कविया कर्मयां ते तथा तेयां तथा उदीर्णकर्माणो नरकवाला मिध्यात्यहास्य(स्पारयादीनामुदये वर्तमानाः " -दु:खमास वेदनीयमुत्पादयन्तौति । ४. पू. १० १३१ मि ते तेथे वेदनामुदीरयति? कीदृशया ? तीव्रोपचितैस्तीव्र वेदना भवन्ति मन्दमन्दा मध्येध्या नरक विशेषत: स्थितिविशेषतश्च । अधवा जधातधं ति राजत्वे वा राजामात्यत्वे चारकपालवे लुब्धकत्वे वा सीकरिक-मत्स्यग्धत्वा वच-वात-मसोपरोध-पारदारिक-पाजिक संसारमोचक-महापरित्येवमादयो इण्डा येर्यथा कृतास्तान् तथैव दंडे तत्थ सरयंति बालं, तैरवे यथाकृतैर्दण्डैः स्मारयन्ति यातयमानाः सरयंति त्ति स्मारयन्ति । न तथा छिद्यन्ते एव मार्यन्ते बध्यन्ते विध्यन्ते सह्यन्ते, एवं यावन्तो यथा च दण्डप्रकाराः कृतास्तावद्भिस्तथा च सारमन्ति । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५६ अध्ययन ५: टिप्पण ४६-४६ वृत्तिकार के अनुसार वे नरकपाल कहते हैं-अरे, तू प्रसन्नता से प्राणियों के मांस को काट-काट कर खाता था, उनका रस पीता था, मद्य पीता था, परस्त्री-गमन करता था। अब तू उन पाप-कर्मों का बिपाक भोगते हुए क्यों रो रहा है ? इस प्रकार वे उसे पूर्वाचरित सारे पाप-कर्मों की याद दिलाते हैं।' ४६. प्राणों (शरीर के अवयवों और इन्द्रियों का (पाणेहि) नरकपाल नारकीय जीवों के शरीर और इन्द्रिय-बल प्राण का वियोजन करते हैं।' श्लोक २०: ४७. मल से भरे हुए (दुरूवस्स) 'दुरूव' देशी शब्द है। चूणिकार ने इसका अर्थ-उच्चार और प्रस्रवण का कर्दम किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थविष्ठा, रक्त, मांस आदि का कर्दम किया है। ४८. नरकावास में जा पड़ते हैं (णरगे पडंति) नरकपालों द्वारा पीटे जाते हुए वे नैरयिक इधर-उधर दौड़ते हुए छुपने के लिए स्थान ढूंढ़ते हैं। किन्तु वे ऐसे स्थान में चले जाते हैं जहां उनकी वेदना और भयंकर हो जाती है। जैसे चर-पुरुष चोर का पीछा करते हैं वैसे ही नरकपाल उनका पीछा करते हैं। जैसे चोर दौड़ते-दौड़ते किसी घने जंगल में चले जाते हैं और वहां उन्हें सिंह, व्याघ्र, अजगर आदि हिंस्र पशु खा जाते हैं वैसे ही वे नैरयिक पहले से भी अधिक भयंकर पीड़ा वाले स्थान में जा पड़ते हैं।' ४६. काटे जाते हैं (तुइंति) नरकपाल विष्ठा में होने वाले कृमियों के आकार वाले कृमियों की विकुर्वणा करते हैं । वे बड़े-बड़े कृमी उन नैरयिकों को काटते हैं । नैरयिक उनको हटाने का प्रयत्न करते हैं, पर वे बड़े कष्ट से दूर होते हैं। वे नैरयिक परिश्रान्त हो जाते हैं । कृमी उनको काटना नहीं छोड़ते।' आगमकार का कथन है कि छठी, सातवीं नरक में नरयिक बहुत बड़े रक्त कुंथुओं की विकुर्वणा कर परस्पर एक दूसरे के शरीर को काटते हैं, खाते हैं।' १.वृत्ति पत्र १३२ : तदा हृष्टस्त्वं खादसि समुत्कृत्योत्कृत्य प्राणिनां मांस तथा पिबपि तद्रसं मद्य च गच्छसि परदारान् साम्प्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणाऽभितप्यमानः किमेवं रारटीषीत्येवं सर्वः पुराकृतः दण्डः दुःखविशेषः स्मारयन्तस्तादृश भूतमेव दु:खविशेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीडयन्तीति । २. चूणि, पृ० १३१ : प्राणाः शरीरेन्द्रिय-बलप्राणाः,......" विश्लेषयन्तीत्यर्थः । ३. चूणि पृ० १३१ : दुरुयं णाम उच्चार-पासवणकद्दमो। ४. वृत्ति, पत्र १३२ : दुष्टं रूपं यस्य तद्रूपं- विष्ठासृग्मांसादिकल्मलम् । ५. चूणि, पृ० १२१ : त एवं बालाः हन्यमाना इतश्चेतश्च पलायमाणा णिलुक्कणपधं मग्गंता नरकमेवान्यं भोमतरवेवनं प्रविशन्ति, जध इह चोरेहि चोरा चारिज्जता कडिल्लमनुप्रविशन्ति, तत्रापि सिंह-व्याघ्रा-ऽजगरादिभिः खाद्यन्ते, एवं ते बाला पलायमाणा नरकपालभया तं नरकं पतंति । ६. (क) चूणि, पृ० १३१ : तुद्यन्त इति तुद्यमानाः खाद्यमानाः कृमिभिः कम्मोवसगा णाम कर्मयोग्या कर्मवशगा वा, तत्थ दुरूवे विण्ठा कृमिसंस्थाना विउब्विया किमिगा तेहि खज्जमाणा चिठ्ठति, गुणमाणा य तत्थ किच्छाहिं गच्छंति, परिस्संता य तत्थेव लोलमाणा किमिगेहि खज्जति । (ख) वृत्ति, पत्र १३२ । ७. जीवाजीवाभिगम ३।१११ : छठुसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहू महंताई लोहियकुंथुरूवाइं वइरामयतुंडाई गोमयकोडसमाणाई विउव्वंति, विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगेमाणा-समतुरंगेमाणाखायमाणा-खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा-चालेमाणा अंतो-अंतो अणप्पविसमाणा-अणुप्पविसमाणा वेदण उदीरेंति-उज्जलं जाव दुरहियासं । Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५७ अध्ययन ५: टिप्पण ५०-५३ श्लोक २१: ५० तापमय (धम्मठाणं) ___ नरक के कुछ स्थान उष्णता प्रधान होते हैं । वहां की उष्णता कुंभीपाक से भी अनंतगुण अधिक होती है। वहां की वायु लुहार की धमनी से निकलने वाली वायु से भी अनन्तगुण अधिक उष्ण होती है।' वृत्तिकार के अनुसार वहां वायु आदि पदार्थ प्रलयकाल की अग्नि से भी अधिक गरम होते हैं।' देखें-टिप्पण ३२। श्लोक २३: ५१. ताड़पत्रों के संपुट की भांति (तलसंपुड व्व) इसका अर्थ है-ताड़पत्रों के संपुट की भांति हाथों और पैरों को संपुटित कर देना। चूर्णिकार के अनुसार तालसंपुटित का अर्थ है-हाथों को इस प्रकार बांधना कि दोनों करतल मिल जाएं और पैरों को भी इस प्रकार से बांधना कि दोनों पगतल मिल जाएं।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-ताड़वृक्ष के सूखे पत्तों का समूह ।' श्लोक २४: ५२. यदि तुमने सुना हो (जइ ते सुया) सुधर्मा जम्बू से कहते हैं-यदि तुमने सुना हो।' चूर्णिकार का कथन है कि लोकच ति भी ऐसा ही कहती है कि नरक में कुंभियां हैं।' ५३. पुरुष से बड़ी (अहियपोरुसीया) इसका अर्थ है-पुरुष से बड़ी, पुरुष की ऊंचाई से ऊंची। इसमें डाला हुआ नैरयिक बाहर देख नहीं सकता। वह इतनी बड़ी होती है कि उसके किनारों को पकड़कर नैरयिक बाहार नहीं आ सकता।' ५४. कुंभी (कुंभी) कुंभ एक प्रकार का माप है । तीन प्रकार के मापों के लिए इसका प्रयोग होता है-२४० सेर, ३२० सेर अथवा ४०० सेर। इस प्रमाण वाले वर्तन को कुंभी कहा जाता है।' चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं--१. जो कुंभ से बड़ी होती है वह कुंभी। इसका दूसरा अर्थ है-उष्ट्रिका-ऊंट के आकार का बड़ा बरतन । १. चूणि, पृ० १३२ : घम्मठाणं कुंभीपागअणंतगुणाधियं । जो वि तत्थ वातो सो वि लोहारधमणी व अणंतगुणउसिणाधिको। २. वृत्ति, पत्र १३२: धर्मप्रधानं उष्णप्रधानं स्थितिः स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निमा वाताबीना मत्यन्तोष्णरूपत्वात् । ३. चूणि, पृ० १३२ : तलसंपुलिता णाम अयतबंधता हस्तयोः कृता, यथेषां करतलं चकत्र मिसति एवं पारयोरपि । ४. वृत्ति, पत्र १३३ : तालसम्पुटा इव पवनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव । ५. वृत्ति, पत्र १३३ : पुनरपि सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य भगवद्वचनमाविठकरोति--यदि ते-स्वपा, श्रुता-आणिता । ६. चुणि, पृ० १३३ : यदि त्वया कदाचित् लोकेऽपि ाषा अतिः प्रतीता तत्र कुंभीओ विज्जति । ७. चूणि, पृ० १३३ : महंति-महंतीओ पुरुषप्रमाणातीता अधियपोक्सीया, यथाऽस्या प्रक्षिप्तो नारकः पश्यतीति, ण वा चरको कन्सु अवलंबिउं उत्तरित्तए। ८. पाइयसद्दमहण्णवो। ६. चूणि, पृ० १३३ : कुंभी महंता कुम्भप्रमाणाधिकप्रमाणा कुम्भी भवति .........अधया कुंभी उद्विगा। Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५५. अधम भवों में (नवाहमे ) हमने इसको सप्तमी विभक्ति मानकर इसका अर्थ 'अधम भवों में किया है। चूर्णिकार ने भी इसे सप्तम्यंत पद माना है किन्तु इसका अर्थ 'अधम में' किया है । वृत्तिकार ने इसे द्वितीया विभक्ति का बहुवचन मानकर मच्छीमार तथा व्याध आदि के भवों को अधम माना है । " ५६. स्वयं से (अप्पेण) वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'अल्पेन' देकर इसका अर्थ- परोपघात करने से उत्पन्न थोड़े से सुख से किया है। हमने इसका संस्कृतरूप 'आत्मना' किया है। इसका अर्थ है - स्वयं से । ५७. ठग कर (वंचइत्ता ) है । ५८. जैसा कर्म २५८ इलोक २६ : कूट तोल आदि से अपने को ठग कर अथवा परोपघात के सुख से अपने को ठग कर । ' ... उसका भार (दुःख परिमाण) होता है (जहाकडे कम्म तहा से भारे) क्रूर कर्म करने वाले प्राणी घोर नरक में दीर्घकाल तक पड़े रहते हैं। जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही उसका भार होता अध्ययन ५ : टिप्पण ५५-५८ } बुर्णिकार ने यहां एक शंका उपस्थित की है कि नरक में कर्मानुरूप बेचना विपत्ति होती है वहां कैसा भार ? भार कहने का तात्पर्य क्या है ? इसके समाधान में वे कहते हैं-भार के कथन की भावना यह है कि जिस अध्यवसाय से प्राणी कर्मों का उपचय करता है वैसा ही उसकी वेदना का भार होता है । कर्मों की तीन स्थितियां हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । स्थिति के अनुरूप वेदना होती है । प्राणी संसार में जैसे कर्म करता है वैसी ही वेदना नरक में भोगनी पड़ती है। वह वेदना तीन प्रकार से उदीर्ण होती है- स्वतः परतः और उभयतः । उभयतः उदीर्ण होने वाली वेदना के ये कुछ प्रकार हैं मांस खाने वालों को उन्हीं के शरीर का अग्निवर्ण मांस खिलाया जाता है । मांसरस का पान करने वालों को उन्हीं का मांसरस अथवा तपा हुआ तांबा या शीशा पिलाया जाता है । शिकारी तथा कसाई को उसी प्रकार छेदा जाता है, मारा जाता है । झूठ बोलने वाले की जीभ निकाल दी जाती है या टुकड़े-टुकड़े कर दी जाती है। चोरों के अंगोपांग काट डाले जाते हैं अथवा चोरों को एकत्रित कर, ग्रामवध की भांति उन्हें मारा जाता है । परस्त्रीगमन करने वालों के वृषण छेदे जाते हैं, तथा अग्नि में तपे हुए लोहस्तंभों से आलिंगन करने के लिए बाध्य किया जाता है । . महापरिग्रह और महाआरंभ करने में जिन-जिन कारों से प्राणियों को दुःखित किया है, उनका निरोध किया है, यातना दी है, उन्हें सेवा में व्यापृत किया है, उन्हीं के अनुसार वेदना प्राप्त होती है । १. चूर्ण, पृ० १३३ : भवाधमे भवानामधम: अतस्तस्मिन् भवाधमे । २. वृति, पत्र १३४ : भवानां मध्ये अधमा मवाधमाः मत्स्यबन्धलुब्धकादीनां भवास्तान् । ३. वृत्ति, पत्र १३४ : अल्पेन स्तोकेन परोपघातसुखेन । ४. नृषि, पृ० १३३ पंचकूलाहि अथवा अध्याय बरोवपात जो क्रोधी स्वभाव के थे, उनके लिए ऐसी क्रियाएं की जाती हैं जिससे उनमें क्रोध उत्पन्न हो । जब वे रुष्ट हो जाते हैं तब नरकपाल कहता है- अब कुपित क्यों नहीं हो रहे हो ? अब तुम क्रुद्ध होकर क्या कर सकोगे ? जो मानी थे, उनकी अवहेलना की जाती है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५8 अध्ययन ५ टिप्पण ५४ ६१ जो मायावी थे उन्हें ठगा जाता है, जैसे--गर्मी से संतप्त नैरयिकों को असिपत्र आदि पेड़ों की ठंडी छाया में ले जाया जाता है। वहां वृक्ष के पत्ते नीचे गिरते हैं और शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है प्यास लगने पर वे नैरयिक पानी मांगते हैं। तब उन्हें गरम सीसा और तांबा पिलाते हैं । जो लोभी थे, उन्हें भी इसी प्रकार से पीड़ित किया जाता है । इसी प्रकार अन्यान्य आश्रवद्वारों में भी यथायोग्य वेदना दी जाती है । अतः श्लोक के इस चरण में उचित ही कहा गया है कि जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही उसका भार होता है । वृत्तिकार भी इस वर्णन से सहमत हैं । उपरोक्त चरण में प्रयुक्त 'भार' शब्द वेदना का द्योतक है । वेदना कर्म से उत्पन्न होती है । अतः यथार्थ कर्म भार ही है ।' ५९. पाप का (क) २१२ पूर्णिकार ने इसका अर्थ 'कर्म और वृत्तिकार ने 'पाप' किया है।' श्लोक २७ : ६०. अनिष्ट (कसिणे) इसके संस्कृतरूप दो बनते हैं—कृष्ण और कृत्स्न । हमने प्रथमरूप मानकर इसका अर्थ अनिष्ट किया है । पूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- संपूर्ण किया है। ६१. अपवित्र स्थान में (कुणिमे) जहां का सारा स्थान मांस, रुधिर, पीव आदि के कर्दम से भरा पड़ा है, जो बीभत्स है, हाहाकर से गूंज रहा है और जहां 'कष्ट मत दो' - ऐसे शब्दों से सारी दिशाएं बधिर हो रही हैं, ऐसे परम अधम नरकावास में । " १. (क) चूर्णि, पृ० १३३ : यथा चैषां कृतानि कर्माणि तथैवैषां मारो वोढव्य इत्यर्थः, बिर्भात भ्रियते वाऽसौ भारः । का तहि भावना ? - यादृशेनाध्यवसायेन कर्माण्युपचिनोति तथैवैषां वेदनाभारो भवति, उत्कृष्टस्थितिर्वा मध्यमा जघन्या वा, ठितिअणुरूवा चेव वेदना भवति अथवा पाशानी कर्माचिनोति तथा तथापि वेदनोदीयते तेपां स्वयं वा परतो वा उभयता उभयकरणेण तद्यथा— मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निवर्णानि भक्ष्यन्ते । रसकपायिनः पूय दधिरं कलकलीकृतं तउ-तंबादीणि य द्रवीकृतानि । व्याध - घात सौकरिकादयस्तु तथैव छिद्यन्ते मार्यन्ते च । चारकपाला अष्टादशकर्मकारिणः कार्यन्ते च । आनुतिकानां द्विस्यन्ते सुद्यते च चौराणां अङ्गोपाङ्गाहियन्ते पिण्डीकृत्य चैनान् प्रामपातेष्विव वधयन्ति । पारदारिकाणां वृणारि अग्निवर्णाश्च सोहमय्यः स्त्रियः अवगाहाविति । महापरिहारम्मंश्च येन येन प्रकारेण जीवा दुःखापिता सन्निरुद्धा जातिता अभियुक्ताश्च तथा तथा वेयणाओ पविज्जति । क्रोधनशीलानां तत् तत् क्रियते येन येन क्रोधउत्पद्यते एवं सिजति एवं सिजति इदानी वा किन यसे ? कि वा क्रुद्धः करिष्यसि ? मागियो होलिति । मायिणो असिपत्तमादीहि शीतलच्छायासरिसेहि य तउअतंबएहि प्रवंचिज्जति । लोभे जधा परिग्गहे । एवमन्येष्वपि आश्रवेष्वायोज्यमिति । अतः साधूक्तं जधा कडे कम्मे तधा से मारे इति । 1 --- (ख) वृत्ति, पत्र १३४ । २. चूर्ण, पृ० १३४ : कलुषमिति कर्मैव । ३. वृत्ति, पत्र १३४ : कलुषं पापम् । ४. (क) चूणि, पृ० १३४ : कसिणे संपुष्णे । (ख) वृत्ति पत्र १३४संपूर्ण ५. (क) चूर्णि, पृ० १३४ : कुणिमेति न कश्चित् तत्र मेध्यो देशः सव्वे चैव मेद वसा-मंस- रुधिरपुध्वाणुले वणतला । (ख) वृत्ति पत्र १३४ मिमेति मांसपेशीदधिरान् फिल्फिस हर बलाकुलेसा तावदित्यादिशब्दवधिरितवियन्तराले परमाद्यने नरकायासे । बीमरसवर्शने हाहारवाकयेन कमा Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६० अध्ययन ५: टिप्पण ६२-६७ श्लोक २८ ६२. यथार्थरूप में (जहातहेणं) सर्वज्ञ यथार्थ द्रष्टा होता है । वह जैसा है वैसा ही देखता है और वैसा ही उसका प्रतिपादन करता है। उसके कथन में न उपचार होता है और न अतिशयोक्ति।' ६३. अज्ञानी प्राणी (बाल) वृत्तिकार ने यहां इस शब्द के चार अर्थ किए हैं - १. परमार्थ को न जानने वाला। २. विषय सुख का आकांक्षी। ३. वर्तमान को ही देखने वाला। ५. कर्म के विपाक की उपेक्षा न करने वाला। श्लोक २६: ६४. पीठ की (पिट्ठउ) यहां 'ऊकार' में हृस्वत्व छंदोदृष्टि से किया गया है। ६५. सुदृढ़ (थिरं) चूर्णिकार ने इस शब्द का अर्थ- 'चमड़ी को बीच में बिना तोड़े'- किया है और वृत्तिकार ने इसका अर्थ-बलवत्सुदृढ़ किया है। श्लोक ३० ६६. उसके मुंह को........... जलाते (थूलं वियासं मुहे आडहंति) नरकपाल नरयिकों के मुंह फाड़कर चार अंगुल से बड़ी लोहे की कीलों से उसे कील देते हैं ताकि वे मुंह को बंद न कर सकें, तथा न चिल्ला सकें। फिर भी वे चिल्लाकर कहते हैं—'अरे ! हमारा मुंह जलाया जा रहा है।" वृत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। नरकपाल नैरयिकों के मुंह को फाड़कर उसमें लोहे के तपे हुए बड़े गोले डालकर चारों ओर से जलाते हैं। ६७. उस अज्ञानी को........... कोडे मारते हैं (रहंसि जुत्तं .......... 'तुदेण पढ़े) इन दो चरणों के अर्थ के विषय में चूणिकार और वृत्तिकार एकमत नहीं हैं । चूर्णिकार के अनुसार इनका अर्थ है वे नरकपाल बड़े-बड़े रथों की बिकुर्वणा करते हैं और उन नैरयिकों को उन रथों में जोड़कर चलाते हैं। जब वे नैरयिक १. (ख) वृत्ति, पा १३५ : याथातथ्येन यथा व्यवस्थितं तथैव कथयामि, नात्रोपचारोऽर्थवादो वा विद्यत इत्यर्थः। (ख) चूणि, पृ० १३४ : यथेति येन सर्वज्ञो हि यथवावस्थितो भावः तथैवैन पश्यति भाषते च । २. वृत्ति, पत्र १३५ : बाला: परमार्थमजानाना विषयसुखलिप्सवः साम्प्रतक्षिणः कर्मविपाकमनपेक्षमाणा । ३. चूर्णि, पृ० १३४ : स्थिरो नाम अवोडयन्तः । ४. वत्ति, पत्र १३५: स्थिरं बलवत ।। ५. चूणि, पृ० १३५ : लोहकोलएणं चतुरंगुलप्रमाणाधिकेणं थूलं मुहं विगसावेतूणं । थूलमिति महत्, मा संवहिति वा रडिहिंति व त्ति, आरसतोऽपि न तस्य परित्राणमस्ति, तथाप्यातुरत्वादारसंति । आउहंति त्ति वु (? ड) झिंति । ६. वृत्ति, पत्र १३५ : मुखे विकाशं कृत्वा स्थूलं बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रक्षिपन्त आ-समन्ताद्दहन्ति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ५ : टिप्पण ६८-७० चलने में स्खलित होते हैं तब उन्हें आरों से बींधते हैं या पीठ पर कोड़े मारते हैं । वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ है नरकपाल नरयिकों को एकान्त में ले जाते हैं और उनके द्वारा दी जाने वाली वेदना के अनुरूप उनके द्वारा किए गए कार्यों की स्मृति कराते हैं । वे कहते हैं -हम तुझे तांबा या शीशा इसीलिए पिला रहे हैं कि तू पूर्वजन्म में मद्यपायी था। हम तुझे तेरे शरीर का मांस इसीलिए खिलाते हैं कि तू पूर्वजन्म में मांस खाता था। इस प्रकार दुःखानुरूप अनुष्ठान का स्मरण दिलाते हुए उनकी कदर्थना करते हैं और निष्कारण ही उन पर रुष्ट होकर पीठ पर कोड़े मारते हैं। चणिकार ने 'सरयंति' के दो अर्थ किए हैं-चलना और स्मरण कराना । वृत्तिकार ने केवल एक ही अर्थ किया हैस्मरण दिलाना। चूर्णिकार ने 'रहंसि' का अर्थ 'रथ में' और वृत्तिकार ने 'एकान्त' में किया है।' श्लोक ३१: ६८. अग्नि जैसी (तओवमं) यह भूमि का विशेषण है। इसका संस्कृतरूप है 'तदुपमाम्' । वह भूमि केवल उष्ण ही नहीं है किन्तु अग्नि से भी अनन्तगुण अधिक उष्ण है।' बौद्ध साहित्य में नरकभूमि के विवरण में लिखा है-तेषां अयोमपी भूमिव लिता तेजसा युता'। इसकी व्याख्या देते हुए आचार्य नरेन्द्रदेव ने अभिधर्म-कोश (पृ. ३७३) के फुट नोट में जे० पिजिलुस्की को उद्धृत किया है। उनके अनुसार ज्वलित लोहे की भूमि तप्त होने पर एक ज्वाला बन जाती है । ६६. वे जलने पर (ते डझमाणा)........ नरकपाल धधकते अंगारे जैसी उष्ण भूमि पर नरयिकों को जाने-आने के लिए विवश करते हैं। उन पर अतिभार लादकर उस भूमि पर चलाते हैं । उस समय जलते हुए वे नैरयिक करुण स्वर में चिल्लाते हैं।' ७०. बाण से (उसु) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं -प्रदीप्त मुख वाले बाण और चाबुक ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-चाबुक आदि किया है। १. (क) चूणि, पृष्ठ १३५: सरयंति ति गच्छंति बाहेतीत्यर्थः पापकर्माणि च स्मारयन्ति । त एव च बालास्तत्र युक्ता ये चैनां वाहयन्ति त्रिविध करणेनापि तेयस्सरूविणो रधे सगडे वा, गुरुगं विउवितं रथं अवधता य तत्तारैरिव आरुभ विधंति आरुह्य विधंति । तुवन्तीति तुदा तुत्रकाः, गलिबलीवर्दवत् पृष्ठे । (ख) वृत्ति, पत्र १३५ , रहसि एकाकिन युक्तम् उपपन्नं युक्तियुक्तं स्वकृतवेदनानुरूपं तत्कृतजन्मान्तरानुष्ठानं तं बालम् अज्ञं नारकं स्मारयन्ति, तद्यथा- तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्त्वमासीस्तथा स्वमांसभक्षणावसरे पिशिताशी स्वमासीरित्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं स्मारयन्तः कदर्थयन्ति, तथा-निष्कारणमेव आरुष्य कोपं कृत्वा प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यन्तीति । २. (क) चूर्णि, पृ० १३५ : सा तु भूमि............ .....न तु केवलमेवोष्णा। ज्वलितज्योतिषाऽपि अर्णतगुणं हि उष्णा सा, तदस्या औपम्यं तदोपमा । (ख) वृत्ति पत्र १३५ : तदेवंरुपां तदुपमा वा भूमिम् । ३. चूणि, पृ० १३५ : ते तं इंगालतुल्ल भूमि पुगो पुणो खुदाविज्जति, आगत-ताणि कारविज्जता य अतिभारोक्कता डज्झमाणा ___ कलुणाणि रसंति। ४. चूणि, पृ० १३५ । इषुभिः तुम्नकैश्च प्रदीप्तमुखैः . ५. वृत्ति, पत्र १३५ । इषुणा प्रतोदाविरूपेण । Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६२ अध्ययन ५ : टिप्पण ७१-७७ श्लोक ३२: ७१. बलात् (बला) इसका अर्थ है--बलात, इच्छा न होते हुए भी। चूणिकार ने इसका एक अर्थ और किया है-घोर बल वाले।' ७२. दुर्गम स्थान में (अभिदुग्गंसि) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अति विषम स्थान किया है। वृत्तिकार ने कुंभी, शाल्मली आदि को विषम स्थान माना है।' ७३. प्रेष्यों (पेसे) जिन्हें बार-बार काम में नियोजित किया जाता है, वे दास, नौकर आदि कर्मकर प्रेष्य कहलाते हैं । श्लोक ३३ : ७४. पथरीले मार्ग पर (संपगाढंमि) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. निरंतर वेदनामय मार्ग । २. पथरीला मार्ग। वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं - १. बहु वेदनामय असह्य नरक । २. बहुत पीडाकारक मार्ग। ७५. सामने से गिराई जाने वाली (अभिपातिणीहि) नरकपालों द्वारा सामने से गिराई जाने वाली शिलाएं सामने ही आकर गिरती हैं, अन्यत्र नहीं।' ७६. संतापनी (संतावणी) चूणिकार ने इसका अर्थ 'संतापनी' नामक नरक किया है। सभी नरक संताप उत्पन्न करने वाले होते हैं। बैंक्रियलब्धि से उत्पन्न अग्नि से नैरयिक जीव विशेष रूप से संतापित किए जाते हैं । वृत्तिकार इसे 'संतापनी' नामक कुंभी मानते हैं।' ७७. चिरकालीन स्थितिवाली (चिरट्टिईया) नरक में जघन्य अवधि दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अवधि तेतीस सागर की होती है। वहां वे जीव चिरकाल तक रहते हैं। १. चूणि, पृ० १३५ : बलात् ............बलात्कारेण, अथवा बला घोरबला इत्यर्थः । २. चूणि, पृ० १३५ : अभिदुग्गं भृशं दुर्ग वा।। ३. वृत्ति, पत्र १३६ : अभिदुर्गे कुम्भीशाल्मल्यादौ । ४ चूणि, पृ० १३५ : पुनः पुनः प्रेष्यत्त इति प्रेस्याः दासा भृत्या वा। ५.णि, पृ० १३५ : नानाविधाभिर्वेदनामि शं गाढं गाढं सम्प्रगाढं निरन्तरवेदन मिति वा । अधवा सम्बाधः पथः सम्प्रगाढः ..... .........शर्करा-पाषाणपथं । ६. वृत्ति, पत्र १३६ : सम्प्रगाढं मिति बहुवेदनमसह्य नरकं मागं वा। ७. चूणि, पृ० १३५ : शिलाभिविस्तीर्णाभिक्रियादिभिरभिमुखं पतन्तीभिः अभिपातमाना नान्यत्र पतन्तीत्यर्थ । ८ चूणि, पृ० १३५ : सर्व एव नरकाः सन्तापात, विशेषेण तु वैक्रियाग्निसन्ता(पिता)। १. वृत्ति, पत्र १३६ : सन्तापयतीति सन्तापनी कुम्भी । १०. चूणि, पृ० १३५ : चिरं तिष्ठन्ति ते हि चिरद्वितीया, जघण्णेण दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीससाउरोवमाणि । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६३ अध्ययन ५: टिप्पण ७८-८३ श्लोक ३४: ७८. कडाही में (कंदूसु) ___ इसका अर्थ है-पकाने का पात्र ।' ७६. द्रोण (बड़े कौए) (उड्ढकाएहि) वस्तुतः यह पाठ 'उड्डकाएहि' होना चाहिए था। 'उड्ड' देशी शब्द है । इसका अर्थ है दीर्घ या बड़ा। 'उडुकाएहि' का अर्थ है-द्रोणकाक या बड़ा कौआ। चूर्णिकार के अनुसार इनकी चोंच लोहमयी होती है। ये अपने भक्ष्य को उड़ते-उड़ते ही पकड़कर खा डालते हैं। ८०. सिंह-व्याघ्र आदि (सणप्फहिं) इसका अर्थ है ---वैसे जानवर जिनके पैरों में बड़े-बड़े तीखे नाखून हों। चूर्णिकार ने इस पद से सिंह, व्याघ्र, वृक, शृगाल आदि का ग्रहण किया है। ८१. श्लोक ३४ प्रस्तुत श्लोक में चूर्णिकार ने 'उप्पतंति' के स्थान में 'उप्फिडंति' तथा 'पखज्जमाणा' के स्थान में 'विलुप्पमाणा' पाठ मानकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है नरकपाल अज्ञानी नैरयिक जीवों को पाक-भाजन में डालकर पकाते हैं। वे भुने जाते हुए ऊपर उछलते हैं। (नैरयिक पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं) तब ऊपर उड़ने वाले विविध द्रोणकाक, (जिनकी चोंच लोहे की होती है) उन्हें खाते हैं। खाते समय कुछ टुकड़े नीचे पृथ्वी पर पड़ते हैं । उन्हें सिंह, व्याघ्र, मृग, शृगाल आदि पशु खा डालते हैं।' श्लोक ३५ : ८२. बहुत ऊंचा (समूसियं) चूर्णिकार के अनुसार यह स्थान ऐसा है जहां नैरयिक जीवों को विनष्ट किया जाता है।" वृत्तिकार ने इसका अर्थ--चिता के आकार वाला (स्थान) किया है। चिता की रचना उच्छ्रित होती है। वह नरक का स्थान भी उच्छ्रित है, ऊंचा है। ८३. विधूम अग्नि का स्थान (विधूमठाणं) ___यहां अग्नि के लिए विधूम शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्य लोक में अग्नि दो प्रकार की होती है-धूम सहित और निर्धूम । नरक में इंधन से प्रज्वलित अग्नि नहीं होती। वह निरंधन ही होती है। चूर्णिकार ने बताया है जो अग्नि इंधन से ही प्रज्वलित होती है, उससे धुंआ अवश्य ही निकलता है। नरक की अग्नि निरंधन होती है। चूर्णिकार ने इसका दूसरा अर्थ यह किया है-वहां केवल निर्धूम अंगारे हैं । निर्धूम अंगारों का ताप बहुत अधिक होता है।' १. चूणि, पृ० १३६ : अयकोट-पिट्ठ-पयणगमादीसु पयणगेसु । २. चूणि, पृ० १३६ : उड्डकाया णाम द्रौणिकाकाः ते उप्फिडिता वि सन्ता उडकाएहि विविधेहि अयोमुहेहि खज्जति । ३. चूणि, पृ० १३६ : सिंघव्याघ्र-मृ (? वृ) ग-शृगालादयः विविधाः । ४. चूणि, पृ० १३६ । ५. चूणि, पृ० १३६ : तत्थ ते णेरइया समूसविज्जति, ओसवितं विनाशितमित्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १३६ : समूसियं नाम इत्यादि सम्यगुच्छ्तिं चितिकाकृतिः । ७. चूणि, पृ० १३६ : विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलित: सेन्धनस्य हग्नेरवश्यमेव घूमो भवति । अथवा विधूमवद्, विधूमानां हि अङ्गाराणामतीव तापो भवति । Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ५ : टिप्पण ८४-८८ वृत्तिकार ने भी विधूम का अर्थ अग्नि किया है। इसे वर्तमान के विद्युतीय युग में सम्यग् प्रकार से समझा जा सकता है। नरक की अग्नि विद्युत् है, जिसे इंधन की अपेक्षा नहीं है । हजार योजन से ऊपर या नीचे अग्नि नहीं होती। ऑक्सीजन के बिना अग्नि नहीं जलती। बिजली अग्नि नहीं है। देखें-५७, ३८ का टिप्पण । ८४. करुण रुदन करते हैं (कलुणं थणंति) यहां करुण का अर्थ-अपरित्राण, निराक्रन्दन । वे नैरयिक करुण रुदन करते हैं, क्योंकि उनका परित्राण करने वाला कोई वहां नहीं होता । वे असहाय होते हैं, अत: उनका रुदन करुण होता है । जिनको परित्राण प्राप्त है, वे यद्यपि रुदन करते हैं, परन्तु उनका वह रुदन अतिकरुणाजनक नहीं होता । वृत्तिवार ने करुण का अर्थ दीन किया है।' ८५. बकरे (अयं) इसके दो अर्थ हैं-अज-बकरा और अयस् -लोह । चूणिकार ने मूल अर्थ 'अज' और वैकल्पिक अर्थ 'लोह' किया है।' ८६. ओंधे सिर कर (अहोसिरं क१) कुछ नरकपाल उन नैरयिक जीवों को ओंधा लटकाकर काटते हैं और कुछ नरकपाल उनको काटकर फिर ओंधा लटकाते हैं। तुलना-एते पतन्ति निरये उखपादा अवंसिरा। इसीनं अतिवत्तारो संयनानं तपस्सिनं ॥ (जातक ५।२६६ तथा संयुक्तनिकाय २७।५) -जो पुरुष ऋषि, संयत और तपस्वियों का अपवाद करते हैं, वे सिर नीचे और पैर ऊपर कर नरक में पड़ते हैं । श्लोक ३६: ८७. शूल पर लटकते (समूसिया) जैसे चांडाल मृत शरीर को लटकाते हैं, वैसे ही नरकपाल उन नैरयिक जीवों को खंभों पर ओंधा लटकाते हैं। ८८. संजीवनी (संजीवणी) वह नरकभूमि बार-बार जिलाने वाली होने के कारण उसका नाम 'संजीवनी' है। वहां के नैरयिक जीव नरकपालों के द्वारा दी गई, परस्पर उदीरित तथा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न वेदना से छिन्न-भिन्न, क्वथित या मूच्छित होकर वेदना का अनुभव करते हैं, परन्तु मरते नहीं । उनका खंड-खंड कर देने पर भी वे नहीं मरते क्योंकि उनकी आयु अवशेष होती है। जैसे मूच्छित व्यक्ति पर पानी के छींटे ढालने से वे सचेत हो जाते हैं, वैसे ही वे नैरयिक भी पुनः पुनः जीवित होते रहते हैं। वह स्थान संजीवनी की भांति १. वृत्ति, पत्र १३६ । विधूमस्य अग्नेः स्थानम् । २ चूणि, पृ० १३६ : कलुणं वर्णति, कलुणमिति अपरित्राणं निराक्रन्दमित्यर्थः, सपरित्राणा हि यद्यपि स्तनन्ति वा तथापि तन्नाति करणम् । ३. वृत्ति, पत्र १३६ : करणं दोनम् ।। ४. वृणि, पृ० १३६ : अयो छगलगो, अयेन तुल्यं अयवत् । ५. चूणि, पृ० १३६ : अघोसिरं कार के विगित्तंति, केइ विगंतिऊण पच्छा अघोसिरं बंधति । ६. वृत्ति, पत्र १३७ : तत्र नरके स्तम्मावो ऊर्ववाहवोऽधःशिरसो वा श्वपाकै स्तबल्लम्बिताः । Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६५ अध्ययन ५:ठिप्पण ८९-९१ जीवनदात्री होने के कारण उसे 'संजीवनी' कहां गया है। यह किसी नरक विशेष का नाम नहीं है। बौद्ध साहित्य में 'संजीव' नामक नरक का यही वर्णन मिलता है । बौद्ध परंपरा में आठ ताप-नरक माने जाते हैं। पहला नरक है अवीचि और आठवां है संजीव । दूसरे नरक से आठवें नरक तक दुःख निरंतर नहीं होता। संजीव नरक में पहले शरीर भग्न होते हैं । वे रजकण जितने सूक्ष्म हो जाते हैं । पश्चात् शीतल वायु से वे पुनः सचेतन हो जाते हैं। इसलिए इस नरक का नाम 'संजीव' है। ८९. चिरस्थिति वाली (चिरटिईया) नरक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है। वह चिरस्थिति वाली है, अर्थात् वहां के नैररियकों का आयुष्य तेतीस सागर का है। चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-नरक तथा कर्म के अनुभाव से नैरयिक जीव हजारों बार पीसे जाते हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं, फिर भी वे पुनः संध जाते हैं, पारे की भांति एकत्रित हो जोते हैं, पूर्ववत् हो जाते हैं। अतिवेदना के कारण वे नैरयिक मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वे मर नहीं पाते। इसलिए उन्हें वहां चिरकाल तक रहना पड़ता है।' ६०. पापचेता (पावचेया) पूर्वजन्म में पाप करने के कारण प्राणी नरक में जाता है। वहां सब पापचित्त वाले ही होते हैं। कोई कुशलचेता वहां उत्पन्न नहीं होता, जिससे कि वहां के प्राणी अपापचेता हो जाएं ।' श्लोक ३७ : ६१. ग्लानि का अनुभव करते हैं (गिलाणा) वे नैरयिक जीव सदा ग्लान रहते हैं । कहां कोई आश्वासन नहीं है। जैसे महाज्वर से अभिभूत रोगी निष्प्राण और निर्बल हो जाता है, वैसे ही वे सदा दस प्रकार की वेदना को भोगते हैं। दस प्रकार की वेदना का उल्लेख स्थानांग में मिलता है - १. (क) चुणि, पृ० १३६ : एवं यथोद्दिष्टर्वेदनाप्रकारभक्ष्यमाणाश्च स्वाभाविकनिरयपालकृतैर्वा पक्ष्यादिभिः छिन्नाः क्वथिता वा सन्तो वेदनासमुद्घातेन समोहता सन्तो मृतवदवतिष्ठन्ति । यह मूच्छिता उदकेन सिक्ताः पुनरुज्जीविता इत्यपदिश्यन्ते एवं ते मूच्छिताः सन्तः पुनः पुनः सजीवन्तीति सञ्जीविवः सर्व एव नरका संजीवणा । (ख) वृत्ति, पत्र १३७ । २. अभिधर्मकोश, पृ० ३७२, आचार्य नरेन्द्र देव । ३ (क) चूणि, पृ० १३६ : चिरद्वितीया णाम जधण्णेण दस वाससहस्साणि उक्कोसेणं तेत्तीससागरोबमाणि । अथवा चिरं मृता हि ठंतीति चिरद्वितीया, नरकानुभावात् कर्मानुभावच्च यद्यपि पिज्यन्ते सहस्रशः क्रियन्ते तथापि पुन: संहन्यन्ते, इच्छन्तोऽपि मर्नु तथापि न म्रियन्ते । (ख) वृत्ति, पत्र १३७ । ४. चूणि, पृ० १३६ : पापचेत ति पूर्व पापचेता आसीत् सा प्रजा, साम्प्रतमपि न तत्र किञ्चित् कुशलचेता उत्पद्यते येनापापचेता सा प्रजा स्याविति । ५. चूणि, पृ० १३७ : जमकाइएहि नेरइएहिं च न तत्र समाश्वासोऽस्ति । नित्यग्लाना इति महाज्वराभिभूता इव निष्प्राणा निर्बला नित्यमेव च नारका दसविधं वेवणं वेदेति । ६. ठाणं, १०.१०८ : रइया णं दसविधं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-सीतं, उसिणं, खुधं, पिवासं, कंडु, परज्झ, भयं, सोगं, जरं, वाहि। Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन ५: टिप्पण २-१७ १. शोत २. उष्ण ३. क्षधा ४. पिपासा ५. खुजलाहट ६. परतंत्रता ७. भय ८. शोक ६. जरा १०. व्याधि श्लोक ३८ : ६२. वधस्थान (णिहं) जहां बहुत प्राणी मारे जाते हैं उस स्थान को 'निह' कहा गया है।' ६३. बिना काठ की आग जलती है (जलंतो अगणी अकट्ठो) वहां बिना काठ की अग्नि जलती है। वह अग्नि वैक्रिय से उत्पन्न होती है। वे नीचे पाताल में होती हैं, अनवस्थित होती हैं । वे बिना संघर्षण से उत्पन्न होने वाली हैं। देखें-५७, ३५ का टिप्पण । ६४. बहुत कर कर्म करने वाले नैरयिक (बहकरकम्मा) क्रूर का अर्थ है—-दयाहीन । बैसा हिंसा आदि का कार्य जिसको करने के पश्चात् भी कर्ता पश्चात्ताप नहीं करता, वह कर्म क्रूर कहलाता है।' ६५. जोर-जोर से चिल्लाते हुए (अरहस्सरा) _ 'रह' का अर्थ है एकान्त या शून्य । जो शून्य नहीं है, वह 'अरह' स्वर होता है । भावार्थ में इसका अर्थ होगा-जोर-जोर से चिल्लाना। श्लोक ३६ : ६६. बड़ी (महंतीउ) छन्द की दृष्टि से यहां ओकार के स्थान पर ह्रस्व उकार का प्रयोग है । इसका अर्थ है-बड़ी । नरकपाल नैरयिकों को जलाने के लिए बड़ी-बड़ी चिताएं बनाते हैं। वे नैरयिकों के शरीर प्रमाण से बहत विशाल होती हैं। उनमें अनेक नैरयिक एक साथ समा जाते हैं। श्लोक ४० : ६७. पीटते हैं (समारभंति) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-पीटना किया है। १.(क) वत्ति, पत्र १३७ : निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगा यस्मिन् तन्निहम-आघातस्थानम् । (ख) चूणि, पृ० १३७ : अधिकं तस्यां हन्यत इति निहं ज्वरोदुपानवस्थितम् । २. चूणि, पृ० १३७। ३. चूणि, पृ० १३७ : कूरं णाम निरनुक्रोशं हिंसादि कर्म, यत् कृत्वा कृते च नानुतप्यन्ते । ४. वृत्ति, पत्र १३७ : अरहस्वरा बृहदाक्रन्दशब्दा । ५. चूणि, पृ० १३७ : महंतोओ नाम नारकशरीरप्रमाणाधिकमात्रा: यत्र चानेके नारका मायन्ते । ६. चूणि, पृ० १३७ : समारभंति ति पिटेति । Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६७ अध्ययन ५: टिप्पण 8८-१०२ श्लोक ४१: १८. लकड़ी आदि के प्रहार से (वहेण) इसका संस्कृतरूप है-'व्यथेन' । चूणिकार और वृत्तिकार को इस शब्द से डंडा आदि का प्रहार अभिप्रेत है।' डंडा आदि का प्रहार व्यथा उत्पन्न करता है, इसलिए साध्य में साधन का आरोप कर उसे व्यथा-उत्पादक माना गया है। 88. दोनों ओर से छीले हए फलकों की भांति (फलगा व तट्रा) जैसे लकड़ी के तख्ते को करवत आदि से दोनों ओर से छीलते हैं, उसी प्रकार नरयिक भी करवत आदि से छीले जाते हैं । देखें--आयारो ६।११३ : फलगावयट्ठी। १००. आराओं से (आराहि) इसका अर्थ है--- चाबुक के अन्त में लगी हुई नुकीली कील ।' पशुओं को हांकने के लिए लकड़ी के चाबुक में एक सिरे पर तीखी कील लगी रहती है। उसे पशु के मर्म-स्थान-गुदा में चुभाया जाता है। उसे 'आरा' कहते हैं । १०१. ढकेले जाते हैं (णियोजयन्ति) इसका अर्थ है-कार्य में व्याप्त करना। नरकपाल नै रयिकों को तपी हुई लंबी आराओं से बींधते हैं और 'उठ, उठ, चल, चल,' इस प्रकार उन्हें आगे ढकेलते हैं।' वृत्तिकार के अनुसार नरकपाल नैरयिकों को तपा हुआ तांबा आदि पीने के व्यापार में व्याप्त करते हैं ।' श्लोक ४२: १०२. नरकपालों द्वारा क्रूरतापूर्वक कार्यों में व्याप्त होते हैं (अभिजुजिया रुद्द) चूर्णिकार के अनुसार वे नैरयिक दो प्रकार से रौद्र कार्य में व्या वृत होते हैं१. पूर्वजन्मों में भी वे रौद्र कर्मकारी थे। २. यहां भी वे परस्पर रौद्र वेदना की उदीरणा करते हैं । वृत्तिकार ने इस के दो अर्थ किए हैं: १. दूसरे नैरयिक को मारने के रौद्र कार्य में व्याप्त होते हैं। १ (क) चूणि, पृ० १३७ : वधेण...............लउडाविघातः । (ख) वृत्ति, पत्र १३८ : व्यथयतीति व्यथो - लकुटादिप्रहारस्तेन । २. (क) चूणि, पृ० १३७ : फलगावतट्ठी त एवं भग्नाङ्ग-प्रत्यङ्ग फलका इव उभयथा प्रकृष्टा: करकयमादीहि तच्छिता। (ख) वृत्ति, पत्र १३८ : फलकमिवोभाभ्यां क्रकचाविना अवतष्टाः तनुकृताः । ३. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ४. वृत्ति, पत्र १३८ : विनियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति । ५. चूणि, पृ० १३७ : तप्ताभिः दीर्घाभिराराभिविध्यन्ते, उत्तिष्ठोत्तिष्ठेति गच्छ गच्छति । ६. वृत्ति, पत्र १३८ : तप्तत्रपुपानादिके कर्मणि विनियोज्यन्ते व्यापार्यन्त इति । ७. चणि, पृ० १३८ : अभियुजिता तिविधेण वि रौद्रादीनि कर्माणि.........................ते च रौद्राः पूर्वमभवन, तत्रापि रौद्रा एवं परस्परतो वेदनां उदीरयन्तः । ८. वृत्ति, पत्र १३८ : अभिजु जिया इत्यादि, रौद्रकर्मण्यपरनारकहननादिके अभियुज्य व्यापार्य यदि वा--जन्मान्तरकृतं रौद्रं सत्त्वोप घातकार्यम् अभियुज्य स्मारयित्वा । Jain Education Intemational ational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६८ अध्ययन ५: टिप्पण १०३-१०६ २. पूर्वजन्म में किए जीव-हिंसा आदि रौद्र कार्यो की स्मृति दिलाते हैं । यहां 'रुद्द' शब्द में कोई विभक्ति नहीं है । यहां द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए। १०३. हाथीयोग्य भार ढोते हैं (हत्थिवहं वहंति) हाथीयोग्य भार ढ़ोते हैं अर्थात् हाथी जितना भार ढोता है उतना भार वे नैरयिक ढोते हैं। इसका वैकल्पिक अर्थ है कि नरकपाल नैरयिकों को हाथी बनाकर उनको भार ढोने के लिए प्रेरित करते हैं अथवा घोड़ा, ऊंट, गधा आदि बनाकर उनसे भार ढुलाते हैं । जिन्होंने अपने पूर्व जन्म में जिन-जिन पशुओं को अधिक भार ढोने के लिए बाध्य किया था, उनको उन-उन पशुओं के रूप में परिवर्तित कर भार ढुलाया जाता है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. जैसे हाथी सवारी के काम आता है वैसे ही नरकपाल उस पर चढ़कर सवारी करते हैं। २. जैसे हाथी बहुत भार ढोता है, वैसे ही नरकपाल नैरयिकों से बहुत भार ढुलाते हैं। १०४. गर्दन को (ककाणओ) यह देशी शब्द है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ मर्म-स्थान किया है।' चूर्णिकार ने 'किंकाणतो' पाठ मानकर इसका अर्थ-कृकाटिका (गरदन का पिछला भाग) किया है।' श्लोक ४३ : १०५. बांस के जालों में (तप्पेहि) नदी के मुहानों पर बांस की खपचियों से बने हुए 'तप्प' पानी के नीचे रखे जाते हैं। पानी के प्रवाह के साथ-साथ अनेक मत्स्य आते हैं। पानी का बहाव चला जाता है और वे मत्स्य वहीं फंस जाते हैं। फिर उन सब मत्स्यों को एकत्रित कर लिया जाता है।। वृत्तिकार ने इसे नैरयिकों का विशेषण मानकर 'तर्प काकारान्' किया है । किन्तु 'तर्पक' का कोई अर्थ नहीं दिया है।' १०६. जल से निकाल (समीरिया) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'संपीण्ड्य'---इकट्ठा कर दिया है।' वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'समीरिताः' कर इसका अर्थ 'पाप-कर्मों से प्रेरित' किया है।' हमने इसका संस्कृतरूप 'समीर्य' किया है। इसका अर्थ है-जल से बाहर निकालकर । १. चूणि, पृ० १३८ : हस्तितुल्यं वहन्तीति हस्तिवत्, हस्तितुल्यं भारं वहन्तीत्यर्थः, हस्तिरूपं वा कृत्वा वाह्यन्ते, अश्वोष्ट्रखरादिरूपं वा यैर्यथा वाहिताः। २. वृत्ति, पत्र १३८ : हस्तिवाहं वाहयन्ति नरकपालाः, यथा हस्ती वाह्यते समाला एवं तमपि वाहयन्ति, यदि वा-यथा हस्ती महान्तं भारं वहत्येवं तमपि नारकं वाहयन्ति । ३ वृत्ति पत्र १३८ : ककाणओ त्ति मर्माणि । ४. चूणि, पृ० १३८ : किकाणतो सि त्ति कृकाटिकाए। ५. चूणि, पृ० १३८ : त्रप्पका नदीमुखेषु विदलया वशफाली मया पिंडगासंठिता कज्जंति, ताधे ओसरते उदगे ठविज्छति हेट्ठाहुत्ता, पच्छा मच्छगा जे तेहि अक्कंता ते गलिते उदगे संपुंजिता घेप्पति । ६. वृत्ति, पत्र १३८ । ७. चूणि, पृ० १३८ : समीरिता नाम सम्पिण्ड्य । ८. वृत्ति, पत्र १३८ : समीरिता: पापेन कर्मणा चोदिताः। Jain Education Intemational ducation Intermational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ २६६ १०७. खंड-खंडकर नगर - बलि ........बिखेर देते हैं ( कोट्टबल करेंति) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने प्रधानरूप से 'कोट्ट' और 'बलि' को पृथक्-पृथक् मानकर, कोट्ट का अर्थ — तलवार आदि से टुकड़े टुकड़े कर, कूट कर और 'बलि' का अर्थ- बलि देना किया है। वैकल्पिक रूप में 'कोट्टबलि' को एक मानकर 'कोट्ट' का अर्थ नगर और 'बलि' का अर्थ बलि किया है ।' 'कोट्ट' शब्द देशी है । इसका अर्थ है-नगर । श्लोक ४४ : १०८. वैतालिक ( वेयालिए) वृत्तिकार ने इसे परमाधार्मिक देवों द्वारा निष्पादित 'वैक्रिय' पर्वत माना है ।" १०. बहुत ऊंचा (एगायए) वृत्तिकार ने इसका अर्थ- एक शिला से निर्मित बहुत ऊंचा पर्वत किया है।" ११०. अधर में झूलता हुआ (अंतलिक्खे) चूर्णिकार का अभिमत है कि वह पर्वत आकाश - स्फटिक से निर्मित होने के कारण अथवा अंधकार की अधिकता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता । उस पर चढ़ने का केवल मार्ग ही दिखाई देता है । नैरयिक हाथ के स्पर्श से उस मार्ग की खोज करते हैं और मार्ग हाथ लगते ही वे पर्वत पर चढ़ने का प्रयत्न करते हैं। तब पर्वत सिकुड़ने लगता है और वे नैरयिक हतप्रहत होकर नीचे गिर जाते हैं । चूर्णिकार ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार - वह पर्वत भूमि से संबद्ध लगता है, पर जब नैरयिक उसकी ओर जाते हैं तब वह असंबद्ध लगता है, सिकुड़ जाता है।" १११. काल (मुहत्तगाणं) मुहूर्त का अर्थ है - अड़चालीस मिनट का काल । प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ- सामान्य काल है। उत्तराध्ययन सूत्र ४६ की सुखबोधावृत्ति में मुह का अर्थ दिवस आदि से उपलक्षित काल किया है।' श्लोक ४५ : ११२. अत्यन्त पीड़ित होकर (संबाहिया) पूर्णिकार ने इसका अर्थ स्पृष्ट और वृत्तिकार ने अत्यन्त पीड़ित किया है।" - १. (क) चूर्ण, पृ० १३८ : कुट्टयित्वा कल्पनीभिः खण्डसो बॉल क्रियन्ते । अधवा कोट्टं नगरं वृच्छति, णगरबली वि क्रियन्ते । (ख) वृति पत्र १३८ सान्दारकान् कुट्टयित्वा खण्डशः कृत्यायनि करिति ति नगरबलिवदितश्वेतरच क्षिपन्तीत्यर्थः, यदि वा कोलो " अध्ययन ५ टिप्पण १०७-११२ २. बेशीनाममाला २/४५ : केआरबाणकोट्टा.... कोट्टु नगरम् । २. वृति पत्र १३९ बेदालिए'ति बंच्यिः परमाद्यामिक निष्यादितः पर्वतः । ४. वृत्ति, पत्र १३६ : एगायए - एक शिलाघटितो दीर्घः । ५. पूर्णि, पृ० १३०: अन्तरिक्षः निमूल इत्यर्थः, आकाशस्फाटिकत्वाद न दृश्यते, अन्धकारत्वाद्वा न दृश्यते, केवलमायचणमानते हत्यपरिमोसका एव ततस्ते नामन्ति आगमगपधेण विलग्गारचेत् स च पर्वतः संहन्यते । अन्ये पुनः बले वृश्यत एवासौ, भूमिबद्ध एव चोपलक्ष्यते, न च सम्बद्धः । ६. सुखबोधा वृत्ति, पत्र ६४ : मुहूर्त्ताः - कालविशेषाः दिवसाद्य ुपलक्षणमेतत् । ७. चूर्णि, पृ० १३८ : सम्बाधिताः नाम स्पृष्टाः । वृत्ति पत्र १२ सम्— एकीभावेन बाधिताः पीडिताः । 1 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११३. अत्यन्त उबड़-खाबड़ भूमि वाले ( एतकुडे) एकान्त विषम स्थान, ऐसा स्थान जहां कोई भी समतल भूमि न हौ ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ - एकान्त दुःखोत्पत्ति का स्थान किया है ।" ११४. गलपाश के द्वारा ( कूडेन) 'कूट' का अर्थ है - मृग को पकड़ने का पिंजड़ा। चूर्णिकार के अनुसार स्थान-स्थान पर 'कूटों का निर्माण किया जाता है। वे अदृश्य रहते हैं । मृग उन्हें नहीं देख पाते । वे उधर से भागने का प्रयत्न करते हैं और बार-बार उसमें बंध जाते हैं । * वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- गलयंत्रपाश किया है। संभव है वह रस्सी से बना हुआ गले का फंदा हो, जिससे पशु आदि को बांधा जाता है ।" वैकल्पिकरूप में इसका अर्थ --- पाषाणसमूह भी है । ११५. श्लोक ४६ : २७० प्रस्तुत सूत्र के ११३४ में 'पासयाणि' शब्द का प्रयोग है। वह भी 'पाशयंत्र' - मृगबंधन रज्जु का ही वाचक है। संभव है'कुट और पान' एकार्थक हो । कूट का एक अर्थ - मुद्गर भी है। यह श्लोक चूर्णि में व्याख्यात नहीं है । नैरयिक।" अध्ययन ५ टिप्पण ११३ ११८ श्लोक ४६ : ११६. पूर्वजन्म के शत्रु ( पुव्वमरी) इसका अर्थ है - पूर्वभव के शत्रुओं की तरह आचरण करने वाले नरकपाल अथवा जन्म-जन्म में अपकार करने वाले श्लोक ४७ : ११७. सदा कुपित रहने वाले (सयावकोपा ) इसका अर्थ है -- सदा कुपित रहने वाले । चूर्णिकार ने 'अकोप्पा' पाठ मानकर उसका अर्थ-अनिवार्य, अप्रतिषेध्य किया है । वे शृगाल ऐसे हैं जिनको हटाया नहीं जा सकता । " ११८. सांकलों से बंधे हुए ( संकलियाहि बद्धा) कुछ नै रयिक लोहे की सांकलों से बंधे हुए होते हैं और कुछ नहीं होते । शृगाल सांकलों से बंधे हुए नैरयिकों को खाने लगते हैं । यह देखकर मुक्त नैरयिक अपने बचाव के लिए वहां से भागते हैं । तब श्रृंगाल उनके पीछे दौड़कर उन्हें खा जाते हैं । १. चूमि पृ० १३८ एकूड पाम एकान्तविधमः न तत्र काचित् समा भूमि यत्र ते गच्छन्तो न वसेयुरिति न प्रययु २. वृत्ति पत्र १२२ एकान्तेन कूटानि दु.खोत्पत्तिस्थानानि । ३. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ४. पूर्णि, पृ० १२८ तथावि तम्म दिसा तस्य देसे से उत्तारोतार शिव्यमयवेसे व अदृश्यानि यत्र ते वध्यते । -५ वृत्ति, पृ० १३६ : कूटेन गलयन्त्रपाशादिना पाषाणसमूहलक्षणेन वा । ६. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ७. वृत्ति, पत्र १३६ : पूर्व मरय इवारयो जन्मान्तरवैरिण देव परमाधामिका यदि वा-जन्मान्तरापकारिणो नारकाः । ८. चूर्णि, पृ० १३६ : सदा वा अकोप्पा अनिवार्या अप्रतिषेध्या इत्यर्थः कर्षापणो अकोप्पा इत्यपदिश्यते । अधवा - अकोप्पं ति ( न ) कुपितुं युक्तं भवति । ६. मि १० १३९ लोहाबद्धा: सायन्ति के विस्वशः प्रधावन्तोऽनुधावन्तो अनुधावितुं पाटविया खादन्ति । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७१ अध्ययन ५:टिप्पण ११६-१२४ ११६. बहुत क्रूर कर्म वाले (बहुकूरकम्मा) चूणिकार ने इसे जो खाते हैं और जो खाए जाते हैं-दोनों के लिए प्रयुक्त माना है। इस प्रकार यह शब्द शृगाल तथा नरयिक-दोनों के लिए प्रयुक्त है।' श्लोक ४८: १२०. सदाज्वला (सयाजला) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-सदा जलने वाली नदी किया है।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-ऐसी नदी जिसमें सदा जल रहता हो या इस नाम की एक नदी।' १२१. पंकिल (पविज्जला) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विस्तृत जल वाली, उत्तान जल वाली, सपाट जल वाली-किया है। वह नदी वैतरणी की तरह गंभीर जल वाली नहीं है।' वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. अत्यन्त उष्ण रक्त और पीब से मिश्रित जल वाली। २. रुधिर और पीब से पंकिल । ३. विस्तीर्ण और ऊंडे जल वाली। ४. प्रदीप्त जल वाली। १२२. अग्नि के ताप से जल वाली हैं (लोहविलीणतत्ता) अतिताप से लोह गल जाता है । वह पिघला हुआ लोह बहुत गरम होता है। उसके समान गरम जल वाली। १२३. अकेले चलते हुए (एगायता) वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अकेले, अत्राण, असहाय किया है। चूर्णिकार ने 'एकाणिका' पाठ मानकर उसका अर्थ-असहाय या अद्वितीय किया है। श्लोक ४६: १२४. स्पर्श (दुःख) (फासाइं) चूर्णिकार ने 'स्पर्श' शब्द को शब्द, रूप रस और गंध का संग्राहक माना है। नरक में ये इन्द्रिय-विषय दु:खमय और उत्कट १. चूणि, पृ० १३६ : बहुकूरकम्मा इत्युभयावधारणार्थम्, ये च खादयन्ति ये च खाद्यन्ते । २. चूणि, पृ० १३६ : सदा ज्वलतीति सदाज्वला । ३. वृत्ति, पत्र १३६ : सदा सर्वकालं, जलम्-उदकं यस्यां सा तथा सदाजलाभिधाना वा। ४. चूणि, पृ० १४० : प्रविसृतजला पविजला, विस्तीर्णजला उत्तानजलेत्यर्थः, न तु यथा वैतरणी गम्भीरजला वेगवती च । ५. वृत्ति, पत्र १३६ : प्रकर्षेण विविधमत्युष्णं क्षारपूयरुधिराविलं जलं यस्यां सा प्रविजला यदि वा 'पविज्जले' ति रुधिराविलत्वात पिच्छिला, विस्तीर्णगम्भीरजला वा अथवा प्रदीप्तजला वा । ६. (क) वृत्ति, पत्र १४० : अग्निना तप्तं सत् विलीनं द्रवतां गतं यल्लोहम्-अयस्तवृत्तप्तः, अतितापविलीनलोहसदशजलेत्यर्थः। (ख) चूणि, पृ० १३६ : लोहविलीनसदृशोदका । लोहानि पञ्च काललोहादीनि । ७. वृत्ति, पत्र १४० : 'एगाय' त्ति एकाकिनोऽत्राणाः । ८. चूणि, पृ० १३६ : एकानिका असहाया इत्युक्तम्, अल्पसहाया इत्यर्थः अद्वितीया वा। Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७२ प्रध्ययन ५: टिप्पण १२५-१२८ होते हैं, इसलिए स्पर्श शब्द का प्रयोग हुआ है।' प्राधीन साहित्य में इसका बहुलता से प्रयोग मिलता है। गीता में इसका अनेक बार प्रयोग हुआ है-स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् ।' (गीता ५।२७)। 'मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय !' (गीता २।१४)। 'बाह्यस्पर्शेष्वासक्तात्मा' (गीता ५२२१) 'ये हि संस्पर्शजा भोगाः' (गीता श२२)। वृत्तिकार ने स्पर्श का अर्थ-दुःख किया है । ये दुःख तीन प्रकार से आते हैं- नरकपालों द्वारा कृत, परस्पर उदीरित और स्वाभायिक रूप से प्राप्त । १२५. (एगो सयं............ वह अकेला ही दुःख का अनुभव करता है। वह असहाय हो जाता है क्योंकि, जिन-जिनके लिए उसने पाप-कर्म किए थे, वे दुःख के अनुभव में हाथ नहीं बंटाते । कहा भी है- मैंने अपने परिजनों के लिए अनेक दारुण कर्म किए हैं। फल-भोग के समय वे सब भाग गए । मैं अकेला ही उनको भोग रहा हूं।' श्लोक ५० १२६. जिसने जो जैसा (जं जारिसं) यहां 'यत्' कर्म का द्योतक है और 'यादृश' उस वार्म के अनुभाव और स्थिति का । मंद, मध्यम और तीव्र अध्यवसायों से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों का बंध होता है। १२७. परलोक में (संपराए) इसका अर्थ है-परलोक । चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ संसार और वैकल्पिक अर्थ 'परलोक' किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'संसार' किया है।' १२८. दुःखी प्राणी (दुक्खी) इसका अर्थ है-कर्मयुक्त प्राणी। दुःख का अनुभव दुःखी प्राणी ही करता है। अदुःखी प्राणी कभी दुःख का अनुभव नहीं करता। १. चूणि, पृ० १३६ : फुसंतीति फासाणि, एगग्गहणे गहणं, सद्दाणि वि रूव-रस-गंध-फासाणीति । स्पर्श ग्रहणं तु ते तत्रोत्कटा दुःखतमाश्च । २. वृत्ति, पत्र १४० : स्पर्शाः दुःखविशेषाः परमाधामिकजनिताः परस्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटवो रूपरसगंधस्पर्शशब्दाः अत्यंतदुःसहाः। ३. वृत्ति, पत्र १४० : एकः-असहायो यवयं तत्पापं समजितं ते रहतिस्तत्कर्मविपाकजं दुःख मनुभवति, न कश्चिद् दुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चोक्तम् मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फलभोगिनः ॥ ४ (क) चूणि, पृ० १३६ : जारिसाणि तिव्व-मंद-मज्झिमअज्भवसाएहि जघण्णमज्झिमुक्किट्ठठितीयाणि कम्माणि कताणि तं तधा अणभवंति। (ख) वृति, पत्र १४० । ५.णि, पृ० १३६, १४० : संपरागो णाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः, कर्मफलोदयेन वा नरगं संपरागिज्जतीति सम्परागः। ६. वृत्ति, पत्र १४० : सम्पराये-संसारे। Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७३ प्रध्ययन ५: टिप्पण १२९-१३२ श्लोक ५१: १२६. लक्ष्य के प्रति निश्चित दृष्टि वाला (एगंतदिट्ठी) आगमों में मुनि के लिए 'अहीव एगंतदिट्ठी'-सांप की भांति एकान्तदृष्टि'—यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है।' सांप अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है, वैसे ही मुनि अपने लक्ष्य-मोक्ष को ही दृष्टि में रखे। जो इस प्रकार निश्चित दृष्टि वाला होता है, वह एकान्तदृष्टि कहलाता है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या में कहा है-जिस श्रमण में यह सत्यनिष्ठा होती है कि 'इदमेव णिग्गंथं पावयणं सच्चं'- यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, वह एकान्तदृष्टि होता है। वृत्तिकार ने निष्प्रकंप सम्यक्त्व वाले को एकान्तदृष्टि माना है। जीव आदि तत्त्व के प्रति जिसकी निश्चल दृष्टि होती है, वह एकान्तदृष्टि है। १३०. स्वाध्यायशील रहे (बुज्झज्ज) इस पद का अर्थ है-अध्ययनशील रहे, स्वाध्यायशील रहे।' १३१. कषाय का वशवर्ती न बने (लोगस्स वसं न गच्छे) 'लोक' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-जगत्, शरीर, कषाय और प्राणी-गण । जीव और अजीव-इन दोनों के समवाय को उत्तराध्ययन सूत्र में 'लोक' कहा गया है। आचारांग के द्वितीय अध्ययन का नाम 'लोक विचय' है। उसकी नियुक्ति में लोक विचय के अनेक अर्थ मिलते हैं। उनमें 'लोक का एक अर्थ कषाय लोक भी है।' आचारांग में 'लोक' का एक अर्थ शरीर भी मिलता है। लोक का अर्थ 'प्राणी-गण' प्रस्तुत श्लोक के 'सव्वलोए' इस पद की चूणि में मिलता है। यहां 'लोक' शब्द का अभिप्रेत अर्थ कषाय है। चूर्णिकार ने 'लोग' के स्थान में 'लोभ' शब्द मानकर शेष तीनों कषायों का ग्रहण किया है। इसके द्वारा अठारह पाप भी गृहीत हैं। वृत्तिकार ने इस पद का मुख्य अर्थ-अशुभकर्मकारी अथवा उसके फल को भोगने वाला व्यक्ति के वश में न जाए-ऐसा किया है । वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ-कषाय लोक है।" देखें-११८१ का टिप्पण। श्लोक ५२: १३२. धुत का (धुयं) आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'धुत' है। उसके पांच उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में प्रमुख रूप से एक-एक धुत १. (क) अंतगडदसाओ ३७२ : अहीव एगंतविदिए। (ख) प्रश्नव्याकरण, १०।११ : जहा अही चेव एगविट्ठी। २. चूणि, पृ० १४० : एकान्तदृष्टिरिति इदमेव णिग्गंथं पावयणं । ३. वृत्ति, पत्र १४१ : तथैकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टिः-सम्यगदर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टि: निष्प्रकम्पसम्यक्त्व इत्यर्थः । ४. चूणि, पृ० १४० : बुज्झज्ज त्ति अधिज्जेज्ज, अधीतुं च सुणेज्ज, सोतुं बुज्झज्ज । ५. उत्तरज्झयणाणि, ३६०२ : जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। ६. आचारांग नियुक्ति, गाथा १७७ : विजिओ कसायलोगो...... । ७. आयारो २।१२५ का टिप्पण, पृ० ११२, ११३ । ८. चूणि, पृ० १४० : सव्वलोके त्ति छज्जीवणिकायलोके । है. चूणि, पृ० १४० : लोभस्स वसं ण गज्छेज्ज त्ति कसायणिग्गहो गहितो सेसाण वि कोधावीणं बसं ण गच्छेज्जा । अट्ठारस वि ढाणाई। १०. वृत्ति, पत्र १४१ : 'लोकम्' अशुभकर्मकारिणं तद्विपाकफलभुजं वा यदि वा-कषायलोकम् । Jain Education Intemational ducation Intomational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ -२७४ अध्ययन ५: टिप्पण १३३ प्रतिपादित है। उनके अन्तर्गत अनेक ध्रुत और हैं । धुत अनेक हैं। धुत का अर्थ है-प्रकम्पित, पृथ्वकृत । कुछेक धुत ये हैंस्वजन परित्याग धुत, कर्म परित्याग धुत, उपकरण और शरीर परित्याग धुत आदि, आदि । चूर्णिकार ने 'धुत' का अर्थ कर्म को प्रकंपित करने वाला चारित्र किया है।' वृत्तिकार ने 'धुत' के स्थान पर 'धुव' शब्द मानकर उसका अर्थ-मोक्ष या संयम किया है।' १३३. कर्मक्षय के काल की (कालं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. समस्त कर्मों के क्षम का काल । २. पंडित मरण का काल । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-मृत्युकाल किया है।" मुनि को जीवन या मरण की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए---यह जैन परंपरा सम्मत तथ्य है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत प्रसंग में 'कखेज्ज कालं' का अर्थ मरण की आकांक्षा न होकर, कर्मक्षय की आकांक्षा अथवा पंडित-मरण (समाधि मरण) की आकांक्षा-ये दोनों हो सकते हैं। १. चूणि, पृ० १४० : धूयतेऽनेन कर्म इति धुतं चरित्रमित्युक्तम् । २. वृत्ति, पत्र १४१: ध्रुवो-मोक्षः संयमो वा । ३. चूणि, पृ० १४१: कालं............सर्वकर्मक्षयकालं, यो वाऽन्यो पण्डितमरणकालः । ४. वृत्ति, पत्र १४१ : कालं-मृत्युकालम् । Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठें अज्झयरण महावीरत्थुई छठा अध्ययन महावीर स्तुति Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'महावीर स्तुति' है। चूणिकार ने इसका नाम 'महावीर स्तव' माना है। चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत नियुक्तिगाथा (७७) में 'थव' शब्द है और वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत नियुक्ति गाथा (८४) में 'थुइ' शब्द है।' यही नामभेद का कारण है । समवायांग में इसका नाम 'महावीर स्तुति' उपलब्ध है। 'स्तव' और 'स्तुति' दोनों एकार्थक हैं । नियुक्तिकार ने 'महावीर स्तव' में निहित महा+वीर+स्तव-इन तीनों शब्दों के चार-चार निक्षेपों-द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव-का निर्देश किया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।' उससे अनेक तथ्य प्रगट होते हैं । चूर्णिकार ने महत् शब्द के दो अर्थ किए हैं-प्रधान और बहुत । वृत्तिकार इसके चार अर्थ करते हैं - १. बहुत्व-जैसे महाजन । २. बृहत्व-जैसे महाघोष । ३. अत्यर्थ-जैसे महाभय । ४. प्राधान्य-जैसे महापुरुष । महत् शब्द यहां प्राधान्य अर्थ में गृहीत है । उसके निक्षेप इस प्रकार हैं१. द्रव्य महत्-इसके तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । (क) सचित्त के तीन प्रकार ० द्विपद-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव । • चतुष्पद-सिंह, हस्तिरत्न, अश्वरत्न । अपद (परोक्ष अपद)- कूट शाल्मली वृक्ष, कल्पवृक्ष । (प्रत्यक्ष अपद) जो यहां वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से उत्कृष्ट हैं, जैसे कमल (वर्ण से), गोशीर्षचंदन (गंध से), पनस (रस से), बालकुमुदपत्र, शिरीष कुसुम (स्पर्श से) । (ख) अचित्त-वैडूर्य आदि प्रभावान् मणियों के प्रकार । वनस्पति से निष्पन्न द्रव्य जो वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से उत्कृष्ट हों। (ग) मिश्र-सचित्त-अचित्त दोनों के योग से बने द्रव्य या अलंकृत और विभूषित तीर्थंकर । १. चूणि, पृ० १४२ : इवाणी महावीरत्ययो त्ति अभयणं । २. वही, पृ० १४२ : थवणिक्खेवो.....। ३. वृत्ति, पत्र १४२ : थुइणिक्खेवो.....। ४. समवाओ, १६१। ५. नियुक्ति गाथा, ७६ । ६ (क) चूर्णि, पृ० १४१। (ख) वृत्ति, पत्र १४१, १४२। ७. चूणि, पृ० १४१ : महदिति प्राधान्ये बहुत्वे च ।। ८ वृत्ति, पत्र १४१ : महच्छब्दो बहुत्वे, यथा-महाजन इति; अस्ति बृहत्वे, यथा-महाघोषः; अस्स्यत्यर्थे, यथा-महामयमिति; __अस्ति प्राधान्ये, यथा-महापुरुष इति, तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत । ६. चूणि पृ० १४१ । Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७८ अध्ययन ६ : प्रामुख २. क्षेत्र महत्--सिद्धि क्षेत्र । धर्माचरण की अपेक्षा से महाविदेह क्षेत्र प्रधान होता है तथा मनुष्य के लिए स्वतन्त्र सुख तथा वैषयिक सुखों की दृष्टि से देवकुरु आदि क्षेत्र प्रधान होते हैं। ३. काल महत्--काल की दृष्टि से 'एकांत सुषमा' आदि काल प्रधान होता है अथवा जो काल धर्माचरण के लिए उपयुक्त होता है वह प्रधान होता है। ४. भाव महत्-पांच भावों में 'क्षायिकभाव' प्रधान होता है। तीर्थंकर के शरीर की अपेक्षा से औदयिक भाव भी प्रधान होता है। प्रस्तुत प्रसंग में दोनों भाव गृहीत हैं। वीर का अर्थ है वीर्यवान् शक्तिशाली। इसके चार निक्षेप इस प्रकार हैं१. द्रव्यवीर-सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य के वीर्य-शक्ति को द्रव्य वीर्य कहा जाता है। (क) सचित्त के तीन प्रकार हैं द्विपद-तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव का शारीरिक वीर्य । चूर्णिकार ने आवश्यक नियुक्ति की पांच गाथाओं (७१ से ७५) को उद्धत कर शलाकापुरुषों के बल का वर्णन किया है। प्रस्तुत गाथाओं में तीर्थंकर को अपरिमित बलशाली माना है। चूणिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-तीर्थकर अपने शारीरिक बल का प्रदर्शन नहीं करते, किन्तु उनमें इतनी शारीरिक शक्ति है कि वे लोक को उठाकर एक गेंद की भांति अलोक में फेंक सकते हैं। वे मन्दर पर्वत को छत्र का दंड बनाकर रत्नप्रभा पृथ्वी को छत्र की तरह धारण कर सकते हैं । यह असद्भावस्थापना-वास्तविकता का काल्पनिक निदर्शन है। ऐसा न होता है, न कोई करता है। पर तीर्थकर में इतनी शक्ति होती है । भगवान् महावीर पर संगमदेव ने कालचक्र फेंका। भगवान् ने अपने शारीरिक बल के आधार पर ही उसे झेला था। चक्रवर्ती चक्रवर्ती कूप के तट पर स्थित हैं । उनको सांकल से बांधकर, बत्तीस हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के सहारे खींचते हैं, फिर भी वे उन्हें टस से मस नहीं कर सकते । प्रत्युत चक्रवर्ती अपने वामहस्त से सांकल को खींचकर सबको गिरा देते हैं। वासुदेव वासुदेव कूप के तट पर स्थित हैं । उनको सांकल से बांधकर सोलह हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के सहारे खींचते हैं, फिर भी वे उन्हें एक रेखा मात्र भी आगे नहीं ला सकते । प्रत्युत बलदेव अपने वामहस्त से सांकल को खींचकर सबको गिरा देते हैं । चक्रवर्ती से बलदेव की शारीरिक शक्ति आधी होती है। बलदेव वासुदेव के बल से बलदेव का बल आधा होता है। इस प्रकार बलदेव की शारीरिक शक्ति से वासुदेव की शक्ति दुगुनी और वासुदेव की शक्ति से चक्रवर्ती की शक्ति दुगुनी होती है। तीर्थंकर की शक्ति चक्रवर्ती की शक्ति से भी अधिक होती है, अपरिमित होती है। ० चतुष्पद द्रव्यवीर्य-सिंह, अष्टापद आदि का बल । • अपद द्रव्यवीर्यअप्रशस्त-विष आदि की शक्ति । प्रशस्त-संजीवनी औषधि आदि की शक्ति । मिश्र-द्रव्य-वीर्य-औषधि का वीर्य । १. चूणि, पृ० १४१ : वीरः वीर्यमस्यास्तीति वीर्यवान् । वीरस्स पुण णिक्खेवो चतुर्विधो। २. वही पृ० १४१ : असद्भावस्थापनातः स हि तिन्दुकमिव लोक अलोके प्रक्षिपेत्, मन्दरं वा दण्डं कृत्वा रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रकवद धारयेत् । ३. वही, पृ० १४१ । Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७६ अध्ययन ६:प्रामुख क्षेत्र वीर्य-जिस क्षेत्र विशेष में शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। ३. कालवीर-जिस काल विशेष में वीर्य उत्पन्न होता है। ४. भाववीर-क्षायिक वीर्य से संपन्न व्यक्ति जो उपसर्ग और परीसहों से कभी पराजित नहीं होता।' वृत्तिकार ने कषायविजयी को भी भाववीर माना है।' प्रस्तुत अध्ययन में बावन श्लोक हैं। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन की अंतिम नियुक्ति गाथा में अध्ययन की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की है। उसके अनुसार जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मा से भगवान् महावीर के गुणों के विषय में प्रश्न किया और आर्य सुधर्मा ने इस अध्ययन के माध्यम से महावीर के गुणों का प्रतिपादन किया। साथ-साथ उन्होंने कहा-जैसे महावीर ने उपसर्गों और परीसहों पर विजय प्राप्त की वैसे ही मुनि को उपसर्गों और परीसह पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । इसका वैकल्पिक अर्थ यह हो सकता है कि जैसे महावीर ने संयम साधना की वैसे ही मुनि को संयम की साधना करनी चाहिए।' सूत्रकार ने प्रथम तीन श्लोकों में अध्ययन की पृष्ठभूमि का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए आर्य सुधर्मा और जम्बू स्वामी के मध्य हुए वार्तालाप को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है आर्य सुधर्मा ने परिषद् के बीच नारकीय जीवों की वेदना का सजीव वर्णन किया और उनकी उत्पत्ति के हेतुओं का स्पष्ट दिग्दर्शन कराया। नारकीय यातनाओं को सुनकर वे सब पार्षद् उद्विग्न हो गए । 'हम नरक में न जाएं'-इसका उपाय पूछने के लिए वे सब आर्य सुधर्मा के समक्ष उपस्थित हुए । प्रश्न करने वालों में वे सब थे जिन्होंने महावीर को साक्षात् देखा था या जिन्होंने उन्हें साक्षात् नहीं देखा था । उन प्रश्नकर्ताओं में जंबू स्वामी आदि श्रमण, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी जाति के लोग तथा चरक आदि अनेक परतीथिक भी थे। उन्होंने पूछा-आर्यवर । आपने जो धर्म कहा है, वह श्रु तपूर्व है या अनुभूतिगम्य ? सुधर्मा ने कहा-श्रुतपूर्व है। महावीर ने जो कहा है उसीका मैंने प्रतिपादन किया है। तब जम्बू आदि श्रोताओं ने कहा - भगवान् महावीर अतीत में हो चुके हैं। वे हमारे साक्षात् नहीं हैं । हम उनके गुणों को जानना चाहते हैं। उन्होंने इन सब तत्त्वों को कैसे जाना ? उनका ज्ञान, दर्शन और शील कैसा था? हे आर्यवर ! आप उनके निकट रहे है । आपने उनके साथ संभाषण किया है इसलिए उनके गुणों के आप यथार्थं ज्ञाता हैं। जैसे आपने देखा है और अवधारित किया है, वैसे ही आप हमें बताएं। इन सभी प्रश्नों के उत्तर में आर्य सुधर्मा ने भगवान महावीर के यशस्वी जीवन का दिग्दर्शन कराया, उनके अनेक गुणों का उत्कीर्तन किया । यह सभी इन आगे के श्लोकों में प्रतिपादित है। प्रस्तुत अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । भगवान महावीर से पूर्व की परम्परा चातुर्याम की परम्परा थी। उसके प्रवर्तक थे भगवान् पार्श्व । पार्श्व ने संघ में सामायिक चारित्र का प्रतिपादन किया था। उसके चार अंग थे-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और बाह्य दान-विरमण । भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया और तीर्थ चतुष्टय की स्थापना कर तीर्थंकर हुए और पार्वापत्यीय परम्परा का बृहद् संघ भगवान् महावीर के संघ में विलीन हो गया। अनेक मुनि महावीर के शासनकाल में सम्मिलित हो गए और कुछ स्वतन्त्र विहरण करने लगे। तब महावीर ने अपने संघ में परिष्कार, परिवर्द्धन और सम्बर्धन किया। उनकी नई स्थापनाओं के कुछेक बिन्दु ये हैं--- १. चातुर्याम की परम्परा को बदलकर पांच महाव्रतों की परम्परा का प्रवर्तन किया। भगवान् महावीर ने 'बहिद्धादान विरमण महावत का विस्तार कर ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन दो स्वतन्त्र महाव्रतों की स्थापना की। अब्रह्मचर्य की १. वही, पृ० १४१॥ २. वृत्ति, पत्र १४२ । ३. निक्ति गाथा ७८ : पुच्छिसु जंबुणामो अज्जसुधम्मो ततो कहेसी य । एव महप्पा वीरो जतमाहु तधा जतेज्जाध ।। ४ सूयगडो ६।१-३, चूणि, पृ० १४२,१४३ । ५. उत्तरायणाणि, २२।२३ : चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। बेसिओ बद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ॥ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८० अध्ययन ६:प्रामुख वृत्ति को प्रश्रय देने के लिए जिन कुतर्कों का प्रयोग किया जाता था, उसका इस स्थापना के द्वारा समूल उन्मूलन हो गया। २. भगवान् पार्श्व की परम्परा सचेल थी। भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल-दोनों परम्पराओं को मान्यता दी ३. रात्रि-भोजन-विरमण को व्रत का रूप देकर महाव्रतों के अनन्तर स्थान दिया। ४. अहिंसा की अंगभूत पांच प्रवचन माताओं-समितियों तथा तीन गुप्तियों की स्वतन्त्र व्यवस्था की। इस प्रकार भगवान महावीर ने पार्श्व के चातुर्याम धर्म का विस्तार कर त्रयोदशांग धर्म को प्रतिष्ठा की पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों का बीजरूप निरूपण इसी अध्ययन के अठावीसवें श्लोक में हुआ है 'से वारिया इस्थि सराइमत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। लोगं विवित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सब्ववारी॥' भगवान् महावीर का एक विशेषण है-निर्वाणवादी। प्रस्तुत अध्ययन में ‘णिव्वाणवादी णिह णायपुत्ते' (२१) तथा 'णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा (२४)-ये दो स्थल भगवान् महावीर के साधना सूत्रों की आधारशिला की ओर संकेत करते हैं। प्राचीन काल की दार्शनिक परंपरा में दो मुख्य परम्परा रही हैं-निर्वाणवादी परंपरा और स्वर्गवादी परंपरा । निर्वाणवादी परंपरा का अंतिम लक्ष्य है-स्वर्ग । भगवान् महावीर ने निर्वाण के आदर्श को सर्वाधिक मूल्य दिया, इसलिए वे निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहलाए और उनकी परंपरा निर्वाणवादी परंपरा कहलाई । इस परंपरा में साधना के वे ही तथ्य मान्य हैं जो कि निर्वाण के पोषक, संवर्धक हैं । स्वर्गवादी परंपरा में ऐसा नहीं है । याज्ञिक परंपरा स्वर्गवादी परंपरा है। भगवान महावीर के युग में तीन सौ तिरेसठ धर्म-संप्रदाय थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। बौद्ध साहित्य में बासठ धर्म संप्रदाय का उल्लेख है। जैन आगमों में उन सबका समाहार चार वर्गों में किया गया है-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद । प्रस्तुत अध्ययन के सताइसवें श्लोक में भगवान् महावीर को इन सब वादों से परिचित बताया है। प्रस्तुत अध्ययन में भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त कुछेक विशेषण आर्थिक, शाब्दिक और ऐतिहासिक दृष्टि से मीमांसनीय हैं (१) प्रज्ञ या प्राज्ञ (२) निरामगंध (३) अनायु (४) अनन्तचक्षु । सूत्रकार भगवान् महावीर को 'सुमेरु' पर्वत से उपमित करते हुए 'सुमेरु' का सुन्दर वर्णन प्रस्तुत करते है।' इसी प्रकार शास्त्रकार ने भगवान् महावीर की अनेक अनुत्तरताएं बतलाई हैं।' १ सूयगडो, ६९-१३। २. वही, ६१८-२४ । Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठें अज्झयणं : छठा अध्ययन महावीरत्थुई : महावीर स्तुति संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पुच्छिसु णं समणा माहणा य अगारिणो या परतित्थिया य। से के इमं णितियं धम्ममाहु अणेलिसं? साहसमिक्खयाए॥ अप्राक्षः श्रमणा माहणाश्च, अगारिणश्च परतीथिकाश्च । स क: इमं नित्यं धर्ममाह, अनीदृशं? साधुसमीक्षया ॥ १. श्रमणों, ब्राह्मणों', गृहस्थों और पर तीथिकों ने (जम्बू से और जम्बू ने सुधर्मा से) पूछा -- 'वह (ज्ञातपुत्र) कौन है जिसने भलीभांति देखकर इस शाश्वत' और अनुपम धर्म का निरूपण किया ? २. कहं व णाणं? कह देसणं से ? सीलं कहं णायसुयस्स आसि?। जाणासि णं भिक्खु ! जहातहेणं अहासुयं बूहि जहा णिसंतं ।। कथं वा ज्ञानं कथं दर्शनं तस्य, शीलं कथं ज्ञातसुतस्यासीत् ? जानासि भिक्षो ! यथातथेन, यथाश्रुतं ब्रूहि यथा निशान्तम् ।। २. ज्ञातपुत्र का ज्ञान कैसा था ? उनका दर्शन कैसा था ?' उनका शीलसदाचार कैसा था ? हे भिक्षु" ! (प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा) यथार्थ रूप में जो तुम जानते हो" और जो तुमने सुना है, जैसा तुमने अवधारित किया है" वह हमें बताओ। ३. (सुधर्मा ने कहा) ज्ञातपुत्र आत्मज्ञ,५ कुशल", मेधावी'', अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी थे । उन यशस्वी और आलोक-पथ में स्थित" ज्ञातपुत्र के धर्म को जानो और उनकी घृति को देखो। ३. खेयण्णए से कुसले मेहावी अणंतणाणी य अणंतदंसी। जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स जाणाहि धम्मं च धिइं च पेह॥ क्षेत्रज्ञकः स कुशलो मेधावी अनन्तज्ञानी च अनन्तदर्शी । यशस्विनः चक्षुष्पथे स्थितस्य, जानीहि धर्मञ्च धृतिञ्च प्रेक्षस्व॥ ४. उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे दीवे व धम्म समियं उदाहु ॥ ऊर्ध्वमधश्च तिर्यग् दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावराश्च ये प्राणाः । स नित्यानित्याभ्यां समीक्ष्य प्रज्ञः, द्वीपमिव धर्म सम्यगुदाह । ४. ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन्हें नित्य और अनित्य-इन दोनों दृष्टियों से भलीभांति देखकर प्रज्ञ ज्ञातपुत्र ने" द्वीप की भांति सबको शरण देने वाले (अथवा दीपक की भांति सबको प्रकाशित करने वाले) धर्म का सम्यक प्रतिपादन किया है। ५. से सव्वदंसी अभिभूय गाणी णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा। अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्ज गंथा अतीते अभए अणाऊ॥ स सर्वदर्शी अभिभूय ज्ञानी, निरामगंधो धतिमान स्थितात्मा । अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान, ग्रन्थाद् अतीतः अभयः अनायुः ॥ ५. वे सर्वदर्शी थे। वे ज्ञान के आवरण को अभिभूत कर केवली बन चुके थे ।२२ वे विशुद्ध-भोजी, धृति मान्" और स्थितात्मा" थे। वे संपूर्ण लोक में Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८२ ०६ : महावीर स्तुति : श्लोक ६-११ अनुत्तर विद्वान्, अपरिग्रहीप, अभय" और अनायु (जन्म-मरण के चक्रवाल से मुक्त) थे। ६. से भूइपण्णे अणिएयचारी ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तवति सूरिए वा वइरोणिदे व तमं पगासे॥ स भूतिप्रज्ञः अनिकेतचारी, ओघंतरो धीरः अनन्तचक्षुः । अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति ।। ६. वे सत्यप्रज्ञ", गृह-त्याग कर विचरने वाले", संसार-प्रवाह के पारगामी", धीर और अनन्त चक्षु वाले थे। वे सूर्य की भांति अनुपम प्रभास्वर और प्रदीप्त अग्नि की भांति अंधकार में प्रकाश करने वाले थे। ७. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। इंदे व देवाण महाणुभावे सहस्सणेता दिवि णं विसिठे। अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यपः आशुप्रज्ञः । इन्द्र इव देवानां महानुभावः, सहस्रनेता दिवि विशिष्टः ।। ७. आशुप्रज्ञ" काश्यप मुनि पूर्ववर्ती सभी तीर्थकरों के अनुत्तर धर्म के नेता थे, जैसे स्वर्ग में इन्द्र अधिक प्रभावी और हजारों देवों का नेता" होता है । ८. से पण्णया अक्खयसागरे वा महोदही वा वि अणंतपारे। अणाइले या अकसाइ मुक्के सक्के व देवाहिवई जुईमं॥ स प्रज्ञया अक्षयः सागर इव, महोदधिः वापि अनन्तपारः । अनाविलश्च अकषायी मुक्तः, शक्र इव देवाधिपतिद्युतिमान् ।। ८. पार रहित स्वयंभूरमण" समुद्र की भांति उनकी प्रज्ञा अक्षय थी" । वे निर्मल, वीतराग और आवरणमुक्त" तथा देवाधिपति इन्द्र की भांति द्युतिमान् थे। ६.से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए सुदंसणे वा णगसव्वसेठे। सुरालए वा वि मुदागरे से विरायए णेगगुणोववेए॥ स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः, सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः । सुरालयो वापि मुदाकरः स, विराजते नैकगुणोपेतः ॥ ६. स्वर्ग की भांति देवताओं को प्रमुदित करने वाले अनेक गुणों से युक्त सुदर्शन (मेरु) सब पर्वतों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही ज्ञातपुत्र वीर्य से" सर्वश्रेष्ठ वीर्य वाले थे। १०. सयं सहस्साण उ जोयणाणं तिकंडगे पंडगवेजयंते । से जोयणे णवणउति सहस्से उद्धस्सिए हेतु सहस्समेगं ॥ शतं सहस्राणां तु योजनानां, त्रिकण्डकः पण्डकवैजयन्तः । स योजनानि नवनवति सहस्राणि, ऊर्ध्वमुच्छितोऽधः सहस्रमेकम् ॥ १०. वह मेरु एक लाख योजन ऊचा, तीन कांडों (भागों) वाला" तथा पंडकवनरूपी पताका से युक्त है । वह भूमितल से निन्नानवें हजार योजन ऊपर उठा हुआ और एक हजार योजन भूमी के नीचे (गर्भ में) है। ११. पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवट्ठिए जं सूरिया अणुपरिवट्टयंति । से हेमवण्णे बहुणंदणे य जंसी रइं वेययई महिंदा ॥ स्पृष्टो नभस्तिष्ठति भम्यवस्थितः, ११. वह आकाश को छूता हुआ भूमि पर यं सूर्या अनुपरिवर्तयन्ति । स्थित" है । सूर्य उसकी परिक्रमा स हेमवर्णो बहुनन्दनश्च, करते हैं। वह स्वर्ण-वर्ण और बहुतों यस्मिन् रति वेदयन्ति महेन्द्राः ।। को आनन्द देने वाला है। वहां शक आदि महान् इन्द्र भी आनन्द का अनुभव करते हैं। Jain Education Intemational ducation International Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडौ १ १२. से पव्वए सद्दमहप्पगासे विरायती कंचणमढवण्णे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे गिरीवरे से जलिए व भोमे ॥ २८३ ०६ : महावीर स्तुति : श्लोक १२-१८ स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशः, १२. वह अनेक शब्दों (मंदर, मेरु, सुदर्शन, विराजते काञ्चनमृष्टवर्णः । सुरगिरि) से सब लोगों में प्रसिद्ध है।" अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गः, वह चमकते हुए सोने के वर्ण वाला है। गिरिवरः स ज्वलित इव भौमः ॥ वह गिरिवर सब पर्वतों में श्रेष्ठ, मेखलाओं से दुर्गम और (मणिओं तथा औषधियों से) प्रदीप्त आकाश जैसा लगता है। १३. महीए मज्झम्मि ठिए गिदे पण्णायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे मणोरमे जोयति अच्चिमाली॥ मह्यामध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः । एवं श्रिया तु स भूरिवर्णः, मनोरमो द्योतते अचिमाली॥ १३. वह नगेन्द्र भूमी के मध्य में स्थित है और सूर्य के समान तेजस्वी" प्रतीत हो रहा है। अपनी पर्वतश्री से वह नाना वर्णवाला, मनोरम और रश्मिमाला से द्योतित हो रहा है। १४. सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स पवुच्चती महतो पव्वतस्स। एतोवमे समणे णातपुत्ते जाती-जसो-दसण-णाण-सीले ॥ सुदर्शनस्य एतद् यशो गिरेः, प्रोच्यते महतो पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणः ज्ञातपुत्रः, जाति-यशः-दर्शन-ज्ञानशोलः ॥ १४. महान् पर्वत सुदर्शन (मेरु) के यश का यह निरूपण है। ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर जाति, यश दर्शन, ज्ञान और शील से सुदर्शन के समान श्रेष्ठ हैं। १५. गिरीवरे वा णिसढायताणं रुयगे व सेठे वलयायताणं । ततोवमे से जगभूतिपण्णे मुणीण मज्झे तमुदाहु पण्णे ॥ १५. जैसे लंबे पर्वतों में निषध और गोल पर्वतों में रुचक श्रेष्ठ है वैसे ही जगत् में सत्यप्रज्ञ ज्ञातपुत्र प्राज्ञ मुनियों में श्रेष्ठ हैं। गिरिवरो वा निषधः आयतानां, रुचक इव श्रेष्ठः वलयायतानाम् । तदुपमः स जगत्भूतिप्रज्ञः, मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्राज्ञः ॥ अनुत्तरं धर्ममदीर्य, अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति । सुशुक्लशुक्ल अब्गण्डशुक्लं, शंखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम् ॥ १६. अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता अणुत्तरं झाणवरं झियाइ। सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुक्कं संखेंदुवेगंतवदातसुक्कं ॥ १६. उन्होंने अनुत्तर धर्म का उपदेश दे अनुत्तर ध्यान किया, जो शुक्ल से अधिक शुक्ल, फेन की भांति शुक्ल, शंख और चन्द्रमा की भांति एकांत विशुद्ध शुक्ल है। १७. अणतरग्गं परमं महेसी असेसकम्मंस विसोहइत्ता। सिद्धि गति साइमणंत पत्ते णाणेण सोलेण य दंसणेण ॥ अनत्तराग्रां परमां महर्षिः, अशेषकर्मांशान् विशोध्य । सिद्धि गति सादिमनन्तां प्राप्तः, ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ।। १७. महर्षि ज्ञातपुत्र ज्ञान, शील"और दर्शन के द्वारा सारे कर्मों का विशोधन (निर्जरण) कर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए, जो अनुत्तर, लोक के अग्र-भाग में स्थित," परम तथा सादि-अनन्तर है-जहां मुक्त आत्मा जाती है पर लौट कर नहीं आती। १८. रुक्खेसु णाते जह सामली वा जंसी रति वेययंती सुवण्णा। वणेसु या गंदणमाहु सेनें णाणेण सीलेण य भूतिपण्णे॥ रूक्षेष ज्ञातः यथा शाल्मली वा, यस्मिन् रति वेदयन्ति सुपर्णाः । बनेषु च नन्दनमाहुः श्रेष्ठ, ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः ।। १८. वृक्षों में जैसे शाल्मली" प्रसिद्ध है," जहां सुपर्णकुमार देव आनन्द का अनुभव करते हैं तथा वनों में जैसे नन्दन वन श्रेष्ठ है, वैसे ही सत्यप्रज्ञ" ज्ञातपुत्र ज्ञान और शील से श्रेष्ठ हैं Jain Education Intemational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १६. थणितं व सद्दाण अणुत्तरं उ चंदे व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाहु सेठें एवं मुणीणं अपडिण्णमाहु॥ २०. जहा सयंभू उदहीण सेठे णागेसु वा धरणिदमाहु सेठें। खोओदए वा रस-वेजयंते तहोवहाणे मुणि वेजयंते ॥ २१. हत्थीसु एरावणमाहु णाते सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु या गरुले वेणुदेवे णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २२. जोहेसु णाए जह वीससेणे पुप्फेसु वा जह अरविंदमाह। खत्तीण सेठे जह दंतवक्के इसीण सेठे तह वद्धमाणे॥ २३. दाणाण सेठं अभयप्पयाणं सच्चेसु या अणवज्जं वयंति । तवेसु या उत्तम बंभचेरं लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते॥ २४. ठितीण सेट्टा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्टा। णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा ण णायपुत्ता परमत्थि णाणी॥ २८४ ० ६ : महावीर स्तुति : श्लोक १९-२६ स्तनितं वा शब्दानामनुत्तरं तु, १६. जैसे शब्दों में मेघ का गर्जन" अनुत्तर, चन्द्रो वा ताराणां महानुभावः । तारागण में चन्द्रमा महाप्रतापी और गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठ, गंधों में चन्दन" श्रेष्ठ है, वैसे ही एवं मुनीनां अप्रतिज्ञमाहुः॥ अनासक्त" मुनियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं। यथा स्वयंभूः उदधीनां श्रेष्ठः, २०. जैसे समुद्रों में स्वयंभू", नागकुमार नागेष वा धरणेन्द्रमाहुः श्रेष्ठम् । देवों में धरणेन्द्र और रसों में इक्षुरस क्षोदोदको वा रसवैजयन्तः, श्रेष्ठ होता है, वैसे ही तपस्वी मुनियों तथोपधाने मुनिर्वैजयन्तः ॥ में" ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं। हस्तिष्वरावणमाहुतिः , २१. जैसे हाथियों में ऐरावण, पशुओं में सिंहो मगाणां सलिलानां गङ्गा । सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में पक्षिष च गरुडो वेणुदेवः, वेणुदेव गरुड" प्रधान होता है, वैसे ही निर्वाणवादिनामिह ज्ञातपुत्रः ॥ निर्वाणवादियों में" ज्ञातपुत्र प्रधान हैं । योधेष ज्ञातः यथा विश्वसेनः, २२. जैसे योद्धाओं में वासुदेव कृष्ण, फूलों पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः । में कमल, क्षत्रियों में दंतवक्त्र" श्रेष्ठ क्षत्रिणां श्रेष्ठो यथा दन्तवक्त्रः, होता है, वैसे ही ऋषियों में ज्ञातपुत्र ऋषीणां श्रेष्ठस्तथा वर्द्धमानः ॥ वर्द्धमान श्रेष्ठ हैं। दानानां श्रेष्ठ अभयप्रदानं, २३. जैसे दानों में अभयदान," सत्य-वचन सत्येष चानवद्यं वदन्ति । में अनवद्य-वचन", तपस्या में ब्रह्मचर्य तपस्सु चोत्तमं ब्रह्मचर्य, प्रधान होता है, वैसे ही श्रमण ज्ञातपुत्र लोकोत्तमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः ॥ लोक में प्रधान हैं। स्थितीनां श्रेष्ठाः लवसप्तमा वा, २४. जैसे स्थिति (आयु की काल-मर्यादा) सभा सुधर्मा वा सभानां श्रेष्ठा । में लवसप्तम (अनुत्तर-विमानवासी) निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वधर्माः, देव, सभाओं में सुधर्मा सभा और न ज्ञातपुत्रात् परमस्ति ज्ञानी॥ सब धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ है, वैसे ही ज्ञानियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं-उनसे अधिक कोई ज्ञानी नहीं है। पृथ्व्युपमो धुनाति विगतगृद्धि:, २५. आशुप्रज्ञ ज्ञातपुत्र पृथ्वी के समान न सन्निधिं कुरुते आशुप्रज्ञः । सहिष्णु थे, इसलिए उन्होंने कर्म-शरीर तरीत्वा समुद्रं वा महाभवौघ, को प्रकंपित किया। वे अनासक्त थे, अभयंकरो वीरः अनन्तचक्षुः ॥ इसलिए उन्होंने संग्रह नहीं किया । वे अभयंकर, वीर (पराक्रमी) और अनन्त चक्षु" वाले थे। उन्होंने संसार के महान् समुद्र को तर कर (निर्वाण प्राप्त कर लिया।) क्रोधं च मानं च तथैव मायां, २६. अर्हत् महर्षी ज्ञातपुत्र क्रोध, मान, माया लोभं चतुर्थं अध्यात्मदोषान् । और लोभ-इन चारों अध्यात्म-दोषों एतान् त्यक्त्वा अर्हन महर्षिः, का त्याग कर, स्वयं न पाप करते थे न कुरुते पापं न कारयति ॥ और न दूसरों से करवाते थे। २५. पुढोवमे धुणती विगयगेही ण सणिहिं कुव्वइ आसुपण्णे। तरिउं समुदं व महाभवोघं अभयंकरे वीर अणंतचक्खू ॥ २६. कोहं च माणं च तहेव मायं लोभं चउत्थं अज्झत्तदोसा। एताणि चत्ता अरहा महेसी ण कुम्वई पाव ण कारवेइ ॥ Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २७. किरियाकिरियं वेणइयाणवायं अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सव्ववायं इह वेयइत्ता उवट्टिए सम्म स दोहरायं ॥ २८. से वारिया इत्थि सराइभत्तं उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोगं विदित्ता अपरं परं च सव्वं पभू वारिय सव्ववारी॥ २८५ प्र०६ : महावीर स्तुति : श्लोक २७-२६ क्रियाऽक्रियं वैनयिकानुवादं, २७. ज्ञातपुत्र ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानिकानां प्रतीत्य स्थानम् । वैन यिकवाद और अज्ञानवाद" के पक्ष स सर्ववादमिह विदित्वा, का निर्णय किया। इस प्रकार सारे उपस्थितः सम्यक् स दीर्घरात्रम् ॥ वादों को जानकर वे दीर्घरात्र यावज्जीवन तक संयम में उपस्थित रहे। स वारयित्वा स्त्रियं सरात्रिभक्तं, २८. दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी" उपधानवान् दुःखक्षयाथम् । ज्ञातपुत्र ने स्त्री और रात्री-भोजन का लोकं विदित्वाऽपरं परं च, वर्जन किया । साधारण और सर्वं प्रभुरितवान् सर्ववारी॥ विशिष्ट-दोनों प्रकार के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने सब (स्त्री, रात्री-भोजन, प्राणातिपात आदि सभी दोषों) का वर्जन किना।" श्रुत्वा च धर्म अर्हद्भाषितं, २६. समाधान देने वाले," अर्थ और पद समाहितं अर्थपदोपशुद्धम् ।। से विशुद्ध अर्हत्-भाषित धर्म को सुन, तं श्रद्दधाना आदाय जनाः अनायुषः, उसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर' मनुष्य इन्द्रा वा देवाधिपाः आगमिष्ये ॥ मुक्त होते हैं अथवा अगले जन्म में देवाधिपति इन्द्र होते हैं। -इति ब्रवीमि॥ -ऐसा मैं कहता हूं। २६. सोच्चा य धम्म अरहंतभासियं समाहियं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहंताजय जणा अणाऊ इंदा व देवाहिव आगमिस्सं ॥ -ति बेमि॥ Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ६ श्लोक १ १. ब्राह्मणों (माहणा) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रावक, ब्राह्मण ।' वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठानों में निरत व्यक्ति को माहण माना है। २. गृहस्थों (अगारिणो) चूर्णिकार ने 'अकारिणो' पाठ मानकर इसका अर्थ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किया है। वृत्तिकार ने 'अगारी' का अर्थ क्षत्रिय आदि किया है।" ३. परतीथिकों (परतित्थिया) चूर्णिकार ने चरक आदि को तथा वृत्तिकार ने शाक्य आदि को परतीथिक माना है।' ४. पूछा (पुच्छिसु) आर्य सुधर्मा ने अपनी बृहद् परिषद् में विभिन्न नरकों तथा वहां उत्पन्न होने वाले दुःखों का वर्णन किया। उस परिषद् में जम्बू आदि श्रमण, श्रावक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा चरक आदि परतीथिक और देवता भी थे। नरकों का वर्णन सुनकर वे उद्विग्न हो गए । उन सब ने आर्य सुधर्मा से पूछा- भगवन् ! आप हमें ऐसा कोई उपाय बताएं जिससे कि हम इन नरकों में न जाएं।" वृत्तिकार ने प्रधान रूप में इस अर्थ को मान्यता देते हुए वैकल्पिक रूप में यह माना है कि जम्बूस्वामी ने सुधर्मा से कहा-भंते ! अनेक श्रमण, माहण आदि मुझे पूछते हैं कि वह कौन है जिसने संसार समुद्र से पार करने में समर्थ ऐसे धर्म का प्रतिपादन किया है।' ५. भलीभांति देखकर (साहुसमिक्खयाए) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-यथावस्थित तत्त्व के निश्चय से, समभाव से । १. चूणि, पृ० १४२ : माहणाः श्रावकाः ब्राह्मणजातीया वा। २. वृत्ति, पत्र १४३ : ब्राह्मण ब्रह्मचर्याधनुष्ठाननिरताः । ३. चूणि, पृ० १४२ : अकारिणस्तु क्षत्रिय-विट्-शूद्राः । ४. वृत्ति, पत्र १४३ : अगारिणः क्षत्रियावयः। ५. (क) चूणि, पृ० १४२ : परतीर्थकाश्चरकादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १४३ : शाक्यावयः परतीथिकाः । ६. चूणि, पृ० १४२ : एतान् नरकान् श्रुत्वा भगवदार्यसुधर्मसकाशात् तदुःखोद्विग्नमानसाः कथमेतान्न गच्छेयाम इतिते पार्षदा भगवन्त मार्यसुधर्माणं......." पृष्टयन्तः........."समणा-जम्बुनामादयः, जेसि भगवं ण दिट्ठो, विट्ठो व ण पुच्छितो, न य तग्गुणा यथार्थत: उपलब्धाः । माहणा:-श्रावका: ब्राह्मणजातीया वा । अकारिणस्तु-क्षत्रियविट्शूद्राः। परती थिकाश्चरकादयः चग्रहणाद् देवाः । ७. वृत्ति, पत्र १४३ : अनन्तरोत्ता बहुविधां नरकविभक्ति श्रुत्वा संसारादुद्विग्नमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् अप्राक्षुः पृष्टवन्तः........ यदि वा जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रति पादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः । क. वृत्ति, पत्र १४३ : साध्वी वासौ समीक्षा च साधुसमीक्षा-यथास्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिबा-साधुसमीक्षया-समतयो तवानिति । Jain Education Intemational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८७ अध्ययन ६ : टिप्पण ६-6 चूर्णिकार 'समिक्ख दाए' पाठ मानकर, इसका अर्थ-समीक्षापूर्वक दिखाते हैं-किया है।' ६. शाश्वत......."धर्म (णितियं धम्म) आचारांग ४।१ में अहिंसा को नित्य धर्म, शाश्वत धर्म माना है। किसी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना, उन पर शासन नहीं करना, उन्हें दास नहीं बनाना, उन्हें परिताप नहीं देना, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना-यह धर्म शुद्ध, नित्य ओर शाश्वत है। चूर्णिकार ने 'णितियं' का अर्थ नित्य, सनातन किया है। नित्य, सनातन, शाश्वत-सभी एकार्थक हैं।' ७. निरूपण किया (आहु) यह बहुवचन का प्रयोग है । प्राकृत में एकवचन के स्थान पर बहुवचन और बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग होता है। यहां कर्ता में एकवचन है, अतः क्रियापद भी एकवचन का ही होना चाहिए। चुणिकार ने एकवचन के स्थान पर बहुवचन के त्रियापद के प्रयोग की समीचीनता बतलाते हुए लिखा है कि बहुवचन के क्रियापद का प्रयोग तीन स्थानों पर किया जा सकता है ० स्वयं के लिए। • गुरु या बड़े पुरुषों के लिए। • छन्द की अनुकूलता के लिए। चूर्णि के अनुसार दूसरा विकल्प यह है कि प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'के' शब्द बहुवचनवाची भी हो सकता है।' किन्तु इससे प्रश्न का समाधान नहीं होता। गुरु के लिए बहुवचन का प्रयोग हो सकता है, पर वह कर्ता और क्रियादोनों में ही होना चाहिए, किसी एक में नहीं। 'के' बहुवचन का रूप भी है किन्तु 'से' 'के' यह बहुवचनान्त नहीं है। बहुवचनान्त प्रयोग होता है-'ते के' । इसलिए यही मानना उचित है कि यहां एकवचन के स्थान में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। श्लोक २: ८. ज्ञात (पुत्र) (नाय) चूर्णिकार ने 'नाय' का कोई अर्थ नहीं किया है। वृत्तिकार ने ज्ञात का अर्थ-क्षत्रिय किया है।' ६. (कहं व गाणं ? कह दंसणं से ?) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) भगवान् ने कैसे जाना? किस ज्ञान से जाना? (२) भगवान् ने कैसे देखा? किस दर्शन से देखा ?' वृत्तिकार ने मुख्यरूप से इसका अर्थ इस प्रकार किया है-भगवान् महावीर ने ज्ञान कैसे प्राप्त किया ? भगवान् ने दर्शन कैसे प्राप्त किया ? १. चूर्णि, पृ० १४२ : सम्यग् ईक्षित्वा समीक्ष्य केवलज्ञानेन वाए बरिसति । २. आयारो, ४१ : से बेमि–जे अईया, जे य पड़प्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सम्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेति, एवं परूवेंति-सवे पाणा सव्वे भूता सब्वे जीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतग्वा, ण परितावेयम्वा, ण उद्दवेयव्वा । ३. चूणि, पृ० १४२ : नितिकं नित्यं सनातनमित्यर्थः । ४. चूणि, पृ० १४२ : आहुरिति एके अनेकादेशाद् 'आत्मनि गुरुषु च बहुवचनम्' बन्धानुलोम्याद्वा । अथवा के इममाहुः ?, एकारोऽपि हि बहुत्वे भवति यथा—के ते, एकत्वेऽपि यथा-के से । ५. वृत्ति, पत्र १४३ : ज्ञाता:-क्षत्रियाः । ६. चूणि, पृ० १४२ : कथं इति परिप्रश्ने । कथमसौ ज्ञातवान् ? केन वा ज्ञानेन ज्ञातवान् ? एवं दर्शनेऽपि कथं दृष्टवान् ? इति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८८ वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ है- भगवान् का ज्ञान कैसा था ? भगवान् का दर्शन कैसा था ? * १०. हे भिक्षु ! (भिक्खु ) यह सुधर्मा के लिए प्रयुक्त है ।" ११. यथार्थरूप में जो तुम जानते हो ( जाणासि जहाल हेणं) प्रश्नकर्त्ताओं ने आर्य सुधर्मा से कहा- आपने ज्ञातपुत्र को देखा है । प्रत्यक्ष में आपने उनसे बातचीत की है। इसलिए उनमें गुण थे आप उन्हें यथार्थ रूप से जानते हैं । ' जो १२. अवधारित किया है (णिसंतं) इसका अर्थ है- सुनकर निश्चय करना, अवधारित करना । कुछ सुना जाता है पर उसका अवधारण नहीं होता । जिसका अवधारण नहीं होता, उसकी स्मृति नहीं होती, इसलिए प्रश्नकर्त्ताओं ने कहा- आपने जो सुना है, जो देखा है और जिसका अवधारण किया है, वह आप हमें बताएं । * श्लोक ३ : १३. आत्मज्ञ ( खेयण्ण ए) भगवान् महावीर के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होने पर सुधर्मा स्वामी ने क्षेपज्ञ का अर्थ क्षेत्र को जानने वाला किया है। क्षेत्र के अर्थ की कोई चर्चा उन्होंने क्षेत्र मे दो संस्कृत रूप तथा इसके तीन अर्थ किए है अध्ययन ६ : टिप्पण १०-१३ १. खेदज्ञ - संसार के समस्त प्राणियों के कर्मजन्य दुःखों के ज्ञाता तथा उनको नष्ट करने का उपाय बताने वाले । २. क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र का अर्थ है आत्मा । उसको जानने वाला क्षेत्रज्ञ - आत्मज्ञ । ३. क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र का अर्थ है आकाश । लोक और अलोक को जानने वाला - क्षेत्रज्ञ । आयारो १।६७ आदि में भी यह शब्द प्रयुक्त है । वहां भी इसका अर्थ आत्मज्ञ किया गया है। भगवती ( शब्द का अर्थ आत्मा प्राप्त होता है । ) में क्षेत्र भगवद् गीता में शरीर को 'क्षेत्र' और उसे जानने वाले को 'क्षेत्रज्ञ' कहा है । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही (शरीर और आत्मा का ज्ञान ही ) योगिराज कृष्ण के मत में वास्तविक ज्ञान है।" कहा- भगवान् महावीर क्षेत्रज्ञ थे। चूर्णिकार ने नहीं की है। वृत्तिकार ने इसके सेवन और १. वृत्ति, पत्र १४३ : कथं केन प्रकारेण भगवान् ज्ञानमवाप्तवान् ? किम्भूतं वा तस्य भगवतो ज्ञानं - विशेषावबोधकं ? किम्भूतं च से तस्य 'दर्शन' सामान्यापरिच्छेदकम् ? २. वृत्ति, पत्र १४३ : भिक्षो ! सुधर्मस्वामिन् । ३. पृष्ठ १४२ घातयेणं हे भिक्षो! त्वया हासो युष्टश्वाऽऽभावितश्च इत्यतो यथा तद्गुणा यभूवुः तथा त्वं जानीषे । ४. चूर्ण, पृष्ठ १४२ : णिसंतं यथा निशान्तं च, निशान्तमित्यवधारितम् । किञ्चित् श्रूयते न चोपधार्यते इत्यतः अधासुतं ब्रूहि जधा णिसंत । ५. चूर्णि, पृ० १४३ । क्षेत्रं जानातीति क्षेत्रज्ञः । ६. वृत्ति, पत्र १४३ ७. भगवद् गीता १३।१,२ : इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते । " संसारान्तर्वतिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दुःखं जानातीति खेदशो दुःखापनोदनसमर्योपदेशदानात्, यदि वा 'क्षेत्रों' वयावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति अथवा क्षेत्रम् - आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिज्ञातेत्यर्थः । एतद् यो वेत्ति तं प्राह क्षेत्र इति तद्वदः ॥ क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि, सर्वक्षेत्रेषु भारत !, क्षेत्रक्षेत्रज्ञो मत तज्ञानं मतं मम ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८९ अध्ययन ६ : टिप्पण १४-१५ १४. कुशल (कुसले) इसका व्युत्पत्तिक अर्थ है-कुशों का छेदन करने वाला । कुश दो प्रकार के हैं'द्रव्य कुश-घास । भाव कुश-कर्म। जो कर्म का छेदन करने में निपुण हैं वह कुशल कहलाता है।' कुशल का अर्थ है ज्ञानी । धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्ध विहारी, कथनी और करणी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है।' पातंजल योग दर्शन में इसका अर्थ इस प्रकार है जो योगी सात प्रकार की प्रज्ञाओं का अनुदर्शन करता है, वह 'कुशल' कहलाता है। दूसरे शब्दों में जीवन्मुक्त योगी को कुशल कहा जाता है। सात प्रकार की प्रज्ञाएं ये हैं१. समस्त हेय का परिज्ञान हो जाना। २. समस्त हेय-हेतु का क्षीण हो जाना । ३. निरोध-समाधि के द्वारा 'हान' का साक्षात् हो जाना। ४. विवेकख्यातिरूप हानोपायभावित हो जाना। ५. भोग तथा अपवर्ग निष्पादित हो जाना। ६. बुद्धि का स्पंदन निवृत्त हो जाना । क्लिष्ट और अक्लिष्ट संस्कारों के अपगमन से चित्त का शाश्वतिक निरोध होकर, स्फुट प्रज्ञा का उदित हो जाना। ७. इस प्रज्ञावस्था में पुरुष का गुण-सम्बन्ध से शून्य, स्व-प्रकाशमय, अमल और केवलीरूप हो जाना । १५. मेधावी (मेहावी) मेधावी दो प्रकार के होते हैं-ग्रन्थ-मेधावी और मर्यादा-मेधावी। जो बहुथ त होता है, अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करता है, उसे ग्रन्थ-मेधावी कहा जाता है । मर्यादा के अनुसार चलने वाला मर्यादा-मेधावी कहलाता है।' यहां मेधावी का अर्थ -आत्मानुशासी या तत्त्वज्ञ किया जा सकता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां 'आसुपण्णे' पाठ की व्याख्या की है। चूणि में 'आसुपण्णे' के साथ 'महेमी' पाठ भी है। इसका अर्थ महर्षि अथवा महैषी - महान् की एपणा करने वाला किया है।' १. चूणि, पृ० १४२ : कुशलो द्रव्ये भावे च । द्रव्ये कुशान् लुनातोति द्रव्यकुशलः । एवं भावे वि, भावकुशास्तु कर्म । २. वृत्ति, पत्र १४३ : भावकुशान्-अष्ट विधकर्मरूपान् लुनाति-छिनत्तीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निपुण इत्यर्थः । ३. आयारो, पृ० १२०। ४. पातंजल योग दर्शन २०२७ : तम्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा । ......... एतां सप्तविधां प्रान्तभूमिप्रज्ञामनुपश्यन्पुरुषः कुशल इत्याख्यायते प्रतिप्रसवेऽपि चित्तस्य मुक्तः कुशल इत्येव भवति गुणातीतत्वादिति। ५. पातंजल योग दर्शन २०२७, हरिहरानन्द व्याख्या, पृ० २१४-२१६ । ६. दसवेआलियं, जिनदास चूणि, पृ० २०३ : मेधाबी दुविहो, तं०-गंथमेधावी, मेरामेधावी य, तत्थ जो महंतं गंयं अहिज्जति सो गय मेधावी, मेरामेधावी गाम मेरा मज्जाया भण्णति तीए मेराए धावतित्ति मेरामेधावी। ७. (क) चूणि, पृ० १४३ : आशुप्रज्ञो आशु एव प्रजानीते, न चिन्तयित्वा इत्यर्थः । महेसी महरिसी, महान्तं वा एसतीति महेसी। (ख)वृत्ति, पत्र १४३ । Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६० अध्ययन ६ : टिप्पण १६-१८ वृत्तिकार ने महर्षि को पाठान्तर मान उसका अर्थ - अत्यन्त उग्र तपस्या करने वाला तथा परीषहों के भीषण उपसर्गों को सहने वाला श्रमण किया है।" १६. आलोक पथ में स्थित ( चनखुप ठिपस्स) इसका अर्थ है - जो समस्त प्राणियों के चक्षुपथ में स्थित है अर्थात् चक्षुर्भूत है । जैसे अन्धकार में पड़े हुए पदार्थ प्रदीप के आलोक में अभिव्यक्त होते हैं वैसे ही भगवान् के द्वारा प्रदर्शित तत्त्वों को भव्य प्राणी देख पाते हैं । जैसे दीपक के अभिव्यक्त नहीं होते, वैसे ही भगवान् के अभाव में सत्य की अभिव्यक्ति नहीं होती। इसलिए भगवान् सबके में स्थित हैं।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. भवस्थ केवली ( सशरीर केवली ) की अवस्था में स्थित । २. सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को अभिव्यक्त करने के कारश चक्षुर्भूत ।" १७. देखो (पेह) चूर्णिकार ने 'पेधं' पाठ मान उसका अर्थ प्रेक्षा किया है। इस प्रकार धर्म, धृति और प्रेक्षा- तीनों के बारे में जानकारी दी है । भगवान् का धर्म पूर्ण वीतरागता का विकास था । उनकी धृति वस्त्र की भित्ति के समान अभेद्य थी। उनकी प्रेक्षा संवेदना से ऊपर केवलज्ञानमय थी । * इलोक ४ : १८. जो उस और स्थावर प्राणी हैं (तसा व जे धावर जे व पाणा) इसमें 'थावर' शब्द विभक्ति रहित है। यहां 'थावरा' होना चाहिए था । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने तीन प्रकार के त्रस और तीन प्रकार के स्थावर प्राणियों का उल्लेख किया है । तीन प्रकार के त्रस - १. तेजस्काय और वायुकाय । यद्यपि इनकी गणना स्थावरों में होती है, किन्तु गति करने के कारण ये कहलाते हैं। २. चार विकलेन्द्रिय । ३. पञ्चेन्द्रिय । तीन प्रकार के स्थावर - १. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. वनस्पतिकाय ।" देखें - ठाणं ३।३२६, ३२७ । अभाव में पदार्थ है, आलोकपथ १. वृति पत्र १४३ महविरिति क्वचित्पाठः महश्वासावृविश्व महर्षिः अस्कतोपतपश्चरणानुष्ठाविश्वातुलपरीयोपसर्गसहनाच्चेति । २. चूर्ण, पृ० १४३ : पश्यतेऽनेनेति चक्खु, सर्वस्यासौ जगतश्चक्षुष्पथि स्थितः चक्षुर्भूत इत्यर्थः । यथा तमसि वर्तमाना घटावयः प्रदीपेनाभिव्यक्तायन्ते न तु तदभावे एवं भगवता प्रशितानर्थान् भय्याः पश्यन्ति यद्यसन स्वात् तेन जगतो जात्यन्धस्य सतोऽन्धकारं स्यात् danssवित्यवदसौ जगतो भावचक्षुष्पथे स्थितः । ३. वृत्ति, पत्र १४४ : लोकस्य 'चक्षुः पथे' लोचनमार्गे भवस्थ केवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन ५. (क) चूर्णि, पृ० १४३ : ये स्थावराः त्रिप्रकारा ये च त्रसाः त्रिप्रकारा एव । (ख) वृत्ति, पृ० १४४ प्रस्वन्तीति प्रसास्तेजोवायुरूप भेदात् त्रिविधाः । गति - त्रस 1 भूतस्य वा । ४. चूर्णि पृष्ठ १४३ किविधो धर्मः घृतिः प्रेक्षा वा ? अवियानीत्यर्थ चारिधर्मः अधिक थिति बसमा, पेक्खा केवलणाणं । पिचेन्द्रियमेवात् त्रिधा तथा ये च 'स्थावराः पृथिव्याम्बुवनस्पति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो २६१ अध्ययन ६ : टिप्पण १९-२१ १६. नित्य और अनित्य- इन दोनों दष्टियों से भलीभांति देखकर प्रज्ञ ज्ञातपुत्र ने (से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे) भगवान् महावीर ने देखा पदार्थ नित्य भी हैं और अनित्य भी हैं। द्रव्य या अस्तित्व की दृष्टि से वे नित्य हैं और भाव या अवस्थान्तर की दृष्टि से वे अनित्य हैं।' इस नित्यानित्यवादी दर्शन के आधार पर उन्होंने धर्म का प्रवर्तन किया। धर्म को नहीं देखने वाला उसका प्रवर्तन नहीं कर सकता । तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि बुद्धि द्वारा धर्म का प्रवर्तन नहीं हो सकता। वह प्रज्ञा द्वारा ही होता है। प्रज्ञा वस्तु-तत्त्व का साक्षात् करने वाली चेतना की अवस्था है। चूणिकार ने 'समिक्ल पण्णे' का अर्थ-'प्रज्ञा द्वारा भलीभांति देखकर, किया है। गणधर गौतम ने मुनिप्रवर केशी से कहा-धर्म को प्रज्ञा द्वारा देखा जाता है। धवलाकार ने प्रश्न उपस्थित किया-प्रज्ञा और ज्ञान में क्या भेद है ? इसके उत्तर में उन्होंने बताया---प्रज्ञा ज्ञान को उत्पन्न करने वाली अध्ययन-निरपेक्ष चैतन्य शक्ति का विकास है। ज्ञान उसका कार्य है। नंदी सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के दो प्रकार बतलाए हैं-श्र तनिश्रित (अध्ययन-सापेक्ष) और अश्रु तनिश्रित (अध्ययन-निरपेक्ष)। यह अश्रु तनिश्रित ज्ञान ही प्रज्ञा है। सूत्रकार ने इसे बुद्धि भी कहा है। इसके चार प्रकार बतलाए गए हैं - औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी और पारिणामिकी। त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनुसार जिसे अश्रु तनिश्रित ज्ञान की शक्ति उपलब्ध होती है उसे 'प्रज्ञाश्रमण-ऋद्धि' कहा जाता है। प्रज्ञाश्रमण अध्ययन किए बिना ही समस्त थ त का अधिकृत ज्ञाता और प्रवक्ता होता है। २०. द्वीप (दीवे) इसके दो अर्थ होते हैं-द्वीप और दीप । चूर्णिकार ने द्वीप को आश्वासद्वीप और दीप को प्रकाशदीप बतलाया है । जलपोत के टूट जाने पर यात्रियों के लिए द्वीप आश्वासन का हेतु बनता है। अन्धकार में भटकते हुए लोगों के लिए दीप प्रकाश करता है । धर्म भी आश्वासद्वीप और प्रकाशदीप का कार्य करता है।' वृत्ति में 'दीव' को भगवान् का विशेषण माना है। किन्तु यह वस्तुतः धर्म का विशेषण होना चाहिए । केशी-गौतम संवाद में भी धर्म को द्वीप बतलाया गया है। आवश्यक में तीर्थंकर को भी द्वीप कहा गया है। इसलिए 'द्वीप' महावीर और धर्म-दोनों का विशेषण हो सकता है। किन्तु 'दीवे व धम्म' इस पाठ में 'इव' का प्रयोग है, इसलिए यहां यह धर्म का विशेषण होना चाहिए । २१. सम्यक् (समियं) सम्यक् के दो अर्थ हैं-रागद्वेषरहित या समभाव से । भगवान् का उपदेश सम्यक होता है ।" वे पूजा, सत्कार या गौरव के १. चूणि, पृ० १४३ : भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः केनचिदनित्याः । कथम् ? इति चेत्, द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्याः, द्रव्यं (? उभयं) प्रति नित्यानित्याः । एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्यान्यनित्यानि च । २. चूणि, पृ० १४३ : समिक्ख पण्णे-सम्यग् ईक्ष्य प्रज्ञया । ३. उत्तरज्झयणाणि, २३१२५ : पन्ना समिक्खए धम्म । ४. धवला, १४, १,१८ : पण्णाए णाणस्स य को विसेसो? णाणहेदुजीवसत्ती गुरुवएसनिरवेक्खा पण्णा नाम, तक्कारियं णाणं । ५. नंदी, सूत्र ३७, ३८ : से कि तं आभिणिबोहियणाणं ? आभिणिबोहियनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियं से कि तं असुयनिस्सियं ? असुयनिस्सियं चउन्विहं पण्णत्तं, तंजहा-उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया । ६. तिलोयपण्णत्ती, ४११०१७-१०२१।। ७. चूणि, पृ० १४३ : दीवो दुविधो-आसासवीवो पगासदीवो य, उभयथाऽपि जगतः, आसासदीवो ताणं सरणं गती, प्रकाशकरो आदित्यः सव्वत्थ सम पगासयति चंडालादिसु वि । ८ वृत्ति, पत्र १४४ : : तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दोपवत् दीपः यदि वा–संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वास हेतुत्वात् द्वीप इव द्वीपः । है उत्तरायणाणि २३१६८ : धम्मो दीवो पइट्ठा य । १०. आवश्यक सूत्र, सक्कत्थुई : वीवो ताणं............. ११. वृत्ति, पत्र १४४ : सम्यक् इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतया वा। Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २९२ लिए उपदेश नहीं करते जैसे वे संपन्न को उपदेश देते है, वैसे ही विपन्नको उपदेश देते हैं और जैसे विपन्नको उपदेश देते हैं जैसे ही संपन्न को उपदेश देते हैं। यह धर्म का सम्यक् प्रतिपादन है । श्लोक ५ : २२. (से सव्वदंसी अभिभूय णाणी ) इसका तात्पर्यार्थ है कि भगवान् महावीर आवरण का निरसन कर सर्वदर्शी और सर्वज्ञ बने थे । दर्शन चार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदशन । जो तीनों दर्शनों को अभिभूत कर अतिक्रान्त कर केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है वह सर्व दर्शी या केवलदर्शी हो जाता है । ज्ञान पांच हैं— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । जो मति आदि चार ज्ञानों को अभिभूत कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह अभिभूतज्ञानी कहलाता है। एक शब्द में वह निरावरणज्ञानी है । आचारांग में 'अभिभूय' के साथ 'दिट्ठ" और 'अदक्खू" का प्रयोग हुआ है। उससे भी 'आवरण को अभिभूत कर यह अर्थ फलित होता है । आचारांग ६।१।१० में 'अरई रई अभिभूय रीयई' का प्रयोग मिलता है । भगवान् महावीर अरति और रति को अभिभूत कर विहार करते थे । अरति और रति का अभिभव करने वाला ही ज्ञानी होता है । जैसे सूर्य समस्त प्रकाशवान् पदार्थों को अभिभूत कर जगत् में अकेला प्रकाशित होता है, वैसे ही केवलज्ञानी और केवलदर्शी लौकिक अज्ञानों को अभिभूत कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के द्वारा प्रकाशित होता है । * २३. विशुद्ध भोजी ( णिरामगंधे) अध्ययन ६ टिप्पण २२-२४ : - इसका अर्थ है – विशुद्ध भोजी। जो आहार संबंधी सभी दोषों का वर्जन कर आहार करता है, यह विशुद्ध भोजी होता है । आहार संबंधी दोष दो प्रकार के होते हैं - अविशोधिकोटिक और विशोधिकोटिक । जो मूल दोष होते हैं वे अविशोधिकोटिक होते हैं और जो उत्तर दोष होते हैं वे विशोधिकोटिक होते हैं।" चूर्णिकार ने यह सूचना देने के लिए शब्द को 'निराम' और निर्गन्ध - इन दो भागों में बांटा है।' आचारांग २1१०८ में 'सव्वामगंधं परिण्णाय, णिरामगंधी परिव्वए' पाठ है। इसका अर्थ है - श्रमण सब प्रकार के अशुद्ध भोजन का परित्याग कर शुद्धभोजी रहता हुआ परिव्रजन करे। २४. धृतिमान् ( धि ) भगवान् की संयम में धृति थी, इसलिए उन्हें धृतिमान् कहा गया है ।' आचारांग में उनकी धृति का विशद वर्णन मिलता १. आयारो २।१७४ : जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कस्थइ || २. आवारी, १६० वीरेह एवं अभिभूय ि २. आवारी, ५०१११ अभिभूय अव ४. पूर्णि, १० १४३-१४४ 1 पासति ति सम्सी, केवलदर्शनीयुक्तं भवति चत्वारि ज्ञानानि प्रीमी दर्शनानि भास्कर इव सर्वतेजांस्यभिभूय केवलदर्शनेन जगत् प्रकाशयति । ज्ञानीति एवं केवलज्ञानेनापि अभिभूय इति वर्तते, उभाभ्यामपि कृत्स्नं लोकालोकमवभासते अथवा लौकिकानि अज्ञानान्यभिभूय केवलज्ञान दर्शनाय सद्योत कानिवाssदित्यः एकः प्रकाशते । ५. वृत्ति, पत्र १४४ । निर्गतः - अपगत आमः -- अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धो विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणमेदभिन चारित्रयां कृतवानित्यर्थः । 1 ६. पूर्णि, पृ० १४४ गिरामधे निरामोसी निर्गग्यश्व, आम इति उद्गमोदि । ७. आयारो, पृ० १३ । पणि, पृ० १४४ तिरस्यास्तीति धृतिमान् संयमे धृतिः । ६. आधारो, नौवां अध्ययन; आयारचुला, सोलहवां अध्ययन । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ २६३ अध्ययन ६ : टिप्पण २५-२८ वृत्तिकार के अनुसार जो असह्य परीषह और उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी अप्रकंपित रहता हुआ चारित्र में दृढ़ रहता है, वह धृतिमान् है ।' २५. स्थितात्मा (ठिपप्पा ) जिसकी आत्मा संयम या धर्म में स्थित होता है वह स्थितात्मा है - यह चूर्णिकार की व्याख्या है।' वृत्तिकार ने सिद्धस्वरूप आत्मा को स्थितात्मा माना है ।" २६. अपरिग्रही (गंथा अतीते ) ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं द्रव्य ग्रन्थ पदार्थं । भाव-ग्रन्थ — क्रोध आदि कषाय । भगवान् ग्रन्थों से अतीत थे अर्थात् वे निर्ग्रन्थ थे । यह एक अर्थ है । चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है— ग्रन्थ का अर्थ है स्वाध्याय । जो स्वाध्याय से अतीत हो जाता है वह ग्रन्थातीत होता है । भगवान् शास्त्र पढ़कर नही जानते थे, किन्तु अपने आत्मज्ञान से जानते थे, इसलिए वे ग्रन्थातीत या शास्त्रातीत थे । ' वृत्तिकार ने भी ग्रन्थ के बाह्य ग्रंथ और आभ्यन्तर ग्रन्थ-- ये दो भेद करते हुए कर्म को आभ्यन्तर ग्रन्थ माना है । जो ग्रन्थ से अतीत है वही निर्ग्रन्थ है ।" हमने इसका अर्थ अपरिग्रही किया है। पदार्थ, क्रोध आदि कषाय और कर्म - ये सब परिग्रह हैं । स्थानांग में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए हैं—शरीर, उपकरण और कर्म । यथार्थ में निर्ग्रन्थ वही है जो इन ग्रन्थियों से मुक्त होता है । २७. अभय ( अमर ) भय के सात प्रकार हैं-इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, वेदना भय, मरण भय और अश्लोक भय । " जो इन सब भयों से रहित होता है, वह अभय है यह वृत्तिकार का अर्थ है । " चूर्णिकार के अनुसार जो दूसरों को अभय देता (करता) है और स्वयं किसी से नहीं डरता, वही वास्तव में अभय होता है।' २८. अनायु (जन्म-मरण के चक्रवाल से मुक्त ) ( अणाऊ ) भगवान् महावीर शरीर के ममत्व का विसर्जन कर आत्मस्थ हो गए थे। आत्मस्थ पुरुष आयु की सीमा से परे चला जाता है | चैतन्य के अनुभव में रहने वाला शाश्वत हो जाता है, फिर आयु उसे अपनी सीमा मे नहीं बांध सकता । इसीलिए भगवान् को 'ना' कहा गया है। १. वृत्ति पत्र १४४ तथाऽसहापरीषहोस २. चूर्ण, पृ० १४४ : संयम एव यस्य स्थित आत्मा धर्मे वा सो ठितप्पा | ३. वृत्ति, पत्र १४४ : स्थितो व्यवस्थितोऽशेषकर्म विगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा । सोऽपि निष्प्रकम्पतया चारित्रं धृतिमान् ४. णि, पृ० १४४ : ग्रंथादतीते ति गंथातीते । दब्वगंधो सचित्तावि, भावे कोधादि, द्विधाऽप्यतीतः निर्ग्रन्थ इत्यर्थः । ५. वृत्ति, पत्र १४४, १४५ बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराञ्च कर्मरूपाद् अतीतो अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो निर्ग्रन्थ इत्यर्थः । बाहिरमंदमतपरि ६. २६५ तिथि पर पाले से जहाकम्पपरिण, सरीररि तं ७. ठाणं ७२७ : सत्त मयट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगभए, परलोगभए, आदाणभए, अकम्हा भए, वेयणमए, मरणभए, असिलोगभए। इनकी विस्तृत व्याख्या के लिए देखें- ठाणं पृ० ७२१,७२२ । ८ वृत्ति, पृ० १४५ न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावमयः समस्तभयरहित इत्यर्थः । ६. चूर्णि, पृ० १४४ : अभए एति अभयं करोत्यन्येषां न च स्वयं विमेति । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६४ अध्ययन ६ : टिप्पण २६-३२ चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जिसका वर्तमान जन्म ही अंतिम है, जिसका आगामी जन्म नहीं होता, जिसके आगामी आयुष्य का बंध नहीं होता, वह अनायु होता है।' वृत्तिकार के अनुसार अनायु वह होता है जिसकी जन्म-मरण की शृंखला टूट जाती है। गति के आधार पर आयु के चार प्रकार हैं-नरक आयु, तिर्यञ्च आयु, मनुष्य आयु और देव आयु । जो इन चारों गतियों से मुक्त होकर अगतिक हो जाता है, सिद्ध हो जाता है, वह अनायु हो जाता है । कर्मबीज के संपूर्ण दग्ध हो जाने से फिर उसकी उत्पत्ति नही होती। श्लोक ६: २६. सत्यप्रज्ञ (भूइपण्णे) भूति शब्द के तीन अर्थ हैं-वृद्धि, रक्षा और मंगल । इनके आधार पर 'भूतिप्रज्ञ' के तीन अर्थ होते हैं १. जिसकी प्रज्ञा प्रवृद्ध होती है। २. जिसकी प्रज्ञा सब जीवों की रक्षा में प्रवृत्त होती है । ३. जिसकी प्रज्ञा मंगलमय होती है।' ३०. गृहत्याग कर विचरने वाले (अणिएयचारी) चूणिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ अनियतचारी-अप्रतिबद्ध विहारी किया है। भगवान् अपरिग्रही थे, इसलिए उनकी गति का कोई प्रतिबन्धक नहीं था । वे अप्रतिबद्ध विहारी थे।' शाब्दिक दृष्टि से अनिकेतचारी—यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इसका तात्पर्य होता है--गृह से मुक्त होकर विचरने वाला। ३१. संसार-प्रवाह के पारगामी (ओहंतरे) ओघ का शाब्दिक अर्थ है-प्रवाह । ओघ दो प्रकार का है---द्रव्यौघ---जलप्रवाह और भावौघ-संसार-प्रवाह । जो संसारप्रवाह को तर जाता है, वह ओघंतर है। आचारांग में बताया गया है कि मूढ़ मनुष्य ओघंतर नहीं होता-संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होता।' ३२. अनंत चक्षु वाले (अणंतचक्खु) स्थानांग में तीन प्रकार के चक्षु बतलाए गए हैं - १. एक चक्षु-छद्मस्थ एक चक्षु होता है। २. द्विचक्षु-देवता द्विचक्षु होता है। ३. त्रिचक्षु-अतिशयज्ञानी मुनि त्रिचक्षु होता है। १ चूणि, पृ० १४४ : अनायुरिति नास्याऽऽगामिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबन्धो वा। २ वृत्ति, पत्र १४५: न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यानायुः, दग्धकर्मबोजत्वेन पुनरुत्पत्तरसंभवादिति । ३. (क) चूणि पृ० १४४ : भूतिहि वृद्धौ रक्षायां मङ्गले च भवति । वृद्धौ तावत् प्रवृद्धप्रज्ञः, अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायाम्-रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्य सर्वसत्त्वानां वा, मङ्गलेऽपि-सर्वमङ्गलोत्तमोत्तमाऽस्य प्रज्ञा। (ख) वृत्ति, पत्र १४५॥ ४. (क) चूणि, पृ० १४४ : अनियतं चरतीति अनियतचारी। (ख) वृत्ति पत्र १४५ : अनियतम् अप्रतिबद्धं परिग्रहायोगाच्चरितु शीलमस्यासावनियतचारी। ५. चूणि, पृ० १४४ : ओघो द्रव्योधः समुद्रः, भावौधः संसारः, तं तरतीति ओघंतरः । ६. आयारो २७१ : अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । ७. ठाणं, ३।४६६ : तिविहे चक्खू पण्णत्ते, तं जहा–एगचक्खू, बिचक्खू, तिचक्खू । छउमत्थे णं मणुस्से एगचक्खू, देवे विचक्खू, नहारूवे समणे वा माहणे वा उप्पण्णणाणदंसणधरे तिचक्खूत्ति वत्तव्वं सिया। Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६५ अध्ययन ६ : टिप्पण ३३-३६ भगवान् महावीर अनन्त चक्षु थे। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं । भगवान् का केवल दर्शन अनन्त था तथा वे अनन्त लोक के चक्षुभूत थे, इसलिए वे अनन्तचक्षु थे।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-ज्ञेय पदार्थों की अनन्तता के कारण वे अनन्तचक्षु थे। ३३. अनुपम प्रभास्वर (अणुत्तरं तवति) जैसे सूर्य सबसे अधिक प्रकाशकर है वैसे ही भगवान् महावीर अपने अनन्तज्ञान से सबसे अधिक प्रभास्वर हैं ।' इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है-जैसे सूर्य तालाब या धान्य आदि को तपाता है वैसे ही भगवान् अणुत्तर--अवशिष्ट कर्मों को तपाते हैं।' ३४. प्रदीप्त अग्नि (वइरोणिदे) वैरोचन का अर्थ है-अग्नि । यह समस्त दीप्तिमान् पदार्थों में इन्द्रभूत है-प्रधान है, श्रेष्ठ है, इसलिए इसे वैरोचनेन्द्र कहा गया है । जैसे घृत से अभिषिक्त वैरोचन अंधकार को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार भगवान् अज्ञानरूपी अंधकार को प्रकाशित करते हैं। वृत्तिकार ने प्रज्वलित अग्नि को वैरोचनेन्द्र माना है। उन्होंने इन्द्र का अर्थ दीप्ति, प्रज्वलन किया है। श्लोक ७: ३५. आशुप्रज्ञ (आसुपण्णे) देखें-२ का टिप्पण। ३६. नेता (णेता) नेता का अर्थ है-ले जाने वाला । भगवान् महावीर नेता थे, पूर्ववर्ती तीर्थंकर जैसे ले गए थे, वैसे ये भी ले जाने वाले थे, पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के धर्म को आगे बढ़ाने वाले थे।' वृत्तिकार ने यहां व्याकरण विमर्श इस प्रकार प्रस्तुत किया है। 'नेता' शब्द में ताच्छील्यार्थक तृन् प्रत्यय हुआ है। इसके योग में 'न लोकाव्ययनिष्ठे........... (पा० २।३।६६) । इस सत्र से षष्ठी विभक्ति का प्रतिषेध होने पर 'धर्मम्' इस पद में कर्मणि द्वितीया विभक्ति हुई है। १. चूणि, पृ० १४४ : अणंतचक्षुरिति अगंतं केवलदर्शनं तदस्य चक्षुरिति अनन्तचक्ष., अनन्तस्य वा लोकस्यासौ चक्षुर्भूतः । २. वृत्ति, पत्र १४६ : तथा अनन्तं-ज्ञेयानन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षः-केवलज्ञानं यस्यानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशक तया चक्षुभूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः । ३. (क) चूणि, पृ० १४४ : न हि सूर्यादन्यः कश्चित् प्रकाशाधिकः, एवं भट्टारकादपि नान्यः कश्चिद् ज्ञानाधिकः णाणेणं चेव ओभासति तवति मासेति । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : अनुत्तरं सर्वाधिक तपति न तस्मादधिकस्तापेन कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तम इति । ४. चूणि, पृ० १४४ : अवसेसं च कर्म तवति, आदित्य इव सरांसि तपति औषधयो वा। ५. चूणि, पृ० १४४ : वैरोयणेदो व 'रुच दीप्तौ' विविधं रुचतीति वैरोचनः अग्निः, स हि सर्वदीप्तिवतां द्रव्याणामिन्द्रभूत इत्यतो वैरोच नेन्द्र ; स यथा आज्याभिषिक्त: तमः प्रकाशयति एवं भगवानप्यज्ञानतमांसि प्रकाशयति । ६. वृत्ति, पत्र १४५ : वैरोचन: अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रः । ७. चूणि, पृ० १५४ : अयमेव भगवान् नयतीति नेता, कोऽर्थः ? जधा ते भगवन्तो नीतवन्तः तथाऽयमपि नयति । ८. वृत्ति, पत्र, १४५ : नेता प्रणेतेति ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे 'न लोकाव्ययनिष्ठे' (पा० २-३-६६) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयव। Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६६ अध्ययन ६ : टिप्पण ३७-४२ ३७. स्वर्ग में (दिविणं) ये दो शब्द हैं । दिवि का अर्थ है-स्वर्ग में और 'ण' वाक्यालंकार है।' चूर्णिकार ने 'दिविणं' शब्द मानकर 'दिविभ्यः'-देवताओं से, ऐसा चतुर्थ्यन्त अर्थ किया है। इन्द्र समस्त देवताओं से स्थान, ऋद्धि , स्थिति, द्युति, कान्ति आदि में विशिष्ट होता है।' ३८. अधिक प्रभावी (अणुभावे) __ अनुभाव का अर्थ है-प्रभाव । चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं--सौख्य, वीर्य और माहात्म्य । भगवान् महावीर महान् प्रभाव वाले थे। ३६. हजारों देवों का नेता (सहस्सणेता) __ इसका अर्थ है-हजारों का नेता, नायक । चूर्णिकार ने 'सहस्सणेत्ता' पाठ माना है। इसका अर्थ है-हजार आंखों वाला। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ-अनेकों का या हजारों का नेता भी किया है।' श्लोक : ४०. पार रहित स्वयंभूरमण (महोदही वा वि अणंतपारे) _ 'महोदही'-यह स्वयंभूरमण समुद्र का वाचक है। जैसे यह विस्तीर्ण, गंभीर जल वाला और अक्षोभ्य होता है वैसे ही महावीर की अनन्तगुणवाली प्रज्ञा विशाल, गंभीर और अक्षोभ्य थी।' ४१. प्रज्ञा अक्षय थी (पण्णया अक्खय ......) चूर्णिकार ने प्रज्ञा का अर्थ-ज्ञान की संपदा किया है। जो कभी क्षीण न हो, उसे अक्षय कहा जाता है । भगवान् महावीर की प्रज्ञा अक्षय थी। वह प्रज्ञा ज्ञेय अर्थ में कभी क्षीण और प्रतिहत नहीं होती थी। वह काल से आदि-सहित और अनन्त-रहित तथा द्रव्य, क्षेत्र और भाव से अनन्त थी।' ४२. निर्मल (अणाइले) चूणिकार ने इसका अर्थ- अनातुर किया है। जो परीषह और उपसर्गों के आने पर भी आकुल-व्याकुल नहीं होता वह अनातुर होता है। १. वत्ति, पत्र १४५ : दिवि स्वर्गे ....... 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे । २. चूणि, पृ० १४४ : दिवि भवा दिविनः । सर्वेभ्यो दिविभ्यः स्थान-रिद्धि-स्थिति-धति-कान्त्यारिभिविशिष्यते इति विशिष्ट: किमुतान्येभ्यः ? ३. चूणि, पृ० १४४ : अनुभवनमनुभावः, सौरूपं बोयं माहात्म्यं चानुभावः । ४. वृत्ति, पत्र १४५ : महानुभावो महाप्रभाववान् । ५. चूणि, पृ० १४४ : सहस्रमस्य नेत्राणां सहस्सनेत्ता, अनेकानां वा सहस्राणां 'नेता' नायक इत्यर्थः । ६ वृत्ति, पत्र १४५ : महोदधिरिव स्वयम्भरमण इव । ७ चूणि, पृ० १४४ : यथाऽसौ (स्वम्भूरमणः) विस्तीर्ण-गम्भीरजलो अक्षोभ्य एवमस्यानन्तगुणा प्रज्ञा विशाला गम्भोरा अक्षोभ्या ८. (क) चूर्णि, पृ० १४४ : ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञा ज्ञानसम्पत्, न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः परिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, सादी अपज्जवसितो कालतो, दग्व-खेत्त-भावेहि अणंते । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धि : केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रमावरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद । ९. चूणि, पृ० १४४ : अणाइलो णाम परीषहोपसर्गोदयेऽप्यनातुरः । Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६७ अध्ययन ६: टिप्पण ४३-४५ वृत्तिकार ने इसका अर्थ अकलुषित-निर्मल किया है। यह अर्थ शाब्दिक दृष्टि से अधिक ग्राह्य है । तात्पर्यार्थ की दृष्टि से चूर्णिकार का अर्थ मन को अधिक छूने वाला है। ४३. वीतराग (अकसाइ) कषाय चार हैं --क्रोध, मान, माया और लोभ । जिसके कषाय उपशान्त होते हैं, वह उपशान्त कपाय और जिसके क्षीण होते हैं वह क्षीण कषाय कहलाता है । भगवान् महावीर के कषाय क्षीण हो चुके थे, इसलिए वे अकषाय थे और अकषाय होने के कारण वे निरुत्साह थे । कुछ व्यक्ति शक्ति होने पर भी पुरुषार्थ नहीं करते, इसलिए निरुत्साह होते हैं। कुछ व्यक्ति शक्तिहीन होने के कारण निरुत्साह होते हैं। भगवान् महावीर पुरुषार्थ और पराक्रम से युक्त थे। फिर भी क्षीणकषाय होने के कारण निरुत्साहआकांक्षाओं से मुक्त थे-क्रोध, अहंकार, माया और लोभ से प्रेरित प्रवृत्तियों से शून्य थे ।' ४४. (मुक्के) इसका अर्थ है- ज्ञानावरण आदि कर्म-बन्धन से विमुक्त आवरण-मुक्त ।' चूर्णिकार ने 'भिक्खु' पाठ मान कर व्याख्या की है । यद्यपि भगवान् के सभी अन्तराय नष्ट हो गए थे और वे जगत्पूज्य भी थे, फिर भी वे भिक्षावृत्ति से ही अपना निर्वाह करते थे इसलिए वे भिक्षु थे। उन्हें 'अक्षीणमहानस' आदि लब्धियां प्राप्त थीं, फिर भी वे उनका उपयोग नहीं करते थे।' श्लोकह : ४५. (सुरालए वा वि...णेगगुणोववेए) जैसे स्वर्ग शब्द आदि विषयों के सुख से समन्क्ति होता है, वैसे ही यह मेरु पर्वत शब्द आदि वैषयिक सुखों से समन्वित है । देवता देवलोक को छोड़कर यहां क्रीडा करने के लिए आते हैं। मेरु पर्वत पर ऐसा एक भी इन्द्रिय-विषय नहीं है जो इन्द्रिय बाले प्राणियों को प्रसन्न न करे । मेरु पर्वत वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रभा, कान्ति, द्युति, प्रमाण आदि अनेक गुणों से समन्वित है, अत: वह सबको प्रसन्न करने वाला है। इसीलिए कहा है 'सुंदरजणसंसग्गी सीलदरिइंपि कुणइ सीलड्ढं । जह मेरुगिरिविच्छूढं तणंपि कणयत्तणमुवेति ।।' (ओघनियुक्ति गा० ७८४) शीलवान् व्यक्तियों का संसर्ग कुशील को भी सुशील बना देता है, जैसे मेरु पर्वत पर उगा हुआ तृण भी स्वर्णमय बन जाता है। १. वृत्ति, पत्र १४५ : अनाविलः अकलुषजल:, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति । २. चूणि, पृ० १४४, १४५ : अकसाय इति क्षीणकषाय एव, न तूपशान्तकषायः निरुत्साहवत्, इह कश्चित् सत्यपि बले निरुद्यमत्वादुप चारेण निरुत्साहो भवति, अन्यस्तु क्षीणविक्रमत्वाग्निरुत्साहः, एवमसो क्षीणकषायत्वान्निरुत्साहः । ३. वृत्ति, पत्र १४५ : ज्ञानावरणीया विकर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः । ४. चूणि, पृ० १४५ : सत्यप्यसौ क्षीणान्तरायिकत्वे सर्वलोकपूज्यत्वे च भिक्षामात्रोपजीवित्वाद् भिक्षरेव नाक्षीणमहानसिकादिसर्वलब्धि सम्पन्नोऽपि स्यात् तामुपजीवतीत्यतो भिक्षुः । ५. (क) चूणि, पृ० १४५ : सुराणां आलयः, मुद हर्षे सुरालयः स्वर्गः, स यया शब्दादिविषयसुखः एवमसावपि स्वर्गतुल्यः शब्दादिभि विषयैरुपेतः, देवा अपि हि देवलोक मुक्त्वा तत्र क्रीडास्थानेषु क्रीडन्ते न हि तत्र किञ्चिच्छब्दादिविषयजातं यदिन्द्रियवता न मुदं कुर्यादिति । विविध राजति अनेकः वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्रभाव-कान्ति-यति-प्रमाणादि भिर्गणरुपपेतः सर्वरत्नाकरः। (ख) वृत्ति, पत्र १४६ । ६. चूणि, पृ० १४५। Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६. सुदर्शन (मेल) (सुदंसणे) यह मेरु पर्वत का वाचक है। मेरु पर्वत दिखने में सुन्दर है इसलिए इसे सुदर्शन कहा गया है।' ४८. तीन कांडों ( भागों) वाला (तिकंडगे) ४७. वीर्य से (वीरिएणं) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्य प्रतिपूर्ण नहीं होता, वह अपूर्ण होता है । जो वीर्यं कर्म के क्षय से प्राप्त होता है वह अनन्त और प्रतिपूर्ण होता है । भगवान् महावीर का वीर्यान्तराय कर्म संपूर्ण क्षीण हो चुका था, इसलिए उनका वीर्य अनन्त और प्रतिपूर्ण था । इसके फलस्वरूप उनका औरसबल, धृतिबल, ज्ञानबल और संहननबल प्रतिपूर्ण था । ' श्लोक १० : २६८ कांड का अर्थ है विभाग मेरु पर्वत के तीन कांड है- भौमकांड, स्वर्णकांड और बेडकांड 1 पंडकवनरूपी पताका से युक्त (पंडगवेजयंते ) 'पंडग' शब्द पंडकवन का द्योतक है और 'वैजयन्त' का अर्थ है-पताकारूप | पंडकवन मेरु पर्वत के शिखर पर स्थित है, अतः वह मेरु पर्वत का पताका रूप है । * चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है - वह मेरु पर्वत पंडकवन के द्वारा दूसरे पर्वतों और वनों पर विजय प्राप्त करता है, इसलिए वह 'पंडगवैजयन्त' है । " श्लोक ११ : ४९. भूमि पर स्थित (भूमिवट्टिए) भूमि पर स्थित मेरु पर्वतको अधोलो और तिलोक तीनों लोकों का स्पर्श करता है।" वह निशानवे हजार योजन भूमि से ऊपर उठा हुआ है, इस प्रकार वह ऊर्ध्वलोक का स्पर्श करता है। वह एक हजार योजन भूमि तल के नीचे है, इस प्रकार वह नीचे लोक का स्पर्श करता है । वह तिरछे लोक में है ही, इस प्रकार वह तिरछे लोक का स्पर्श करता है । स्वर्ण के वर्ण वाला (हेमवण्णे ) तपे हुए सोने के समान पीत रक्त वर्ण वाला । हर स्वर्ण को 'हेम' नहीं कहा जाता, किन्तु जो स्वर्ण में प्रधान होता है, उसे हेम कहा जाता है । ' 1 १. (क) चूणि, पृ० १४५ : शोभनमस्य दर्शनमिति सुदर्शन:, मेरुः सुदर्शन इत्यपदिश्यते । (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : सुदर्शनो मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः । २. (क) णि, पृ० १४५ : अध्ययन ६ टिप्पण ४६-४६ - (ख) वृत्ति पत्र १४२ ३. (क) चूर्णि पृ० १४५ : त्रीणि कण्डान्यस्य सन्तीति त्रिकण्डी । तं जधा १. मोम्मेव२ते३लिए कंडे (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डः, तद्यथा - मौमं जाम्बूनदं वैडूर्यमिति । ४. वृत्ति, पत्र १४६ : पण्डकवैजयन्त इति, पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्ती कल्पं - पताकाभूतं यस्य स तथा । पंगवशेण चान्यपर्वतान् वनानि च विजयत इति पण्डवेजयन्तः । ५. पि ० १४५ बी औरस्वं पृति ज्ञानवीयं व सर्वरपि प्रतिपूर्णवीर्यः क्षायोपशमिकानि हि वीर्याणि अप्रतिपूर्णानि ज्ञाधिक त्वादनन्तत्वाच्च प्रतिपूर्णम् बीर्येण ओरसेन बलेन वृतिसंहननादिभिश्व बोर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्थः । ६. (क) चूर्ण, पृ० १४५ : उड्ढलोगं च फुसति अहलोगं च, एवं तिणि वि लोगे फुसति । (ख) वृत्ति पत्र, १४६ : भूमि चाऽवगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाऽधस्तिर्यक् लोकसंस्पर्शी । ७. वृत्ति, पत्र १४६ : हेमवर्णो निष्टप्तजाम्बूनदामः । ८. चूर्ण, पृ० १४५ : हेममिति जं प्रधानं सुवर्णम्, निष्टप्त जम्बूनदरुचि इत्युक्तं भवति । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६६ अध्ययन ६ : टिप्पण ५०-५१ बहुतों को आनन्द देने वाला (बहुणंदणे) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. मेरु पर्वत पर आनन्द उत्पन्न करने वाले अनेक शब्द आदि विषय हैं इसलिए वह 'बहुणंदण' है। २. वह बहुतों को आनन्द देने वाला है, इसलिए 'बहुनंदन' है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है । मेरु पर्वत अनेक वनों से शोभित है । उस पर चार वन हैं--.२ १. भद्रशालवन-यह मेरु के भूमीभाग पर स्थित है। २. नंदनवन-भूमी से ऊपर पांच सौ योजन ऊपर मेरु की मेखला में स्थित है। ३. सौमनसवन- नंदनवन से पांच सौ बासठ हजार योजन ऊपर स्थित है। ४. पंडकवन-सौमनसवन से छत्तीस हजार योजन ऊपर मेरु के शिखर पर स्थित है। वृत्तिकार ने इन चारों को नंदनवन माना है, क्योंकि ये सब आनन्द उत्पन्न करने वाले हैं। ५०. महान् इन्द्र (महिंदा) चणिकार ने सौधर्म, ईशान आदि के इन्द्रों को 'महेन्द्र' बतलाया है। वे अपने-अपने विमानों को छोड़कर मेरु पर्वत पर आकर क्रीडा करते हैं।' श्लोक १२: ५१. (सद्दमहप्पगासे) वृत्तिकार ने इसको इस प्रकार व्याख्यात किया है-एवमादिभिः शब्दमहान् प्रकाश:-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाश:मेरु पर्वत की अनेक महान् शब्दों द्वारा लोकप्रसिद्धि है । वे शब्द हैं-मन्दर, मेरु, सुदर्शन, सुरगिरि, पर्वतराज, सुरालय आदि।' चूर्णिकार ने मन्दर, मेरु, पर्वतराज आदि सर्वलोकप्रतीत शब्दों के द्वारा मेरु पर्वत को प्रकाशित माना है। जिसका आयत बड़ा होता है उसके शब्द समूचे लोक में परिभ्रमण करते हैं ।" चमकते हुए सोने के वर्ण वाला (कंचणमट्रवणे) वृत्तिकार ने मृष्ट का अर्थ श्लक्ष्ण या शुद्ध किया है। चूणिकार ने 'अट्ठ सण्णे लण्हे'- यह पाठ उद्धृत कर इसका १. चूणि, पृ० १४५ : बहुनन्दन इति बहून्यत्राभिनन्दजनकानि शब्दादिविषयजातानि बहूनां वा सत्त्वाना नन्दिजनकः । २. (क) वृत्ति, पत्र १४६ : तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि-भूमौ भवशालवनं ततः पञ्च योजन शतान्यारुह्य मेखलायां नन्दनं ततो द्विषष्टियोजनसहस्राणि पंचशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं ततः षट्त्रिंश त्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति, तदेवमसौ चतुर्नन्दनवनायु पेतो विचित्रक्रीडास्थानसमन्वितः । (ख) जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४०२१४ । ३. चूणि, पृ० १४७ : महान्तो इन्द्रा महेन्द्राः शक्रेशानाद्या , ते हि स्वविमानानि मुक्त्वा तत्र रमन्ते । ४. वृत्ति पत्र १४६ : सः--- मेखियोऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शन: सुरगिरित्येवमादिभिः शब्दैर्महान् प्रकाशः-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्द महाप्रकाशः। ५. चूणि, पृ० १४६ : मन्दरो मेरुः पर्वतराजेत्यादिभिः शब्दः प्रकाशः सर्वलोकप्रतीतैः ओरालायतस्स सद्दा सव्वलोए परिभमंति । ६. वृत्ति, पत्र १४६ : मृष्टः--श्लक्ष्णः शुद्धो वा । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ३०० अध्ययन ६ : टिप्पण ५२-५४ तात्पर्यार्थ कोमल या समतल किया है।' वर्ण का एक अर्थ आकृति भी होता है। उसके आधार पर इसका अर्थ होगा - सोने की भांति चमकपूर्ण आकृति वाला । (गिरिसु 'गिरि' शब्द का सप्तमी विभक्ति का बहुवचन 'गिरीसु' होता है। प्रस्तुत प्रयोग में 'रि' ह्रस्व है । यह छन्द की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है । मेखलाओं से दुर्गम (पन्चदुणे ) इसका अर्थ है - मेरु पर्वत मेखलाओं से अति दुर्गम है । उन मेखलाओं पर सामान्य व्यक्ति नहीं चढ सकता | अतिशय शक्ति वाला ही उन पर चढ पाता है ।" वृत्तिकार ने 'पर्व' के दो अर्थ किए हैं—मेखला अथवा दंष्ट्रापर्यंत (उप-पर्वत) ५२. (गिरीवरे से जलिए व भोमे) मेरु पर्वत अनेक प्रकार की मणियों तथा औषधियों से देदीप्यमान था। वह ऐसा लग रहा था मानो कि कोई भूमि का प्रदेश प्रदीप्त हो रहा है।" वृत्तिकार ने भौम का अर्थ - भू-प्रदेश किया है। पद्मचन्द्र कोष में भौम का अर्थ - आकाश भी मिलता है । अर्थ-संगति की दृष्टि से यह अर्थ उपयुक्त लगता है । इस आधार पर इसका अर्थ होगा- वह प्रदीप्त आकाश जैसा लग रहा था । चूर्णिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है । वह पर्वत ऐसा लग रहा था जैसे रात्रि में खदिर के अंगारे उसके दोनों पावों में प्रज्वलित हो रहे हों।" श्लोक १३: ५३. भूमि के मध्य में (महीए मज्झम्मि) יו इसका अर्थ है -जंम्बूद्वीप के मध्य में अवस्थित । ५४. सूर्य के समान तेजस्वी ( सूरियसुद्धले से) वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-सूर्य के समान विशुद्ध तेज वाला अर्थात् सूर्य के समान तेजस्वी । " चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है— हेमन्त ऋतु में तत्काल उदित सूर्य की लेश्या - वर्ण वाला । " १. चूर्ण, पृ० १४६ : मट्ठ ेति 'अट्ठ े (अच्छे ) सण्हे लहे जाव पडिरूवे' (जीवा० प्रति० ३ उ० १ सू० १२४ पत्र १७७-२ ), ण फरस - फासो विसमो वा इत्यर्थः । २. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी वर्ण:- Look, Countenance । मध्यस्थवर्ण इव दृश्यते मध्यमव्यायोग ? ३. चूर्ण, पृ० १४६ : दु:खं गम्यत इति दुर्ग:, अनतिशयवद्भिनं शक्यते आरोढम् । ४. वृत्ति पत्र १४६ पर्वभिः मेखलादिनिष्ट्राप ५. वृत्ति, पत्र १४७ : असौ मणिभिरौषधीभिश्च देदीप्यमानतया 'भौम इव' भूदेश इव ज्वलित इति । ६. वृत्ति, पत्र १४७ : भौम इव भूदेश इव । ७. पद्मचन्द्रकोष पृ० ३६५ : भौम- आकाश 1 ८. चूणि, पृ० १४६ : जधाणामए खइरिगालाणं रति पज्जलिताणं, अधवा जधा पासातो पज्जलितो के पि पचतो वा अड्ढरते । ६. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ४।२१२ : मंदरे णाम पव्वए" १०. वृत्ति, पत्र १४७ : सूर्यवत्शुद्धलेश्य:- -आदित्यसमानतेजाः । । ११. चूर्ण, पृ० १४६ : सूरियलेस्सभूते ति ज्ञायते अतिदग्गयहेमंतिसूरियलेस्सभूतो यदि मध्याह्लार्कलेश्यामतोऽभविष्यत् तेन दुरासओ ऽभविष्यत् । "जंबुद्दीवस्स बहुमज्भदे सभाए ..... Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूधगडो १ ___३०१ अध्ययन ६ : टिप्पण ५५-५६ नाना वर्णवाला (भूरिवणे) मेरु पर्वत नाना वर्ण वाला है क्योंकि वह अनेक वर्ण के रत्नों से सुशोभित है।' चूर्णिकार ने भूतिवण्णे पाठ मान कर उसका अर्थ-प्रभूत वर्ण वाला दिया है ।' श्लोक १४: ५५. यश (जसो) जो प्रसिद्धि सर्व लोक में प्रसृत होती है, उसे यश कहा जाता है, यह चूर्णिकार का अभिमत है।' दशवकालिक ६।४ में कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक-ये चार शब्द प्रसिद्धि की विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कीर्ति-सर्व दिग्व्यापी प्रशंसा । वर्ण-एक दिग्व्यापी प्रशंसा । शब्द-अर्द्ध दिग्व्यापी प्रशंसा । श्लोक- स्थानीय प्रशंसा । विशेष विवरण के लिए देखें-दसवेआलियं ९।४ का १८ वां टिप्पण । जाती-जसो.......... इस चरण में पांच शब्द हैं-जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील । भगवान् महावीर समस्त जाति वालों में, यशस्वियों में, दर्शन और ज्ञान वालों में तथा शीलवानों में श्रेष्ठ हैं । यह चूणि और वृत्ति की व्याख्या है।' श्लोक १५: ५६. लंबे पर्वतों में निषध (णिसढायताणं) यहां दो पद हैं-णिसढे, आयताणं । इन दो पदों में संधि होने पर यह रूप निष्पन्न हुआ है-णिसढायताणं । जंबूद्वीप अथवा दूसरे द्वीपों के लंबे पर्वतों में 'निषध' सबसे अधिक लंबा पर्वत है।' सत्यप्रज्ञ (भूतिपण्णे) वृत्तिकार ने इसका अर्थ --- प्रभूत ज्ञान वाला, प्रज्ञाश्रेष्ठ किया है। चूर्णिकार ने 'भूतपण्णे' पाठ की व्याख्या की है-भूता प्रज्ञा यस्य जगत्यसावेको भूतप्रज्ञः । देखें-छठे श्लोक के 'भूइपण्णे' का टिप्पण। १. वृत्ति, पत्र १४७ : भूरिवर्णः अनेकवर्णा अनेकवर्णरत्नोपशोभितत्वात् । २. चूणि, पृ० १४६ : भूतिवर्ण इति प्रभूतवर्ण इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १४६ : यशः प्रतीतः सर्वलोकप्रकाशः। ४. (क) चूणि, पृ० १४६ : जात्या सर्वजातिभ्यः, यशसा सर्वयशस्विभ्यः, दर्शनेन सर्वदृष्टिभ्यः, ज्ञानेन सर्वज्ञानिभ्यः, शीलेन सर्व शोलेभ्य एवं भावात् । (ख) वृत्ति, पत्र १४५ : स च जात्या सर्वजातिमद्भ्यो यशसा अशेषयशस्विभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्त शोलवद्भ्यः श्रेष्ठः-प्रथानः । ५. (क) चूणि, पृ० १४६ : न हि कश्चित् तस्मादायततमो वर्षधरोऽन्प इह वाऽन्येषु वा द्वीपेषु । (ख) वृत्ति, पत्र १४७ : "निषधो' गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैये 'श्रेष्ठः' प्रधानः । ६. वृत्ति, पत्र १४७,१४८ : भूतिप्रज्ञ:-प्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः । ७. चूर्णि, पृ. १४६ । Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३०२ अध्ययन ६ : टिप्पण ५७-५८ गोल पर्वतों में (वलयायतानां) 'वलयायताणं' यह पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। आदर्शों में यही पाठ उपलब्ध है। वृत्ति में यही व्याख्यात है, जैसे—'स हि रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायत: संख्येयजोजनानि परीक्षेपेणेति ।" चूणि में रुचक पर्वत को केवल वृत्त बतलाया गया है-'स हि रुयगस्स दीवस्स बहुमज्झदेसभागे माणुसुत्तरइव वट्टे वलयागारसंठिते असंखेज्जाइं जोयणाई परिक्खेवेणं । यह चूणि की व्याख्या उचित प्रतीत होती है। आदर्शों में लिपिकर्ताओं के द्वारा पाठ का परिवर्तन हुआ है। प्राचीन लिपि में दीर्घ ईकार की मात्रा नाममात्र की-सी होती थी। प्राचीन लिपि के 'गतीणं' को 'गताणं' भी पढ़ा जा सकता है। 'वलयायतीणं' पाठ की संभावना की जा सकती है। लिपिकाल में ईकार का आकार होने पर 'वलयायताणं' पाठ हो गया। 'वलयायतीणं' (सं० वलयाकृतीनां) पाठ की संभावना आधारशून्य नहीं है। आकृति शब्द का आकिति, आकति, और 'क' का लोप करने पर आयति रूप बन सकता है । चूणि का 'वलयागारसंठिते' पाठ में प्रयुक्त आगार शब्द भी आकृति का ही वाचक है । इसलिए यह पाठ 'वलयायतीणं' ही होना चाहिए । ५७. ज्ञातपुत्र प्राज्ञ मुनियों में श्रेष्ठ हैं (मुणीण मज्झे तमुबाहु पण्णे) इस पाठ के स्थान पर चूर्णिकार ने 'मुणीणमावेदमुदाहु' पाठ की व्याख्या की है। उसका तात्पर्य है-प्रज्ञ महावीर ने मुनियों के लिए आवेद (श्रु तज्ञान) का निरूपण किया है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने प्रज्ञ का अर्थ-प्रकृष्ट ज्ञानी किया है।' श्लोक १६: ५८. (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ........... वदातसुक्कं) भगवान् ने शुक्लध्यान के द्वारा कैवल्य प्राप्त किया। उसे प्राप्त कर वे आत्मानुभव की चरम सीमा पर पहुंच गए। फिर उनके लिए ध्यान अपेक्षित नहीं रहा। निर्वाण के समय स्थूल और सूक्ष्म-दोनों शरीरों से मुक्त होने के लिए उन्होंने अनुत्तर शुक्लध्यान का प्रयोग किया। पहले चरण में क्रिया को सूक्ष्म किया और दूसरे चरण में उसका उच्छेद कर डाला। इस प्रकार वे सर्वथा अक्रिय होकर मुक्त हो गए। साधना-काल में शुक्ल-ध्यान होता है। निर्वाण-काल में परम शुक्ल-ध्यान होता है। इसीलिए उसे 'सुशुक्ल-शुक्ल' कहा गया है । उसे जलफेन, शंख और चन्द्रमा से उपमित किया है। चूर्णिकार ने अपगंड शब्द का अर्थ-शरद् ऋतु में नदी के प्रपात में उठने वाले जल-फेन किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) विजातीय द्रव्य से रहित, निर्दोष, अर्जुन सुवर्ण की भांति निर्मल । (२) जल-फेन ।' चूर्णिकार ने अवदात के तीन अर्थ किए हैं-अतिश्वेत, स्निग्ध और निर्मल ।' १. वृत्ति, पत्र १४७ । २. चूणि, पृ० १४६ । ३. चूणि, पृ० १४६ : आवेदयन्ति तेनेति आवेदः, यावद् वेद्य तावद् वेदयतीति आवेदः, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । ४. (क) चूर्णि, पृ० १४६ : पण्णे प्रगतो ज्ञः प्रज्ञः। (ख) वृत्ति, पत्र १४८ : अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः। ५. (क) चूणि पृ० १४७ । (ख) वृत्ति, पत्र १४८ । ६. चूणि पृ० १४७ : यथा अपगंडं अपां गंडं अपगंड, उदकफेनवदित्यर्थः, शरन्नदीप्रपातोत्थं अपेव । ७. वृत्ति पत्र १४८ : तथा अपगतं गण्डम् --अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदि वा-अपगण्डम्-उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः। ८. चूणि, पृ० १४७ : अवदातं अतिपण्डरं स्निग्धं वा निमल । Jain Education Intemational ation Intermational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५४. शील (सीलेण) चूर्णिकार ने शीत के दो प्रकार किए है-तप और संयम ।' ३०३ श्लोक १७: ६०. सारे कर्मों का (असेस कम्मंस ) पूर्व श्लोक में भगवान् महावीर के शुक्लध्यान की चर्चा है । केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भगवान् शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों में रहते थे । जब तक वे सयोगी रहे तब तक शुक्लध्यान के तीसरे भेद - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती में तथा अयोगी होने के पश्चाद उसके चौथे और अंतिम भेदसमुच्छिन्न किया अनिवृत्ति में स्थित हो गए। तद् पश्चात् अष कम अर्थात् अवशिष्ट वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्मों का एक साथ क्षय कर मुक्त हो गए । ' यही वर्णन उत्तराध्ययन के २६।७२ में है। वहां 'कम्मंस" शब्द का प्रयोग है । प्रस्तुत प्रसंग में भी ' असेस कम्मंस' यही पाठ होना चाहिए । चूर्णिकार ने 'स' को भिन्न मानकर इसका अर्थ- स इति भगवान् किया है । * वृत्तिकार ने 'स' के स्थान पर 'च' माना है । " यहां 'स' के भिन्न प्रयोग का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता । ६२. सादि अनन्त (साइमणंत ) ६१. अनुतर लोक के अग्रभाग में स्थित (अणुतरग्ग) यह सिद्धि गति का विशेषण है । सिद्धि गति सब सुखों में प्रधान, सब स्थानों में अनुत्तर और लोक के अग्रभाग में है, इसलिए इसे 'अनुत्तराम्र' कहा गया है। उत्तराध्ययन में एक प्रश्नोत्तर उपलब्ध है । प्रश्न पूछा गया - सिद्ध कहां प्रतिहत होते हैं ? कहां प्रतिष्ठित हैं ? शरीर को छोड़कर कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? उत्तर में कहा गया- सिद्ध अलोक में प्रतिहत होते हैं, लोकाग्र में प्रतिष्ठित होते हैं, और मनुष्य लोक में शरीर को छोड़ लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं । " अध्ययन ६ टिप्पण ५४-६३ यह विभक्तिरहित प्रयोग है। यहां 'साइमनंतं' द्वितीया विभक्ति होनी चाहिए। सिद्धिगति सादि और अनन्त होती है । कर्मयुक्त आत्मा वहां जाती है, अतः वह गति आदि सहित (सादि ) है । वहां जाने के पश्चात् कोई भी आत्मा लौट कर नहीं आती, पुनः जन्म ग्रहण नहीं करती, अतः वह अनन्त है । श्लोक १५ : ६२. शाल्मली ( सामली) जैन आगमों में शाल्मली वृक्ष का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त है । क्वचित् इस शब्द के साथ 'कूट' शब्द भी मिलता १. चूर्ण, पृ० १४७ : शीलं दुविधं तवो संजमो य । २. (क) वृत्ति पत्र १४८ उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाता तथा नियोगश्च शुध्यानमेदं स्युपरतनिवृत्ताध्यापति (ख) उत्तरज्झयणाणि, २६।७२ । ३. उत्तरज्भवणाणि २६।७२ कम्मसे जुगवं खवेइ । .............च । ४. चूर्णि पृ० १४७ : असेसं णिरवसेसं कम्मं । स इति भगवान् । ५. वृत्ति पत्र १४८ : अशेषं कर्म - ज्ञानावरणादिकं - ६. उत्तर हा सिद्धा ?, कह सिद्धा पट्टिया ? | कहि बोन्दि चइत्ताणं ?, कत्थ गन्तृण सिम्झई ? ॥ अलोए पहिया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्टिया । २६०५५५६ इहं बोन्दि चहत्ताणं तस्य गन्तुण सिन्भाई ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । अध्ययन ६ : टिप्पण ६४-६७ है-कूटशाल्मली। वृत्तिकार के अनुसार यह देवकुरु में अवस्थित प्रसिद्ध वृक्ष है । यह भवनषति देवों का क्रीडा-स्थल है। अन्यान्य स्थानों से आकर सुपर्णकुमार देव यहां रमणक्रीडा का आनन्द अनुभव करते हैं।' चूर्णिकार ने 'कूडसामली' का प्रयोग किया है। उत्तराध्ययन २०१३६ में भी 'कूडसामली' का प्रयोग है।' शाल्मली सिम्बल वृक्ष का वाचक है।" इसको अंग्रेजी में Silk-Cotton tree माना है।' ६४. प्रसिद्ध है (णाते) ___ ज्ञात शब्द के दो अर्थ हैं-प्रसिद्ध अथवा उदाहरण । लोग सभी वृक्षो से इसे (शाल्मली वृक्ष को) अधिक जानते हैं, इसलिए वह ज्ञात है। अथवा सभी वृक्षों में यह दृष्टान्तभूत है अतः वह ज्ञात है । अहो ! यह वृक्ष सुन्दर है। संभव है यह सुदर्शना, जंबू या कूट शाल्मली वृक्ष हो।' ६५. नंदनवन (णंदणं) सभी वनों में नन्दन-वन श्रेष्ठ है । वह प्रमाण की दृष्टि से भी बृहद् है और उपभोग सामग्री की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है। वह देवताओं का प्रधान क्रीडा-स्थल है। ६६. सत्यप्रज्ञ (भूतिपण्णे) देखें-छठे तथा पन्द्रहवें श्लोक का टिप्पण । श्लोक १६: ६७. मेघ का गर्जन (थणितं व...) प्रावृट् काल में जल से भरे बादलों का गर्जन स्निग्ध होता है। शरद ऋतु के नए बादलों का गर्जन भी स्निग्ध होता है। कहा भी है-शरद घन के गर्जन जैसे गंभीर घोष वाले।' वृत्तिकार ने इसे सामान्य मेघ का गर्जन माना है।" १. ठाणं, २१२७१,३३०,३३२, ८।६४; १०११३८ । समवायांग ८।५। २. वृत्ति, पत्र १४८: देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीबृक्षः, स च भवनपतिक्रीडास्थानम् । यत्र व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य...."रमणक्रीडा ."अनुभवन्ति । ३. चूणि, पृ० १४७ :.......""कूडसामली। ४. उत्तरज्झयणाणि, २०१३६ अप्पा मे कूडसामली । ५. पद्मचन्द्रकोष, पृ० ४८४ : शाल्मल-सिम्बल का व्रत । ६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ७. चूणि, पृ०१४७ : ज्ञायत इति सर्ववृक्षेभ्योऽधिका, लोकेनापि ज्ञातम् । अहवा णातं आहरणं ति य एगट्ठ, सर्ववृक्षाणामसौ दृष्टान्तभूता-अहो ! अयं शोभनो वक्षः ज्ञायते सुदर्शना जम्बू कूडसामली वेति । ८ चूणि, पृ० १४७ : नन्दन्ति तत्रेति नन्दनम्, सर्ववनानां हि नन्दनं विशिष्यते प्रमाणतः पत्रोपगाद्य पभोगतश्च । (ख) वृत्ति, पत्र १४८ : वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधानम । ६. चूणि, पृ० १४७ : थणंतीति थणिताः, प्रावृट्काले हि सजलानां घनानां स्निग्धं गजितं भवति अभिनवशरधनानां च । उक्तं च - 'सारतणिद्धथणितगंभीरघोसि'। १०. वृत्ति, पत्र १४८ : 'स्तनितं' मेघगजितम् । Jain Education Intemational Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३०५ अध्ययन ६ : टिप्पण ६८-७३ ६८. तारागण में चन्द्रमा (चंदे व ताराण) चन्द्रमा समस्त नक्षत्रों में महा प्रभावी है । वह समस्त व्यक्तियों को आनन्द देने वाली कान्ति से मनोरम है।' ६९. चन्दन (चंदण) वृत्तिकार ने दो प्रकार के चन्दनों का उल्लेख किया है१. गोशीर्ष चन्दन । २. मलयज चन्दन । कोषकार ने गोशीर्ष पर्वत पर उत्पन्न चन्दन को 'गोशीर्ष चन्दन' और मलय पर्वत पर उत्पन्न चन्दन को 'मलय चन्दन' माना है। 'मलय' दक्षिण भारत की पर्वत-शृंखला है।' ७०. अनासक्त (अपडिण्णं) वह व्यक्ति अप्रतिज्ञ होता है जो इहलोक और परलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, अनाशंसी है अर्थात् जो संपूर्ण अनासक्त है।' मुनि को अप्रतिज्ञ होना चाहिए । वह किसी के प्रति प्रतिबद्ध न हो । वह केवल आत्मा के प्रति ही प्रतिबद्ध रहे। श्लोक २०: ७१. स्वयंभू (सयंभू) दृत्तिकार ने स्वयंभू का अर्थ-स्वयं उत्पन्न होने वाले अर्थात् देव किया है। जहां देव आकर रमण करते हैं वह समुद्र हैस्वयंभूरमण। यह समुद्र समस्त द्वीप और समुद्रों के अन्त में स्थित है।' ७२. नागकुमार देवोंमें (णागेसु) नागकुमारदेव भवनपति देवों की एक जाति है। चूणिकार के अनुसार नागकुमारों के लिए जल या स्थल-कुछ भी अगम्य नहीं रहता इसलिए वे 'नाग' कहलाते हैं।' ७३. रसों में इक्षु रस श्रेष्ठ होता है (खोओदए वा रस-वेजयंते) क्षोद का अर्थ है-इक्षुरस । जिस समुद्र का पानी इक्षु रस की तरह मीठा है, उसे क्षोदोदक कहा जाता है।' क्षोदोदक समुद्र रस-माधूर्य से सब रसों को जीत लेता है, इसलिए वह 'रसवैजयन्त' कहलाता है। वृत्तिकार ने वैजयन्त १. वृत्ति, पत्र १४६ : नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः । २. वृत्ति, पत्र १४६ : 'चन्दनं' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा । ३. (क) पाचन्द्र कोष, पृ० १८७ : गोशीर्षः (पर्वतः), तत्र जातत्वात् । (ख) वही, पृष्ठ ३७६ : मलये पर्वते जायते । (ग) आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ४ (क) चणि, पृ० १४७ : श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञः । नास्येहलोकं परलोक वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः । (ख) वृत्ति पत्र १४६ : नाऽस्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाऽऽशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञः। ५. (क) वृत्ति, पत्र १४६ : स्वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो-देवाः ते तत्राऽऽगत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः । (ख) चूणि, पृ० १४८ । ६ चूर्णि, पृ० १४८ : न तेषां किञ्चिज्जलं थलं वा अगम्यमिति नाग। ७. (क) चूणि, पृ० १४८ : खोतोदगं णाम उच्छरसोदगस्य समुद्रस्य, अधवा इहापि इक्षरसो मधुर एव । (ख) वृत्ति, पत्र १४९ : खोओदए इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः । म चूणि, पृ० १४८ ।.....सब्वे रमे माधर्येण विजयत इति वेजयन्तः । Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. प्रध्ययन ६: टिप्पण ७४-७८ का अर्थ प्रधान या सभी समुद्रों में पताकाभूत किया है।' ७४. तपस्वी मुनियों में (तहोवहाणे) तहोवहाणे' इस पाठ में दो पद हैं-तहा' और 'उवहाणे' । वृत्ति में 'तवोवहाणे' पाठ व्याख्यात है। उपधान का प्रयोग स्वतंत्र भी होता है और तप के साथ में भी होता है। इसलिए 'तवोवहाणे' पाठ भी त्रुटिपूर्ण नहीं है। उत्तराध्ययन में दूसरे अध्ययन में 'तवोवहाण'' का और ग्यारहवें अध्ययन में 'उवहाणवं' का प्रयोग मिलता है। आचारांग नियुक्ति में बतलाया है- भगवान् महावीर अपने बल वीर्य को छिपाते नहीं थे, तप-उपधान में उद्यम करते थे ।' उपधान का शाब्दिक अर्थ है-आलंबन । प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । उपधान का एक अर्थ-शास्त्राध्ययन के समय किया जाने वाला तप या उसका संकल्प भी होता है । किन्तु यहां यह अर्थ प्रस्तुत नहीं है। श्लोक २१: ७५. पशुओं में (मिगाणं) मृग का अर्थ है- वन्यपशु ।' ७६. नदियों में (सलिलाण) चूर्णिकार ने सलिला का अर्थ 'नदी" और वृत्तिकार ने 'पानी' किया है। यहां चूर्णिकार का अर्थ ही संगत लगता है। ७७. वेणुदेव गरुड (वेणुदेवे) 'वेणुदेव' यह गरुड का दूसरा नाम है।" चूर्णिकार ने इसे लोकरूढ मान कर इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ विनता का पुत्र वैनतेय किया है।" ७८. निर्वाणवादियों में (णिव्वाणवादी) निर्वाणवादी अर्थात् मोक्षवादी । प्राचीन काल में दार्शनिक जगत् में दो परंपराएं मुख्य रही हैं-निर्वाणवादी परंपरा और स्वर्गवादी परंपरा । श्रमण परंपरा निर्वाणवादी परंपरा है। उसमें साधना का लक्ष्य निर्वाण है और वही उसका सर्वोच्च आदर्श है। भगवान महावीर ने इस आदर्श को सर्वाधिक मूल्य दिया, इसलिए वे निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ हैं । १. वृत्ति, पत्र १४६ : वैजयन्तः प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः । २. उत्तरज्झयणाणि २।४३ : तवोवहाणमादाप । ३. उत्तरज्झयणाणि ११३१४ : जोगवं उबहाणगं । ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा २७७ :...............। ___ अणिमूहियबलविरिओ तवोवहाणंमि उज्जमइ । ५. आचारांग नियुक्ति, गाया २८१ : बवबहाणं सयणे भावुवहाणं तवोचरित्तस्स । __ तम्हा उ नाणदंसणतवचरणेहि इहागहियं ॥ ६. मूलाचार गाथा २८२ : आयंबिल णिव्वियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो।। ७. उत्तराध्ययन १११२०, वृहद् वृत्ति, पत्र ३४६ : मृगाणाम्-आरण्यप्राणिनाम् । (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : सृगाणां च श्वापदानाम् । ८ चूर्णि, पृ० १४८ : सलिलवत्यः सलिलाः । ९. वृत्ति पत्र १४६ : सलिलानां ....... 'गङ्गासलिलं । १० वृत्ति, पत्र १४६ : गरुत्मान् वेणुदेवाऽपरनामा । ११. चूणि, पृ० १४८ : वेणुदेवे लोकरूढोऽयं शब्द:-विनताया अपत्यं वैनतेयः । १२. उत्तरज्झयणाणि २३१८०-८५। Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ६ : टिप्पण ७६.८१ श्लोक २२: ७६. वासुदेव कृष्ण (वीससेणे) इसके संस्कृत रूप दो होते हैं-विश्वसेन और विश्वक्सेन । चूणिकार ने इस शब्द का व्युत्पत्तिकलभ्य अर्थ इस प्रकार किया है--विश्वा-अनेकप्रकोरा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः-जिसके पास हाथी, रथ, अश्व, पदाति -- यह चतुरंग सेना हो वह विश्वसेन है। वह चक्रवर्ती हो सकता है।' वृत्तिकार ने यही अर्थ मान्य किया है ।' चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ-विश्वक्सेन-वासुदेव किया है।' वास्तव में चूणिकार का यह वैकल्पिक अर्थ ही संगत लगता है, क्योंकि चक्रवर्ती योद्धा नहीं होते । योद्धा होते हैं- वासुदेव । स्थानांग सूत्र में भी वासुदेव को ही 'युद्धशूर' बतलाया है।' प्रस्तुत प्रकरण में भी विश्वक्सेन को श्रेष्ठ योद्धा बताया है, अत: विश्वक्सेन का अर्थ वासुदेव करना ही युक्तिसंगत लगता है। ८०. दन्तवक्त्र (दंतवक्के) चुणिकार ने इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है जिसके वाक्य से-बोलने से शत्रुओं का दमन होता है या जिसका वाक्य दान्त (संयमित) है वह दान्तवाक्य है।' जिसके वाक्य से ही शत्रु शांत हो जाते हैं, वह दान्तवाक्य है-यह वृत्तिकार की व्युत्पत्ति है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने चक्रवर्ती को दान्तवाक्य माना है।' महाभारत सभापर्व ३२/३ में दन्तवक्त्र नामक क्षत्रिय का उल्लेख है। उसे राजाओं का अधिपति और महान पराक्रमी माना है। इस कथन से दन्तवक्त्र की श्रेष्ठता ध्वनित होती है। प्रस्तुत प्रसंग में यही अर्थ संगत लगता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने केबल शाब्दिक मीमांसा से वह अर्थ निकाला हो, ऐसा लगता है। निशीथ चूणि में दो स्थानों में दंतपुर के राजा दंतवक्त्र का उल्लेख हुआ है।' श्लोक २३: ८१. दानों में अभयदान प्रधान होता है (दाणाण सेठें अभयप्पयाणं) सभी प्रकार के दानों में अभयदान श्रेष्ठ है। अभयदान त्राणकारी होने के कारण श्रेष्ठ है । कहा भी है १. चूणि, पृ० १४८ : विश्वा- अनेकप्रकारा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः--हस्त्यश्च-रथ-पदात्याकुला विस्तीर्णा, स तु चक्रवर्ती। २. वृत्ति, पत्र १४६ : विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती । ३. चूणि, पृ० १४८ : अथवा विष्वक्सेनः वासुदेवः । ४. ठाणं, ४।३६७ : जुद्धसूरे वासुदेवे । ५. चूणि, पृ० १४८ : दम्यन्ते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः चक्रवर्ती, चक्रवत्तिनो हि शत्रवो वचसा दम्यन्ते, दान्तं वाक्यं यस्य स भवति दान्तवाक्यः । ६. वृत्ति, पत्र १४६ : दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्यः । ७. (क) चूणि, पृ० १४८ : दान्तवाक्यः चक्रवर्ती। (ख) वृत्ति, पत्र १४६: दान्तवाक्यः चक्रवर्ती। ८. महाभारत, सभापर्व ३२३ अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्त्रं महाबलम् । ६. निशीय भाष्य, चूणि भाग २ पृ० १६६ ; भाग ४ पृ० ३६१ । Jain Education Intemational ucation international Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ३०८ प्रध्ययन ६ : टिप्पण ८१-८२ 'दीयते म्रियमाणस्य. कोटि जीवितमेव वा। धनकोटिं न गृह्णीयात्, सर्वो जीवितुमिच्छति ॥' एक ओर करोड़ों का धन है और एक ओर जीवनदान है तो मरता हुआ व्यक्ति करोड़ों के धन को छोड़कर जीवनदान चाहेगा, क्योंकि सभी जीना चाहते हैं।' वसन्तपुर नगर में अरिदमन नाम का राजा था। एक दिन वह अपनी चार रानियों के साथ क्रीडा करता हुआ प्रासाद के गवाक्ष में बैठा था। प्रासाद के नीचे से लोग आ-जा रहे थे। सबकी आंखे राजमार्ग पर लगी हुई थी। राजपुरुष एक चोर को पकड़ कर ला रहे थे। उस चोर के गले में लाल कनेर की माला थी। उसके सारे कपड़े लाल थे। उसके समूचे शरीर पर लाल चन्दन का लेप लगा हुआ था। उसके पीछे-पीछे उसके वध की सूचना देने वाला ढिंढोरा पीटा जा रहा था। चाण्डाल उसे वध-स्थान की ओर ले जा रहे थे। राजा ने देखा । रानियों ने उसे देखकर राजपुरुष से पूछा-इसने क्या अपराध किया है ? राजपुरुष ने कहाइसने चोरी की है और राज-आज्ञा के विरुद्ध कार्य किया है। यह सुनकर रानियों का मन करुणा से भर गया। एक रानी ने कहा'आपने मुझे पहले एक वर दिया था। आज मैं उसे क्रियान्वित करना चाहती हूं ताकि इस चोर का कुछ उपकार कर सकू।' राजा ने कहा-जैसी इच्छा हो वैसा करो।' उस रानी की आज्ञा से चोर को स्नान कराया गया। उसे उत्तम अलंकारों से अलंकृत कर हजार मोहरें देकर एक दिन के लिए ऐश-आराम करने की छूट दी। दूसरी रानी ने भी राजा से वर लिया और एक लाख मोहरें खर्च कर, चोर को दूसरे दिन, सब प्रकार के भोग भोगने की छूट दी। तीसरी रानी ने तीसरे दिन के लिए कोटि-दीनार व्यय कर चोर को सुख भोगने की छूट दी। अब चौथी रानी की बारी थी। वह मौन थी। राजा ने कहा---'तुम भी कुछ वर मांगो, जिससे कि तुम भी चोर को कुछ दे सको।' उसने कहा-'प्रियवर ! मेरे पास ऐसी कोई संपत्ति नहीं है, जिससे कि मैं इस चोर का भला कर सकू।' राजा ने कहाप्रियतमे ! ऐसी क्या बात है ? मैं अपना सारा राज्य तुम्हे देता हूं और स्वयं भी तुम्हारे लिए अर्पित हूं। तुम जो चाहो वह उस चोर को दो।' रानी ने उस चोर को अभयदान दिया, जीवनदान दिया। चोर मुक्त हो गया। चारों रानियां परस्पर कलह करने लगीं। प्रत्येक रानी यह मानती थी कि उसने चोर का अधिक उपकार किया है। तीनों ने चौथी की मजाक करते हुए कहा-तुमने चोर को दिया ही क्या है ? तुम जैसी कृपण दे भी क्या सकती है ? चौथी रानी ने कहा-'मैंने ही सबसे अधिक उपकार किया है।' परस्पर कलह होने लगा । राजा ने चोर को बुलाकर पूछा-तुम्हारा अधिक उपकार किसने किया है ?' चोर ने कहा-राजन् ! मैं मरण-भय से अत्यन्त भीत था । आकुल-व्याकुल था। मुझे स्नान आदि कराया गया, अलंकरण पहनाए गए, भोग सामग्री प्रस्तुत की गई, किन्तु मेरा मन भय से आक्रान्त रहा। मुझे तनिक भी सुख की अनुभूति नहीं हुई। किन्तु जब मैंने सुना कि मुझे अभयदान मिला है, जीवनदान मिला है, मैं अत्यन्त आनन्द से भर गया और माना कि मेरा नया जन्म हुआ है। ८२. अनवद्य वचन (अणवज्ज) जो दूसरों के लिए पीडाकारक न हो वह अपापकारी अनवद्य वचन होता है। सत्य वचन सबसे श्रेष्ठ है। किन्तु जो सत्य पर-पीड़ाकारक होता है वह ग्राह्य नहीं होता । जो पर-पीडाकारक नहीं होता, वैसा सत्य ग्राह्य होता है । सत्य भी गर्हित होता है, यदि वह पर-पीडाकारक हो। जैसे-- काने को काना कहना, नपुंसक को नपुंसक कहना, रोगी को रोगी कहना और चोर को चोर कहना। यद्यपि ये सारे कथन सत्य हैं, किन्तु इनको सुनने वाला व्यक्ति व्यथा का अनुभव करता है, इसलिए यह सत्य भी गर्हित है। १. (क) चूर्णि, पृ० १४८ । (ख) वृत्ति, पत्र १५० । २. (क) चूर्णि, पृ० १४६ : अनवद्यमिति यदन्येषामनुपरोधकृतं । (ख) वृत्ति, पत्र १५० : 'अनवद्यम्' अपापं परपीडानुत्पादकम् । ३. (क) चूणि, पृ० १४६ । (ख) वृत्ति, पत्र १५०। Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३०६ अध्ययन ६: टिप्पण ८३-८७ ८३. तपस्या में (तवेसु) जो तपस्या करता है उसका शरीर भी सुन्दर और मनमोहक हो जाता है। सभी प्रकार की तपस्याओं में ब्रह्मचर्य उत्तम है। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल वस्ति-नियमन ही नहीं है, ब्रह्म-आत्मा में रमण करना ही इसका प्रमुख अर्थ है। ८४. श्रमण ज्ञातपुत्र लोक में प्रधान हैं (लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते) श्रमण ज्ञातपुत्र लोक में रूप संपदा से, अतिशायिनी शक्ति से, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से तथा अनन्त चारित्र से उत्तम हैं। ८५. (ठितीण ........''लवसत्तमा) स्थिति का अर्थ है-आयुष्य की काल-मर्यादा । अनुत्तरोपपातिक देवों के आयुष्य की काल-मर्यादा सबसे अधिक होती है। उन्हें लवसप्तम इसलिए कहा जाता है कि यदि उनकी आयुष्य सात लव अधिक हो पाती तो वे उसी जीवन में केवली होकर मुक्त हो जाते।' जैन परम्परा में एक लव ३७३१ सेकेण्ड का माना गया है।' ८६. सुधर्मा सभा (सुहम्मा) स्थानांग सूत्र में देवताओं के पांच प्रकार की सभाएं मानी गई हैं१. सुधर्मा सभा। ४. अलंकारिक सभा। २. उपपात सभा । ५. व्यवसाय सभा। ३. अभिषेक सभा। चुणिकार का अभिमत है कि इन पांचों सभाओं में सुधर्मा सभा नित्य काम में आती है। वहां माणवक, इन्द्रध्वज, आयुधशाला, कोशागार तथा चोपालग होते हैं । अन्य सभाओं में वे नहीं होते। अतः वह सब में श्रेष्ठ है।' वृत्तिकार का अभिमत है कि सुधर्मा सभा अनेक क्रीड़ास्थानों से युक्त है, अत: वह श्रेष्ठ है।' बौद्ध परंपरा के अनुसार मेरु पर्वत के पूर्वोत्तर दिशा में सुधर्मा नाम की देवसभा है जहां देव प्राणियों के कृत्य-अकृत्य का संप्रधारण करते हैं । माना जाता है कि पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा-अमावस्या को देवसभा होती है।' ८७. सब धर्मों में निर्वाण श्रेष्ठ है (णिव्वाणसेटा जह सव्वधम्मा) चणिकार ने श्रेष्ठ का अर्थ-फल या प्रयोजन और वृत्तिकार ने प्रधान किया है। १. चूणि, पृ० १५० : येन तपोनिष्टप्तदेहस्यापि मोहनीयं भवति, तेन सर्वतपसां उत्तमं ब्रह्मचर्यम । २. वत्ति, पत्र १५० : सर्वलोकोत्तमरूपसम्पदा-सर्वाऽतिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च 'ज्ञातपुत्रो' भगवान श्रमणः प्रधान इति । ३. चूणि, पृ० १५० : जे सव्वुक्कोसियाए ठितीए बटति अणुत्तरोववागिता ते लवसत्तमा इत्यपविश्यन्ते, जति णं तेसि देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पंते तो केवलं पाविऊण सिझता। ४. अणुयोगद्दाराई, सूत्र ४१७; जेनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २ पृष्ठ २१६ । ५. ठाणं, श२३५ चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभा पण्णत्ता, तं जहा-सभासुधम्मा, उववातसमा, अभिसेयसभा, अलंकारियसभा, ववसायसमा। ६. चणि, पृ० १४६ : पंचण्ह पि समाणं सभा सुधम्मा विसिट्ठा, सा हि नित्यकालमेवोपभुज्यन्ते, तत्थ माणवग-महिंदज्झय-पहरण कोसचोपाला, ण तधा इतरासु नित्यकालोपभोगः । ७. वृत्ति, पत्र १५० : समानां च पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानरुपेतत्वात् । ८. अभिधर्म कोश पृ० ३८४ । Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ६ : टिप्पण ५ यहां धर्म का अर्थ-मत या दार्शनिक परम्परा है। सभी धर्म वाले (निर्वाणवादी परंपरा को स्वीकार करने वाले) निर्वाण (मोक्ष) की ही आकांक्षा करते हैं । वे अपने दर्शन का प्रयोजन निर्वाण की प्राप्ति ही मानते हैं।' श्लोक २५: ५५. श्लोक २५ चूणिकार और वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त पुढोवमे, धुणती, विगयगेही आदि शब्दों के वाच्यार्थ को अलग-अलग मान कर स्वतंत्र व्याख्या की है । उनके अनुसार इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है पुढोवमे-पृथ्वी सर्वसहा है। भगवान् महावीर भी उसकी भांति सर्वसह थे—सभी प्रकार के परीषह और उपसर्गों को सम्यकरूप से सहते थे। अथवा जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों के लिए आधारभूत है उसी प्रकार भगवान महावीर भी अभयदान या सदुपदेश के कारण समस्त प्राणियों के आधार थे । धुणती- आठ प्रकार के कर्मों को प्रकंपित करने वाले, कर्मों का अपनयन करने वाले।' विगयगेही-बाह्य या आभ्यन्तर वस्तुओं के प्रति अनासक्त।' सणिहि-सन्निधि का अर्थ है-संग्रह । द्रव्य सन्निधि, धन-धान्य आदि है और भाव सन्निधि है-कषाय क्रोध आदि । चूर्णिकार ने सन्निधि का वैकल्पिक का अर्थ कर्म किया है । वीतराग के कर्म का सांपरायिक बन्ध होता है।' हमने इनकी व्याख्या कार्य-कारणभाव के आधार पर की है। भगवान महावीर पृथ्वी के समान सहिष्णु थे, इसलिए उन्होंने कर्म-शरीर को प्रकंपित किया। वे अनासक्त थे, इसलिए उन्होंने संग्रह नहीं किया। सहिष्णुता कर्मों के अपनयन का मुख्य हेतु है । जो सहिष्णु नहीं होता वह समभाव नहीं रख सकता। राग-द्वेष से कर्मों का बंध होता है। ___संग्रह करने का एकमात्र हेतु है गृद्धि, आसक्ति । जो आसक्त नहीं होता, अनासक्त होता है, वह सर्वत्र संतोष का अनुभव करता है । संतुष्ट व्यक्ति संग्रह नहीं करता। वह अभाव में भी व्याकुल नहीं होता। महाभवोघं चूर्णिकार ने इसका अर्थ कर्म-समुद्र' और वृत्तिकार ने संसार-समुद्र किया है।' १ (क) चूणि, पृ० १४६ : निव्वाणश्रेष्ठा हि सर्वधर्माः, निर्वाणफला निर्वाणप्रयोजना इत्यर्थः, कुप्रावचनिका बपि हि निर्वाणमेव काङ्क्षन्ते इति । (ख) वृत्ति, पत्र १५० निर्वाणश्रेष्ठाः मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव स्वदर्शनं बुबते। २. (क) चूणि, पृ०१४६ : जधा पुढवी सव्वफाससहा तथा सो वि। (ख) वृत्ति, पत्र १५१ : स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाधारा वर्तते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वा सत्त्वाऽऽधार इति, यदि वा यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान सम्यक् सहत इति । ३ (क) चूणि, पृ० १४६ : धुणोते अष्टप्रकारं कर्मति वाक्यशेषः । (ख) वृत्ति पत्र १५१ : धुनाति अपनयत्यष्टप्रकारं कर्मेति शेषः । ४. (क) चूणि, पृ० १४६ : बाह्य-ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य ग्रेधी स भवति विगतग्रेधी । (ख) वृत्ति पत्र १५१ : विगता प्रलोना सबाह्याऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु 'गृद्धिः' गार्यमभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः । ५ (क) चूणि, पृ० १४६ : सन्निधानं सन्निधिः, द्रव्ये आहारादीनाम्, भावे क्रोधादिनाम् । (ख) वृत्ति, पत्र १५१ । सन्निधानं सन्निधिः, स च द्रव्यसन्निधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसन्निधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायाः। ६. चूणि पृ० १४६ : कर्म वा सन्निधिः, यत् साम्परायिकं बध्नातीत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० १४६ : महामवोधं.......... कर्मसमुद्रः । ८. वृत्ति, पत्र १५१ : महाभवौघं चतुर्गतिकं संसारसागरम् । Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यगडो १ प्रध्ययन ६ : टिप्पण ८९-९१ ८६. अनन्त चक्ष (अणंतचक्खू) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अनन्त दर्शन वाला' और वृत्तिकार ने केवलज्ञानी' किया है। जो अनन्तदर्शनी होता है वह अनन्तज्ञानी भी होता है और जो अनन्तज्ञानी होता है वह अनन्तदर्शनी भी होता है। दोनों युगपत् होते हैं । देखें-श्लोक ६ का टिप्पण। श्लोक २६: ६०. अध्यात्म दोषों का (अज्झत्तदोसा) दोष दो प्रकार के होते हैं१. बाह्य दोष । २. अध्यात्म दोष-~आन्तरिक दोष । कषाय-चतुष्क आन्तरिक दोष हैं। ये चार कषाय-क्रोध, मान माया और लोभ संसार की स्थिति के मूल कारण हैं। जब कारण का विनाश होता है तब कार्य का भी विनाश हो जाता है । 'निदानोच्छेदेन निदानिन उच्छेदो भवति ।' जब चारों कषाय नष्ट हो जाते हैं तब व्यक्ति निर्वाण के निकट पहुंच जाता है। अध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर होने वाला । गुण और दोष-दोनों अध्यात्म हो सकते हैं । सांख्यदर्शन के अनुसार ताप आध्यात्मिक भी होता है। श्लोक २७: ६१. श्लोक २७ : प्रस्तुत श्लोक में चार वादों का उल्लेख है१. क्रियावाद-आत्मवाद । क्रिया से मोक्ष-प्राप्ति मानने वाला दर्शन । २. अक्रियावाद-ज्ञानवाद । वस्तु के यथार्थ ज्ञान से मोक्ष मानने वाला दर्शन । ३. वनयिकवाद-विनय से ही मोक्ष मानने वाला दर्शन । ४. अज्ञानवाद-अज्ञान से इहलोक और परलोक की सिद्धि मानने वाला दर्शन । इन चारों वादों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें-(१) बारहवां अध्ययन तथा उसके टिप्पण। (२) उत्तरज्झयणाणि १८।२३ का टिप्पण। १. चूर्णि, पृ० १४६ : अणंतचक्खुरिति अनन्तदर्शनवान् । २.वृत्ति, पत्र १५१ : 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वात् वाऽनन्तं चक्षरिव चक्षा-केवलज्ञानं यस्य स तथेति । ३. चणि, पृ०१४६ : आध्यात्मिका ह्य ते दोषाः, बाह्या गृहावयः। ४. वृत्ति, पत्र १५१ : निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवती ति न्यायात् संसारस्थितेश्च क्रोधावयः कषायाः कारणमत एतान अध्यात्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् । ५. सांख्यकारिका १११, अनुराधाव्याख्या, पृ० २ : आत्मनि इति अध्यात्म, तदधिकृत्य जायमानमाध्यात्मिकम् । वही पृष्ठ ३, नं १ के फुटनोट में उद्धृत, विष्णुपुराण ६।५।६: मानसोऽपि द्विजश्रेष्ठ !, तापो भवति नकधा । इत्येवमादिभिर्भदेस्तापो, ह्याध्यात्मिको मतः ।। Jain Education Intemational ation Intermational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३१२ प्रध्ययन ६: टिप्पण९२-९६ वैनयिक के साथ 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग है । चूणिकार का अभिमत है कि द्वादशांग गणिपिटक वाद है और शेष तीन सौ तिरसठ मत 'अनुवाद' हैं । अनुवाद का एक अर्थ 'थोड़ा' भी हो सकता है।' ६२. पक्ष का निर्णय किया (पडियच्च ठाणं) यहां स्थान का अर्थ है-पक्ष, मत । अर्थात् चारों वादों को-पक्षों को जानकर उनकी प्रतीति कर ।' १३. जानकर (वेयइत्ता) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-जानकर' और वृत्तिकार ने-दूसरों को वस्तु के स्वरूप की जानकारी देकर-किया है।' ६४. दीर्घरात्र (यावज्जीवन तक) (दोहरायं) दीर्घरात्र का अर्थ है यावज्जीवन । 'रात्र' शब्द काल का द्योतक है । लंबा काल अर्थात् जीवन-पर्यन्त । श्लोक २८: ६५. तपस्वी (उवहाणवं) भगवान् महावीर ने केवल आश्रव का ही निरोध नहीं किया था, वे अपने पूर्व कर्मों के विनाश के लिए तपस्या भी करते थे। देखें-श्लोक २० का टिप्पण । १६. वर्जन किया (वारिया) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने माना है कि भगवान् ने स्वयं पहले मैथुन तथा रात्रीभोजन का परिहार किया और फिर उसका उपदेश दिया। जो व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थित नहीं है, वह दूसरों को धर्म में स्थापित नहीं कर सकता ।" आचारांग सूत्र के नौवें अध्ययन में भगवान् महावीर की गृहस्थचर्या और मुनि-चर्या-दोनों का वर्णन है। चूणि की व्याख्या में यह स्पष्ट निर्देश है कि भगवान् विरक्त अवस्था में अप्रासुक आहार, रात्रीभोजन और अब्रह्मचर्य के सेवन का वर्जन कर अपनी चर्या १ चूणि, पृ० १५० : दुवालसंगं गणिपिडगं वादो, सेसाणि तिण्णि तिसट्टाणि अणुवादो, योवं वा अणुवादो। २. वृत्ति, पत्र १५१ : स्थानं पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, ..........."प्रतीत्य परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः । ३ चूणि, पृ० १५० : वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १५२ : अपरान् सत्त्वान् यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन 'वेदयित्वा' परिज्ञाप्प । ५. (क) चूणि, पृ० १५० : दोहरातं णाम जावज्जीवाए। (ख) वृति, पत्र १५२ : दीर्घरात्रम् इति यावज्जीवम् । ६. चूणि, पृ० १५० : उपधानवानिति न केवलं निरुद्धाश्रयः, पूर्वकर्मक्षयार्थ तपोपधानवानप्यसौ । ७ (क) चूणि, पृ० १५० : वारिया णाम वारयित्वा, प्रतिषेध्यते च । इत्थिग्रहणे तु मैथुनं गृह्यते । सराइभत्ते त्ति वारयित्वेति वर्तते, एतच्चाऽऽत्मनि वारयित्वा, न ह्यस्थितः स्थापयतीति कृत्वा, पश्चात् शिष्यान् वारितवान्, अद्वितो ण ठवेति परं ।... ... "सर्वस्मादकृत्यादात्मानं शिष्यांश्च वारितवानिति । (ख) वृत्ति, पत्र १५२ : एतदुक्तं भवति प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान्, न हि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम् ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्व वचनविरुद्धं व्यवहरन्, परान्नालं कश्चिद्दमयितुमदान्तः स्वयमिति । भवानिश्चित्यवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः॥ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगडा चलाते थे । ' इसकी व्याख्या वूसरे नय से भी की जा सकती है । भगवान् महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व चतुर्याम धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे । उसमें स्त्री-त्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रि भोजन- विरति- इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था । भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन किया। उसके साथ छठे रात्री भोजन-विरति व्रत को जोड़ा। ये दोनों भगवान् महावीर द्वारा दिए गए आचारशास्त्रीय विकास हैं । प्रस्तुत श्लोक में उसी की जानकारी दी गई है । ६७. साधारण और विशिष्ट ( अपरं परं ) २१२ चूर्णिकार ने दो प्रकार के लोक माने हैं-' १. अपरलोक - मनुष्यलोक । २. परलोक - नरकलोक, तिर्यञ्चलोक और देवलोक । वृत्तिकार ने इसके स्थान पर 'आरं परं' या 'आरं पारं ' शब्द मान कर 'आरं' का अर्थ इहलोक, मनुष्यलोक और परं या पारं का अर्थ परलोक, नारक आदि लोक किया है । अव्ययन ६ टिप्पण ७-८ वस्तुतः ये अर्थ केवल शाब्दिक हैं। पूरे प्रसंग के संदर्भ में अपर का अर्थ साधारण लोग और पर का अर्थ विशिष्ट लोग होना चाहिए । मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - अव्युत्पन्न और व्युत्पन्न अथवा अज्ञ और विज्ञ । अज्ञ मनुष्य संक्षेप को समझ नहीं पाते। उनके लिए विस्तार आवश्यक होता है। विज्ञ के लिए विस्तार अपेक्षित नहीं होता । चतुर्याम धर्म अल्प विभाग वाला प्रतिपादन था । अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य - दोनों एक हैं—यह बात विज्ञ के लिए सहजगम्य हो सकती है, किन्तु अज्ञ मनुष्य इसे नही समझ सकता । इस बुद्धि क्षमता को ध्यान में रखकर भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य महाव्रत को अपरिग्रह महाव्रत से पृथक् कर दिया। इसी प्रकार रात्रीभोजनविरति व्रत को अहिंसा महाव्रत से पृथक् कर दिया। अपर और पर के विभाग की पुष्टि केशी- गौतम संवाद से भी होती है। वहां इस विभाग के कारण ऋजु जड और वक्र जड तथा ऋजु-प्रज्ञ पुरुष बतलाए गए हैं।' ऋजु-जड और वक्र-जड अपर श्रेणी के लोग हैं और ऋजु-प्रज्ञ पर श्रेणी के लोग हैं । ८. सर्ववर्जी प्रभु ने वर्जन किया ( सव्वं प्रभु ने सव्ववारी) चूर्णिकार ने सर्व वारी का अर्थ - सब वर्जनीयों का वर्जन करने वाला किया है।" वृत्तिकार ने 'सव्ववारं ' पाठ मान कर उसका अर्थ - - बहुश: किया है।" मन्झिमनिकाय (उपालिमुत्त) में भगवान् महावीर को चातुसंत सर्ववारिवारित, सर्वचारित और सर्ववारिस्पृष्ट बतलाया है । मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में 'सव्ववारिवारितो' के दो अर्थ किए हैं १. वारितसब्बउदक - जिसने सभी प्रकार के पानी के विषय में संयम कर लिया है । २. सब्वेन पापवारणेन वारितपापो - सर्व पाप को वारित करने के कारण पापों का वारण करने वाला । आई. बी. हॉरनर ने मज्झिमनिकाय के अनुवाद में उपरोक्त चारों पदों का अर्थ इस प्रकार किया है- ' १. आचारांग पूर्ण ० २० अकासूर्य आहारं राभतं च बहारेंतो बंधवारी २. चूर्ण, पृ० १५० : अपरो लोको मनुष्यलोकः परस्तु नरक- तिर्यग्-देवलोकः । ३. वृत्ति, पत्र १५२: आरम् इहलोकाख्यं परं परलोकाख्यं यदि वा आरं— मनुष्यलोकं पारमिति - नारकाविकम् । ४. उत्तरायणाणि, २३।२६ : पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपन्ना य तेण धम्मे दुहा कए । ५. चूर्णि पृ० १५० : सर्वस्मादकृत्या दात्मानं शिष्यांश्व वारितवानिति सर्ववारी, सर्ववारणशील इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १५२: सर्ववारं बहुशः । ७. मज्झिमनिकाय, अट्ठकथा, III, ५८ । ८. Middle Length Saying II Pages ४१, ४२ । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ ३१४ अध्ययन ६ : टिप्पण 88-१०२ सव्ववारिवारितो-He is wholly restrained in regard to water. सव्ववारियुतो-He is bent on warding off all evil. सव्ववारिधुतो-He has shaken off all evil. सव्ववारिफुटो-He is permeated with the (warding off) all evil. मज्झिमनिकाय का यह प्रसंग भ्रान्तिपूर्ण है। भगवान् पार्श्व के शासन में चतुर्याम धर्म प्रचलित था। भगवान् महावीर ने पांच महाव्रत, संवर या शिक्षा का निरूपण किया था।' जो पांच संवरों से संवृत होता है वह 'सर्ववारी' कहलाता है। 'पंचसंवर-संवृत' का उल्लेख प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में मिलता है।' यहां 'वारी' शब्द का प्रयोग संवर के अर्थ में किया गया है। 'सर्ववारी' अर्थात् प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रीभोजन-इन सबका संवर करने वाला।' इलोक २९ ६६. समाधान देने वाले (समाहियं) - इसका अर्थ है-समाहित करने वाला, समाधान देने वाला । चूणिकार और दृत्तिकार ने इसका अर्थ-सम्यग् आख्यात, सम्यक् रूप से प्ररूपित किया है। १००. अर्थ और पद से विशुद्ध (अट्टपदोवसुद्ध) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-५ (१) जिसके पद अर्थवान होते हैं वह अर्थपद कहलाता है। उससे शुद्ध धर्म । (२) अर्थों और पदों से उपेत होने के कारण शुद्ध धर्म । वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ इस प्रकार हैं (१) सयुक्तिक या सहेतुक । (२) अभिधेय और वाचक के द्वारा उपशुद्ध । १०१. श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर (सद्दहंतााय) इसमें दो शब्द हैं-सद्दहंता और आदाय । प्राकृत व्याकरण के अनुसार इन दोनों पदों में संधि हुई है और वर्ण (दा) का लोप हुआ है। इसका अर्थ है-श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके ।' १ उत्तरायणाणि, २३।२३ : चाउपजामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी॥ २. सूयगडो, ११११८८। ३. चूणि, पृ० १५० : वारितवान् शिष्यान् हिंसा-ऽनृत-स्तेय-परिग्रहेभ्य इति, मैथुन-रात्रिभक्ते तु पूर्वोक्ते । ४. (क) चूणि, पृ० १५० : सम्यग् आहितः समाहितः, सम्यगाण्यात इत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र १५२ : सम्यगाख्यातम् । ५. चूणि, पृ० १५० : अत्यवंति पदानि, अथवाऽर्थश्च पदैश्च उपेत्य शुद्धम् । ६. वृत्ति, पत्र १५२ : अर्थपदानि-युक्तयो हेतवो वा तैरुपशुद्धम् अवदातं सद्यक्तिकं सद्धेतुकं वा यदि वा अर्थ:--अभिघेणैः पदैश्च ___ वाचकैः शब्दैः उप-समीप्येन शुद्ध-निर्दोषम् । ७. चूणि, पृ० १५० : सद्दहताऽऽय........... श्रद्धानपूर्वकमावाय । Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ १०२. मुक्त (अणायु अनायु अर्थात् आयुष्य से रहित, मुक्त, सिद्ध है, उसकी दो स्थितियां हो सकती हैं। वह या तो अनायु अथवा अगले जन्म में देवाधिपति इन्द्र होता है । ' देखें- ६०५ का टिप्पण | ३१५ अध्ययन ६ : टिप्पण १०२ इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अहंभाषित धर्म का सम्यक् अनुपालन करता हो जाता है, जन्म-मरण से छूट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है १. (क) चूर्णि पृ० १५० : जे तु ण सिज्भंति ते इंदा भवंति देवाधिपतयः आगमिष्यति आगमिस्सेण भवेण सुकुलुप्पत्तीए सिस्सिंति । (ख) वृत्ति, पत्र १५२ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयरणं कुसीलपरिभासितं सातवां अध्ययन कुशील-परिभाषित Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'कुशील - परिभाषित' है।' इसमें कुशील के स्वभाव, आचार-व्यवहार, अनुष्ठान और उसके परिणाम को समझाया गया है । चूर्णिकार के अनुसार इसमें कुशील और सुशील - दोनों परिभाषित हैं। जिनका शील- आचार या चारित्र धर्मानुकूल नहीं है, वे कुशील कहलाते हैं । मुख्यतः कुशील चार प्रकार के हैं १. परतीर्थिक कुशील - अन्य धर्म संप्रदायों के शिथिल साधु 1 २. पार्श्वपत्यिक कुशील पार्श्व की परंपरा के शिथिल साधु । ३. निथ कुशील महावीर की परंपरा के शिथिल साधु 1 ४. गृहस्थ कुशील - अशील गृहस्थ । इसमें कुशील का वर्णन ही नहीं, सुशील का वर्णन भी प्राप्त है। इसमें तीस श्लोक हैं। उनका वर्ण्य विषय इस प्रकार है श्लोक १ से ४ - सामान्यतः कुशील के कार्य और परिणाम । ५-६ १०-११ १२-१८ १६-२० २१ २२ २३-२६ २७-३० पाषण्ड कुशीलों का वर्णन । कुशील का फल -विपाक कुशील दर्शनों की मान्यताबों का निरूपण कुशील दर्शनावलंबियों का फल -विपाक निग्रन्थ धर्म में दीक्षित कुशील का लक्षण । सुशील का अनुष्ठान । पार्श्वस्थ कुशीलों का आचार-व्यवहार । सुशील के मूलगुण और उत्तरगुणों का प्रतिपादन । 'शील' शब्द के चार निक्षेप हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव द्रव्यशील - जो केवल आदतन क्रिया करता है, उसके फल के प्रति निरपेक्ष होता है, वह उसका शील है, जैसे- कपड़ा ओढने का प्रयोजन प्राप्त न होने पर भी जो सदा कपड़े ओढे रहता है, या जिसका ध्यान कपड़ो में केन्द्रित रहता है, वह प्रावरणशील कहलाता है । इसी प्रकार मण्डनशील स्त्री, भोजनशील, स्निग्ध भोजनशील, अर्जनशील आदि द्रव्यशील के उदाहरण हैं । द्रव्यशील का दूसरा अर्थ है - चेतन या अचेतन द्रव्य का स्वभाव । जैसे - मादकता मदिरा का स्वभाव है और मेधा - वर्धन और सुकुमारता घी का स्वभाव है । " भावशील के मुख्यतः दो प्रकार हैं १. घोषभावशील पाप कार्यों से संपूर्ण विरत अथवा विरत-अविरत २. अभीक्ष्ण्यसेवनाशील - निरंतर या बार-बार शील का आचरण करने वाला । भावशील के दो प्रकार और होते हैं १. प्रशस्त भावशील धर्मशील। अप्रशस्त ओघभावशील - पापशील । १. भूमि पृ० १५१ इदानीं कुशलपरिभासितं ति २. वही, पृष्ठ १५१ : जस्थ कुसीला सुसीला य परिभासिज्जति । ३. ४. निक्तिगाथा, ७१ सीते चक्क दबे पाउरणा-मरण-भोयगावी १५२शीला: परतीचिकाः पार्श्वस्यादयो वा स्वपूच्या अशीलाश्च गृहस्वाः । ५. चूर्ण, पृ० १५१ । ६. वही पृष्ठ १५१ यो वा यस्य द्रव्यस्य स्वभावः तद् द्रव्यं तच्छीलं भवति, यथा— मदनशीला मदिरा, मेध्यं घतं सुकुमारं चेत्यादि । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३२० २. प्रशस्त अभीक्ष्ण्य सेवनाशील - ज्ञानशील, तपः शील । अप्रशस्त अभीदण्य सेवनाशील कोमशील मानशील, मायाशील, लोमशील, चोरणशील, पानशील, पिशुनशील, परोपतापनशील, कलहशील आदि । नितिकार ने स्वयं सुशील और सुशील का म्युत्पत्तिभ्य अर्थ प्रस्तुत किया है। सुशील और कुशील में प्रयुक्त प्रथम वर्ग 'सु' और 'कु' निपाल शब्द है ''सार्थक शुद्धि-अर्थक निवास है और 'कु' जुगुप्सार्थक अशुद्धि-अर्थक निवास है। जैसे सौराज्य का अर्थ है—अच्छा राज्य और कुग्राम का अर्थ है— बुरा गांव। इसी प्रकार सुशील का अर्थ है--अच्छे आचरण वाला और कुशील का अर्थ है - बुरे आचरण वाला । " अप्राक आहार का उपभोग करने के आधार पर नियुक्तिकार ने नामोल्लेखपूर्वक पांच प्रकार के कुशीलों का प्रतिपादन किया है ।" महावीरकालीन इन धर्म-संप्रदायों के आचार का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनके आचार का कुछ विस्तार से वर्णन किया है१. गोतम - ये मशकजातीय धर्म-संप्रदाय के संन्यासी गोव्रतिक होते हैं। ये बैल को नाना प्रकार से प्रशिक्षित करते हैं और फिर उसके साथ घर-घर में जाकर बैल की तरह रंभाते हैं और अपने हाथ में रहे हुए छाज (सूर्प) में धान्य इक्कट्ठा करते हैं । ये ब्राह्मण-तुल्य जाति के होते हैं ।" २. चंडीदेवगा ये प्रायः अपने हाथ में चक्र रखते हैं। चूर्णिकार ने इसके स्थान पर 'रंडदेवगा' शब्द माना है ।" - ३. वारिभद्रक -ये पानी पर छा जाने वाली शैवाल-काई खाते हैं, हाथ पैर आदि बार-बार धोते हैं, बार-बार स्नान और आचमन करते हैं और तीनों संध्याओं में जल में डुबकियां लेते हैं ।" अध्ययन ७ : प्रामुख ४. अग्निहोमवादी - विभिन्न प्रकार के तापस और ब्राह्मण हवन के द्वारा मुक्ति बतलाते थे । वे मानते थे कि जो व्यक्ति स्वर्ग आदि फल की आकांक्षा न करता हुआ समिधा, घृत आदि हव्य-विशेष के द्वारा अग्नि का तृप्त करता है, हवन करता है वह मोक्ष के लिए वैसा करता है। जो किसी आशंसा से हवन करता है वह अपने अभ्युदय को सिद्ध करता है । जैसे अग्नि स्वर्ण मल को जलाने में समर्थ है, वैसे ही वह (अग्नि) मनुष्य के आन्तरिक पापों को जलाने में समर्थ है।' १. (क) निर्मुक्तिगाचा, परिभासिता कुसौला य एत्य जावंति अविरता केप सुति पसंसा सुद्धे दु ति दुर्मुखा अपरिसुद्धे ॥ वृति पत्र, १५३ । (ख) वृणि, पृ० १५१ २. निर्युक्तिगाथा, ८३ : जह : णाम गोतमा रंडदेवता वारिमया चेव । जे अग्गिहोमवादी जलसोयं केइ (जे इ ? ) इच्छति ॥ ३. कृषि, पृ० १५२ गोतमा नाम पाडियो मगजातीया, ते ही गोणं गाणाविधेहि उपाएहदमिक योगयोतयेण सह गिहे धनं ओहारेंता हिति । गोव्वतिगावि धोयारप्राया एव, ते च गोणा इव णत्थितेल्लूगा रंभायमाणा गिहे गिहे सुप्पेहि यहितेहि धणं ओहारेमाणा विहति। ४. वृत्ति, पत्र १५४ : चंडीदेवगा इति चक्रधरप्रायाः । ५. चूर्ण, पृ० १५२ : अवरे रंडदेवगावरप्रायाः । ६. (ख) चूर्णि, पृ० १५२ : वारिभद्रगा प्रायेण जलसक्का हत्थ पाद-पक्खालणरता व्हायंता य आयमंता य संझा तिसु तिसु य जलणि बुट्टा अपरिगाययादि । (ख) वृत्ति, पत्र १५४ : वारिभद्रका अन्मक्षा शेवालाशिनो नित्यं स्नानपादादिधावनाभिरताः । ७. (क) वृषि, १० १५२ अग्निवादी तास धीवारावारा अग्निहोत् स (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : तथैके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्षं प्रतिपादयन्ति ये किल स्वर्गादिफलमनाशस्य समिधाघृतादिभिर्हग्यतर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति शेवास्त्वम्युदयायेति युक्ति चात्र ते आपया हामि सुवर्णादीनां महत्व दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यन्तरं पापमिति । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३२१ श्रध्ययन ७ : प्रामुख ५. जलशौचवादी- भागवत, परिव्राजक आदि सजीव जल के उपयोग में मोक्ष की स्थापना करते थे । वे वार-बार हाथ-पैर धोने, स्नान करने में रत रहते थे वे मानते थे कि जैसे जल से बाह्य शुद्धि होती है, वैसे ही आन्तरिक शुद्धि भी होती है ।" छठे श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य अग्नि को जलाता है, वह भी प्राणियों का बध करता है और जो अग्नि को बुझाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है। दोनों प्रवृत्तियों में हिंसा है। इसका भगवती सूत्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। वहां अग्नि जलाने वाले को महाकर्म करने वाला और अग्नि को बुझाने वाले को अल्पकर्म करने वाला कहा है। दोनों हिंसा संवलित प्रवृत्तियां हैं । अग्नि के प्रज्वालन में पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और त्रस इन जीवों की अधिक हिंसा है और अग्नि जीवों की कम हिंसा है। अग्नि के विध्यापन में अग्नि-जीवों की प्रचुर हिंसा है और शेष जीवों की कम हिंसा है । विशेष विवरण के लिए देखें- टिप्पण नं २३ । पशु-पक्षियों के उदाहरण से जल- शौचवादियों का खंडन पनरहवें श्लोक में किया गया है। उसमें मत्स्य, कूर्म, सरीसृप, मद्गु, उद्द और उदकराक्षस- ये नाम आए हैं। ये सारे जलचर प्राणी हैं । सूत्रकार का कथन है कि यदि पानी के व्यवहरण से ही मोक्ष प्राप्त होता हो तो सबसे पहले ये जलचर पशु-पक्षी मोक्ष जाएंगे । इनमें तीन शब्द महत्वपूर्ण है- १. मंगु -- जलकाक । २. उद्द--- उदबिलाव । नेवले के आकार का उससे एक बड़ा जंतु जो जल और स्थल दोनों में रहता है ।" ३. उदकराक्षस-- मनुष्य की आकृतिवाले जलचर प्राणी । प्रस्तुत अध्ययन के चौथे श्लोक के प्रथम दो चरण कर्मवाद की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- 'अस्ति च लोए अदुवा परस्था, सयग्गसो वा तह अण्णहा वा।' इनमें कर्मवाद से संबंधित चार प्रश्न पूछे गए हैं १. क्या किए गए कर्मों का फल उसी जन्म में मिल जाता है ? २. क्या किए गए कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है ? ३. क्या उस कर्म का तीव्र विपाक एक ही जन्म में मिल जाता है ? ४. जिस अशुभ प्रवृत्ति के आचरण से वह कर्म बांधा गया है, क्या उसी प्रकार से वह उदीर्ण होकर फल देता है या दूसरे प्रकार से ? चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका विस्तार से समाधान प्रस्तुत किया है । प्रस्तुत आगम के दूसरे स्कंध (२०६९) में धर्म-प्रवचन करने के लिए कुछ निर्देश दिए हैं। मुनि मोक्षाभिमुख होता है। वह समस्त आसक्तियों को छोड़कर परिव्रजन करता है। संयम यात्रा के उचित संचालन के लिए वह शरीर का पोषण करता है । शरीर-पोषण का एकमात्र साधन है- भोजन । मुनि अपनी चर्या से ही भोजन प्राप्त करता है । वह न स्वयं भोजन पकाता है और न दूसरों से पकवाता है । 'दत्तेसणां चरे'-- वह गृहस्थों द्वारा प्रदत्त भिक्षा से अपना निर्वाह करता है । उसकी दिनचर्या का एक अंग है धर्म देशना । सूत्रकार ने धर्म-प्रवचन करने की कुछ सीमाएं निर्धारित की हैं १. मुनि अन्न के लिए धर्मदेशना न दे । २. मुनि पान के लिए धर्मदेशना न दे । ३. मुनि वस्त्र के लिए धर्मदेशना न दे । ४. मुनि स्थान के लिए धर्मदेशना न दे । ५. मुनि शयन (पाट बाजोट) के लिए धर्म देशना न दे । ६. मुनि अन्य किसी प्रकार की सुख-सुविधा की प्राप्ति के लिए धर्म देशना न दे । ७. मुनि केवल कर्म - निर्जरा के लिए, बंधनमुक्ति के लिए धर्म देशना दे । प्रस्तुत अध्ययन के पांच श्लोकों ( २३-२७) में इसी धर्म देशना के सीमा-सूत्र प्रतिपादित हैं। १. (क) चूर्णि, पृ० १५२, १५७ । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ | २ देखें-- टिप्पण संख्या ६२ । ३. देखें - टिप्पण संख्या १४ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तम अझयणं : सातवां अध्ययन कुसीलपरिभासितं : कुशीलपरिभाषित मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ पृथ्वी च आपः अग्निश्च वायुः, १. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, तृण, वृक्ष,' तण रुक्ख बीया य तसा य पाणा। तृणानि रूक्षाः बीजानि च त्रसाश्च प्राणाः। बीज तथा त्रस प्राणी-जो अंडज, जे अंडया जे य जराउ पाणा ये अंडजा ये च जरायुजाः प्राणाः, जरायुज, संस्वेदज' और रसज'-इस संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥ संस्वेदजा ये रसजाभिधानाः ॥ नाम वाले हैं। २. एताइं कायाइं पवेइयाई एते कायाः प्रवेदिताः, २. जीवों के ये निकाय कहे गए हैं। एतेसु जाणे पडिलेह सायं । एतेषु जानीयात् प्रतिलिख सातम् । पुरुष ! तू उनके विषय में जान और एतेहि काएहि य आयदंडे एतेषु कायेषु चात्मदण्डः, उनके सुब (दुःख) को देख । जो उन पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥ पुनः पुनः विपर्यासमुपैति ॥ जीव-निकायों की हिंसा करता है, वह बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है। ३. जाईपहं अणुपरियट्टमाणे जातिपथमनपरिवर्तमानः, ३. वह जातिपथ (जन्म-मरण) में बारतसथावरेहिं विणिघायमेति । त्रसस्थावरेष विनिघातमेति । बार पर्यटन करता हुआ अस और से जाति-जाति बहुकूरकम्मे स जाति-जाति बहुकूरकर्मा, स्थावर प्राणियों में विनिघात (शारीजं कुव्वती मिज्जति तेण बाले ॥ यत् कुरुते मीयते तेन बालः ॥ रिक-मानसिक दुःख) को" प्राप्त होता है। वह जन्म-जन्म में बहुत क्रूरकर्म करता है। वह अज्ञानी जो करता है, उससे भर जाता है।" ४. अस्सि च लोए अदुवा परत्था अस्मिश्च लोके अथवा परस्तात्, ४. (वह कर्म) इस लोक में अथवा पर सयग्गसो वा तह अण्णहा वा। शताग्रसो वा तथान्यथा वा ।। लोक में, सैंकड़ों बार या एक बार, संसारमावण्ण परं परं ते संसारमापन्नाः परं परं ते, उसी रूप में या दूसरे रूप में (भोगा बंधति वेयंतिय दुणियाणि ॥ बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि । जाता है)" संसार में पर्यटन करते हुए प्राणी आगे से आगे" दुष्कृत का" बंध और वेदन करते हैं। ५.जे मायरं च पियरं च हिच्चा यो मातरं च पितरं च हित्वा, ५. जो माता-पिता को छोड़," श्रमण का समणचए अगणि समारभिज्जा। श्रमणवतः अग्नि समारभेत । व्रत ले,“अग्नि का समारंभ और " अहाहु से लोए कुसीलधम्मे अथ आहुः स लोके कुशीलधर्मा, अपने सुख के लिए प्राणिों की हिंसा भूयाइ जे हिंसति आतसाते। भूतान् यो हिनस्ति आत्मसातः ॥ करता है, वह लोक में" कुशील धर्म वाला कहा गया है। ६. उज्जालओपाण ऽतिवातएज्जा उज्ज्वालकः प्राणान् अतिपातयेत्, ६. अग्नि को जलाने वाला प्राणियों का णिव्वावओ अगणि ऽतिवातएज्जा। निर्वापकोग्निं अतिपातयेत् । वध करता है और बुझाने वाला भी तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्म तस्मात् तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, उनका वध करता है। इसलिए ण पंडिते अगणि समारभिज्जा॥ न पंडितः अग्निं समारभेत ।। मेधावी" पंडित मुनि धर्म को समझ कर अग्नि का समारंभ न करे । Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ७. पुढवी विजीवा आऊ वि जीवा पाणा य संपातिम संपयंति । संसेदया कट्टसमस्सिता य एते दहे अगणि समारभंते ॥ ३२४ प्र०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक ७-१२ पृथिव्यपि जीवाः आपोऽपि जीवाः, ७. पृथ्वी भी जीव है। पानी भी जीव प्राणाश्च सम्पातिमाः संपतन्ति । है। उड़ने वाले जीव आकर गिरते संस्वेदजाः काष्ठसमाश्रिताश्च, हैं । संस्वेदज" भी जीव हैं । इंधन में एतान् दहेत् अग्निं समारभमाणः ।। भी जीव होते हैं ।“ अग्नि का समारंभ करने वाला इन सब जीवों को जलाता ८.हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि आहार-देहाइं पुढो सियाई। जे छिदई आतसुहं पडुच्च पागभि-पण्णो बहुणं तिवाती॥ हरितानि भूतानि विलम्बकानि, आहारदेहानि पृथक् श्रितानि । यश्च्छिनत्ति आत्मसुखं प्रतीत्य, प्रागल्भिप्रज्ञः बहुनामतिपाती। ६.जाइंच ड्ढि च विणासयंते बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोए अणज्जधम्मे बीयाइ जे हिसइ आयसाते ॥ जाति च वृद्धि च विनाशयन्, बीजानि असंयतः आत्मदण्डः । अथाहुः स लोके अनार्यधर्मा, बीजानि यो हिनस्ति आत्मसातः॥ १०. गब्भाइ मिज्जंति बुयाबुयाणा णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य चयंति ते आउखए पलीणा ॥ गर्भादौ म्रियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तः, नराः परे पञ्चशिखाः कुमाराः । युवानकाः मध्यमाः स्थविरकाश्च, च्यवन्ते ते आयुःक्षये प्रलीनाः ।। ८. वनस्पति जीव हैं। वे जन्म से मृत्यु पर्यन्त नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं। वे आहार से उपचित होते हैं। वे (वनस्पति-जीव) मूल, स्कंध आदि में पृथक्-पृथक् होते हैं ।" जो अपने सुख के लिए उनका छेदन करता है, वह ढीठ प्रज्ञावाला" बहुत जीवों का" वध करता है। ६. जो वनस्पति के जीवों की उत्पत्ति, वृद्धि और बीजों का विनाश करता है, वह असंयमी मनुष्य अपने आपको दंडित करता है। जो अपने सुख के लिए बीजों का विनाश करता है, उसे अनार्य-धर्मा" कहा गया है। १०. (वनस्पति की हिंसा करने वाले) कुछ गर्भ में" ही मर जाते हैं। कुछ बोलने और न बोलने की स्थिति में पंचशिख" कुमार होकर, कुछ युवा, अधेड' और बूढ़े होकर मर जाते हैं। वे आयु के क्षीण होने पर किसी भी अवस्था में जीवन से च्युत होकर प्रलीन हो जाते हैं । ११. हे प्राणी ! तू धर्म को समझ।" यहां मनुष्यों में नाना प्रकार के भयों को देखकर बचपन (अज्ञान) को छोड़ । यह जगत् एकान्त दुःखमय और (मूर्छा के) ज्वर से पीडित" है। वह अपने ही कर्मों से विपर्यास को प्राप्त होता है-सुख का अर्थी होते हुए भी दुःख पाता है। १२. इस जगत् में कुछ मूढ मनुष्य नमक" न खाने से मोक्ष बतलाते हैं, कुछ मनुष्य" सजीव जल से स्नान करने "और कुछ हवन से मोक्ष बतलाते ११.बुज्झाहि जंतू ! इह माणवेसु बटुं भयं बालिएणं अलं भे। एगंतदुक्खे जरिए हु लोए सकम्मुणा विपरियासुवेति ॥ बुध्यस्व जन्तो! इह मानवेषु, दृष्ट्वा भयं बाल्येन अलं भवतः । एकान्तदुःखे ज्वरिते खलु लोके, स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥ १२. इहेगे मूढा पववंति मोक्खं आहारसंपज्जणवज्जणेणं एगे य सीतोदगसेवणेणं हुतेण एगे पवदंति मोक्खं ॥ इहैके मूढाः प्रवदन्ति मोक्षं. आहारसंप्रज्वलनवर्जनेन एके च शीतोदकसेवनेन, हुतेन एके प्रवदन्ति मोक्षम् ।। Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १३. पाओसिणाणाइसु पत्थि मोक्खो खारस्स लोणस्स अणासणेणं । ते मज्जमंसं लसुणं चऽभोच्चा अण्णत्थ वासं परिकप्पयंति ॥ ३२५ ०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक १३-१८ प्रातः स्नानादिष नास्ति मोक्षः, १३. प्रात:कालीन स्नान आदि से मोक्ष क्षारस्य लवणस्य अनशनेन । नहीं होता। क्षार नमक के तथा ते मद्यमांसं लशुनं च अभुक्त्वा , मद्य, गो-मांस५५ और लसुन न खाने अन्यत्र वास परिकल्पयन्ति ।। मात्र से वे मोक्ष की परिकल्पना कैसे करते हैं ? १४. उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पातं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि ।। उदकेन ये सिद्धिमदाहरन्ति, सायं च प्रातः उदक स्पृशन्तः । उदकस्य स्पर्शन स्याच्च सिद्धिः, असैत्सुः प्राणा बहवो दके ।। १४. जो मनुष्य सांझ-सबेरे जल से नहाते हुए जल-स्नान से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे (इस सचाई को भूल जाते हैं कि) यदि जल-स्नान से मोक्ष होता तो जल में रहने वाले बहुत प्राणी मुक्त हो जाते, १५. मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवाय मंगू य उद्दा दगरक्खसा य। अट्ठाणमेयं कुसला वयंति उदगेण सिद्धि जमुदाहरंति ॥ मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च, मद्गवश्च उद्रा दकराक्षसाश्च । अस्थानमेतत् कुशला वदन्ति, उदकेन सिद्धि यदुदाहरन्ति ।। १५. जैसे-मछली, कछुए, जल-सर्प बतख", ऊबिलाव और जलराक्षस । जो जल से मोक्ष होना बतलाते है, उसे कुशल पुरुष अयुक्त कहते १६. उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंधं व यारमणुस्सरंता पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा॥ उदकं यदि कर्ममलं हरेत, १६. जल यदि" (अशुभ) कर्म-मल का हरण एवं शुभं इच्छामात्रमेव ।। करता है तो वह शुभ कर्म का भी हरण अन्धमिव नेतारमनुसरन्तः, करेगा । (जल से कर्म-मल का नाश प्राणान् चैवं विनिघ्नन्ति मन्दाः ।। होता है) यह इच्छा-कल्पित है। जैसे अंधे नेता के पीछे चलते हुए५ अंधे पथ से भटक जाते हैं वैसे ही ही मंदमति मनुष्य (शौचवाद का अनुसरण कर) प्राणियों का वध करते हैं (धर्म के पथ से भटक जाते हैं)। १७. पावाइं कम्माइं पकुव्वओ हि सीओदगं तू जइ तं हरेज्जा। सिज्झिसु एगे दगसत्तघाती मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु॥ पापानि कर्माणि प्रकुर्वतो हि, शीतोदकं तु यदि तद् हरेत् । असैत्सुः एके दकसत्वघातिनः, मषा वदन्ति जलसिद्धिमाहुः ॥ १७. यदि सजीव जल पाप-कर्म करने वाले के (पाप-कर्म का) हरण करता तो जल के जीवों का वध करने वाले (मछुए) मुक्त हो जाते । जो जल से मोक्ष होना बतलाते हैं वे असत्य बोलते हैं। १५. हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति सायं च पायं अणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसि अणि फुसंताण कुकम्मिणं पि ॥ हतेन ये सिद्धिमदाहरन्ति, सायं च प्रातः अग्नि स्पृशन्तः । एवं स्यात् सिद्धिर्भवेत्तेषां, अग्नि स्पृशतां कुर्मिणामपि । १८. सांझ और सबेरे अग्नि का स्पर्श करते हुए जो हवन से मोक्ष होना बतलाते हैं, वे (इस सचाई को भूल जाते हैं कि) यदि अग्नि के स्पर्श से मोक्ष होता तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुकर्मी (वन जलाने वाले आदि)" भी मुक्त हो जाते। Jain Education Intemational Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ १६. अपरिच्छ दिदि ण हु एव सिद्धी एहिति ते घातमबुज्झमाणा। भूतेहिं जाण पडिलेह सातं विज्ज गहाय तसथावरेहि ॥ ३२६ ०७ : कुशोलपरिभाषित : श्लोक १६-२४ अपरीक्ष्य दृष्टिं न खलु एव सिद्धिः, १६. दृष्टि की परीक्षा किए बिना मोक्ष एष्यन्ति ते घातमबुध्यमानाः । नहीं होता । बोधि को प्राप्त नहीं होने भूतेष जानीहि प्रतिलिख्य सातं, वाले (मिथ्यादृष्टि) विनाश को प्राप्त विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरेषु ॥ होंगे। (इसलिए दृष्टि की परीक्षा करने वाला) विद्या को ग्रहण कर त्रस और स्थावर प्राणियों में सुख की अभिन्नाषा होती है, इसे जाने।" स्तनन्ति लप्यन्ति त्रस्यन्ति कर्मिणः, २०. अपने कर्मों से बंधे हुए७२ नाना प्रकार पृथक् जीवाः परिसंख्याय भिक्षः । के त्रस प्राणी (मनुष्य के पैर का स्पर्श तस्माद् विद्वान् विरतः आत्मगुप्तः, होने पर) आवाज करते हैं, भयभीत दृष्ट्वा सांश्च प्रतिसंहरेत् ॥ और त्रस्त हो जाते हैं, सिकुड़ और फैल जाते हैं-यह जानकर विद्वान्, विरत और आत्मगुप्त भिक्षु त्रस जीवों को (सामने आते हुए) देखकर (अपने पैरो का) संयम करे। २०. थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । तम्हा विऊ विरए आयगुत्ते दर्छ तसे य प्पडिसाहरेज्जा॥ २१. जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे वियडेण साहटु य जे सिणाइ । जे धावती लसयई व वत्थं अहाहु से णागणियस्स दूरे ॥ यो धर्मलब्धं विनिधाय भक्ते, विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति लशयति वा वस्त्रं, अथाहुः सः नान्यस्य दूरे ।। २१. जो भिक्षा से प्राप्त अन्न का संचय कर भोजन करता है, जो शरीर को संकुचित कर निर्जीव जल से स्नान करता है, जो कपड़ों को धोता है उन्हें फाड़ कर छोटे और सांध कर बड़े करता है वह नाग्न्य (श्रामण्य) से" दूर है, ऐसा कहा है। २२.कम्मं परिणाय दगंसि धीरे वियडेण जीवेज्ज य आदिमोक्खं से बीयकंदाइ अभुंजमाणे विरए सिणाणाइसु इत्थियासु॥ कर्म परिज्ञाय दके धीरः, विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । स बोजकन्दादोन् अभुजानः, विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ।। २२. 'जल के समारंभ से कर्म-बंध होता है'- ऐसा जानकर धीर मुनि मृत्यु पर्यन्त निर्जीव जल से जीवन बिताए । वह बीज, कंद आदि न खाए, स्नान आदि तथा स्त्रियों से विरत रहे। २३, जे मायरं च पियरं च हिच्चा गारं तहा पुत्तपसुं धणं च । कुलाई जे धावति साउगाई अहाहु से सामणियस्स दूरे॥ यो मातरं च पितरं च हित्वा, अगारं तथा पुत्रपशुं धनं च । कुलानि यो धावति स्वादुकानि, अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥ २३. जो माता, पिता घर, पुत्र, पशु और धन को छोड़कर स्वादु भोजन वाले कुलों की ओर दौड़ता है, वह श्रामण्य से दूर है, ऐसा कहा है। २४. कुलाई जे धावति साउगाई आघाइ धम्म उदराणुगिद्धे । से आरियाणं गुणाणं सतंसे जे लावएज्जा असणस्स हेउं॥ कुलानि यो धावति स्वादुकानि, आख्याति धर्म उदरानुगृद्धः । स आर्याणां गुणानां शतांशे, यः लापयेत् अशनस्य हेतुम् ।। २४. जो स्वादु भोजन वाले कुलों की ओर दोड़ता है, पेट भरने के लिए धर्म का आख्यान करता है और जो भोजन के लिए अपनी प्रशंसा करवाता है, वह आर्य-श्रमणों की गुण-संपदा के सौवें भाग से भी हीन होता है। Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपको १ २५. विखम्म दीणे परभीषणम्मि मुहमंगलिओदरियं पगिद्धे । णीवार गिद्धे व महावराहे अदूर एवेडि घातमेव ॥ २६. अण्णस्स पाणसिहलोइयस्स अणुष्पियं भासति सेवमाणे । पासत्ययं चैव कुसील च णिरसारए होइ जहा पुलाए । २७. अण्णायपिटेऽहिपासएज्जा णो पूर्ण तसा आवहेन्जा | सद्देहि रुवेहि असजमाणे सव्वेहि कामेहि विणीय गेहि ॥ २८. सवाई गाई अव धीरे सच्चाई दुखाई तितिखमाणे । अखिले अनि अणिएवचारी अभयंकरे भिक्खु अणाविलप्पा. २६. भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा कंबेज्ज पावस्स विवेग भ दुक्खेण पुट्ठे घुमाइएज्जा संगामसोसे व परं दमेजा ॥ ३०. अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी समागमं कखइ अंतगस्स । विजय कम्मं ण पर्वच वेड अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥ - ति बेमि ॥ प्र० ७ कुशीलपरिभाषित श्लोक २५-३० २५. जो अभिनिष्क्रमण कर गृहस्थ से भोजन पाने के लिए दीन होता है, भोजन में आसक्त होकर दाता की प्रशंसा करता है, वह चारे के लोभी " विशालकाय सूअर की भांति शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है । ૪ ३२७ निष्क्रम्य दीन: परभोजने, मखमांगलिक औदर्य प्रगृद्धः । नौवारya इव महावराहः, अदूरे एव एष्यति घातमेव ॥ अन्नस्य पानस्य इहलौकिकस्य, अनुप्रिय भाषते सेवमानः । पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च, निःसारको भवति यथा पुलाकः ॥ अशात पिण्डेन अध्यासीत, जो पूजन तपसा आवहेत् । शब्देषु रूपेष असजन्, सर्वेषु कामेषु विनीय गृद्धिम् ॥ सर्वान् संगान् अतीत्य घोरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः । अखिल जगृद्धः अनिकेतचारी, अभयंकरो भिक्षु अनाविलात्मा । भारस्य यात्रायं मुनिर्भुजीत कांक्षे पापस्य विवेक भिक्षुः । दुःखेन pje: धुतमाददीत, संग्रामशीर्ष इव परं दाम्येत् ॥ अपि हन्यमानः हन्यमानः फलकावतष्टो समागमं कांक्षति अन्तकस्य । निर्धूय कर्म न प्रपञ्चं उपैति अक्षक्षये इव शकटं इति ब्रवीमि ॥ - इति ब्रवीमि । २६. जो इहलौकिक अन्न-पान के लिए प्रिय वचन बोलता है, पार्श्वस्था" और कुलीनता का सेवन करता हैवह पुआल " की भांति निस्सार हो जाता है। २७. मुनि अज्ञातपिण्ड की एपमा करे।" (आहार न मिलने पर भूख को ) सहन करे ।" तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । शब्दों और रूपों में आसक्त न हो और सभी कामोंइन्द्रिय-विषयों की लालसा को त्यागे । " २५. धीर मुनि सभी संतों को छोड़कर सभी दुःखों को सहन करे । वह ( गुणों की उत्पत्ति के लिए) उर्वर, अनासक्त, अनिकेतचारी, अभयंकर और निर्मल चित्त वाला हो । २६. मुनि संयमभार को वहन करने के लिए" भोजन करे । पाप का विवेक" ( पृथक्करण) करने की इच्छा करे । दुःख से स्पृष्ट होने पर शांत ... रहे । " संग्राम के अग्रिम पंक्ति के योद्धा की भांति कामनाओं का ०२ दमन करे । ३०. परीषहों से आहत होने पर दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति १०३ (शरीर और कायदोनों को ज करने वाला मुनि काल के आने की आकांक्षा करता है । वह कर्म को क्षीण कर प्रपंच (जन्म-मरण) में नहीं जाता, जैसे १०५ धुरा के टूट जाने पर गाड़ी ऐसा मैं कहता हूं। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ७ श्लोक १: १. तृण, वृक्ष (तण रुक्ख) ये प्रथमा विभक्ति के बहुवचनान्त पद-तणा रुक्खा' के स्थान पर विभक्तिरहित प्रयोग हैं। २. जरायुज (जराउ) मूल शब्द है-जराउया। यहां 'या' का लोप हुआ है। ३. संस्वेदज (संसेयया) संस्वेदज-वाष्प या द्रवता से उत्पन्न होने वाले जीव । चूणिकार के अनुसार गाय के गोबर आदि में कृमि, मक्षिका आदि उत्पन्न होते हैं। वे संस्त्रेदज कहलाते हैं । तथा जूं, खटमल, लीख आदि भी संस्वेदज प्राणी हैं। वृत्तिकार ने जूं, खटमल, कृमि आदि को संस्वेदज माना है।' बौद्ध साहित्य में संस्वेदज की व्याख्या इस प्रकार है-पृथिवी आदि भूतों की द्रवता से उत्पन्न प्राणी। ४. रसज (रसया) दही, सौवीरक (कांजी), मद्य आदि में उत्पन्न सूक्ष्म-पक्ष्म वाले जीव रसज कहलाते हैं । ये बहुत सूक्ष्म होते हैं । देखें - दसवेआलियं ४। सूत्र ६ का टिप्पण । श्लोक २ : ५. (एताई कायाइं पवेइयाइं) ___ काय शब्द पुल्लिग है किन्तु प्राकृत में लिंग नियन्त्रित नहीं होता, इसलिए ये नपुंसक लिंग में प्रयुक्त हैं। ६. सुख (दुःख) को देख (पडिलेह सायं) सुख-प्रतिलेखना का अर्थ है--सुख को देखना, उसकी समीक्षा करना-जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सब जीवों को सुख प्रिय है। इस प्रकार सुख की प्रतिलेखना करने वाला किसी प्राणी के सुख में बाधा उत्पन्न नहीं करता। चूर्णिकार आ अभिप्राय यह है-जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, सुख प्रिय है, वैसे ही सभी जीवों को दुःख अप्रिय है और सुख प्रिय है-ऐसा सोचकर किसी भी प्राणी को दुःख न दे।' १. चणि, पृ० १५२ : संस्वेदजाः गोकरीषादिषु कृमि-मक्षिकादयो जायन्ते जूगा-मंकुण-लिक्खादयो य । २. वृत्ति, पत्र १५४ : संस्वेदाज्जाताः संस्वेदजा यूकामत्कुणकृम्यादयः । ३ अभिधर्मकोश ३/८ : संस्वेद ज-भूतानां पृथिव्यादीनां संस्वेदाद् द्रवत्वलक्षणाज्जाता। ४. (क) चूणि, पृ० १५२ : रसजा दधिसोवीरक-मद्यादिषु। (ख) बत्ति, पत्र १५४ : ये च रसजाभिधाना दधिसौवीरकादिषु रूतपक्षमसन्निभा इति । ५. चणि, पृ० १५२,१५३ : प्रत्युपेक्ष्य सातं सुखमित्यर्थः। कधं पडिलेहेति ?--जध मम न पियं दुक्खं सुहं चेह्र एवमेषां पडिले हित्ता दुःखमेषां न कार्य णवएण भेदेण । Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ७ : टिप्पण ७-६ ७. हिंसा करता है (आयदंडे) चूर्णिकार ने आत्मदंड के दो अर्थ किए हैं - १. जीव-निकायों को अपनी आत्मा से दंडित करने वाला। २. जीव-निकायों की हिंसा से अपने आपको दंडित करने वाला। वृत्तिकार ने जीव-निकायों के समारंभ को आत्मदंड माना है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने 'आयतदंड' मानकर इसका अर्थदीर्घ दंड अर्थात् दीर्घकाल तक जीवों को पीड़ित करने वाला, किया है।' ८. विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है (विप्परियासुवेति) यहां दो पद हैं 'विप्परियासं' और 'उवेति' । इन दो पदों में संधि कर अनुस्वार को अलाक्षणिक माना है। विपर्यास का अर्थ है--जन्म-मरण या संसार ।" जो व्यक्ति जीव-निकायों की हिंसा करता है वह विपर्यास को प्राप्त होता है-जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-वह सुखार्थी प्राणी उन जीव-निकायों की हिंसा करता है और उन्हीं जीव-निकायों में जन्म लेकर उन-उन दुःखों को पाता है, सुख के विपरीत दुःख को प्राप्त होता है। धर्मार्थी होकर हिंसा करने वाला अधर्म को प्राप्त होता है । मोक्षार्थी होकर हिंसा करने वाला संसार को प्राप्त होता है।' वृत्तिकार ने भी इसी आशय से विपर्यास के तीन अर्थ किए हैं -- १. जन्म-मरण करना। २. व्यत्यय-सुख के लिए क्रिया करना और दुःख पाना । मोक्ष के लिए क्रिया करना और संसार पाना । ३. संसार। ६. श्लोक १,२: इन दो श्लोकों में कायों का प्रवेदन किया गया है। 'काय' का अर्थ है उपचय । जीवों के छह काय या निकाय होते हैं । षड़जीवनिकाय जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है-प्रभो ! आपकी सर्वज्ञता को प्रमाणित करने के लिए केवल षड्जीवनिकाय का सिद्धान्त ही पर्याप्त है। छह जीव कायों का वर्गीकरण कई प्रकार से मिलता है । आचारांग में पृथ्वी पानी, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु---छह कायों का इस प्रकार वर्गीकरण मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, तृणरुक्षबीज और त्रस-यह वर्गीकरण उपलब्ध है । दशवकालिक ८।२ में भी यही वर्गीकरण मिलता है। उसके चौथे अध्ययन में क्रम यही है, किन्तु तृणरुक्षबीज के स्थान पर वनस्पति का प्रयोग मिलता है। १ चणि, पृ०१५३ : एषां कायानां आताओ दंडेत्ति, अथवा स एवाऽऽत्मानं दण्डयति य एषां दंडे णिसिरति स आत्मदण्डः । २. वत्ति, पत्र १५४ : यर्थभिः कार्यः समारभ्यमाणैः पीड़यमानेरात्मा दण्ड्यते, एतत्समारम्भादात्मदंडो भवतीत्यर्थः, अथवैभिरेव कायर्ये आयतदंडा दीर्घदंडाः, एतदुक्तं भवति–एतान कायान ये दीर्घकालं दण्डयन्ति-पोडयन्तीति । ३. चणि, पत्र १५३ : विपर्यासो नाम जन्म-परणे, संहारो वा विपर्यास भवति । ४. चूणि, पृ० १५३ : अथवा सुखार्थी तानाश्य तानेदानुप्रविश्या तानि तानि दुःखान्यवाप्नुते, सुखविपर्यासभतं दुःखमवाप्नोति । विपरीतो भावो विपर्यासः, धर्मार्थो तानारभ्याधर्ममाप्नोति, मोक्षार्थी तानारभमाण: संसारमाप्नोति । ५. वृत्ति, पत्र १५४ : ते एतेष्वेव-पृथिव्यादिकायेषु विविधिम् ---अनेकप्रकारं परि--समन्ताद् आशु-क्षिप्रमुपसामीप्येन यान्ति व्रजन्ति, तेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधभनेकप्रकारं भूयो भूयः समुत्पद्यन्त इत्यर्थः यदि वा--विपर्यासोव्यत्ययः सुखाथिभिः कायसमारम्भः क्रियते तत्समारम्भेण च दुःखमेवावाप्यते न सुखमिति, यदि वा कुतीथिका मोक्षार्थमेत: कार्ययाँ क्रियां कुर्वन्ति तया संसार एव भवतीति । ६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका १/१३ : य एव षड्जीवनिकायविस्तरः, परैरनालोढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञपरोक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ।। ७. आयारो, प्रथम अध्ययन । Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ३३० अध्ययन ७ : टिप्पण १०-१३ अंडज, जरायुज, संस्वेदज और रसज- ये सब त्रस प्राणियों के प्रकार हैं । आचारांग में इनके अतिरिक्त तीन प्रकार और मिलते हैं—ो उभिन और औपपातिक १०. जाति पथ (जन्म-मरण) में ( जाईपहं) 'जाति' का अर्थ है जन्म, और 'पह' का अर्थ है- पथ, मार्ग । जाईपहं अर्थात् उत्पत्ति का मार्ग । तात्पर्य में इसका अर्थ है – संसार, जन्म-मरण की परंपरा । चूर्णिकार ने 'जाई वह' पाठ मानकर 'जाई' का अर्थ जन्म और 'वह' का अर्थ मरण किया है। ११. विनिघात (शारीरिक मानसिक दुःख) को (विविधा) श्लोक ४८ : विनिघात का अर्थ है - शारीरिक और मानसिक दुःख का उदय अथवा कर्मों का फल -बिपाक । वृत्तिकार ने इसका अर्थ विनाश किया है। " १२. जन्म-जन्म में (जाति जाति) चूर्णिकार ने इस दोहरे प्रयोग को 'बीप्सा' के अर्थ में माना है । अर्थात् उन उन जातियों में, त्रस स्थावर जातियों में । " १३. भर जाता है (मिज्जति) इसका संस्कृत रूप है --मीयते। यह रूप दो धातुओं से बनता है १. माङ्क माने मीयते । २. मी हिंसायां - मीयते । एक का अर्थ है---भरना और दूसरे का अर्थ है - हिंसा करना । इन दोनों के आधार पर इस चरण का अर्थ होगा १. वह अज्ञानी प्राणियों को पीड़ित करने वाला जो कर्म करता है, उससे वह भर जाता है । २. वह अज्ञानी उसी कर्म के द्वारा मारा जाता है अथवा 'यह चोर है' 'यह पारदारिक है'- इस प्रकार लोक में वह बताया जाता है। " - चूर्णिकार ने 'मज्जते' पाठ की भी सूचना दी है। उसका अर्थ है-निमग्न होना, डूबना プ १. आयारो, १११८ से बेमि-संतिमे तसा पाणा, तं जहा अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया समुच्छिमा उन्मिया ओववाइया । २. वृत्ति, पत्र १५५ । ३. चूर्ण, पृ० १५३ : जातिश्च बधश्च जाति-वधौ, जन्म-मरण इत्युक्तं भवति । ४. चूर्ण, पृ० १५३ : अधिको णियतो वा घातः निघातः, विविधो वा घातः शरीरमानसा दुःखोदया अट्ठपगार कम्मफलवित्रागो वा । ५. वृत्ति, पत्र १५५ ६. णि, पृ० १५३ ७. वृत्ति पत्र १५५ विनिघातं विनाशम् । जातिजानीति बीसार्थ तेनेच कर्मणामीयते : ८. वृत्ति, पत्र १५५ । ६. चूर्ण, पृ० १५३ : मज्जते वा निमज्जइ इत्यर्थः । तासु तासु जाति त्ति तस-यावरजातिसु । यते पूर्वते यदि वा 'मी हिंसायां नीयते हिते। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३३१ श्लोक ४ : १४. (अस्स च लोए "तह अण्णा वा ) चूर्णिकार ने इन दो चरणों को बहुत विस्तार से समझाया है। उनके अनुसार इनकी व्याख्या इस प्रकार है-कर्म चार प्रकार के होते हैं' १. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म इहलोक में अशुभफलविपाक वाले होते है २. इहलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में अशुभफलविपाक वाले होते हैं ३. परलोक में दुश्चीर्ण कर्म इहलोक में अशुभफलविपाक वाले होते हैं ४. परलोक में दुश्चीर्ण कर्म परलोक में अनुभव वाले होते हैं अध्ययन ७ : टिप्पण १४ जैसे किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति का इहलोक (वर्तमान) में शिरच्छेद किया तो उसके पुत्र ने उसका पुनः शिरच्छेद कर डाला - यह प्रथम विकल्प है। किसी व्यक्ति के अशुभ का उदय वर्तमान भव में नहीं हो सका तो उसके नरक आदि में उत्पन्न होने पर वहां उसका विपाक उसे भोगना पड़ा -यह दूसरा विकल्प है । परलोक में किया हुआ कर्म इहलोक में फलता है, जैसे मृगापुत्र ने इस भव में अशुभविपाक भोगना पड़ा। (देखें - विपाक सूत्र ) यह तीसरा विकल्प है । एक जन्म में किया हुआ कर्म तीसरे या चौथे आदि जन्मों में भोगा जाता है- यह चौथा विकल्प है । जैसा कर्म किया जाता है उसका विपाक उसी रूप में या भिन्न प्रकार से भी होता है । जैसे किसी ने दूसरे का सिर काटा है। तो कर्म विपाक में उसका भी सिर कट सकता है। वह अनन्तवार या हजारों वार ऐसा हो सकता है । दूसरे चरण में 'तथा' और 'अन्यथा' - ये दो शब्द हैं। चूर्णिकार ने 'तथा' का अर्थ जिस रूप में कर्म किया उसी रूप में उसका विपाक भोगना और 'अन्यथा' का अर्थ जिस रूप में कर्म किया उससे अन्यथा रूप में विपाक भोगना किया है। सिरच्छेद करने वाले का सिरच्छेद होता है - यह तथाविपाक है। सिरच्छेद करने वाले का हाथ या अन्य अंग काटा जाता है अथवा कोई शारीरिक या मानसिक वेदन होता है- यह अन्यथा विपाक है। इस प्रकार जो मनुष्य जितनी मात्रा में दूसरे को पीड़ा पहुंचाता है, उसी मात्रा में अथवा हजारगुना अधिक मात्रा में वह दुःख पाता है । वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है--१ १. पृ० १५३लोकम्मा लोगे अफवा १ होए कम्मा परलोए अनुभफल दिवा २ पर लोके दुब्बा काइलोगे अनुमफलविभागा परलोकम्मा परलए अनुमफलखागा ४ रूपम् ? उच्यते केन चित् कस्यचि लोके शिर तस्याप्यन्येन हि एवं इलोगे तं लगेच फल, परगाद उवयस्यस्स (इहलोकतं परलोगे फलति ) २, परलोए कतं इहलोए फलति, जधा दुहविवागेसु मियापुत्तस्स ३ परलोए कतं परलोए फलति, दीहालद्वितीयं कम्मं अण्णम्मि भवे उदिज्जति । अथवा इहलोक इह चारकबन्धः अनेकर्यातनाविशेषः तद् वेदपति, तदन्यथावेदितं कस्यचित् परलोके तेन वा प्रकारेण अन्येन वा प्रकारेण विपाको भवति । तथाविपाकस्तथैवास्य शिरश्छिद्यते, तत् पुनरनन्तशः सहस्रशो वा, अथवा असकृत्तथा सकृदन्यथा अथवा शतशाशियद्यते अन्यथेति सहस्से वा अथवा शिरश्छित्वा न शिरश्छेदमवाप्नोति हस्तच्छेदं पादयेवं वा अन्यतराङ्गवेद वा प्राप्नोति सारी माणसेग वा क्वेग बेचते एवं दुःखमा परस्योत्पादयति जतो मात्रा शतशोमात्राधिकत्वं प्राप्नोति अन्यथा वा । २. वृत्ति, पत्र १५५ : यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं ददति, अथया परस्मिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्म विपाकं ददति 'शताप्रशो वे' ति बहुषु जन्मसु येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथैवोदीयते तथा--- अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवति -- किञ्चिकर्म सम्भव एवं विपाकं ददाति जिम्यान्तरे या मृगात्रस्य दुःखविपाका विपातस्कन्धे कथितमिति दीर्घकाल स्पिति त्वपरजन्मान्तरितं वेद्यते येन प्रकारेण सहसवानेकशो वा यदि वाऽन्येन प्रकारेण सकृत्सहो या शिरश्वा दिकं हस्तपादादिकं चानुभूयत इति । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३३२ अध्ययन ७: टिप्पण १५-१७ शीघ्र फल देने वाले कर्म उसी जन्म में फल देते हैं अथवा पर-जन्म नरक आदि में फल देते हैं । वे कर्म एक ही भव में तीव्र फल देते है अथवा अनेक भवों में तीन फल देते हैं। जिस प्रकार से अशुभ कर्म का आचरण किया है, उसी प्रकार से उसकी उदीरणा होती है अथवा दूसरे प्रकार से भी उसकी उदीरणा हो सकती है। इसका आशय यह है कि कोई कर्म उसी भव में अपना विपाक देता है और कोई दूसरे भव में । जिस कर्म की स्थिति दीर्घकालिक होती है, उसका विपाक दूसरे भव में प्राप्त होता है। जिस प्रकार कर्म किया गया है, उसी प्रकार वह एक बार या अनेक वार फलित होता है। अथवा एक बार शिरच्छेद करने वाला एक बार या हजारों वार सिरच्छेद अथवा हाथ, पैर आदि के छेदन रूप फल पाता है। १५. आगे से आगे (परं परं) चूर्णिकार ने 'परं परेण' शब्द मानकर उसका अर्थ-अनन्त भवों में किया है।' वृत्तिकार ने 'पर-परं' का अर्थ-प्रकृष्ट प्रकृष्ट किया है। १६. दुष्कृत का (दुण्णियाणि) यह 'दुण्णीयाणि' शब्द है। किन्तु छन्द की अनुकूलता की दृष्टि से यहां 'ईकार' को ह्रस्व किया गया है। इस श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि किए हुए कर्मों का भोग किए बिना उनका विनाश नहीं होता। जो मनुष्य जिस रूप में जिस प्रकार का कर्म करता है, उसका विपाक भी उसे उसी रूप में या दूसरे रूप में भोगना ही पड़ता है। कर्मों को भोगे बिना उनका विनाश नहीं होता । कहा है मा होहि रे विसन्नो जीव तुमं विमणदुम्मणो दीवो। णहु चितिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइगं ॥१॥ जइ पविससि पायालं अडवि व दरि गुहं समुई वा । पुवकयाउ न चुक्कसि अप्पाणं घायसे जइवि ॥२॥ 'रे जीव ! तू विषण्ण मत हो । तू दीन और दुर्मना मत हो। जो दुःख (कर्म) तूने पहले उत्पन्न किया है, वह चिन्ता करने मात्र से नहीं मिट सकेगा।' 'रे जीव ! तू चाहे पातल, जंगल, कन्दरा, गुफा या समुद्र में भी चला जा, अथवा तू अपने आपकी घात भी कर ले, किंतु पूर्वाजित कर्मों से तू बच नहीं पायेगा। श्लोक ५: १७. जो माता पिता को छोड़ (जे मायरं च पियरं च हिच्चा) प्रश्न होता है कि यहां केवल माता-पिता का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? चूर्णिकार का कथन है कि संतान के प्रति इनकी ममता अपूर्व होती है । ये करुणापर होते हैं । इनको छोड़ना कठिन होता है, अतः इनका यहां ग्रहण किया गया है। दूसरी बात है कि माता-पिता का संबंध सबसे पहला है, भाई, स्त्री, पुत्र आदि का संबंध बाद में होता है। किसी के भाई, स्त्री, पुत्र आदि नहीं भी होते, अतः प्रधानता केवल माता-पिता की ही है। माता-पिता आदि को छोड़ने का अर्थ है-उनके प्रति रहे हए ममत्व को छोड़ना। १.णि, पृ० १५३ : परंपरेणेति परभवे, ततश्च परतरमवे, एवं जाव अर्णतेसु भवेसु । २. वृत्ति, पत्र १५५ : परं परं प्रकृष्टं प्रकृष्टम् । ३. वृत्ति, पत्र १५५ । ४. चूणि, पृ० १५४ : एते हि करुणानि कुर्वाणा दुस्त्यजा इत्येतद्ग्रहणम्, शेषा हि म्रातृ-भार्या-पुत्रादयः सम्बन्धात् पश्चात् भवन्ति न भवन्ति वा इत्यतो माता-पितृग्रहणम् । Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३३३ अध्ययन ७: टिप्पण १८-२३ १५. श्रमण का व्रत ले (समणव्वए) श्रमण का व्रत स्वीकार कर अर्थात् संन्यास धारण कर, अथवा 'हम श्रमण हैं'-ऐसा कहते हुए। १९. अह अथ शब्द का प्रयोग प्रश्न करने, आनन्तर्य दिखाने और वाक्योपन्यास में होता है। वृत्तिकार ने इसे वाक्योपन्यास के अर्थ में माना है। २०. अपने सुख के लिए (आतसाते) इसका अर्थ है- अपने सुख के लिए । जैसे गृहस्थ अपने सुख के लिए पचन-पाचन आदि क्रिया करते हैं, वैसे ही कुछ संन्यासी भी अपने सुख के लिए- स्वर्ग सुख पाने के लिए पंचाग्नि तप करते हैं, अग्निहोत्र आदि क्रियाएं करते हैं।' २१. लोक में (लोए) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने लोक का अर्थ- पाषण्डिलोक अथवा सर्वलोक या गृहस्थलोक किया है।' २२. कुशीलधर्म वाला (कुसीलधम्मे) चर्णिकार ने इस पाठ के स्थान पर 'अणज्जधम्मे' पाठ की व्याख्या की है । इसका अर्थ है-अनुजुधर्मवाला। पाषंडी का धर्म आर्जव रहित कैसे? यह प्रश्न उपस्थित कर चूर्णिकार ने इसका उत्तर दिया है-- वह अपने आपको अहिंसक कहता है और वास्तव में अहिंसक नहीं होता। श्लोक ६: २३. (उज्जालओ पाण .. ........ अगणिऽतिवातएज्जा) ___ प्रस्तुत दो चरणों का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य अग्नि को जलाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है और जो मनुष्य अग्नि को बुझाता है, वह भी प्राणियों का वध करता है । भगवती सूत्र में इस आशय को स्पष्ट करने वाला एक सुन्दर संवाद है। कालोदायी ने भगवान् से पूछा--भंते ! दो व्यक्ति अग्निकाय का समारंभ करते हैं। एक मनुष्य अग्नि को जलाता है और एक मनुष्य अग्नि को बुझाता है । भंते ! इन दोनों मनुष्यों में महाकर्म करने वाला कौन है ? और अल्प कर्म करने वाला कौन है ? भगवान् ने कहा-कालोदायी ! जो अग्निकाय को जलाता है वह महाकर्म करता है और जो अग्निकाय को बुझाता है वह अल्पकर्म करता है।' भंते ! यह कैसे ? १. (क) चूणि, पृष्ठ १५४ : श्रमणवतिनः श्रमण इति वा वदन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : श्रमणवते किल वयं समुपस्थिता इत्येवभ्युपगम्य । २. चूणि, पृ० १५४ : अथ प्रश्ना-ऽऽनन्तर्यादिषु । ३. वृत्ति, पत्र १५६ : अथेति वाक्योपन्यासार्थः। ४. (क) चूणि, पृ० १५४ : पञ्चाग्नितापादिभिः प्रकारः पाकनिमित्तं च भूताई जे हिंसति आतसाते, भूतानीति अग्निभूतानि यानि चान्यानि अग्निना यध्यन्ते आत्मसातनिमित्तं आत्मसातम् । तद्यथा- तपन-वितापन-प्रकाशहेतुम् । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : आतसते-आत्मसुखार्थ । तथाहि-पञ्चाग्नितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पाषण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लौकिका: पचनपाचनादिप्रकारेणाग्निकार्य समारभमाणाः सुखमभिलषन्तीति। ५. (क) चूणि, पृ० १५४ : लोकः पाण्डिलोकः अथवा सर्वलोक एव । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : सोऽयं पाषण्डिको लोको गृहस्थलोको वा। ६. चूर्णि, पृ० १५४ : अनार्जवो धर्मो यस्य सोऽयं अणज्जधम्मे । कथं अनार्जवः ? अहिंसक इति चात्मानं ब्रवते न चाहिंसकः । Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन ७: टिप्पण २४-२८ ___ कालोदायी ! जो मनुष्य अग्निकाय को जलाता है वह पृथ्विकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों की अधिक हिंसा करता है और अग्निकायिक जीवों की कम हिंसा करता है। जो मनुष्य अग्निकाय को बुझाता है वह पृथ्वीकायिक आदि जीवों की कम हिंसा करता है और अग्निकायिक जीवों की अधिक हिंसा करता है। इसलिए कालोदायी ! ऐसा कहा है। २४. मेधावी (मेहावि) मेधावी का अर्थ है-सत् ओर असत् का विवेक रखने वाला, विद्वान् ।' २५. अग्नि का समारंभ .......... (अगणिसमारभिज्जा) अग्नि का समारभ तीन प्रयोजनों से होता है-तपाना, सुखाना और प्रकाश करना । श्लोक: २६. उड़ने वाले (संपातिम) संपातिमा' के स्थान पर 'संपातिम'--यह विभक्तिरहित प्रयोग है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ शलभ, वायु, आदि जीव किया है। शलभ आदि उड़ने वाले त्रस प्राणी संपातिम होते हैं । यह प्रचलित अर्थ है । चूर्णिकार ने वायु को भी संपातिम बतलाया है, यह एक नया अर्थ है । वायु अग्नि से टकराती है। उससे वायुकायिक जीव मरते हैं । इस दृष्टि से यहां वायुकाय का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। २७. संस्वेदज (संसेदया) देख-७१ का टिप्पण। २८. इंधन में भी जीव होते हैं (कट्ठसमस्सिता) इसका अर्थ है-काठ में रहने वाले घुन, चींटियां, कृमि आदि । १. अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई, ७२२७, २२८ : दो मंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिध्वया सरिसमंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं सद्धि अगणिकायं समारंभंति । तत्थ गं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ । एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव ? महाकिरियतराए चेव ? महासवतराए चेव ? महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव? अप्पकिरियतराए चेव ? अप्पासवतराए चेव ? अप्पवेयणतराए चेव ? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेड. जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव ....... ." तत्थ गंजे से पुरिसे अगणिकायं निब्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव । सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ... . . . . . . . ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे बहतरागं पूढविक्कायं समारभति, बहुतरागं आउक्कायं समारभति अप्पतरागं तेउक्कायं समारभति, बहुतरागं वाउकायं समारति, बहुतरागं वणराइकार्य समारभति, बहुतरागं तसकायं समारभति । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निम्बावेड, से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारझति, अप्पतरागं आउक्कायं समारभति, बहतरागं तेउक्कायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं समारभति, अप्पतरागं वणस्सइकायं समारभति, अप्पतरागं तसकायं समारभति । से तेण?णं कालोदायी !...........। २. वृत्ति, पत्र १५६ : मेधावी सदसद्विवेकः सश्रुतिक. । ३. चूणि, पृ० १५५ : तपन-वितापन-प्रकाशहेतुर्वा स्यात् । ४. चूणि, पृ० १५५ : सम्पतन्तीति सम्पातिनः शलभ-वारवादयः । ५. (क) चूणि, पृ० १५५ : काष्ठेषु घुण-पिपीलिकाण्डादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १५७ : धुणपिपीलिकाकृम्यादय काष्ठाद्याश्रिताश्च । Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन ७:टिप्पण २६-३१ श्लोक : २६. वे जन्म से मृत्यु धारण करते हैं (विलंबगाणि) इसका अर्थ है-जीव के स्वभाव को अथवा जीव की आकृति को दिखाने वाले । वनस्पति जीव हैं। वे जन्म से मृत्यु पर्यन्त, मनुष्य आदि जीवों की भांति, नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं। जैसे मनुष्य की कलल, अर्बुद, मांसपेशी, गर्भ, प्रसव, बाल, कुमार, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध- ये अवस्थाएं होती हैं, इसी प्रकार हरित शालि आदि वनस्पति भी जात, अभिनव, संजातरस, युवा, पका हुआ, जीर्ण, सूखा हुआ और मृत-इन अवस्थाओं को धारण करते हैं। इसी प्रकार जब वृक्ष का बीज अंकुरित होता है तब उसे जात कहा जाता है । जब उसकी जड़ उगती हैं, जब वह स्कंध, शाखा और प्रशाखा से बढ़ता है तब वह पोतक कहलाता है। इसी प्रकार वह युवा होता है, मध्यम वय को प्राप्त होता है, जीर्ण होता है और एक दिन ऐसा आता है कि वह मर जाता है। इस प्रकार मनुष्य की भांति सारी अवस्थाएं वनस्पति में होती है।' चूर्णिकार ने विलंबयंति का अर्थ- दिखाना और वृत्तिकार ने धारण करना किया है। ३०. वे आहार से उपचित होते हैं, (आहार-देहाई) वनस्पति के शरीर आहार से उपचित होते हैं, यह इसका अर्थ है। सभी प्राणियों का शरीर आहार के आधार पर टिका होता है । 'अन्नं वै प्राणा:-यह इसी का द्योतक है। इसी प्रकार वनस्पति जीवों का शरीर भी आहारमय है, आहार पर टिका होता है। आहार के अभाव में वृक्ष क्षीण हो जाते हैं, म्लान हो जाते हैं, सुख जाते हैं। आहार के आधार पर ही वृक्ष पुष्पित और फलित होते हैं। वृक्ष अधिक फल देते हैं या कम फल देते हैं, इसका आधार आहार की न्यूनाधिक मात्रा ही है ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न किया है। उन्होंने 'आहारदेहाय' (सं० आहारदेहार्थं) शब्द मानकर इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-व्यक्ति वनस्पति के जीवों की अपने भोजन के लिए, शरीर की वृद्धि के लिए, शरीर के घावों को मिटाने के लिए हिंसा करता है। वृत्तिकार का यह अर्थ प्रसंगोचित नहीं लगता। सूत्रकार का आशय है कि जैसे त्रस प्राणियों का शरीर आहारमय होता है, वैसे ही स्थावर प्राणियों का शरीर भी आहारमय होता है । बिना आहार के कोई भी शरीर उपचित नहीं होता। कोई प्राणी कवल आहार करे या न करे, परन्तु रोम आहार या ओज आहार तो सब प्राणियों के होता ही है। ३१.वे (वनस्पति-जीव) मूल, स्कंध आदि में पृथक्-पृथक् होते हैं (पुढो सियाई) वनस्पति की दस अवस्याएं हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज। मूल से बीज तक एक ही जीव नहीं होता, अनेक जीव होते हैं । वनस्पति संख्येय, असंख्येय और अनन्त जीवों वाली होती १. (क) चूणि, पृ० १५५ : विलम्बयन्तीति विलम्बकानि, भूतस्वभावं भूताकृति दर्शयन्तीत्यर्थः। तद्यथा--मनुष्ये निषेक-कलला-ऽर्बुद पेशि-व्यूह-गर्भ-प्रसव-बाल-कौमार-यौवन-मध्यम-स्थाविर्यान्तो मनुष्यो भवति । एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातानि अभिनवानि सस्यानीत्यपदिश्यन्ते, सञ्जातरसाणि यौवनवन्ति, परिपक्वानि जीर्णानि, परिशुष्कानि मृतानीति । तथा वृक्षः अङकुरावस्थो जात इत्यपविश्यते, ततश्च मूलस्कंध-शाखादिभिविशेषैः परिवर्द्धमानः पोतक इत्यपदिश्यते, ततो युवा मध्यमो जीर्णो मृतश्चान्ते स इति । (ख) वृत्ति, पत्र १५७ । २. (क) चूणि, पृ० १५५ : विलम्बयन्तीति दर्शयन्तीत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र १५७ : विलम्बन्ति-धारयन्ति । ३. चूर्णि, पृ० १५५ : अहारमया हि देहा देहिनाम्, अन्नं वै प्राणाः, आहाराभावे हि वृक्षा हीयन्ते म्लायन्ते शुष्यन्ते च मन्दफलाश्चा फलाश्च भवन्ति । ४. वृत्ति, पत्र १५७ : वनस्पतिकायाश्रितान्याहारार्थ देहोपचयार्थ देहक्षतसंरोहणार्थ वाऽऽत्मसुखं 'प्रतीत्य' आश्रित्य यच्छिनत्ति । ५. दशवकालिक, जिनदासचूणि, पृ० १३८ : मूले कदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य । पत्ते पुप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ॥ . Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ७: टिप्पण ३२-३५ है। यही इस पद का आशय है।' ___ दसवैकालिक आदि आगमों में स्थावर जीवों के लिए 'अणेगजीवा पुढोसत्ता" पाठ है। इसका यही आशय है कि पृथ्वी, पानी आदि असंख्य जीवों के पींड हैं। उन सभी जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व है। कुछ दार्शनिक सम्पूर्ण वृक्ष में एक ही जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उनके मत को अस्वीकार करने के लिए 'पुढो सियाई'-यह कथन है। ३२. अपने सुख के लिए (आतसुहं पड़च्च) इसका अर्थ है-- अपने सुख के लिए । जो व्यक्ति अपने, दूसरे या दोनों को सुख पहुंचाने के लिए या दुःख की निवृत्ति करने के लिए अथवा आहार, शयन, आसन आदि साधन-सामग्री के लिए वनस्पति के जीवों की हिंसा करता है . . . . . . . ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका तात्पर्य है कि आत्मसुख के लिए हिंसा करने का अर्थ है-आहार, देह का उपचय और देहक्षत के संरोहण के लिए हिंसा करना।' ३३. ढीठ प्रज्ञा वाला (पागभिपण्णो) ढीठ प्रज्ञा वाला, दयाहीन प्रज्ञा वाला ।' ३४. बहुत जीवों का (बहुणं) 'बहुत' का तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य एक का छेदन करता है, वह अनेक जीवों की हिंसा करता है, क्योंकि पृथ्वी आदि एक जीव नहीं, अनेक जीवों के पिंड हैं।" श्लोक: ३५. (जाइं च..........."बीयाइ) चूर्णिकार ने जाति का अर्थ बीज किया है । अंकुर, पत्र, मूल, स्कंध, शाखा, प्रशाखा-ये वनस्पति की वृद्धि के प्रकार हैं। जो व्यक्ति मुसल, ऊखल, चाकू अथवा यंत्रों के द्वारा बीज का विनाश करता है, वह वृद्धि का विनाश करता है। बीज के अभाव में वृद्धि कैसे होगी? इसका दूसरा अर्थ भी हो सकता है। बीज आदि का विनाश करने वाला जाति का भी विनाश करता है और वृद्धि का भी विनाश करता है। यहां बीज से फल का ग्रहण किया है, क्योंकि वनस्पति की दस अवस्थाओं में पहली अवस्था भी बीज है और अन्तिम अवस्था भी बीज है। यह अन्तिम अवस्था फलगत होती है। १. चूणि, पृ० १५५ : पुढो सिताणि पृथक्-पृथक् श्रितानि, न तु य एव मूले त एव स्कन्धे, केषाञ्चिदेकजीवो वृक्षः तद्व्युदासार्थ पुढो सिताई ति । तान्येवम्-संखेज्जजीविताणि (असंखेज्जजीविताणि) अणंतजीविताणि वा। २. दसवेआलिगं ४।सूत्र ४-८। ३. णि, पृ० १५५ : पुढो सिताणि ....... तव्युदासार्थ पुढोसिताई ति । ४. चूणि, पृ० १५५ : आत्म-परोभबसुह-दुःखहेतुं वा आहार-सपणा-ऽऽसणाविउवभोगत्यं । ५. वृत्ति, पत्र १५७। ६. (क) चूणि पृ० १५५ : प्रागल्भिनाज्ञो नाम निरनुक्रोशमतिः । (ख) वृत्ति, पत्र १५७ : प्रागल्भ्यात् धाविष्टम्भाद् ........."निरनुक्रोशतया । ७. चूणि, पृ० १५५ : एगमपि छिन्दन बहून जीवान् निपातयति, एगपुढवीए अणेगा जीवा। ८. (क) चूणि पृ० १५५ : जातिरिति बीजम्, तं मशलोदूखला-स्यादिभिविनाशान्ति । यन्त्रकैश्च जातिविनाशे अङकुरादिबुद्धिर्हता एव, जात्यभावे कुतो वृद्धिः ? अधवा जाति पि विणासेति बीजं । मुट्ठि (बुटि) पि णासेति अकुरादि । बीजादीति बीजा-ऽकुरादिक्रमो दर्शितः, पुव्वाणुपुत्वी च दसविधाणं ।। (ख) वृत्ति, पत्र १५७ : 'जातिम्' उत्पत्ति तथा अङकुरपत्रमूलस्कंधशाखाप्रशाखाभेदेन वृद्धि च विनाशयन् बीजानि च तत्फलानि विनाशयन् हरितानि छिन्नत्तीति। Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३६. अपने आप को दंडित करता है (आयदण्डे ) इसका अर्थ है - अपने आपको आपको दंडित करता है । ३७. अह चूर्णिकार ने इसे 'आनन्तर्य' के अर्थ में और वृत्तिकार ने वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त माना है । ' ३८. अनार्य धर्म (अणज्जधम्मे ) ३३७ जिसका धर्म अनार्य है वह अनार्यधर्मा कहा जाता है। जो जैसा कहता है वैसा नहीं करता, वह अनार्यधर्मा है ।' वृत्तिकार ने क्रूरकर्म करने वाले को अनार्यधर्मा माना है। उनका कथन है कि जो व्यक्ति धर्म का नाम लेकर अथवा अपने सुख के लिए वनस्पति का नाश करता है, वह चाहे पाखंडी हो या कोई भी हो, वह अनार्यधर्मा है । श्लोक १०: दंडित करने वाला । जो मनुष्य दूसरे प्राणियों को दंडित करता है वह वास्तव में अपने ३६. गर्भ में (गभाइ) इसका अर्थ है - गर्भ काल में । साधारणतः मनुष्यणी का गर्भ काल साधिक नौ मास का होता है । अन्यान्य गर्भज प्राणियों का गर्भकाल भिन्न-भिन्न होता है । उस गर्भकाल में भ्रूण काल के परिपाक के साथ-साथ बढ़ता है, विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करता है । जो व्यक्ति पूर्वभव में वनस्पति आदि जीवों का उपमर्दक रहा है, वह गर्भ की किसी भी अवस्था में मर जाता है - यह सूत्रकार का आशय है ।" ४०. बोलने और न बोलने की स्थिति में ( बुवा बुयाणा ) क्रम की दृष्टि से पहले 'अबुयाणा' - नहीं बोलते हुए और बाद में 'बुयाणा' - बोलते हुए होना चाहिए था । किन्तु यहां छन्द की दृष्टि से क्रम का व्यत्यय किया गया है। ये दोनों शब्द दो अवस्थाओं के द्योतक हैं। जन्म के पश्चात् बालक कुछ वर्षों तक अव्यक्त वाणी में बोलता है । उसकी वाणी स्पष्ट नहीं होती । फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, उसकी वाणी व्यक्त या स्पष्ट होती जाती है।' ४१. पंचशिख (पंचसिहा ) ३. चूर्णि पृ० १५५ ४. बलि, पृ० १५७ अध्ययन ७ टिप्पण ३६-४१ जिसके सिर में पांच शिखाए होती हैं उसे पंचशिख कहा जाता है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'पंचचूड' किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है जिसके पांचों इन्द्रियां मिलाभूत होती है अपने-अपने विषय में कार्यक्षम होती है, उसे पंचशिल कहा जाता है। यह - १. यत्ति पत्र १५७ स च हरितछेदविधाय्यात्यानं ण्डपतीत्यात्मदण्डः स हि परमार्थतः परोपयातेनात्मानमेवोपहति । २. (क) चूर्णि पृ० १५५ : अत्थेत्यानन्तर्ये । (ख) वृत्ति, पत्र : १५७: अथ शब्दो वाक्यालङ्कारे । + अनार्यधर्मोऽस्य स भवति अणज्जधम्मो । जधावादी तधाकारी न भवति । अनार्य क्रूरकर्मकारी भवतीत्यर्थः स च एवम्भूतो यो धर्मोपदेशेनात्मसुखार्थ या बीजानि अस्य चोकलक्षणार्थत्वात् वनस्पतिकारां हिनस्ति स पाषण्डिकलोकोऽन्यो वाऽनार्यधर्मा भवतीति सम्बन्धः । " ५. पूर्ण पृ० १५६ इति वक्तव्ये गर्भादि इति पयपदिश्यते तद् गर्भावस्थानिमित्तम् । : गर्भ तद्यथा निषेक-कसलार्बुद पेशि----वस्थानामन्यत (र) स्यां कश्चिद् चियते । अथवा मासिकादिगर्भावस्थासु नवमासान्तास्वन्यतरस्यां म्रियते । ६. चूर्ण, पृ० १५६ : प्रन्यानुलोम्यात् पूर्वं ब्रुवाणा:, इतरथानुपूर्वमत्र वाणा व वाणा इति यावत, न माता-पित्रादि व्यक्तया गिराऽभिधत्ते, ततः परं ब्रवाणाः । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ३३८ कुमार अवस्था का विशेषण है। कभी-कभी मनुष्य इस अवस्था में भी मर जाता है । ४२. अधेड (मभिम ) 'मज्झिमा' के स्थान पर विभक्तिरहितपद 'मज्झिम' का प्रयोग किया गया है । इसका अर्थ है - मध्यम वय । पैंतीस और पचास के बीच की अवस्था मध्यम कहलाती है । ४३. ( चयंति ते आउखये पलीणा ) सव प्राणियों का आयुष्य समान नहीं होता । कुछ दीर्घ आयुष्य का बंध करते हैं और कुछ अल्प आयुष्य का। उनके भिन्नभिन्न हेतु हैं । स्थानांग सूत्र में कहा गया है कि जीव तीन कारणों से अल्प आयुष्य कर्म का बंध करता है-' १. जीव हिंसा से से २. मृषावाद ३. श्रमण-माहन को अप्रासुक, अनेषणीय दान देने से । इसी प्रकार जीव तीन कारणों से दीर्घ आयुष्य कर्म का बंध करता है । १. जीव - हिंसा न करने से, २. झूठ न बोलने से, ३. श्रमण-माहन को प्रासुक, एषणीय दान देने से । अध्ययन ७ टिप्पण ४२-४४ यह आयुष्य भी सोपक्रम और निरुपक्रम -- दोनों प्रकार का होता है। जो प्राणी जैसा आयुष्य बांधता है, उसी के अनुसार उसका जीवन काल होता है। इसी आधार पर कुछ गर्भकाल में, कुछ प्रथम वय में, कुछ मध्यम वय में और कुछ अन्तिम वय में मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मरणावस्था के पहले वे सुख या जीवन से च्युत होते हैं और फिर विलीन हो जाते हैं। श्लोक ११: ४४. धर्म को समझ (बुल्झाहि) प्राणी ! तू धर्म को समझ । देख, कुशील और पाखंडलोक कभी त्राण नहीं दे सकता। मनुष्य क्षेत्र, उत्तम कुल, रूप, आरोग्य, आयुष्य की दीर्घता, बुद्धि, धर्म का श्रवण, धर्म का आग्रह, धर्म-श्रद्धा और संयम - ये सब दुर्लभ हैं। इसे तू जान - ५ मागुस्स- खेस- जाती-कुल-वा-रोमा बुढी। सम (व) गोग्गह सद्धा दरिसणं च लोगम्मि दुलभाई ॥ १. चूर्ण, पृ० १५६ : पञ्चशिखो नाम पञ्चचूडः कृमार:, अथवा पञ्च इन्द्रियाणि शिखाभूतानि बुद्धिसमर्थानि स्वे स्वे विषये तस्मात् पञ्चशिखः तस्मिन्नपि कदाचित् म्रियते । २. वृत्ति, पत्र १५७ : मध्यमा मध्यमवयसः । २. २०१७१८ निहि मे जीवापायला कम्बं पतितं जहा पाणे अतिवाहिता भवति, मुसं वसा भवति तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला भेत्ता भवति इच्चेते हि तिहि ठाणेह जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पगति । तिहि ठाणे जीवा हातामं परेति तं जहा गोपा अतिवालिसा भव षो मुद्दा भवद, सहारू समणं वा माह का एवं एसणिक्जेणं असणपाणामसाइमे पडिलाइटि तिहि ठाणेह जीवा दोहाउयत्ताए कम्मं पगरेति : ४. चूर्ण, पृ० १५६ ॥ २. णि, पृ० १५६ कि बोनहीपाखण्डलोकः प्राणाय धम्मं च युग्भणं बोधि । जहा मास्स खेत्त... - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ३३६ ४५. मनुष्यों में नानाप्रकार के भयों को देखकर (माण वेसु दट्ठ मयं ) मनुष्यों में नाना प्रकार के भय होते हैं । जन्म, बुढापा, मृत्यु, रोग, शोक तथा नरक और तिर्यञ्च योनि में होने वाले दुःख-ये सारे भय हैं ।' ४६. बचपन ( अज्ञान ) को छोड़ ( बालिएणं अलं भे) 'बालिक' का अर्थ है- बचपन, अज्ञान अवस्था । बुणिकार ने इसका अर्थ-कुशीतस्य किया है।' 'अलं भे' का संस्कृत रूप है--अलं भवतः । वृत्तिकार ने ‘बालिसेण अलंभे' पाठ की व्याख्या की है— बालिश को सदसत् विवेक का अलंभ ( अप्राप्ति) होता है ।' ४७. एकान्त दुःखमय ( एतदुक्खे) इसका अर्थ है - एकान्त दुःखमय । निश्चय नय के अनुसार यह संसार एकान्त दुःखमय है। कहा भी हैं 'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो को संसारो, जस्म कोसंति जंतयो ।' जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है । अहो ! यह सारा संसार दुःखमय है, जहां प्राणी क्लेश पाते हैं । ४८. ( मूर्च्छा के) ज्वर से पीडित ( जरिए ) ज्वरित का अर्थ है— ज्वर से पीडित । चूर्णिकार ने इसका एक अर्थ ज्वलित भी किया है। मनुष्य शारीरिक और मानसिक दुःखों से तथा कषायों से सदा प्रज्वलित रहता है ।" देखें- भगवई 8 | १७० । प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरण वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं— संयुक्हा जंतो माणुसतं भयं वालिसेणं अलंभो । अध्ययन ७ टिप्पण ४५-४८ प्राणियो ! तुम बोध प्राप्त करो। धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म दुर्लभ है, यह जानो । भय को देख कर, तथा मूर्ख ( अज्ञानी) को सत् असत् का विवेक प्राप्त नहीं होता ( यह समझ कर बोध को प्राप्त करो ) । चूर्णि और वृत्ति में पाठ-भेद है । इसके आधार पर अर्थ भेद भी है। अर्थ की दृष्टि से चूर्णि का पाठ संगत लगता है, इस लिए हमने चूर्णि का पाठ स्वीकार कर उसकी व्याख्या की है । १. वत्ति, पत्र १५८ : जातिजरामरण रोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तोयदुःखतया भयं दृष्ट्वा । २. णि पृ० १५६ालमावो हि बालिकं शीलत्वमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र १५८ : बालिशेन अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भः । ४. ( क ) चूर्ण, पृष्ठ १५६ : णिच्छंयणतं पडुच्च एतदुक्खो संसारः । (ख) वृत्ति, पत्र १५८ : निश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इथ 'लोक' संसारिप्राणिगणः । ५. उत्तरज्झयणाणि १६।१५ । ६ पृष्ठ १५६ यरितवलित सरीर-माणसे हि दुख-दोमणरहिवाश्च नित्यप्रतिवारितः । ७. वृत्ति पत्र १५८ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगो १ ४६. मूढ मनुष्य (मूढा ) ५०. नमक (आहारसंपज्ञ्जण) ३४० श्लोक १२ : अज्ञान से आच्छादित बुद्धि वाले तथा जो दूसरों के द्वारा मूढ बनाए गए हैं वे मूढ कहलाते हैं।' इसका संस्कृत रूप है- आहारसंप्रज्वलन । छन्द की दृष्टि से लकार का लोप होने पर 'संपज्जण' रूप शेष रहा है। इसका अर्थ है - नमक । वह आहार को संप्रज्वलित करता है। आहार का व्युत्पत्तिक अर्थ है - जो बुद्धि, आयु, बल आदि विशेष शक्तियों का आहरण करता है, लाता है, वह 'आहार' है ।' चूर्णि और वृत्ति में 'आहार संपज्जण' - इन तीन पदों की व्याख्या की है। नमक आहार की संपदा को पैदा करता है इसलिए उसका नाम 'आहारसंपज्जण' है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने दो पाठान्तरों का उल्लेख किया है- 'आहार सपंचग' तथा 'आहारपंचग' । 'आहारसपंचग' (सं० आहारसपञ्चक) का अर्थ है- आहार के साथ पांच प्रकार के लवणों के वर्जन द्वारा पांच प्रकार के लवण ये हैं सैंधव, सौवर्चल, बिड, रोम और सामुद्रिक । सुश्रुत (४६।३१३) में छह प्रकार के लवणों का नामोल्लेख है। सैंधव नमक सिन्धु देश में प्राप्त होता था। शाकम्भरी (शकों का देश ), एशिया माइनर तथा काश्यपीयसर (कास्पियन सागर) से प्राप्तलवण रुमा या रोमन कहलाता था। दक्षिण समुद्र तथा ईरान की खाड़ी से प्राप्त होने वाला नमक सामुद्रिक कहलाता था । 'रूमा सर' या रोम सागर भूमध्य सागर का नाम है। एशिया माइनर का यह प्रदेश रूम देश कहलाता था, क्योंकि यह रोमन (इटली) लोगों के अधिकार में था । यह स्थान नमक की उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था । आज तक कास्पियन सागर के दक्षिणपश्चिम में नमक के कछार है ।" अध्ययन ७ टिप्पण ४६-५० दशवैकालिक सूत्र (३1८) में सौवर्चल, सैंधव, रुमा, सामुद्रिक, पांशु-क्षार और काल- लवण - ये छह प्रकार के लवण बतलाए गए हैं। इस सूत्र के दोनों चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर और जिनदास महत्तर तथा वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इनकी व्याख्या में अनेक प्रकार की जानकारी दी है। विशेष विवरण के लिए देखें - दसवेआलियं ३15 का टिप्पण । पूर्णिकार के अनुसार लवण ही भोजन के सभी रसों को उद्दिष्त करता है। कहा है लवणविणा व रसा, बहूणा व दिगामा । धम्मोदयाय रहियो सोख संतोसरहिये वो ॥ , नमक के बिना कोई रस नहीं होता, आंख के लिए इन्द्रिय-विषय अच्छे नहीं लगते, दया के विना धर्म धर्म नहीं होता बोर संतोष के बिना कोई सुख नहीं होता । जैसे -- 'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्यानां - सभी रसों में लवण प्रधान है, स्निग्ध पदार्थों में तेल प्रधान हैं और मेधा १. (क) चूणि, पृ० १५७ : मूढा अयाणगा स्वयं मूढाः परैश्च मोहिताः । १५८ : मूढा अज्ञानाऽऽच्छादितमतयः परंश्च मोहिताः । " (ख) वृत्ति, पत्र २. पूर्णि, पृ० १५७ आहिते आहारपति बाहिर बुद्धयापुर्वादिविशेषान् या आनयतिहारयतीत्याहारः । ३. (क) चूर्ण, पृ० १५७ : ससाढ्याहारसम्पदं जनयतीति आहार संपज्जणं, (आहारसंपज्ञ्जणं) च तद् लवणम् । (ख) वृत्ति पत्र १५८ : आहार—ओदनादिस्तस्य सम्पद्- रसपुष्टिस्तां जनयतीत्याहार सम्पज्जननं -- लवणम् । ४. (क) वणि, पृ० १५७ । १५८ । (ख) वृत्ति, पत्र ५. (क) णि, पृ० १५७ (ख) वृत्ति, पत्र १४८ ६. भारत के प्राणाचार्य पृ० १५३, मूल तथा फुट नोट । ७. णि, पृ० १५७ : लवणं हि सर्वरसानदीयति । अधवा' आहा रेणं समं पंचगं' आहारेण हि सह पंच लवणाणि, तं जधा - सैन्धवं सोक्च्चलं बिडं रोमं समुद्र इति । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ ३४१ अध्ययन ७: टिप्पण ५१-५३ बढ़ाने वाले पदार्थों में घी प्रधान है।' जो व्यक्ति लवण का परित्याग करता है वह वस्तुत: रस का ही परित्याग कर देता है । वह रस पर विजय पा लेता दूसरा पाठान्तर है- 'आहारपंचग' । पांच प्रकार का वर्जनीय आहार यह है-मद्य, लहसुन, प्वाज, ऊंटनी का दूध और गोमांस ।' कुछ व्यक्ति नमक को छोड़ने से और कुछ इन पांच प्रकार के भोजन को छोड़ने से मोक्ष बतलाते हैं।' चूर्णिकार ने एक तीसरा पाठान्तर माना है--- 'अट्ठप्पलवणं ण परिहरति' । इसका अर्थ है-जो क्षार नमक का परिहार नहीं करता। ५१. कुछ मनुष्य (एगे) चूणिकार और वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा परिव्राजक और भागवत की ओर इंगित किया है।' ५२. सजीव जल से स्नान करने (सीतोदगसेवणेणं) सीत का अर्थ है--सजीव और उदक का अर्थ है-जल । 'सीतोदग' का अर्थ है--सजीव जल । परिव्राजक आदि इसका उपयोग स्नान करने, पीने, हाथ-पैर धोने में करते थे। वे मानते हैं कि सजीव जल के सेवन से मोक्ष प्राप्त होता है। इसका आशय है कि जैसे जल बाह्य मल को दूर करता है वैसे ही वह आन्तरिक मल को भी दूर करता है। जैसे बाह्य-शुद्धि जल से होती है, उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि भी उसी से हो सकती ५३. (हुतेण एगे .........) विभिन्न प्रकार के तापस और ब्राह्मण हवन से मुक्ति बतलाते हैं। वे मानते हैं कि जो व्यक्ति स्वर्ग आदि फल की आशंसा न करता हुआ समिधा, घृत, आदि हव्य विशेष के द्वारा अग्नि को तृप्त करता है, हवन करता है, वह मोक्ष के लिए वैसा करता है । जो किसी आशंसा से हवन करता है वह अभ्युदय के लिए होता है। जैसे अग्नि स्वर्ण-मल को जलाने में समर्थ है वैसे ही वह मनुष्य के आन्तरिक पापों को जलाने में भी समर्थ है। १. (क) चूणि, पृ० १५७ । (ख) वृत्ति, पत्र १५८ । २. वृत्ति, पत्र १५६ : तदेवम्भूतलवणपरिवर्जनेन रसपरित्याग एव कृतो भवति । ३. (क) चूणि, पृ० १५७ : अधवा आहारपंचगं तद्यथा---'मज्जं लसुण पलंडु खोरं करभं तधेव गोमंसं । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ ।। ४. वृत्ति, पत्र १५६ : तत् (लवणं) त्यागाच्च मोक्षावाप्ति.... आहारपञ्चकवर्जनेन मोक्ष प्रवदन्ति । ५ चूणि, पृ० १५७ : फुट नोट नं. ३ ६. (क) चूणि, पृ० १५७ : वारिभद्दगा तु एगे ....... परिवाइ भागवतादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : तथैके वारिभद्रकादयो भागवतविशेषाः ।। ७. चणि, पृ० १५७ : सीतोगसेवणेणं स्नान-पान-हस्तपादधावनेन सीतोदगसेवणं तव च निवास:, सीतमिति अधिगतजीवं अमुष्ठा (? अनुष्णा) त्रितप्तं वा, परिवाड-भागवतादयोऽपि शीतोदकं सेवन्ति। ८. वृत्ति, पत्र १५६ : सचित्ताप्कायपरिभोगेन मोक्ष प्रवदन्ति, उपपत्ति च ते अभिदधति -यथोदकं बाह्यमलमपनयति एवमान्तरमपि, वस्त्रादेश्च यथोदकाच्छुद्धि रुपजावते एवं बाह्यशुद्धि सामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते । है. (क) बत्ति, पत्र १५६ : तथके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति, ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य समिधाघतादिभिर्हव्य विशेषैर्हताशनं तर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति शेषास्त्वभ्युदयायेति, युक्ति चात्र ते आहुः-यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति । (ख) चुणि, पृ० १५७ : तापसादयो हि इष्टः समिद्-घृतादिभिर्हव्यः हुताशनं तर्पयन्तो मोक्षमिच्छन्ति तत्र कुन्थ्वादीन् सत्वान्न गणयन्ति ये तत्र बान्ते ... "ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य जुह्वति ते मोक्षाय, शेषास्तु अभ्युदयाय । Jain Education Interational Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३४२ चूर्णिकार ने यहां 'मोक्ष' का अर्थ- संपूर्ण मोक्ष या दरिद्रता आदि दुःखों से मोक्ष माना है ।' श्लोक १३ : ५४. क्षार नमक (खारस्स लोणस्स ) बूर्णिकार ने इसका अर्थ-खारी मिट्टी (नोनी-मिट्टी) से निकाला हुआ नमक किया है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने भी यही अर्थ किया है।" दशकालिक ३/८ में सुखारे' शब्द का प्रयोग है। इसका अर्थ है-पांशुवार अर्थात् ऊपर लक्ष्य (देखें दसवेलियं ३/८ का टिप्पण यहां लवण शब्द से पांचों प्रकार के लवण गृहीत है । " ५५. गोमांस (मंसं ) यहां मांस से गो मांस का ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य है कि अनेक साधु-संन्यासी गो मांस को छोड़कर अन्य मांस का भक्षण करते थे । ५६. न खाने मात्र से (अमोच्चा) चूर्णिकार ने 'अभोच्चा" और वृत्तिकार ने 'भोच्चा" मानकर व्याख्या की है । चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण का अर्थ इस प्रकार होगा - वे मद्य, मांस और लहसुन न खाने मात्र से मोक्ष की परिकल्पना करते हैं । " अध्ययन ७ टिप्पण ५४-५७ वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ होगा - वे मद्य, मांस और लहसुन खाकर मोक्ष से अन्यत्र - संसार में निवास करते हैं ।' ५७. मोक्ष की ( अण्णत्य वासं ) पूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए है" १. अन्यत्र वास- -मोक्ष वास । २. जो इष्ट नहीं है, वहां वास करना अर्थात् संसार में वास करना । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-संसारवास किया है। " १. चूर्ण, पृ० १५७ : मोक्षो ह्यविशिष्टः सर्वविमोक्षो वा दरिद्रादुःखविमोक्षो वा । २. चूर्ण, पृ० १५७ : खारो नाम अट्ठष्पं । २. बसवेल अवस्य पृ० ६२ पंखारो ऊस तो आयुष्यं भवति । ४. ( क ) चूणि, पृ० १५७ : तदादीन्यन्यानि पञ्च लवणानि । (ख) वृत्ति, पत्र १५ε: क्षारस्स पञ्चप्रकारस्यापि लवणस्य । ५. चूर्णि, पृ० १५७ : मांसमिति गोमांसम् । ६. चुणि, पृ० १५७ : एतान्यमोच्चा । ७. वृत्ति, पत्र १५६ : भुक्त्वा । ८. चूर्ण, पृ० १५७ । ६. वृत्ति, पत्र १५ । १० चूर्ण, पृ० १५७: अन्यत्रवासो नाम मोक्षावासः । अथवा अन्यत्रवासो नाम यत्रेच्छति यदीप्सितं वा न तत्र वासं परिकल्पयन्ति अत्रैव संसारे चैव । ११. वृत्ति, पत्र १५६ : अन्यत्र मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानम् । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३४३ अध्ययन ७ : टिप्पण ५८-६१ श्लोक १४: ५८. सांझ (सायं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ रात्रि' और वृत्तिकार ने अपरान्ह या विकाल-बेला किया है।' ५६. श्लोक १४: प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य स्नान आदि से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। यदि जल-स्पर्श से मुक्ति होती तो जल के आश्रय में रहने वाले क्रूर-कर्मा और निर्दयी मछुए कभी मुक्त हो जाते। यदि यह कहा जाए कि जल में मल को दूर करने का सामर्थ्य है, वह भी उचित नहीं है। जैसे जल बुरे मल को धो डालता है, वैसे ही वह प्रिय अंगराग को भी धो डालता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि वह पाप की भांति पुण्य को भी धो डालता है। इस दृष्टि से वह इष्ट का विघातक होता है। वस्तुतः ब्रह्मचारी मुनियों के लिए जल-स्नान दोष के लिए ही होता है—'यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषायब ।" 'जल स्नान मद और दर्प को उत्पन्न करता है । वह 'काम' का प्रथम अंग है। इसलिए दान्त मुनि 'काम' का परित्याग कर कभी स्नान नहीं करते।' 'जल से भीगा हुआ शरीर वाला पुरुष ही स्नान किया हुआ नहीं माना जाता। किन्तु जो पुरुष व्रतों से स्नात है, वही स्नान किया हुआ कहा जाता है, क्योंकि वह अन्दर और बाहर से शुद्ध माना गया है।" श्लोक १५: ६०. जलसर्प (सिरीसिवा) इसका अर्थ है-जलसर्प । चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मगरमच्छ और शिशुमार ।' ६१. बतख (मंगू) वृत्तिकार ने इसका अर्थ मद्गु-जल-काक किया है। आप्टे की डिक्शनरी में जल-वायस (काक) का अर्थ-डुबकी लगाने वाला पक्षी किया है -(Diver Bird)। चूर्णिकार ने इसका अर्थ कामज्जेगा (?) किया है।' पाइयसद्दमहण्णवो में 'कामजुग' को पक्षी-विशेष माना है। १. चूणि, पृ० १५७ : सायं ति रात्री। २. वृत्ति, पत्र १५६ : सायम् अपराह ने विकाले वा। ३. वत्ति, पत्र १५६ : स्नानादिकां क्रियां जलेन कुर्वन्तःप्राणिनो विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति, एतच्चासम्यक, यतो या द कस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत् उदकसमाश्रिता मत्स्यबन्धादय: क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्धयेयुरिति, यदपि तैरुच्यते-बाह्यमलापनयनसामर्थ्यमुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते, यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमत्यङ्गरागं कङ्कमादिकमपनय ति, ततश्च पुण्यस्यापनयनादिष्टविघातकृद्विरुद्धः स्यात्, किञ्च यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषागैव, तथा चोक्तम् तस्मात् कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति बमे रताः ॥१॥ नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ::२॥ 'स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्ग प्रथम स्मृतम् ।' ४. चूणि, पृ० १५८ : इह सिरीसिवा मगरा सुसुमारा य, चतुष्पादत्वात् सिरीसृपाः । ५. वृत्ति, पत्र १६० : तथा मद्गवः । ६ चूणिः पृ० १५६ : मंगू णाम कामज्जेगा। Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सूयगडो १ अध्ययन ७: टिप्पण ६२-६४ ६२. ऊदबिलाव (उद्दा) 'उद्द' देशीशब्द है । इसका अर्थ है-ऊदबिलाव । वृत्तिकार ने 'उट्टा' पाठ मानकर इसका अर्थ उष्ट्र- जलचर विशेष किया है। किन्तु लिपिदोष के कारण उद्दा का उट्टा पाठ बन गया । वृत्तिकार को वही पाठ मिला, इसलिए इसका अर्थ उष्ट्र किया। चूर्णिकार के सामने शुद्ध पाठ 'उद्दा' था। उनके अनुसार इसका अर्थ है-ये बिल्ली के परिमाण वाले जलचर प्राणी बड़ी नदियों में डूबते-तैरते हुए पाए जाते हैं। इन्हें उदबिल व कहा जाता ___ आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधानचिन्तामणि नाममाला में ऊदबिलाव के चार नाम दिए हैं उद्र, जलमार्जार, पानीयनकुल और वसी। मराठी में इसे जलमाजर कहा जाता है । यह नेवले के आकार का उससे बड़ा एक जंतु है, जो जल और स्थल दोनों में रहता है। यह प्रायः नदी के किनारों पर पाया जाता है। इसके कान छोटे, पंजे जालीदार, नाखून टेढ़े और पूंछ कुछ चिपटी होती है। रंग इसका भूरा होता है । यह पानी में जिस स्थान पर डूबता है, वहां से बड़ी दूर पर और बड़ी देर के बाद उतराता है। इसका मुख्य भोजन है मछलियां । जब इसे मछलियां नहीं मिलतीं, तब यह भूमी पर इधर उधर घूमकर खरगोश, चूहे आदि छोटेछोटे जानवरों को मारकर खा जाता है। प्रारम्भ में इसके बच्चे पानी से बहुत डरते हैं। मां अपने बच्चों को फुसलाकर नदी के किनारे ले जाती है और उन्हें पीठ पर बिठाकर नदी में तैरने लग जाती है। उथले पानी में जाकर वह उन्हें पीठ से नीचे गिरा देती है । बच्चे रोते-चिल्लाते हैं । मां की दृष्टि बच्चों पर रहती है। धीरे-धीरे वे तैरना सीख जाते हैं। बड़े होकर वे पानी में कलाबाजियां करते हुए लम्बे समय तक तैरते रहते हैं । लोग इसको पालतू जानवर की भांति पालते हैं और मछलियां पकड़वाने का काम लेते हैं। यह झील या तालाब में कूदकर मछलियों को एक कोने में हांक लाता है और तब उसका स्वामी मछलियां पकड़ लेता है। यह बड़ा होशियार और विनोदी होता है।' ६३. जलराक्षस (दगरक्खसा) ये मनुष्य की आकृति वाले जलचर प्राणी हैं जो नदी और समुद्रों में रहते हैं।' हिन्दी शब्द-सागर में जल-राक्षसी का उल्लेख इस प्रकार हैजल में रहने वाली राक्षसी जो आकाशगामी जीवों की छाया से उन्हें अपनी ओर खींच लेती है। श्लोक १६ : ६४. यदि (जत्ती) यहां छन्द की दृष्टि से दीर्घ ईकार का प्रयोग है। इसका अर्थ है-यदि । १. वृत्ति, पत्र १६० : तथोष्ट्रा-जलचरविशेषाः । २. चूणि, पृ० १५८ : उद्दा णाम मज्जारप्पमाणा महानदीषु दृश्यन्ते उम्मुज्जणिमुज्जियां करेमाणा। ३. अभिधान चिन्तामणि कोष ४१४१६ : उद्रस्तु जलमार्जारः पानीयनकुलो वसी। ४. देखें-नवनीत; ६२, मई, नरेन्द्र नायक का लेख-जल का शिकारी ऊदबिलाव । ५ (क) चूणि, पृ० १५८ : वगरक्खणा मनुष्याकृतयो नदीषु च भवन्ति । (ख) वृत्ति, पृ० १६० : तयोदकराक्षसा-जलमानुषाकृतयो जलचरविशेषाः । ६ हिन्दी शब्द सागर। Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ३४५ अध्ययन ७: टिप्पण६५-७० ६५. नेता के पीछे चलते हुए (गेयारमणुस्सरंता) यहां ऐसे नेता का ग्रहण किया गया है जो जन्म से अंधा हो।' अनुसरण का अर्थ है-पीछे चलना। अंधे व्यक्ति अंधे नेता के पीछे चलते हुए पथ से भटक जाते हैं । वे उन्मार्ग में चलते हुए विषम पथ, गढे, कांटे, हिंस्र-पशु, अग्नि आदि के उपद्रवों को प्राप्त कर क्लेश को प्राप्त होते हैं । वे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते । यह इस पद का तात्पर्यार्थ है। श्लोक १८: ६६. हवन से मोक्ष होना बतलाते हैं (हतेण जे सिद्धि मुदाहरंति) 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः'--स्वर्ग की कामना करने वाले पुरुष को अग्निहोत्र करना चाहिए--- इस भावना से कुछ व्यक्ति अग्नि से सिद्धि की बात बताते हैं।' 'उदाहरंति' का सामान्य अर्थ है-उदाहरण प्रस्तुत करना। यहां इसका अर्थ-'कहना' मात्र है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-प्रतिपादन करना-किया है। ६७. कुकर्मी (वन जलाने वाले आदि) (कुकम्मिणं) कोयला बनाने वाले वन-दाहक, कजावा पकाने वाले कुम्हार, लोहे की वस्तुएं बनाने वाले लोहकार तथा जाल बुनने वालेआदि के व्यवसाय को कुकर्म कहा है । ये व्यवसाय करने वाले कुकर्मी कहलाते हैं।' श्लोक १६ : ६८. दृष्टि की परीक्षा किए बिना (अपरिच्छ दिदि) दृष्टि का अर्थ है-दर्शन । वह दो प्रकार का होता है - मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन । 'अपरिच्छ दिट्ठि' का अर्थ है-दृष्टि की परीक्षा किए बिना। वृत्तिकार ने 'दिट्ठि' के स्थान पर 'दिट्ट' (दृष्ट) पाठ माना है। ६९. विनाश को (धातं) इसका सामान्य अर्थ है-विनाश । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उपलक्षण से इसका अर्थ-संसार किया है। जहां प्राणी नाना प्रकार से मारे जाते हैं, दुःख-विशेष से पीडित होते हैं, वह है संसार । इस अपेक्षा से संसार को 'घात' माना गया है।' ७०. विद्या को (विज्जं) चूणि और वृत्ति में 'विज्ज' पद का अर्थ विद्वान् किया गया है। इसका वैकल्पिक अर्थ विद्या भी है।' १. (क) चूणि, पृ० १५८ : जात्यन्धं णेतारं । (ख) वृत्ति, पत्र १६० : अपरं जात्यन्धमेव नेतारम् । २. चूणि, पृ० १५८ : यथा जात्यन्धो जात्यन्धं णेतारमणुस्सरंतो,... ''उन्मार्ग प्राप्य विषम-प्रपाता-हि-कण्टक-व्यालाऽग्निउपद्रवानासा दयति, क्लेशमृच्छति, न चेष्टां भूमिमवाप्नोति । ३. वृत्ति, पत्र १६०। ४. चूणि, पृ० १५८ : उदाहरंति नाम भासंति । ५. वृत्ति, पत्र १६० : उदाहरन्ति प्रतिपादयन्ति । ६. (क) चूणि, पृ० १५८ : कुकम्मी णाम घटकाराः कूटकारा वणदाहा वल्लरवाहकाः । (ख) वृत्ति, पत्र १६० : कुकर्मिणाम् अङ्गारदाहककुम्म कारायस्करादीनाम् । ७. (क) चूणि पृ० १५६ : तस्तैर्दुःख विशेषेर्धातयतीति घातः संसारः। (ख) वृत्ति, पत्र १६१: धात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः स घातः-संसारः। ८. (क) चूणि, पृ० १५६ : विज्जं णाम विद्वान् .. "विज्जं विज्जा णाम णाणं । (ख) वृत्ति, पत्र १६१: विज्जं विद्वान् ......."विज्ज विद्यां ज्ञानम् । Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ७: टिप्पण ७१-७४ ७१. (भूतेहिं जाण पडिलेह सात...........तसथावरेहि) इसका अर्थ है--- त्रस और स्थावर प्राणियों में सुख की अभिलाषा होती है, इसे जाने। चूणिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। एकेन्द्रिय आदि जीवों को जानने वाला ज्ञाता सब जीवों को अपनी आत्मा के तुल्य समझे और उनके सुख-दुःख की प्रतिलेखना करे । वह यह जाने कि जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है । इसके आधार पर जो अपने लिए प्रिय नहीं है, वह दूसरों के लिए न करे । यही सम्यग् प्रतिलेखना है।' वृत्तिकार की व्याख्या इस प्रकार है---- बह विवेकी मनुष्य यथार्थ को जानकर यह विचार करे कि अस और स्थावर जीव सुख कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? इसका आशय यह है कि सभी प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय । सुखाभिलाषी प्राणियों को दुःख देने से कभी सुख नहीं मिलता। आयारो २०५२ में भी यही पद प्रयुक्त है-भूएहिं जाण पडिलेह सातं । वहां हमने इसका अर्थ इस प्रकार किया है---तू जीवों (के कर्म बंध और कर्म विपाक को) जान और उनके सुख (दुःख) को देख । ये व्याख्याएं भिन्न-भिन्न हैं किन्तु इनके तात्पर्यार्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जो पुरुष यह जान लेता है कि सभी प्राणियों में सुख की आकांक्षा होती है, वह फिर किसी प्राणी को कष्ट नहीं दे सकता । यही इसका प्रतिपाद्य है। श्लोक २० : ७२. अपने कर्मों से बंधे हुए (कम्मी) चूर्णिकार ने इसका अर्थ कर्म वाले और वृत्तिकार ने 'पापी' किया है।' ७३. आत्मगुप्त भिक्ष (आयगुत्ते) चूणिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं -(१) आत्मा में गुप्त, (२) स्वयं गुप्त (३) मन, वचन और शरीर से गुप्त । मन, वचन और शरीर में आत्मा का उपचार कर इन्हें भी आत्मा कहा जाता है। वृत्तिकार ने मन, वचन और काया से गुप्त व्यक्ति को आत्मगुप्त माना है।' ७४. त्रस जीवों को ......... संयम करे (दलृ तसे य प्पडिसाहरेज्जा) चुणिकार ने इसके द्वारा ईर्या समिति का ग्रहण किया है। मुनि चलते समय ईा समिति का ध्यान रखे। वह बस या स्थावर प्राणियों को देखकर संयम करे, अपने शरीर का संकुचन या प्रसारण करे। वृत्तिकार का अर्थ सर्वथा भिन्न है-मुनि त्रस या स्थावर प्राणियों को जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाए। १. चूणि, पृ० १५६ : भूतानि एकेन्द्रियादीनि, जानीत इति जानकः, स जानको अत्तोवमेण भूतेसु सातऽसातं पडिलेहेहि, 'जध मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वसत्ताणं ।' (दश० ति० गा० १५६) एवं मत्वा यदात्मनो न प्रियं तद् भूतानां न करोति । २. वृत्ति, पत्र १६१ : सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्त्वं गृहीत्वा बसस्थावर तैः-जन्तुभिः कथं साम्प्रतं-सुखमवाप्यत इत्येतत् प्रत्युपेक्ष जानीहि-अवबुझ्यस्व, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विषो, न च तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पाद कत्वेन सुखावाप्तिभवतीति । ३. आयारो, पृ०८१। ४, चूणि, पृ० १५६ : कर्माण्येषां सन्तीतिः कर्मिणः । (ख) वृत्ति, पत्र १६१ : कर्माण्येषां सन्तीति कमिणः-सपापा इत्यर्थः । ५. चूणि, पृ० १५६ : आतगुत्तो णाम आरमसुगुतः स्वयं वा गुप्तः काय-वाङ्-मन:स्वात्मोपचारं कृत्वाऽपदिश्यते आतगुत्ते ति । ६. वृत्ति, पत्र १६१ : आत्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनोवाक्कायगुप्त इत्यर्थः । ७. चूणि, पृ० १५६ : पडिसाहरेज्ज त्ति इरियासमिती गहिता, अतिक्कमे संकुचए पसारए। ८. वृत्ति, पत्र १६१: दृष्ट्वा च बसान् चशब्दात् स्थावरांश्च दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपधातकारिणी क्रियां 'प्रतिसंहरेत्' निवर्तयेदिति । Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगड १ ३४७ श्लोक २१: ७५. मिक्षा से प्राप्त (धम्मलई) इसका अर्थ है - भिक्षा, माधुकरी वृत्ति से प्राप्त भोजन । वह भोजन जो औदोशिक, क्रीतकृत आदि बयालीस दोषों से मुक्त तथा मुधालब्ध हो किसी आशंसा से प्राप्त न हो । ' ७६. अन्न का संचय कर (विनिहाय) मुनि भोजन आदि का संचय न करे। आज मेरे उपवास आदि तपस्या है, मैं भोजन कर चुका हूं या आज मैं स्वस्थ नहीं हूं ऐसा सोचकर मुनि दूसरे दिन के लिए भोजन का संचयन करे। ७७. निर्जीव जल से (वियडेण ) 'विराट' इसके तीन संस्कृत रूप किए जाते हैं विकट, विकृत और विगत चूर्णिकार ने विगत का अर्थ निर्जीव किया है।' इसका प्रयोग शीतोदक और उष्णोदक दोनों के साथ होता है-सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा । अगले श्लोक में चूर्णिकार ने इसका अर्थ तन्दुलोदक आदि किया है।" वृत्तिकार ने सौवीरादि जल किया है ।" वास्तव में इसका प्रयोग 'पानक' के अर्थ में होता है । उस युग में नाना प्रकार के पानक या पने तैयार किए जाते थे । वे निर्जीव होते थे । ७८. (लूस व यत्थं) ७६. नाग्न्य ( श्रामण्य) से ( णागणियस्स) इसका अर्थ है - कपड़ों को फाड़कर छोटे और सांध कर बड़े करना या सीना । ' अध्ययन ७ : टिप्पण ७५-८० नाग्न्य का अर्थ है - श्रामण्य, निर्ग्रन्थ भाव या संयमानुष्ठान ।" श्लोक २२ : ८०. मृत्यु पर्यन्त ( आदिमोक्खं ) आदि का अर्थ है संसार और मोक्ष का अर्थ है- मुक्ति । संसार से मुक्त होने तक यह इसका अर्थ है । इसका वैकल्पिक अर्थ है- शरीर धारण करने तक, यावज्जीवन । " १. (क) पूर्ण. पृ० १५, बुधालत्यमित्यर्थः, बाताली सदोषपरिसुद्ध (ख) वृत्ति, पत्र १६२ : धर्मेण मुधिकथा लब्धं धर्मलब्धं उद्देशक क्रीतकृदादिदोषरहितमित्यर्थः । २. चूर्ण, पृ० १५६ : निधायेति सन्निधि कृत्वा तं पुण अमत्तच्छंदुवरितं प्रत्तसेसं वा 'अन्मतट्ठो वा मे अज्ज' एवमादीहि कारणेहि सनिधि का जति । ३. चूर्णि, पृ० १५६ : विगतमिति विगतजीवं । ४. चूषि, पृ० १६० ५. वृत्ति पत्र १६२ ६. (क) चूणि, पृ० १५६ : लूसपति णाम जो छिन्दति, छिदितुं वा पुणे संधेति वा सिव्वति वा । (ख) वृत्ति, पत्र १६२ : लूषयति शोभार्थं दीर्घमुत्पाटयित्वा ह्रस्वं करोति ह्रस्वं वा सन्धाय दीर्घं करोति एवं लूषयति । ७. (क) चूणि, पृ० १५६ : नग्नभवो हि गंगणिगा स्यात् । (ख) वृत्ति, पत्र ८. (क) चूर्णि, पृ० (ख) वृति पत्र गिगादि । विकटेन प्रामुकोदकेन सौवीरादिना । १६२ : नागणियस्स ति निर्ग्रन्यभावस्य संयमानुष्ठानस्य । १६० : आदिमोक्खो आदिरिति संसार:, स यावन्न मुक्तः ततो वा मुक्तः यावद्वा शरीरं ध्रियते तावत् । १६२ आदि संसारस्तस्मात् मोक्ष आदिमोक्षः (तं) संसारविमुक्तिं यावदिति, धर्मकारणवादितं शरीरं सद्विमुक्तिं यावत् बावन्नीयमित्यर्थः । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३४८ अध्ययन ७ : टिप्पण ८१-८५ चूणि और वृत्ति का उक्त अर्थ बुद्धिगम्य नहीं है । तात्पर्यार्थ में जो यावज्जीवन का अर्थ किया है वह उचित है। किन्तु 'आदि' का अर्थ संसार किया गया है, यह यहां प्रासंगिक नहीं लगता । वास्तव में यहां 'आविमोक्खं' पाठ होना चाहिए। उसका अर्थ होगा--प्राणविमोक्ष तक अर्थात् जीवनपर्यन्त । लिपि के संक्रमण-काल में 'वि' के स्थान पर 'दि' लिखा गया प्रतीत होता है। श्लोक २४ : ८१. पेट भरने के लिए धर्म का आख्यान करता है (आधाइ धम्म उदराणुगिद्धे) भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि घर में प्रविष्ट होकर गृहस्थों की रुचि के अनुकूल धर्म कहता है, वह अपना पेट भरने के लिए आसक्त होता है । इसका तात्पर्य यह है कि जो पेट भरने में आसक्त है वह दान में श्रद्धा रखने वाले घरों में जाकर, केवल स्वादु भोजन की प्राप्ति के लिए धर्मकथा करता है। धर्मकथा करने का उसका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता।' ८२. वह आर्य श्रमणों की ... 'हीन होता है (से आरियाणं गुणाणं सतंसे) बैसा मुनि आर्य-श्रमणों की गुण-संपदा के सौवें भाग में होता है--यह इसका शब्दार्थ है । सूत्रकार का आशय है कि वह मुनि चारित्र-संपन्न आर्य (आचार्य) के गुणों से शतगुना हीन होता है। प्रस्तुत पद में 'शत' शब्द उपलक्षण मात्र है । उसका भावार्थ है कि वैसा मुनि हजारगुना या उससे भी अधिक हीन होता है।' श्लोक २५ : ८३. गृहस्थ (पर) यहां 'पर' का अर्थ है-गृहस्थ । वृत्तिकार ने 'पर' का अर्थ 'अन्य' किया है।' ५४. दाता की प्रशंसा करते हैं (मुहमंगलिओदरियं) ये दो शब्द हैं –'मुहमंगलिओ' और 'ओदरियं' । यहां द्विपद में संधि होकर 'मुहमंगलिओदरियं' शब्द निष्पन्न हुआ है। जो जिह्वा के वशीभूत होकर, स्वादु भोजन की प्राप्ति के लिए अपने मुख से भाट की तरह गृहस्थ की प्रशंसा करता है वह 'मखमांगलिक' है। वह कहता है-आप ऐसे हैं, आप वैसे हैं । आप वही हैं जिनके गुण दशों दिशाओं में फैले हुए हैं । इतने समय तक तो मैं कथाओं में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन पढ़ता था, किन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष ही आपको देख लिया।' 'ओदरियं' का अर्थ है-अन्नपान, भोजन।" ८५. चारे के लोभी (णीवारगिद्धे) चर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'नीकार' दिया है । मूंग और उड़द के मिश्रण से बनाए गए भोजन को 'नीवार' कहा है । यह सूअर का प्रिय भोजन है । सूअर 'नीवार' के भोजन में इतना आसक्त हो जाता है कि वह अपने शिकारी को देखकर भी १. (क) चूणि, पृ० १६० ।। (ख) वृत्ति, पत्र १६३ । २. (क) चूणि, पृ० १६० : आरिया चरित्तारिया तेति सहस्समाए सो वट्टति सहस्सगुणपरिहीणो । ततो य हेतृतरेण । (ख) वृत्ति, पत्र १६३ : अयासावाचार्यगुणानामार्यगुणानां वा शतांशे वर्तते शतग्रहणमुपलक्षणं सहस्रांशादेरप्यधो वर्तते इति । ३ वृत्ति, पत्र १६३ : परभोजने पराहारविषये । ४. वृत्ति, पत्र १६३ : मुखमाङ्गलिको भवति मुखेन मङ्गलानि-प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्त्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति, उक्तं 'सो एसो जस्स गुणा वियरंतनिवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुच्चसि पच्चक्खं अज्ज विट्ठोऽसि ॥' ५. चूणि, पृ० १५६ : औदरिकम् -अन्न-पानमित्यर्थः । Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३४६ अध्ययन ७: टिप्पण ८६-८६ 'नीवार' को नहीं छोड़ता, फिर चाहे शिकारी उसके सींग ही क्यों न उखाड़ ले, या उसे मार ही क्यों न डाले।' नीकार का वैकल्पिक अर्थ है-कांगनी, मूग, उड़द आदि धान्य ।' देखें-३३३६ का टिप्पण। श्लोक २६ : ८६. इहलौकिक (इहलोइयस्स) अन्न, पान इहलौकिक पदार्थ हैं । वे शरीर-पोषण के साधन-मात्र हैं। वे मोक्ष के लिए नहीं होते।' ८७. प्रिय वचन बोलता है (अणुप्पियं भासति) ___ इसका अर्थ है-जिसको जो प्रिय हो, वैसा बोलना । जैसे राजा का सेवक या उसकी हां में हां मिलाने वाला व्यक्ति राजा के वचन के पीछे-पीछे बोलता है।' चूणिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वह मुनि अन्न-पान की प्राप्ति के लिए दाता के समक्ष प्रिय बोलता है-- अरे, इस लड़की का विवाह क्यों नहीं कर देते ? इस बैल का दमन क्यों नहीं करते? इसे प्रशिक्षित क्यों नहीं करते ?" ८८. पार्श्वस्थता (पासत्थयं) दिगंबर ग्रंथों में 'पार्श्वस्थ' का स्वरूप इस प्रकार है जो दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और तपविनय से दूर रहता है और जो गुणी व्यक्तियों के छिद्र देखता रहता है, वह पार्श्वस्थ है । वह वन्दनीय नहीं होता। 'जो संयम का निरतिचार पालन नहीं करता, जो दोषयुक्त भोजन ग्रहण करता है, जो एक ही क्षेत्र और वसति में रहता है, जो नमक, घी आदि का संग्रह करता है, वह पार्श्वस्थ है।" देखें-११३२ का टिप्पण। ८९. कुशीलता (कुसीलयं) मूल तथा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला निर्ग्रन्थ कुशील कहलाता है । उसका चारित्र कुछ-कुछ मलिन हो जाता है। उसके प्रमुख दो प्रकार हैं ---प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील । इन दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं - १. ज्ञानकुशील ४. लिंगकुशील २. दर्शनकुशील ५. यथासूक्ष्मकुशील । ३. चारित्रकुशील १. चूणि, पृ० १६१ : वरादाहन्तीति वराहः, वरा भूमी, स उद्वत्तविषाणोऽपि भूत्वा अन्यान् पुरतोऽपि हन्यमानान् दृष्ट्वा तन नीकारे गृद्धो न पश्यति । २. चूणि, पृ० १६१ : अधवा निकारो नाम सस्यानि रालक-मुद्ग-माषादीनि । ३ चूणि, पृ० १६१ : इहलौकिकानि हि अन्न-पानानि, न मोक्खाय, तेषामैहिकानामन्नपानानां हेतुरिति वाक्यशेषः । ४ वृत्ति, पत्र १६३ : अनुप्रियं भाषते यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनु–पश्चाद्धाषते अनुभाषते, प्रतिशब्दकवत् सेवकवद्वा राजाद्य क्तमनु वदतीत्यर्थः । ५.चूणि, पृ० १६१: अनुप्रियाणि भाषते-एस वारिगा कीस ण दिज्जह? गोणे कि ण दम्मइ ? एवमादि । ६. मूलाचार, गाथा ५९४ : सणणाणचारित्ततवविणए, णिच्चकाल पासस्था । एदे अवदणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधराणाम् ॥ ७. भगवती आराधना, गाथा १७२२,१७२३, विजयोदया वृत्ति । ८. ठाणं ५।१८७, पृ० ६४२, टिप्पण १०६ : कुसीले पंचविधे पण्ण, तं जहा-णाणकुसोले, दसणकुसीले, चरित्तकुसोले, लिंगकुसीले, आहासुहुमकुसीले णाम १ चमे । Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३५० प्रध्ययन ७:टिप्पण 8०-१२ दिगंबर परंपरा के अनुसार कुशील निर्ग्रन्थ वह है जो इन्द्रियों और कषायों का वशवर्ती होकर संयम मार्ग को छोड़, उत्पथगामी हो जाता है। जो क्रोध आदि कषायों से कलुषित है, जो व्रत, गुण और शील से रहित है, जो संघ का अविनय करता है, वह कुशील कहलाता है। जो मुनि मूल गुणों का यथावत् पालन करता है, परंतु उत्तरगुणों की कुछ विराधना करता है, वह प्रतिसेवना कुशील है। जो मुनि कषायों के सभी प्रकार के उदयों को वश में कर लेता है किन्तु संज्वलन कषाय के अधीन होता है वह कषाय कुशील कहलाता है। चर्णिकार ने पार्श्वस्थ और कुशील मुनि को चारित्रगुण से हीन केवल वेशधारी मुनि माना है।' ९०. सेवन करता है (सेवमान) चुणिकार ने इसका अर्थ वाणी से तथा आगमन-गमन से सेवन करना और वृत्तिकार ने दाता की सेवा करना किया है।' 'सेवमान' का संबंध तीसरे चरण में प्रयुक्त 'पासत्थयं' और 'कुसीलयं' के साथ उचित लगता है। इस औचित्य के आधार पर हमने इसका संबंध उन दोनों शब्दों से जोड़ा है। चूर्णिकार ने तीसरे चरण की भावनापूर्ति के लिए 'प्राप्य' का अध्याहार करने की बात कही है। वृत्तिकार ने 'पार्श्वस्थभावमेव व्रजति, कुशीलतां च गच्छति'- इस प्रकार क्रियाओं का अध्याहार कर अर्थ किया है । इसके बदले यदि 'सेवमान' को इन दोनों पदों (पार्श्वस्थ और कुशील) के साथ जोड़ कर अर्थ करते हैं तो अर्थ की संगति बैठ जाती है। ६१. पुआल (पुलाए) धान्यकण जो कीड़ों द्वारा खा लिए जाने पर निस्सार हो गया हो, जो केवल तुषमात्र बचा हो, वह पुआल (पुलाक) कहलाता हलायुध कोश तथा आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी में पुलाक का अर्थ निस्सार धान्य किया है। मनुस्मृति १०११२५ में भी यहीं अर्थ है। श्लोक २७: १२. अज्ञातपिंड की एषणा करे (अण्णायपिंडेण) अज्ञातपिंड का संबंध आहार की एषणा से है। चूणिकार ने इसके दो लक्षण यहां बतलाए हैं-१. आहार की एषणा के लिए अपना परिचय न देना, अपने आपको अज्ञात रखना और (२) याचक की भांति दीनता प्रदर्शित न करना । ये दोनों 'अज्ञात' पद द्वारा सूचित हैं । इस अज्ञात अवस्था में लिया जाने वाला आहार 'अज्ञातपिंड' कहलाता है। देखें-दसवेआलियं ६।३।४ का टिप्पण । १. भावपाहुड, गाथा १४, टीका पृ० १३७ : क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलः परिहीनः संघस्याविनयकारी कुशील उच्यते । २. सर्वार्थसिद्धि, ६।४७, पृ० ४६१ : प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेष कांचिद् विराधनां प्रतिसेवते । ३. वही, ६।४६, पृ० ४६ ० : वशीकृतान्यकषायोदयाः संज्वलनमानतन्त्राः कषाय कुशीलाः । ४. चूणि, पृ० १६१ : केवलं लिङ्गावशेषः चारित्रगुणबञ्चितः : ५. चूणि, पृ० १६१ : सेवमान इति वायाए सेबति आगमण-गमणादीहि य । ६. वृत्ति, पत्र १६३ : तमेव दातारमनुसेवमानः । ७. चूणि, पृ० १६१ : प्राप्येति वाक्यशेषः । ८. वृत्ति, पत्र १६३ । ६. चूणि, पृ० १६१ : पुलाए जधा धण्णं कीडएहि णिप्फोलितं णिस्सारं भवति केवलं तुषमात्रावशेषम् । Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ३५१ अध्ययन ७ टिप्पण ६३-६७ चूर्णिकार का अभिमत है कि जो व्यक्ति अज्ञातपिंड की एषणा करता है वह निश्चित ही अन्न-पान के विषय में अनासक्त होता है । " ६३. (आहार न मिलने पर भूख को ) सहन करे ( अहियास एज्जा ) इसका अर्थ है - सहन करना । प्रसंगवश इस शब्द का तात्पर्य है- आहार न मिलने पर मुनि भूख को सहन करे । वृत्तिकार ने इसका अर्थ - जीवन निर्वाह करे - दिया है । अन्तप्रान्त आहार मिलने या न मिलने पर मुनि दीन न बने और श्रेष्ठ आहार मिलने पर मद न करे । ४. तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे ( णो पूयणं तवसा आवहेज्जा ) तपस्या से पूजा पाने की अभिलाषा न करे । इसका तात्पर्य है कि साधक मनुष्य पूजा या सत्कार के निमित्त तपस्या न करे । तप मुक्ति का हेतु है । पूजा सत्कार या इसी प्रकार की दूसरी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उसका उपयोग न करे। जो पूजा-सत्कार के निमित्त तपस्या करता है वह तत्त्व का अजान है। कहा भी है 'परं लोकाधिक धाम तयः प्रतमिति प्रथम सदेवा चित्वनितसारं वायते। लोक में दो उत्तम स्थान हैं- तप और श्रुत। ये दो ही श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति के हेतु हैं। यदि इनसे पौगलिक सुख की आकांक्षा की जाती है तो ये तृण के टुकड़े की भांति निःसार हो जाते हैं।" ५. (सद्देहि रूवेहि ) प्रस्तुत दो चरणों में शब्द रूप तथा अन्य सभी इन्द्रिय-विषयों को छोड़ने का निर्देश है । वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में पांच श्लोकों का निर्देश किया है ।" ६. संसर्गों को ( संगाई ) संग का अर्थ है—आसक्तभाव । संसर्ग दो प्रकार के होते हैं - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य संसर्ग के विषय हैं-पदार्थ । आभ्यन्तर संसर्ग है-स्नेह, ममता आदि आदि । चूर्णिकार ने संग का अर्थ प्राणातिपात आदि अठारह पाप किया है।" श्लोक २८ : ७. ( गुणों की उत्पत्ति के लिए) उर्वर (अखिले) चूर्णिकार ने अखिल पद के दो अर्थ किए हैं-संपूर्ण उर्वर मुनि को समस्त गुणों में प्रवृत्त होना चाहिए, इसलिए उसे अखिल कहा गया है । इसका दूसरा अर्थ है- उर्वर । खिल का अर्थ है- ऊपर भूमि, जहां कुछ भी निष्पन्न नहीं होता । जो 'खिल' १. चूर्ण, पृ० १६१ : ण संथव - वणीमगादीहिं अण्णातउंछं एसति, अधियासणा अलंममाणे.. ......जो हि अण्णार्यापडं एसए सो नियमा अणाणुगिद्धो । २. चूर्ण, पृ० १६१ : अधिवासना अलंभमाणे । ३. वृत्ति, पत्र १६४ : 'अधिसहेत्' वर्तयेत् पालयेत, एतदुक्तं भवति--अन्तप्रान्तेन लब्धेनालब्धेन वा न दैन्यं कुर्यात्, नाप्युत्कृष्टेन मदं विदध्यात् । , ४. पत्र १४ नापि तपसा पूजनसरकारमावहेत्, न जनसरकारनिमितं तब कुर्यादित्यर्थः यदि वा पूजासत्कारनिि विद्याविनया महता तो मुनिःसारं कुर्यात् तदुक्तम्परं लोकाधि... ********* ५. वृत्ति, पत्र १६४ । ६. वृति पत्र १६४''संधान्तरान् स्नेहलतान् बाह्यरचयपरिलक्षणान् । ७. चूर्ण, पृ० १६२ : सङ्गा प्राणिवधादय: जाव मिच्छादंसणं ति । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ नहीं है वह है 'अति' अर्थात् उर्वर भूमि।" ३५२ वृत्तिकार ने इसका अर्थ- ज्ञान, दर्शन और चारित्र से परिपूर्ण किया हैं । " श्लोक २६ : EE. पाप का विवेक (पृथक्करण) (पावस्स विवेग ) ८. भार को वहन करने के लिए (भारस्स जाता ) इसका अर्थ है- भार की यात्रा के लिए अर्थात् संयम भार को वहन करने के लिए । चूर्णिकार ने भार का अर्थ - संयमभार और यात्रा का अर्थ- संयम यात्रा किया है। संयम भार को वहन करने के लिए तथा संयम यात्रा के लिए - यह इसका संयुक्तार्थ है । " वृत्तिकार ने इसका अर्थ- - पांच महाव्रत के भार को वहन करने के लिए किया है। अध्ययन ७ टिप्पण ६८-१०३ यहां 'विवेग' विभक्ति रहित पद है । यह छन्द की दृष्टि से किया गया है । विवेक का अर्थ है- पृथक्करण, विनाश ।" पाप का पृथक्करण करना, पाप को अलग करना । चूर्णिकार ने 'पाप' के दो अर्थ किए हैं— कर्म और शरीर । शरीर को पाप मानने के दो हेतु हैं- कृतघ्नता और अशुचिता । " १००. शान्त (धुयं ) चूर्णिकार ने 'धुत' के पांच अर्थ किए हैं- वैराग्य, चारित्र, उपशम, संयम और ज्ञान । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयम और मोक्ष ।' १०१. रहे (आइएन्जा) इसका अर्थ है - ग्रहण करना, स्वीकार करना । दुःखों से स्पृष्ट होने पर मुनि 'धुत' को ग्रहण करे अर्धात् धुत के द्वारा (वैराग्य या उपशमन के द्वारा) दुःखों पर विजय प्राप्त करे । इसका प्रसंगोपात्त अर्थ है– (शान्त) रहे । १०२. कामनाओं का (परं) यहां 'पर' शब्द कामनाओं का वाचक है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ शत्रु किया है।" श्लोक ३० : १०३. दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति ( फलगावतट्टी) इसमें दो शब्द हैं- फलग और अवतट्ठी । इनका अर्थ है- दोनों ओर से छीले गए फलक की भांति । १. चूर्ण, पृ० १६१ : अखिलो णाम अखिलेसु गुणेसु वत्तितव्यम् अथवा खिलमिति यत्र किञ्चिदपि न प्रसूते ऊषरमित्यर्थः । २. वृति १६४ अखिल ज्ञानदर्शनयारिः सम्पूर्णः । ३. चूर्ण, पृ० १६२ : भारो नाम संयमभारो । जाताए त्ति संयमजातामाताणिमित्तं संजमभारवहणट्ठताए । ४. वृत्ति, पत्र १६४ : संयमभारस्य यात्रार्थं पञ्चमहाव्रतभार निर्वाहणार्थम् । ५. वृति पत्र १६४ विवेकं पृथग्भावं विनाशम् । ६. चूर्ण, पृ० १६२: पावं नाम कम्मं, त्रिवेगो विनाश इत्यर्थः सर्वविवेको मोक्षः, एसो देसविवेगो । अधवा पापमिति शरीरम् कृतघ्न त्वादचित्वाच्च । ७. चूर्ण, पृ० १६२ : धुअं वैराग्यं चारित्रं उपशमो वा संजमो णाणादि वा । ८. वृत्ति पत्र १६४ : धूतं संयमं मोक्षं वा । ६. चूर्ण, पृ० १६२ : आदिएज्ज सि तमादद्यात् तेन तेषां जयं कुर्यादित्यर्थः । १०. वृत्ति, पत्र १६४ : परं शत्रुम्। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ३५३ अध्ययन ७: टिप्पण १०४-१०५ चूर्णिकार ने इसका आशय स्पष्ट करते हुए कहा है कि मुनि सहनशील रहे। कोई उसे काठ की भांति छील कर, उस पर नमक का लेप करे अथवा घावों पर नमक छिड़के, फिर भी वह द्वेष न करे, समभाव रखे।' वृत्तिकार का आशय भिन्न है । काठ को दोनों ओर से छीलने पर ही वह पतला होता है, उसी प्रकार मुनि भी बाह्य और आभ्यन्तर तप से अपने शरीर को कृश करे।' यहां शरीर और कषाय- दोनों को कृश करने की बात प्राप्त होती है। आयारो ६।११३ में भी 'फलगावयठुि' शब्द का योग हुआ है। इसका अर्थ है-बाह्य और आन्तरिक तप के द्वारा फलक की भांति शरीर और कषाय-दोनों ओर से कृश बना हुआ मुनि......... ।' १०४. काल के (अंतगस्स) अंतक का अर्थ है- मृत्यु, शरीर का अन्त करने वाला ।' चूर्णिकार ने इसका मुख्य अर्थ मोक्ष और वैकल्पिक अर्थ-मृत्यु किया है।" १०५. प्रपंच (जन्म-मरण) में......जाता (पवंचुवेइ) यहां दो पदों में संधि की गई है-पवंचं+उवेइ । प्रपंच का अर्थ है-जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, दुःख, दौर्मनस्य, रोग, शोक आदि ।' १. चूणि, पृ० १६२ : यद्यप्यसौ परीसहैहन्येत अर्जुनकवत् अथवा फलकवदवकृष्ट : क्षारेणालिप्येत सिच्येत वा तथापि अप्रदुष्टः । २. वृति, पत्र १६४ : फलक वदपकृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पार्वाभ्यां तष्टं-घट्टितं सत्तनु भवति अरक्तद्विष्टं वा संभवत्येवमसावपि साधुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा निष्टप्तदेहतनु:-दुर्बलशरीरोऽरक्तद्विष्टश्च । ३ आयारो, पृ०२५५। ४. वृत्ति, पत्र १६४ : अन्तकस्य मृत्योः । ५. चूणि, पृ० १६२ : अन्तको नाम मोक्षः अथवा अन्तं करोतीति अन्तकः । ६ (क) वही, पृष्ठ १६२ : प्रवंच जाति-जरा-मरण-दुःख-दौमनस्यादिनटवदनेकप्रकार: संसार एव प्रपञ्चकः । (ख) वृत्ति, पत्र १६५ : प्रपञ्च जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपञ्च्यते बहधा नटवद्यस्मिन् स प्रपञ्चः-संसारः । Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयरणं वोरियं प्राठवां अध्ययन वीर्य Jain Education Intemational Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'वीर्य' है । यह वर्ण्य-विषय के आधार पर किया गया नामकरण है । इसमें सभी प्रकार के वीयोंशक्तियों का वर्णन है । चेतन भी वीर्यवान् होता है और अचेतन भी वीर्यवान् होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चेतन और अचेतन में शक्तियां अभिव्यक्त होती हैं, न्यूनाधिक होती हैं । चौदह पूर्वो में तीसरा पूर्व है- वीर्यप्रवाद । इसमें विभिन्न वीर्यों का विस्तार से वर्णन है । पूर्वो में वर्णित ज्ञानराशि को उपमा द्वारा समझाया गया है 'सव्व णईणं जा होज्ज बालुआ गणणमागया सन्ती। तत्तो बहुयतरागो अत्थो एगस्स पुश्वस्स ।।' 'सव्व समुद्दाणजलं जइपत्थमियं हविज्ज संकलियं । एत्तो बहुयतरागो अत्यो एगस्स पुवस्स ॥' -सभी नदियों के बालुकणों की जो संख्या है उससे भी बहुत अधिक अर्थवाला होता है एक पूर्व । -सभी समुद्रों के पानी का जितना परिमाण होता है उससे भी अधिक अर्थ वाला होता है एक पूर्व । प्रस्तुत अध्ययन में सताईस श्लोक हैं । उनका विषय वर्गीकरण इस प्रकार है - श्लोक १-२ कर्म वीर्य है। ३ प्रमाद वीर्य है। ४-६ बालवीर्य का विवेचन । १०-२२ पंडित वीर्य का विवेचन । २३ अबुद्ध का पराक्रम । २४-२७ बुद्ध का पराक्रम । इनमें मुख्यतः पंडितवीर्य, बालवीर्य और बालपंडित-वीर्य का प्रतिपादन है । वीर्य का अर्थ है-शक्ति, बल । उसके तीन प्रकार हैं-सचित्त वीर्य, अचित्त वीर्य और मिश्र वोर्य । सचित्त वीर्य तीन प्रकार का है१. मनुष्यों का-अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य । २. पशुओं का-हाथी, घोडा, सिंह, व्याघ्र, वराह, अष्टापद आदि का वीर्य । जैसे भेड़िया उछलकर भेड़ को मार डालता है वैसे ही अष्टापद उछलकर हाथी को मार डालता है। यह अष्टापद की शक्ति है। ३. निर्जीव पदार्थों का-जैसे गोशीर्षचन्दन का लेप ग्रीष्मकाल में दाह का नाश करता है और शीतकाल में शीत का नाश करता है। जैसे रत्नकंबल शीतकाल में गरम होती है और गरमी में ठंडक पैदा करती है। जैसे चक्रवर्ती का गर्भगृह (अन्डरग्राउन्ड) शीतकाल में गरम और ग्रीष्म में ठंडा होता है ।' १. (क) चूणि, पृ० १६५ । (ख) वृत्ति, पत्र १६७ । २. चूणि, पृ० १६३ : चतुष्पदाणं तु अस्सरयण-हत्थिरयण-सीह-वग्घ-वराह-सरमादीण, सरभो किल हस्तिनमपि वृक इव औरणकं उक्खि विऊण अ वज्यति । ३. (क) चूणि, पृ० १६३ : गोसीसचंदणस्स उण्ह काले डाहं णासेति, तधा कंबलरयणस्स सीयकाले सीतं उसिणकाले उण्हा णासेति, तधा चक्कवट्टिस्स गन्मगिहं सोते उण्हं उण्हे सीतं । (ख) वृत्ति, पत्र १६५ : तथाऽपदानां गोशीर्षचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णकालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ८:प्रामुख (ख): अचित्त वीर्य) आहार, स्निग्ध पदार्थ, भक्ष्य और भोज्य पदार्थों की शक्ति को अचित्त वीर्य कहा जाता है। इसी प्रकार कवच आदि आवरणों का तथा अन्यान्य शस्त्रों की शक्ति भी अचित्त वीर्य कहलाती है । आहार में काम आने वाले पदार्थों की शक्ति भिन्न-भिन्न होती है। जैसे घेवर प्राणों को उत्तेजित करने वाला, हृदय को प्रसन्न करने वाला और कफ का नाशक होता है। इसी प्रकार औषधियों की भी अपनी-अपनी शक्ति होती है । शल्य को निकालने, घाव भरने, विष के प्रभाव को दूर करने, बुद्धि को वृद्धिंगत करने-ये भिन्न-भिन्न औषधियों की शक्तियां हैं। कुछ विषघाती द्रव्य ऐसे होते हैं जिनको सूंघने मात्र से विष निकल जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जिनका लेप करने से विष दूर होता है । कुछ के आस्वाद मात्र से विष नष्ट हो जाता है। एक द्रव्य ऐसा होता है जिसकी सरसों जितनी गुटिका रोएं को उखाड़कर उस स्थान में लगाने से, वह विष को सारे शरीर में फैला देती है या सारे शरीर के विष को निकाल देती है। एक द्रव्य ऐसा होता है जिसको खा लेने पर एक महीने तक भूख नहीं लगती, शक्ति की हानि भी नहीं होती। कुछ द्रव्यों के मिश्रण से बनी हुई बाती पानी से भी जल उठती हैं। कश्मीर आदि प्रदेशों में लोग कांजी से दीया जलाते हैं।" इस प्रकार विभिन्न द्रव्यों में चामत्कारिक शक्तियां होती हैं । उनका विवरण प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है-योनि प्राभृत ।' यह द्रव्य-वीर्य का कुछ विवरण है। इसी प्रकार क्षेत्र और काल वीर्य भी होता है । क्षेत्रवीर्य जैसे देवकुरु आदि क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले सभी द्रव्य विशिष्ट शक्ति-संपन्न होते हैं । दुर्ग आदि में स्थित पुरुष का उत्साह वृद्धिंगत होता रहता है। यह भी क्षेत्रवीर्य है। काल की भी अनन्त शक्ति होती है । जैसे सुषम-सुषमा या सुषमा काल में कालहेतुक बल विशिष्ट होता है । अथवा भिन्नभिन्न पदार्थों में कालहेतुक बल होता है। आयुर्वेद ग्रन्थों में भी काल के प्रभाव से होने वाली गुणवृद्धि का स्पष्ट उल्लेख है-- 'वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चापलकरसो घतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥' वर्षा ऋतु में नमक, शरद् ऋतु में पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़-ये अमृततुल्य हो जाते हैं। 'ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रण संयोजिता, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥ ग्रीष्म ऋतु में हरड़ बराबर गुड़ के साथ, वर्षा ऋतु में सैन्धव नमक के साथ, शरद् ऋतु में बराबर शक्कर के साथ, १. वृत्ति, पत्र १६५ : 'सद्यः प्राणकरा हुद्याः, धतपूर्णाः कफापहाः। २. चूणि, पृ० १६३ : तं विसल्लीकरणी पादलेवो मेधाकरणोओ य ओसधीओ। विसधातीणि य दव्वाणि गंध-आलेव-आस्वादमात्राच्च विषं णासन्ति । ३. वही, पृ० १६३ : सरिसवमेत्ताओ वा गुलियाओ वा लोमुक्खणणामेत्ते खेत्ते विषं गदो वा अगदो वा भवति । ४. वही, पृ० १६३ : अन्यद्रव्यमाहारितं मासेणापि किल क्षुधां न करोति न च बलग्लानिर्भवति । ५. वही, पृ० १६३ : किञ्च केषाञ्चिद् द्रव्याणां संयोगेन वत्ती आलिता उदकेनापि दीप्यते। कस्मीरादीषु च कालिकेनापि दीपको दीप्यते। ६. (क) चूणि, पृ० १६३ : योनिप्राभृतादिषु वा विभासितव्वं । (ख) वृत्ति, हत्र १६५ : तथा योनिप्राभृतकान्नानाविधं द्रव्यवीर्य द्रष्टव्यमिति । ७. (क) चूणि, पृ० १६३ । __ (ख) वृत्ति, पत्र २६६ । ८. वृत्ति, पत्र १६६ । Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३५ अध्ययन ८: प्रामुख हेमन्त ऋतु में सौंठ के साथ, शिशिर ऋतु में पीपल के साथ और वसन्त ऋतु में मधु के साथ सेवन करने से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। यह काल के आधार पर द्रव्यों में होने वाले सामर्थ्य का निदर्शन है। भाववीयं इसके तीन प्रकार हैं-औरस्य बल (शारीरिक बल), इन्द्रिय बल और अध्यात्म बल । (१) औरस्य बल इसके चार प्रकार हैं-मनोबल, वचनबल, कायबल और प्राणापानबल । मनोबल जैसा औरस्य वीर्य होता है वैसी ही मानसिक पुद्गलों के ग्रहण की शक्ति होती है। शरीर का संहनन जितना सुदृढ़ हाता है उतने ही शक्तिशाली मानसिक पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं। इसी प्रकार वचन, काय और आनापान बल भी संहनन की दृढ़ता के आधार पर होता है। इनके दो-दो प्रकार हैं-संभव और संभाव्य । संभव-तीर्थंकर और अनुत्तरविमानवासी देवों का मन बहुत पटु होता है। अवधिज्ञान से सम्पन्न अनुत्तरोपपातिक देव मन के द्वारा जो प्रश्न या शंका उपस्थित करते हैं, तीर्थकर उसका समाधान द्रव्य मन के द्वारा ही करते हैं क्योंकि उन देवों का सारा व्यापार मन से ही होता है। जो व्यक्ति बुद्धिमान् द्वारा कही गई बात को वर्तमान में समझने में असमर्थ है, किन्तु अभ्यास के द्वारा अपनी बुद्धि को पटु बनाकर वह भविष्य में उसे समझ लेगा, यह उसका संभाव्य वीर्य है। वचनबल इसके भी दो भेद हैं ---संभव और संभाव्य । तीर्थंकरों की वाणी एक योजन तक फैलती है और सभी सुनने वाले उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। इसी प्रकार क्षीरास्रवलब्धि, मध्वास्रवलब्धि आदि लब्धियों से संपन्न व्यक्तियों की वाणी बड़ी मीठी होती है। हंस, कोयल आदि पक्षियों का स्वर मीठा होता है। यह संभव वाचिक वीर्य है। यह संभावना की जाती है कि श्रावक का पुत्र बिना पढ़े-लिखे भी उचित बोलने योग्य अक्षर ही बोलेगा। शिक्षित किए जाने पर तोता-मैना आदि भी मनुष्य की बोली बोलने लगते हैं । यह संभाव्य वीर्य है। कायिक बल इसके भी दो भेद हैं-संभव और संभाव्य । चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का जो स्वाभाविक बाहुबल है वह संभववीर्य है । त्रिपृष्ठ वासुदेव ने बाएं हाथ की हथेली से करोड़ों मन की शिला उठा ली थी। एक ओर सोलह हजार राजाओं की सेनाओं के आदमी एक सांकल को खींचते हैं और दूसरी ओर वासुदेव खींचते हैं तो वासुदेव अपनी ओर सभी मनुष्यों को खींच लेते हैं। तीर्थकरों का कायवीर्य अपरिमित होता है। यह संभव कायवीर्य है। संभाव्य कायवोर्य तीर्थंकर लोक को अलोक में गेंद की भांति फेंक सकते हैं । वे मेरु पर्वत को दंडे की भांति ग्रहण कर पृथ्वी को छत्र की तरह धारण कर सकते हैं। कोई इन्द्र जंबूद्वीप को बाएं हाथ से छत्र की तरह तथा मेरु पर्वत को डंडे की तरह सहज ही उठा सकता है। यह संभव है कि यह लड़का बड़ा होकर इस शिला खंड को ऊपर उठाएगा, इस मल्ल के साथ लड़ेगा, हाथी को वश में Jain Education Intemational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ ३६० अध्ययन प्रामुख कर लेगा तथा घोड़े को दौड़ाएगा। २. इन्द्रिय-बल-इसके भी दो प्रकार हैं-संभव और संभाव्य । जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का संभव बल यह है कि वह बारह योजन तक के शब्द को सुन सकता है । इसी प्रकार शेष चारों इन्द्रियों का अपना-अपना संभव बल है। संभाव्य बल-जैसे किसी मनुष्य की इन्द्रियां नष्ट नहीं हुई हैं, किन्तु वह थका-मांदा है, क्रोधित है, प्यासा है, तो वह अपनी इन्द्रियों से विषयों को यथावत् ग्रहण नहीं कर पायेगा । ज्यों ही उसके ये दोष उपशान्त होंगे, वह पुनः विषय-ग्रहण में उपयुक्त हो जाएगा। ३. आध्यात्मिक बल-आन्तरिक शक्ति से या सत्त्व से उत्पन्न बल अध्यात्मिक बल है । उसके नौ प्रकार हैं १. उद्यम वीर्य-ज्ञान के उपार्जन में या तपस्या आदि के अनुष्ठान में किया जाने वाला उद्यम । २. धृति वीर्य-संयम में स्थिरता, चित्त की उपशान्त अवस्था । ३. धीरता वीर्य-कष्ट-सहिष्णुता । ४. शौंडीर्य वीर्य-त्याग की उत्कट भावना । छह खंडों के राज्य का त्याग करते हुए भी भरत चक्रवर्ती का मन कम्पित नहीं हुआ। यह त्याग का उत्कर्ष है । इसका दूसरा अर्थ है-आपत्ति में अखिन्न रहना। इसका तीसरा अर्थ है-विषम परिस्थिति आने पर भी, किसी आवेश की बाध्यता से नहीं किन्तु प्रसन्नता से 'यह मुझे करना है-इस दृष्टि से उस कार्य को पूरा करना । ५. क्षमावीर्य-दूसरे के द्वारा अपमानित होने पर भी क्षुब्ध न होना। ६. गाम्भीर्य वीर्य-कष्टों से पराजित न होना। इसका दूसरा अर्थ है-चमत्कारिक अनुष्ठान करके भी अहंभाव न लाना । 'चुल्लुच्छलेइ जं होइ ऊणय रित्तयं कणकणेइ । भरियाई ण खुम्भंती सुपुरिसविन्नाणभंडाई॥' जो घड़ा थोड़ा खाली होता है, वह छलकता है। जो घड़े पूर्ण रिक्त होते हैं वे आपस में संघट्टित होकर आवाज करते हैं । जो पूरे भरे होते हैं, वे कभी नहीं छलकते । ७. उपयोग वीर्य-चेतना का व्यापार करना । ज्ञेय पदार्थ को जानना और देखना। ८. योग वीर्य(क) मनोवीर्य- अकुशल मन का निरोध, कुशल मन का प्रवर्तन । मन को एकाग्र करना। मनोवीर्य से ही निर्ग्रन्थों के परिणाम वर्धमान और अवस्थित होने हैं। (ख) वाग्वीर्य-अपुनरुक्त तथा निरवद्य वाणी का प्रयोग । (ग) कायवीर्य-कछुए की भांति शरीर में अवयवों को समाहित कर निश्चल होना। ६. तपोवीर्य-यह बारह प्रकार की तपस्याओं के कारण बारह प्रकार का है। तदध्यवसित होकर तपस्या करना तपोवीर्य है । सतरह प्रकार के संयम में एकत्व आदि भावना से भावित होकर 'संयम में कोई अतिचार न लग जाए' इस प्रकार सावधानीपूर्वक जो संयम का पालन करता है, वह भी तपोवीर्य है। -अध्यात्मवीर्य के ये नौ भेद हैं। सभी प्रकार के भाववीर्य के तीन-तीन प्रकार हैं-पंडित भाववीर्य, वाल भाववीर्य और बाल-पंडित भाववीर्य । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने वीर्य के तीन प्रकार और किए हैं । उनका आधार है भाव १. क्षायिक वीर्य-क्षीण कषाय अर्थात् वीतराग का वीर्य । २. औपशमिक वीर्य-उपशान्त कषाय वालों का वीर्य । ३. क्षायोपशमिक वीर्य-शेष सभी प्राणियों का वीर्य । चरित्र मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम और उपशम के आधार पर विरति भी क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडौ १ अध्ययन ८ : प्रामुख तीन प्रकार की होती है । इस आधार पर पंडित वीर्य के तीन भेद होते हैं ।' चौथे श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने धनुर्वेद, दंडनीति, चाणक्यनीति आदि की मान्यताएं, शिक्षाएं प्रस्तुत की हैं । चूणिकार ने 'हंभीमासुरुक्खं, कोडल्लग'-इन ग्रन्थों तथा 'अथर्वण' का विषय निर्दिष्ट किया है। प्रस्तुत अध्ययन के कुछेक महत्त्वपूर्ण शब्द हैं-ठाणी (श्लोक १२), वुसीमओ (श्लोक २०), झाणजोगं (श्लोक २७) । इनकी व्याख्या के लिए देखें-टिप्पण । १. भाववीर्य के संपूर्ण विवरण के लिए देखें, चणि पृ० १६४-१६५ तथा वत्ति पत्र १६६-१६८ । २. चूणि, पृ० १६६ । Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं : पाठवां अध्ययन वीरियं : वीर्य मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. दुहा वेयं सुयक्खायं वीरियं ति पच्चई। किण्णु वीरस्स वीरितं ? केण वीरो त्ति वुच्चति?॥ द्विधा वैतत् स्वाख्यातं, वीर्य इति प्रोच्यते । किण्ण वीरस्य वीर्य ? केन वीर इति उच्यते? ॥ १. यह स्वाख्यात वीर्य दो प्रकार का कहा गया है । वीर का वीर्य क्या है? वह किस कारण से वीर कहलाता है ? २. कम्ममेव पवेदेति अकम्मं वा वि सुव्वया। एतेहिं दोहि ठाणेहि जेहिं दीसंति मच्चिया ॥ कर्म एव प्रवेदयन्ति, अकर्म वापि सुव्रताः । एतयोः द्वयोः स्थानयोः, ययोद्देश्यन्ते माः ।। २. सुव्रत (तीर्थंकर)' दो प्रकार के वीर्य का प्रतिपादन करते हैं -कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य ।' सभी मनुष्य इन दो स्थानों में विद्यमान हैं।' ३.पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं। तब्भावादेसओ वा वि बालं पंडियमेव वा॥ प्रमादं कर्म आहुः, अप्रमादं तथाऽपरम् । तद्भावादेशतो वापि, बालं पंडितमेव वा ।। ३. तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है।' कर्मवीर्य के सद्भाव की अपेक्षा से मनुष्य 'बाल' और अकर्मवीर्य के सद्भाव की अपेक्षा से वह 'पंडित' कहलाता है । ४. कुछ लोग प्राणियों को मारने के लिए शस्त्र (या शास्त्र) की शिक्षा प्राप्त करते हैं और कुछ लोग प्राणियों और भूतों को बाधा पहुंचाने वाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं । ५. मायावी मनुष्य (राजनीति शास्त्रों से सीबी हुई) माया का प्रयोग कर कामभोगों (धन) को प्राप्त करते हैं। वे अपने सुख के अनुगामी होकर प्राणियों का हनन, छेदन और कर्तन करते हैं । ४. सत्थमेगे सुसिक्खंति शस्त्रमेके सुशिक्षन्ते, अतिवाताय पाणिणं । अतिपाताय प्राणिनाम् । एगे मंते अहिज्जंति एके मन्त्रान् अधीयते, पाणभूयविहेडिणो ॥ प्राणभूतविहेडिनः ॥ ५. माइणो कटु मायाओ मायिनः कृत्वा मायाः, कामभोगे समारभे। कामभोगान् समारभन्ते । हंता छेत्ता पगतित्ता हन्तारः छेत्तारः प्रकर्तयितारः, आय-सायाणुगामिणो ॥ आत्मसातानुगामिनः ॥ ६. मणसा वयसा चेव मनसा वचसा चैव, कायसा चेव अंतसो। कायेन चैव अन्तशः । आरतो परतो वा वि आरतः परतो वापि, दुहा वि य असंजता ॥ द्विधाऽपि च असंयताः ।। ७. वेराई कुव्वती वेरी वैराणि करोति वैरी, ततो वेरेहि रज्जती। ततो वैरेष रज्यति । पावोवगा य आरंभा पापोपगाश्च आरंभाः, दुक्खफासा य अंतसो॥ दुःखस्पर्शाश्च अन्तशः ।। १. हेडङ-अनाधरे इति धातुनिष्पन्नोऽय शब्दः । ६. असंयमी मनुष्य मन से, वचन से और अन्त में काया से," स्वयं या दूसरे से" या दोनों के संयुक्त प्रयत्न से (जीवों की हिंसा करते हैं, करवाते हैं।) ७. वैरी वैर करता है। फिर वह वैर में अनुरक्त हो जाता है।" हिंसा की प्रवृत्तियां मनुष्य को पाप की ओर ले जाती हैं। अन्त में उनका परिणाम दुःखदायी होता है। Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०८ : वीर्य : श्लोक ८-१६ सम्परायं नियच्छंति, आर्त्तदुष्कृतकारिणः । रागदोषश्रिताः बाला:, पापं कुर्वन्ति ते बहु ।। ८. विषय और कषाय से आर्त होकर हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य" संसार (जन्म-मरण)" से बंध जाते हैं। वे राग-द्वेष के वशीभूत होकर बहुत पाप करते हैं। सूयगडो १ ८. संपरायं णियच्छति अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला पावं कुव्वंति ते बहुं ॥ ६.एतं सकम्मविरियं बालाणं तु पवेइयं । एत्तो अकम्मविरियं पंडियाणं सुणेह मे ॥ १०.दविए बंधणुम्मुक्के सव्वतो छिण्णबंधणे। पणोल्ल पावगं कम्म सल्लं कंतति अंतसो। ११.णेयाउयं सुयक्खातं उवादाय समीहते। भुज्जो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तहा तहा॥ एतत् सकर्मवीय, बालानां तु प्रवेदितम् । इत अकर्मवीर्य, पंडितानां शृणुत मे ॥ ६. यह बाल मनष्यों का सकती अब पंडित मनुष्यों के अकर्मवीर्य को मुझसे सुनो। बन्धनोन्मुक्तः, सर्वतः छिन्नबन्धनः । प्रणुद्य पापकं कर्म, शल्यं कन्तति अन्तशः ॥ १०. वीतराग की भांति आचरण करने वाला," कषाय के बंधन से मुक्त," प्रमाद या हिंसा में सर्वत: प्रवृत्त नहीं होने वाला मनुष्य पाप-कर्म को दूर कर संपूर्ण" शल्य को काट देता है। नर्यात्रिक स्वाख्यातं, उपादाय समीहते । भूयो भूयो दुःखावासं, अशुभत्वं तथा तथा । ११. वह मोक्ष की ओर ले जाने वाले सु-आख्यात (धर्म) को" पा चिन्तन करता है"-प्राणी बार-बार दुःखमय आवासों को प्राप्त होता है। जैसा-जैसा कर्म होता है वैसा-बसा अशुभ फलता है। १२. ठाणी विविहठाणाणि चइस्संति ण संसओ। अणितिए अयं वासे णातीहि य सुहीहि य॥ स्थानिनः विविधस्थानानि, १२. स्थानी (उच्च स्थान प्राप्त)" अपने विविध स्थानों त्यक्ष्यन्ति न संशयः । को छोड़ेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। ज्ञातिजनों अनित्योऽयं वासः, और मित्रों के साथ यह वास नित्य नहीं है। ज्ञातिभिश्च सुहृद्भिश्च ॥ १३. एवमायाय मेहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सव्वधम्ममकोवियं ॥ एवमादाय मेधावी, आत्मनो गृद्धिमुद्धरेत् । आर्य उपसंपद्येत, सर्वधर्माऽकोपितम् १३. ऐसा सोचकर मेधावी मनुष्य अपनी गृद्धि को छोड़ दे और सब धर्मों में निर्मल"आर्यधर्म को स्वीकार करे। १४. सहसंमइए णच्चा धम्मसारं सुणेत्तु वा। समुवट्टिए अणगारे पच्चक्खायपावए ॥ स्वसम्मत्या ज्ञात्वा, धर्मसारं श्रुत्वा वा । समुपस्थितः अनगारः, प्रत्याख्यातपापकः ॥ १४. धर्म के सार को अपनी मति से" जान अथवा दूसरों से सुन, उसके आचरण के लिए उपस्थित हो, पाप का प्रत्याख्यान कर अनगार बन जाता है।" यत् किञ्चिद् उपक्रमं जानीयात्, १५. पंडित अनगार अपने आयुक्षेम का" जो कोई उपक्रम आयुःक्षेमस्य आत्मनः । (विघ्न) जाने तो उस (आयुक्षेम) के अन्तराल में तस्यैव अन्तरा क्षिप्रं, ही शीघ्रता से शिक्षा (संलेखना) का" सेवन करे । शिक्षा शिक्षेत पंडितः ।। १५. जं किंचुवक्कम जाणे आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए॥ १६. जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे। एवं पाहि अप्पाणं अज्झप्पेण समाहरे॥ यथा कूर्मः स्वाङ्गानि, स्वे देहे समाहरेत् । एवं पापेभ्यः आत्मानं, अध्यात्मनि समाहरेत् ॥ १६. जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, इसी प्रकार पंडित पुरुष अपनी आत्मा को पापों से बचा अध्यात्म में" ले जाए। Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ म०८: वीर्य : श्लोक १७-२५ १७. वह हाथ, पैर, मन, सब इन्द्रियों, बुरे परिणामों" और भाषा के दोषों का संयम करे । १७. साहरे हत्थपाए य मणं सटिवदियाणि य। पावगं च परीणामं भासादोसं च पावगं ॥ संहरेत् हस्तपादांश्च, मनः सर्वेन्द्रियाणि च । पापकं च परीणाम, भाषादोषं च पापकम् ॥ १८. अणु माणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए। सुतं मे इह मेगेसि एवं वीरस्स वीरियं ॥ अन मानं च मायां च, तं परिज्ञाय पंडितः । श्रुतं मे इह एकेषां, एतद् वीरस्य वीर्यम् ॥ १८, पंडित पुरुष कषाय के परिणामों को जानकर अणुमात्र भी मान" और माया का आचरण न करे । मैंने तीर्थंकरों से यह सुना है कि यह वीर का वीर्य है।" १६. उड्ढमहे तिरियं दिसासु जे पाणा तस थावरा। सम्वत्थ विरति कुज्जा संति णिव्वाणमाहितं ॥ ऊर्ध्व अधः तिर्यग् दिशासु, ये प्राणाः त्रसाः स्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात्, शान्तिनिर्वाणमाहृतम् ॥ १६. ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में उनकी हिंसा से विरत रहे । (विरति ही) शांति है और शांति ही निर्वाण है। २०.पाणे य णाइवाएज्जा अदिण्णं पि य णातिए। सातियं ण मुसं बूया एस धम्मे वुसीमओ॥ प्राणांश्च नातिपातयेत्, अदत्तमपि च नादद्यात् । साचिकं न मृषा ब्रूयात्, ___ एष धर्मः वृषीमतः॥ २०. प्राणियों का अतिपात न करे, अदत्त भी न ले, कपट सहित" झूठ न बोले । यह मुनि का" धर्म है। २१. महाव्रतों का वाणी से अतिक्रम न करे। मन से भी उनके अतिक्रम की इच्छा न करे । वह सब ओर से संवृत और दान्त होकर इन्द्रियों का संयम करे।" २२. आत्मगुप्त" और जितेन्द्रिय मुनि किए हुए, किए जाते हुए और किए जाने वाले उस समग्र पाप की अनुमति नहीं देते। २१. अतिक्कमंति वायाए मणसा वि ण पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते आयाणं सुसमाहरे ॥ २२. कडं च कज्जमाणं च आगमेस्सं च पावगं । सव्वं तं जाणजाणंति आयगुत्ता जिइंदिया। २३.जे याऽबुद्धा महाभागा । वीरा सम्मत्तदंसिणो। असुद्धं तेसि परक्कंतं सफलं होइ सव्वसो॥ २४.जे उ बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसि परक्कंत अफलं होइ सव्वसो॥ २५. तेसि तु तवोसुद्धो णिक्खंता जे महाकुला। अवमाणिते परेणं तु। ण सिलोगं वयंति ते॥ अतिक्रममिति वाचा, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् । सर्वतः संवृतो दान्तः, आदानं सुसमाहरेत् ।। कृतं च क्रियमाणं च, आगमिष्यं च पापकम् । सर्वं तत् नानुजानन्ति, आत्मगुप्ताः जितेन्द्रियाः ॥ ये च अबुद्धाः महाभागाः, वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः । अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं, सफलं भवति सर्वशः ।। ये तु बुद्धाः महाभागाः, वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्धं तेषां पराक्रान्तं, अफलं भवति सर्वशः ॥ २३. जो अबुद्ध, महाभाग (महापूज्य), वीर (सकर्मवीर्य में अवस्थित) और असम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध और सर्वशः सफल (कर्मबंधयुक्त) होता है । २४. जो बुद्ध, महाभाग, वीर (अकर्मवीर्य में अवस्थित) और सम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम शुद्ध और सर्वशः अफल (कर्मबंधमुक्त) होता है। तेषां तु तपः शुद्धं, निष्क्रान्ताः ये महाकुलात् । अपमानिताः परेण तु, न श्लोकं वदन्ति ते ॥ २५. उनका तप शुद्ध होता है जो बड़े कुलों से अभि निष्क्रमण कर मुनि बनते हैं और दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर अपनी श्लाघा नहीं करतेअपने बड़प्पन का परिचय नहीं देते। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपपडो १ २६. अस पाणासि अप्पं भासेज्ज सुव्वए । ते खं तेऽभिव्विडे वीतही सया जए ॥ २७. झाणजोगं समाहट्ट कायं वोसेज्ज सव्वसो । तितिक्खं परमं णच्चा आमोक्साए परिव्वज्जाति ॥ - तिमि ॥ ३६६ अपपिण्डाक्षिपानाशी, अल्पं भाषेत सुव्रतः । क्षान्तः अभिनिर्वृतो दान्तः, वीतगृद्धिः सदा यतः ॥ ध्यानयोगं समाहृत्य, कार्य व्युत्सृज्य सर्वशः । तितिक्षां परमां ज्ञात्वा आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥ - इति ब्रवीमि ॥ प्र० ८ : वीर्य : श्लोक २६-२७ २६. सुव्रत पुरुष थोड़ा भोजन करे, " थोड़ा जल पीए, थोड़ा बोले ।" सदा क्षमाशील, शांत, दांत और ४७ .४८ अनासक्त होकर संयम में रहे । २७. ध्यानयोग को " सम्यग् स्वीकार कर सभी प्रकार से काया का व्युत्सर्ग करे । तितिक्षा (मोक्ष का ) परम साधन है - यह जानकर जीवन पर्यन्त" परिव्रजन (संयम की साधना ) करे। - ऐसा मैं कहता हूँ। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ८ श्लोक २: १. सुव्रत (तीर्थङ्कर) (सुव्वया) चूर्णिकार ने 'सुव्रत' का अर्थ तीर्थङ्कर किया है।' वृत्तिकार ने इसे संबोधन माना है।' २. (कम्ममेव........... अकम्मं वा) कर्मवीर्य-कर्म और क्रिया-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आगम में कर्म के अनेक पर्याववाची शब्द मिलते हैं, जैसे-उत्थान, कर्म, बल और वीर्य । इसका दूसरा अर्थ है-कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति को कर्मवीर्य कहा जाता है । वह बालवीर्य है।' अकर्मवीर्य-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न सहज शक्ति को अकर्मवीर्य कहा जाता है। इसमें कर्म-बंधन नहीं होता और न यह कर्म-बंध में हेतुभूत ही होता है । यह पंडितवीर्य है।' ३. (एतेहिं दोहि ठाणेहि जेहिं.........) यहां तृतीया विभक्ति के कारण व्याख्या में जटिलता उत्पन्न हुई है। चूणि में तृतीयान्त पाठ नहीं है। वहां 'एते एव दुवे ठाणा-ऐसा पाठ उपलब्ध है। इस पाठ से व्याख्या की जटिलता समाप्त हो जाती है । उत्तराध्ययन ५/२ में भी इसका संवादी पाठ उपलब्ध होता है-'संतिमेव दुवे ठाणा ।' श्लोक ४. (पमायं कम्ममाहंसु अप्पमाय तहावरं) कर्मवीर्य को प्रमाद और अकर्मवीर्य को अप्रमाद कहा गया है। यह कथन कारण में कार्य का उपचार कर किया गया है। ५. (तब्भावादेसओ... पंडियमेव वा) ___ इसका अर्थ है-तद् भाव की अपेक्षा से। 'भाव' का अर्थ है-होने से और 'आदेश' का अर्थ है-कथन, व्यपदेश । अर्थात् इन दोनों चरणों (३, ४) का अर्थ होगा-कर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से (प्रमाद की अपेक्षा से) मनुष्य 'बाल' और अकर्मवीर्य के तद्भाव की अपेक्षा से (अप्रमाद की अपेक्षा से) वह 'पंडित' कहलाता है। अभव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि-अपर्यवसित होता है और भव्य प्राणियों का बालवीर्य अनादि-सपर्यवसित और सादिसपर्यवसित-दोनों प्रकार का होता है। १. चूर्णि, पृ० १६६ : सुव्रताः तीर्थकराः । २. वृत्ति, पत्र १६८ : हे सुव्रता!। ३. (क) चूणि, पृ० १६६ : क्रिया कर्मेत्यनन्तरम् । क्रिया हि वीर्यम्.. ....... तरसेगट्टिया-उट्ठाणं ति वा कम्मं ति वा बलं ति वा वीरिगं ति वा एगळं............अधवा यदिदमष्ट प्रकारं कर्म तद्धि औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मत्यपविश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीरिगं वुच्चति । (ख) वृत्ति, पत्र १६८ । ४. चूर्णि, पृ० १६६ : अकर्मवीर्ग तत्, तद्धि कर्मक्षयनिष्पन्नम्, न वा कर्म बध्यते, न वा कर्मणि हेतुभूतं भवति । ५. चूणि, पृ० १६६ Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ पंडित वीर्य मादि सपर्यवसित ही होता है ' ३६८ ६. श्लोक ३ : प्रस्तुत आगम में कर्म और अकर्म का प्रयोग कई दृष्टियों से हुआ है। कर्म का एक अर्थ है-क्रिया और दूसरा अर्थ हैक्रिया से आकृष्ट होने वाले सूक्ष्म परमाणुओं का स्कंध । इसी आशय से १२।१५ में कहा गया है-बाल मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते, किन्तु धीर मनुष्य अकर्म से कर्म को क्षीण करते हैं ।" प्रस्तुत अध्ययन के नौवें श्लोक में बतलाया गया है- बाल मनुष्यों के सकर्मवीर्य होता है और पण्डित मनुष्यों के अकर्मवीर्य होता है।' चूर्णिकार सकर्मवीर्य और बालवीर्य को एकार्थक तथा अकर्मवीर्य और पंडितवीर्य को एकार्थक मानते हैं। अकर्म में भी वीर्य है, इसलिए उसका अर्थ निष्क्रियता या अकर्मण्यता नहीं है । अध्यात्म की भाषा में प्रमादयुक्त प्रवृत्ति को कर्म तथा अप्रमादयुक्त प्रवृत्ति को अकर्म कहा जाता है । भगवान् महावीर से पूछा गया - 'भंते ! जीव आत्मारंभ, परारंभ या उभयारंभ होता है या अणारंभ ?' भगवान् ने उत्तर दिया- 'अप्रमत संयती न आत्मारंभ होता है, न परारंभ होता है, न उभयारंभ होता है किन्तु अनारंभ होता है। प्रमत्त संयती अशुभ योग की अपेक्षा आत्मारंभ और परारंभ होता है, अनारम्भ नहीं होता । शुभयोग की अपेक्षा वह आत्मारंभ और परारंभ नहीं होता, किन्तु अनारंभ होता है ।" अध्ययन ८ टिप्पण ६-७ यहां आरम्भ का अर्थ प्रवृत्ति, कर्म या हिंसा है और अनारंभ का अर्थ अप्रवृत्ति, अकर्म या अहिंसा है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसात्मक प्रवृत्ति अकर्म और हिंसात्मक प्रवृत्ति सकर्म है। इसलिए सूत्रकार ने प्रभाव को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है। ७. शस्त्र ( या शास्त्र ) ( सत्यं) चूर्णि में कहा गया है-- जो कषाय से अप्रमत होता है वही अकर्मवीर होता है । उसी का वीर्य अकर्मवीर्य कहलाता है । प्रश्न होता है अकर्म और बीर्य दोनों विरोधी है, फिर एक साथ कैसे ? जिस भीर्य से कर्म का बंध नहीं होता और जो वीर्य कर्म के उदय से निष्पन्न नहीं होता तथा जिससे कर्म का क्षय होता है, वह वीर्य अकर्मवीर्य कहलाता है । " श्लोक ४ : इसके दो संस्कृत पर्याय होते हैं—-शस्त्र और शास्त्र । , ये दोनों अनेक प्रकार के हैं। प्रस्तुत प्रसंग में वृतिकार ने धनुर्वेद आयुर्वेद, दंडनीति, चाणक्यनीति आदि शास्त्रों को सोदाहरण समझाया है । धनुर्वेद में यह सिखाया जाता है कि बाण चलाते समय किस प्रकार आलीढ और प्रत्यालीढ होकर रहना चाहिए। जिसे मारना हो उसे मुट्ठी के छिद्र में से देखे । मुट्ठी के छिद्र में अपनी दृष्टि स्थिर कर बाण छोड़े । इस प्रकार बाण चलाने पर यदि १. वृत्ति, पत्र १६८ : तब्भावादेसओ वावी ति तस्य- बालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य वा भावः - सत्ता स तद्भावस्तेनाऽऽदेशोव्यपदेशः ततः, तद्यथा बालवीर्यमभध्यानामनाविपर्यवसितं मन्यानामनादिपर्ववसितं यासादिपर्यवसितं येति पण्डितयं तु साविपर्यवसितमेवेति । २. सूयगडो, १।१२।१५ ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा । ३. सूयगडो, १८६ एतं सकम्मविरियं बालागं तु पवेइयं । एत्तो अकम्मविरियं पंडियाणं सुणेह मे ॥ ४. चूर्ण, पृ० १६८ : सकर्मवोरियं ति वा वालवोरियं ति वा एगठ्ठे । अकम्मवीरियं ति वा पंडितवोरियं ति वा एगट्ठ ति ॥ ५. भगवई, १०३३, ३४ : जीवा णं मंते ! कि आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? आणारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा । तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा नो परारंभा नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोग पड़च्च नो आयारंभा, नो परारंभा, नो समारंभा, अगारंमा अशुभ जो पहुच आधारंभा वि परारंभा वि तदुभारंभा विनो प्रारंभा ६. सूयगडो, ८ १०, चूर्णि पृ० १६५ : कसायअप्पमत्तो वा स अकर्मवीरः एवं चेव अकम्मवोरियं वुच्चति । कथं अकम्मवोरियं ? यतस्तेन कर्म न बध्यते, न च तत् कर्मोदयनिध्यन्नम् येन कर्म करोति तेन कर्मवीर्यवान्। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३६६ प्रध्ययन ८: टिप्पण ८-१० अपना शिर न हिले तो लक्ष्य वींध लिया जाता है। आयुर्वेद का कथन है कि क्षय रोग से ग्रस्त रोगी को लावक पक्षी का रस विधिपूर्वक दिया जाए और उसको अभयारिष्ट नामक मद्य विशेष का सेवन कराया जाए। दंडनीति सिखाती है कि चोर आदि को अमुक प्रकार से शूली पर चढ़ाना चाहिए, पुरुष का शिरच्छेद इस प्रकार करना चाहिए। चाणक्य नीति शास्त्र अर्थोपार्जन के लिए दूसरों को टगने की अनेक विधियों का प्रतिपादन करता है।' चूणि का अभिमत है कि कुछ लोग यह सीखते हैं कि अर्थी और प्रत्यर्थी को इस प्रकार दंड देना चाहिए । अपराधी और निरपराधी को उसकी आंख और आकार से जान लेना चाहिए । अमुक अपराध में यह दंड होगा, जैसे- हाथ काटना, मृत्यु दण्ड आदि देना। ८. बाधा पहुंचाने वाले (विहेडिणो) चूणि में इसका अर्थ है-बाधा पहुंचाने वाले।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-विविध प्रकार से बाधक ऋग् संस्थानीय मंत्र किया है।' ६.कुछ लोग..." मंत्रों का अध्ययन करते हैं (एगे मंते अहिज्जते) जो पुरुष-देवता से अधिष्ठित होता है उसे 'मंत्र' और जो स्त्री देवता से अधिष्ठित होता है उसे 'विद्या' कहा जाता है । अथवा मंत्र वह होता है जिसके लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती। विद्या के लिए साधना अपेक्षित होती है। मंत्र और विद्या के पांच-पांच प्रकार होते हैं-पार्थिव, वारुण, आग्नेय, वायव्य और मिश्र । मिश्र वह होता है जिसमें दो या तीन देवता अधिष्ठित होते हैं अथवा जिसमें विद्या और मंत्र-दोनों का मिश्रण होता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार का अभिमत है कि कुछेक व्यक्ति अश्वमेध, पुरुषमेध और सर्वमेध यज्ञों के लिए अथर्ववेद के मंत्रों का अध्ययन करते हैं। श्लोक ५: १०. मायवी मनुष्य माया का प्रयोग कर (माइणो कट्ट मायाओ) __ मनुष्य दूसरों को ठगने के लिए चाणक्य नीति, कौटलीय अर्थशास्त्र, धनुशास्त्र आदि शास्त्रों का अध्ययन करते हैं । वणिक् १ वृत्ति, पत्र १६६ : शस्त्रं-खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि ......तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविध मालीढप्रत्यालीढादिभिर्जीवे व्यापादयितव्ये स्थान विधेग,तदुक्तम्मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्यं, मुष्टौ दृष्टि निवेश येत् । हतं लक्ष्यां विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥१॥ -तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति, तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थं तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाशुभाध्यवसायिनोऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वे दादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्वं बालवीर्यम् । २. चणि, पृष्ठ १६६ : एवं चार्थी प्रत्यर्थी वा दण्डयितव्यः, नेत्रागा (? का) रादिभिश्च कारी अकारी च ज्ञातव्यः, अमुकापराधे चायं दण्डो हस्तच्छेद-मारणेत्यादि । ३. चूणि, पृ० १६६ : विहेडणं विबाधनं इत्यर्थः । ४. वत्ति, पत्र १६६ : विविधम् अनेकप्रकारं हेठकान् बाधकान् ऋक्संस्थानीयान् मन्त्रान पठन्तीति । ५. सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ६१, चूणि पृ० १६५ : तत्थ विज्जा इत्थी, मंलो पुरिसो। अधवा विज्जा ससाधणा, मंतो असाधणो। एक्केक्कं पंचविधं पार्थिवं वारुण आग्नेयं वायग्वं मिश्रमिति । तत्थ मिस्सं जं विण्ह तिह वा देवताणं, अधवा विज्जाए मंतेण य, एताकि अधिदेवगाणि । ६. (क) चूणि, पृ० १६६ : अस्त्रमते आभिचारुके अथर्वणे हृदयोण्डिकादीनि च अश्वमेधं सर्वमेव पुरुष मेधादि च मन्त्रानधीयते । (ख) वत्ति, पृ० १६६ : एके केचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकाना (ते)थर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयन्ते । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३७० अध्ययन ८: टिप्पण ११-१५ लोग रिश्वत, वंचना आदि के द्वारा धन कमाने की कला सीख जाते हैं । वे मायावी मनुष्य अपनी सीखी हुई माया से अर्थ का उपार्जन करते हैं और अभिलषित सावध कार्यों को संपन्न करते हैं।' ११. कामभोगों (धन) को (कामभोगे) चूणिकार ने अर्थ को ही 'कामभोग' माना है। कामभोग कार्य है और अर्थ कारण । कारण में कार्य का उपचार कर यह अर्थ ग्रहण किया है। १२. प्राणियों का हनन करते हैं (हंता छेत्ता......) मनुष्य धन का उपार्जन करने के लिए प्राणियों को मारता है, ग्राम-वध करता है, हरिणों की पूंछे काटता है, हाथियों के दांत उखाड़ता है। श्लोक ६ : १३. (मणसा... . . . . . 'अंतसो) मन, वचन, और काय-ये तीन योग हैं-कर्मवीर्य हैं । विकास-क्रम की दृष्टि से पहले काय योग, फिर वचन योग और फिर मनोयोग होता है। प्रवृत्ति की दृष्टि से पहले मनोयोग-मानसिक चिन्तन होता है, फिर वचन योग और अन्त में काय योग होता है।' प्रस्तुत श्लोक में प्रवृत्ति का क्रम सूचित किया गया है । १४. स्वयं या दूसरे से (आरतो परतो) चूणिकार ने 'आरतो' का अर्थ 'स्वयं' और परतो का अर्थ 'पर' किया है।' श्लोक ७: १५. (वेराई कुव्वइ.....) चुणिकार का आशय है कि एक व्यक्ति दूसरे को मारता है, बांधता है, दंडित करता है, देश-निकाला देता है, वह अनेक व्यक्तियों के साथ वैर बांधता है । जैसे चोर, पारदारिक, व्याजखोर आदि व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से वैर का अनुबंध करते हैं। वृत्तिकार का अभिमत है कि जीवों का उपमर्दन करने वाला वैरी होती है। वह सैंकड़ों जन्मों तक चलने वाले वैर का बंध करता है। उस एक वैर के कारण वह अनेक दूसरे वैरों से सम्बन्धित होता है और उसकी वैर परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलने लगती है। १.णि, पृ० १६७: तेण चाणक्क-कोडिल्लं ईसस्थादी मायाओ अधिज्जंति जधा परो वंचेतव्यो। तहा वणियगादिणो य उक्कंचण वंचणादीहिं अत्थं समज्जिणंति । लोभो तस्थेव ओतरेति, माणो वि। एवं मायिणो मायाहि अत्थं उवज्जिणंति, यथेष्टानि सावधकार्याणि साधयन्ति । २. चूणि, पृ० १६७ : कारणे कार्गवदुपचारः अर्थ एव काममोगाः । ३ चूणि, पृ० १६७ : अर्थोपार्जनपरो निर्दय..." हंता गामादि, छेत्ता मियपृच्छादि, पकत्तिया हत्थिदंतादि हत्यादि वा। ४. चूणि, पृ० १६६ : पढम मणसा, पच्छा वायाए, अंतकाले कारण। ५. चूणि, पृ० १६७ : आरतो सयं, परतो अण्णेण । ६. चूणि, पृ० १६७ : स वैराणि कुरुते वैरी । ततो अण्णे मारेति, अण्णे बंधति, अण्णे दंडेत्ति, अण्णे णिग्विसए आणवेत्ति, चोर-पारदा रिय-चोपगादि बहुजणं वेरियं करेति । ७. वृत्ति, पत्र, १७० : वैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरररनुरज्यते, संबध्यते, वैरपरम्परानुषङ्गी भवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ३७१ अध्ययन ८: टिप्पण १६-२० श्लोक : १६. विषय ओर कषाय करने वाले मनुष्य (अत्तदुक्कडकारिणो) 'अत्त' के संस्कृतरूप दो बनते हैं-आत्म और आर्त्त । आत्म का अर्थ है-स्व और आर्त का अर्थ है-पीड़ित । प्रस्तुत प्रसंग में 'आर्त' शब्द ही उपयुक्त लगता है । इस शब्द का अर्थ होगा-विषय और कषाय से आर्त्त होकर हिंसा आदि दुष्कृत करने वाले मनुष्य । वृत्तिकार ने 'आत्मदुष्कृतकारिणः' मानकर, इसका अर्थ- स्वयं पाप करने वाला-किया है।' १७. संसार (जन्म-मरण) (संपरायं) जैन आगमों में यह शब्द बहु प्रयुक्त है । इसका अर्थ है-संसार, जन्म-मरण । इसका एक सैद्धान्तिक अर्थ भी है। कर्म दो प्रकार का होता है- ईर्यापथ और सांपरायिक। यहां संपराय का अर्थ हैबादर कषाय । उनसे बंधने वाला कर्म सांपरायिक कहलाता है । वृत्तिकार ने इसी अर्थ को मुख्य मानकर व्याख्या की है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ संसार दिया है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका 'संसार' अर्थ ही अधिक उपयुक्त लगता है। श्लोक १० १८. वीतराग की भांति आचरण करने वाला (दविए) 'द्रव्यं च भव्ये'-पाणिनी के इस कथन से द्रव्य का अर्थ है-भव्य प्राणी अर्थात् मुक्तिगमन योग्य प्राणी।' चणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अकषायी वीतराग अथवा वीतराग जैसा ।' प्रश्न होता है कि क्या सराग मनुष्य अकषायी हो सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जो कषायों का निग्रह करता है, वह भी अकषायी के तुल्य ही है।' १९. कषाय के बंधन से मुक्त (बंधणुम्मुक्के) कषाय कर्म स्थिति के हेतुभूत होते हैं, अतः ये ही यथार्थ में बंधन हैं। कहा भी है-बंधट्टिई कसायवसा-बंधन की स्थिति कषाय के अधीन है । अत: जो कषाय से मुक्त है वही बन्धन से उन्मुक्त है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ मुक्त सदृश किया है।' २०. प्रमाद या हिंसा ..होने वाला मनुष्य (छिण्णबंधणे) ___ हिंसा, प्रमाद, राग-द्वेष ये बंधन के हेतु हैं । १. चूणि, पृ० १६८ : आर्ता नाम विषय-कषायार्ताः । दुक्कडकारिणो दुक्कडाणि हिंसादीणि पावाणि कुर्वन्तीति दुक्कडकारिणः । २. वृत्ति, पत्र १७० : आत्मदुष्कृतकारिणः स्वपापविधायिनः। ३. वृत्ति, पत्र १७० : द्विविधं कर्म-ईर्यापथं साम्परायिकं च, तत्र सम्पराया-बादरकषायास्तेभ्य आगतं साम्परायिकम् । ४. चूणि, पृ० १६८ : संपरागः संसारः । ५. वृत्ति, पत्र १७० : द्रव्यो भव्यो मुक्तिगमनयोग्य: 'द्रव्यां च भव्यं' इति वचनात् । ६. चूणि, पृ० १६८ : राग-दोसविमुक्को दविओ, बीतराग इत्यर्थः, अधया वीतराग इव वीतरागः । ७. वृत्ति, पत्र १७० : द्रव्यः रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकषायीत्यर्थः, यदि वा वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः । तथा चोक्तम कि सक्का वोत्तुं जे सरागधम्ममि कोइ अकसायी। संतेवि जो कसाए निगिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो ॥१॥ ८. वृत्ति, पत्र १७० : बन्धनात्-कषायात्मकान्मुक्तः, बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनत्वं तु कषायाणां कर्मस्थितिहेतुत्वात्, तथा चोक्तम् बंधट्टिई कसायवसा कषायवशात् इति । ९. चूणि, पृ० १६८ : बन्धनेभ्यो मुक्तकल्पः पण्डितवीर्यावरणेभ्यः । Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३७२ प्रध्ययन ८: टिप्पण २१-२६ कारण में कार्य का उपचार कर इन्हें ही बंधन माना गया है । जो इनमें प्रवृत्त नहीं होता, इनसे मुक्त है, वह 'छिन्न-बंधन' होता है। २१. सम्पूर्ण (अंतसो) अंत का अर्थ है-- संपूर्ण, निरवशेष ।' श्लोक ११: २२. मोक्ष की ओर ले जाने वाले (णयाउयं) इसका संस्कृत रूप है-नर्यात्रिक और अर्थ है-मोक्ष की ओर ले जाने वाला । टीकाओं में इसका संस्कृत रूप 'नैयायिक' और अर्थ 'न्याय मार्ग' किया है। २३. सु-आख्यात (धर्म) को (सुयक्खातं) सु-आख्यात, अच्छी तरह से कहा हुआ। णेयाउयं और सुयक्खातं- ये दोनों धर्म के विशेषण हैं। बौद्ध साहित्य में भी स्वाख्यात धर्म का प्रयोग मिलता है। स्थानांग में स्वास्यात धर्म की व्याख्या प्राप्त है। देखें-१५१३ का टिप्पण। २४. चिंतन करता है (समीहते) चूणिकार के अनुसार इसका अर्थ है-धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की सम्यक् ईहा करना।' वृत्तिकार ने समीहते का अर्थ- मोक्ष के लिए चेष्टा करना किया है।" २५. दुःखमय आवासों को (दुहावासं) विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख दुःखावास हैं । सकर्मवीर्य के कारण मनुष्य जन्म-मरण करता है और नरक आदि विभिन्न गतियों में जाता है । यह वास्तव में ही दुःखावास है।' वृत्तिकार ने दुःख के कारणभूत बालवीर्य को दुःखावास माना है।' २६. (असुहत्तं तहा तहा) इसका अर्थ है-जैसा-जैसा कर्म होता है, वैसा-वैसा अशुभ फलतो है। बालवीर्य वाला मनुष्य जैसे-जैसे नरक आदि दुःखावासों में भटकता है, वैसे-वैसे अशुभ अध्यवसाय के कारण उसके अशुभ कर्म ही बढ़ता है। १. चणि, पृ० १६६ : ये पुनः प्रमादादयो हिंसादयः रागादयो वा तेषु कार्गवदुपचारादुच्यते-सव्वतो छिण्णबंधणे, न तेष वर्तत इत्यर्थः। २. चूणि, पृ० १६८ : अन्तसो त्ति यावदन्तोऽस्य, निरवशेष मित्यर्थः । ३. ठाणं, ३३५०७। ४. चूणि, पृ० १६८ : सम्यग् ईहते समीहते ध्यानेन । किं ध्यायते ? धम्म सुक्कं च । ५. वृत्ति, पत्र १७१ : सम्यक् मोक्षाय ईहते चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यम विधत्ते । ६. चुणि, पृ० १६८। सकम्मकोरियवोसेण भूयो भूयो णरगादिसंसारे णाणाविधदुक्खवासे सारीरादीणि दुक्खाणि भुज्जो भुज्जो पावति। ७. वृत्ति. पत्र १७१ : दुःखमावासयतीति दुःखावासं (बालवीर्ग) वर्तते । ८. चूणि, पृ० १६८: यथा यथा कर्म तथा तथाऽशभं फलति । ६. वृत्ति, पत्र १७६ : यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते। Jain Education Intemational www.jainelibre Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २८. निर्मल (अकोदियं ) २७. स्थानी ( उच्च स्थान प्राप्त ) ( ठाणी) चूर्णिकार ने 'स्थानी' का अर्थ देवलोक में होने वाले इन्द्र, सामानिक तथा त्रास्त्रिश आदि देव किया है। जिन्हें उच्चस्थान प्राप्त होता है, वे 'स्थानी' होते हैं। मनुष्यों में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मांडलिक और महामांडलिक आदि स्थानी होते हैं । तियों में भी विशिष्ट तियंच-हाथी, घोड़े आदि स्थानी होते हैं।' पांतंजल योगदर्शन में उच्चस्थान प्राप्त देवों के लिए 'स्थानी' शब्द का प्रयोग मिलता है ।' श्लोक १३ : ३७३ श्लोक १२: २६. अपनी मति से (सहसंमइए) अध्ययन : टिप्पण २७-३० कोपित का अर्थ है दूषित, खोटे सिक्के जैसा दोषपूर्ण । अकोपित अर्थात् अदूषित, निर्मल । वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है। उन्होंने विकल्प में 'अगोवियं' पाठ मानकर उसका अर्थ 'प्रकट किया है। " ठाणं ९ १३ में 'इंदित्यविकोवणयाए' पाठ है । इन्द्रिय के विषय का विकोपन अर्थात् दूषण । इसका अर्थ है - कामविकार ।" श्लोक १४ : इसके तीन रूप हैं - सहसन्मति, स्वसम्मति, स्वस्मृति । कुछ व्यक्ति सहमति या सहज स्मृति के द्वारा संबुद्ध होकर धर्म की आराधना में संलग्न हो जाते हैं । ऐसे पुरुष प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं । नैसर्गिक सम्यग्दर्शन में भी विशिष्ट प्रकार की मति और श्रुत होता है। यह धर्म-प्राप्ति का पहला उपाय है । इसका दूसरा उपाय है— धर्मसार या श्रवण । ३०. (समुट्टिए अणगारे मनुष्य अपनी बुद्धि से या तीर्थंकर, गणधर या आचार्य आदि से धर्म के सार को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण करता है। वह फिर उत्तरगुणों में पराक्रम करता है और पंडितवीर्य से पूर्वकृत कर्मों के क्षय के लिए प्रवृत्त होता है। वह क्रमशः गुणों का अर्जन करता हुआ आगे बढ़ता है। उसका परिणाम प्रवर्धमान रहता है। सभी पाप प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान कर वह अपने लक्ष्य को पा लेता है । " १. (क) चूर्ण, पृ० १६८ : स्थानान्येषां सन्तीति स्थानिनः । देवलोके तावदिन्द्र सामानिक त्रास्त्रशाद्याः । मनुष्येष्वपि चक्रवति-बलदेववासुदेव-मण्डल महामण्डलिकादितिर्ययपि वानीष्टानि । (ख) वृति पत्र १०१ स्थानिनः, तद्यथा देवलोके [इन्द्रस्तत्सामानिकायस्त्रिसत्पाद्यादीनि मनुष्येष्वपि चक्रवर्तीदेवासुदेवमहामण्डलिकादीनि तिर्यस्यणि यानि कानिचिदिष्टानि भोगम्याय स्थानानि २. पातंजल योग दर्शन ३।५१ स्थान्युपनिमन्त्रणे संग भाष्य-तत्र मधुमतीं भूमि साक्षात् कुर्वतो ब्राह्मणस्य स्थानिनो देवाः सस्वशुद्धिमनुपश्यन्तः ३. चूर्णि, पृ० १६४ : कोवितो णाम दूषितः, कूतकार्षापणवत् । अकोपिता नामा ण केहि वि कोविज्जति । : ४. पित्र १७१ अकोपितो अधिनः स्वमविषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः (सं), यदि वा सर्वस्वभावमुष्ठानरूपरगोपितं कुत्सितकर्तव्याभावात् प्रदमित्यर्थः । ५. ठाणं, पृ० ८७५ । ६. चूर्णि, पृ० १६९ : शोभना मतिः सन्मतिः, सहजाऽऽत्ममतिः सहसम्मतिः, स्वा वा मतिः सम्मतिः, सह सम्मतीए सहसम्मतिगं प्रत्येकबुद्धानाम् निसर्वसम्यग्दर्शने वा पित्तम्बरोपशमनदृष्टान्तसाम आभिणियोधयति । ७. वृत्ति, पत्र १७१, १७२ 1 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३७४ अध्ययन ८: टिप्पण ३१-३६ श्लोक १५: ३१. आयुक्षेम का (आउक्खेमस्स) __ चूणिकार ने इसका अर्थ-आयुष्य का क्षेम अर्थात् शरीर का आरोग्य किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ केवल 'आयुष्य' ही किया है। ३२.कोई उपक्रम (विघ्न) (किंचुवक्कम) यहां दो पदों 'किंचि' और 'उवक्कम' में संधि की गई है। उपक्रम का अर्थ है-आयुष्य-क्षय का उपाय । चणिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ-अनशन किया है। उसके तीन प्रकार बतलाए गए हैं-भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन । ३३. शिक्षा (संलेखना) का (सिक्खं) यहां शिक्षा का अर्थ है-मरण-विधि, संलेखना-विधि ।' देखें-आयारो ८।१०५-१३०, गाथा १-२४ । श्लोक १६: ३४. अध्यात्म में (अज्झप्पेण) जो आत्मा से संबंधित है उसे अध्यात्म कहते हैं । ध्यान, स्वाध्याय, वैराग्य, एकाग्रता-ये सब अध्यात्म के प्रकार हैं।' श्लोक १७: ३५. बुरे परिणामों (पापगं च परीणाम) निदान, इहलोक में सुख प्राप्ति की कामना-आदि पापमय परिणाम हैं।' श्लोक १८: ३६. अणुमात्र भो मान (अणु माणं ............) साधक संयम में पराक्रम करता है। उसके संयम से आकृष्ट होकर लोग उसकी पूजा करते हैं, फिर भी वह अहंभाव न लाए। इसी प्रकार माया, क्रोध और लोभ का भी साधक विवर्जन करे । कषायों के स्वरूप को जानकर, उनके विपाकों का चिन्तन कर, साधक उनसे निवृत्त हो। १. चूणि, पृ० १६६ : आयुषः क्षेममित्यारोग्यं शरीरस्य। २. वृत्ति, पत्र १७२ : आयुः क्षेमस्य स्वायुष इति । ३. (क) चणि पृ० १६६ : यत्किञ्चिदिति उपक्रमाद्वा अवाएण वा। अधवा तिविहो उवक्कमो भत्तपरिणा-इंगिणावि। (ख) वृत्ति, पत्र १७२ : उपक्रम्यते-संवयते क्षयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमः । ४. चूणि, पृ० १६६ : संलेहणाविधि शिक्षेत् । ५. चूणि, पृ० १७० : आत्मानमधिकृत्य यत् प्रवर्तते तद् अध्यात्मम्, ध्यानं स्वाध्यायो वैराग्यं एकाग्रता इत्यादिनाऽध्यात्मेन । ६. (क) चूणि, पृ० १७० : पावगं च परीणामं ... ... ... ..णिदाणादि इहलोगासंसप्पयोगं च । (ख) वृत्ति, पत्र १७२ : पापकं परिणाममैहिकामुष्मिकाशंसारूपम् । ७. वृत्ति, पत्र १७२। Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३७५ अध्ययन ८: टिप्पण ३७-४० ३७. यह वीर का वीर्य है (एयं वीरस्स वीरियं) संलेखना, अध्यात्म द्वारा पाप का समाहरण, हाथ-पैर तथा इन्द्रियों का प्रतिसंहरण, मान और माया की परिज्ञा-यह वीर का वीर्य है । यह है-अकर्मवीर्य या पंडितवीर्य । इस वीर्य से सम्पन्न व्यक्ति ही वीर कहलाता है।' श्लोक २०: ३८. कपट सहित (सातियं) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'सातियं' का शाब्दिक अर्थ 'आदिना सह' और उसका तात्पर्य 'माया सहित' किया है। हमने इसका संस्कृत रूप 'साचिक' किया है । संस्कृत कोष में साचि का अर्थ है-माया।' साधक माया सहित झूठ न बोले । झूठ और माया का अनिवार्य साहचर्य है । माया के बिना झूठ बोला नहीं जाता । यहां कपटपूर्वक झूठ बोलने का प्रतिषेध है। ३६. मुनि का (वुसीमओ) चूणिकार ने इसका अर्थ वसुमान किया है।' वसु का अर्थ है-धन । मुनि के पास ज्ञान आदि का धन होता है, इसलिए वह वसुमान कहलाता है । किन्तु 'वुसीम' का यह अर्थ संगत नहीं लगता। यह अर्थ 'वसुम' शब्द का हो सकता है। आचारांग (१।१७४) में 'वसुम' शब्द का प्रयोग उपलब्ध है। वृत्तिकार ने 'वुसीम' को छान्दस् प्रयोग मानकर इसका अर्थ वसुमान किया है, जो चूणि सम्मत है। इसका वैकल्पिक अर्थ वश्य (इन्द्रियजयी) किया है । शाब्दिक दृष्टि से वश्य भी संगत नहीं है।' 'वसीम का संस्कृत रूप 'वृषीमत्' उपयुक्त लगता है । वृषि संन्यासी का उपकरण है, इसलिए वृषीमान् का अर्थ संन्यासी हो सकता है । यहां 'एस धम्मे बुसीमओ'-यह मुनि का धर्म है' यह अर्थ स्वाभाविक है। बौद्ध साहित्य में 'वसी' के पांच प्रकार निदिष्ट हैं--(१) आवज्जनावसी (२) संपज्जनाबसी (३) अधित्थानवसी (४) वुत्थानवसी (५) पच्चवेक्खनवसी।' हो सकता है 'बुसीम' का यही अर्थ रहा हो और उच्चारण भेद से 'वसी' का स्थान 'वुसी' ने ले लिया हो। श्लोक २१: ४०. अतिक्रम (अतिक्कमंति) वृत्तिकार ने अतिक्रम के तीन अर्थ किए है १. प्राणियों को पीड़ा देना। १. चूणि, पृ० १७०। २. (क) चूणि, पृ० १७१ : सादियं णाम माया, सादिना योगः, सादियोगः, सह आतिना सातियं । (ख) वृत्ति, पत्र १७३ : सहादिना—मायया वर्तत इति सादिक-समायम् । ३. संस्कृत-इंग्लिश कोष, मोनियर मोनियर विलियम्स-देखें-'साचि' शब्द । ४. (क) चूणि पृ० १७१ : न हि मृपावादो मायामन्तरेण भवति, स चोक्कंचण-वंचण-कूडतुलादिसु भवति, सातियोगसहितो मुसावादो भवति, स च प्रतिषिध्यते, अन्यथा तु 'न मृगान् पश्यामि ण य वल्लिकाइयेसु समुद्दिस्सामो' एवमादि व यात्, येनात्र परो वञ्च्यते तत् प्रतिषिध्यते, कोध-माण-माया-लोभसहितं वचः । (ख) वृत्ति, पत्र १७३ । ५. चूणि पृ० १७१ : सिमता वसूनि ज्ञानादीनि । ६. वृत्ति पत्र १७३ । 'बुसीमउ' त्ति छान्दसत्वात, निर्देशार्यस्त्वयं वसूनि ज्ञानादीनि तद्वतो ज्ञानादिमत इत्यर्थः, यदि वा-वुसीमउत्ति वश्यस्य-आत्मवशगस्य-वश्येन्द्रियस्येत्यर्थः । ७. पटिसंमिदा १९७-१००। ८. वृत्ति, पत्र १७३ : प्राणिनामतिका-पीडात्मकं महाव्रतातिकम वा मनोऽवष्टब्धतया परतिरस्कारं वा इत्येवम्भूतमतिक्रमम् । Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २. महाव्रतों का उल्लंघन करना । ३. मन में अहंभाव लाकर दूसरों का तिरस्कार करना । ३७६ ४१. इन्द्रियों का संयम करे (आयाणं सुसमाहरे) 'आदान' का अर्थ है - इन्द्रियां जिनके द्वारा विषय का ग्रहण होता है, वह आदान कहलाता है । 'सुसमाहरे' का अर्थ हैभली भांति संयम करना । वृत्तिकार का अर्थ भिन्न है । उन्होंने मोक्ष के उपादन कारण सम्यग्दर्शन आदि को आदान माना है और 'सुसमाहर' का अर्थ-ग्रहण करना किया है ।" ४३. श्लोक २३, २४ : ४२. आत्मगुप्त (आवत्ता ) अपने आप में रहने वाला ब्लक्ति आत्मगुप्त होता है । जिसने अपने मन, वचन और काया को गुप्त कर लिया है वह आत्म गुप्त है। श्लोक २३, २४ : साधना के क्षेत्र में दो प्रकार के पुरुष होते हैं १. अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी । २. बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी । श्लोक २२ : अध्ययन ८ टिप्पण ४१-४३ ये दोनों ही वीर होते हैं। अबुद्ध पुरुष सकर्म वीर्य में वर्तमान होते हैं और बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य में वर्तमान होते है । ये दोनों ही पराक्रम करते हैं । अबुद्ध पुरुष सकर्मवोर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिए उनका पराक्रम अशुद्ध और सफल - कर्मबंधयुक्त होता है । बुद्ध पुरुष अकर्मवीर्य से भावित होकर पराक्रम करते हैं, इसलिए उनका पराक्रम शुद्ध और अफल - कर्मबंधमुक्त होता है । ये दोनों श्लोक कर्मवीर्य और अकर्मवीर्य के उपसंहारवाक्य हैं। इनमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पराक्रम प्रत्येक मनुष्य करता है । अबुद्ध या अज्ञानी मनुष्य भी करता है तथा बुद्ध या ज्ञानी मनुष्य भी करता है। पराक्रम अपने रूप में पराक्रम मात्र है । उसमें कोई अन्तर नहीं होता । अन्तर डालने वाले दो तत्व हैं—ज्ञान और दृष्टि । अज्ञान और असम्यक्दृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम अशुद्ध और सफल होता है। अशुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से युक्त होता है और सफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से युक्त होने के कारण कर्मबंध का हेतु भी बनता है । ज्ञान और सम्यकदृष्टि से भावित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध और अफल होता है। शुद्ध का अर्थ है कि वह शल्य, गौरव, कषाय आदि दोषों से मुक्त होता है और अफल का अर्थ है कि वह शल्य आदि दोषों से मुक्त होने के कारण संयममय होता है । संयम का फल है अनास्रव - कर्मबंध न होना । असम्यक्त्वदर्शी के पराक्रम को अशुद्ध और सफल कहने का तात्पर्य शल्य आदि दोषों से युक्त पराक्रम की साधना की दृष्टि से, अवांछनीयता प्रदर्शित करना है । प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में इसका समर्थन-सूत्र मिलता है 'जइ विय णिगणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो जे इह मायादि मिज्जई, आगन्ता गब्भादणंतसो || १. वृत्ति पत्र १७३ : मोक्षस्य आदानम् उपादानं सम्यग्दर्शनादिकं सुष्ठ्य क्तः सम्यग्विस्रोतसिका रहितः 'आहरेत्' आवदीत गृह्णीयादित्यर्थः । २. (क) चूणि पृ० १७१ (ख) वृति पत्र १७४ आत्मनि आत्मसु वा गुप्ता । मनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा । (सूयगडो १/२/६) --- Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३७७ अध्ययन ८: टिप्पण ४४ —यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह को कृश करता है और मास-मास के अन्त में एक बार खाता है फिर भी माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है। योगवासिष्ठ में इसी आशय का एक श्लोक मिलता है 'वासनामात्रसारत्वात्, अज्ञस्य सफलाः क्रियाः। सर्वा एवाफला ज्ञस्य, वासनामात्रसंक्षयात् ।। -अज्ञानी मनुष्य की क्रिया का सार वासनामात्र होता है, इसलिए वह सफल होती है और ज्ञानी मनुष्य के वासनामात्र का क्षय हो जाता है, इसलिए उसकी क्रिया अफल होती है। चूणि के आधार पर इन दोनों श्लोकों का प्रतिपाद्य यह है-अबुद्ध और असम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है । बुद्ध और सम्यक्त्वदर्शी का पराक्रम कषाय आदि दोषों से मुक्त होने के कारण शुद्ध होता है। समीक्षात्मक दृष्टिकोण से यह कहना उचित होगा कि इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की आकांक्षा तथा पूजा-श्लाघा के लिए किया जाने वाला पराक्रम साधना की दृष्टि से अवांछनीय है और केवल निर्जरा के लिए किया जाने वाला पराक्रम वांछनीय है। असम्यक्त्वदर्शी निर्जरा के लिए कुछ भी नहीं करता और सम्यक्त्वदर्शी सब कुछ निर्जरा के लिए ही करता है, यह इसका प्रतिपाद्य नहीं है। श्लोक २५: ४४. श्लोक २५ चूर्णि और वृत्ति में यह श्लोक भिन्न प्रकार से व्याख्यात है। दोनों के स्वीकृत पाठ में भी अन्तर है। चूणि के अनुसार इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार है 'जो जैसा कहते हैं वैसा करते हैं, जो ईक्ष्वाकु आदि प्रधान कुलों में उत्पन्न हैं, अथवा जो सामान्य कुलों में उत्पन्न होकर भी विद्या, तपस्या और पराक्रम से महान हैं, वे अभिनिष्क्रमण कर साधना अवस्था में दूसरे द्वारा अपमानित होने पर भी श्लाघा नहीं करते-ऐसा नहीं कहते कि मैं अमुक राजा था, अमुक शेठ था । वे पूजा सत्कार और श्लाघा के लिए अपने कुल की प्रशंसा नहीं करते, उनका तप शुद्ध होता है।' वृत्ति के अनुसार यह श्लोक और इसकी व्याख्या इस प्रकार है 'तेसि पि तवोऽसुद्धो, निक्खंता ये महाकुला । जं नेवन्ने विवाणंति, न सिलोगं पवेअए ॥ -जो लोकविश्रु त ईक्ष्वाकु आदि महान कुलों से प्रव्रज्या के लिए अभिनिष्क्रमण करते हैं, उनका भी तप अशुद्ध होता है, यदि वह पूजा-सत्कार पाने के लिए किया जाता है या अपने कुल की प्रशंसा के निमित्त किया जाता है। उसको तपस्या इस प्रकार से करनी चाहिए कि दूसरे उसे जान न सके। वह अपनी श्लाघा भी न करे- 'मैं पहले उत्तम कुल में उत्पन्न या धनवान् था, अब तप से अपने शरीर को तपाने वाला तपस्वी हूं।' वह अपनी प्रशंसा स्वयं न करे । १. योगवासिष्ठ ६।१।८७१८ । २. चूणि, पृ० १७२ : पूया-सक्कारणिमित्तं विज्जाओ णिमित्ताणि य पयुंजमाणा तपांसि च प्रकाशानि प्रकुर्वन्ति तेषां बालानां यत् किञ्चिदपि पराक्रान्तं तदशुद्धम् भावोपहतत्वाद् नवकेनापि भेदेन अज्ञानदोषाच्च । एवमादिभिर्दोषैः अशुद्धं नाम यथोक्तैर्दोषैः, पराकान्तं चरितं चेष्टितमित्यर्थः, कुवैद्यचिकित्सावत् । ३. चूर्णि, पृ० १७२ : तेसि भगवंताणं सुद्धं तेसि परक्कंत, शुद्धं णाम णिस्वरोधं सल्ल-गारव-कसायाविदोसपरिशुद्धं अनुपरोधकृद् भूतानाम् । ४. चूणि, पृ० १७२। ५. वृत्ति, पत्र १७५॥ Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४५. थोड़ा भोजन करे ( अप्पपिडासि ) ३७८ श्लोक २६ : 'अल्प' शब्द के दो अर्थ हैं-'थोड़ा' और निषेध यहां अल्प शब्द थोड़े के अर्थ में प्रयुक्त है । चूर्णिकार ने 'अप्पपिडासि' के दो अर्थ किए हैं—थोड़ा खाने वाला अथवा अपूर्ण खाने वाला। जो पुरुष कुक्कुट के अंडे के प्रमाण जितने बतीस कवल खाता है वह संपूर्ण आहार वाला कहा जाता है। जो इससे एक कवल या एक सिक्त भी कम खाता है वह 'अप्पपिडासि' है, अपूर्णभोजी है। जो उक्त प्रमाण वाले आठ कवल खाता है वह अल्पाहारी, जो बारह कवल खाता है वह अर्द्ध अवमोदरिक, जो सोलह कवल खाता है वह २ / ३ भोजन करने वाला, जो चउवीस कवल खाता है वह अवमोदरिक, जो तीस कवल खाता है वह संपूर्ण भोजन करने वाला होता है । ४६. थोड़ा बोले (अप्पं मासेन्ज) वो बोले अर्थात् अर्थदंडकवा न करे, परिमित और हितकारी वचन कहे। कहा है योवाहारो थोवभणिओ अ जो होइ थोवनिद्दो य । थोवोवहिउवकरणो तस्स हु देवावि पणमंति ॥ --जो थोड़ा खाता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी नींद लेता है, और थोड़े उपधि और उपकरण रखता है, उसको देवता भी नमस्कार करते हैं । ४७. शान्त (अभिणिग्वडे ) अभिनिर्वृत वह होता है जो शान्त है ।' जो लोभ आदि को जीत कर अनातुर हो जाता है वह अभिनिर्वृत कहलाता है ।" कषायों की शांति ही वास्तव में शांति है। कहा है कषाया यस्य नोच्छिना, यस्य नात्मवशं मनः । इन्द्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य जीवनम् ॥ अध्ययन ८ : टिप्पण ४५-४८ ----- जिसने कषायों का उच्छेद नहीं किया, जिसने मन पर अधिकार नहीं किया, जिसकी इन्द्रियां गुप्त नहीं हैं, उसकी प्रव्रज्या केवल आजीविका है । " ४८. अनासक्त (वीतगेही ) चूर्णिकार के अनुसार तपस्या में निदान आदि न करने वाला विगतगृद्धि कहलाता है ।" वृत्तिकार के अनुसार इन्द्रिय-विषयों के प्रति जिसकी आसक्ति मिट जाती है वह वीतगृद्धि कहलाता है । " देखें - ६ । २५ में 'विगतगेही' का टिप्पण | १. (क) चूर्णि, पृ० १७२, १७३ : अप्पं पिण्डमश्नातोति अपापडासी, असंपूण्णं वा एवं पाणं पि । अट्ठ कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमागे अप्पाहारे दुवाल अडोमोदरिया, सोलस मागप, उव्वीस जोमोदरिया, तो मापसे, बत्ती कवला संपुष्णाहारो, एतो एकेणानि ऊ जाव एक्कयासेज एगसित्वेग वा । (ख) वृत्ति, पत्र १७५ । च २. पूर्ण १० १०२ असे निदण्डकां न कुर्यात् कारणेऽपि नोपचं। ३. ओघनियुक्ति, गाया १२६५ । ४. चूर्णि पृ० १७३ : अभिणिव्वुडो णाम निर्वृतीभूतः शीतीभूतो । ५. वृत्ति, पत्र १७५ : अभिनिर्वृतो लोभादिजयान्निरातुरः । ६. वृत्ति, पत्र १७५ । ७. चूर्ण, पृ० १७३ : तवसा य विगतगेधी निदाणादिसु गेधिविपमुक्के य । ८. वृत्ति पत्र १७५ विगता गुद्धिविषयेषु यस्य स गतवृद्धिः प्रशंसायोवरहिताः । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन: टिप्पण४९-५१ श्लोक २७: ४६. ध्यान-योग को (झाणजोगं) भावनायोग, ध्यानयोग, तपोयोग आदि अनेक प्रकार के योग हैं । ध्यान के द्वारा होने वाली योग-प्रवृत्ति ध्यान योग है। चित्त का एक धारावाही होना एकाग्रता है और उसका विकल्पशून्य हो जाना निरोध है। एकाग्रता और निरोध-ये दोनों ध्यान हैं ।' ध्यान तीन प्रकार का है-मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यान । इसे ध्यानयोग कहा जाता है। ५०. काया का व्युत्सर्ग करे (कायं वोसेज्ज) इसका अर्थ है-देहासक्ति और दैहिक प्रवृत्ति का विसर्जन करना । ५१. जीवन पर्यन्त (आमोक्खाए) आमोक्ष के दो अर्थ हैं१. जब तक मोक्ष प्राप्त न हो तब तक । २. जब तक शरीर न छूटे तब तक । १. जैन सिद्धान्त बीपिका, ६४१ : एकाग्रे मनःसन्निवेशनं योगनिरोधो वा ध्यानम् । २. ध्यानशतक, श्लोक ३७, वृत्ति : 'जो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं ।'...........''आह-मनोयोगसमाधानमस्तु, वाक्काययोगसमाधानं तत्र क्वोपयुज्यते, न हि तन्मयं ध्यानं भवति ? अत्रोच्यते-तत्समाधान तावन्मनोयोगोपकारकम्, ध्यानमपि च तदात्मकं भवत्येव । यथोक्तम्'एवं विहा गिरा मे वत्तव्वा एरिसी न वत्तव्वा । इय वेयालियवक्कस्स भासओ बाइगं झाणं ।' 'तथा-सुसमाहियकर-पायस्स अकज्जे कारणमि जयणाए । किरियाकरणं जं तं काइयझाणं भवे जइणो ॥' ३. चूणि, पृ० १७३ : आमोक्षायेति यावन्मोक्षगमनं ताव.........."शरीरमोक्खो वा। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं मन्मयरणं धम्मो नौवां अध्ययन Jain Education Intemational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'धर्म' है। इसमें ३६ श्लोक हैं और इनमें श्रमण के मूलगुण तथा उत्तरगुणों की विशद चर्चा है। धर्म क्या है और उसकी प्राप्ति के क्या-क्या उपाय है ? लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म की क्या व्याख्या है ? विभिन्न लोग धर्म की विभिन्न परिभाषाएं करते हैं। उनमें कौन सी परिभाषा धर्म की कसौटी पर खरी उतरती है। आदि-आदि प्रश्नों का इन श्लोकों में समुचित समाधान दिया गया है। ____ नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है- भावधर्म । यही भावसमाधि है और यही भावमार्ग है ।' प्रस्तुत आगम के दसवें अध्ययन का नाम 'समाधि' और ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग' है। इस प्रकार तीनों अध्ययन (९-११) परस्पर संबंधित हैं । भावधर्म के दो भेद हैं-श्र तधर्म और चारित्रधर्म। चारित्रधर्म के दस भेद हैं-क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव आदि । भावसमाधि के भी ये ही भेद हैं। समाधि का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा में क्षान्ति आदि गुणों का सम्यक् आरोपण करना । इसलिए भावधर्म और भावसमाधि में कोई अन्तर नहीं है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं । यही भावमार्ग है। समानता की इस पृष्ठभूमि पर तीनों-धर्म, समाधि और मार्ग-एक हो जाते हैं।' नियुक्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन की नियुक्तिगाथा (६२) में 'धम्मो पुवुद्दिठ्ठो' का प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने पूर्व शब्द से दशवकालिक की सूचना दी है। दशवकालिक के तीसरे अध्ययन का नाम है 'क्षुल्लकाचारकथा' और छठे अध्ययन का नाम है 'महाचारकथा'। दोनों में मुनि के आचार-धर्म का निरूपण है। तीसरे अध्ययन का निरूपण संक्षेप में है और छठे अध्ययन का निरूपण विस्तार से हैं । दशवकालिक के छठे अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम' भी है। उसकी नियुक्ति में धर्म की व्याख्या की गई है, वह यहां ज्ञातव्य है ।' प्रस्तुत अध्ययन का अधिकार है-भावधर्म । धर्म का अर्थ है-स्वभाव । चेतन का अपना स्वभाव है और अचेतन का अपना स्वभाव है। चेतन का स्वभाव है उपयोग । इसी प्रकार अचेतन का अपना स्वभाव होता है। जैसे : धर्मास्तिकाय का स्वभाव है, गति । यह उसका धर्म है । अधर्मास्तिकाय का स्वभाव है स्थिति । यह उसका धर्म है। आकाशास्तिकाय का स्वभाव है अवगाहन । यह उसका धर्ष है।' पुद्गलास्तिकाय का स्वभाव है ग्रहण । यह उसका धर्म है। मिश्र द्रव्यों (दूध ओर पानी) का अपना स्वभाव होता है। उनका परिणमन शीतल होता है। इसी प्रकार गृहस्थों के जो कुलधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि हैं, वे सब स्वभाव और व्यवहार को ओर निर्देश करते हैं । जिस द्रव्य के दान से धर्म होता है, उस क्रिया में कार्य का उपचार कर देय द्रव्य को दान धर्म कह दिया जाता है । ये सारे द्रव्य धर्म के निर्देश हैं।' भावधर्म के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है१. गृहस्थों का धर्म । यहां धर्म शब्द कर्त्तव्य, व्यवहार के अर्थ में प्रयुक्त है। २. पाषंडियों का धर्म । यहां धर्म शब्द क्रियाकांड के लिए प्रयुक्त है । १. नियुक्ति, गाथा ६२ : धम्मो पुवुद्दिवो भावधम्मेण एत्थ अधिकारो। एसेव होति धम्मो एसेव समाधिमग्गो त्ति ॥ २. वृत्ति, पत्र १७६ । ३. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा २४६-२६६ । ४. उत्तराध्ययन २८९ : गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणा। भायणं सव्वदव्वाणं नहं अवगाहलक्खणं ॥ ५. चूणि, पृ० १७४। Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३८४ अध्ययन : श्रामुख लोकोत्तर धर्म तीन प्रकार का है- ज्ञान, दर्शन और चारित्र । लोकोत्तर चारित्रधर्म की व्याख्या के प्रसंग में चूर्णिकार ने पांच प्रकार की चारित्र ( सामायिक चारित्र आदि) अथवा महाव्रत, अथवा चातुर्याम धर्म अथवा पांच महाव्रत और रात्रीभोजनविरमण व्रतइस प्रकार के प्रशस्त भावधर्म का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने केवल पांच प्रकार के चारित्र का ही ग्रहण किया है।" नियुक्तिकार ने बतलाया है कि प्रशस्तधर्म की आराधना करने वाले संस्तव न करें, उनके साथ न रहें। चूर्णि के अनुसार उन्हें न कुछ दान दें और न उनसे कुछ ग्रहण करे । प्रस्तुत अध्ययन के दूसरे श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने किया है १. ब्राह्मण या श्रावक, क्षत्रिय और वैश्य हवन आदि क्रिया में धर्मं मानते थे । २. चांडाल - ये भी कहते हम भी धर्म क्रिया में अवस्थित हैं, क्योंकि हम खेती आदि क्रिया नहीं करते । ४. ऐषिक - हस्तितापस आदि भी यही - ५. वंशिक - इसके दो अर्थ है- वणिक् अथवा वैश्या । कहते कि हम एक हाथी को मारकर अनेक महीनों तक उसका मांस भक्षण करते हुए, शेष जीवों को नहीं मारते - यह हमारा धर्म है । ५. चूर्ण, पृ० १७५ : विभिन्न जातीय मनुष्यों की धर्म विषयक मान्यता का उल्लेख वणिक् कहते हैं - हम अपने-अपने कौशल से आजीविका का उपार्जन करते हैं, यह हमारा धर्म है । वेश्याएं कहती हैं - हम अपनी मर्यादा का पालन करती हैं, यह हमारा धर्म है । ६. शूद्र- ये कहते हम अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करते हैं । यह हमारा धर्म है । " चौथे श्लोक में तत्कालीन प्रचलित कुछेक परंपराओं का उल्लेख है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनका वर्णन किया है । शव का अग्निसंस्कार करना, जलांजलि देना, पितृपिण्ड देना आदि मरणोपरान्त कार्य अनेक धर्म-परम्पराओं में मान्य थे । कुछेक लोग मरनेवाले के उपलक्ष में भैंस, बकरी आदि की बलि भी देते थे । " श्रमण पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील श्रमणों के साथ द्यूत के प्रकारों की जानकारी देने के लिए सतरहवें श्लोक में दो शब्दों - अष्टापद और वेध तथा अठाहरवें श्लोक में नालिका शब्द का प्रयोग हुआ है । १. चूर्ण, पृ० १७४ ॥ २. वृति पत्र १०६ चारिणमपि सामायिकादि मेदात् । २. निक्तिगाथा ९५ पासपोसण-कुशीलसंयोग किर बट्टते का ४. वृषि, पृ० १७४ बारहवें श्लोक में प्रयुक्त 'सिरोवेधे' (सिरावेधे) शब्द चिकित्सा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । चिकित्सा शास्त्र में अनेक सिराओं – नाड़ियों का वेधन करना विहित है । यह 'नाड़ीवेधन' कला का द्योतक है। वर्तमान में 'एक्यूपंक्चर के नाम से यह चिकित्सा पद्धति चीन और जापान में प्रचलित है । - प्रस्तुत अध्ययन में श्लोक - विभागगत वर्ण्यविषय इस प्रकार है- ६. चूर्णि, पृ० १७६ । वृत्ति, पत्र १७८ । ७. चूर्ण, पृ० १७६ पासपोसम्पादहि दान-महणं काय संसग्गी वा । ।...... माहणा मरुगा सावगा वा । खत्तिया उग्गा भोग्गा राहण्णा इक्खागा राजानस्तदाश्रयिणश्च । अथवा क्षत्र ेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः । वैश्याः सुवर्णकारादयः, ते हि हवनाविभिः क्रियामिधर्ममिच्छन्ति । चण्डाला अपि बअपमपि धर्मावस्थिताः कृष्याविक्रियां न कुर्मः । एवन्तीति एविका मृगलुब्धका हस्तितापसारच मांसतोम गान हरितनश्च एवन्ति मूल कंद- फलानि च ये चापरे पायण्डा नानाविधेयामामेति यथेष्टानि चान्यानि विषयसाधनानि । अथ वैशिकावणिज, तेऽपि किल कलोपजीवित्वाद् धर्मं किल कुर्वते । अथवा वेश्यास्त्रिय वंशिका, ता अपि किस सर्वाविशेषाद वंश्यधमें वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति शूद्रा अपि कुदुम्बभरणादीनि कुर्वन्तो धर्ममेव कुर्वते । महिष च्छागाद्याश्च वध्यन्ते । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३८५ अध्ययन : प्रामुख श्लोक १-७ धर्म की मिथ्या मान्यताएं और अत्राण का निरूपण । ८-१० मूल-गुणों- महाव्रत आदि का प्रतिपादन । ११-२४ उत्तरगुणों का विस्तार से वर्णन-विभिन्न अनाचारों के सेवन का निषेध । २५-२७ भाषा का विवेक । २८ संसर्ग-वर्जन २६-३६ श्रामण्य-चर्या का स्वरूप । दशवकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन में अनाचारों-निम्रन्थ के लिए अनाचीर्ण प्रवृत्तियों का उल्लेख है । तथा छठे अध्ययन (महाचारकथा) में उनमें से कुछेक अनाचारों को सकारण समझाया गया है। प्रस्तुत आगम के इस अध्ययन में विभिन्न अनाचारों का उल्लेख हैश्लोक १२ १. धावन-हाथ, पेर, वस्त्र आदि धोना । २. रजन-वस्त्र, दांत, नख आदि को रंगना । ३. वमन-वमन करना। ४. विरेचन---जुलाब लेना। ५. वस्तिकर्म- एनिमा आदि लेना। ६. सिरोवेध-नाड़ी-वेधन करना। श्लोक १३ ७. गंध--इत्र आदि सुगन्धित द्रव्यों का सेवन करना । ८. माल्य-फूलों की माला का सेवन करना । ६. स्नान करना। १०.दंतप्रक्षालन करना। ११. परिग्रह-सचित्त वस्तु का संग्रह करना। श्लोक १४ १२. औद्देसिक-साधु के निमित्त बनाया हुआ भोजन लेना। १३. क्रीतकृत-साधु के निमित्त खरीदा हुआ लेना। १४. प्रामित्य-साधु को देने के लिए उधार लिया गया लेना। १५. आहृत-साधु के लिए दूर से लाया हुआ लेना। १६. पूर्ति-आधाकर्मी आहार से मिला हुआ लेना। १७. अनैषणीय लेना। श्लोक १५ १८. अक्षिराग-आंखों को आंजना । १६. उत्क्षालन-बोर-बार हाथ-पैर धोना । २०. कल्क- गंध-विलेपन करना। श्लोक १६ २१. संप्रसारक-असंयमी व्यक्तियों के साथ संसर्ग । २२. कृतक्रिय-असंयममय अनुष्ठान की प्रशंसा । २३. प्रश्नायतन-ज्योतिष या अन्य शास्त्र के आधार पर गृहस्थों के प्रश्नों का उत्तर देना । २४. सागरिक पिंड---शय्यातर का आहार लेना। १. देखें-दसवेआलियं, तीसरे अध्ययन का आमुख । Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९: प्रामुख सूयगडो १ ३८६ श्लोक १७ २५. अष्टापद- शतरंज खेलना । २६. वेधातीत-वस्त्रद्यूत-चौपड आदि खेखना । २७. हस्तकर्म-हाथापाई करना, हस्तक्रिया करना । २८. विवाद करना। श्लोक १८ २६. उपानह- जूते पहनना। ३०. छत्र-छत्र धारण करना। ३१. नालिका-नली के द्वारा पासा डालकर जुआ खेलना । ३२. बालवीजन--पंखा आदि से हवा लेना । ३३. परक्रिय---परस्पर की क्रिया करना। श्लोक १६ ३४. अस्थंडिल का व्यवहरण करना। श्लोक २० ३५. पर-अमत्र-गृहस्थ के भाजन में भोजन करना। ३६. पर-वस्त्र-गृहस्थ के वस्त्रों का व्यवहरण करना। श्लोक २१ ३७. आसन्दी का उपयोग करना । ३८. पर्यंक का व्यवहार करना । ३६. गृहान्तरनिषद्या---गृहस्थ के अन्तर् घर में बैठना । ४०. संपृच्छन-सावध प्रश्न पूछना या शरीर पोंछना। ४१. स्मरण --पूर्व भुक्तभोगों का स्मरण करना। श्लोक २६ ४२. ग्रामकुमारिकाक्रीड़ा---ग्राम के लड़कों का खेल देखना । इन सब अनाचीणों के अतिरिक्त सूत्रकार ने भाषा-विवेक का प्रतिपादन भी किया है। भाषा-विवेक के कुछेक बिन्दु ये हैं० दो या दो से अधिक व्यक्ति बात करते हों तो मुनि बीच में न बोले । ० मर्मस्पर्शी भाषा न बोले। ० मायाप्रधान वचन न कहे। ० विचारपूर्वक बोखे । ० बोलने के पश्चात् पछताना पड़े, ऐसी भाषा न बोले । ० उपघातकारी भाषा न बोले । • होलाबाद-हे होले ! हे गोले ! हे वृषलका प्रयोग न करे । ० सखिवाद-हे मौसी ! , हे बुआ ! , हे भानजी का प्रयोग न करे । ० गोत्रवाद-किसी को गोत्र से संबोधित न करे । ० तूं-तू-मैं-मैं की भाषा न बोले, तिरस्कारयुक्त भाषा न बोले । ० अमनोज्ञ-अप्रिय भाषा न बोले । १. सूयगडो, ६/२५-२७ । Jain Education Intemational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. ३८७ अध्ययन ६: प्रामुख कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रस्तुत आगम में इनके वाचक अनेक नाम आए हैं। इस अध्ययन के ग्यारहवें श्लोक में इनके नाम इस प्रकार हैं माया-परिकुंचन लोभ-भजन (भंजन) क्रोध-स्थंडिल मान-उच्छ्य -इन कषायों के ये पर्यायवाची नाम उनकी भावना को अपने में समेटे हुए हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनकी व्याख्या विस्तार से की है। Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. कमरे धम्मे अखाए माहणेण मईमता ? | अंजू धम्मं जहातच्चं जिणाणं तं सुणेह मे ॥ २. माहना बत्तिया बेस्सा चंडाला अदु बोल्कसा। एसिया बेतिया मुद्दा जे य आरंभणिस्सिया ॥ ३. परिग्गहे वेरं सि आरंभसंभिया ण ते दुक्खविमोयगा ॥ ४. आघात किमाहे गाइओ विसएसिणो । अण्णे हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मेहि किच्चती ॥ णि विद्वाणं पवड्ढई । कामा ५. माता पिता हुसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा । गालं ते मम ताणाए लुप्तस्स सकम्मुणा ॥ सपेहाए ६. एयमट्ठ परमट्टानुगामियं जिम्ममो निरहंकारो चरे भिक्खू जिणाहियं ॥ ( युग्मम् ) ७. चिच्चा वित्तं च पुत्ते य थाइओ व परिग्यहं । चिच्चाण अंतर्ग सोवं णिरवेक्खो परिव्वए । नवमं श्रभयणं : नौवां अध्ययन धम्मो : धर्म संस्कृत छाया कतरः धर्मः माहनेन ऋजं धर्म यथातथ्यं जिनानां तत् शृणुत मे ॥ आख्यातः, मतिमता ? ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः, चण्डाला अथ बोक्कसाः । ऐषिका: वैशिकाः शूद्राः, ये च आरम्भनिश्रिताः ॥ परियहे वरं तेषां निविष्टानां, प्रवर्धते । आरम्भसंभूताः कामाः, न ते दुःखविमोचकाः ॥ आघातकृत्यमाधाय, ज्ञातयो विषयेषिणः । अन्ये हरन्ति तद् वित्तं, कर्मी कर्ममिः कृत्यते ॥ औरसाः । माता पिता स्नुषा धाता, भार्या पुत्राश्च नालं ते मम लुप्यमानस्य एतमर्थं परमार्थानुगामिकम् निर्ममो निरहंकार:, चरेद् भिक्षजिनाऽाहृतम् ॥ ( युग्मम् ) त्राणाय, स्वकर्मणा । संप्रेक्ष्य, त्यक्त्वा वित्तं च पुत्रांश्च, ज्ञातीच परिग्रहम् । त्यक्त्वा अन्तगं श्रोतः, निरपेक्ष: परिव्रजेत् ॥ हिन्दी अनुवाद १. ने पूछा मतिमान् श्रमण महावीर ने कौनसा' धर्म बतलाया है ? (सुधर्मा ने कहा) तीर्थंकरों के ऋजु और यथार्थ धर्म को तुम मुझसे सुनो। २. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चांडाल, बोक्कस', बहे - लिए, व्यापारी" शूद्र" तथा और भी जो हिसारत हैं", ३. जो परिग्रह में निविष्ट" (अर्जन, सुरक्षा और भोग में रत) हैं, उनका वैर बढ़ता है।" काम आरंभ ( प्रवृत्ति ) से पुष्ट होते हैं ।" वे दुःख का" विमोचन नहीं करते । ४. ( मर जाने पर ) मरणोपरान्त किए जाने वाले अनुष्ठान संपन्न कर विषय की एषणा करने वाले पारिवारिक तथा अन्य लोग उसके धन का हरण कर लेते हैं और कर्मी (जिसने धन के लिए कर्म का बंधन किया है) अपने कर्मों से छिन्न होता है । ५. जब मैं अपने द्वारा किए गए कर्मों से छेदा जाता हूं", तब माता, पिता, पुत्र वधू, भाई, पत्नी और औरस पुत्र- ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । " ६. परमार्थ की ओर ले जाने वाले" इस अर्थ को समझकर" भिक्षु ममता" और अहंकार से शून्य" होकर .जिनवाणी का आचरण करे । ७. धन, पुत्र, परिवार, परिग्रह तथा आन्तरिक स्रोत ( क्रोध आदि ) " को छोड़, अपेक्षा रहित हो परिव्रजन करे।" Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० 4. ६ : धर्म : श्लोक ८-१६ सूयगडो । ८. पुढवी आऊ अगणी वाऊ तण रुक्ख सबीयगा। अंडया पोय जराऊ रस संसेय उब्भिया ॥ पृथ्वी आपः अग्निर्वायुः, तृणाः रूक्षाः सबीजकाः । अंडजाः पोत-जरायु-, रस-संस्वेद (जाः) उद्भिदः ।। ८. पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा तृण, वृक्ष और मूल से बीज तक वनस्पति के दस प्रकार तथा अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदन और उद्भिज्ज ६. एतेहिं छहि काहिं तं विज्ज ! परिजाणिया। मणसा कायवक्केणं णारंभी ण परिग्गही। एतेष षटसु कायेषु, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् । मनसा कायवाक्येन, नारंभी न परिग्रही ॥ ६. इन छहों जीव-निकायों को विद्वान् जाने और इनकी हिंसा न करे । मनसा, बाचा, कर्मणा आरम्भी और परिग्रही न बने । १०. मुसावायं बहिद्धं च उग्गहं च अजाइयं । सत्थादाणाई लोगंसि तं विज्जं! परिजाणिया ॥ मषावादं बहिस्तात् च, अवग्रह च अयाचितम् । शस्त्रादानानि लोके, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ।। १०. मृषावाद, बहिस्तात् (बाह्य वस्तु का ग्रहण)", अया चित अवग्रह-ये सभी शस्त्र-प्रयोग" के समान हैं । इन्हें विद्वान् त्यागे। ११. पलिउंचणं च भयणं च थंडिल्लुस्सयणाणि य।. धुत्तादाणाणि लोगंसि तं विज्ज! परिजाणिया ॥ परिकुञ्चनं च भजनं च, स्थण्डिलोच्छयणानि च । धूर्तादानानि लोके, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ ११. माया", लोभ, क्रोध", अभिमान ---"ये सब कर्म के आयतन" हैं। इन्हें विद्वान् त्यागे । १२. वस्त्र धोना, रंगना, वमन, विरेचन", वस्तिकम", शिरोवेध इन्हें विद्वान् त्यागे । धावनं रजनं चैव, वमनं च विरेचनम् । वस्तिकर्म शिरोवेधान, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ।। १३. गंध, माल्य", स्नान", दांत पखालना, परिग्रह, स्त्री, हस्तकर्म"- इन्हें विद्वान् त्यागे । १२. धावणं रयणं चेव वमणं च विरेयणं । वत्थिकम्मं सिरोवेधे तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ १३. गंधमल्लं सिणाणं च दंतपक्खालणं तहा। परिग्गहित्थिकम्मं च तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ १४. उद्देसियं कोयगडं पामिच्चं चेव आहडं। पूर्ति अणेसणिज्जं च तं विज्ज! परिजाणिया॥ गन्धमाल्यं स्नानं च, दन्तप्रक्षालनं तथा । परिग्रह-स्त्री-कर्म च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ।। औद्देशिकं क्रीतकृतं, प्रामित्यं चैव आहृतम् । पूर्ति अनेषणीयं च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ आशूनि अक्षिरागं च, गृद्धथुपघातकर्मकम् । उत्क्षालनं च कल्कं च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ १४. साधु के उद्देश्य से बनाए गए", खरीदे गए" उधार लिए गए", दूर से लाए गए", पूति", (साधु के लिए बनाए गए आहार आदि से मिश्रित) तथा अनेषणीय (आहार आदि)--- इन्हें विद्वान् त्यागे । १५. वीर्य-वर्धक आहार या रसायन", आंखों को आंजना, उपकरणों की आसक्ति, तिरस्कार", हाथ-पैर आदि धोना, उबटन करना"--- इन्हें विद्वान् त्यागे । १५. आसूणिमक्खिरागं च गिद्धवघायकम्मगं उच्छोलणं च कक्कं च तं विज्ज! परिजाणिया ॥ १६. संपसारी कयकिरिए पसिणायतणाणि य। सागारियं पिडं च तं विज्जं! परिजागिया । संप्रसारी कृतक्रियः, प्रश्नायतनानि च । सागारिकं पिण्डं च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ १६. असंयत प्रवृत्ति को सहारा (या उपदेश) देना", आरंभ की प्रशंसा करना"", अंगुष्ठ-आदर्श आदि के द्वारा फल बताना", शय्यातर-पिंड" (जिसके मकान में रहे उसका भोजन लेना)-इन्हें विद्वान् त्यागे । Jain Education Intemational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७. अट्ठापदं ण सिक्खेज्जा वेधादीयं च णो वए । हत्थकम्मं विवायं च तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ १८. उवाणहाओ छत्तं च णालिय बालवीयणं । परकिरियं अण्णमण्णं च तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ १६. उच्चारं पासवणं हरितेसु ण करे मुणी । वियडेण वावि साहट्ट णायमेज्ज कयाइ वि ॥ २०. परमत्ते अण्णपाण ण भुंजेज्ज कयाइ वि । परवत्थं अचेलो वि तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ २१. आसंदी पलियंके य णिसिज्जं च गिहंतरे । संपुच्छणं सरणं वा तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ २२. जसं कित्ती सिलोगं च जा य वंदणपूयणा । सव्वलोगंसि जे कामा तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ २३. जेणेहं णिव्वहे भिक्खू अण्णपाण तहाविहं । द तं विज्जं ! परिजाणिया ॥ ( सीलमंते असोले वा तेसि दाणं विवज्जए । णिज्जरट्ठाए दायव्वं तं विज्जं ! परिजाणिया ) ॥ २४. एवं उदाहु णिग्गंथे महावीरे महामुनी । अनंतणाणदंसी से धम्मं देसितवं सुतं ॥ ३६१ अष्टापदं न शिक्षेत, वेधादिकं च नो वदेत् । हस्तकर्म विवादं च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ उपानह: छत्रं च. नालिकां बालवीजनम् । परक्रियां अन्योन्यं च, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ उच्चारं प्रस्रवणं, हरितेषु न कुर्याद् मुनिः । विकटेन वापि संहृत्य, नाचामेत् कदाचिदपि ॥ परामत्रे अन्नपानं, न भुञ्जीत कदाचिदपि । परवस्त्रं अचेलोपि, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ आसन्दी पर्यङ्कश्च, निषिद्यां च गृहान्तरे । संप्रच्छनं स्मरणं वा, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ या च यशः कीर्त्तिः श्लोकश्च, वन्दनपूजना | सर्वलोके ये कामाः, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ येनेह निर्वहेत् भिक्षुः, अन्नपानं तथाविधम् । अनप्रदानमन्येभ्यः, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ ( शीलवान् अशीलो वा, तयो: दानं विवर्जयेत् । निर्जरार्थाय दातव्य, तद् विद्वन् ! परिजानीयात् ॥ ) एवं उदाह निर्ग्रन्थो, महावीरो महामुनिः । अनन्तज्ञानदर्शी स धर्मं देशितवान् श्रुतम् ।। अ० ६ : धर्म : श्लोक १७-२४ १७. जुआ " आदि न सीखे, वेध" आदि न बतलाए । हस्तकर्म" और विवाद " - इन्हें विद्वान् त्यागे । १८. जूता " और छाता", नालिका (नलिका से पासा डाल कर जुआ खेलना ), चमर", परक्रिया" (गृहस्थ के पैर आदि पखालना ), अन्योन्यक्रिया " ( परस्पर पैर आदि पखालना ) - इन्हें विद्वान् त्यागे । १६. मुनि वनस्पति पर मल-मूत्र का उत्सर्ग न करे । वनस्पति को इधर-उधर कर निर्जीव जल से भी कभी आचमन (शौच क्रिया) न करे । २०. गृहस्थ के पात्र में " अन्न-पान कभी न खाए । अचेल होने पर भी गृहस्थ का वस्त्र" न पहने इन्हें विद्वान् त्यागे । २१. आसंदी पलंग", घर के भीतर बैठना, सावद्य प्रश्न पूछना, मुक्तभोग का स्मरण – इन्हें विद्वान् त्यागे । २२. यश, कीर्ति, श्लोक, जो वंदना और पूजा" है, संपूर्ण लोक में जो काम" हैं -- इन्हें विद्वान् त्यागे । २३. भिक्षु गृहस्थ से कार्य निष्पन्न करवाए और उसके बदले में उन्हें अन्न-पान दे, इस प्रवृत्ति को विद्वान् त्यागे । " शीलवान् या जो ( व्यवहार से शीलवान् होते हुए भी परमार्थ से ) शीलवान् नहीं हैं, उन साधुओं को निर्जरा के लिए (अन्न-पान ) देना, ( इहलौकिक कार्य निर्वाह के लिए) न देना - इन्हें विद्वान् त्यागे 1) २४. अनन्तज्ञानी और अनन्त दर्शनी महामुनि निग्रंथ महावीर ने ऐसा कहा, श्रुतधर्म का उपदेश दिया 14 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५. भासमाणो ण भासेज्जा णो य चम्फेज्ज मम्मयं । माइट्राणं वियजेज्जा अणुवी २६. संतमा तहिया भाता वातप्पई । जं जं छणं तं ण वत्तव्वं एसा आणा नियंडिया | २७. होलावायं सहीवायं गोयवायं च णो वए । तुमं तुमं ति अमणुण्णं सव्वसो तं ण वत्तए ॥ २८. अकुसीले सदा निक्खू जो व संसग्गियं भए । सुहरूवा तत्थुवसग्गा परिभेन्ज ते विदू ॥ २६. णण्णत्थ अंतराएणं परगेहे न णिसोयए। गाम कुमारिय णाइवेलं वियागरे ॥ ३०. अणुओ जयमाणो चरियाए पुट्ठो हसे किड्डुं मुणी ॥ उरालेगु परिव्वए । अप्पमत्तो तत्थहियासए ॥ ३१. हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा बुच्चमाणो ण संजले । सुमणो अहियासेज्जा णय कोलाहलं करे । ३२. लद्ध काम ण पत्येज्जा विवेचे एव माहिए। आयरिवाई सिजा बुद्धाणं अंतिए सया ॥ ३२. सुस्समाणो उपासेज्जा सुप्पण्णं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपष्णेसो धितिमता जिविया ॥ ३६२ भाषमाणो न भाषेत, नो च वलेत्' मर्मकम् । मायिस्थानं विवर्जयेत् । अनुवीचि व्यारणीयात् ॥ सन्ति इमाः तथ्याः भाषाः, यद् उदित्वा अनुतप्यते । यत् क्षणं तत् न वक्तव्यं, एषा आज्ञा नग्रेग्धिकी ॥ 'होला' वादं सखिवाद, गोत्रवादं च नो वदेत् । एवं एवं इति अमनोज्ञं, सर्वशः तद् न वक्तुम् ॥ अकुशीलः सदा भिक्षुः, नो च सांसर्गिकं भजेत् । सुखरूपाः तत्रोपसर्गाः, प्रतिबुध्येत तान् विद्वान् ॥ अन्तरायेण, निषीदेत् । क्रीडां, नान्यत्र न परगृहे ग्राम्यकौमारिकीं नाविवेलं हसे अनुत्सुकः यतमानः चर्यायां स्पृष्टः तत्र १. प्राकृत व्याकरण ४।१७६ : दलिवल्याविसङ्घवम्फौ । २. उचितमिति शेषः । मुनिः ॥ उदारेषु परिव्रजेत् । अप्रमत्तः, अध्यासीत ॥ हन्यमानः न कुप्येत्, उच्यमानः न संज्वलेत् । सुमनाः अध्यासीत, न च कोलाहलं कुर्यात् ॥ लब्धान् कामान् न प्रार्थयेत् विवेक एवं आहृतः । आचरितानि बुद्धानां अन्तिके सुश्रूषमाणः उपासीत, सुप्रज्ञ सुतपस्विकम् । वीराः ये आत्मप्रज्ञैषिणः, शिक्षेत, सदा ॥ धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः ॥ प्र० : धर्म : इलोक २५-३३ २५. बोलता हुआ भी न बोलता-सा रहे", मर्मवेधी वचन" न बोले", (बोलने में ) मायिस्थान का वर्जन करे, सोचकर बोले 19 २६. कुछ सत्य भाषाएं हैं जिन्हें बोलकर मनुष्य पछताता है ।" जो हिंसाकारी वचन" है, उसे न बोले । यह नित्य (महावीर की"" है। २७. हे साथी हे मित्र" हे अमुक-अमुक गोत्र वाले" - इस प्रकार के वचन न बोले ( सम्मान्य व्यक्तियों के लिए) तू-तू- ऐसा अप्रिय वचन सर्वथा न कहे । " २८. भिक्षु सदा अकुशील रहे: कुशीलों के साथ संसर्ग न करे ।" उनके संसर्ग में अनुकूल उपसर्ग" उत्पन्न होते हैं। विद्वान् उन्हें (उपनों को समझे। २६. मुनि किसी बाधा के बिना" गृहस्थ के घर में" न बैठे।" काम-कोडा और कुमार-कीडा करे मर्यादा रहित हो न हंसे।" ३०. सुन्दर पदार्थों के प्रति परिव्रजन करे, चर्या में स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन उत्सुक न हो, संयमपूर्वक अप्रमत्त रहे, उपसर्गों से करे । १०१ ३१. पीटने पर क्रोध न करे, गाली देने पर उत्तेजित न हो, शान्तमन रहकर उन्हें सहन करे, कोलाहल १०५ न करे । ३२. लब्धकामभोगों की इच्छा न करे । कहा गया है । बुद्धों (ज्ञानियों) के आचार की शिक्षा प्राप्त करे । इसे विवेक पास सदा १०९ ३३. सुपाने और जानने की इच्छा पूर्वक सुश और सुतपस्वी आचार्य की उपासना करे, जो आचार्य वोर", आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी"" धृतिमान् "" और जितेन्द्रिय हैं। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ प्रह: धर्म: श्लोक ३४-३६ सूयगडो १ ३४. गिहे दीवमपासंता पुरिसादाणिया णरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवियं ॥ गृहे दीपमपश्यन्तः, पुरुषादानीयाः नराः । ते वीराः बन्धनोन्मक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥ ३४. गृहवास में दीप" (प्रकाश) न देखने वाले मनुष्य (प्रवजित होकर) पुरुषादानीय११५ हो जाते हैं। वे वीर मनुष्य बंधन से मुक्त हो जीने की इच्छा नहीं करते । ३५. शब्द और स्पर्श में अनासक्त तथा आरम्भ से अप्रति बद्ध रहे । (धर्म का) जो यह स्वरूप कहा गया है, वह सब समयातीत-कालिक है । ११८ ३५. अगिद्ध सद्दफासेसु आरंभेसु अणिस्सिए। सव्वं तं समयातोतं जमेतं लवियं बहु॥ ३६. अइमाणं च मायं च तं परिणाय पंडिए। गारवाणि य सव्वाणि णिव्वाणं संधए मुणि॥ -त्ति बेमि॥ अगृद्धः शब्दस्पर्शयोः, आरंभेषु अनिश्रितः । सर्व तत् समयातीतं, यदेतद् लपितं बहु ।। अतिमानं च मायां च, तत् परिज्ञाय पंडितः । गौरवाणि च सर्वाणि, निर्वाणं संदध्यात् मुनिः ।। -इति ब्रवीमि ॥ ३६. पंडित मुनि अतिमान १९, माया और सभी प्रकार के बड़प्पन के भावों को२० छोड़कर निर्वाण कार संधान करे-सतत साधना करे । - ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन श्लोक १: १. मतिमान् (मईमता) मतिमान् का सामान्य अर्थ है ---बुद्धिमान् । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'मति' का अर्थ केवलज्ञान किया है । मतिमान् अर्थात् केवलज्ञानी।' २. श्रमण महावीर ने (माहणेण) । माहण का अर्थ है-प्राणियों को मत मारो-इस प्रकार शिष्यों को उपदेश देने वाले भगवान् वीर वर्द्धमानस्वामी ।' चूर्णिकार ने माहण और श्रमण को एकार्थक माना है।' ३. कौन सा (कयरे) इसके दो अर्थ हैं-कैसा, कौन सा ।' ४. ऋजु (अंजु) - इसका अर्थ है-ऋजु, सरल । भगवान् महावीर का धर्म माया-प्रपंच से रहित होने के कारण अवक्र है, ऋजु है। जो बालवीर्यवान् और कुशील होते हैं उनका धर्म वक्र होता है। वे कभी ऋजु नहीं बोलते। बौद्ध धर्मावलंबी कहते हैं---हम परिग्रह नहीं रखते। हम हिंसा आदि नहीं करते। किन्तु वे परिग्रह भी रखते हैं और हिंसा भी करते हैं । अत: उनका धर्म ऋजु नहीं है। भागवत कहते हैं---नारायण ही करता है, देता है और लेता है। जैसे आकाश कीचड़ से लिप्त नहीं होता, वैसे ही जिस पुरुष की बुद्धि सारे जगत् के प्राणियों को मार कर भी उसमें लिप्त नहीं होती, वह पाप से स्पृष्ट नहीं होता। भगवान् महावीर ने ऐसा धर्म नहीं कहा । उनका धर्म ऋजु है, सरल है, सबके लिए समान है। श्लोक २: ५. ब्राह्मण (माहणा) पूर्व श्लोक में 'माहण' भगवान् महावीर का एक विशेषण है। यहां चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं --ब्राह्मण या १ (क) चूणि, पृ० १७५ : मन्यते अनयेति भतिः केवलज्ञानमिति, मतिरस्यास्तीति मतिमान । (ख) वृत्ति, पत्र १७७ : मनुते अवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलज्ञानाख्या मतिः सा अस्यास्तीति भतिभान् । २. वृत्ति, पत्र १७७ : भाहणेणं ति मा जन्तून् व्यापादयेत्येव विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्यासी माहनो भगवान् वर्द्धभानस्वामी । ३. चूणि, पृ० १७५ : समणे ति (वा माहणे त्ति वा) एगळं । ४. चूणि पृ० १७५ : कतर: केरिसो वा। ५. चूणि पृ० १७५ : अञ्जुरिति आर्जवयुक्तः, न दंभ-कव्वादिभिरुपदिश्येत । ते तु कुशीला: बालवीर्यवन्तः, तेऽनार्जवानि ब्रवते --न वर्ग परिग्रहवन्तः आरंभिणो वा, एतत् सङ्घस्य बुद्धस्य उपासकानां वा इति । भागवतास्तु-नारायणः करोति हरति ददाति वा । उक्तं हि यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्कन, न स पापेन लिप्यते ॥१॥ नवं भगवता अनार्जवयुक्तो धर्मः प्रणीतः । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ श्रावक ।' ६. क्षत्रिय (खत्तिया) उग्र, भोग, राजन्य और इक्ष्वाकु—ये क्षत्रिय कहलाते हैं। इसका वैकल्पिक अर्थ है-क्षत्र धर्म से जीने वाले क्षत्रिय होते हैं। ७. वैश्य (वेस्सा) ३६५ वैश्य का अर्थ है - व्यापार करने वाला । चूर्णिकार ने इसका अर्थ स्वर्णकार आदि किया है । " ८. बोक्स (जोक्स) उत्पन्न संतान अम्बष्ठ और निषाद के प्राप्त होते हैं-बुक्कस, पुष्कस, पुक्कस इसका अर्थ है - वर्णशंकर जाति । ब्राह्मण के द्वारा शुद्री से उत्पन्न संतान निषाद, ब्राह्मण के द्वारा वैश्य जाति की स्त्री से द्वारा अम्बष्ठ जाति की स्त्री से उत्पन्न संतान 'बोक्कस' कहलाती है। इसके चार संस्कृत रूप और पुल्कस " विशेष विवरण के लिए देखें— उत्तरन्यषाणि ३/४ का टिप्पण ६. बहेलिए (एसिया) इसका शाब्दिक अर्थ है- ढूंढने वाले । मांस के लिए मृग को तथा हाथी को ढूंढने वाले व्याध तथा हस्तितापस 'एषिक' कहलाते हैं। ११. शूद्र (सुहा) अध्ययन टिप्पण ६-१२ अथवा जो अपने भोजन के लिए कन्द-मूल आदि ढूंढते हैं या जो दूसरे पावण्डी लोग विविध उपायों से भिक्षा की एषणा करते हैं, विषयपूर्ति के साधनों को ढूंढते हैं वे भी 'एषिक' कहलाते हैं । " १०. व्यापारी (वेसिया ) इसके दो अर्थ है-वणिक् अथवा या वे अपनी विभिन्न कलाओं से जीविका उपार्जन करते हैं।" 1 वृत्तिकार ने इसका अर्थ खेती करने वाले अहीर जाति के लोग किया है ।" १२. हिसारत हैं ( आरंभणिस्सिया ) इसका अर्थ है ----हिंसा में रत । चूर्णिकार ने छेदन, भेदन, पाचन आदि क्रियाओं तथा वृत्तिकार ने यंत्रपीडन, निलांछन, १. चूणि, पृ० १७५ : माहणा मरुगा सावगा वा । २. चूर्ण, पृ० १७५ : खत्तिया उग्गा भोगा राहण्णा इक्खागा राजानस्तदाश्रयिणश्च । अथवा क्षत्रेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः । २. वृषि, पृ० १७५ श्याः सुवर्णकारादयः । ४. चूर्ण, पृ० १७५ : बोक्कसा णाम संजोगजातिः । जहा - बंभणेण सुद्दीए जातो जसादोत्ति युच्चत्ति, बंभणेण वेस्सजातो अम्बो बुच्चत्ति, तत्थ मिसाएणं अंबट्ठीए जातो सो बोक्कसो बुच्चति । ५ अभिधान चिन्तामणि कोष, ३ / ५९७ । ६. (क) पुर्णि, १० १०५ एलीति एचिकाः मृनुब्धका हरिततापसारय मांगोंगा हस्तिनश्च एवन्ति मूलकन्द-ये चापरे पाषण्डाः नानाविधैरुपायैभिक्षामेषन्ति यथेष्टानि विषयसाधनानि । (ख) वृत्ति पत्र १७७ । ७. (क) चूर्णि, पृ० १७५ : अथ वैशिका वणिजः, तेsपि किल कलोपजीवित्वाद् धर्मं किल कुर्वते । अथवा वेश्यास्त्रियो वैशा किल सर्वाविशेषा वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति (ख) वृत्ति, पत्र १७७ : तथा वैशिका वणिजो मायाप्रधानाः कलोपजीविनः । ८. वृत्ति, पत्र १७७ : शूद्राः कृषीबलादयः आभीरजातीयाः । ६. चुणि, पृ० १७५ : छेदन-भेदन- पचनादिदव्व-भावारंभे णिस्सिता नियतं सिता णिस्सिता । च, Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन: ठिप्पण १३-१७ सूयगडो १ कोयला बनाना आदि क्रियाओं को 'आरंभ' के अन्तर्गत माना है।' श्लोक ३: १३. जो परिग्रह में निविष्ट हैं (परिग्गहे णिविट्ठाणं) जो परिग्रह में निविष्ट हैं अर्थात् जो परिग्रह का नाना उपायों से अर्जन करते हैं, उसकी सुरक्षा करते हैं, उसका भोग करते हैं और उसके नष्ट-विनष्ट होने पर चिंता करते हैं।' वृत्तिकार ने निविष्ट का अर्थ गृद्धि, आसक्ति किया है। १४. उनका वैर बढ़ता है (वेरं तेसि पवड्ढई) यहां बैर का अर्थ पाप-कर्म भी हो सकता है। चुणिकार ने 'वेरं' के स्थान पर 'पावं' पाठ माना है।' वैर का अर्थ शत्रुता भी किया जा सकता है। परिग्रह में आसक्त मनुष्य अनेक लोगों के साथ वैर-भाव पैदा कर लेता है। नियुक्तिकार ने पाप और बैर को एकार्थक माना है।" १५. काम आरंभ (प्रवृत्ति) से पुष्ट होते हैं (आरंभसंभिया कामा) काम का अर्थ है--विषयों के प्रति आसक्ति, आरंभ का अर्थ है --प्रवृत्ति और संभृत का अर्थ है - पुष्टि । काम प्रवृत्ति से पूष्ट होते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति विषयों का का सेवन करता है, वैसे-वैसे विषयों के प्रति उसकी अनुरक्ति बढ़ती जाती है और वह अनूरक्ति प्रवृत्ति को बढाती है । वह प्रवृत्ति काम-वासना को पुष्ट करती है ।' १६. दुःख का (दुक्ख) - दुःख का अर्थ है-आठ प्रकार के कर्म, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, नरक आदि दुर्गति ।' श्लोक ४ : १७. मरणोपरान्त किए जाने वाले अनुष्ठान (आघातकिच्चं) आघात का अर्थ है -मरण और किच्च का अर्थ है-कृत्य अर्थात् मरणोपरान्त किया जाने वाला कृत्य । शव का अग्निसंस्कार करना, जलाञ्जलि देना, पितृपिण्ड देना आदि कार्य आपातकृत्य कहे जाते हैं । १. वृत्ति, पत्र १७७ : आरम्भ (म्भे) निश्रिता यन्त्रपीडननिर्लाञ्छनकर्माङ्गारदाहादिभिः क्रियाविशेषैर्जीवोपम कारिणः । (ख) वृत्ति पत्र, १७७ । २. चूणि, पृ० १७५ : परिग्गहे णिविट्ठाणं ति उवज्जिणंताणं सारवंताणं य णट्ठविणटुं च सोएन्ताणं । ३. वृत्ति, पत्र १७७ : निविष्टानाम् अध्युपपन्नानां गाद्ध यं गतानाम् । ४. चूणि, पृ० १७५। ५. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, गाथा १२२ : पावे वज्जे वेरे, पणगे पंके खुहे असाए य । संगे सल्ले अरए, निरए धुत्ते अ एगट्ठा ॥ ६. चूणि, पृ० १७५, १७६ । ७. (क) चूणि, पृ० १७६ : जरा-व्याध्युदये दुःखोदये वा मृतौ वा प्राप्ते न तस्माद् दुःखाद् मोचपन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १७८ । दुःखयतीति दुःखम् अष्टप्रकार कर्म । ८. वृत्ति, पत्र १७८ : आहन्यन्ते अपनीयन्ते-विनाश्यन्ते प्राणिनां दश प्रकारा अपि प्राणा यस्मिन् स आधातो-मरणं तस्मै तत्र वा कृतम्-अग्निसंस्कारजलालिप्रदानपितृपिण्डादिकमाघातकृत्यम् । Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ सूयगडो। अध्ययन ६ : टिप्पण १८-२४ चूर्णिकार ने इस अवसर पर भैंस, बकरी आदि मारे जाने का भी उल्लेख किया है।' १५. उसके धन का हरण कर लेते हैं (हरंति तं वित्तं) व्यक्ति के मर जाने पर उसके ज्ञातिजन उसका मरणकृत्य संपन्न कर यह सोचते हैं कि हम इस मृत व्यक्ति के धन से विषयों का सेवन करेंगे । वे उसके धन का हरण कर लेते हैं । अ-ज्ञातिजन दास, भृत्य आदि भी उस धन को हड़पने की बात सोचते हैं । मरने वाले व्यक्ति के निःसंतान होने पर राजा उसका समूचा धन ले लेता है। हरण करना, विभक्त करना, अर्पण करना-ये एकार्थक हैं।' श्लोक ५: १६. छेदा जाता हं (लुप्पंतस्स) शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीडित ।' २०. श्लोक ५: तुलना करें- उत्तरझणाणि ६।३ : माया पिया ण्हुसा माया, मज्जा पुत्ता य ओरसा । नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ श्लोक ६ २१. परमार्थ की ओर ले जाने वाले (परमट्ठाणुगामियं) चूर्णिकार ने परमार्थ के दो अर्थ किए हैं—(१) मोक्ष, (२) ज्ञान आदि ।' वृत्तिकार ने इसके मोक्ष और संयम-ये दो अर्थ किए हैं। परमार्थ का अनुगमन करने वाला ‘परमार्थानुगामिक' होता है । २२. समझकर (सपेहाए) यहां 'सं' शब्द के अनुस्वार का लोप किया गया है। इसका अर्थ है-संप्रेक्षा कर, विचार कर, समझकर । वृत्तिकार ने इसके स्थान पर 'स पेहाए' (सः प्रेक्ष्य) माना है।' २३. ममता (से शून्य) (णिम्ममो) जिसकी स्त्री, मित्र, धन, आदि बाह्य वस्तुओं में तथा आभ्यन्तर परिग्रह में ममता नहीं है, वह निर्मम होता है।' २४. अहंकार से शून्य (णिरहंकारो) - इसका अर्थ है-अहंकार शून्य । व्यक्ति में प्रवजित होने से पूर्व के अपने ऐश्वर्य का मद होता है, जाति का अहंकार होता है १. चूणि, पृ० १७६ : महिष-च्छागाद्याश्च वध्यन्ते । २. चूर्णि, पृ० १७६ : मरणकृत्यम् ......'काऊण तं पणिधाय ये तस्य भ्रातृपुत्रादयो दायादा जीवन्ति शब्दादिविषयैषिणः अनेन मृतधनेन वयं भोगान् भोक्ष्यामहे, अज्ञातयोऽपि दास-भृत्य-मन्त्र्यादयः तत् च्युतधनं तर्कयन्ति, अपुत्राणां च मृतकटं राजा गृह्णाति। ३. चूर्णि, पृ० १७६ : हरंति वा विभयंति वा मेति वा एगळं। ४. चूणि, पृ० १७६ : लुप्यमानस्येति शारीर-मानसर्दुःख-दौमनस्यः । ५. चूणि, पृ० १७६ : परमः अर्थः परमार्थः मोक्ष इत्यर्थः ....... ज्ञानादयो वा परमार्थः । ६. वृत्ति पत्र १७८ : परम:-प्रधानभूतो (ऽर्थो) मोक्षः संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुगामुकः । ७. वृत्ति, पत्र १७८ । ८. चूणि, पृ. १७६ : नास्य कलत्र-मित्र-वित्ताविषु बाह्या-ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु ममता विद्यते इति निर्ममः । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ ३९८ प्रध्ययन ६: टिप्पण २५-२८ अथवा अपने ज्ञान का, तपस्या का, स्वाध्याय का अहंकार होता है अथवा अपनी विशिष्ट शक्तियों का अभिमान होता है । जो इन सबसे शून्य है वह 'निरहंकार' होता है।' श्लोक ७: २५. आन्तरिक स्रोत (क्रोध आदि) (अंतगं सोयं) चुणिकार ने यहां 'अत्तगं सोयं' की व्याख्या की है। इसका अर्थ है-आत्मा में होने वाला सात-द्वार । उनके अनुसार ये आत्मक स्रोत हैं-मिथ्यात्व, कषाय, अज्ञान, अविरति । वृत्तिकार ने 'अन्तगं' के दो अर्थ किए हैं--दुष्परित्यज्य और विनाशकारी।' उन्होंने 'सोय' का मुख्य अर्थ शाक, अनुताप किया है और गौण अर्थ श्रोत किया है।' उन्होंने वैकल्पिक रूप में 'अत्तग' पाठ की भी व्याख्या की है।' २६. अपेक्षारहित हो परिव्रजन करे (णिरवेवखो परिव्वए) साधक पुत्र, स्त्री, माता-पिता, धन, धान्य आदि से निरपेक्ष होकर, उनकी अपेक्षा न रखता हुआ संयमचर्या करे । जो निरपेक्ष नहीं होता वह पग-पग पर दुःख पाता है। उसके संकल्प-विकल्प बढते हैं और वह उन्हीं संकल्पों में फंस जाता है । कहा भी है 'छलिया अवयक्खंता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे निरावयखेण होयव्वं ।। जिन्होंने अपेक्षा रखी, वे ठगे गए, किन्तु जो निरपेक्ष रहे वे निविघ्न रूप से पार चले गए। अत: जो साधक प्रवचन के सार को जानता है वह सदा निरपेक्ष रहे, कहीं अपेक्षा न रखे। "भोगे अवयक्खंता पडंति संसारसायरे घोरे । भोगेहि निरवयक्खा तरंति संसारकांतारं ॥' जो भोगों की अपेक्षा रखते हैं वे इस घोर संसारसागर में डूब जाते हैं और जो भोगों से निरपेक्ष रहते हैं बे संसार रूपी कांतार को पार कर जाते हैं।' श्लोक: २७. मूल से बीज तक वनस्पति के दस प्रकार (सबीयगा) सबीजक अर्थात् वनस्पति की मूल से लेकर बीज तक की दस अवस्थाएं । वे ये हैं-बीज, मूल, कंद, स्कंध, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल और बीज । श्लोक १०: २८. बहिस्तात् (बाह्य वस्तु का ग्रहण) (बहिद्धं) यह बहिद्धादान का संक्षेप है। इसका शाब्दिक अर्थ है-बाह्य वस्तु का ग्रहण । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के चातुर्याम धर्म में चौथा है-बहिद्धादान । इस शब्द के द्वारा-मैथुन और परिग्रह-दोनों का ग्रहण होता था । स्त्री भी बाह्य वस्तु है। १. चूणि, पृ० १७६ : न चाहङ्कारः पूर्वैश्वर्य-जात्यादिषु च संप्राप्तेष्वपि, तपः स्वाध्यायादिषु । २. चूणि, पृष्ठ १७७ : आत्मनि भवं आत्मकम् । तत्र मित्र-ज्ञातयः परिग्रहाश्चैव बाहिरंग सोतं, मिच्छत्तं कसाया अण्णाणं अविरती य एतं अत्तगं सोतं, श्रोत:- द्वारमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र १७८ : अन्तं गच्छतीत्यन्तगो दुष्परित्यज इत्यर्थः अन्तको वा विनाशकारीत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र १७८, १७६ : 'शोक' संतापं ........श्रोतो वा-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायात्मकम् । ५. वृत्ति, पत्र १७८ : आत्मनि वा गच्छतीत्यात्मग आन्तर इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १७९ । Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन: टिप्पण २६-३४ चूर्णिकार ने इस शब्द के द्वारा मैथुन और परिग्रह का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने एक स्थान पर इसका अर्थ-मैथुन और दूसरे स्थान पर मैथुन और परिग्रह किया है।' २६. अयाचित अवग्रह (उग्गहं च अजाइयं) चूणिकार ने अयाचित अवग्रह का अर्थ अदत्तादान किया है।' ३०. शस्त्र-प्रयोग (सत्थावाणाई) चूर्णिकार ने शस्त्र का अर्थ असंयम किया है।' मृषावाद आदि असंयम के कारण हैं । इसलिए इन्हें शस्त्रादान कहा गया है। श्लोक ११: ३१. माया (पलिउंचणं) इसका संस्कृत रूप है- परिकुञ्चनं । जिससे सारी क्रियाएं वक्र हो जाती हैं, वह है परिकुञ्चन । यह माया का वाचक है। ३२. लोभ (भयणं) जिसके द्वारा आत्मा टूट जाता है, झुक जाता है, अपनी मर्यादा से हट जाता है वह है लोभ । यह "भजन' शब्द लोभ का पर्याय है। चूर्णिकार ने इसका रूप 'भंजन' किया है।' ३३. क्रोध (थंडिल्ल) जिसके उदय से आत्मा सत्-असत् के विवेक से विकल हो कर स्थंडिल (भूमी) की तरह हो जाती है, वह स्थंडिल है। यह क्रोध का वाचक है। चूर्णिकार के अनुसार क्रोध चारित्र, शरीर और वर्ण आदि को स्थंडिल बना देता है।' ३४. अभिमान (उस्सयणाणि) उच्छ्य ऊंचाई का वाचक है। मनुष्य जाति, कुल, ज्ञान आदि के दर्प से अपने आपको ऊंचा मान लेता है। यह मान का वाचक है।" देखें-२/५१ का टिप्पण। १. चूर्णि, पृ० १७७ : बहिखं मिथुन-परिग्रही गृह्यते । २. वृत्ति, पत्र १७६ : बहिद्धति मैथुनं यदि वा बहिद्धमिति मैथुनपरिग्रहो। ३. चूणि, पृ० १७७ : अजाइयमिति अदत्तादाणं । ४. चूणि, पृष्ठ १७७ : शस्यते अनेनेति शस्त्रम्, शस्त्रस्य आदानानि शस्त्रादानानि, बूयन्त इत्यर्थः । कस्य शस्त्रस्य ? असंयमस्य । ५. (क) चूणि, पृष्ठ १७७ : सर्वतः कुञ्चनं पलिउचणं माया । (ख) वृत्ति, पत्र १७६ : परि-समन्तात् कुच्यन्ते -- वक्रतामापाद्यन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्पलिकञ्चनं मायेति भण्यते । ६. वृत्ति, पत्र १७६ : भज्यते सवत्रात्मा प्रह्वीक्रियते येन स भजनो लोभः । ७. चूणि, पृ० १७७ । भञ्जते भज्यते वाऽसविति असंयतर्भजनः लोभः । ८. वृत्ति, पत्र १७६, १८० : तथा यदुदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेकविकलत्वात् स्थण्डिलवद्भवति स स्थण्डिल:-क्रोधः । ६. चूर्णि, पृ० १७७ : स्थण्डिलः क्रोधः चारित्रं स्थण्डिलस्थानीयं करोति, क्रोध एव स्थण्डिलः वपुर्वर्गादि च । १०. वृत्ति, पत्र १८० : यस्मिश्च सत्यूवं श्रयति जात्यादिना वध्माता पुरुष उत्तानीमवति स उच्छायो मानः । Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३५. कर्म के आयतन ( धुत्तादाणाणि ) 'धूर्त' का अर्थ है कर्म और 'आदान' का अर्थ है - आयतन । सूत्रकार का अभिप्राय है कि माया, लोभ, क्रोध और मान- ये कर्म-बन्ध के आयतन हैं । ३६. रंगना ( रयणं) ४०० वृत्तिकार ने 'धुत्त' के स्थान पर 'धूण' क्रियापद मान कर उसे सभी के साथ योजित करने का निर्देश किया है। जैसेमाया को धुन ( कंपित कर ), लोभ को धुन क्रोध को धुन और मान को धुन ।' उन्होंने आदान का अर्थ - कर्मबंध का कारण किया है।" इलोक १२ : वस्त्र, दांत, नख आदि को रंगना । * ३७. वमन विरेचन ( वमणं च विरेवणं) वमन और विरेचन भी चिकित्सा के अंग हैं। वमन का प्रयोग किया जाता था ।" वमन में मदनफल का प्रयोग होता था । ' वृत्तिकार ने वमन को विरे (ऊ-विरेचन) कहा है।" विरेचन से बल का विकास होता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है और शरीर का वर्णं मनोहारी हो जाता है। " ३८. वस्तिकर्म (कम्म) श्रध्ययन 8 : टिप्पण ३५-३८ प्राचीन काल में मुंह की सुंदरता बढाने और वर्ण को सुवर्ण बनाने के लिए अपान मार्ग के द्वारा पानी, स्नेह आदि के प्रक्षेप को वस्तिकर्म कहा जाता है । दशकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्वविर और जिनदास महत्तर ने तथा टीकाकार हरिभद्र ने अपान मार्ग से स्नेह आदि को चढाना वस्तिकर्म माना है ।" निशीव पूर्णिकार के अनुसार वस्तिकर्म कटि-दात, अर्ज आदि बीमारियों को मिटाने के लिए किया जाता था।" देखें - दशकालिक ३ / २ का टिपण १. चूर्ण, पृ० १७७ : धुत्तादाणाणि ... धूर्त्तस्याऽऽयतनानि कर्मप्रसूतप इत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र १८० : धूनयेति प्रत्येकं क्रिया योजनीया, तद्यथा पलिकञ्चनं– मायां धूनय धूनीहि वा, तथा भजनं-लोभं तथा स्व को तथा उच्छ्रायमानम् । ३. वृत्ति, पत्र १५० एतानि पलिकुचनादीनि अस्मिन् लोके आदानानि वर्त्तन्ते । आदीयते स्वीक्रियते अमीभिः कर्म इत्यादानानि । ( सूत्रकृतांग ११५३, वृत्ति पत्र ३९ ) ४. चूर्ण, पृ० १७८ : रयणं तेषां (वस्त्राणं) दन्त- नखादीनां च । ५ नृणि, पृ० १७८ मुखवर्णसौरयार्थं वमनं करोति । ६. दशवेकालिक, हरिभद्रीया टीका, पत्र ११८ वमनम् मदनफलादिना । ७ वृत्ति, पत्र १५० : वमनम् ऊर्ध्वविरेकः । ८. पूर्ण पृ० १७८ विरेचनमय बनाउन-वर्णप्रसादार्थम । (क) सायं ३०२, अगस्त्यपूर्ण, पृ० ६२ शिरोहादिदानत्वं धम्ममयो पालियाउलो कोरति सेणं अपाणाणं सिहा दिदाणं वस्थिकम्मं । (ख) वही, जिनदास णि, पृ० ११५: वत्थिकम्मं नाम वत्थी दइओ भण्णइ, तेण दद्दएण घयाईणि अधिट्ठाणे दिज्जति । (ग) वही, हरिभद्रया टोका, पृ० ११८ वस्टिन ने स्नेहानं । १०. निशीय भाष्य गाथा ४३३०, चूर्णि पृ० ३६२ : कडिवाय अरिसविणासणत्थं च अपाणद्दारेण वस्थिणा तेल्लादिप्पवाणं वत्थकम्मं । - Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ २६. शिरोवेध (सिरोवेधे) चूर्णि और टीका में इसके स्थान पर 'पलिमंथ' पाठ व्याख्यात है । ज्ञाताधर्मकथा में 'सिरावेह' पाठ मिलता है । वृत्तिकार ने उसका अर्थ 'नाडीवेधन' किया है।' यहां 'सिरोवेधे' पाठ उपयुक्त लगता है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'पलीमंथ' का अर्थ -- संयम का उपघात करने वाला किया है ।" इलोक १३ : ४०. गन्धमाल्य ( गंध मल्लं ) गंध का अर्थ है - इत्र आदि सुगंधित पदार्थ और माल्य का अर्थ है -- फूलों की माला । का टिप्पण देखें- दशर्वकालिक ३ / २ गंध ४१. स्नान ( सिणाणं) ४०१ स्नान दो प्रकार का होता है १. देश- स्नान -- शौच स्थानों के अतिरिक्त आंखों के भौं तक धोना । २. सर्व स्नान - सारे शरीर का स्नान । जैन परंपरा में मुनि के लिए दोनों प्रकार के स्नान अनाचीर्ण हैं । देखें – दशकालिक ३ / २ सिणाणं" का टिप्पण | ४२. दांत पखालना (दंतपक्खालणं ) दांतों को कदम्ब के दतून से पखालना, दतोन करना । यह भी अनाचार है । दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन के तीसरे श्लोक में 'दंतपहोयणा' और नौंवे श्लोक में 'दंतवणे' शब्द का प्रयोग मिलता है। दोनों की भावना समान है । देखें- दशकालिक ३/२६ का दि ४३. परिग्रह, स्त्री, हस्तकर्म ( परिग्गहित्थिकम्मं ) इसमें तीन शब्द है-परि स्त्री और कर्म 7 चूर्णिकार ने सविस आदि पदार्थों के प्रण को परिग्रह माना है। उन्होंने स्त्री के तीन प्रकार बतलाए है- कुमारिका, परिणिता और विधवा अथवा देवी, मानुषी और तरश्ची । कर्म शब्द के द्वारा 'हस्तकर्म' गृहीत है ।" वृत्तिकार ने पूर्वोक्त सभी अर्थ स्वीकार करते हुए कर्म का वैकल्पिक अर्थ - सावद्य अनुष्ठान किया है।" चूर्णिकार ने यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि इसी अध्ययन के दसवें श्लोक में 'बहिर्द्ध' शब्द के द्वारा स्त्री और परिग्रह का वर्जन किया जा चुका है। यहां पुनः वर्जन निर्दिष्ट है । क्या यह पुनरुक्तदोष नहीं है ? समाधान देते हुए वे लिखते हैं कि यह पुनरुक्त दोष नहीं है, क्योंकि इसमें उनके भेदों का उल्लेख किया गया है।" १. ज्ञाताधर्मकथा, वृत्ति पत्र १६० : नाडीवेधनानि रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः । २. (क) चूणि, पृ० १७८ : तत्थ पलिमंथो संजमस्स । (ख) वृत्तपत्र १०० संयमयमिन्यकारि संयोपधातरूपम् । अध्ययन : टिप्पण ३६-४३ ३. वृत्ति, पत्र १८० : दन्तप्रक्षालनं कदम्बकाष्ठादिना । परियहं इत्यम्मं च परिमाहो सचितायो इस्यो तिविधाओं कम्म त्यम्मं । ४. पूर्णि, पृ० १७८ ५. वृत्ति, पत्र १८० परिग्रहः सच्चित्तादेः स्वोकरणं तथा स्त्रियो दिव्यामानुषर्तरश्च्यः तथा 'कर्म' हस्तकर्म सावद्यानुष्ठानं वा । ६. वृषि, पु० १७८: स्यात् पूर्व हिमपदिष्टं इत्यतः पुनरुक्तम् उच्यते तवदर्शनान पुनरुम्। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४०२ अध्ययन :: टिप्पण ४४-४६ श्लोक १४: ४४. साधु के उद्देश्य से बनाए गए (उद्देसियं) निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन आदि को औद्देशिक कहते हैं। यह भिक्षु के लिए अनाचीर्ण है- अग्राह्य और असेव्य है। देखें- दशवकालिक ३/२ 'उद्देसियं' का टिप्पण । ४५. (साधु के उद्देश्य से) खरीदे गए (कीयगडं) इसके दो अर्थ प्राप्त हैं१. खरीद कर दी गई वस्तु ।' २. खरीदी हुई वस्तु से बनी हुई वस्तु ।' देखें--दशवकालिक ३/२ कियगडं' का टिप्पण । ४६. (साधु के उद्देश्य से) उधार लिए गए (पामिच्चं) साधु के लिए दूसरों से उधार लेना 'प्रामित्य' कहलाता है। यह उद्गम का नौवां दोष है । देखें-दशवकालिक ५/१/५५ 'पामिच्च' का टिप्पण। ४७. (साधु के उद्देश्य से) दूर से लाए गए (आहडं) आहृत का अर्थ है-साधु को देने के लिए गृहस्थ द्वारा अभिमुख लाई गई वस्तु । पिंडनियुक्ति और निशीथ भाष्य में इसके अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं। देखें-दशवकालिक ३/२ 'अभिहडाणि' का टिप्पण । ४८. पूति (पूर्ति) जो आहार साधु के निमित्त बनाया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। उससे मिश्रित जो आहार आदि होता है, वह पूतिकर्म कहलाता है। देखें-दशवकालिक ५/१/५५ 'पूईकम्म' का टिप्पण । श्लोक १५: ४६. वीर्यवर्द्धक आहार या रसायन (आसूणि) 'टवोश्वि गतिवृद्धयोः'- इस धातु का क्त प्रत्ययान्त रूप है 'शूनः'। इस धातु के दो अर्थ हैं-गति और वृद्धि । प्रस्तुत प्रसंग में यह वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त है। 'आसूणि' का संस्कृत रूप है 'आशूनि' । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसके तीन-तीन अर्थ किए हैं१. आशूनि का अर्थ है—श्लाघा । व्यक्ति दूसरों द्वारा प्रशंसित होता हुआ स्तब्ध हो जाता है। जब तक वह प्रशंसित होता है अथवा जब तक दूसरे व्यक्ति उसका अनुसरण करते हैं तब तक वह मान से स्तब्ध होता है । वह तुच्छ प्रकृति वाला मनुष्य अपनी प्रशंसा सुनकर मान से फूल जाता है । २. जिस आहार के द्वारा व्यक्ति बलवान होता है, बल की वृद्धि होती है, वह आशूनि कहलाता है। १. वृत्ति, पत्र १८०। क्रीतं ऋयस्तेन क्रीतं-गृहीतं क्रीतक्रीतम् । २. दशवकालिक ३२, हरिभद्रीया वृत्ति पत्र ११६ : क्रयणं-क्रोतं, भवे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते, तेन कृतं-निर्व तितं क्रीतकृतम् । ३ वृत्ति, पत्र १८० : 'पूर्य' मिति आधाकर्मावयवसम्पृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति भवति । Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४०३ ३. जिस व्यायाम, स्नेहपान, रसायन के द्वारा बल की वृद्धि होती है, वह आशूनि कहलाता है । चूर्णिकार ने श्लाघा के अर्थ को मुख्य मान कर शेष दो अर्थों को वैकल्पिक रूप में प्रस्तुत किया है । वृत्तिकार ने श्लाघा के अर्थ को गौण मान कर शेष दो अर्थों को मुख्य माना है । ५०. आंखों को अजिना (अगं ) आंखों को सौवीरक आदि से आंजना । ५१. तिरस्कार ( उवधायकम्मगं ) व्यक्ति जाति, कर्म या शील से दूसरों का उपहनन करता है, उनको नीचा दिखाता है, वह उपघातकर्म है । ' ५१. हाथ-पैर आदि धोना (उच्छोलणं) हाथ, पैर, मुंह आदि को धोना उत्क्षालन कहा जाता है।* वृत्तिकार ने अनापूर्वक सचित जल से हाथ-पैर आदि को धोना 'उरासन' माना है। दशवेकालिक सूत्र (४ / श्लोक २६ ) में उत्क्षालनप्रधावी - हाथ-पैर आदि को बार-बार धोने वाले के लिए सुगति दुर्लभ हैं। ऐसा कहा गया है। इस सूत्र के पूर्णिकार जिनदास महत्तर का अभिमत है कि जो थोड़े से जल से हाथ, पैर आदि को यतनापूर्वक धोता है वह उत्क्षालनप्रधावी नहीं होता । किन्तु जो प्रभूत जल से बार-बार अयतनापूर्वक हाथ, पैर आदि को धोता है, वह उत्क्षालनप्रधावी होता है उसे सुगति नहीं मिलती।' ५३. उबटन करना (कक्कं ) कल्क का अर्थ है - स्नान-द्रव्य, विलेपन द्रव्य या गंध द्रव्य का आटा । प्राचीन काल में स्नान में सुगंधित द्रव्यों का उपयोग किया जाता था। स्नान से पूर्व सारे शरीर पर तेल-मर्दन किया जाता था। उसकी चिकनाई को मिटाने के लिए पिसी हुई दाल या आंवले का सुगंधित उबटन लगाया जाता था। इसी का नाम 'कल्क' है । यह उबटन आटे अथवा लोध आदि द्रव्यों के मिश्रण से भी बनाया जाता था । " वैद्यक ग्रन्थों में कल्क की परिभाषा यह है विशेष विवरण के १. (क) भूमि, पृ० १७८ द्रव्यमात्रं शिला पिष्टं शुष्कं जलमिश्रितम् । तदेव सूरिभिः पूर्व फरक इत्यभिधीयते अध्ययन १ टिप्पण ५०-५३ लिए देखें -- दशवैकालिक ६ / ६२ 'कक्क' और 'लोद्ध' का टिप्पण | आधिक नाम राधा येन परे स्तूयमानः सुरजति पावणोति यावद्वानुस्मरति तावत् सुमति मानेनेति आसूनिकम् अथवा वेग आहारेण आहारितेण सुणीहोति बलवस्वं भवति, व्यायाम-स्नेहान रसायनादि भिर्वा । (ख) वृत्ति पत्र १५० आणि इत्यादि येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनथिया वा असून सन् आसी भवति - बलवानुपजायते तदाशुनीत्युच्यते, यदि वा आसूणित्ति - श्लाघा यतः श्लाघया क्रियमाणया आसमन्यात लघुप्रकृतिः कश्विदध्यातत्वात् स्तब्धो भवति । २. वृत्ति पत्र १८० : अक्ष्णां 'रागो' रञ्जनं सौवीरादिकमञ्जनमितियावत् । ३. चूर्णि, पृ० १७८ : उपोद्घातकर्म णाम परोपघातः तच्च करोतीत्याह, जातितो कर्मणा सीलेण वा परं उवहणति । ४. चूर्ण, पृ० १७ : उच्छोलणं च हत्य-पाद-मुखादीनां । ५ णि, पृ० १८० : उच्छोलनं' ति अयतनया शीतोदकपानादिना हस्तपादादिप्रक्षालनम् । ६४ / २६ जना पृ० १६४ उच्चपहावी नाम जो पभूओरगेण ह्त्यपावादी अभिस्तर्ण पक्तालय, पोष ७. (क) चूणि, पृ० १७८ कल्केन अट्टगमादिया हत्यन्यादे मुखं गातापि च उचट्टेति । (ख) बत्ति, पत्र १८० : कल्कं लोभादिद्रव्यसमुदायेन । ८. बंदसिंधु, पृ० २३० ॥ कुयि कृष्यमाणो (ग) उन्दोलणापहोली म Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ५४. असंयत प्रवृत्ति को सहारा देना (संपसारी) देखें - २ / ५० का टिप्पण | ५५. आरंभ की प्रशंसा करना ( कयकिरिए) देखें - २ / ५० का टिप्पण । ५६. अंगुष्ठ आदि के द्वारा फल बताना ( परिणायतनानि ) देखें - २ / ५० में 'पासिणए' का टिप्पण । ४०४ श्लोक १६ : ५७. शय्यातर पिंड ( सागारियं पिंडं ) इसका अर्थ है - शय्यातर पिंड । मुनि जिसके मकान में रात्रीवास करता है, वह शय्यातर कहलाता है । उस घर के मालिक का भोजन आदि मुनि के लिए वज्र्ज्य है। वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं-' १. शय्यातर का पिंड । २. सूतकगृह का पिंड । ३. जुगुप्सित कुल का पिंड विशेष टिप्पण के लिए देखें- दशवै ० ३ / ५ का टिप्पण | १. वृति पत्र १०१ १८. जुआ (अट्टाप) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-यूतक्रीडा किया है और यह राजपुत्रों में ही होती है ऐसा निर्देश किया है। मुनि अष्टापद का अभ्यास न करे और जो मुनि बनने से पूर्व सीखा हुआ है, उसका प्रयोग न करे । ' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ - चाणक्य आदि का अर्थशास्त्र और गौण अर्थ - द्यूत - क्रीडा विशेष किया है। २. पूर्ण पृ० १० २. वृत्ति पत्र १०१ श्लोक १७ : जैन आगमों में वर्णित बहत्तर कलाओं में द्यूत दसवीं कला है और अष्टापद तेरहवीं कला है। इसके अनुसार 'द्यूत' और 'अष्टापद' एक नहीं है। अध्ययन : टिप्पण ५४-५८ वह आज की भाषा में हम अष्टापद को शतरंज का खेल कह सकते हैं। द्यूत के साथ द्रव्य की हार-जीत का प्रसंग रहता है, अतः निर्ग्रन्थ के लिए संभव नहीं है । शतरंज का खेल प्रधानतया आमोद-प्रमोद के लिए होता है। अतः यह अर्थ प्रसंगोपात्त है । दशवैकालिक सूत्र ( ३ / ४) में भी यह शब्द आया है । उसके व्याख्याकारों ने इसके तीन अर्थ किए हैं १. द्यूत । २. एक प्रकार का द्यूत | ३. अर्थ - पद - अर्थ - नीति | लकगृहपिण्डं जुगुप्सितं 'सागारिक: सध्यातरस्तस्य विन्डम् आहारं यदि वा सागारिकपिण्डमिति वर्णापसदपिण्डं वा । अाप नाम कीडा, न भवत्यराजपुत्राणाम्, समष्टापदं न शिक्षेत पूर्वशिक्षितं वा न कुर्यात् । अट्ठावइत्यादि अत्यधनधान्य हिरण्यादिकः पद्यते गम्यते येनास्तत्पदं शास्त्र अर्थार्थ परमपदं चाणाक्या विकमर्थशास्त्रं यदि वा 'अष्टापदं' - तक्रीडाविशेषः । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४०५ 'प्राचीन भारतीय मनोरंजन' के लेखक मन्मथराय ने भी अष्टपाद को शतरंज या उसका पूर्वज खेल माना है । देखें -- दशवैकालिक ३/४ अट्ठावए का टिप्पण | ५२. वेध (बेध) चूर्णिकार ने वेध का अर्थ द्यूतविद्या या शरीर का वेधन किया है। २ वृत्तिकार ने 'वेधाईयं' पाठ के दो अर्थ किए हैं १. धर्मानुवेध से अतीत अर्थात् अप-प्रधान वचन । २. वस्त्र-वेध - एक प्रकार का द्यूत, तद्गत वचन । 'वेधाईयं' इस पद में दीर्घ ईकार होने के कारण वृत्तिकार ने इसे वेधातीत मान लिया । आगमों में 'आदिक' शब्द के 'आदिय' और 'आदीय' - ये दोनों प्रयोग मिलते हैं । संस्कृत शब्द कोष में वेध का अर्थ है -ग्रह-नक्षत्रों का योग ।' 'वदेत्' क्रिया के संदर्भ में यही अर्थ उपयुक्त प्रतीत होता है । ६०. हस्तकर्म (हत्यकम्मं ) चूर्ण में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं* १. हस्तकर्म - अप्राकृतिक मैथुन । २. हाथापाई - भगवती आराधना में इसका अर्थ है-छेदन, भेदन, रंगना, चित्र बनाना, गूंथना आदि हस्त कौशल ।" संस्कृत शब्द कोष में 'हस्तक्रिया' का अर्थ हस्तकौशल मिलता है। यहां यही अर्थ विवक्षित है । ६१. विवाद ( विवाय ) पूर्णिकार ने विवाद, विष और इनको एकार्थक माना है। कृतिकार ने शुष्कवाद को विवाद माना है।" श्लोक १८ : ६२. जूता (उवाहणालो) यहां 'उवाहणा' शब्द का प्रयोग हुआ है । दशवेकालिक में 'पाणहा' और पाठान्तर के रूप में 'पाहणा' शब्द प्राप्त हैं । 'पाणहा' और 'पाहणा' में 'ण' और 'ह' का व्यत्यय है । उवाणा का संक्षिप्त रूप 'पाहणा' है । इसका अर्थ है - पादुका, पादरक्षिका, " १० १. चूर्ण, पृ० १७८: वेधा नाम द्यूतविच्च ( ज्जा) समूसितंगे ( ? ) रुधिरं जंत छिज्जंताणं । २. वृत्ति, पत्र १८८ : वेधो धर्मानुवेधस्तस्मावतीतं सद्धर्मानुवेधातीतम् - अधर्मप्रधानं वचो नो वदेत् यदि वा-वेध इति वस्त्रवेधो द्यूतविशेषस्तद्गतं वचनम् । ३. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृ० १४६७ : वेध :- Fixing the position of the sun, planets or the stars. ४. वृत्ति, पत्र १८१ : हस्तकर्म प्रतीतं, यदि वा हस्तकर्म हस्तक्रिया परस्परं हस्तव्यापारप्रधानः कलहः । ५. भगवती आराधना, गाथा ६१३, विजयोदया टीका । ६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृ० १७५३ : अध्ययन : टिप्पण ५६-६२ हस्तक्रिया - Manual work or performance, handicraft. ७. पूणि, पृ० १७८: विवादो विग्रहः कलह इत्यनर्थान्तरम् । ८. वृत्ति पत्र १८१ : विरुद्धवादं विवादं शुष्कवाद मित्यर्थः । E. (क) चूर्णि, पृ० १७९ : उपानहौ पादुके । (ख) वृत्ति, पत्र १८१ : उपानहो— काष्ठपाटुके । १०. भगवती २१ वृति ..... पादरक्षकाम् । , ............ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन E : टिप्पण ६३-६६ पादत्राण ।' साधु के लिए जूते पहनना अनाचार है। विशेष विवरण के लिए देखें---दशवकालिक ३/४ 'पाणहा' का टिप्पण । ६३. छाता (छत्तं) वर्षा तथा आतप-निवारण के लिए जिसका उपयोग किया जाए, उसे 'छत्र' कहते हैं । मुनि के लिए छत्रधारण का निषेध है।' विशेष विवरण के लिए देखें-दशवकालिक ३।४ का टिप्पण । ६४. नालिका (नलिका से पासा डालकर जुआ खेलना) (णालियं) नालिका-यह छूत का ही एक विशेष प्रकार है । चतुर द्यूतकार अपनी इच्छा के अनुकूल पासे न डाल दे, इसलिए पासों को नालिका द्वारा डालकर जो जुआ खेला जाता है उसे 'नालिका द्यूत' कहा जाता है। नालिका शब्द के अनेक अर्थ हैं । जैसे-छोटी-बड़ी डंडी, नली वाली रेत की घड़ी, मुरली आदि-आदि। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में ७२ कलाओं के नाम हैं। उनमें जुए के लिए तीन शब्द आए हैं-छूत, अष्टापद और नालिकाखेल । वृत्तिकार ने चूत का अर्थ साधारण जुआ, अष्टापद का अर्थ सारी-फलक से खेला जाने वाला जुआ (शतरंज) और नालिकाखेल क अर्थ नालिका द्वारा पासे डालकर खेला जाने वाला धुत किया है। प्रस्तुत सूत्र के चूर्णिकार ने नालिका का अर्थ नालिका-क्रीड़ा और वृत्तिकार ने द्यूतक्रीड़ा विशेष किया है।' देखें-दशवकालिका ३।४ का टिप्पण । ६५. चमर (बालवीयणं) बालवीजन का अर्थ है- बालों से बना पंखा, चमर । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. चमर। २. मयूरपिच्छ । चमर, मयूरपिच्छ आदि से हवा करना अनाचार है। मुनि भीषणगर्मी में भी पंखा आदि झलकर हवा नहीं ले सकता। ६६-६७. परक्रिया .......... अन्योन्यक्रिया (परकिरियं अण्णमण्णं च) परक्रिया का अर्थ है-दूसरे से संबंधित क्रिया और अन्योन्यक्रिया का अर्थ है-परस्पर की क्रिया । आयारचूला का तेरहवां अध्ययन परक्रिया से और चौदहवां अध्ययन अन्योन्य क्रिया से संबंधित है। दोनों अध्ययनों की विषय-वस्तु समान है। अन्तर केवल इतना ही है कि पर क्रिया में मुनि के लिए गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से पैर आदि का आमर्जन, प्रमर्जन, संबाधन आदि कराने का निषेध है और अन्योन्यक्रिया में परस्पर आमर्जन, प्रमर्जन आदि का निषेध है। श्लोक २०: ६८. गृहस्थ के पात्र में (परमत्ते) 'परमत्त' में दो शब्द हैं-'पर' और 'अमत्र' । पर का अर्थ है गृहस्थ और अमत्र का अर्थ है-बर्तन । मुनि गृहस्थ के पात्र १. दश वैकालिक ३१४, अगस्त्यचूणि, पृ०६१ : उवाहणा पादत्राणं । २ चूणि, पृ० १७६ : छत्रमपि आतप-प्रवर्षपरित्राणार्थ न धार्यम् । ३. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, २०६४, वृत्ति, पत्र १३७ : द्यूतं सामान्यतः प्रतीतम् । ......... · अष्टापदं-शारिफलका तं तद्विषयककलाम् । वृत्ति, पत्र १३६ : नालिकाखेलं त्रु तविशेषं मा भूदिष्टदायविपरीतपाशकनिपातनमिति नालिकया यत्र पाशक: पास्यते। ४. चूणि, पृ० १७६ : नालिका नाम नालिकाक्रीडा कुदुक्काकीड ति । ५. वृत्ति, पत्र १८१ : नालिका-छू तक्रीडाविशेषः । ६. वृत्ति, पत्र १३१ : वाल: मयूरपिच्छैर्वा व्यजनकम् । ७. चूणि, पृ० १७६ : परस्य पात्रं गहिमात्र इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४०७ अध्ययन ६ : टिप्पण ६९-७२ में अन्न-पान न खाए । दशवकालिक सूत्र में गृहस्थ के बर्तन में खाने से होने वाले दो दोषों का उल्लेख है। उसके अनुसार गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात्-कर्म और पुर:-कर्म दोष की संभावना होती है । गृहस्थ बर्तनों को सचित्त जल से धोता है और उस जल को बाहर फैकता है। इसमें छहों प्रकार के जीवों की हिंसा की संभावना है।' वृत्तिकार ने तीन कारणों का निर्देश किया है१. पुरः कर्म और पश्चात् कर्म का भय बना रहता है। २. गृहस्थ के बर्तनों के चोरी हो जाने की संभावना रहती है। ३. हाथ मे गिर कर बर्तनों के टूट जाने का भय रहता है। (विशेष विवरण के लिए देखें-दशवकालिक ६।५१,५२ का टिप्पण) ६६. अचेल होने पर भी गृहस्थ का वस्त्र (परवत्थं अचेलो वि) इस पद का अर्थ है कि मुनि अचेल होने पर भी गृहस्थ का वस्त्र न ले । चूर्णिकार का कथन है कि मुनि अचेल हो जाने पर भी गृहस्थ के वस्त्रों को काम में न ले। क्योंकि मुनि यदि गृहस्थ के वस्त्र काम में लेकर लौटाता है तो गृहस्थ उनको पहले या पीछे कच्चे जल से धोता है, इससे पश्चात्-कर्म और पुरःकर्म का दोष लगता है । तथा उन वस्त्रों के चोरी हो जाने या फट जाने का भी भय रहता है । अतः मुनि गृहस्थ के कपड़ों को काम में न ले।' निशीथ १२१११ में परवस्त्र के स्थान पर गृहिवस्त्र का प्रयोग मिलता है । चूणिकार ने इसका अर्थ प्रातिहारिक वस्त्र-काम में लेकर पुनः दिया जाने वाला बस्त्र-किया है।' श्लोक २१: ७०. आसंदी (आसंदी) - इसका अर्थ है-बैठने का एक प्रकार का उपकरण, कुर्सी । चूणि कार के अनुसार काष्ठपीठ को छोड़कर सभी आसन इस शब्द से गृहीत हैं। देखें-दशवकालिक ३३५ में 'आसंदी' का टिप्पण । ७१. पलंग (पलियंके) देखें-दशवकालिक ६।५३, ५४, ५५ के टिप्पण । ७२. घर के भीतर बैठना (णिसिज्जं च गिहतरे) ___ इस पद की भावना का विस्तार दशवकालिक सूत्र के (६।५६-५६) इन चार श्लोकों में है। वहां निर्देश है कि भिक्षा के लिए प्रस्थित मुनि गृहस्थ के अन्तरगृह में न बैठे। क्योंकि वहां बैठने से ये दोष उत्पन्न हो सकते हैं१. दशवकालिक ६.५१, ५२ : सीओदगसमारंभे, मत्तधोयणछडडणे । जाई छन्नति भूयाई दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सिया तत्य न कप्पई । एयमझें न भुजति, निग्गंथा गिहिमायणे । २. वृत्ति पत्र १८१: परस्य --- गृहस्थस्यामत्रं-भाजनं परामत्रं तत्र पुरःकर्मपश्चात्मककर्मभयात् हुतनष्टाविदोषसम्भवाच्च । ३. चूणि, पृ० १७६ : परस्य वस्त्रं गृहिवस्त्रमित्यर्थः, तत् तावत् सचेलो बर्जयेत, मा भूत पश्चात्कर्मदोषः हुत-नष्टदोषश्च, यद्यपचेलकः __ स्यात्, एवं तावत सचेलकस्य । ४. निशीथ, १२।११: चूणि । ५. चूणि, पृ० १७६ : आसंदीत्यासंदिका सर्वा आसनविधिः अन्यत्र काण्ठपीठकेन । Jain Education Intemational ain Education International Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १. ब्रह्मचर्य - आचार का विनाश। २. प्राणियों का अवध - काल में वध । ३. भिक्षाचरों के दान में बाधा । ४. गृहस्वामी या घर वालों को क्रोध । ५. ब्रह्मचर्य में बाधा | ६. गृहस्वामिनी या वहां उपस्थित अन्य स्त्री के प्रति आशंका की उत्पत्ति । ४०८ इसका अपवाद सूत्र यह है कि जो मुनि जराग्रस्त है, जो रोगी है या जो तपस्वी है वह गृहस्थ के अन्तर्घर में बैठ सकता है । " ७३. सावद्य प्रश्न पूछना (संपुच्छणं ) वृत्तिकार ने 'गितरे' के दो अर्थ किए हैं-घर के बीच में या दो घरों के बीच की गली में । " विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं पृ० ३२५- ३२७ । चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ दिए हैं १. अमुक व्यक्ति ने यह काम किया या नहीं - गृहस्थ से यह पूछना । २. अपने अंग - अवयवों के बारे में दूसरे से पूछना, जैसे मेरी आंखें कैसी हैं ? ये सुन्दर लगती हैं या नहीं ? आदि । ३. रोगी (गृहस्थ ) से पूछना - तुम कैसे हो ? तुम कैसे नहीं ? अर्थात् गृहस्थ रोगी से कुशल प्रश्न करना । वृतिकार ने इसके दो अर्थ दिए है-' १. गृहस्थ के घर में जाकर उसका कुशल-क्षेम पूछना | २. अपने शरीर या अवयवों के विषय में पूछना । विशेष विवरण के लिए देखें - दशवैकालिक ३ । ३ का टिप्पण | ७४. भुक्त भोग का स्मरण (सरणं) इसका अर्थ है - पूर्वभुक्त कामक्रीड़ा का स्मरण करना। मुनि गृहस्थावस्था में अनुभूत भोगों की स्मृति न करे । यह भी एक अनाचार है । श्रध्ययन ६ : टिप्पण ७३-७४ दशकालिक सूत्र ( ३६ ) में 'आउरस्सरण' तथा उत्तराध्ययन सूत्र ( १५८) में 'आउरे सरणं' पाठ उपलब्ध होता है । 'सरण' शब्द के दो संस्कृत रूप बनते हैं स्मरण और शरण । स्मरण का अर्थ है-याद करना और शरण का अर्थ हैत्राण, घर, आश्रय स्थान । इन दो रूपों के आधार पर इसके अनेक अर्थ होते हैं । -- चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स्मरण' के आधार पर ही इसका अर्थ किया है । देखें-- दशवैकालिक ३।६ का टिप्पण | १. दशवेकालिक, ६०५६ : तिन्हमन्नधरागस्स, निसेज्जा जस्स कपई । जराए अभिभूवरस वापिस तवस्त्रिणो ॥ २. वृति पत्र १२ गृहस्यान्समध्ये गृहोर्यामध्ये ३ चूर्णि, पृ० १७९ : संपुच्छणं णाम किं तत् कृतं ? न कृतं वा ? संपुच्छावेति अण्णं केरिसाणि मम अच्छोणि ? सोभंते ण वा ? इत्येवमादि, ग्लानं वा पुच्छति कि ते वट्टति ? ण वट्टति वा ? | ४. वृत्ति, पत्र १८२ : गृहस्थगृहे कुशलादित्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ ( पुञ्छ ) नं वा । ५. (क) चूर्णि, पृ० १७६ : सरणं पुवरत पुग्वकीलियाणं । (ख) वृति पत्र १५२ पूर्वकीडितस्मरणम् । - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४०६ अध्ययन : टिप्पण ७५-७७ श्लोक २२: ७५. श्लोक २२: प्रस्तुत श्लोक में यश, कीत्ति, श्लोक, वंदना और पूजना-ये शब्द आए हैं । चूर्णिकार ने यश की दो अवस्थाओं का वर्णन किया है -पूर्वावस्था और उत्तरावस्था । गृहस्थावस्था में दान, बुद्धि, आदि के कारण यश था। मुनि अवस्था में तप, पुजा और मत्कार आदि के कारण यश होता है । मुनि के लिए ये दोनों अवस्थाओं के यश वांछनीय नहीं है। इस यश का कीर्तन करना यशकत्ति है। श्लोक का अर्थ है-श्लाघा । जाति, तप, बहुथ तता आदि के द्वारा अपनी श्लाघा करना।' वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है१. यश-----अनेक यूद्धों में विजय प्राप्त करने के कारण शोय की जो प्रसिद्धि होती है वह यश कहलाता है। २. कीति-दान देने से होने वाली प्रसिद्धि कीत्ति है। ३. प्रलोक-जाति, तप और बहुश्रु तता से होने वाली प्रसिद्धि श्लोक-श्लाघा है। वंदना-देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि विशिष्ट व्यक्तियों से वंदित होना बंदना है। ५. पूजना-ये विशिष्ट व्यक्ति सत्कारपूर्वक जो वस्त्र आदि देते हैं, वह पूजना है। कालिक सत्र (९।४। सूत्र ६) में अन्य शब्दों के साथ कीत्ति और श्लोक-ये दो शब्द भी आए हैं। व्याख्याकारों ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है कत्ति-दुसरो के द्वारा किया जाने वाला गुणकीर्तन ।' सर्वदिग्व्यापी प्रशंसा । २. श्लोक-ख्याति । स्थानीय प्रशंसा ।। ७६. काम (कामा) विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य ईष्ट शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं। काम दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यकाम और भावकाम । भावकाम दो प्रकार के हैं१. इच्छाकाम-विषय की अभिलाषा । २. मदनकाम-अब्रह्मचर्य का भोग । देखें-दशवकालिक २११ का टिप्पण । श्लोक २३ : ७७. श्लोक २३: प्रस्तुत श्लोक का अर्थ करने में चूणि कार और वृत्तिकार असंदिग्ध नहीं रहे हैं, ऐसी उनकी व्याख्या से प्रतीत होता है। १. चूणि, पृ० १७६ : दानबुढ्यादि पूर्व यशः, तपः-पूजा-सत्कागदि पश्चाद् यशः, यशः एव कीर्तनं जसकित्ती। सिलोगो णाम श्लाघा जाति-तपो-बाहुश्रुत्यादिभिरात्मानं (न) श्लाघेत ।। २. वृत्ति, पत्र १८२: बहुसमरसङ्घट्टनिर्वहणशौयलक्षणं यशः, दानसाध्या कोतिः, जातितपोबहुश्रुतत्वादिजनिता श्लाघा, तथा या च सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिर्वन्दना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना । ३. दशवकालिक ६।४।६, अगस्त्य चूणि, पृ० : परेहि गुणसंसद्दणं कित्ती। ४. वही, हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २५७ : सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीतिः । ५. वही, अगस्त्य चूणि, पृ० : परेहिं पूरणं सिलोगो। ६. वही, हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २५७ । तत्स्थान एव श्लाघा । Jain Education Intemational Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४१० अध्ययन ६ : टिप्पण ७७ चूर्णिकार ने इसकी दो व्याख्याएं की हैं१. जिस उत्पादन दोष (धर्मकथा या संस्तव या आजीववृत्ति या दैन्य) के द्वारा अन्न-पान लिया जाता है, उससे संयम निर्गमन करता है, इसलिए ऐसा न करे । २. जिससे इहलौकिक कार्य निष्पन्न होता है अथवा मित्र-कार्य पूरा होता है ---यह मुझे इसके बदले में कुछ देगा, परित्राण करेगा, मेरा भार उठायेगा आदि-आदि इहलौकिक कार्य के निर्वाह को ध्यान में रखकर दूसरों को अन्न-पान न दे। वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ प्रस्तुत किए हैं१. जिस (शुद्ध अथवा कारणवशगृहीत अशुद्ध) अन्न-जल से मुनि इस लोक में अपनी संयम यात्रा (दुभिक्ष या रोग, आतंक आदि) का निर्वाह करता है, वैसा ही अन्न-जल दूसरे मुनियों को दे । २. जो अन्न-जल संयम को निस्सार करता है, वह न ले। तथा यह अशन आदि गृहस्थों, परतीथिकों और संयमोपघातक होने के कारण स्वतीथिकों को भी न दे । इस प्रवृत्ति को परिज्ञा से जानकर, इसका सम्यक् परिहार करे । वृत्तिकार के दोनों अर्थों में कोई मेल नहीं है । हमने इसका अर्थ निशीथ सूत्र के आधार पर किया है। वहां बतलाया गया है-जो भिक्षु अन्यतीर्थिक और गृहस्थ के द्वारा अपना भार उठाता है, उठाने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । जो भिक्षु 'यह मेरा भार उठाता है, इस दृष्टि से अन्यतीथिक या गृहस्थ को अशन, पान खाद्य या स्वाद्य देता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।' सूत्रकृतांग चूणि में निशीथ के इन दो सूत्रों का आधार प्राप्त है । दोनों चूणियों (सूत्रकृत और निशीथ) में अद्भूत शब्द साम्य भी है--वहिस्सति वा मे किञ्चिद् उवगरणजातं-सूत्रकृत चूणि पृ० १८० । ममेस उवकरणं वहेइ त्ति पडुच्च- निशीथ चूणि, भाग ३, पृ० ३६३ । निशीथ भाष्य और चूणि में अन्यतीथिक और गृहस्थ को अशन, पान आदि देने में अनेक दोष बतलाए गए हैं-भगवान् गौतम ने वर्द्धमान महावीर से पूछा-'भते !' बालपुरुषों का बलवान् होना श्रेय है या दुर्बल होना श्रेय है ? भगवान महावीर ने कहा- 'दुर्बल होना श्रेय है, बलवान् होना श्रेय नहीं है । बलवान होने का मूल कारण आहार है । वह गृहस्थ साधु से आहार प्राप्त कर बहुत कलह-लड़ाइयां करता है, पानी पीता है, आचमन करता है, भुक्त आहार का बमन करता है, उसके रोग पैदा होता है, 'साधु ने मुझे कुछ ऐसा खाने को दिया जिससे रोग पैदा हो गया'-इस प्रकार अपवाद करता है अथवा वह मर जाता है-इन अनेक दोषों की संभावना को ध्यान रख कर मुनि गृहस्थ या अन्यतीर्थिक से भार न उठाए और न उन्हें अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य दे। १. चूणि, पृ० १८०: जेणेति जेण धम्मकधाए वा संथवेण वा आजीव-वगीमगत्तेण वा अण्णतरेण वा उप्पातणादोसेणं, अण्णहेतुं वा पाणहेतुं वा पयुंजमाणेण इमा ओवम्मा, णिव्वहति निर्वहति नाम निर्गच्छति तन्न कुर्यात् । अधवा जेणिह णिव्वाहेति येनास्य इहलौकिक किञ्चिद कार्य निष्पद्यते मित्रकार्य वा, प्रतिदास्यति वा मे किञ्चिद्, परित्रास्यति वा, वहिस्सति वा मे किञ्चिद् उवगरणजातं, एवमादिकं किञ्चिदिहलोककार्यनिर्वाहक साधकमित्यर्थः, तं पडुच्च, अण्णं वा। २. वृत्ति, पत्र १८२ : 'येन' अन्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धेन कारणापेक्षया त्वशुद्धेन वा 'इह'-अस्मिन् लोके इदं संयमयात्रादिकं दुभिक्षरोगातङ्कादिकं वा भिक्षुः निर्वहेत् निर्वाहयेद्वा तदन्नं पानं वा तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया शुद्धं-कल्पं गृहीयातथैतेषाम् – अन्नादीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे सयमयात्रानिर्वहणसमर्थमनुतिष्ठेत् यदि वा-येन केनचिदनुष्ठितेन 'इम' संयम 'निर्वहेत्'- निर्वाहयेद् असारतामापादयेत्तथाविधमशनं पानं वाऽन्यद्वा तथाविधमनुष्ठानं न कुर्यात्, तथतेषामशनादीनाम् 'अनुप्रदान' गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति, तदेतत्सर्व ज्ञपरिजया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेदिति । ३. निशीथ १२०४१, ४२ : जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा उहि वहावेति, वहावेतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू तण्णीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देति, बेंतं वा सातिज्जति । ४. निशीथ भाष्य गाथा ४२०६ : दुब्बलियत्तं साहू, बालाणं तस्स भोयणं मूलं । वगघातो अपि पियणे, दुगुछ वमणे कयुवाहो ॥ चूणि, तृतीयो विभाग पृ० ३६३ : भगवता गोयमेण महावीरवद्धमाणसामी पुच्छितो-'एतेसि णं भंते ! बालाणं कि बलियत्तं सेयं ? दुबलियत्तं सेयं ?' भगवया वागरियं-'दुब्बलियत्त सेयं, बलियत्तं अस्सेयं ।' तस्स य बलियत्तणस्स मूलं आहारो सो य साहूसमोवे आहारं आहारेत्ता बहूणि अधिकरणाणि करेज्ज, उदगं वा पिएज्ज, आयमेज्ज वा, भुत्तो वा दुगुंछाए वमेज्ज, रुयुप्पातो वा से हवेज्ज । संजएहि एरिसि किपि मे दिन्नं जेण रोगो जाओ एवं उड्डाहो मरेज्ज वा ।......"तम्हा गिहत्यो अन्नउत्थिओ वा ण वाहेयव्वो, ण वा असणादी दायव्वं । Jain Education Intemational Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४११ अध्ययन ६ : टिप्पण ७८-८० श्लोक २४: ७८. श्रुतधर्म का उपदेश दिया (धम्म देसितवं सुतं) भगवान् महावीर ने श्रुतधर्म का उपदेश दिया। चूर्णिकार का कथन है कि भगवान् ने श्र तधर्म के द्वारा चारित्र धर्म की देशना दी। वृत्तिकार ने 'धम्म' और 'सुत्तं' को विशेष्य-विशेषण न मानकर स्वतंत्र माना है। उनके अनुसार भगवान् महावीर ने संसार को पार लगाने में समर्थ चारित्रधर्म और श्र तधर्म का उपदेश दिया। श्लोक २५ : ७६. बोलता हुआ भी न बोलता-सा रहे (भासमाणो ण भासेज्जा) जो साधक भाषा समिति से युक्त है, वह बोलता हुआ भी अभाषक ही है। दशवकालिक नियुक्ति में बताया है'.--- वयणविभत्तीकुसलो वयोगतं बह विधं वियाणेतो। दिवसं पि जंपमाणो सो वि हु वइगुत्ततं पत्तो।। -जो साधक भाषाविज्ञ है, वचन और विभक्ति को जानता है तथा अन्यान्य नियमों का ज्ञाता है, वह सारे दिन बोलता हुआ भी वचनगुप्त है। नियमों के अनुसार वस्त्रों का उपयोग करने वाला सचेल मुनि भी अचेल कहलाता है, उसी प्रकार भाषा-समित मुनि भी अभाषक कहलाता है। इस पद का वैकल्पिक अर्थ है - साधक अपने से बड़े या छोटे मुनियों के बात करते समय बीच में न बोले । दशवकालिक में इस अर्थ का समर्थन मिलता है। वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है जहां रत्नाधिक मुनि (या गृहस्थ) बोल रहे हों, उनके मध्य में 'मैं विद्वान् हूं'-इस अभिमान से दृप्त हो न बोले।' ५०. मर्मवेधी वचन (मम्मयं) - इसका अर्थ है-मर्मवेधी वचन । यथार्थ हो या अयथार्थ, जिस वचन को बोलने से किसी के मन में पीड़ा होती हो वह मर्मवेधी वचन कहलाता है । वह सीधा मर्म को छूता है । साधक ऐसा वचन न बोले । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में 'मामक' पाठ मान कर उसका अर्थ पक्षपातपूर्ण वचन किया है। मुनि बोलता हुआ या अन्य समय में पक्षपातपूर्ण वचन न कहे ।। चुणिकार के अनुसार जाति, कुशील और तप आदि के मर्म को छूने वाला वचन मर्मक होता है।' १. चूणि, पृ० १८० : अनेन श्रुतधर्मेण चारित्रधर्म देशितवान्, चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेऽत्र चारित्रधर्म देशितवान् । २. वत्ति, पत्र १८२ : स भगवान 'धर्म'-चारित्रलक्षण संसारोत्तारणसमर्थ तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थसंसूचकं 'देशितवान्' प्रकाशितवान् । ३. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा २६३ । ४ चणिः पृ० १८० : यो हि भाषासमितः सो हि भाषमाणोऽयभाषक एव लभ्यते......... 'जधाविधीए परिहरमाणो सचेलो वि अचेल एवापदिश्यते'.'...''अधवा भासमाणो ण भासेज्जा, ण रातिणियस्स अंतरभासं करेज्जा ओमरालिणियस्स वा। ५. वृत्ति, पत्र १८३ : यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एवं स्यात ..... यदि वा-यत्रान्यः कश्चिद् रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एब सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्न भाषेत । ६. वृत्ति, पत्र १८३ : मर्म गच्छतीति मर्मगं ... यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषे तेति भावः, यदि वा 'मामक'-ममीकारः पक्षपातः । ७. चूणि, पृ० १८० : जातिकुशोल-तवेहि मर्मकृद् भवतीति मर्मकम् । Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४१२ अध्ययन :: टिप्पण ८१-८४ मर्म को छूने से मुनि भी क्रोध के आवेश में आ जाता है तो फिर गृहस्थ क्रोध में आ जाए तो आश्चर्य ही क्या है ? ' ८१. बोले (वम्फेज्ज) चणिकार ने इसे देशी शब्द मान कर इसका अर्थ 'उल्लाप' किया है। अनर्थक बोलना, असंबद्ध बोलना-यह 'बम्फेज्ज' का वाच्य है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- अभिलषेत्-इच्छा करे-किया है।' आचार्य हेमचन्द्र ने (४।१७६,१६२) में 'वंफई' का अर्थ-कांक्षति- इच्छा करना किया है।' ८२. मायिस्थान का (माइट्ठाणं) मायिस्थान का अर्थ है --माया प्रधान वचन ।' चूर्णिकार ने माया का अर्थ -आचरण को छिपाने की वृत्ति, कुछ करके मुकर जाना, भविष्य में किए जाने वाले आचरण का किसी को आभास न होने देना-किया है । वृत्तिकार के अनुसार दूसरे को ठगने के लिए अपने आचरण को छुपाना माया है । बोलते समय या नहीं बोलते समय या कभी भी मुनि माया प्रधान वचन न कहे, माया प्रधान आचरण न करे ।' ८३. सोचकर बोले (अणुवीइ वियागरे) मुनि सोचकर बोले। जब वह बोलना चाहे तब पहले-पीछे का ज्ञान कर, चिन्तन कर बोले । वह यह सोचे-यह वचन अपने लिए, पर के लिए या दोनों के लिए दुःखजनक तो नहीं है ? ऐसा चिन्तन करने के पश्चात् बोले । कहा भी है-पुब्वि बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे'--पहले बुद्धि से सोचकर, फिर बोले ।। श्लोक २६ : ८४. श्लोक २६ प्रस्तुत श्लोक के दो चरणों में अवक्तव्य सत्य के कयन से पछतावा होता है-इसका उल्लेख है। भाषा के चार प्रकार हैं-सत्य, असत्य, सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार)। इनमें दूसरी और तीसरी भाषा मुनि के लिए सर्वथा वर्जनीय है । सत्य और व्यवहार भाषा भी वही वचनीय है जो अनवद्य, मृदु और संदेह रहित हो। मुनि सत्य भाषा बोले। किन्तु जो सत्य भाषा परुष और महान् भूतोपघात करने वाली हो, वह न बोले। काने को काना, १. निशीथभाष्य, गाथा ४२८५ : जति ताव मम्मं परिघट्टियस्स मुणिणो वि जायते मण्णू । कि पुण गिहीणमण्णू, ण भविस्सति मम्मविद्धाणं ॥ २. चूणि, पृ० १८० : वंफेति णाम देसीभासाए उल्लावो वुच्चति, तदपि च अपार्थकं अश्लिष्टोक्तं बहुधा तं फेति त्ति वुच्चति । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : न बफेज्जति नाभिलषेत् । ४. प्राकृत व्याकरण ४११६२ । ५. वृत्ति, पत्र १८३ : मातृस्थानं-मायाप्रधानं वचः। ६. चूणि, पृ० १८० : माया णाम गूढाचारता, कृत्वाऽपि निह्नवः करिष्यमाणश्च न तथा दर्शयत्यात्मानम् । ७. वृत्ति, पत्र १८३ : इदमुक्तं भवति -परवञ्चनबुढ्या गूढाचारप्रधानो भाषमाणोऽमाषमणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति ।। ८. (क) वृत्ति, पत्र १८३ : यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्, तदु क्तम्-पुग्वि बुद्धीए पेहिता, पच्छा वक्कमुदाहरे । (ख) चणि, पृ० १८० : यदा वक्तुकामो भवति तदा पूर्वापरतोऽनुचिन्त्य वाहरे। ६. दशवकालिक ७.१-४। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४१३ अध्ययन :: टिप्पण ८६-८८ नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। यद्यपि ऐसा कहना असत्य नहीं है, किन्तु ये वचन मर्म को बींधते हैं, पीड़ा उत्पन्न करते हैं, अत: इसका निषेध है। इसी प्रकार दास को दास न कहे, राज्य-विरुद्ध सत्य भाषा न बोले अथवा जानते हुए भी यह न कहे कि इसने यह किया है। जो इस प्रकार का सत्य बोलता है वह बोलने के बाद पछताता है। जो कटु सत्य बोलता है वह बंधन, घात आदि दुःखों को प्राप्त कर अनुताप करता है । अथवा निरपराध या सापराध व्यक्ति को दोषी ठहरा कर फिर स्वयं अनुताप करता है कि अरे ! मैंने यह क्या कर डाला।' वृत्तिकार ने 'संतिमा तहिया' (सं० सन्ति इमाः तथ्या:) पाठ के स्थान पर 'तथिमा तइया' (सं० तत्रेमा तृतीया) पाठ मान कर व्याख्या की है । उनका कथन है कि चार भाषाओं में तीसरी भाषा है— सत्यामृषा। यह मिश्र भाषा है-कुछ सत्य है और कुछ असत्य । मुनि ऐसी भाषा न बोले। इन शब्दों के आधार पर चूणिकार और वृत्तिकार की व्याख्या में बहुत अन्तर आ गया। जहां चूर्णिकार अवक्तव्य सत्य का निषेध करते हैं वहां वृत्तिकार मिश्र भाषा का निषेध करते हैं । यह अन्तर भिन्न पाठ की स्वीकृति के कारण आया है। ८६. हिंसाकारी वचन (छणं) इसका संस्कृतरूप है-क्षणम् । यह 'क्षणु हिंसायाम्' धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-हिंसायुक्त वचन, जैसेखेत को काटो, गाड़ी को जोतो, बकरे को मारो, पुत्रों को काम में लगाओ, यह चोर है, इसका वध करो, इन बैलों का दमन करो। ५६. निर्ग्रन्थ (महावीर) को (णियंठिया) महान् निर्ग्रन्थ भगवान् महावीर की यह आज्ञा (उपदेश) है, अथवा निर्ग्रन्थों के लिए यह आज्ञा उपदिष्ट है।' ८७. आज्ञा (आणा) यहां आज्ञा का अर्थ है-उपदेश ।' श्लोक २७: ८८. हे साथी ! (होलावाय) चुर्णिकार के अनुसार 'होला' शब्द देशी भाषा में समवयस्क व्यक्तियों के आमंत्रण के लिए लाट देश में प्रयुक्त होता था। १. दशवकालिक ७१११,१२। २. चुणि, पृ० १८१ : सन्तीति विद्यन्ते, तधिका नाम तथ्या, सद्भता इत्यर्थः । भाषन्त इति भाषा, अनेके एकादेशात् । जं वदित्ताऽण तप्पती, स्वयमेव चोरः काणः दासस्तथा राजविरुद्धं वा लोकविरुद्धं वा एष वा इणमकासी, अनुतापो हि दुःखं प्राप्य वा बन्ध-घातादि भवति, अप्राप्तस्य पर वा सागसं निरागसं वा दोषं प्रापयित्वा चानुतापो भवति । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : 'तत्थिमा' इत्यादि, सत्या असत्या सत्यामृषा असत्यामृषेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदभि धाना तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरूपा । ४. (क) चूणि पृ० १८१: 'छण हिंसायाम' यद्धि हिंसकं तन्न वक्तव्यम् । तद्यथा--लयतां केदारः, युज्यन्तां शकटानि, छागो वध्य ताम्, निविश्यन्तां दारका इति । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ : 'क्षणु हिंसायां' हिंसाप्रधानं, तद्यवा-वध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदाराः, दम्यन्तां गोरथका ___इत्यादि। ५. चणि, पृ० १८१ : णियंठ इति निम्रन्थः एषा महाणियंठस्याऽऽज्ञा, णियंठाण वा एषा आज्ञा उपदिष्टा । ६. (क) चूणि, पृ० १८१ : आज्ञा नाम उपदेशः । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ : एषाऽऽज्ञा अयमुपदेशः। Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ४१४ अध्ययन :: टिप्पण ८६-६३ जैसे-कांइ रे हेल्ल । 'होला' का अर्थ है साथी।' दशवकालिक सूत्र (७.१४ और १६) में 'होल' शब्द आया है। चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने उसे देशी शब्द मान कर उसका अर्थ-निष्ठुर आमंत्रण किया है। दूसरे चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ मधुर आमंत्रण किया है । विशेष विवरण के लिए देखें-दशवकालिक ७।१४-१७ के टिप्पण । तुलना के लिए देखें-आयारचूला ४११२-१५ । ८९. हे मित्र ! (सहीवायं) मुनि सखिवाद का प्रयोग न करे । वह किसी को 'सखा' कह कर संबोधित न करे। १०. हे अमुक-अमुक गोत्र वाले (गोयवायं) गोत्र का वाद अर्थात् कथन । मुनि किसी को गोत्र से संबोधित न करे, जैसे-ब्राह्मण ! , क्षत्रिय! , काश्यपगोत्र ! इत्यादि ।' चूर्णिकार ने इस शब्द के स्थान पर 'सोलवाद' पाठ मान कर उसका अर्थ-प्रियभाष किया है।' ६१. (तुमं तुमं ति......) सम्मान्य, वृद्ध तथा समर्थ व्यक्तियों को मुनि 'तू तू' ऐसा वचन सर्वथा न कहे ।' जो श्रेष्ठ पुरुष बहुवचन में कहे जाने योग्य हैं उन्हें तिरस्कार प्रधान एक वचन तू-तू न कहे । इसी प्रकार दूसरों को अपमानित करने वाला वचन साधु सर्वथा न बोले।' श्लोक २८ १२. संसर्ग न करे (णो य संसग्गियं भए) ___ भिक्षु कुशील का संसर्ग न करे, परिचय न करे । नियुक्तिकार ने पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील-इन तीनों के संसर्ग का निषेध किया है। उनके साथ आना-जाना, उन्हें देना, उनसे लेना, उनके साथ प्रवृत्ति करना-ये सारे संसर्ग हैं। ६३. उनके संसर्ग में अनुकूल उपसर्ग (सुहरूवा तत्थुवसग्गा) कूशील के संसर्ग से अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । इसका तात्पर्य है कि साधक के मन में सुख-सुविधा की भावना उत्पन्न होती है और वह संयम में शिथिल हो जाता है। चूर्णिकार ने 'सुहरूवा' के दो अर्थ किए हैं१. चूणि, पृ० १८१ : होला इति देसीभाषात: समवया आमन्त्र्यते, यथा लाटानां 'काई रे हेल्ल' ति । २. (क) चूणि, पृ० १८१ : सहीवादमिति सखेति । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ : सखेत्येवं वादः सखिवादः । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : तथा गोत्रोद्घाटनेन वादो गोत्रवादो यथा काश्यपसगोत्र वशिष्ठसगोत्रे वेति । ४ चूणि, पृ० १८१ : सोलवादो प्रियभाष इव । 'गोतावादो' वा पठ्यते । ५. चूणि, पृ० १८१: जो अतुमंकरणिज्जो वृद्धो वा प्रभविष्णुर्वा स न वक्तव्यः । ६. वृत्ति, पत्र १८३ : 'तुमं तुम' ति तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोच्चारणयोग्ये 'अमनोज' मनः प्रतिकूलरूपमन्यदप्येवम्भूतमप मानापादकं 'सर्वशः'- सर्वथा तत्साधूनां वक्तुं न वर्तत इति । ७ सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ६५ पासत्थोसण्ण-कुसीलसंथवो ण किर वट्टते कातुं । ८. चूणि पृ० १८१ : संसर्जनं संसर्गिः, आगमण-दाण-ग्रहणसम्प्रयोगान्मा भूत् । ६. चूणि, पृ० १८१ : सुखरूपा नाम सुखस्पर्शाः........ अहवा सुख इति संयमः, संयमानुरूपाः । Jain Education Intemational Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ १. सुख स्पर्श वाले अर्थात् सुख-सुविधा जनक | २. संयमानुरूप यहां सुख का अर्थ है-संयम । वृत्तिकार ने इसका अर्थ- सुख-सुविधा के स्वभाव वाले किया है।' कुशील के साथ परिचय बढ़ने से साधक के मन में कठोर चर्या या संयम-चर्या के नियमों के प्रति वितर्क उत्पन्न होने लगते हैं । वह सोचता है - प्रासुक जल से पैरों और दांतों को धोने में दोष ही क्या है ? शरीर पर उबटन करने में क्या दोष है ? ऐसा करने से लोगों में अपवाद भी नहीं होता । शरीर के बिना धर्म नहीं होता इसलिए आधाकर्म आहार में क्या दोष हो सकता है ? इसी प्रकार जूते पहनने और छत्ता धारण करने में भी क्या आपत्ति है ? यदि रात्री में संचय भी किया जाता है तो क्या दोष है ? इसलिए धर्म के आधारभूत शरीर को जो आवश्यक हो, उनका उपयोग करना चाहिए। कहा भी है- जो थोड़े दोष से भी अधिक लाभ कमाता है, वही पंडित है । एक संस्कृत श्लोक में शरीर के वैशिष्ट्य को इस प्रकार बताया है 'शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात् स्रवते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥ शरीर धर्म से युक्त है-धर्म का साधन है । अतः प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए। जैसे पर्वत से पानी भरता है, वैसे ही शरीर से धर्मं उत्पन्न होता है, पुष्ट होता है । १४. बिना (अण्णत्थं) ४१५ कुशील व्यक्ति यह भी कहते हैं कि आज के युग में संहनन - शरीर का संघटन कमजोर और दुर्बल है तथा धृति भी क्षीण है । इसलिए जैसे-तैसे संयम का पालन करना भी अच्छा ही है ।" इलोक २६ : अन्यत्र अव्यय है । इसका अर्थ है - बिना । १५. गृहस्य के घर में (परगेहे) ६६. श्लोक २६ अध्ययन : टिप्पण ६४-१६ पर का अर्थ है - गृहस्थ । परगेहे अर्थात् गृहस्थ के घर में । * प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों का प्रतिपाद्य है कि मुनि किसी बाधा के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे । प्रस्तुत अध्ययन के इक्कीसवें श्लोक में 'णिसिज्जं च गिहंतरे' यह चरण उपलब्ध है । दोनों स्थलों की भावना समान है । दशवेकालिक के सूत्र अनुसार वृद्ध, रोगी और तपस्वी मुनि गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ।" प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'अंतराय' शब्द इसी अपवाद का द्योतक है । अन्तराय का अर्थ है - बाधा, शक्ति का अभाव । शक्ति १. वृत्ति, पत्र १८३ : 'सुखरूपाः' - सातगौरवस्वभावाः । २. चूर्ण, पृ० १८१ : संसर्गिस्तद्द्भावं गमयति । कथम् ? तद्यथा— को फालुगपाणएण पादेहिं पक्खालिज्जमाणेहिं दोसो ?, तहा दंत पाल एवं लोगे वो न भवति । 3 ३. वृत्ति, पत्र १८४ : तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाधाकर्म सन्निध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं धर्माधारं वर्तयेत् । तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पधृतयश्च संयमे जन्तवः । ४. वृत्ति पत्र १०४ परो-हत्यातस्य गृहं परगृहम् । ५. दशवेकालिक ६।५९: तिन्हमन्नयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पई । जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तबस्सियो । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ४१६ का अभाव बुढ़ापे के कारण, रोग या तपस्या के कारण हो सकता है । " १७. कामक्रीड़ा और कुमार कीड़ा (गाम कुमारियं कि) - ग्राम्यक्रीड़ा का अर्थ हैं— काम-क्रीड़ा । इसके अनेक प्रकार हैं- हास्य, कंदर्प हस्त-स्पर्श, आलिंगन आदि । चूर्णिकार ने कुमारक्रीड़ा का अर्थ गेंद खेलना या भूला भूलना भी किया है।" वृत्तिकार ने 'गामकुमारियं' को एक शब्द मानकर उसका अर्थ गांव में रहने वाले कुमारों की क्रीड़ा किया है। परस्पर हास्य, कंदर्प, हस्तसंस्पर्शन, आलिंगन आदि करना अथवा गेंद आदि खेलना । ' १८. मर्यादा रहित हो न हंसे (पाइवेलं हसे मुगी) बेला, मेरा, सीमा, मर्यादा ये एकार्थक हैं।" मुनि मर्यादा का अतिक्रमण कर न हंसे । क्योंकि इससे सात - आठ कर्मों का बंध होता है । गौतम ने भगवान् से पूछा -- भंते! जीव हंसता हुआ कितने कर्म बांधता है ? भगवान् ने कहा- गौतम ! सात या आठ कर्म बांधता है ।" चूर्णिकार ने इस आगमिक कारण के अतिरिक्त एक कारण और दिया है कि हंसने से संपातिम वायुकाय के जीवों का वध होता है ।" इन कारणों के अतिरिक्त मुनि यदि मर्यादा रहित होकर हंसता है, अट्टहास करता है तो वह अशिष्ट व्यवहार लगता है । सुनने वालों को छिछलेपन का भान होता है । इलोक ३० : अध्ययन ६ : टिप्पण ६७-६६ १२. सुन्दर पदार्थों के प्रति (उरालेसु) 'उराल' का संस्कृत रूप 'उदार' किया गया है। पिशेल के अनुसार मागधी में 'द' बहुत ही अधिक स्थलों पर 'उ' के द्वारा 'र' बनकर 'ल' हो गया है ।" १. (क) वृत्ति, पत्र १८४ : अन्तरायः शक्त्यभावः, स च जरसा रोगातङ्काभ्यां स्यात् । अंतरा जराए अभिवाहित तपस्वी इत्यादि (ख) पूणि पृ० १०१ २. पूर्ण पृ० ११०१, १०२ उदार का अर्थ है - सुन्दर, मनोज्ञ । चक्रवर्ती आदि विशिष्ट व्यक्तियों के कामभोग, वस्त्र, आभरण, गीत, नृत्य, यान, वाहन, सत्ता, ऐश्वर्य आदि उदार होते हैं, मनोज्ञ होते हैं । " वामकुमार प्रमधमेोडा कुमारकोडा वा गाम- कोमरिगं किं हस्तस्पर्शन-लिङ्गनादि ताभिः सार्द्ध एवं वा स्त्रीभिः फोडते इति क्रीडा कुमारको तेंद , । ४. चूर्ण, पृ० १८२ : वेला मेरा सीमा मज्जायत्ति वा एगळं । ५. भगवती ५।७१ : जीवे णं भंते । हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? 1 - ३. वृत्ति, पत्र १८४ : तथा ग्रामे कुमारका ग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका काइसौ ? – 'क्रीडा' - हास्यकन्दर्पहस्तसंस्पर्शना लिङ्गनादिका यदि वा गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा इह हसां संपाइमवायुवधो । ६. पूर्ण पृ० १८२ ७. पिशेल, प्राकृत व्याकरण, पेरा २३७ । तत्र ग्रामकोडा हास्यकन्दर्प पुम्भिरपि सार्द्धम् । कुमारकानां ८. (क) चूर्ण, पृ० १८२ : उराला नाम उदाराः शोभना इत्यर्थः तेषु चक्रवर्त्यादीनां सम्बन्धिषु शब्दादिषु कामभोगेषु अन्यैश्वर्य वस्त्रा मरण-गीत-गान्धर्वयान वाहनादिषु । (ख) वृत्ति, पत्र १८४ : 'उराला' उदारा: शोभना मनोज्ञा ये चक्रवर्त्यादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामभोगा वस्त्राभरणगीतगन्धर्वयानबानादयस्तथा आश्यर्यादश्च एतेदारेषु । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १००. चरिया में (चरिया ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ - भिक्षु चर्या और वृत्तिकार ने भिक्षाचर्या आदि किया है। उत्तराध्ययन २।१८, १६ में नींवा 'चरिया' परीषह है । यहां 'चरिया' शब्द के द्वारा वही विवक्षित है । १०१. उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे ( पुट्ठो तत्थऽहियासए) यह रोग परीषह का सूचक है । उत्तराध्ययन २।३२, ३३ में सोलहवां रोग परीषह है। वहां भी यही पद प्राप्त होता है । श्लोक ३१ : ४१७ १०२. पीटने पर क्रोध न करे (हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा) यह तेरहवां 'वध' परीषह है । उत्तराध्ययन सूत्र २।२६ में 'हओ न संजले भिक्खु' ऐसा पाठ है । मुनि यष्टि, सृष्टि या डंडे से पीटे जाने पर भी कोध न करे ।' १०३. गाली देने पर उत्तेजित न हो (बुच्चमाणो न संजले) ३. जब दूसरा उसकी निर्भर्त्सना करे । - इतना होने पर भी मुनि उत्तेजित न हो । यह बारहवां 'आक्रोश' परीषह है । उत्तराध्ययन सूत्र २।२४ में 'अक्कोसेज्ज परो भिक्खु, न तेसि पडिसंजले' - ऐसा पाठ है । दोनों का प्रतिपाद्य एक है । प्रस्तुत सूत्र की पूर्णि में 'माण' के तीन अर्थ किए गए हैं— १. जब दूसरा उसकी बात न सुने । २. जब दूसरा उसकी निन्दा करे । अध्ययन टिप्पण १०० १०३ वृत्तिकार के अनुसार मुनि को कोई दुर्वचन कहे, गाली दे या तिरस्कार करे तो वह प्रतिकूल वचन न बोले । " पूर्णिकार ने 'ज' (सं०] [संज्यले) का वर्ष इस प्रकार किया है जैसे अग्नि इंधन से प्रज्वलित होती है, वैसे ही मुनि क्रोध और मान से प्रज्वलित न हो। " वृत्तिकार के अनुसार 'संजले' का अर्थ है - प्रतिकूल वचन न बोलना अथवा मन को किञ्चित् भी अन्यथा न करना । " उत्तराध्ययन के चूर्णिकार ने २।२६ में प्रयुक्त 'संजले' का अर्थ रोबोद्गम या मनोदय किया है । उसका लक्षण बतलाते हुए उन्होंने एक श्लोक उड़त किया है। उद्धृत -- कंपति रोषाग्निः संतवच्च दीप्यतेऽनेन । तं प्रत्याक्रोशत्याहंति च मन्येत येन स मतः ॥ १. चूणि, पृ० १८२ : चरिया भिक्खुचरिया । २. वृत्ति, पत्र १८४ : चर्यायां भिक्षाविकायाम् । ४. पूर्ण पृ० १०२ ५. वृति पत्र १०४ ६. चूर्ण, पृ० १८२ : ण संजलेदवि न क्रोध-मानाभ्यामिन्धनेनेवाग्निः संजले । ३ वृत्ति, पत्र १८४ : 'हन्यमानो' यष्टिमुष्टिलकुटादिभिरपि हतश्च 'न कुप्येत्'-- न कोपवशगो भवेत् । मुयमाणो नाम असमान निमाणो वा पिवमानो वा । उच्यमानः' आयमानो निसान न प्रतीयं वदेत् । ७. वृत्ति, पत्र १८४ : 'न संज्वलेत्' न प्रतीपं वदेत् न मनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात् । ८. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० ७२ । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४१८ अध्ययन ६: टिप्पण १०४-१०७ जो क्रोध से कांप उठता है, अग्नि की भांति जल उठता है, आक्रोश के प्रति आक्रोश और हनन के प्रति हनन करता है। यह संज्वलन का फल है। १०४. शान्त मन रहकर (सुमणो) स-मन का अर्थ है-अच्छा मन । जो शान्त मन वाला होता है, जिसके मन में राग-द्वेष की कलुषता नहीं होती वह सुमना होता है। १०५. कोलाहल (कोलाहलं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं:१. जोर-जोर से चिल्लाना। २. राज्य अधिकारियों के समक्ष शिकायत करना। श्लोक ३२ १०६. लब्ध कामभोगों की इच्छा न करे (लद्धे कामे ण पत्थेज्जा) मुनि प्राप्त कामभोगों की इच्छा न करे । कोई उपासक मुनि को वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शयन, आसन के लिए निमंत्रण दे तो वह उनमें गृद्ध न हो, उनको पाने या भोगने की अभिलाषा न करे। चूर्णिकार ने यहां चित्त (उत्तरा० अध्ययन १३) के आख्यान की और वृत्ति कार ने वैरस्वामि के आख्यान की सूचना दी है।' चूणिकार और वृत्तिकार ने 'लद्धी कामे' यह पाठान्तर मानकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है--मुनि को विशेष तप से अनेक लब्धियां प्राप्त हो सकती हैं, जैसे-आकाश में उड़ने की लब्धि, विक्रिया की शक्ति, अक्षीणमहानस, आदि-आदि । मुनि इनका उपयोग न करे । वह अपनी विशेष शक्तियों से कामभोगों को प्राप्त कर सकता है, परन्तु यह उसके लिए विहित नहीं है । मुनि इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों प्रकार के कामभोगों की कामना न करे । चूणिकार और वृत्तिकार ने यहां ब्रह्मदत्त के आख्यान की सूचना दी है। देखें-उत्तराध्ययन सूत्र का तेरहवां अध्ययन तथा उस अध्ययन का आमुख । १०७. बुद्धों (ज्ञानियों) के (बुद्धाणं) बुद्ध का अर्थ है-गणधर आदि विशिष्ट पुरुष या जिस समय में जो आचार्य हों, वे ।' १. चूर्णि, पृ० १८२ : सुमणो णाम राग-द्दोसरहितो। २. चूर्णि, पृ० १८२ : उक्कुठ्ठिबोलं वा करेज्ज रायसंसारियं वा । ३. (क) चूणि, पृ० १८२ : लद्धा णाम जाणं कोइ वत्थ-गंध-अलंकार-इत्थी-सयण-असणादीहि णिमंतेज्ज बस्थ ण गिज्झज्ज, जधा चित्तो। (ख) वृत्ति, पन १८४,१८५ : 'लब्धान्'–प्राप्तानपि 'कामान्'- इच्छामदनरूपान् गन्धालङ्कारवस्त्राविरूपान्वा वैरस्वामिवत् 'न प्रार्थयेत्-नानुमन्येत्-न गृह्णीयादित्यर्थः। ४. (क) चूणि, पृ० १८२ : अधवा 'लद्धीकामे तवोलद्धीओ आगासगमण-विउव्वादीओ अक्खीणमहाणसिगादीओ य ण दाव उवजीवेज्ज, ण य अणागते । इहलौकिके एना एव वत्थ-गंधादी, परलोगिगे वा जधा बंभवत्तो तधा ण पत्थेज्ज । (ख) वृत्ति, पत्र १८५ : यत्रकामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषलब्धानपि नोपजीव्यात, नाप्यनागतान् ब्रह्मदत्तवत् प्रार्थयेन् । ५. चूणि, पृ० १८२ : सुठ्ठ बुद्धा सुबुद्धा गणधराद्याः, यधा यदाकालमाचार्या भवन्ति । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ४१६ अध्ययन &: टिप्पण १०८-११३ १०८. आचार की (आयरियाई) वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं—आर्याणि और आचर्याणि । आर्याणि का अर्थ है--आर्य लोगों का कर्तव्य और आचर्याणि का अर्थ है-मुमुक्षु के लिए जो आचरणीय है, ज्ञान दर्शन चारित्र आदि ।' श्लोक ३३: १०६. सुप्रज्ञ (सुप्पण्णं) इसका अर्थ है-गीतार्थ, प्रज्ञावान्, स्वसमय और परसमय को जानने वाला ।' ११०. सुतपस्वी आचार्य की (सुतवस्सियं) चूर्णिकार ने सुतपस्वी का अर्थ संविग्न किया है।' जो बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार के तप में प्रवीण है वह सुतपस्वी है-यह वृत्तिकार का अभिमत है।' १११. वीर (वीरा) चूर्णिकार ने इसका अर्थ- सुशोभित होने वाले किया है।' वृत्तिकार के अनुसार जो पुरुस कर्म-बंधन को तोड़ने में सक्षम है और जो कष्ट-सहिष्णु है, कष्टों के आने पर क्षुब्ध नहीं होता, वह वीर कहलाता है।' ११२. आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी (अत्तपण्णेसी) चूर्णिकार ने आत्मप्रर्शाषी शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है जो आत्मा को जानने के लिए तथा उसके बंधनमुक्ति के उपाय (संयमवृत्ति) में व्यवस्थित होने के लिए आत्मज्ञान का अन्वेषण करते हैं वे आत्मप्रशंषी होते हैं।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. आप्तप्रज्ञषी-आप्तपुरुषों की प्रज्ञा–केवलज्ञान की खोज करने वाले, उसको पाने का प्रयत्न करने वाले। सर्वज्ञ के द्वारा उक्त वचन का अन्वेषण करने वाले । '. आत्मप्रशंषी- आत्मज्ञान की एषणा करने वाले, आत्महित की खोज करने वाले । ११३. धृतिमान् (धितिमंता) धृतिमान् वह होता है जिसकी संयम में रति होती है । संयम की धृति से ही पांच महाव्रतों का भार सहजरूप से वहन किया १. वृत्ति, पत्र १८५ : 'आर्याणि'-आर्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण यदि वा-आचर्याणि-मुमुक्षणा यान्याचरणीयानि ज्ञान दर्शनचारित्राणि तानि। २ (क) चूणि, पृ० १८२ : सुपण्णं शोभनप्रज्ञं सुप्रज्ञं गीतार्थं प्रज्ञावन्तम् । (ख) बुत्ति, पत्र १८५ : सुष्ठु शोभना वा प्रज्ञाऽस्मेति सुप्रज्ञः-स्वसमयपरसमयवेदी गोतार्थ इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८२ : सुठु तवस्सितं सुतवस्सितं, यदि चेत् संविग्ग इत्यर्थः। ४. वृत्ति, पत्र १६५ : तथा सुष्ठु शोभनं वा सवाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्यास्तीति सुतपस्वी। ५ चूणि, पृ० १८२ : विराजन्तः इति वीराः। ६. वृत्ति, पत्र १८४ : 'वीराः'-कर्मविदारणसहिष्णवो वीरावा परिषहोपसर्गाक्षोभ्याः । ७. चूणि, पृ० १८२ : आत्मप्रज्ञामेषन्तीति आत्मप्रषिणः आत्मप्रज्ञानमित्यर्थः । कथम् ?, येनाऽऽत्मा ज्ञायते येन वाऽस्य निस्सारणोपायः संयमवृत्तिव्यवस्थित इति । ८. वत्ति, पत्र १८४ : 'आप्तो'-रागादिविमुक्तस्तस्य प्रज्ञा- केवलज्ञानाख्या तामन्वेष्टुं शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः सर्वज्ञोक्तान्वेषिण इति यावत्, यदि वा-आत्मप्रज्ञान्वेषिण आत्मनः प्रज्ञा–ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिणः आत्मज्ञत्वा (प्रज्ञा)न्वेषिण आत्महितान्वेषिण इत्यर्थः। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४२० अध्ययन::टिप्पण ११४-११५ जा सकता है । धृतिमान् के तप होता है । तप से सुगति हस्तगत होती है। कहा है 'जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा । जे अधिइमंता पुरिसा, तवोऽपि खलु दुल्लहो तेसि ॥ जो धृतिमान् है वही तप कर सकता है। जो तप करता है उसके लिए सुगति सुलभ हो जाती है । जो धृतिमान् नहीं है, उसके लिए तप भी दुर्लभ है।' वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त वीर, आत्मप्रशंषी, धृतिमान्, जितेन्द्रिय-ये सारे विशेषण आचार्य के भी हो सकते हैं और शिष्य के भी। चूणि कार ने इन शब्दों को केवल 'आचार्य' का ही विशेषण माना है।' हमारे अभिमत के अनुसार ये विशेषण आचार्य के लिए ही संगत हैं। श्लोक ३४: ११४. दीप (प्रकाश) (दीवं) इसके दो रूप बनते हैं-दीप अथवा द्वीप । दीप प्रकाश का वाचक है और द्वीप विश्राम या शरण का।' ११५. पुरुषादानीय (पुरिसादाणीया) मुख्यतः यह शब्द भगवान् पार्श्व के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है । जैन आगमों में स्थान-स्थान पर 'पुरिसादानीय पास' (सं० पुरुषादानीय पार्श्व)-ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं।' चूणिकार और वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं। चूणिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं१. धर्मलिप्सु पुरुषों के द्वारा आदानीय । २. ग्राह्य पुरुष । ३. आदानार्थिक पुरुष- मोक्षार्थी पुरुष । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए आश्रयणीय । २. मोक्ष अथवा मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) को धारण करने वाला। १. वृत्ति, पत्र १८५ : तथा धृतिः-संयमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः, संयमधृत्या हि पञ्चमहावतमारोबहनं सुसाध्यं भवतीति, तपः साध्या च सुगतिहस्तप्राप्तेति । २. वत्ति, पत्र १८५ : शुश्रूषमाणाः शिष्या गुरवो वा शुभ्रष्यमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८२ : तत्र केवंविधाचार्याः शरणम् ?, वीरा'... - अत्तपण्णेसो ...। ४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'दीवं' ति 'बीपी दीप्तो' दीपयति-प्रकाशयतीति दीपः .. .. यदि बा-द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वास ५. (क) ठाणं ६७८ : पासस्स गं अरहो पुरिसादाणिस्स.....। (ख) समवाओ १६४ : पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स। (ग) भगवई १।१२२ : पासेणं अरहा पुरिसादाणीएणं.... । (घ) नायाधम्मकहा २।१।१६ : पासे अरहा पुरिसादाणीए। ६. चूणि, पृ० १८३ : धर्मलिप्सुभिः पुरुषरादानीयाः। अथवा ग्राहाः पुरुषा इत्यादानीयाः । अयवादानीय इत्यादाथिकः साधुः, पुरुष श्चासौ आदानीयश्च पुरुषादानीयः । ७. वृत्ति, पत्र १८६ : मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया-आश्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदि वा–आदानीयो-- हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गो वा सम्यग्दर्शनादिकः । Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो १ ११६. बन्धन से मुक्त हो ( बंधमुक्का) चूर्णिकार ने बन्धन का आशय काल आदि बतलाया है' और वृत्तिकार ने बाह्य और आभ्यन्तर स्नेह को बन्धन बतलाया ११७. जीने की ( जीवियं ) ४२१ बुणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं' १. असंयममय जीवन । २. विषय कषाय आदि से युक्त जीवन । वृत्ति में भी इसके दो अर्थ उपलब्ध होते हैं - १. असंयममय जीवन । २. प्राणधारण । मुनि वही है जो न जीने की आकांक्षा रखता है और न मरने की वांछा करता है । पार चला जाता है । यही 'णावकखंति जीवियं' का भाव है । ११८. श्लोक ३५ अध्ययन : टिप्पण ११६-११६ चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ मुख्य रूप से इस प्रकार किया है---गृहवास में प्रकाश न देखने वाले मनुष्य, फिर चाहे वे राजा, अमात्य, पंडित या धर्मलिप्सु हों, पुरिसादानीय नहीं होते । अतः प्रव्रजित होकर वे वीर बंधन से मुक्त हो जीवन की आकांक्षा नहीं करते।' श्लोक ३५ वह जीवन और मृत्यु की कामना से चूर्णि और वृत्ति में प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण में व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है । चूर्णिकार के अनुसार 'समयातीत' इस पद के दो संस्कृतरूप निष्पन्न होते हैं— 'समयात्त' और 'समयातीत' । उन्होंने 'समयातीय' का संबंध 'अद् भक्षणे' धातु से माना है । जो बहुत कहा गया है वह सब समय के भीतर है अर्थात् उसकी सीमा में है । वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है- जो बहुत कहा गया है वह कुसमयों के द्वारा अतीत है। तात्पर्य की भाषा में अज्ञान दोष और विषय लालसा के कारण कुसामयिकों द्वारा वह आचीर्ण नहीं है ।' वृत्तिकार ने तीसरे चौथे चरण का अर्थ दो प्रकार से किया है १. इस अध्ययन में मैंने बहुत बातों का निषेध किया है। वे आचरण अर्हत् आगम से अतीत या अतिक्रान्त हैं, इसलिए मैंने उनका निषेध किया है । और जो कुछ विधिरूप में प्रतिपादन किया है वह सब कुसमय से अतीत - लोकोत्तर है । बहुत कुछ कहा है, वह सब अहं आगम से विरुद्ध है, इसलिए अनुष्ठेय नहीं है।" २. १. चूर्ण, पृ० १८३ : बन्धनानि कालावीनी तेभ्यो मुक्का बंधणुम्मुक्का | २. वृत्ति, पत्र १८६ : तथा बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण पुत्रकलत्रा विस्नेहरूपेणोत् प्राबल्येन, मुक्ताः बन्धनोन्मुक्ताः । ३. चूर्ण, पृ० १८३ : न तदसंयमजीविशं ..विषय कषायादिजीवितं वा । ४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'जोवितम् - असंयमजीवितं प्राणधारणं वा । ५. चूर्णि, पृ० १८३ । ६. चूर्ण, पृ० १८३ : सव्वेतं समयातीयं, सध्वमिति यविदं धर्मं प्रति इह मयाऽध्ययनेऽपदिष्टम् । समय आरुहत एव, आदीयं ति भक्षणम्, समयाभ्यन्तरकरणमात्रम् 'अद भक्षणे' समयेण अतीतं समयाभ्यन्तरे, न समयेन समयेनात्तमित्यर्थः । ७. वृत्ति, पत्र १८६ : अध्ययनादेरारभ्य प्रतिषेध्यत्वेन यत् लपितम् उक्तं मया बहु तत् 'समयाद् - अर्हतावागमादतीतमतिक्रान्तमिति कृत्वा प्रतिषिद्धं पिच विधिद्वारेणोक्तं तदेतत्सर्वं कुत्सित समयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते ते कुलीलिसियेतत्सर्व समातीतमिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति । 2 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। ४२२ अध्ययन ६: टिप्पण ११६-१२१ श्लोक ३६. ११६. अतिमान (अइमाण) यथार्थ में यहां 'अहिमाणं' (सं० अभिमानं) शब्द होना चाहिए था। किन्तु 'हि' और 'इ' के लिपिसाम्य के कारण 'हि' के स्थान पर 'इ' हो गया हो--ऐसा लगता है। अर्थ को दृष्टि से भी अभिमान शब्द ही उपयुक्त लगता है। चूणि और वृत्ति में 'अतिमान' की व्याख्या उपलब्ध है । इसीलिए चूर्णिकार को यह लिखना पड़ा कि मानार्ह आचार्य आदि के प्रति प्रशस्त मान किया जाता है, किन्तु उसके अतिरिक्त जाति आदि का मान नहीं करना चाहिए।' १२०. बड़प्पन के भावों को (गारवाणि) गौरव का अर्थ है-प्राप्त वस्तु के प्रति अहंकार । स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार के गौरव बतलाए हैं - ऋद्धि का गौरव, रस का गौरव, सात (सुख-सुविधा) का गौरव ।' १२१. निर्वाण का (णिव्वाणं) चूर्णिकार ने निर्वाण के दो अर्थ किए हैं- संयम और मोक्ष ।' वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं–निर्वाण और निर्वाण-प्रदेश ।' उत्तराध्ययन सूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में निर्वाण शब्द के स्वास्थ्य और जीवन-मुक्ति-ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं।' १. (क) चूणि, पृ० १५३. अतिशयेन मानं अतिमानम् ...."अथवा यद्यपि मानार्हेवाचार्यादिषु प्रशस्तो मानः क्रियते सरागत्वात् तथापि समतीत्य योऽन्यो जात्यादिमानः। (ख) वृत्ति, पा १०६ : अतिमानो महामानः । २. ठाणं, ३१५०५ : तओ गारवा पण्णता, तं जहा-इड्डीगारवे, रसगारवे, सातागारवे । ३. चूणि, पृ० १८३ : संयम एब........ अधवा णिव्वाणमिति मोक्षः। ४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'निर्वाणम् -अशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाकाशदेशं वा। ५. बृहद्वत्ति, पत्र १८५,१८६ : निर्वाणं...... स्वास्थ्यमित्यर्थः, यद्वा निर्वाणमिति जीवनमुक्तिम् । Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अक्षयर समाही दसवां अध्ययन समाधि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अनुयोगद्वार में नामकरण के दस हेतु बतलाए हैं। उनमें एक हेतु है-आदान-पद । इसका अर्थ है प्रथम पद के आधार पर अध्ययन आदि का नामकरण करना, जैसे- उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययन का नाम 'चातुरंगीय (प्रा० चाउरंगिज्ज) है, चौथे अध्ययन का नाम 'असंस्कृत' ( प्रा० असंखयं ) है । प्रस्तुत आगम सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के तेरहवें अध्ययन का नाम ' याथातथ्य ( प्रा० अहातहियं ) और दूसरे श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन का नाम 'आर्द्रकीय (प्रा० अद्दइज्जं ) है। ये सारे नाम उन-उन अध्ययनों के प्रथम पद के आधार पर हुए हैं। नियुक्तिकार के अनुसार इस अध्ययन का नाम आदान-पद हेतु से 'आघं' होना चाहिए था, क्योंकि इस अध्ययन के प्रथम श्लोक का प्रथम पद है - ' आघं मतिमं । किन्तु अर्थाधिकार के आधार पर इसका नाम 'समाधि' रखा गया है। समवायांग में भी यही नाम उल्लिखित है । चूर्णिकार ने इस गुणनिष्पन्न नाम 'समाधि' की स्वीकृति के समर्थन में कहा है-जैसे उत्तराध्ययन के चौथे अध्ययन का आदानपद हेतु से नामकरण होना चाहिए था 'असंस्कृत' किन्तु उसमें प्रमाद और अप्रमाद का वर्णन होने के कारण उसका गुणनिष्पन्न नाम 'प्रमादाप्रमाद' भी स्वीकृत है । इसी प्रकार आचारांग सूत्र के पांचवें अध्ययन का आदानपद परक नाम होना चाहिए था 'आवंती' किन्तु वह अध्ययन 'लोकसार' (या लोकसारविजय) कहलाता है । " *******... समाधि का अर्थ है - समाधान, तुष्टि, अविरोध । इसके मुख्य चार भेद हैं १. द्रव्य समाधि-पांच इन्द्रियों के मनो विषयों से होने वाली तुष्टि क्षीर और गुड़ की समाधि अर्थात् अविरोध २. क्षेत्र समाधि - दुर्भिक्ष से उत्पीडित प्राणियों का सुभिक्ष प्रदेश में चला जाना, चिरप्रवासी व्यक्तियों का अपने घर लौट आना । ३. काल समाधि - वनस्पति के जीवों को वर्षा में, उलूक को रात्री में, कौओं को दिन में, मायों को शरद ऋतु में समाधि का अनुभव होता है । अथवा जिसे जिस समय में जितने काल तक समाधि का अनुभव हो । ४. भाव समाधि - इसके चार भेद हैं (क) ज्ञान समाधि - जैसे-जैसे व्यक्ति श्रुत का अध्ययन करता है वैसे-वैसे अत्यन्त समाधि उत्पन्न होती है। ज्ञानार्जन में उद्यत व्यक्ति भोजन-पानी को भूल जाता है । वह कष्टों की परवाह नहीं करता, उनसे उद्विग्न नहीं होता । ज्ञेय की उपलब्धि होने पर उसका जो समाधान होता है, वह अनिर्वचनीय होता है । (ख) दर्शन समाधि - जिन प्रवचन में जिसकी बुद्धि इतनी श्रद्धाशील हो जाती है कि उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता। दीपक की भांति निप्रकम्प हो जाती है । उसकी स्थिति पवनशून्य गृह में स्थित - (ग) चारित्र समाधि इसकी नियति है विषय सुखों से परामुखता निष्चित होने पर भी साधक परम समाधि का अनुभव करता है । कहा है तमसंचारणिसन्नोऽवि मुनिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावह मुति फलो सं चक्कबट्टीवि ?' जो मुनि राग, मद और मोह को नष्ट कर चुके है, जो तृण संस्तारक पर बैठे है (अर्थात् जो निष्कियन है उन्हें जो मुक्ति-सुख का अनुभव होता है, वैसा सुख चक्रवर्ती को कहां ? १. अनुयोगद्वार सूत्र ३१९ । २. नियुक्ति, गाथा १६ : आदाणपदेणाऽऽधं गोण्णं णामं पुणो समाधिति । ३. समवाओ १६।१ । ४. चूर्णि, पृ० १८४ ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४२६ अध्ययन १०: प्रामुख नवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यस्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ (प्रशमरति प्रकरण १२८) ---जो मुनि लौकिक प्रवृत्तियों से मुक्त है, उसको जिस परम सुख की यहां अनुभूति होती है, वह सुख न चक्रवर्ती को उपलब्ध होता है और न इन्द्र को। (घ) तप:समाधि-तपस्या से भावित पुरुष कायक्लेश, भूख, प्यास आदि परिषहों से उद्विग्न नहीं होता। इसी प्रकार वह आभ्यन्तर तप का अभ्यास कर, ध्यान में आरूढ होकर निर्वाणप्राप्त पुरुष की भांति सुख-दुःख से बाधित नहीं होता। दशवकालिक सूत्र में चार समाधियों का वर्णन है -विनयसमाधि श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि । यह भाव । समाधि है। इस अध्ययन में चौबीस श्लोक हैं । इनमें समाधि के लक्षण और असमाधि के स्वरूप का वर्णन है। समाधि के तीन मुख्य विभाग -- चारित्र समाधि, मूलगुण समाधि और उत्तरगुण समाधि का अनेक श्लोकों में प्रतिपादन हुआ है। पहले तीन श्लोकों में समाधि का सामान्य वर्णन है । चौथे श्लोक से पनरहवें श्लोक तक चारित्र समाधि, बीस से बावीस श्लोकों में मूलगुण समाधि का और शेष दो श्लोकों (२३,२४) में उत्तरगुण समाधि का वर्णन है । चार श्लोकों (१६-१६) में असमाधि प्राप्त मनुष्यों का वर्णन है। विमर्शनीय शब्द २. लाट (श्लोक ३) जो मुनि जिस किसी प्रकार के प्रासुक अशन-पान से जीवन यापन करता है, जो आहार के अभाव में परितप्त नहीं होता वह 'लाढ कहलाता है । यहां यह शब्द मुनि की चर्या का द्योतक है। जैन आगमों तथा व्याख्या साहित्य में 'लाढ' शब्द देशवाची भी है। भगवान् महावीर ने एक बार सोचा-बहुत कर्मों की निर्जरा करनी है। उसके लिए उपयुक्त स्थान है 'लाट' (लाढ) देश । वहां के लोग अनार्य हैं। उनके योग से कर्मों की अधिक निर्जरा होगी। यह सोचकर भगवान् 'लाट' देश में गए ।' आचारांग ६।३२ में 'अह दुच्चर-लाढमचारी' का उल्लेख है। २ घृत (श्लोक १६) जैन आगमों का यह बहु-प्रयुक्त शब्द है। यह विशेषत: मुनि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। किन्तु यह एक साधना की विशिष्ट पद्धति का द्योतक रहा है। जब वह पद्धति विस्मत हो गई, तब यह शब्द उस पद्धति का केवल वाचक मात्र रह गया। 'धुत' समाधि की साधना पद्धति है। बौद्ध परंपरा में तेरह धुत प्रतिपादित हैं। ये सारे धुत क्लेशों को क्षीण करने में सहयोग करते हैं । इनका विस्तृत वर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है।" आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'धुत' है। वहां दस धुतों का निर्देश है । धत का शाब्दिक अर्थ है-कंपित करना, धन डालना । आगम के व्याख्याकारों ने इसके अनेक अर्थ किए हैं-वैराग्य, मोक्ष, समाधि आदि-आदि। १. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ६८, ९६ : पंचतु वि य विसयेसु सुत्रेसु वम्वम्मि सा समाधि ति। खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले जो जम्मि कालम्मि ॥ भावसमाधि चतुविध बंसण णाणे तवे चरित्ते य । चतुहि वि समाधितप्पा सम्मं चरणट्ठितो साधू ॥ व्याख्या के लिए देखें-चूणि पृ० १८४, १८५ । वृत्ति पत्र १८७, १८८ । २. वशवकालिक है।४। ३. आवश्यक णि पूर्वभाग, पत्र २६० । ४. विशुद्धिमग भाग १, पृ.६०-८०। Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४२७ अध्ययन १०: प्रामुख प्रस्तुत अध्ययन में समाधि को प्राप्त करने के कारण निर्दिष्ट हैं। उनमें से कुछेक ये हैं१. अनिदानता १२. संज्ञा-विरति २. इन्द्रिय-संयम, शरीर-संयम १३. कषाय-विजय ३. आत्मौपम्य की भावना का विकास १४. नो-कषाय-विजय ४. अस्वादवृत्ति १५. वाग्गुप्ति ५. अप्रतिबद्धता १६. निर्मल अध्यवसाय ६. असंचय १७. धुतांगों की साधना ७. समतानुक्षा का अभ्यास १८. पाप-निवृत्ति ७. आकांक्षा-विरति १६. अमूर्छा ६. वैराग्य २०. निरवकांक्षिता १०. अनासक्ति २१. विप्रमुक्ति ११. एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास २२. जन्म-मरण-अनाकांक्षिता Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं : दसवां अध्ययन समाही : समाधि संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.आघं मइमं अणुवीइ धम्म अंजु समाहि तमिणं सुणेह। अपडिपणे भिक्खू समाहिपत्ते अणिदाणभूते सुपरिव्वएज्जा। आख्यातवान मतिमान अनवीचि धर्म, ऋजं समाधि तमिमं शृणुत । अप्रतिज्ञो भिक्षः समाधिप्राप्तः, अनिदानभूतः सुपरिव्रजेत् ।। १. मतिमान् (भगवान् महावीर) ने' अनुचिन्तन' (ग्राहक की योग्यता को ध्यान में रख) कर ऋजु समाधि-धर्म का प्रतिपादन किया, वह तुम सुनो। समाधि-प्राप्त भिक्षु अमूच्छित और (हिंसा आदि) आश्रवों से मुक्त' रहकर सम्यक् परिव्रजन करे। २. उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता अदिण्णमण्णेसु य णो गहेज्जा। ऊर्ध्वमधश्च तिर्यगदिशासु, त्रसाश्च ये स्थावराः ये च प्राणाः । हस्तैः पादैश्च संयम्य, अदत्तमन्यैश्च नो गृह्णीयात् ।। २. ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति हाथ और पैर का संयम करे।' गृहस्थ के द्वारा अदत्त वस्तु को न ले। ३. सुयक्खायधम्रो वितिगिच्छतिण्णे लाढे चरे आयतुले पयासु । आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी चयं ण कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥ स्वाख्यातधर्मः विचिकित्सातीर्णः, लाढश्चरेत् आत्मतुलः प्रजासु । आयं न कुर्यात् इह जीवितार्थी, चयं न कुर्यात् सुतपस्वी भिक्षुः ।। ३. जिसका धर्म स्वाख्यात है', जो संदेहों का पार पा चुका है, जो जैसा भोजन प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहता है," वह सुतपस्वी भिक्षु" प्राणीमात्र को आत्म-तुल्य समझता हुआ विचरण करे।" इस जीवन का अर्थी" होकर पदार्थों का अर्जन" और संचय न करे।५ ४.सविदियाभिणिन्वुडे पयासु चरे मुणी सव्वओ विप्पमुक्के । पासाहि पाणे य पुढो विसणे दुक्खेण अट्टे परिपच्चमाणे॥ सर्वेन्द्रियाभिनिर्वतः प्रजासु, चरेद् मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः । पश्य प्राणांश्च पृथक् विषण्णान्, दुःखेन आर्त्तान् परिपच्यमानान् । ५. एतेसु बाले य पकुव्वमाणे आवडती कम्मसु पावएसु । अतिवाततो कीरति पावकम्म णि उंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ एतेष बालश्च प्रकुर्वन्, आवर्तते कर्मसु पापकेषु । अतिपाततः क्रियते पापकर्म, नियुञ्जानस्तु करोति कर्म। ४. मुनि स्त्रियों के प्रति सभी इन्द्रियों से संयत" तथा सर्वथा बंधनमुक्त होकर रहे। पृथक्-पृथक् रूप से विषण्ण, दुःख से पीड़ित" और सताए जाते हुए प्राणियों को देखे । ५. अज्ञानी मनुष्य इन (दुःखी जीवों) में (वध आदि का प्रयोग) करता हुआ पाप-कर्मों के आवर्त में फंस जाता है। वह स्वयं प्राणों का अतिपात कर पापकर्म करता है और दूसरों को (प्राणों के अतिपात में) नियोजित करके भी पाप-कर्म करता है। Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० प्र०१०: समाधि: श्लोक ६-११ सूयगडा १ ६. आदीणवित्ती वि करेति पावं मंता हु एगंतसमाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रए विवेगे पाणाइवाया विरते ठितप्पा॥ आदीनवृत्तिरपि करोति पापं, मत्वा खलु एकान्तसमाधिमाहुः । बुद्धः समाधौ रतो विवेके, प्राणातिपाताद् विरतः स्थितात्मा ॥ ६. दीनवृत्ति वाला भी पाप करता हैयह जानकर (भगवान् महावीर ने) ऐकान्तिक समाधि का उपदेश दिया।" (इस समाधि को) जानने वाला समाधि और विवेक में रत, हिंसा से विरत और स्थितात्मा होता है। ७. समूचे जगत् को समता की दृष्टि से देखने वाला किसी का भी प्रिय-अप्रिय न करे-मध्यस्थ रहे।" दीन (कायर) व्यक्ति५ (समाधि की साधना में) उठकर, फिर विषण्ण" हो, पूजा और श्लाघा की कामना करने लग जाता ७. सव्वं जगं तू समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। उहाय दीणे तु पुणो विसण्णे संपूयणं चेव सिलोयकामी॥ सर्वं जगत्त समतानप्रेक्षी, प्रियमप्रियं कस्यापि नो कुर्यात् । उत्थाय दीनस्तु पुनर्विषण्णः, संपूजनं चैव श्लोककामी ॥ ८. आहाकडं चेव णिकाममीणे णिकामसारी य विसण्णमेसी। इत्थोसु सत्ते य पुढो य बाले परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे॥ ९.वेराणगिद्धे णिचयं करेति इतो चुते से दुहमट्ठदुग्गं । तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्म चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । आधाकृतं चैव निकामयमानः, ८. अज्ञानी मुनि आधाकर्म" (मुनि के निकामसारी च विषण्णषी । निमित्त बने आहार) की कामना करता स्त्रीषु सक्तश्च पृथक् च बालः, है, उसकी गवेषणा करता है, परिग्रहं चैव प्रकुर्वन् ।। असंयम की एषणा करता है", स्त्रियों की अनेक प्रवृत्तियों में आसक्त होता है, परिग्रह का संचय करता है । ३२ वैरानगृद्धो निचयं करोति, ६. (परिग्रह-अर्जन के निमित्त) जन्मान्तइतश्च्युतः सः दुःखार्थदुर्गम् । रानुयायी वैर में गृद्ध हो" (पाप-कर्म तस्मात् तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, का संचय" करता है। यहां से च्युत चरेद् मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः ॥ होकर वह विषम और दुःखप्रद स्थान को" प्राप्त होता है। इसलिए मेधावी मुनि"धर्म की समीक्षा कर, सब ओर से मुक्त हो, संयम की चर्या करे। १०.आयं ण कुज्जा इह जीवितट्ठी असज्जमाणो य परिव्वएज्जा। णिसम्मभासी य विणीयगिद्धो हिंसण्णितं वा ण कहं करेज्जा॥ आयं न कुर्यात् इह जीवितार्थी, असश्च परिव्रजेत् । निशम्यभाषी च विनीतगृद्धिः, हिंसान्वितां वा न कथां कुर्यात् ।। १०. इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन न करे, अनासक्त रह परिव्रजन करे । सोचकर बोलने वाला और आसक्ति से दूर रहने वाला हिंसायुक्त कथा न करे । ११.आहाकडं वाण णिकामएज्जा णिकामयंते य ण संथवेज्जा। धुणे उरालं अणवेक्खमाणे चेच्चाण सोयं अणुवेक्खमाणे॥ आधाकृतं वा न निकामयेत, निकामयतश्च न संस्तुयात् । धुनोयात् उदारं अनपेक्षमाणः, त्यक्त्वा स्रोतः अनुप्रेक्षमाणः ।। ११. आधाकर्म की कामना न करे । उसकी कामना करने वालों की प्रशंसा और समर्थन न करे ।” स्थूल शरीर की अपेक्षा न रखता हुआ" अनुप्रेक्षापूर्वक (असमाधि के) स्रोत को" छोड़, उसे (स्थूल शरीर को) कृश करे। Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२. एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास । एसप्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी अकोहणे सच्चरए तवस्सी॥ अ० १० : समाधि : श्लोक १२-१८ एकत्वमेवं अभिप्रार्थयेत्, १२. एकत्व (अकेलेपन) की" अभ्यर्थना एष प्रमोक्षः न मषा इति पश्य । करे। यह एकत्व मोक्ष है।" यह एष प्रमोक्षः अमषा अवरोपि, मिथ्या नहीं है। इसे देख । (एकत्व में अक्रोधनः सत्यरतः तपस्वी ॥ रहने वाला पुरुष) मोक्ष, सत्य, प्रधान, क्रोधमुक्त, सत्यरत" और तपस्वी होता १३. इत्थीसु या आरयमेहुणे उ परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे। उच्चावएसु विसएसु ताई ण संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ॥ स्त्रीष च आरतमैथनस्तु, परिग्रहं चैव अकुर्वन् । उच्चावचेष विषयेषु तादृग, न संश्रयन् भिक्षुः समाधिप्राप्तः ।। १३. जो स्त्रियों के प्रति मैथुन से विरत है, परिग्रह नहीं करता, नाना" विषयों में मध्यस्थ और उनका सेवन नहीं करने वाला" भिक्षु समाधि-प्राप्त होता १४. अरति रति च अभिभूय भिक्खू तणादिफासं तह सीतफासं। उण्हं च दंसं चहियासएज्जा सुभि च दुभि व तितिक्खएज्जा॥ अरति रति च अभिभूय भिक्षः, तृणादि स्पर्श तथा शीतस्पर्शम् । उष्णं च दशं च अध्यासीत, सुरभि च दुरभि च तितिक्षेत ॥ १५. गुत्ते वईए य समाहिपत्ते लेसं समाहट्ट परिव्वएज्जा। गिह ण छाए ण वि छादएज्जा सम्मिस्सिभावं पजहे पयासु ॥ गुप्तः वाचि च समाधिप्राप्तः, लेश्यां समाहृत्य परिव्रजेत् । गृहं न छादयेत् नापि छादयेत्, सम्मिश्रीभावं प्रजह्यात् प्रजासु ॥ १६. जे केइ लोगम्मि उ अकिरियाता अण्णेण पुट्टा धुतमादिसति । आरंभसत्ता गढिया य लोए धम्म ण जाणंति विमोक्खहेउं । ये केचिद लोके तु अक्रियात्मानः, अन्येन पृष्टाः धुतमादिशन्ति । आरम्भसक्ताः ग्रथिताश्च लोके, धर्म न जानन्ति विमोक्षहेतुम् ।। १४. भिक्षु अरति और रति को जीते, तृण आदि तथा सर्दी के स्पर्श और गरमी तथा (मच्छर आदि के) दंश को सहे। सुगंध और दुर्गध में तितिक्षा रखे। १५. भिक्षु वाणी से संयत' हो समाधि प्राप्त बने, विशुद्ध लेश्या के साथ" परिव्रजन करे, स्वयं घर न छाए और दूसरों से न छवाए, गृहस्थों के साथ एक स्थान में न रहे। १६. इस जगत् में जो अक्रियात्मवादी" हैं वे दूसरों के पूछने पर धुत (समाधि की एक साधना-पद्धति) का उपदेश करते हैं। किन्तु वे आरंभ में रत और लोक में आसक्त होने के कारण मोक्ष के हेतुभूत (समाधि) धर्म को नहीं जानते। १७. उन मनुष्यों के छन्द (अभिप्राय) नाना प्रकार के होते हैं। क्रिया और अक्रिया--ये नाना वाद हैं। नवोत्पन्न शिशु का शरीर जैसे बढ़ता है वैसे ही असंयमी का वैर बढ़ता है।" १७. तेसिं पुढो छंदा माणवाणं किरिया-अकिरियाण व पुढोवादं जातस्स बालस्स पकुव्व देहं पवड्ढती वेरमसंजयस्स ॥ तेषां पृथग्छंदा मानवानां, क्रिया-अक्रियाणां वा पृथग्वादः । जातस्य बालस्य प्रकुर्वन् देहं, प्रवर्धते वरमसंयतस्य ।। १८. आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे ममाइ से साहसकारि मंदे। अहो य राओ परितप्पमाणे अट्टे सुमूढे अजरामरे व्व ॥ आयुःक्षयं चैव अबुध्यमानः, ममायी स साहसकारी मन्दः । अहश्च रात्रौ परितप्यमानः, आतः सुमूढः अजरामर इव ।। १८. आयु के क्षय को नहीं जानता हुआ __ ममत्वशील", सहसा (बिना सोचे समझे) काम करने वाला मंद मनुष्य विषयों से पीड़ित और मोह से मूच्छित हो अजर-अमर की भांति आचरण करता हुआ दिन-रात संतप्त होता है। Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. ४३२ प्र० १०:समाधि : श्लोक १६-२४ १६. जहाय वित्तं पसवो य सव्वे जे बंधवा जेय पिया य मित्ता। लालप्पई से वि उवेति मोहं अण्णे जणातं सि हरति वित्तं ॥ हित्वा वित्तं पशंश्च सर्वान, ये बान्धवाः यानि च प्रियाणि च मित्राणि । लालप्यते सोपि उपैति मोहं, अन्ये जनाः तत् तस्य हरन्ति वित्तम् ॥ १६. धन को, सारे पशुओं को, जो बांधव और प्रिय मित्र हैं उन्हें छोड़ (वह जाता है तब) विलाप करता है और मोह को प्राप्त होता है। (उसके चले जाने पर) दूसरे लोग उसके धन का हरण कर लेते हैं। २०. जैसे चरते हुए छोटे पशु" सिंह से डर कर दूर रहते हैं," इसी प्रकार मेधावी मनुष्य धर्म को समझकर दूर से ही पाप को छोड़ दे। २०.सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता दूरे चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेहावि समिदख धम्म दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥ २१.संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं पावाओ अप्पाण णिवट्टएज्जा। हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ सिंहं यथा क्षद्रमृगाश्चरन्तः, दूरे चरन्ति परिशंकमानाः । एवं तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, दूरेण पापं परिवर्जयेत् ॥ संबुध्यमानस्तु नरो मतिमान्, पापात् आत्मानं निवर्तयेत् । हिंसाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, वैरानबन्धीनि महाभयानि । २१. मतिमान् मनुष्य समाधि को समझ कर" तथा यह जानकर कि दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं," वैर की परंपरा को बढ़ाते हैं और महा भयंकर हैं, अपने आपको पाप से बचाए । २२. आत्मगामी मुनि" असत्य न बोले । यह सत्य निर्वाण और सम्पूर्ण समाधि है।" मृषावाद स्वयं न करे, दूसरों से न करवाए और करने वाले का अनुमोदन भी न करे। २२. मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी णिव्वाणमेयं कसिणं समाहि। सयं ण कुज्जा ण वि कारवेज्जा करंतमण्णं पि य णाणुजाणे ॥ मषा न ब्रूयाद् मुनिरात्मगामी, निर्वाणमेतत् कृत्स्नः समाधिः । स्वयं न कुर्यात् नापि कारयेत्, कुर्वन्तमन्यमपि च नानुजानीयात् ॥ २३. सुद्धे सिया जाए ण दूसएज्जा अमुच्छितो अणज्झोववण्णो। धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी ण सिलोयकामी य परिव्वएज्जा॥ शुद्धे स्यात् जाते न दूषयेत्, अमूच्छितः धृतिमान् विमुक्तो न च पूजनार्थी, न श्लोककामी च परिव्रजेत् ।। २३. एपणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार" को दूषित न करे, उसमें मूच्छित और आसक्त न हो । संयम में धृतिमान् और अगार-बंधन से मुक्त" मुनि पूजा का अर्थी, श्लाघा का कामी न होता हुआ परिव्रजन करे। २४. घर से अभिनिष्क्रमण कर, अनासक्त हो,' शरीर का पुत्सर्ग कर,' कर्मबंधन को छिन्न करे । न जीवन की इच्छा करे और न मरण की। भव के वलय से मुक्त हो संयम की चर्या करे । २४.णिक्खम्म गेहाओ णिरावकंखी कायं विओसज्ज णिदाणछिण्णे। णो जीवितं णो मरणाभिकंखी चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के॥ निष्क्रम्य गेहाद निरवकांक्षी, कायं व्युत्सज्य छिन्ननिदानः । नो जीवितं नो मरणाभिकांक्षी, चरेद भिक्षवलयाद् विमुक्तः ॥ -त्ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि ॥ -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन १० श्लोक १: १. मतिमान् (भगवान् महावीर) ने (मइम) चूणि और वृत्ति में इसका अर्थ केवलज्ञानी किया है । वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा महावीर का ग्रहण किया है।' २. अनुचिन्तन (अणुवीइ) अनुचिन्तन कर अर्थात् भगवान महावीर ने ग्राहकों को ध्यान में रखकर, उनकी ग्रहण-योग्यता के अनुसार धर्म का आख्यान किया। सामने वाला व्यक्ति कौन है ? उसका उपास्य कौन है ? वह किस दर्शन का अनुयायी है ? आदि-आदि प्रश्नों का चिन्तन कर भगवान् ने उपदेश दिया। चूर्णिकार के अनुसार धर्म कहने की पद्धत्ति यह है-निपुण श्रोता के समक्ष सूक्ष्म अर्थ का प्रतिपादन और स्थूल बुद्धि वाले श्रोता के समक्ष स्थूल अर्थ का प्रतिपादन किया जाए । सुनने वाले धर्म को सुनकर यह चिंतन करें कि उन्हें ही लक्ष्य कर यह उपदेश दिया जा रहा है । तिर्यञ्च भी यह सोचे कि भगवान् हमारे लिए कह रहे हैं।' ३. ऋजु समाधि-धर्म का (अंजु समाहि) यह समाधि का विशेषण है । भगवान् ने ऋजु समाधि का प्रतिपादन किया । ऋजु का अर्थ है-अवक्रता, सरलता, कथनी और करना की समानता । इस प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने बौद्धों की समाधि का उल्लेख किया है और बताया है कि वह ऋजु नहीं है । वे वनस्पति को सचेतन मानते हैं । उसका स्वयं छेदन नहीं करते किन्तु दूसरों से करवाते हैं। वे स्वयं पैसा नहीं छूते किन्तु क्रय-विक्रय करते हैं । यह समाधि की ऋजुता नहीं है।' समाधि शब्द की व्याख्या के लिए देखें-इसी अध्ययन का आमुख । १. (क) चूणि, पृ० १८५ : मतिमानिति केवलज्ञानी। (ख) वृत्ति, पत्र १५८ : मतिमान् मननं मतिः-समस्तपदार्थपरिज्ञानं तद्विद्यते यस्यासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रासाधारण विशेषणोपादानात्तीर्थकृद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्तेर्वीरवर्धमानस्वामी गृह्यते। २. वृत्ति, पत्र १८८ : 'अनुविचिन्त्य' केवलज्ञानेन ज्ञात्वा प्रज्ञापनायोग्यान् पदार्थानाधित्य धर्म भाषते, यदि वा-प्राहकमनुविचिन्त्य कस्पार्थस्यायं ग्रहणसमर्थः ? तथा कोऽयं पुरुषः ?, कञ्च नतः ?, किं वा दर्शनमापन्नः ?, इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषवो वा मन्यन्ते - यथा प्रत्येक मस्मदभिप्रायमनुविचिन्त्य भगवान् धर्म भाषते, युगपत्सर्वेषां स्वभावापरि णत्या संशयापगमादिति। ३. चूणि, पृ० १८५ : अणुवीयि ति अनुविचिन्त्य केवलज्ञानेनैव, अथवा अनुविचिन्त्य ग्राहकं ब्रवीति । जधा"णिउणे णिउणं अत्थं थूलत्थं थूलबुद्धिणो कधए।' (कल्पभाष्य गा० २३०) सुणेलूगा विचितेंति -- मम भावमनुविचिन्त्य कथयति, तिरिया अपि विचितयंति---अम्हं भगवान् कथयति । ४. (क) चूणि, पृष्ठ १८४ :अंजुमिति उज्जुगं, न यया शाक्याः, वृक्ष स्वयं न छिन्दन्ति, 'भिन्नं जानीहि' तं छिन्दानं ब्रवते, तथा कार्षा पणं न स्पृशन्ति क्रय-विक्रयं तु कुर्वते इत्येवमादिभिः अनृजुः । (ख) वृत्ति, पत्र १८८ : 'ऋजुम'अवकं ययावस्थितवस्तुस्वरूपनिरूपणतो, न यथा शाक्याः सर्व क्षणिकमभ्युपगम्य कृतनाशाकृताभ्यागम दोषभयात् सन्तानाभ्युपगमं कृतबन्तः तथा बनस्पतिमचेतनत्वेनाभ्युपगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु वदति तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं स्वतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति । Jain Education Intemational Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४३४ अध्ययन १०: टिप्पण ४-८ ४. अमूच्छित (अपडिण्णे) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- अमूच्छित, अद्विष्ट ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-इहलौकिक या पारलौकिक आकांक्षा से शून्य । ५. (हिंसा आदि) आस्रवों से मुक्त (अणिदाणभूते) चूणि में इसके तीन अर्थ किए हैं१. अनाश्रवभूत । २. अबंधनभूत । ३. दुःख का अहेतुभूत। प्रस्तुत श्लोक का चौथा चरण है-अणिदाणभूते सुपरिव्वएज्जा।' इसका पाठान्तर है-अणिदाणभूतेसु परिव्वएज्जा।' 'सु' जो अगले शब्द से संबंधित था वह पूर्व शब्द से जुड़ जाता है और इस स्थिति में उसका अर्थ ही बदल जाता है। 'निदा' धातु बंधन के अर्थ में है । ज्ञान और व्रत अनिदानभूत-अबंधनभूत होते हैं। मुनि उनमें (ज्ञान और व्रत में) परिव्रजन करे।' निदान, हेतु, और निमित्त-ये तीनों एकार्थक हैं।' वृत्तिकार ने अनिदानभूत का एक अर्थ अनारंभ भी किया है।' श्लोक २: ६. ऊंची, नीची और तिरछी विशाओं में (उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु) इसका सामान्य अर्थ है-ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्यक् दिशा । चूर्णिकार ने इसका अर्थ शरीर-सापेक्ष किया है-शिर से ऊपर का भाग ऊर्ध्व दिशा, पैरों के तले का भाग अधो दिशा और बीच का भाग तिर्यग् दिशा। ७. हाथ और पैर का संयम करे (हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता) इसका अर्थ है-हाथ और पैर का संयम कर । वत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-प्राणियों को हाथ-पैरों से बांधकर अथवा दूसरे उपायों से उनकी कदर्थना कर दुःखी न करे ।' श्लोक ३: ८. जिसका धर्म स्वाख्यात है (सुयक्खायधम्मे) स्थानांग (३३५०७) के अनुसार सु-अधीत, सु-ध्यात, और सु-तपस्थित धर्म स्वाख्यात कहलाता है। जब धर्म सु-अधीत १. चूर्णि, पृ० १८५ : अप्रतिज्ञः इह-परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः अमूच्छित इत्यर्थः, अद्विष्टो वा । २. वृत्ति, पत्र १८६ : न विद्यते ऐहिकामुहिमकरूपा प्रतिज्ञा आकाङ्क्षातपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञः । ३. चूणि, पृ० १८५ : न निदानभूतः अनिदानभूतो नाम अनाश्रवभूतः,........ अधवा अनिदानभूतानीति 'निदा बन्धने अबन्धभूना नीति अनिदानतुल्यानीति ज्ञानादीनि व्रतानि वा परिव्वएज्जा, अधवा" न कस्यचिदपि दुःखनिदानभूतः । ४. चूणि, पृ० १८५ । निदानं हेतुनिनित्तमित्यनर्थान्तरम् । ५. वृति, पत्र १८६ : न विद्यते निदानमारम्भरूपं..... यस्यासावनिदानः । ६. चूणि, पृ० १८५ । तत्रोवमिति यद् ऊध्वं शिरसः, अध इति अध: पादतलाभ्याम्, शेषं तिर्यक् । ७. वृत्ति, पत्र १८६ : प्राणिनो हस्तपादाभ्यां 'संयम्य' बवा उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यथा वा कदर्थयित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तन्न कुर्यात् । Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ४३५ अध्ययन १० : टिप्पण ६-१२ होता है तब वह सु-ध्यात होता है। जब वह सु-ध्यात होता है तब वह सुतपस्थित होता है । सु-अधीत, सु-ध्यात और सु-तपस्थित धर्म ही स्वाख्यात धर्म है। प्रस्तुत निरूपण में धर्म के तीन अंगों- अध्ययन, ध्यान और तपस्या का निर्देश है। इनमें पौर्वापर्य है। अध्ययन के बिना ध्यान और ध्यान के बिना तपस्या नहीं हो सकती । व्यक्ति पहले ज्ञान से जानता है, फिर उसके आशय का ध्यान करता है और फिर उसका आचरण करता है । स्वाख्यात धर्म का यही क्रम है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने स्वाख्यात धर्म से श्रु तधर्म और चारित्र धर्म का ग्रहण किया है।' उपर्युक्त तीनों अंगों का इसमें समाहार हो जाता है । सु-अधीत और सु-ध्यात-ये दो श्रु तधर्म के प्रकार हैं और सु-तपस्थित चारित्र-धर्म का प्रकार है। ६. जो सन्देहों का पार पा चुका है (वितिगिच्छतिणे) वृत्तिकार ने विचिकिप्सा के दो अर्थ किए हैं-चित्त की विप्लुति और विद्वानों के प्रति जुगुप्साभाव । जो व्यक्ति इन दोनों से अतिक्रान्त हो जाता है, इनका पार पा लेता है, वह 'विचिकित्सातीर्ण' कहलाता है। यह दर्शनसमाधि का एक अंग है २ आचारांग में बतलाया गया है कि विचिकित्सा करने वाला समाधि को प्राप्त नहीं होता।' १०. जो जैसा भोजन प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहता है (लाढे चरे) जो मनि जिस किसी प्रकार के प्रासुक आहार, उपकरण आदि से विधिपूर्वक अपनी जीवन-चर्या चलता है वह 'लाढ'कहलाता है। अथवा प्रासुक आहार के अभाव में शरीर कृश हो जाने पर भी जो सूत्र, अर्थ और तदुभय की उपासना में परितप्त नहीं होता वह 'लाढ' कहलाता है।" ११. सुतपस्वी भिक्षु (सुतवस्सि) छन्द की दृष्टि से यहां ह्रस्व का प्रयोग है । जो घोर तप तपता है और पारने में विकृति नहीं लेता, वह सूतपस्वी कहलाता है। १२. प्राणीमात्र को आत्मतुल्य समझता हुआ विचरण करे (चरे आयतुले पयास) मुनि प्राणी मात्र को आत्म-तुल्य समझता हुआ विचरण करे । जो समस्त प्राणी-जगत् को अपनी आत्मा के समान मानता है वह उनके साथ वैसा बर्ताव नहीं कर सकता जो बर्ताव स्वयं के लिए अहितकर हो । वह उन्हें मार नहीं सकता। वह यह सोचता है 'जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एवमेव सम्वजीवाणं । ण हणइ ण हणावेद य सममणई तेण सो समणो॥ _ 'जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार किसी भी जीव को दुःख प्रिय नहीं है।' यह सोचकर वह स्वयं जीवों की न हिंसा १. (क) चूणि पृ० १८५ : सुष्ठ आख्यातो धर्मः स भवति सुअक्खातधम्मे द्विविधोऽपि । (ख) वृत्ति, पत्र १८६ : सुष्ठ्वाख्यातः श्रुत चारित्राख्यो धर्मो येन साधनाऽसौ स्वाख्यातधर्मा । २. वृत्ति, पत्र १८६ : विचिकित्सा -चित्तविप्लुतिविद्वज्जुगुप्सा वा तां (वि) तीर्ण:-अतिक्रान्तः 'तवेव च निःशङ्क यज्जिनः प्रवेदित' ___मित्येवं नि:शङ्कतया न क्वचिच्चित्तविप्लुति विधत्त इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपावितो भवति। ३. आयारो, ५२९३ : वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णो लमति समाधि । ४. (क) चूणि, पृ० १८६ : जेण केणइ फासुगेणं लाढेतीति लाढः, सुत्त-ऽस्थ-तदुभयहिं विचित्तेहिं किसे वि देहे अपरितंते लाढेत्ति। (ख) वृत्ति, पत्र १८६ : येन केनचित्प्रासुकाहारोपकरणादिगितेन विधिनाऽऽस्मानं यापयति-पालयतीति लादः । ५. वृत्ति, पत्र १९० : सुष्ठु तपस्वी 'सुतपस्वी' विकृष्टतपोनिष्टतप्तदेहः । ६. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा १५४ । Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४३६ अध्ययन १०: टिप्पण १३-१६ करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है । वह सबके प्रति समान व्यवहार करता है। मृषावाद के विषय में भी वह सोचता है- जैसे मुझे कोई गाली देता है या मेरे पर झूठा आरोप लगाता है तो मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरों को गाली देने और उन पर झूठा आरोप लगाने से दुःख होता है। इसी प्रकार दूसरे सारे आश्रवद्वारों के विषय में वह आत्मतुला के आधार पर सोचता है और उसी प्रकार आचरण करता है, यही उसका आत्मतुल्य आचरण है।' १३. इस जीवन का अर्थी (इह जीवियट्रो) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. साधक इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन न करे । २. अन्न, पान, वस्त्र, शयन, पूजा, सत्कार आदि के लिए पदार्थों का अर्जन न करे। दृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ यह है' साधक असंयम जीवन का अर्थी होकर, मैं लंबे समय तक सुखपूर्वक जीवित रहूंगा-ऐसा सोचकर कर्म-बंध न करे। १४. अर्जन (आय) चूणि ने इसका अर्थ-पदार्थों का अर्जन' और वृत्तिकार ने कर्मों के आश्रवद्वार रूपी आय-किया है। १५. संचय न करे (चयं ण कुज्जा ) मुनि के लिए धर्मोपकरण के अतिरिक्त सारे पदार्थ संचय की कोटि में आते हैं । मुनि आहार, उपकरण आदि वस्तुओं का संचय न करे । वह सोना, चांदी, धन, धान्य का भी संचय न करे कि वे भविष्य में जीवन-यापन के लिए कारगर होंगे। श्लोक ४: १६. सभी इन्द्रियों से संयत (सविदियाभिणिन्वुडे पयासु) प्रजा का अर्थ है-स्त्री। मुनि स्त्रियों के प्रति सभी इन्द्रियों से संयत रहे। पांचो इन्द्रियों के पांचो विषय स्त्रियों के प्रति होते हैं । वृत्तिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रताणि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥' १. (क) चूणि, पृ० १८६ : आयतुले पयासु ति, प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयः तासु यथाऽत्मनि तथा प्रयतितव्यम्, न हिसितव्या ___इत्यर्थः, आत्मतुल्या इति 'जध मम ण पियं दुक्खं' एवं मुसावादे वि जधा मम अन्माइक्खिज्जतस्स अप्पियं एवमन्यस्यापि । एवमन्येष्वपि आश्रवद्वारेषु आत्मतुल्यत्वं विभाषितव्यम् । (ख) वृत्ति, पत्र १८६, १९० । २. चूणि, पृ० १८६ : तं आईन इहलोकजीवितस्यार्थे कुर्यात्, अण्ण-पाण-वत्थ-सयण-पूया-सबकारहेतुं वा । ३. वृत्ति, पत्र १९० : इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा-- कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् । ४. चूणि, पृ० १०६ : आयो नाम आगमः। ५. वृत्ति, पत्र १९०: आय-कर्माधवलक्षणम् । ६. (क) चूणि पृ० १८६ : चयं ण कुज्जा, चयं णाम सन्निचयं न कुर्याद्, अन्यत्र धर्मोपकरणं शेष आहारादिवस्तुसञ्चयः सर्वः प्रति षिध्यते, हिरण्य-धान्यादिसञ्चयोऽपि प्रतिषिध्यते येनानागते काले जीविका त्यादिति, तं प्रतीत्य भाव सञ्चयो भवति, कर्मसञ्चय इत्यर्थः। (ख) वृत्ति, पत्र १९० : चयम्'-उपचयमाहारोपकरणावर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षणं संचयम् । ७. वृत्ति पत्र १९० : सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरभिनिर्वृतः- संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क्व?-'प्रजासु' स्त्रीषु, तासु हि पञ्चप्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते, तथा चोक्तम्-कलानि वाक्यानि........ .... Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४३७ अध्ययन १० : टिप्पण १७-२० चूर्णिकार ने पांचों विषयों को विस्तार से समझाया है शब्द-स्त्रियों के कलात्मक वाक्य । रूप-रमणीय गति, अवलोकन आदि । रस-चुम्बन आदि। गंध-जहां रस है वहां गंध अवश्यंभावी है। स्पर्श-संबाध न, स्तन, उरु, वदन आदि का संसर्ग ।' १७. सर्वथा बन्धन मुक्त (सव्वओ विप्पमुके) इसका अर्थ है-सर्वथा बन्धनमुक्त, बाह्य और आभ्यन्तर आसक्तियों से मुक्त, निःसंग, निष्कञ्चन ।' चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-समस्त असमाधियों से मुक्त, सर्वबन्धनों से मुक्त ।' १८. पृथक्-पृथक् रूप से (पुढो) ___ इसके दो अर्थ हैं ---पृथक्-पृथक् अथवा बहुत ।' १९. पीडित (आवट्टती) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-आवर्त में फंस जाता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पीड़ित होता है, दु:खभाक् होता है-किया है। श्लोक ६: २०. (आदीणवित्तो ....... "एगंतसमाहिमाहु) दीनता प्रदर्शित कर जीविका चलाने वाला भी पाप कर लेता है । वह भोजन को प्राप्त नहीं होता तब उसे असमाधि हो जाती है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर एकान्त समाधि का निरूपण किया गया है। वस्तु के लाभ से होने वाली समाधि अनैकान्तिक होती है । ज्ञान आदि भाव-समाधि एकान्ततः सुख उत्पन्न करती है।' चूर्णिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में उत्तराध्ययन ५।२२ का श्लोक उद्धृत करते हुए कथा की ओर संकेत किया है। वह इस प्रकार है१. चूणि, पृ० १८६ : सर्वेन्द्रियनिवृतो जितेन्द्रिय इत्यर्थः । प्रजायन्तः इति प्रजाः स्त्रियः, तासु हि पंचलक्खणा विषया विद्यन्ते । शब्दा स्तावत्-कलानि वाक्यानि विलासिनीनाम्, रूपेऽपि-गता निशा साच्यवलोकितानि, स्मितानि वाक्यानि च सुन्दरीणाम् । रसा अपि चुम्बनादयः यत्र रसस्तत्र गन्धोऽपि विद्यते स्पर्शाः सम्बाधन-कुचोर-वदनसंसर्गादयः । २. वृत्ति, पत्र १६० । सबाह्याभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तो निःसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८६ : सर्वासमाधिविप्रमुक्तः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः । ४. चूणि, पृ० १८६ : पुढो णाम पृथक् पृथक् अथवा पुढो ति बहुगे। ५. चूणि, पृ० १८६ : ये प्रकुर्वन्ते हिंसादीनि एतेष्वेव आवय॑न्ते । ६ वृत्ति, पत्र १९० : आवय॑ते-पोड्यते दुःखभाग्भवतीति । ७. (क) चूणि, पृ० १८७ : यावद् दैन्यं तावद् दीनः । कोऽर्थः ? दीण-किवण-वणीमगा वि पावं करेंति........."बीणतणेण मंज तीति आदीणभोजी, सो पुण कताइ अलममाणो असमाधिपत्तो अधेसत्तमाए वि उववज्जेज्जा... . . . . . . ' द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादकाः अनेकान्तिकाश्च भवन्ति । कथम् ? अन्यथामेवनादसमाधि कुर्वते । उक्तं हि-'ते चेव होंति दुक्खा पुणो वि कालंतरवसेण ।' ज्ञानाद्यास्तु भावसमाधयः एकान्तेनैव सुखमुत्पादयन्तीह परत्र च एवं मत्वा सम्पूर्ण समाधिमाहुस्तीर्थकराः। (ख) वृत्ति, पत्र १९१। ते । उक्तं हि-'ते चेव होति समाधयो हि स्पर्शादि कान्तेनैव सुखमुत्पादयन्तीह पर Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सूयगडौ १ अध्ययन १० : टिप्पण २१-२५ राजगृह नगर के वैभारगिरि पर्वत के पास कुछ लोग 'गोठ' आदि के मिष से एकत्रित हुए। उन्होंने वहां भोजन आदि बना रखा था। एक भिक्षुक भोजन मांगने आया । किसी ने उसे भिक्षा नहीं दी। भिक्षुक रुष्ट हो गया। उसके मन में उन लोगों के प्रति विद्वेष जाग उठा । वह वैभार पर्वत पर चढ़ा और बड़ी-बड़ी शिलाओं को वहां से नीचे ढकेला। वह उन लोगों को मारना चाहता था। संयोगवश वह एक शिला के साथ नीचे फिसला और शिला के नीचे आकर चूर-चूर हो गया। वह रौद्रध्यान के परिणामों में मरकर 'अप्रतिष्ठान' नामक नरक में जाकर उत्पन्न हुआ ।' २१. (इस समाधि को) जानने वाला (बुद्ध) इसके दो अर्थ हैं१. समाधि को जानने वाला । २. चार प्रकार की भावसमाधि-ज्ञानसमाधि, दर्शनसमाधि, चारित्रसमाधि और तपसमाधि-में स्थित ।' २२. विवेक में (विवेगे) विवेक दो प्रकार का होता है१. द्रव्य विवेक-आहार, वस्त्र, पात्र का प्रमाण करना । जैसे मुनि कुकूटी के अंडे के प्रमाण वाले आठ कवल मात्र आहार करे, एक वस्त्र और एक पात्र रखे, आदि । २. भाव विवेक-कषाय, संसार और कर्मों का परित्याग करना, उनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करना।' ३३. स्थितात्मा (ठितप्पा) चूर्णिकार ने इसके स्थान पर 'ठितच्चा' पाठ की व्याख्या की है। अचि का एक अर्थ है-लेश्या । जिसकी अचि स्थित होती है उसे 'स्थिताचि' कहा जाता है।' श्लोक ७: २४. (सव्वं जगं............णो करेज्जा ) प्रथम दो चरणों का प्रतिपाद्य है-मध्यस्थ ही संपूर्ण समाधियुक्त होता है। चूहों को मार कर बिल्ली का पोषण करने वाला, एक का प्रिय करता है तो दूसरे का अप्रिय करता है। यह प्रिय और अप्रिय संपादन का प्रसंग समाधि का विघ्न है, इसलिए समताअनुप्रेक्षी प्रिय और अप्रिय के झंझट में न जाए।' समतानुप्रेक्षी वह होता है जिसके लिए न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय । २५. दीन (कायर) व्यक्ति (दोणे) चूर्णिकार के अनुसार दीन का अर्थ है- अनूजित, ऊर्जाशून्य या प्राणशून्य । जो ऐसा होता है वह भोगों को त्याग कर फिर भोगाभिलाषी हो जाता है । चाहने वाला हर व्यक्ति दीन बन जाता है और चाहने पर इष्ट वस्तु नहीं मिलती तब वह दीनतर बन जाता है। १ उत्तराध्ययन, सुखबोधा वृत्ति, पत्र १०७ । २. चूणि, पृ० १८७ : बुद्ध इति जानको भावसमाधीए चतुविधाए द्वितो। ३. चूणि, पृ० १८७ : दम्वविवेगो आहारादि अट्ठकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेतकवलेण, एगे वत्थे एगे पादे, भावविवेगो कसाय-संसार कम्माणं। ४. चूणि, पृ० १८७ : अचिरिति लेश्या, स्थिता यस्याचिः स भवति ठितच्चा, अद्वितलेश्य इत्यर्थः । ५. चूणि, पृ० १८७ : अथवा अन्यस्य प्रियं करोति अन्यस्याप्रियमित्यतः। कोऽर्थः ? नान्यान् घातयित्वा अन्येषां प्रियं करोति, मूषकः मार्जारपोषवत् । अथवा प्रियमिति सुखं सर्वसत्वानाम्, तदेषामप्रियं न कुर्यात्, न कस्यचिद् प्रियम्, मध्यस्थ एवाऽस्यादित्यत: सम्पूर्णसमाधियुक्तो भवति । ६. चूणि, पृ० १८७ : दीन इत्यनूजितो भोगाभिलाषी, सर्वो हि तर्कुकदीनो भवति, ईप्सितालम्भे च दीणतरः । Jain Education Intemational Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४३० वृत्तिकार के अनुसार जो परीबहों और उपसर्गों के आने पर शिथिल हो जाता है वह दीन है ।" २६. विषण्ण (विसणे) इसका तात्पर्य है कि कोई मुनि कष्टों से घबरा कर विषय भोगों की अभिलाषा करता हुआ पुनः गृहस्थ बन जाता है अथवा पार्श्वस्थ हो जाता है, चर्या में शिथिल हो जाता है ।" २७. श्लाघा की कामना करने लग जाता है (सिलोयकामी) श्लोक का अर्थ है -प्रशंसा, यश । वह शिथिल मुनि यश का अभिलाषी होकर व्याकरण, गणित, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र आदि का अध्ययन करता है ।" २८. आधाकर्म (आहाकडं ) श्लोक : अध्ययन १० टिप्पण २६-३१ मुनि के निमित्त बने आहार, उपकरण आदि को आधाकर्म कहा जाता हैं । चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है कि मुनि के लिए कोई वस्तु खरीदी जाती है वह क्रीतकृत तथा अन्य उद्गम दोष " भी आधाकर्म हैं । किन्तु यह अर्थ चिन्तनीय है । आधाकर्म अविशुद्धिकोटि का दोष है और कृत विशुद्धिकोटि का दोष है इसलिए दोनों एक कोटि के नहीं हो सकते। २६. कामना करता है (णिकाममीणे) इसका संस्कृत रूप है - 'निकामयमानः' । इसका अर्थ है - अत्यधिक कामना करना प्रार्थना करना । " पूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ निमंत्रण-पिंड को स्वीकार करने वाला किया है।" ३०. उसकी गवेषणा करता है (णिकामसारी ) जो आधाकर्म आदि की या उसके निमित्तभूत निमंत्रण आदि की गवेषणा करता है वह निकामसारी कहलाता है ।" ३१. असंयम की एषणा करता है (विसण्णमेसी) जो पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील व्यक्ति संयम की चर्या में शिथिल हो गए हैं, उनके मार्ग की गवेषणा करने वाला विषण्णैषी होता है । यहां विषण्ण का अर्थ है-असंयम । जो असंयम की गवेषणा करता है वह सफेद कपड़े को पहनने वाले की तरह दीन होता जाता है, क्योंकि हव सफेद कपड़ा प्रतिदिन मलिन होता जाता है। असंयम की एषणा करने वाला भी प्रतिदिन मलिन १. वृति पत्र ११ परीसहोपसर्गेस्ततो दीनमावमुपगम्य । २. चूर्णि पृ० १८७ : दिसणे ति गित्यीभूतो दासत्यीभूतो वा अयं तु पार्श्वेधिकृतः, पूया - सत्काराभिलाषी वस्त्र पात्रादिभिः पूजनं च इच्छति । ३. वृत्ति पत्र १९१ : श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति । ४. णि, पृ० १८७ ५. (क) चूर्णि पृ० १८७ : अधिकं कामयते निकामयते, प्रार्थयतीत्यर्थः (ख) वृति पत्र १२१ विकाम अत्ययः प्रार्थयते स निकाममीत्युच्यते । आधाय कई अधाकडं, आधा कर्मेत्यर्थः । अथवा अन्यान्यपि जाणि साधुमाधाय कोतकडादीणि क्रियन्ते तानि अधाकडाणि भवंति । ६. चूर्ण, पृ० १८७ : अथवा नियायणा णिमंतणा जो तं णिमंतणं गेहति सो 'णियायमीणे' । ७. (क) वृणि, पृ० १८७ : जो पुण आधाकम्मादीणि णिकामाई सरति सुमरइ त्ति निगच्छति गवेषतीत्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र १९१ : निकामम् — अत्यर्थ आधाकर्मावोनि तन्निमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरति चरति तच्छीलश्च । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सूयगडो १ अध्ययन १० : टिप्पण ३२-३७ होता जाता है। ३२. (इस्थीसु सत्तो ..... .... पकुव्वमाणो) ___ इन दोनों चरणों का प्रतिपाद्य है कि मनुष्य में पहले काम की प्रवृत्ति होती है और वह काम की वृत्ति ही परिग्रह के संचय की प्रेरक बनती है । पहले काम और काम के लिए परिग्रह-यह सिद्धान्त फलित होता है। प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन के २, ३ श्लोक से यह सिद्धान्त फलित होता है कि पहले परिग्रह और परिग्रह के लिए हिंसा । पूरा क्रम इस प्रकार बनता है पहले काम, काम के लिए परिग्रह और परिग्रह के लिए हिंसा । श्लोक : ३३. जन्मान्तरानुयायो वैर में गृद्ध हो (वेराणुगिद्धे) जिन-जिन प्रवृत्तियों से मनुष्य दूसरों को परिताप देता है, वह उनके साथ वैर का अनुबंध करता है । वह वैर सैकड़ों जन्मों तक उसका पीछा नहीं छोड़ता । व्यक्ति इस प्रकार के वैर में गृद्ध हो जाता है, उसका अनुबंध करता ही रहता है।' ३४. संचय (णिचयं) इसका अर्थ है-पाप-कर्म का संचय ।' चूर्णिकार ने 'आरंभसत्ता णिचयं करेंति'—यह पद मान कर "णिचय' का अर्थ-हिरण्य, सुवर्ण आदि द्रव्यों का संचय-किया है । इस द्रव्य संचय से वह व्यक्ति आठ प्रकार के कर्मों का संचय करता है।' ३५. विषम और दुःखप्रद स्थान को (दुहमट्ठदुग्गं) ___ इसमें तीन शब्द हैं-दुःख, अर्थ और दुर्ग । इस पद का संयुक्त अर्थ है-ऐसे दुःखप्रद स्थान जो यथार्थरूप में विषम हों, दुरुत्तर हों। ३६. मेधावी मुनि (मेघावि) __ चूर्णिकार ने इसका अर्थ संपूर्ण समाधि के गुणों को जानने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ और किए हैंविवेकी, मर्यादावान् । श्लोक १०: ३७. सोचकर बोलने वाला (णिसम्ममासी) इसका अर्थ है-आगे-पीछे की समीक्षा कर बोलने वाला, सोचकर बोलने वाला। १. (क) चूणि, पृ० १८७, १८८ : पासत्योसण-कुसीलाणं विसण्णाणं संयमोद्योगे मार्ग गवेषति विषीदति वा, येन संसारे विसण्णो भवत्यसंयम इति तमेषतीति विषण्णेषी, तधा तधा दीणभावं गच्छति शुक्लपटपरिभोगवत्, परिभुज्ज माणशुक्लपटवद् मलिनीभवत्यसो । (ख) वृत्ति, पत्र १९२ : पार्श्वस्थावसन्नकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठानविषण्णतया संसारपङ्कावसन्नो भवतीति यावत् । २ वृत्ति, पत्र १९२ : येन केन कर्मणा-परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तरशतानुयायि भवति तत्र गद्धो वैरानुगद्धः । ३. वृत्ति, पत्र १९२ : निचयं-द्रव्योपचयं तन्निमित्तापावितकर्मनिचयं वा । ४. चूणि, पृ० १८८ : णिचयं करेंति, हिरण्ण-सुवण्णादीदव्वणिचयं । दव्वणिचयदोसेणं अट्ठविधकम्मणिचयं । ५. वृत्ति, पत्र १९२ : दुःखयतीति दुःख-नरकादियातनास्थानमर्थतः परमार्थतो 'दुर्ग' विषमं दुरुत्तरम् । ६. चूणि पृ० १८८ :सम्पूर्ण समाधिगुणं जानानः । ७. वृत्ति, पत्र १९२ : मेधावी ---विवेकी मर्यादावान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानः । ८ (क) चूणि, पृ० १८८ : णिसम्मभासी णाम पूर्वापरसमीक्ष्यमाषी। (ख) वृत्ति, पत्र १९२ : 'निशम्य'-अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत् । Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडी १ ४४१ अध्ययन १० : टिप्पण ३८-४० ३८. हिंसायुक्त कया न करे (हिंसण्णितं वा ण कहं करेज्जा) मुनि हिंसायुक्त कथा न करे अर्थात् ऐसा वाद न करे जो अपने लिए या दूसरे के लिए या दोनों के लिए बाधक हो। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने हिंसान्वित वचन के रूप में कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं खाओ, पीओ, मोज करो, मारो, पीटो, छेदो, प्रहार करो, पकाओ आदि ।' वास्तव में 'कथा' का अर्थ वचन या भाषण न होकर यहां उसका अर्थ 'वाद' होना चाहिए । स्थानांग सूत्र में कथा के चार प्रकार बतलाए हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी।' इनमें 'विक्षेपणी कथा' खंडन-मंडन से सम्बन्धित है। उसके चार प्रकार हैं १. स्वमत का प्रतिपादन कर परमत का प्रतिपादन करना । २. परमत का , स्वमत का , , । ३. सम्यक्वाद का , , मिथ्यावाद का , , । ४. मिथ्यावाद का , , सम्यक्वाद का , , । खंडन-मंडन रूप चर्चा के लिए कथा और वाद शब्द प्रचलित रहे हैं। न्याय परंपरा में कथा के तीन भेद किए हैं-वाद, जल्प और वितंडा । जैन परंपरा भी 'वाद' के अर्थ में कथा का प्रयोग स्वीकार करती है। प्रस्तुत श्लोक में 'कथा' शब्द वाद के अर्थ में प्रयुक्त है । मुनि ऐसा 'वाद' न करे जिसमें हिंसा की संभावना हो। श्लोक ११: ३६. आधाकर्म की (आहाकडं) आठवें श्लोक में भी 'आधाकर्म' आहार का निषेध किया गया है। उसका पुनः निषेध पुनरुक्त जैसा लगता है, किंतु प्रस्तुत श्लोक में इसका पुनः उल्लेख विशेष प्रयोजन से किया गया है। ___ मुनि घर-घर आहार के लिए घूमता है । निर्दोष आहार की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। कुछ उपासक दया के वशीभूत होकर मुनि के लिए आहार बना देते हैं। किन्तु निर्दोष आहार की एषणा करने वाला मुनि आहार न मिलने पर भी अपने लिए बनाए आहार की कामना नहीं करता। यह भी एक तपस्या है। वह भूखा रहकर उपवास कर लेता है, पर सदोष आहार ग्रहण नहीं करता। शरीर को धुनने का यह एक उपाय है । इसी प्रसंग में इसका पुनः उल्लेख हुआ है। ४०. प्रशंसा और समर्थन न करे (संथवेज्जा ) चूर्णिकार का कथन है कि जो मुनि आधाकर्म की कामना करते हैं, उनके साथ आना-जाना, उनके इस कार्य की प्रशंसा करना या उनके साथ परिचय करना- मुनि यह न करे ।' वृत्तिकार के अनुसार जो मुनि आधाकर्म की कामना करते हैं उनके साथ संपर्क करना, उनको दान देना, उनके साथ रहना, उनसे बातचीत करना-इन सारी प्रवृत्तियों से उनका समर्थन न करे, उनकी प्रशंसा न करे । इसका सारांश है कि उन १. (क) · चूणि, पृ० १८८ : हिंसया अन्विता (हिंसान्विता) । कथ्यत इति कथा। कथं हिंसान्विता ? तस्माद् अश्नीत पिबत खादत मोदत हनत निहनत छिन्दत प्रहरत पचतेति । (ख) वृत्ति, पन १९२। २. ठाणं ४।२४६ : चउब्विहा कहा पण्णत्ता, तं जहा -अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेयणी, णिव्वेदणी। ३. ठाणं ४।२४८ : विक्खेवणी कहा चउम्विहा पणता, तं जहा-ससमयं कहेइ, ससमयं कहित्ता परसमयं कहेड, परसमयं कहेत्ता ससमयं ठावइता भवति, सम्मावायं कहेछ, सम्मावार्ग कहेता मिच्छावागं कहेइ, मिच्छावागं कहेत्ता सम्मावा ठावइता भवति । ४. चूणि, पृ० १८८ : ये चैनं (औद्देशिकम्) कामयन्ति न तैः पावस्थाविमिरागमणगमादि तत्प्रशंसादि संस्तवं च कुर्यात् । Jain Education Intemational Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। ४४२ अध्ययन १० : टिप्पण ४१-४४ मुनियों के साथ परिचय न करे ।' संस्तव के मुख्य रूप से दो अर्थ होते हैं --स्तुति और परिचय । संस्तव दो प्रकार का होता है-संवास संस्तव शौर वचन संस्तव अथवा पूर्व संस्तव और पश्चात् संस्तव । विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तराध्ययन १५३१ का टिप्पण । ४१. स्थूल शरीर की (उरालं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ औदारिक शरीर किया है। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. औदारिक शरीर। २. अनेक भवों में संचित-कर्म । ४२. अपेक्षा न रखता हुआ (अणवेक्खमाणे) ___ मुनि यह न सोचे कि तपस्या के द्वारा मैं दुर्बल हो जाऊंगा, मेरा शरीर कृश हो जाएगा, इसलिए मुझे तपस्या नहीं करनी चाहिए । मैं दुर्बल हूं, मैं तपस्या कैसे कर सकता हूं ? मुनि इस प्रकार न सोचे। वह शरीर को याचित उपकरण की भांति मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार करे। उसे तपस्या के द्वारा धन डाले ।' जैन आगमों में शरीर को धुनने की बात बहुत बार कही गई है। इसका प्रयोजन यह है कि शरीर को धुनने की प्रवृत्ति से कर्म भी धुने जाते हैं, उनका भी अपनयन होता है । कर्मों का अपनयन ऊर्ध्वारोहण का उपक्रम है। ४३. स्रोत को (सोयं) इसका अर्थ है-स्रोत । गृह, कलत्र, धन तथा प्राणातिपात आदि आत्रव-ये सारे असमाधि के स्रोत हैं।' श्लोक १२: ४४. एकत्व (अकेलेपन) की (एगत्तं) एकत्व का अर्थ है-अकेलापन । साधक यह साचे कि न मैं किसी का हूं और न मेरा कोई है ।' एक्को मे सासओ अप्पा णाण-दंसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा मावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥' -ज्ञान और दर्शन से संयुक्त शाश्वत आत्मा ही मेरा अपना है, शेष संयोग (वियोग) लक्षण वाले सारे पदार्थ पराए हैं, बाह्यभाव हैं। वृत्तिकार ने एकत्व का अर्थ --असहायत्व किया है। मुनि यह सोचे कि यह संसार जन्म, मरण, जरा, रोग और शोक से १. वृत्ति, पत्र १९३ : तयाविधाहारादिकं च 'निकामयत:'--निश्चयेनामिलषत: पावस्थादींस्तत्सम्पकंदानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत्-नोपबृहयेत् तैर्वा साधु संस्तवं न कुर्याविति । २. चूणि, पृ० १८८ : उरालं णाम औदारिकशरीरं। ३. वृत्ति, पत्र १९३ : 'उरालं ति औदारिकं शरीरं .......... "यदि वा 'उरालं' ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म । ४. (क) चूणि, पृ० १८८ : अनपेक्षमाण इति नाहं दुर्बल इति कृत्वा तपो न कर्त्तव्यम्, दुर्बलो वा भविष्यामीति, याचितोपस्करमिव व्यापारोदिति, तन्निविशेषां अनपेक्षमाणः । (ख) वृत्ति, पत्र १९३ : तस्मिश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात् तं त्यक्त्वा याचितोपकरणववनप्रेक्ष माणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः । ५. चूणि, पृ० १८८ : असमाधि श्रवतीति श्रोतः, तद्धि गह-कलन-धनादि, प्राणातिपातादीनि वा श्रोतांसि । ६. चूणि, पृ० १८८: एकभाव एकत्वम्, नाहं कस्यचिद् ममापि न कश्चि विति । ७. संस्तारक पौरुषी, गाथा ११ । Jain Education Intemational Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ WE अध्ययन १० टिप्पण ४५-४८ आकुल व्याकुल है । अपने कर्मों का फल भोगने वाले प्राणियों को यहां कोई भी त्राण नहीं दे सकता, उनकी सहायता नहीं कर सकता । इस संसार में सब असहाय हैं ।" ४५. एकत्व मोक्ष है ( एतं पमोक्खे) एकत्व की साधना से मोक्ष से प्राप्ति होती है। यहां कारण में कार्योपचार कर एकत्व को ही मोक्ष कह दिया गया है । चूषिकार ने विकल्प में 'एतं' से ज्ञान आदि समाधि को ग्रहण किया है।" ४६. सत्यरत ( सच्चरए) चूर्णिकार के अनुसार इसके दो अर्थ है'-- १. सत्य में रत । २. संयम में रत । प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण की व्याख्या में वृत्तिकार ने दो विकल्प प्रस्तुत किए हैं। १. एकत्व भावना का अभिप्राय ही प्रमोक्ष है, सत्य है, प्रधान है, अक्रोधन है, सत्यरत है और तपस्यायुक्त है । २. जो व्यक्ति तपस्वी है, अक्रोधन है, सत्यरत है, वही प्रमोक्ष है, सत्य है और प्रधान है। श्लोक १३ : ४७. नाना (उच्चावएसु ) इसमें दो शब्द हैं— उच्च और अवच । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका संयुक्त अर्थ अनेक प्रकार का — किया है। वैकल्पिक रूप में उच्च का अर्थ है-उत्कृष्ट और अवच का अर्थ है - जघन्य ४८. मध्यस्थ (ताई) हमने इसका संस्कृत रूप ‘तादृग्' किया है। वृत्तिकार ने इसका रूप 'त्रायी' देकर इसका अर्थ वाणभूत किया है। चूर्णिकार ने इसके स्थान पर 'ताया' शब्द मानकर त्राता अर्थ किया है । " तादृग् का अर्थ है – वैसा, ऐसा व्यक्ति जो विशेष प्रकार का आचरण करता है। इसी आधार पर हमने इसका अर्थ-समान रूप से बरतने वाला, मध्यस्थ रहने वाला किया है। इसका संस्कृत रूप 'तायी' भी किया जाता है। विशेष विवरण के लिए देखें - दसवेआलियं ३ | १ का टिप्पण । १ वृत्ति, पत्र १९३ : एकत्वम् – असहायत्वमभिप्रार्थयेद् - एकत्वाध्यवसायी स्यात् तथाहि - जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामशुमतां न कश्चित्त्राणसमर्थः - सहाय: स्यात् । २. चूर्ण, पृ० १८९ : जं चैव एतं एकत्वं एस चैव पमोक्लो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः, भृशं मोक्षो पमोक्लो, सत्यश्चायम् । अथवा ज्ञानादिसमाधिप्रमोक्षम् । ३ णि, पृ० १८६ : सत्यो णाम संयमो अननृतं वा, सत्ये रतः सत्यरतः ॥ ४. वृत्ति, पत्र १९३ । ५. (क) चूर्ण, पृ० १८६ उच्चावएहि उच्चावया हि अनेकप्रकाराः शब्दादयः, अथवा उच्चा इति उत्कृष्टा, अवचा जधन्याः, शेषा मध्यमाः । (ख) वृत्ति, पत्र १९३ : उच्चावचेषु नानारूपेषु विषयेषु यदि बोच्चा- उत्कृष्टा अवचा - जघन्याः । ६. वृत्ति, पत्र १९३ : 'त्रायो' अपरेषां च त्राणभूतः । ७. वृणि, पृ० १८६ : त्रायत इति त्राता । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४९. सेवन ५०. (ण संसयं भिक्खू समाहिपत्ते ) " करने वाला (संसयं) इसका संस्कृतरूप है-संश्रयन् । इसका अर्थ है - सेवन करता हुआ ४४४ इस पद का अर्थ दो प्रकार से किया जा सकता है १. विषयों का सेवन न करने वाला भिक्षु समाधि को प्राप्त होता है । २. समाधि प्राप्त भिक्षु नानारूप विषयों का सेवन नहीं करता । " श्लोक १४: ५१. अरति और रति को (अरति ति) अरति और रति सापेक्ष शब्द हैं । संयम में रमण न करना अरति और असंयम में रमण करना रति है । अठारह पापों में यह एक पाप है, इसलिए इस पर विजय पाना मुनि के लिए अपेक्षित है । ५२. तृण आदि के स्पर्श ( तणादिफार्स) चूर्णिकार ने तृणस्पर्श से काष्ठ-संस्तारक, इक्कड नामक घास तथा समाधिमरण में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री का ग्रहण किया है ।" वृत्तिकार ने आदि शब्द से ऊंची-नीची भूमि का ग्रहण किया है । * ५४. वाणी से संयत (गुत्ते वइए) ין ५३. सुगन्ध और दुर्गन्ध में (सुमि च दुभि च ) सुरभि का अर्थ है-सुगंध और दुमि का अर्थ है सुरभि से इष्ट-विषयों का और न से अनिष्ट विषयों का ग्रहण किया गया है।' श्लोक १५: पुर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- (१) मौनी (२) आवश्यकतावश संयत वाणी का प्रयोग करता है वह समाधि को प्राप्त होता है ।" किन्तु इसका मूल अर्थ ही मौन ही होना चाहिए। १. ( क ) चूणि, पृ० १५६ : 'श्रि सेवायाम्' न संश्रयमानः असंश्रयमान । (ख) वृत्ति, पत्र १९४ : संश्रयतीत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र १९३, १६४ । २. पूर्ण पृ० १० तावात अध्ययन १० टिप्पण ४१-५४ इस पद का तात्पर्य यह है कि जो मुनि मौन व्रती है पा वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं -- ( १ ) जो वाणी में या वाणी से संयत है अर्थात् मौनव्रती है (२) जो विचारपूर्वक केवल धर्म संबंधी बात करता है । " ४. वृत्ति, पत्र १९४ : तृणादिकान स्पर्शनादिग्रहणान्निम्नोन्नतभूप्रदेशस्पर्शांश्च । ५. चूणि, पृ० १८६ : सुबिभ-दुब्धिगहणेण इट्ठाऽणिट्ठविसया गंहिता । ६. चूर्णि, पृ० १८६ : मौनो वा समिते वा भाषते, भावसमाधिपत्ते भवति ! ७. वृत्ति, पत्र १९४ : वाचि वाचा वा वाग्गुप्तो -पौत्रवती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषी वा सहभागकडा व समाधिसमाओ गहियाओ । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. ४४५ प्रध्ययन १०: टिप्पण ५५-५८ ५५. विशुद्ध लेश्या के साथ (लेसं समाहर्ट्स) जन परंपरा में छह लेश्याएं मान्य हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल। इनमें प्रथम तीन अशुभ हैं और शेष तीन शुभ । मुनि अशुभ लेश्याओं का परिहार कर शुभ लेश्याओं को स्वीकार करे । समाहृत्य का अर्थ है-स्वीकार करके ।' ५६. गृहस्थों के साथ एक स्थान में न रहे (सम्मिस्सिभावं पजहे पजासु) चूर्णिकार ने सम्मिश्रीभाव के तीन अर्थ किए हैं(१) (स्त्रियों या गृहस्थों के साथ) एक स्थान में रहना । (२) उनके साथ जाने आने रूप परिचय करना । (३) उनके साथ स्नेह करना। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-- (१) पचन-पाचन आदि गृहस्थोचित प्रवृत्ति करना । (२) स्त्रियों के साथ मेल-मिलाप करना। प्रजा शब्द के दो अर्थ हैं-स्त्री अथवा गृहस्थ ।' श्लोक १६: ५७. अक्रियात्मवादी (अकिरियाता) चूणिकार इस प्रसंग में किसी दर्शन-विशेष का उल्लेख नहीं करते । वे केवल इतना ही उल्लेख करते हैं कि जो अशोभन क्रियावादी है या जिनके दर्शन में आत्मा को अक्रिय माना है, वे निश्चित ही अक्रियात्मवादी हैं। जो दर्शन आत्मा को अक्रिय मानता है वह अक्रियात्मवादी है। वृत्तिकार ने सांख्य दर्शन को अक्रियात्मवादी माना है। सांख्य आत्मा को सर्वव्यापी और निष्क्रिय मानते हैं । 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने'--कपिल (सांख्य के पुरस्कर्ता) के दर्शन में आत्मा अकर्ता, निर्गुण और भोक्ता है । वे मानते हैं कि आत्मा अमूर्त है, सर्वव्यापी है, इसीलिए वह अकर्ता है।' ५८. धुत (धुतं) चूर्णिकार ने 'धुत' का अर्थ वैराग्य और वृत्तिकार ने मोक्ष किया है । 'धत समाधि की साधना पद्धति है। बौद्धों में तेरह धुत प्रतिपादित हैं--पांशुकूलिकांग, वैचीवरिकांग आदि आदि। ये सारे धुतांग क्लेशों को क्षीण करने में सहायक होते हैं । 'धुत' का शाब्दिक अर्थ है- धुन डालना । इसका पारिभाषिक अर्थ है-क्लेशों को धुन डालने की पद्धति । बौद्ध साधना पद्धति में इन धुतों का १. (क) चूणि, पृ० १८६ : तिण्णि (अपसत्थाओ) लेस्साओ अवहट्ट तिण्णि पसत्थाओ उपह१ ।। (ख) वृत्ति, पत्र १९४ : शुद्धा 'लेश्यां -तेजस्यादिकां समाहृत्य'-उपादाय अशुद्धां च कृष्णादिकामपहृत्य । २. चूणि, पृ० १८६ : प्रजा गृहस्थाः तैः सम्मिश्रीभावं पजहे । सम्मिस्सिभावो णाम एगतो वास: आगमण-गमणाइसंभवो स्नेहो वा। ३. वृत्ति, पत्र १६४ : पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारयंश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते, यदि वा.--.प्रजाः स्त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावः। ४. (क) चूणि, पृ० १८६: प्रजायन्तः प्रजाः स्त्रियः अथवा....... " प्रजा गहस्थाः । (ख) वृत्ति, पत्र १९४ । ५ चूणि, पृ० १६० : अशोभनक्रियावादिनः पारतन्त्र्या क्रियावादिनः अक्रियाता. अक्रियो वाऽऽत्मा येषां (ते) निश्चितमेव अक्रियात्मानः । ६ वत्ति, पत्र १९४ : ये केचन अस्मिन लोके अक्रिय आत्मा गेषामभ्युपगमे तेऽक्रियात्मान:-सांडयाः, तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रिय: पठ्यते ......... ७ चूणि पृ० १६० : धुतं नाम वैराग्यम् । ८. वृत्ति, पत्र १९२ : धूतं मोक्षम् । Jain Education Intemational Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ४४६ प्रध्ययन १० : टिप्पण ५९-६० विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । इनके ग्रहण की विधि, इनके भेद-प्रभेद, गुण आदि का विस्तार से कथन किया गया है।' आचारांग के छठे अध्ययन का नाम 'धुत' है । वहां दश धुतों का निर्देश है'१. स्वजन परित्याग धुत । २. कर्म परित्याग धुत । ३. उपकरण परित्याग धुत । ४. शरीरलाघव धुत । ५. संयम धुत । ६. विनय धुत । ७. गौरव-त्याग धुत। ८. तितिक्षा धुत । ६. धर्मोपदेश धुत । १०. कषायपरित्याग धुत । चूणिकार ने शाक्यों के नाम से बारह धुतगुणों का उल्लेख मात्र किया है', जबकि विशुद्धिमग्ग में तेरह धुतों का उल्लेख है । श्लोक १७: ५६. छन्द (अभिप्राय) नाना प्रकार के (पुढो छंदा) _ 'पूढो' का अर्थ है-अनेक प्रकार के और 'छंद' का अर्थ है-अभिप्राय । संसार में मनुष्यों के अभिप्राय अनेक प्रकार के होते हैं । अनेक प्रकार के मतवाद उन्हीं के परिणाम हैं । ६०.नानावाद (पुढोवाद) इसमें दो शब्द हैं-पुढो-पृथग और वादं-वाद या मत । चूर्णिकार ने 'पुढ' और 'उवादं'-ये दो शब्द मानकर 'उवादं' के दो अर्थ किए हैं । एक अर्थ है-ग्रहण करना और दूसरा है-दृष्टि । इसी प्रसंग में उन्होंने नाना प्रकार की दृष्टियों (वादो) का उल्लेख किया है। कुछ आत्मवादी हैं, कुछ अनात्मवादी हैं। कुछ आत्मा को सर्वगत मानते हैं। कुछ आत्मा को नित्य और कुछ अनित्य, कुछ कर्ता और कुछ अकर्ता, कुछ मूर्त और कुछ अमूर्त, कुछ क्रियावान् और कुछ निष्क्रिय मानते हैं । कुछ सुखवाद में विश्वास करते हैं और कुछ दु,खवाद में । कुछ शौचवादी हैं और कुछ अशौचवादी, कुछ हिंसा से मोक्षप्राप्ति मानते हैं और कुछ स्वर्ग मानते हैं। इतना ही नहीं, एक ही अनुशास्ता को मानने वाले व्यक्तियों में भी भिन्न-भिन्न मत होते हैं । कुछ (बौद्ध) शून्यवाद की प्रज्ञापना करते हैं और कुछ अनिर्वचनीयवाद का प्रतिपादन करते हैं, जैसे- पुद्गल है, मैं नहीं कर सकता कि पुद्गल नहीं है। जो मैं कहता हूं, वह मैं कह सकता हूं-यह भी अनिर्वचनीय है । अवचनीय अवचनीय ही है, केवल स्कन्ध मात्र ही है। वैशेषिक मतानुयायी नौ तत्त्व स्वीकार करते हैं । उनमें भी कुछ दश तत्त्व मानते हैं। सांख्य इन्द्रियों को सर्वगत मानते हैं । १. विशुद्धिमग्ग, भाग १, पृ० ६०-८० । २. आयरो, पृ० २३२-२६२ । ३. चूणि, पृ० १६० : यथा शाक्या द्वादश धुतगुणान् बवते। ४. चूणि, पृ० १६० : पृथक् पृथक् छन्दाः, नानाछन्दा इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४४७ अध्ययन १० : टिप्पण ६१ इस प्रकार विश्व में अनेक दृष्टियां प्रचलित हैं।' ६१. (जातस्स बालस्स.....) इन दो चरणों का अर्थ है-नवोत्पन्न शिशु का शरीर जैसे बढ़ता है वैसे ही असंयमी मनुष्य का वैर बढ़ता है। यह अर्थ चूणि द्वारा सम्मत है। वृत्तिकार का अर्थ इससे सर्वथा भिन्न है । वह इस प्रकार है-तत्काल उत्पन्न बच्चे के देह के टुकड़े-टुकड़े कर (अपने लिए सुख उत्पन्न करते हैं।) इस प्रकार परोपघात करने वाले उन असंयमी व्यक्तियों का (जन्म-जन्मान्तर तक चलने वाला) वैर बढ़ता है। वृत्तिकार का यह अर्थ संगत नहीं लगता । चौथे चरण में वैर के बढ़ने का कथन है और तीसरे चरण में उपमा से उस वृद्धि को समझाया है। बच्चे को मारने की बात यहां प्रसंगोपात्त नहीं है। यहां वर का अर्थ कर्म है । वैर से उत्पन्न होता है उसे भी वैर ही कहा जाता है। जैसे वैर वैरियों के लिए दुःखदायी होता है वैसे ही कर्म भी दुःखदायी होता है । जैसे बच्चे का शरीर जन्म काल से निरन्तर वढ़ता है, वैसे ही अविरत मनुष्य के निरंतर कर्म वृद्धि होती है । अविरत मनुष्य यद्यपि आकाश में निश्चल खड़ा हो जाता है, फिर भी उसके कर्म का बंध होता रहता है।' यह अर्थ-भेद 'पकुव्व' शब्द के कारण हुआ हो ऐसा लगता है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विशेषरूप से बढ़ाता हुआ, समय के साथ-साथ बढ़ाता हुआ, (प्रकर्षण कुर्वन्-अनुसामयिकी वृद्धि) किया है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-खंड-खंड करके (खण्डशः कृत्वा) किया है । यह अर्थ 'पकिच्च' शब्द का हो सकता है, किन्तु यह शब्द यहां प्रयुक्त नहीं है । अतः चूर्णिकार द्वारा सम्मत अर्थ ही उपयुक्त लगता है। गर्भ में उत्पन्न होते ही बालक की वृद्धि प्रारंभ हो जाती है । जब वह गर्भ से बाहर आता है, वहां से प्रारम्भ कर जब तक वह पूर्ण प्रमाणोपेत नहीं हो जाता तब तक बढ़ता जाता है। शरीर वृद्धि के चार कारण हैं १. काल । २. क्षेत्र । ३. बाह्य उपकरण-भोजन, रसायन-सेवन आदि । ४. आत्म-सान्निध्य-आन्तरिक योग्यता। यह चूणिकार का अभिमत है ।' १.णि, पृ०१९०: पुढोवाद उपादीत इति उपादाः पहा इत्यर्थः अथा उपादा दृष्टिः । तद्यथा--केषाञ्चिदात्माऽस्ति केषाञ्चिन्ना स्ति, एवं सर्वगतः नित्यः अनित्यः कर्ता अकर्ता मूर्तः अमूर्तः क्रियावान् निष्क्रियो वा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद दुःखेन, केचित् शौचेन केचिदन्यथा, केचिदारम्भेण, केचिन्निश्रेयसमिच्छन्ति, केचिदभ्युदयमिच्छन्ति । एकस्मिन्नपि तावच्छास्तरि अन्येऽन्यथा प्रज्ञापयन्ति, तद्यथा-शून्यता, अस्थि पोग्गले, णो भणामि णत्थि त्ति पोग्गले, जं पि भणामि तं पि मणामीत्यवचनीयम्, अवचनीयं एव अवचनीयः, स्कन्धमात्रमिति । वैशेषिकाणामपि-अन्येषां न (?) द्रव्याणि नवव, अन्येषां दश दशैव। सांख्यानामपि--अन्येषां इन्द्रियाणि सर्वगतानि। २. चूणि, पृ० १६० : यथा तस्य (बालस्य) अनुसामयिकी शरीरवृद्धिः। ३. वृत्ति, पत्र १९५ : 'जातस्य'-उत्पन्नस्य, 'बालस्य'- अज्ञस्य, सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो 'देह'- शरीरं 'पकुव्व' त्ति खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति, तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृतस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रक्रर्षेण वर्धते । ४. चूणि, पृ० १६० : वरं प्रवर्द्धते कर्म, वैराज्जातं वैरम्, यथा वैरं दुःखोत्पादक वैरिणां एवं कर्मापि । यद्यप्याकाशे निश्चल उपतिष्ठते ऽविरतस्तथाऽप्यस्य कर्म बध्यत एव । ५. चूणि, पृ० १३० : निषेकात् प्रभृतिरारभ्य शरीरवृद्धिर्भवति, यावद् गर्भान्निःसृतः, आबाल्याच्च प्रवर्द्धते यावत् प्रमाणस्थो जातः । शरीरवृद्धिरिह कालक्षेत्र-बाझोपकरणात्मसान्निध्यायत्ता । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४४८ प्रध्ययन १०: टिप्पण ६२-६५ श्लोक १८: ६२. आयु के क्षय को (आउक्खयं) हिंसा आदि में प्रवृत्त मनुष्य अपने आयुष्य के क्षय को नहीं जानता क्योकि उन प्रवृत्तियों के प्रति उसका ममत्व होता है। एक तालाब है। उसमें बहुत सारी मछलियां हैं। तालाब की पाल टूट जाती है। पानी बाहर बहने लगता है। धीरे-धीरे तालाब खाली होता जाता है । जल की क्षीणता के साथ-साथ आयुष्य भी क्षीण हो रहा है-यह बात मछलियां नहीं जानती। एक बनिया था। उसने बहुत परिश्रम कर मूल्यवान् रत्न प्राप्त किए। वह उन रत्नों को लेकर चला । रात गई। वह उज्जैनी नगरी के बाहर आकर रुका और रात भर यह सोचता रहा कि रत्नों को सुरक्षित कैसे ले जाया जाए । कहीं राजा, चौर या भाई-बन्धु इन्हें न ले लें-इसी चिन्ता में सारी रात बीत गई । किन्तु रात्री के बीतने को वह नहीं जान सका। सूर्योदय हो गया। उसे राजपुरुषों ने देखा । उसके सारे रत्न ले लिए । रत्नों को दे वह खाली हाथ घर लौटा ।' ६३. ममत्वशील (ममाई) यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है, भाई है 'यह मेरा है, मैं इसका हूँ'-इस प्रकार ममत्व करने वाला 'ममायी' होता है। ६४. सहसा (बिना सोचे समझे) काम करने वाला (साहसकारि) - इसका अर्थ है-बिना सोचे-समझे आवेश में कार्य करने वाला । वर्तमान में इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष हुआ है। आज इसका अर्थ शक्तिशाली-संकल्पवान् समझा जाता है। चूर्णिकार ने 'सहस्स' पाठ का अर्थ हिंसा आदि किया है। यहां छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग है। देखें-दसवेआलियं ९।३।२२ का टिप्पण। ६५. विषयों से पीड़ित (अट्ट) जिस व्यक्ति के मन में धन की आकांक्षा बनी रहती है वह सदा सोचता रहता है-यह व्यापारियों का सार्थ (सथवाडा) कब निकलेगा? इसके साथ कौनसा माल है ? यह कितनी दूर जाएगा? वह धन को सुरक्षित रखने के लिए कभी ऊंचे स्थान को खोदता है, कभी भूमि को खोदता है, कभी किसी को मारता है। वह न रात को सो पाता है और न दिन में निःशंक रहता है। धन के चले जाने की शंका उसमें सदा बनी रहती है। १. चूणि, पृ० १९६० : स एवं हिंसाविकम्मसु प(स)जमानः कामभोगतषितः छिन्नह्नदमत्स्यवदुदकपरिक्षये आयुषः क्षयं न बुध्यते। २. (क) चूणि, पृ० १९० : उज्जेणिए वाणियगो रयणाणि कधं पवेस्सस्सामि ? त्ति रजनिक्षयं न बुध्यते स्म, अतो व्यग्रतया यावदु दिते सवितरि राज्ञा गृहीतः। (ख) वृत्ति, पृ० १६५ : कश्चिद्वणिग् महता क्लेशेन महा_णि रत्नानि समासाद्योज्जयिन्या बहिरावासितः, स च राजचौरदायाव भयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं च प्रवेश यिष्यामीत्येवं पर्यालोचनाकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान्, अह न्येव रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुष रत्नेभ्यश्च्यावित इति । ३. (क) चूणि, पृष्ठ १९० : ममाइ ति ममाई, तद्यथा-मे माता मम पिता मम भ्रातेत्यादि । (ख) वृत्ति, पत्र १६५ : 'ममाइ' त्ति ममत्ववान् इदं मे अहमस्य स्वामीत्योवम् । ४. चूणि, पृ० १६० : सहस्साई हिंसादीनि । ५. वृत्ति, पत्र १९५: तदेवमार्तध्यानोपहतः 'कइया वच्चइ सत्यो ? कि भंडं कत्थ कित्तिया भूमी' त्यादि, तथा 'उक्खणइ खणइ णिह णइ रत्ति न सुयइ दियावि य ससंको' इत्यादि चित्तसंक्लेशात सुष्ठ मूढोऽजरामरवणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहनिशमारम्मे प्रवर्तत इति । Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६६. (परितप्यमाणे अजराऽमरेव्व ) वह मनुष्य अजर-अमर की भांति आचरण करता हुआ दिन-रात संतप्त होता है । मम्मण बनिए की भांति वह धन की कामना से सतत संतप्त रहता हुआ शरीर, मन और वाणी को भी क्लेश देता है । 'अजरामरवद् बालः क्लिश्यते धनकाम्यया । शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च ॥ ६७. छोटे पशु (खुद्द मिगा ) वह अज्ञानी मनुष्य जीवन और धन को शाश्वत मानता है और अपने आपको अजर और अमर मानकर धन की कामना से क्लेश पाता है । " ४४8 मृग पद के दो अर्थ हो सकते हैं- पशु और हरिण । ६८. डरकर ( परिसंकमाणा ) श्लोक २० : चूर्णिकार ने क्षुद्र शब्द के द्वारा व्याघ्र, भेड़िया और चीता का और 'मृग' शब्द से विभिन्न जाति वाले हरिणों का ग्रहण किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने क्षुद्रमृग को समस्त शब्द मान कर उसका अर्थ हरिण किया है ।" वृत्तिकार ने हरिण आदि छोटे-छोटे जंगली पशुओं को 'क्षुद्रमृग माना है ।" अध्ययन १० टिप्पण ६६-७१ जंगल में मृग आदि छोटे पशु दूर-दूर तक चरते रहते हैं। वायु के द्वारा प्रकंपित होने वाले तृणों को देखकर वे सिंह की आशंका कर आकुल व्याकुल हो जाते हैं। वे सदा भय की स्थिति में रहते है और सशंकित जीवन बिताते हैं । ६६. दूर रहते हैं (दूरे चरंती) जंगल में मृग आदि छोटे पशु सिंह, व्याघ्र आदि से डर कर दूर-दूर चरते हैं। सिंह आदि उनको देख भी न पाए, उनकी गंध भी न ले पाए, इस प्रकार वे दूर-दूर रहते हैं । अथवा वे उस क्षेत्र का परित्याग भी कर देते हैं ।" श्लोक २१ : २. ६. पूर्ण पृ० १२१ कि संयुक्झमाणे ? समाधिधम्मं । ७. वृत्ति ७०. समाधि को जानकर (संयुक्झमाणे) इसका अर्थ है - समाधि-धर्म को जानता हुआ । वृत्तिकार ने इसका तात्पर्य यह माना है – मुनि श्रुत चारित्ररूप धर्म या भाव-समाधि को समझकर, शास्त्र - विहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करता हुआ ७१. दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं (सिम्पसूताणि दुहाणि ) 'दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं,' इसका तात्पर्य है कि हिंसा आदि की प्रवृत्ति से पाप कर्म का बंध होता है और उसके विपाक १. वृत्ति, पत्र १९५ : द्रव्यार्थी परितप्यमानो मम्मणवणिग्वदार्तध्यायी कायेनापि क्लिश्यते, तथा चोक्तम्- 'अजरामरवद्वाल: २. पूर्ण, पृ० १११ द्राः मृगाः सुमृगाः व्यानरु द्वीपिकादयः मृदा रोहिताश्च अथवा स एव क्षुद्रमृगः । ३. पित्र १०६ मृगाः सुदारव्यपशवो हरिणजात्याद्याः । ४. (क) चूर्णि, पृ० १६१ : अपि वातकम्पितेभ्यस्तृणेभ्योऽपि सिंहमयादुद्विग्नाश्चरन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र १९६ । ०११ति अदर्शनेनायन्येन वा परित्यागेन च । १२६ सम्यकृतचारित्रास्यं धर्म भावसमाधि वा बुध्यमानस्तु विहितानुष्ठाने प्रवृतिः । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १. ४५० अध्ययन १०: टिप्पण ७२-७४ स्वरूप प्राणी जन्म, जरा, मरण, अप्रियसंवास आदि के दुःखों को भोगता है, नरक आदि यातना-स्थानों में जोता है।' 'हिंसा' शब्द केवल एक संकेत मात्र है । इससे समस्त सावध योग का ग्रहण किया गया है । चूर्णिकार ने इस श्लोक का चौथा चरण-'णेव्वाणभूते व परिब्बएज्जा' माना है। वृत्तिकार ने इसे पाठान्तर के रूप में स्वीकार किया है । इसका अर्थ है-जैसे मुक्त आत्मा अव्याबाध सुख में स्थित होता है, निर्व्यापार होने के कारण वह किसी का उपघात नहीं करता, वैसे ही निर्वाण की साधना करने वाला मुनि जो अभी तक निर्वृत नहीं हुआ है, वह नित्त की तरह परिब्रजन करे। ७२. अपने आपको पाप से बचाए (पावाओ अप्पाण णिवट्टएज्जा) जो मुनि शास्त्रविहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करने वाला है वह सबसे पहले निषिद्ध आचरणों से निवर्तित हो, क्योंकि कारण के नाश से ही कार्य का नाश होता है। जब तक कारण का संपूर्ण नाश नहीं होता तब तक कार्य से छुटकारा नहीं मिल सकता। अतः जो मुनि समस्त कर्मों के क्षय की कामना करता है उसको सबसे पहले आस्रवों का निरोध करना होता है।' श्लोक २२: ७३. आत्मगामी मुनि (अत्तगामी) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं- आत्मगामी और आप्तगामी । वृत्तिकार ने दोनों रूपों के आधार पर इसके तीन अर्थ किए हैं १. आप्त का एक अर्थ है- मोक्ष-मार्ग । मोक्ष-मार्ग की ओर जाने वाला आप्तगामी होता है। २. आप्त का दूसरा अर्थ है--सर्वज्ञ । सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने वाला आप्तगामी होता है। ३. आत्मा का हित करने वाला, अपना हित करने वाला। चूर्णिकार ने इस पद के स्थान पर 'अत्तकामी' पद मान कर इसका अर्थ आत्मनिःश्रेयस् की कामना करने वाला किया है।" ७४. यह सत्य निर्वाण और संपूर्ण समाधि है (णिब्वाणमेयं कसिणं समाहि) चुणिकार ने "णिव्वाणमेवं' पाठ मान कर व्याख्या की हैं। उनके अनुसार इसका अर्थ है-'इस प्रकार निर्वाण पूर्ण समाधि है।' स्नान-पान आदि जितने भी सांसारिक निर्वाण हैं वे सब अपूर्ण हैं, इसलिए वे अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक हैं। केवल निर्वाण ही ऐकान्तिक और आत्यन्तिक है।' १. (क) चूणि, पृ० १६१ : हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता, हिंसातः प्रसूतानि हिंसापसूताणि जाति-जरा-मरणा-ऽप्रियसंवासादीनि नरकादि दुःखानि च अट्ठविधकम्मोदयनिष्फण्णाणि । (ख) वृत्ति, पत्र १९६ : हिंसा-प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातना स्थानेषु दुःखानि-दुःखोत्पादकानि वर्तन्ते। २. (क) चूणि, पृ० १६१। (ख) वृत्ति, पत्र १९६ । ३. वृत्ति, पत्र १६६ । विहितानुष्ठाने प्रवृत्ति कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धाचरणान्निवर्तेत अतस्तत् दर्शयति-'पापात्'-हिसानतादि रूपात् कर्मण आत्मानं निवर्तयेत्, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेवो भवतीत्यतोऽशेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरन्ध्यात् । ४. वृत्ति, पत्र १९६ : आप्तो--मोक्षमार्गस्तद्गामी-तद्गमनशील आत्महितगामी वा आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तदुपदिष्टमार्ग गामी। ५. चूणि, पृ० १९२ : (अत्तकामी) आत्मनिः यसकामी । ६. चूणि, पृ० १९२ : एवं निर्वाण समाधिर्भवति कसिण इति सम्पूर्णः, संसारिकानि हि यानि कानिचित् स्नान-पानादीनि निर्वाणानि तान्यसम्पूर्णत्वाद् नैकान्तिकानि नात्यन्तिकानि च । Jain Education Intemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १० : टिप्पण ७५-७७ हमारे निर्धारित पाठ के अनुसार इसका अर्थ है-सत्य निर्वाण है और संपूर्ण समाधि है। वृत्तिकार ने मृषावादवर्जन को संपूर्ण भावसमाधि और निर्वाण माना है । स्नान, भोजन आदि से उत्पन्न तथा शब्द आदि विषयों से संपादित सांसारिक समाधि अनैकान्तिक और अनात्यन्तिक होने के कारण अथवा दुःख के प्रतिकाररूप होने के कारण असंपूर्ण होती है। श्लोक २३: ७५. एषणा द्वारा लब्ध शुद्ध आहार (सुद्धे) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-याचना से उपलब्ध अथवा अलेपकृत आहार ।' वृत्तिकार ने उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित आहार को शुद्ध कहा है।' ७६. दूषित न करे (ण दूसएज्जा) इसका तात्पर्य यह है-मुनि ने आहार की एषणा की। उसे शुद्ध आहार प्राप्त हुआ । किन्तु उसको खाते समय वह मनोज्ञ वस्तु पर रागभाव और अमनोज्ञ वस्तु पर द्वेषभाव कर उसको दूषित न करे । वृत्तिकार ने एक सुंदर गाथा उद्धृत की है 'बायालीसेसणसंकडं मि गहणंमि जीव ! न ह छलिओ। इण्डिं जह न छलिज्जसि मुंजंतो रागदोसेहिं ।' -रे जीव ! बयालीस दोष रूप गहन संकट में तूने धोखा नहीं खाया । यदि तू इस भोजन को करता हुआ राग-द्वेष से धोखा नहीं खाएगा तो तेरा कार्य सफल होगा।' ७७. उसमें मूच्छित और आसक्त न हो (अमुच्छितो अणज्झोववण्णो) अमूच्छित का अर्थ है कि मुनि मनोज्ञ आहार मिलने पर भी उसके प्रति राग न करता हुआ भोजन करे । अनध्युपपन्न का अर्थ है-आसक्त न हो । बार-बार एक ही प्रकार के आहार को पाने की इच्छा करना उसके प्रति रही हुई आसक्ति का द्योतक है । मुनि ऐसा न करे । केवल संयम-निर्वाह मात्र के लिए आहार करे । मनोज्ञ उपहार मिलने पर प्रायः ज्ञानी पुरुषों के मन में भी उसके प्रति विशेष अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है, इसलिए आहार के प्रति मूर्छा और आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।' कहा हैं भुत्तभोगो पुरा जोवि, गोयत्यो वि य माविओ। संतेसाहारमाईसु सोवि खिप्पं तु खुब्मइ ॥ -जो भुक्तभोगी है, गीतार्थ और भावितात्मा है, वह भी मनोज्ञ आहार को पाने के लिए लालायित हो जाता है।' १. वृत्ति, पत्र १९६ : 'एतदेव' मृषावादवर्जनं 'कृत्स्नं'- संपूर्ण भावसमाधि निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः स्नानभोजनादि जनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिकानात्यन्तिकस्वेन बुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते । २. चूणि, पृ० १९२ : सुद्ध जाइओलद्ध............"अधवा सुखं अलेवकडं । ३. वृत्ति, पत्र १९७ : उद्गमोत्पादनैषणाभिः 'शुद्ध'-निर्दोषे । ४. वृत्ति, पत्र १९७ : प्राप्ते पिण्डे सति साधू रागद्वेषाभ्यां न दूषयेत् । ५. वृत्ति, पत्र १९७। ६. वृत्ति, पत्र १९७ : न मूछितोऽमूछितः-सकृदपि शोभनाहारलाभे सति गुद्धिमकुर्वन्नाहारयति, तथा अनध्युपपन्नस्तमेवाहारं पौन:पुन्ये. नानभिलषमाणः केवलं संयमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत्, प्रायो विदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसन्निधावभिलाषा तिरेको जायत इत्यतोऽमूछितोऽनध्युपपन्न इति च प्रतिषेधद्वयमुक्तम् । ७.वृत्ति, पन १९७। Jain Education Intemational For Private & P Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ७८. अगार-बंधन से मुक्त ( विमुक्के) ७६. लावा का कामी ( सिलोयकामी) ' चूर्णि के अनुसार इसका अर्थ है- अगार-बंधन से मुक्त वृत्तिकार ने इसका अर्थ- बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त किया है ।" ८०. अनासक्त हो ( णिरावकखी) ज्ञान, तपस्या आदि के द्वारा यश पाने की कामना करने वाला श्लोककामी होता है ।" श्लोक २४ : गृह, कलत्र, कामभोग आदि की आकांक्षा न करने वाला निरवकांक्षी होता है । * जो जीवन के प्रति भी आकांक्षा नहीं करता वह निरवकांक्षी होता है । " ४५२ ८१. शरीर का व्युत्सर्ग कर (कार्य विओसज्ज ) चूर्णिकार ने शरीर के द्रव्य व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग का उल्लेख किया है । वृत्तिकार के अनुसार काया को छोड़ने का अर्थ है - उसकी सार-संभाल न करना, उसमें रोग उत्पन्न हो जाने पर भी चिकित्सा आदि न कराना।" प्रस्तुत सूप (२१२७) में ध्यान के प्रसंग में काय-क्रसर्ग का उल्लेख मिलता है यह कायोत्सर्ग का सूचक है शरीर की प्रवृत्ति और उसके प्रति होने वाला ममत्व - इन दोनों का त्याग करना काय - व्युत्सर्ग है । ८२. कर्म-बन्धन (निदान) आप्टे की डिक्शनरी में 'निदान' शब्द के अनेक अर्थ किए हैं- रस्सी, अवरोधक, मूल कारण, उपादान कारण आदि आदि ।" प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ 'मूल कारण' है । संसार भ्रमण का मूल कारण है 'कर्म बंधन' मुनि इस कर्म बंधन को छिन्न करे । चूर्णिकार ने निदान के दो प्रकार माने हैं' १. द्रव्य निदान —– स्वजन, धन आदि । २. भाव निदान कर्म । जैन परम्परा में 'निदान' शब्द का पारिभाषिक अर्थ है - आध्यात्मिक शक्तियों का भौतिक सुख-सुविधा की प्राप्ति के लिए विनिमय करना । देखें पहले श्लोक में 'अगिदाण भूते' का टिप्पण । - ८३. भव के वलय से मुक्त ( वलया विमुक्के) चूर्णिकार ने 'वलय' के तीन अर्थ किए हैं अध्ययन १० टिप्पण ७८८३ ० १२२ विके 'अगारमंधणविष्यमुक्के। १. २. वृति पत्र १७ तथा सबाह्याभ्यन्तरेण प्रत्ये ३. वृणि, पृ० १६२ : सिलोगो त्ति जसो, णाण-तवमादीहि सिलोगो ण कामेज्जा । ४. पूर्ण पृ० १६२ अप्पं वा बहुं वा उपधि विहाय निष्कान्त मिलोसावीह गृह-कल कामभोगे निरावलो ५ वृत्ति, पत्र १९७ : जीवितेऽपि निराकाङ्क्षी । ६. चूर्णि, पृ० १९२ : दव्वतो भावतो य कार्य विसेसेण उत्सृज्य विओसज्ज । ७. वृत्ति, १७ कार्य' - शरीरं व्युत्सृज्य निध्यतिकर्मतया चिकित्सादिकमकुर्वन् । ८. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ६. चूर्णि पृ० १९२ : दव्वणिवाणं सयण-धणादि, भावणिदाणं कम्मं । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४५३ १. वक्रता, टेढ़ापन | २. गति करना, मुड़ना । ३. माया । वलय ( वक्रता) दो प्रकार का होता है । १. द्रव्य वलय — शंख का वलय । २. भाव वलय – आठ प्रकार के कर्म, जिनसे प्राणी बार-बार संसार में परिभ्रमण करता है । १. संसार के वलय से मुक्त । २. कर्म - बंधन से मुक्त | 'वलय विमुक्के' का अर्थ है – कर्म - बंधन से विमुक्त | जब हम वलय से 'माया' का अर्थ ग्रहण करते हैं, तब इसका अर्थ होगा - माया से विमुक्त । क्रोध, मान, आदि से मुक्त मुनि को भी वलय से विमुक्त कहा जा सकता है ।" वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए है' अध्ययन : १० टिप्पण ८३ १. चूर्ण, पृ० १६२ : वलयं वक्रमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शङ्खकः, भाववलयं अष्टप्रकारं कर्म्म येन पुनः पुनर्वलति संसारे । वलयशब्दो हि बफतायां भवति गतौ च बतायां पालितस्तन्तु बलिता म्युरित्यादि तो बलत पासवसति सार्थ इत्यादि । वलयविमुक्त इति कर्मबंधन विमुक्तः । अथवा वलय इति माया तया च मुक्तः । एवं क्रोधादिमाणविमुक्त इति । २. वृत्ति पत्र १२७ बलपात्'संसारबलात् कर्मबन्धनाद्वा विप्रयुक्तः । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमं अज्झयरपं मग्गे ग्यारहवां अध्ययन मार्ग Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'मार्ग' है। भगवान् महावीर ने अपनी साधना पद्धति को 'मार्ग' कहा है । आगमों के अनेक स्थलों में साधना के लिए 'मार्ग' (प्रा० मग्ग) का प्रयोग मिलता है। जैसे • एस मग्ने आरिएहि पहए (आयारो २०४७ मादि) ० णत्थि मग्गे विरयस्स (आयारो ५/३० ) o बुरणचरो मग्गो (आयारो ४/४२ ) • देवालय (सूत्र० १।२।२३ ) • सूत्र० १० २०६६) उत्तराध्ययन सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को 'मार्ग' कहा है।' आवश्यक सूत्र में निर्ग्रन्थ प्रवचन को सिद्धिमार्ग मुक्तिमार्ग, निर्वाणमार्ग, निर्यानमार्ग, समस्त दुःखों (क्लेशों ) को क्षीण करने का मार्ग कहा है । स्थानांग में मार्ग के अर्थ में द्वार शब्द प्रयुक्त है -- चत्तारि धम्म दारा पण्णत्ता - खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे-धर्म के चार द्वार (मार्ग) हैं—क्षांति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव । यही भगवान् महावीर की साधना पद्धति है, मार्ग है । यही भावमार्ग है । भावमार्ग दो प्रकार का होता है- प्रशस्तभावमार्ग - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्र । इसका फल है सुगति । यह मार्ग तीर्थंकर, गणधर स्थविर तथा साधुओं द्वारा अनुचीर्ण सम्यग् मार्ग है । अप्रशस्तभावमार्ग - मिथ्यात्व अविरति, अज्ञान । इसका फल है दुर्गति। यह मार्ग चरक, परिव्राजक आदि द्वारा अनुचीर्ण मियामार्ग है। नियुक्तिकार प्राप्ति के प्रसंग में द्रव्यमार्ग और भावमार्ग की चतुभंगी का उल्लेख किया है— १. द्रव्यमार्ग १. क्षेम और क्षेमरूप - चौर, सिंह आदि के उपद्रव से रहित तथा वृक्ष तथा जलाशयों से समन्वित । २. क्षेम और अक्षेमरूप - उपद्रव रहित तथा पत्थर, कंटक, नदी-नालों से आकीर्ण, विषम । ३. अक्षेम और क्षेमरूप — उपद्रव सहित पर अविषम, सीधा और साफ । ४. अक्षेम और अक्षेमरूप-उपद्रव सहित तथा विषम । २. भावमार्ग १. क्षेम-क्षेमरूप ज्ञान आदि से समन्वितमुनिवेधारी साधु । २. क्षेम-अमरूप भावसाधु यतिन से रहित । ३. अक्षेम-क्षेमरूप निन्हव । ४. अम-अमरूप परतीचिक, गृहस्थ आदि ।' १. उत्तरम्भयणाणि, २८२ । २ आवश्यक ४।६ । ३. ठाणं ४।६२७ ॥ ४. चूर्ण, पृ० १४ । ५. नियुक्ति गाथा १०४ : खेमे य खेमरूवे चडउक्कगं मग्गमादीसु । ६. चूर्ण, पृ० १९४ । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयगडो १ अध्ययन ११: प्रामुख द्रव्य मार्ग के प्रकारों का उल्लेख करते हुए नियुक्तिकार ने तत्कालीन यातायात के मार्गों का स्पष्ट निर्देश किया है। वे चौदह प्रकार के मार्गों का उल्लेख करते हैं।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है-- १. फलकमार्ग-कीचड़ आदि के भय से फलक द्वारा पार किया जाने वाला मार्ग या गढ़ों को पार करने के लिए बनाया ___गया फलक मार्ग ।' २. लसामार्ग-नदियों में होने वाली लताओं (वेत्र आदि) का आलंबन लेकर पार करने का मार्ग। जैसे गंगा आदि नदियों को वेत्र लताओं के सहारे पार किया जाता था।' ३. आन्दोलनमार्ग--यह संभवतः झूलने वाला मार्ग रहा हो। विशेषतः यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया हुआ होता था। व्यक्ति झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच जाता था।' व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । ४. वेत्रमार्ग-यह मार्ग नदियों को पार करने में सहायक होता था। जहां नदियों में वेत्र लताएं (बेंत की लताएं) सघन होती थीं, वहां पथिक उन लताओं का अवष्टम्भ लेकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। चारुदत्त नामक एक व्यक्ति ने वेत्रलताओं का अवलंबन लेकर वेत्रवती (उसुवेगा) नदी को पार किया था। इसकी प्रक्रिया वसुदेव हिण्डी में उल्लिखित है। यह भी एक प्रकार का लतामार्ग ही है। ५. रज्जुमार्ग-रस्सी के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का मार्ग । यह अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। चूणिकार ने गंगा आदि नदियों को पार करने के लिए इस रज्जुमार्ग का उल्लेख किया है।' संभव है एक किनारे पर रज्जु को वृक्ष से बांधकर उसके सहारे तैरते हुए दूसरे किनारे पहुंचना सरल हो जाता है। ६. ववनमार्ग-दवन का अर्थ है यान-वाहन । उसके आने जाने का मार्ग दवनमार्ग है। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग काम आता था। ७. बिलमार्ग-ये गुफा के आकार वाले मार्ग थे। इनको 'मूषिक पथ' भी कहा जाता था। ये पहाड़ी मार्ग थे, जिनमें चट्टान काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनानी पड़ती थीं। इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना पड़ता था।' १. नियुक्ति गाथा १०१ : फलग-लतंदोलग-वेत्त-रज्जु-दवण-बिल-पासमग्गे य । खीलग-अय-पक्खिपहे छत्त-जलाकास वग्वम्मि ॥ २. चूणि, पृ० १६३ : फलगेहिं जहा दद्दरसोमाणेहि, जघा फलगेण गम्मति वियरगादिसु, चिक्खल्ले वा जधा। ३. चूणि, पृ० १९३ : वेत्तलताहिं गंगमादी संतरति, जधा चारुदत्तो वेत्तति वेत्तेहि ओलंबिऊण परकूलवेत्तेहिं आलाविऊण उत्तिण्णो । ४. चूणि, पृ० १९४ : अंबोलरण अंदोलारूढो एति य, जं वा रुक्खसालं अंदोलिएऊणं अप्पाणं परतो वच्चति । ५. वसुदेव हिण्डी, पत्र १४०-१४६ : एक बार एक सार्थ यात्रा पर था। वह वहां पहुंचा । नदी के किनारे पड़ाव डाला । वन से पके हुए फल लाए। रसोई पकाई और सभी ने भोजन किया । तब यात्रा-संरक्षक ने कहा-देखो, यह उसुवेगा नदी है। यह वताढ्य पर्वत से निकलती है। यह बहुत ऊंडी नदी है। जो इसको पार करने के लिए पानी में उतरता है, वह तीर की भांति तीव्र गतिवाले पानी के प्रवाह में बह जाता है। उसमें आड़े-टेढ़े नहीं उतरा जा सकता। इसको पार करने का एक ही मार्ग है-वेत्रलतामार्ग । जब उत्तर दिशा का पवन चलता है और जब वह पर्वतों के दंतुरों से गुजरता है तब उसका वेग बढ़ता है और उसके प्रवाह से नदो को सारी वेत्रलताएं दक्षिण की ओर झुक जाती हैं। वे स्वभावत: कोमल और मृदु तथा गाय के पूंछ के आकार की होती हैं। उन लताओं का आलंबन लेकर व्यक्ति उत्तरकूल से दक्षिणकूल पर चला जाता है, नदी को पार कर जाता है। जब दक्षिण का पवन चलता है तब उसी प्रकार वेत्रलताएं उत्तरविशा की ओर झुकती हैं और तब यात्री उन लताओं के सहारे उत्तरकूल पर पहुंच जाता है। ६. चूणि, पृ० १९४ : रज्जुहि गंगं उत्तरति । ७. वृत्ति, पत्र १९८ : दवनं-यानं तन्मार्गो दवनमार्गः। ८. (क) चूणि, पृ० १९४ : बिलं बीवहिं पविसंति । (ख) वृत्ति, पत्र १९८ : बिलमार्गो यत्र तु गुहायाकारेण बिलेन गम्यते । Jain Education Intemational Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ११ प्रामुख ८. पाशमार्ग-चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था । 'रसकूपिका' (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही पुनः बाहर आना होता था।' वृत्तिकार ने इसे मृगजाल आदि से युक्त मार्ग माना है, जिसका उपयोग शिकारी करते हैं। , कीलकमार्ग-ये वे मार्ग थे जहां-स्थान-स्थान पर खंभे बनाए जाते थे और पथिक उन खंभों के अभिज्ञान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था ।। ये खंभे उसे मार्ग भूलने से बचाते थे। विशेष रूप से ये मार्ग मरुप्रदेश में, जहां बालु के टीलों की अधिकता होती थीं, वहां बनाए जाते थे।' १०. अजमार्ग-चूर्णिकार ने 'अयस्पथ' मानकर इसको लोहे से जटित पथ माना है और इसकी अवस्थिति स्वर्ण-भूमी में बतलाई है।' यह 'अजपथ' एक ऐसा संकरा पथ होता था जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषत: पहाड़ों पर होता था जहां बकरों और भेड़ों पर यातायात होता था। इसे 'मेंढपथ' भी कहा जाता था। वृत्तिकार के अनुसार चारुदत्त इसी मार्ग से स्वर्णभूमि पहुंचा था।' ११. पक्षिपथ—यह आकाश-मार्ग था। भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे इस मार्ग से यातायात होता था।' यह मार्ग सर्व सुलभ न भी रहा हो परन्तु कुछ श्रीमन्त या विद्याओं के पारगामी व्यक्ति इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते हों, यह असंभव नहीं लगता। क्योंकि आज भी शतुर्मुर्ग पर सवारी की जाती है और उसका वाहन के रूप में उपयोग किया जाता है। उसकी गति भी तेज होती है। इसी प्रकार पक्षियों में सर्वबलिष्ठ भारुण्ड पक्षी पर सवारी करना अत्युक्ति नहीं कही जा सकती। पाणिनी का हंसपथ, महानिर्देश का शकुनपथ और कालीदास का खगपथ, धनपथ, सुरपथ इसी पक्षिपथ के वाचक हैं। १२. छत्रमार्ग-यह एक ऐसा मार्ग था जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था।' संभव है यह जंगल का मार्ग हो और जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो । वे पशु छत्ते से डरकर इधर-उधर भाग जाते हों। १३. जलमार्ग-जहाज, नौका आदि से यातायात करने का मार्ग । इसे 'वारिपथ' भी कहा जाता है। १४. आकाशमार्ग-चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग ।' इसे 'देवपथ' भी कहा जाता था। क्षेत्रमार्ग और कालमार्ग के प्रसंग में भी नियुक्तिकार, चूर्णिकार और वृत्तिकार ने अनेक तथ्य प्रगट किए हैं३. क्षेत्रमार्ग-भूमीचरों के लिए भूमी मार्ग है, देवताओं के लिए आकाश मार्ग है, पक्षियों तथा विद्याधरों के लिए भुमी और आकाश-दोनों मार्ग हैं। १. चूणि, पृ० १६४ : रज्जु वा कडिए बंधिऊण पच्छा रज्जु अणुसरंति क्वचिद् रसकूपिकादौ महत्यन्धकारे, पुणो णिग्गच्छति गच्छति सो चेव पासमग्गो। २ वृत्ति, पत्र १९८ : पाशप्रधानो मार्ग:-पाशमार्गः पाशकटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १९४ : खोलगेहिं रुमाविसए वालुगाभूमीए चक्कमति, क्वचिद् वेणु (? रेणु) प्रचुरे देशे कोलकानुसारेण गम्यते, अन्यथा पथभ्रंशः। ४. वही, पृ० १९४ : अयपधो लोहबद्धः सुवण्णभूमीए.........। ५. वृत्ति, पत्र १९८ : अजमार्गो यत्र अजेन-बस्त्येन गम्यते, तत्, यथा-सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गत इति । ६. वृत्ति, पत्र १६८। ७. चुणि, पृ०१९४: छत्तगमग्गो छत्तगेणं धरिज्जमाणेणं गच्छति उपद्रवमयात् । ८. वही, पृ० १६४ : आगासमग्गो चारण-विज्जाहराणं । ६. (क) नियुक्ति गाथा १०२। (ख) चूणि, पृ० १९४ । (ग) वृत्ति, पत्र १९८ । Jain Education Intemational Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ११: प्रामुख अथवा-यह चावल के खेत का मार्ग है, यह गेहूं के खेत का मार्ग है। यह ग्राम मार्ग है, यह नगर मार्ग है । यह मार्ग विदर्भ नगर का है, यह मार्ग हस्तिनागपुर का है। ४. कालमार्ग जिस काल में जो मार्ग चालू होता है, वह कालमार्ग है। जैसे-वर्षा की रात्री में पानी का प्रवाह अपना मार्ग बनाकर बहता है, शिशिर या ग्रीष्म में व्यक्ति मूलमार्ग को छोड़कर उपमार्ग से जाता है, वह कालमार्ग है। अथवा-जिस काल में गमनागमन किया जाता है, वह कालमार्ग है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में रात्री में और हेमन्त ऋतु में दिन में गमनागमन सुखपूर्वक होता है । ___ अथवा-जितने काल तक चला जाता है, वह कालमार्ग है। जैसे सूर्योदय होते चला और सांझ को पहुंच गया। वह कालमार्ग है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र-यह भावमार्ग है । इसकी आराधना मोक्ष की आराधना है । कुछेक व्यक्ति निर्ग्रन्थ-शासन में प्रवजित होकर भी सुकुमार और सुखशीलक बनकर प्राणीघातकारक प्रवृत्तियों में रस लेते हैं । वे धर्म का उपदेश करते हुए भी कुमार्ग पर प्रस्थित हैं। जो मुनि तप और संयम में अनुरक्त हैं, मुनि-गुणों से युक्त हैं, जो जैसा कहते हैं, वैसा करते हैं, जो जनकल्याणकारी हैं, उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग सुमार्ग है। नियुक्तिकार ने मार्ग शब्द की गुणवत्ता के आधार पर तेरह एकार्थक शब्द दिए हैं।' वृत्तिकार ने उनकी भावमार्ग के आधार पर व्याख्या की है १.पंथा-सम्यक्त्व की प्राप्ति । २. मार्ग-सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति । ३. न्याय -सम्यग्चारित्र की प्राप्ति । ४. विधि-सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की युगपद प्राप्ति । ५. धृति-सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्चारित्र की प्राप्ति । ६. सुगति-ज्ञान और क्रिया का संतुलन । ७. हित-मुक्ति या उसके साधनों की प्राप्ति । ८. सुख-उपशम श्रेणी में आरूढ़ होने का सामर्थ्य । ६. पथ्य-क्षायक श्रेणी में आरूढ़ होने का सामर्थ्य । १०. श्रेणी-मोह की सर्वथा उपशान्तावस्था । ११. निर्वृति-क्षीणमोह की अवस्था । १२. निर्वाण-केवलज्ञान की प्राप्ति । १३. शिवकर-शैलेशी अवस्था की प्राप्ति । -ये शब्द व्याख्या भेद से भिन्न हो जाते हैं । ये मोक्षमार्ग के पर्यायवाची शब्द भी माने जा सकते हैं।' जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी को मोक्षमार्ग के विषय में दो प्रश्न पूछते हैं। पहले तीन श्लोकों में प्रश्न हैं और शेष तीन श्लोकों में उन प्रश्नों के उत्तर हैं । जम्बूस्वामी ने पूछा १. भगवान् महावीर ने मोक्षप्राप्ति के लिए कौनसा मार्ग बतलाया है ? २. लोगों के पूछने पर हम कौन से मार्ग का प्रतिपादन करें? १. नियुक्ति गाथा १०८ : पंथो णायो मग्गो विधी धितो सोग्गती हित सुहं च । पत्थं सेयं णेवुइ णेष्वाणं सिवकरं चेव ॥ २. वृत्ति, पत्र १९९, २००। ३. वृत्ति, पत्र २०० : एवमेतानि मोक्षमार्गत्वेन किञ्चिद् मेदाद् भेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदि वैते पर्यायशब्दा एकाथिका मोक्ष मार्गस्येति। Jain Education Intemational Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६१ प्रध्ययन ११: प्रामुख प्रस्तुत अध्ययन में अड़तीस श्लोक हैं। उनमें मोक्षमार्ग की विशेष जानकारी तथा अहिंसा, सत्य, एषणा आदि के विषय में परिज्ञान दिया गया है। श्लोक १-६ मोक्षमार्ग का स्वरूप । ७-१२ अहिंसा-विवेक । १३-१५ एषणा-विवेक १६-२१ भाषा-विवेक २२-२४ धर्म द्वीप कैसे ? २५-३१ बौद्धमत की समीक्षा ३२-३८ मार्ग की प्राप्ति का उपाय और चरम फल । कुछ विमर्शनीय स्थल सातवें श्लोक में स्थावर जीवों का एक विशेषण है 'पुढो सत्ता'। इसका संस्कृत रूप है-'पृथक् सत्त्वाः' और अर्थ है-पृथक्पृथक् आत्मा वाले। इस विशेषण के द्वारा इस सत्य की घोषणा की गई है कि सभी आत्माओं का स्वतंत्र अस्तित्व है, कोई किसी से उत्पन्न नहीं है । यहां सत्व का अर्थ है-अस्तित्व । दो श्लोकों (७, ८) में षड्जीवनीकाय का निरूपण है। यह भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इससे पूर्व किसी अन्य दार्शनिक ने इस प्रकार का सिद्धान्त प्रतिपादित किया हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। महान् तार्किक आचार्य सिद्धसेन ने महावीर की सर्वज्ञता को प्रस्थापित करने के लिए 'षड्जीवनिकाय' का हेतु प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं-महावीर की सर्वज्ञता को प्रस्थापित करने वाले अनेक तथ्य हैं । उनमें षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा महत्त्वपूर्ण है। छह श्लोकों (१६-२१) में दान के प्रसंग में मुनि का भाषा-विवेक कैसा होना चाहिए, उसका स्पष्ट निर्देश है । इन श्लोकों का तात्पर्य है कि जहां जब दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता है, इस प्रकार का कोई व्यक्ति प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए। चौबीसवें श्लोक में साधना-क्रम का सुन्दर निरूपण मिलता है। उस साधना के चार सोपान हैं१. आत्मगुप्ति । २. इन्द्रिय और मन का उपशमन । ३. छिन्न-स्रोत अवस्था । ४. निरास्रव अवस्था। साधक को सबसे पहले आत्मगुप्ति करनी होती है । उसे इन्द्रिय और मन का समाहार करना पड़ता है। गुप्ति का निरन्तर अभ्यास करने से इन्द्रियां और मन दान्त हो जाते हैं । जैसे-जैसे उनकी उपशान्तता बढ़ती है, वैसे-वैसे हिंसा आदि प्रवृत्तियां टूटती जाती हैं । एक क्षण ऐसा आता है कि वे सारे स्रोत छिन्न हो जाते हैं और साधक तब निरास्रव होकर आत्मा के निकट पहुंच जाता है। सात श्लोकों (२५-३१) में बौद्धदृष्टि की समीक्षा की गई है। अहिंसा धर्म ही शुद्ध धर्म है । बौद्ध भिक्षु हिंसात्मक प्रवृत्तियों का समर्थन करते हैं । वे संघभक्त की बात सोचते रहते हैं । संकल्प-विकल्प के कारण वे असमाहित रहते हैं । वे शुद्ध ध्यान के अधिकारी नहीं होते। वे समाधि की साधना करते हैं, पर आरंभ और परिग्रह में आसक्त होने के कारण समाधि को नहीं पा सकते। वे आत्मा को नहीं जानते, इसलिए समाधिस्थ भी नहीं हो पाते । वे स्वयं शुद्ध मार्ग पर नहीं चलते और दूसरों को भी उन्मार्गगामी बनाते हैं। छबीसवें श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने बौद्ध परंपरागत कुछेक व्यवहारों का निर्देश किया है। देखें - टिप्पण संख्या ३८ । छतीसवें श्लोक के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस निर्वाण-मार्ग का प्रतिपादन वर्धमानस्वामी ने ही किया है अथवा अन्य तीर्थंकरों ने भी इसका प्रतिपादन किया है ? शास्त्रकार इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं 'जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया। संती तेसि पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा॥' Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबगडो ४६२ अध्ययन ११: प्रामुख ____जो तीर्थंकर अतीत में हो चुके हैं, जो तीर्थंकर भविष्य में होंगे और जो तीर्थकर आज विद्यमान हैं, उन सबने इसी निर्वाणमार्ग का प्रतिपादन किया था, करेंगे और कर रहे हैं। जैसे समस्त जीवों के लिए पृथ्वी आधारभूत है, वैसे ही यह निर्वाण-मार्ग, यह शांतिमार्ग सभी तीर्थंकरों का प्रतिष्ठान है। अंतिम श्लोक में सुधर्मा जंबू से कहते हैं-'जम्बू ! तुमने मोक्षमार्ग के विषय में पूछा था। मैंने तुम्हें उसके स्वरूप की पूर्ण जानकारी दी है और उसकी निष्पत्ति भी बताई है। मेरा यह कथन बुद्धि-कल्पित नहीं है। यह सारा केवली द्वारा प्ररूपित यथार्थ है। तुम इस मार्ग पर अविश्रामगति से मरणपर्यन्त चलते चलो। तुम मुक्त हो जाओगे।' Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमं अज्झयणं : ग्यारहवां अध्ययन मग्गे : मार्ग संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. कयरे मग्गे अक्खाते माहणेण मतीमता?। जं मग्गं उज्जु पावित्ता ओहं तरति दुत्तरं॥ कतरो मार्गः आख्यातः, माहनेन मतिमता। यं मार्ग ऋजुं प्राप्य, ओघं तरति दुस्तरम् ॥ १. (जंबू ने पूछा) 'मतिमान् श्रमण' (भगवान् महावीर) ने कौन-सा मार्ग' बतलाया है, जिस ऋजु मार्ग को' पाकर मनुष्य दुस्तर प्रवाह को तर जाता है ?" २.तं मग्गं अणुत्तरं सुद्धं सव्वदुक्खविमोक्खणं । जाणासि णं जहा भिक्खू ! तं णे बूहि महामुणी!॥ २. उस अनुत्तर, शुद्ध और सर्व-दुख-विमोचक मार्ग को हे भिक्षु ! जैसे आप जानते हैं, हे महामुनि ! वैसे आप बतलाएं। तं मागं अनत्तरं शुद्धं, सर्वदुःखविमोक्षणम् । जानासि यथा भिक्षो!, तं नः ब्रूहि महामुने! ॥ यदि नः केचित् पृच्छेयुः, देवाः अथवा मानुषाः । तेषां तु कतरं मार्ग, आचक्षीमहि कथय नः ।। ३. यदि कुछ देव या मनुष्य" हमें पूछे, उन्हें कौन-सा मार्ग बतलाएं, आप हमें बताएं। ३. जइ णे केइ पुच्छेज्जा देवा अदुव माणुसा। तेसि तु कयरं मग्गं आइक्खेज्ज? कहाहि णो॥ ४. जइ वो केइ पुच्छेज्जा देवा अदुव माणुसा। तेसिमं पडिसाहेज्जा मग्गसारं सुणेह मे॥ यदि वः केचित् पृच्छेयुः, देवाः अथवा मानुषाः । तेषामिमं प्रति कथयेत्, मार्गसारं शृणुत मे॥ ४. (सुधर्मा ने कहा) कुछ देव या मनुष्य तुम्हें पूछे, उन्हें जो मार्ग-सार बताया जाए वह तुम मुझसे सुनो। ५. अणुपुव्वेण महाघोरं कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुव्वं समुदं ववहारिणो॥ अनुपूर्वेण काश्यपेन यमादाय महाघोरं, प्रवेदितम् । इतः पूर्वा व्यवहारिणः॥ ५. ६. काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा बतलाए हुए मार्ग को तुम मुझसे सुनो, जो क्रम से प्राप्त होता है", महाघोर है, जिसे प्राप्त कर इससे पूर्व" अनेक व्यक्ति (संसार-समुद्र को) तर गए, तर रहे हैं और तरेंगे जैसे व्यापारी समुद्र को। वह मार्ग अपनी श्रुति के अनुसार मैं तुम्हें बताऊंगा। समुद्र ६. अतरिसु तरंतेगे तरिस्संति अणागया। तं सोच्चा पडिवक्खामि जंतवो! तं सुणेह मे॥ अतारिषः तरन्त्येके, तरिष्यन्ति अनागताः । तं श्रुत्वा प्रतिवक्ष्यामि, जन्तवः! तं शृणत मे। ७. पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता तण रुक्खा सबीयगा। पृथ्वीजीवाः पृथक् सत्त्वाः , अब्जीवाः तथाग्निः । वायुजीवाः पृथक् सत्त्वाः, तणा रूक्षाः सबीजकाः॥ ७. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बीज पर्यन्त" तृण और वृक्ष-ये सब जीव पृथक् सत्व (स्वतंत्र अस्तित्व) वाले हैं। Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ अ० ११ : मार्ग : श्लोक ८-१६ ८. इनके अतिरिक्त त्रस जीव हैं । इस प्रकार छह जीवकाय बतलाए गए हैं। जीव-काय इतने ही हैं। इनसे अतिरिक्त कोई जीव-काय नहीं है।" सूयगडो। ८. अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया। इत्ताव एव जीवकाए णावरे विज्जती कए॥ ६. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं मइमं पडिलेहिया। सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सब्वे अहिंसया ॥ १०. एयं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचणं। अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया ॥ अथापरे त्रसाः प्राणाः, एवं षटकाया आहृताः । एतावान् एव जीवकाय:, नापरो विद्यते कायः॥ सर्वाभिरनुयुक्तिभिः, मतिमान् प्रतिलेख्य । सर्वे अकान्तदुःखाश्च, अतः सर्वे अहिंस्याः॥ एतद् खल ज्ञानिनः सारं, यत् न हिंसति कंचन । अहिंसां समतां चैव, एतावन्तं विजानीयात् ॥ ६. मतिमान् मनुष्य सभी अनुयुक्तियों" (सम्यक् हेतुओं) से जीवों की पर्यालोचना करे। सब जीवों को दुःख अप्रिय है" इसलिए किसी की भी हिंसा न करे । १०. ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । 'समता अहिंसा है"- इतना ही उसे जानना है। ११. उड्ढे अहे तिरियं च जे केइ तसथावरा। सव्वत्थ विरति कुज्जा संति णिव्वाणमाहियं ॥ ऊवं अधः तिर्यग च, ये केचित् प्रसस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात्, शान्तिनिर्वाणमाहृतम् ॥ ११. ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में जो कोई त्रस और स्थावर प्राणी हैं, सब अवस्थाओं में उनकी हिंसा से विरत रहे । (विरति ही शांति है और) शान्ति ही निर्वाण है। १२. पभू दोसे णिराकिच्चा ण विरुज्झज्ज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो॥ प्रभर्दोषान् निराकृत्य, न विरुध्येत केनचित् । मनसा वचसा चैव, कायेन चैव अन्तशः॥ १२. जितेन्द्रिय पुरुष" दोषों (क्रोध आदि) का निरा करण कर" मनसा, वाचा, कर्मणा आजीवन किसी के साथ विरोध न करे। १३. संवुडे से महापण्णे धीरे दत्तेसणं चरे। एसणासमिए णिच्चं वज्जयंते अणेसणं॥ संवतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तषणां चरेत् । एषणासमितो नित्यं, वर्जयन् अनेषणाम् ।। १३. संवृत, महाप्राज्ञ, धीर मुनि दत्त की एषणा करे। वह नित्य एषणा समिति से युक्त हो अनेषणीय का वर्जन करे। १४. भूयाइं समारंभ साधू उद्दिस्स जं कडं। तारिसं तु ण गेण्हेज्जा अण्णपाणं सुसंजए॥ भूतानि समारभ्य, साधून् उद्दिश्य यत्कृतम् । तादृशं तु न गृह्णीयात्, अन्नपानं सुसंयतः ।। १४. जीवों का समारंभ कर साधु के उद्देश्य से जो किया गया हो वैसे अन्न-पान को सुसंयमी मुनि ग्रहण न करे । १५. पूतिकम्मं ण सेवेज्जा एस धम्मे वसीमतो। जं किंचि अभिसंकेज्जा सव्वसो तं ण कप्पते ॥ प्रतिकर्म न सेवेत, एष धर्मः वृषीमतः । यत् किञ्चिद् अभिशंकेत, सर्वशस्तद् न कल्पते ।। १५. पूतिकर्म (अन्न-पान) का सेवन न करे । यह संयमी का धर्म है। जो कुछ (अन्न-पान अनेषणीय रूप में) शंकित हो, उसका सर्वथा उपभोग न करे। १६. ठाणाई संति सड्ढीण गामेसु णगरेसु वा। अस्थि वा णत्थि वा धम्मो? अत्थि धम्मो त्ति णो वते॥ स्थानानि सन्ति श्रद्धिनां, ग्रामेषु नगरेषु वा । अस्ति वा नास्ति वा धर्मः, अस्ति धर्म इति नो वदेत् ॥ १६. गावों या नगरों में श्रद्धालुओं के स्थान होते हैं । (वहां किसी श्रद्धालु के पूछने पर कि ब्राह्मण और भिक्षु को भोजन कराते हैं उसमें) धर्म है या नहीं ?, (इसके उत्तर में) धर्म है-यह न कहे। Jain Education Intemational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १७. अत्थि वा णत्थि वा पुष्णं ? अस्थि पुण्णं ति णो वए। अधवा णत्थि पुण्णं ति एवमेयं महन्मयं ॥ तसथावरा । १८. दाणट्टयाय जे पाणा हम्मंति तेसि सारखगडाए अत्थि पुण्णं ति णो वए ॥ १६. जेसि तं उवकपैति अण्णं पाणं तहाविहं । तेसि लाभंतरायं ति तम्हा गस्थि ति णो वए । २०. जे व दाणं पसंसंति वधमिच्छंति पाणिणं । जेवणं पडिसेहति वितिच्छेद करेति ते ॥ २१. दुहओ वि जेण भासंति अस्थि वा पत्थि वा पुणो । आर्य रयस्स हेच्या णं णिव्वाणं पाउणंति ते ॥ २२. णिवाण-परमा बुढा णक्खत्ताण व चंदमा । तम्हा सया जए दंते निव्वाणं संधए मुणी ॥ पाणाणं किच्चंताणं सकम्मणा । आघाति साधुतं दीवं पतिट्ठेसा पवुच्चई ॥ २३. बुग्भमाणा २४. आयते सपा दंते छिण्णसोए विरासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाति पपुष्णमणेलिस 11 २५. तमेव अविजाणता अबुद्धा बुद्धवादिणो । बुद्धा मो त्तिय मरणंता अंतर ते समाहिए ॥ ४६५ अस्ति वा नास्ति वा पुष्यं, अस्ति पुष्यं इति नो वदेत् । अथवा नास्ति पुण्यमिति, एवमेतद् महाभयम् ॥ दानार्थ हन्यन्ते प्राणाः, त्रसस्थावराः । संरक्षणार्थं, तेषां अस्ति पुण्यमिति नो वदेत् ॥ ये येषां तत् उपकल्पयन्ति, अन्नं पानं तथाविधम् । तेषां लाभान्तराय इति, तस्माद् नास्ति इति नो वदेत् ॥ ये च दानं प्रशंसन्ति, वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् । ये च प्रतिषेधन्ति, वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥ द्वे अपि ये न भाषन्ते, अस्ति वा नास्ति वा पुनः । आयं रजसो हित्वा निर्वाण प्राप्नुवन्ति ते ॥ निर्वाण-परमा बुद्धाः, नक्षत्राणामिव चन्द्रमाः । तस्मात् सदा यतो दान्तः, निर्वाणं संदध्यात् मनिः ॥ उद्यमानानां प्राणानां, कृत्यमानानां स्वकर्मणाम् । आख्याति साधुकं द्वीप, प्रतिष्ठेषा प्रोच्यते ॥ आत्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोताः निराश्रवः । यो धर्म मुखमाख्याति, प्रतिपूर्ण मनीवाम् 11 तमेव अभिजानन्तः, बुद्धवादिनः । अयुद्धाः बुद्धाः स्म इति च मन्यमानाः, अन्तके ते समाः ॥ अ० ११ मार्ग श्लोक १७-२५ : १७. 'पुण्य है या नहीं ? ( इस प्रश्न के उत्तर में ) पुण्य है - यह न कहे । अथवा पुण्य नहीं है (यह भी न कहे ।) क्योंकि ये दोनों महाभय ( दोष के हेतु ) हैं । १८. दान के लिए जो त्रस और स्थावर हैं, उनके संरक्षण के लिए 'पुष्प है' १६. जिनके लिए उस प्रकार का अन्न-पान बनाया जाता है, उन्हें उसकी प्राप्ति में विघ्न होता है, इसलिए 'पुण्य नहीं है' - यह न कहे । प्राणी मारे जाते यह न कहे। २०. जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं । जो उसका प्रतिषेध करते हैं वे उन ( अन्न-पान के अर्थियों) की वृत्ति का छेद करते हैं । २१. जो धर्म या पुण्य है या नहीं है कहते वे कर्म के आगमन का निरोध प्राप्त होते हैं । " वे दोनों नहीं कर निर्वाण को २२. तीर्थंकरों के निर्वाण परम होता है" जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा ।" इसलिए सदा संयत और जितेन्द्रिय मुनि निर्वाण का संधान करे।" २३. संसार के प्रवाह में बहते और अपने कर्मों से छिन्न होते हुए प्राणियों के लिए भगवान् ने कल्याणकारी" द्वीप ( या दीप) का प्रतिपादन किया है। इसे प्रतिष्ठा कहा जाता है । २४. सदा मन को संवृत करने वाला जितेन्द्रिय, हिंसा आदि के स्रोतों को छिन्न करने वाला अनाश्रव होकर" प्रतिपूर्ण और अनुपम धर्म का आख्यान करता है, २५. उस धर्म को नहीं जानते हुए कुछ अबुद्ध अपने को बुद्ध कहते हैं । अपने आपको बुद्ध मानने वाले वे समाधि से दूर हैं ।' ३६१ ३० Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो प्र० ११: मार्ग: श्लोक २६-३४ २६.ते य बीयोदगं चेव तमुहिस्सा य जं कडं। भोच्चा झाणं झियायंति अखेतण्णा असमाहिया ॥ २७. जहा ढंका य कंका य कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं झियायंति झाणं ते कलुसाधमं॥ २८. एवं तु समणा एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया। विसएसणं झियायंति कंका वा कलुसाधमा । २६. सुद्धं मग्गं विराहित्ता इहमेगे उ दुम्मती। उम्मग्गगया दुक्खं घातमेसंति तं तहा॥ ३०. जहा आसाविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागंतुं अंतरा य विसीदति ॥ ३१. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। सोतं कसिणमावण्णा आगंतारो महन्भयं ॥ ३२. इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं। तरे सोयं महाघोरं अत्तत्ताए परिव्वए॥ ३३. विरते गामधम्मेहि जे कई जगई जगा। तेसि अत्तुवमायाए थामं कुव्वं परिवए। ३४. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए। सव्वमेयं णिराकिच्चा णिव्वाणं संधए मुणी॥ ते च बीजोदकं चव, २६. वे" (सजीव) बीज (धान्य) और जल तथा अपने तमुद्दिश्य च यत् कृतम् । उद्देश्य से जो बनाया गया उसका सेवन करते हैं। भक्त्वा ध्यानं ध्यायन्ति, वे (गुद्ध ध्यान को) नहीं जानते। (उनका अध्यअक्षेत्रज्ञाः असमाहिताः ॥ वसाय मनोज्ञ भोजन आदि में लगा रहने के कारण) वे असमाहित चित्त वाले होते हैं। फिर भी वे ध्यान लगाते हैं। यथा ध्वांक्षाश्च कंकाश्च, २७. जैसे ढंक, कंक", कुरर, मद्गु (जल कौवा) और कुररा मद्गकाः शिखिनः । शिखी मछली की खोज में ध्यान करते हैं। वैसे ही मत्स्यैषणां ध्यायन्ति, वे कलुष और अधम ध्यान करते हैं । ध्यानं ते कलुषाधमम् ।। एवं तु श्रमणाः एके, २८. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण विषय मिथ्यादृष्टयः अनायोः । की एषणा में ध्यान करते हैं जैसे कलुष और अधम विषयषणां ध्यायन्ति, कंक (मछली की खोज में ध्यान करते हैं ।) कंका इव कलुषाधमाः ।। शुद्धं मार्ग विराध्य, २६. यहां कुछ दुर्मति शुद्ध मार्ग की विराधना कर उन्मार्ग इह एके तु दुर्मतयः । में प्रवृत्त हो दुःख और मृत्यु की कामना करते हैं । उन्मार्गगता दुःखं, घातमेषयन्ति तत् तथा ॥ यथा आस्राविणी नावं, ३० जैसे जन्मान्ध व्यक्ति" सच्छिद्र नौका में चढ़कर पार जात्यन्धः आरुह्य । पाना चाहता है किन्तु वह बीच में ही डूब जाता इच्छति पारमागन्तुं, अन्तरा च विषीदति ॥ एवं तु श्रमणाः एके, ३१. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संपूर्ण मिथ्यावृष्टयः अनार्याः । स्रोत (आस्रव) में पड़कर महाभय को प्राप्त होते स्रोतः कृत्स्नमापन्नाः, आगन्तारो महाभयम् ।। इमं च धर्म आदाय, ३२. मुनि काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा निरूपित काश्यपेन प्रवेदितम् । इस धर्म को स्वीकार कर महाघोर स्रोत को तर तरेत् स्रोतो महाघोरं, जाए और आत्मदृष्टि से परिव्रजन करे । आत्मतया परिव्रजेत् ॥ विरतो ग्राम्यधर्मेभ्यः. ३३. वह ग्राम्य-धर्मों (शब्द आदि विषयों) से विरत ये केचित जगत्यां 'जगा' । हो, जगत् में जो कोई जीव हैं," उन्हें अपनी आत्मा तेषां आत्मोपमया, के समान जानकर, (संयम में) पराक्रम करता हुआ स्थाम कुर्वन् परिव्रजेत् ।। परिव्रजन करे। अतिमानं च मायां च, तं परिज्ञाय पंडितः । सर्वमेतद् निराकृत्य, निर्वाणं संदध्यात मनिः॥ ३४. पंडित मुनि अतिमान और अतिमाया को जाने और उन सबका निराकरण कर निर्वाण का संधान करे।" Jain Education Intemational Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३५. संधए साहुधम्मं च पावधम्मं णिराकरे । उपधाणवीरिए भिक्खू कोहं माणं ण पत्थए । ३६. जे य बुद्धा अतिक्कंता जे य बुद्धा अणागया । संती तेसि पड्डाणं भूयाणं जगई जहा ॥ ३७. अह णं वतमावण्णं फासा उच्चावया फुसे । ण तेहि विणिज्जा वातेण व महागिरी ॥ ३८. संबुडे से महापणे धीरे दत्तेसणं चरे । गिस्य डे कालमार्कले एवं केवलिणो मतं ॥ - ति बेमि ॥ ૪૬. संदध्यात् साधुधर्म च पापधर्मं निराकुर्यात | उपधानवीर्यः भिक्षु, क्रोधं मानं न प्रार्थयेत् ॥ ये च बुद्धाः अतिक्रान्ताः, ये च बुद्धाः अनागताः । शान्तिस्तेषां प्रतिष्ठान, भूतानां जगती यथा ।। अथ तं व्रतमापन्नं, स्पर्शा उच्चावचाः स्पृशेयुः । न वातेनेव विनिहन्येत, महागिरिः ।। संवृतः स महाप्राज्ञः, धीरो दत्तंषणां चरेत् । निवृतः कालमाकांक्षेत् एवं केवलिनो मतम् ॥ - इति ब्रवीमि ॥ अ० ११ : मार्ग : श्लोक ३५-३८ ४८ ३५. तप में पराक्रम करने वाला भिक्षु साधु-धर्म का संधान" और पाप-धर्म का निराकरण करे । क्रोध और मान की इच्छा न करे । ३६. जो" बुद्ध (तीर्थंकर) हो उन सबका आधार है पृथ्वी । १३ चुके हैं और जो बुद्ध होंगे, शान्ति, जैसे जीवों का ३७. व्रत पर आरूढ पुरुष को उच्चावच स्पर्श (कष्ट) घेर लेते हैं । वह उनसे हृत प्रहत न हो जैसे वायु से महापर्वत । ३८. संवृत, महाप्राज्ञ, धीर मुनि दत्त की एषणा करे । वह शान्त रहता हुआ काल की आकांक्षा ( प्रतीक्षा ) १५ करे" - यह केवली का मत है । " — मैं ऐसा कहता हूं । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ११ श्लोक १: १. श्रमण भगवान् महावीर (माहणेण) यहां चूर्णिकार ने माहण और श्रमण शब्द को एकार्थक माना है और 'माण' शब्द से भगवान् महावीर का ग्रहण किया वृत्तिकार ने इसका अर्थ तीर्थंकर किया है।' २. कौन सा (कयरे) जंबू स्वामी सुधर्मा स्वामी से कुछ प्रश्न करते हैं। प्रथम तीन श्लोकों में प्रश्न हैं । चौथे श्लोक से उत्तर प्रस्तुत किए गए हैं। ३. मार्ग (मग्ग) भगवान् महावीर ने अपनी साधना-पद्धति को 'मार्ग' नाम से अभिहित किया है। आचारांग में छह स्थलों में 'मार्ग' शब्द का उल्लेख मिलता है १. एस मग्गे आरिएहिं पवेइए......२।४७, २।११६, ५।२२ २. दुरणुचरो मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं ४।४२ ३. .....'णत्थि मग्गे विरयस्स त्ति बेमि ५।३० ४. से किट्टति तेसि समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं......६।३ इनमें एक स्थल पर 'मुक्तिमार्ग' का और शेष सब स्थलों पर केवल 'मार्ग' का प्रयोग है। प्रस्तुत मागम में भी इसका अनेक स्थलों पर प्रयोग मिलता है। १. वेयालियमग्गमागतो......१।२।२२ २. जे तत्थ आरियं मग्गं १।३।६६ आचार्य उमास्वाति ने इसी आधार पर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'-इस सूत्र की रचना की। यह सूत्र मोक्ष मार्ग की परिभाषा करने वाला सूत्र है। उत्तराध्ययन (२८१२) में भी मार्ग की परिभाषा मिलती है। वहां ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्षमार्ग बतलाया है 'नाणं च सणं चेव, चारित्तं च तवो तहा। एस मग्गो ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ प्रस्तुत श्लोक में 'मार्ग' का प्रयोग 'मोक्ष मार्ग' के अर्थ में हुआ है । प्रश्नकर्ता ने उस मार्ग की जिज्ञासा की है जो सरल, उस पार ले जाने वाला, अनुत्तर, शुद्ध और सब दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला हो। १. चूणि, पृ० १९५ : (माहणे त्ति वा) समणे त्ति वा एगळं, भगवानेवापदिश्यते । २. वृति, पत्र २०० : माहनः-तीर्थकृत् । ३. वृत्ति, पत्र २०० : विचित्रत्वात्रिकालविषयत्वाच्च सूत्रस्यागामुकं प्रच्छकमाश्रित्य सूत्रमिदं प्रवृत्तम्, अतो जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिन मिदमाह। Jain Education Intemational Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६४ अध्ययन ११: टिप्पण ४-७ ४. ऋजु मार्ग को (मग्गं उज्जु) वृत्तिकार ने ऋजुमार्ग के अनेक अर्थ किए हैं-' १. मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रशस्त भावमार्ग । २. वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करने के कारण मोक्ष-प्राप्ति का अवक्र मार्ग-सरल मार्ग । ३. स्याद्वाद के आधार पर कथन करने के कारण सरल मार्ग । ४. ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप मार्ग । ५. दुस्तर प्रवाह को तर जाता है (ओहं तरति दुत्तरं) ओघ का अर्थ है-प्रवाह, संसार रूपी समुद्र । वृत्तिकार का अभिमत है कि संसार समुद्र को तर जाना कठिन नहीं है किन्तु तरने की समग्र सामग्री को प्राप्त करना कठिन है। उस सामग्री के उल्लेख में उन्होंने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य है कि लोक में मनुष्य क्षेत्र, उत्तम जाति आदि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। चूर्णिकार ने ओघ के दो प्रकार किए हैं१. द्रव्य ओघ-समुद्र । २. भाव ओघ-संसार ।' श्लोक २: ६. शुद्ध (सुद्धं) चूर्णिकार ने शुद्ध के दो अर्थ किए हैं१. अकेला-वह (मार्ग) जो किसी के द्वारा उपहत नहीं है। २. पूर्वापर को खंडित करने वाले या बाधित करने वाले दोषों से रहित । वृत्तिकार ने मोक्षमार्ग को शुद्ध मानने के तीन कारण प्रस्तुत किए हैं१. वह निर्दोष है। २. वह परस्पर विरुद्ध कथनों से रहित है। ३. वह पापकारी अनुष्ठानों का कथन नहीं करता। श्लोक ३: ७. देव या मनुष्य (देवा अदुव माणुसा) प्रायः देवता और मनुष्य ही जिज्ञासा करने या प्रश्न पूछने में समर्थ होते हैं, अत: यहां इन दो का ही ग्रहण किया १वृत्ति, पत्र २००, २०१ : यं प्रशस्तं भावमार्ग मोक्षगमनं प्रति 'ऋजु'–प्रगुणं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावळं सामान्य विशेषनित्यानित्यादिस्याद्वादसमाश्रयणात् । २. वृत्ति, पत्र २०१ : 'ओघ' मिति भवौघ-संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तर, तदुत्तरणसामग्र्या एव दुष्प्रापत्वात् । ३. वृत्ति, पत्र २०१ : में उद्धृत आवश्यकनियुक्ति गाथा ८३१ । ४. चूर्णि, पृ० १६५ : ओधो द्रव्योधः समुद्रः भावे संसारौघं तरति । ५. चूणि, पृ० १९५: शुद्ध इति एक एव, निरुपहतत्वाच्चवम्, अथवा पूर्वापरव्याहतबाध्यदोषापगमात् शुद्धः । ६. वृत्ति, पत्र २०१ : शुद्धः अवदातो निर्दोषः पूर्वापरव्याहतिदोषापगमात् सावद्यानुष्ठानोपदेशाभावाद वा । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४७० अध्ययन ११ : टिप्पण -१० गया है। चूर्णिकार की व्याख्या के अनुसार उनका अभिमत पाठ इस प्रकार होगा-'देवा तिरिय माणुसा'। इसकी व्याख्या में चूणिकार कहते हैं-चार प्रकार के देव तथा मनुष्य प्रश्न पूछने में सक्षम होते हैं। उत्तरलब्धि (अजित शक्ति) की अपेक्षा से तिर्यञ्च भी जिज्ञासा कर सकते हैं, वाणी से पूछ सकते हैं।' श्लोक ४: ८. मार्गसार (मग्गसार) इसका अर्थ है-सभी मार्गों में सारभूत मार्ग । सुधर्मा जंबू से कहते हैं कि भगवान् महावीर के मार्ग का जो सार-हार्द है वह मैं तुम्हे बताऊंगा । भगवान् का मार्ग षड्जीवनिकाय का प्रतिपादन करता है और उसकी अहिंसा का उपदेश देता है। किसी भी जीव को न मारना यही मार्गसार है, भगवान् के मार्ग का हार्द है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मार्गों का सार अथवा मार्ग ही है सार जिसका-ऐसा किया है।' श्लोक ५: ६. काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा (कासवेण) देखें-दसवेआलियं ४।सूत्र १ का टिप्पण । १०. जो क्रम से प्राप्त होता है (अणुपुष्वेण) इसका आशय है कि भगवान् महावीर द्वारा कथित मार्ग क्रमशः प्राप्त होता है। प्राप्ति-क्रम के निर्देश में चूणिकार और वृत्तिकार ने अनेक श्लोकों को उद्धृत किया है।' 'माणुसखेत्तजाईकुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी। सवणोग्गहसद्धा संजमो य लोगंमि दुल्लहाई ॥ -मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमजाति, उत्तमकुल, सुरूपता, स्वास्थ्य, दीर्घ-आयुष्य, सद्बुद्धि, धर्मश्र ति, धारणा, श्रद्धा और चारित्र-ये क्रमशः प्राप्त होते हैं। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।' चार बातें दुर्लभ हैं-मनुष्यभव, धर्मश्रुति, श्रद्धा और धर्माचरण । १. वृत्ति, पत्र २०१ : 'देवा'-चतुनिकायाः तथा मनुष्याः-प्रतीताः, बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावात्तदुपादानम् । २. चूणि, पृ० १६५ : देवाश्चतुष्प्रकाराः एते पृच्छाक्षमा भवन्ति, तिरिया मणुस्सा (? मणुस्सा तिरिया वा), उत्तरगुणद्धि वा पडुच्च ___तियं (? तिरियं) अपि कश्चिद् गिरा वत्ति । ३. वृत्ति, पत्र २०१ : एवं पृष्टं सुधर्मस्वाम्याह..........''षड्जीवनिकायप्रतिपादनगर्भ तद्रक्षाप्रवणं मार्ग 'पडिसाहिज्जे' त्ति-प्रति ___ कथयेत्, 'मार्गसारम्'-मार्गपरमार्थम् । ४. चूणि, पृ० १९६ : मार्गाणां सारः मार्ग एव वा सारः मार्गसारः । ५. (क) चूर्णि, पृ० १६६ । (ख) वृत्ति, पत्र २०१। ६. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ८३१ । ७. उत्तराध्ययन, ३॥१॥ Jain Education Intemational Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४७१ अनन्तानुबंधी काय के उदय से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता । 33 33 " 11 अप्रत्याख्यान देशविरति होती । प्रत्याख्यान संज्वलन 23 १२. बीज पर्यन्त (सबीयगा ) 23 " चारित्र लाभ नहीं होता । 13 यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती । ११. इससे पूर्व (इओ पुव्वं ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'इस तीर्थ से पहले या आज से पूर्व किया है।' वृत्तिकार का अर्थ भिन्न है । उनके अनुसार इसका अर्थ है सन्मार्ग मिल जाने के कारण प्रारम्भ से ही । " श्लोक ७: इसका अर्थ है-बीज पर्यन्त दशकालिक (४) मूत्र ) में भी यह शब्द प्रयुक्त है। इसके पूर्णिकार अगस्त्यसिह स्थविर तथा जिनदास महत्तर ने इस शब्द के द्वारा वनस्पति के दश भेदों का ग्रहण किया है।' वनस्पति के दश भेद ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अन्तिम परिणति बीज में होती है । प्रस्तुत श्लोक के 'सबीयगा' शब्द की किया है।" टीका करते हुए टीकाकार शीलांकसूरी ने इस शब्द के द्वारा केवल अनाज का ग्रहण १३. पृथक् सत्त्व (स्वतंत्र अस्तित्व) वाले ( पुढो सत्ता ) जिनमें पृथक्-पृथक् सत्त्व -- आत्मा हो उन्हें पृथक्सत्त्व कहा जाता है। प्रत्येक आत्मा का अस्तित्व स्वतन्त्र होता है । कोई किसी से उत्पन्न नहीं होता । पृथक्सत्त्व के द्वारा इस सत्य की घोषणा की गई है । 'पुढो सत्ता' पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और तृण-वृक्ष आदि सभी का विशेषण है । अध्ययन ११ टिप्पण ११-१३ पूर्णिकार ने इसका अर्थ प्रत्येकशरीरी किया है।' वृत्तिकार ने पूर्ण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा हैनस्पति के जीव प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी - दोनों प्रकार के होते हैं । इसलिए साधारणशरीर की दृष्टि से वनस्पति को अपृथक् सत्त्व भी कहा जा सकता है ।" दशवेकालिक की चूर्णि और हारिभद्रीया वृत्ति में पृथक्सत्त्व का अर्थ स्वतन्त्र अस्तित्त्व किया गया है।" वह अर्थ उचित प्रतीत होता है। सत्त्व का अर्थ शरीर नहीं, अस्तित्व या आत्मा है। इसलिए उसका प्रत्येक शरीरी अर्थ प्रकरणानुसारी नहीं लगता । देखें --- दसवेआलियं ४ । सूत्र ४ का टिप्पण | १. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०८ ११० । २. चूर्णि, पृ० १९६ : इत इति इतस्तीर्थादर्थं (? र्थात् पूर्व) अद्यतनाद्वा दिवसादिति । ३.वृत्ति २०२ 'इ' इति सम्मानपादानात् पूर्वम्' आदावेवाि ४. (क) शकालिक अगस्त्यपूर्ण १०७२, (ख) वही, जिनवासपूर्ण पृ० १३० १६० ५. वृत्ति पत्र २०२ सह बीजे: शालियोधूमादिभिर्तत इति बीजकाः । ६. णि, पृ० १६६ : पृथक् पृथग् इति प्रत्येकशरीरश्वात । ७. वृत्ति पत्र २०२ वक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरखेनावृपार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथकत्वमिति । 4. (क) शर्वकालिक ४ सूत्र ४, जिनदास पूणि, पृ० १३६ बुझे सत्ता नाम विक्मोदए सिलेसे बढ़िया बट्टी हिहिं चवत्थियत्ति वृत्तं भवइ । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति पत्र १३८ : अंगुला संख्येयमागमात्रावगाह्नया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १४. श्लोक ७,८ पजीवनिकायवाद भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है यह सिद्धांत भगवान् महावीर से पूर्व किसी अन्य दार्शनिक द्वारा प्रतिपादित है, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता भगवान् महावीर स्वयं कहते हैं आर्यो! मैंने श्रमण-निर्ग्रथों के लिए छह जीवनिकायों - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकायकिया है।" का निरूपण प्रस्तुत प्रकरण में मार्ग का सार बतलाया है- अहिंसा । उसका आधार है- षड्जीवनिकायवाद । इसलिए षड्जीवनिकाय को जाने बिना अहिंसा को नहीं जाना जा सकता और अहिंसा को जाने बिना मोक्ष मार्ग को नहीं जाना जा सकता । भगवान् महावीर के समय में चतुर्भूतवाद और पंचभूतवाद का उल्लेख मिलता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु-ये चार महाभूत हैं। पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और आकाश - ये पांच महाभूत हैं । अजित केशकंबल आत्मा को चार महाभूतों से उत्पन्न मानता था और आकाश भी उसके दर्शन में सम्मत था । इस प्रकार उसका दर्शन पंचभूतवादी था। इस पंचभूतवाद का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अध्ययन में मिलता है ।' ४७२ इलोक ७८ : प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु का धातु के रूप में उल्लेख मिलता है। ये भूत अचेतन माने जाते थे और इनसे चेतना की उत्पत्ति मानी जाती थी किन्तु भगवान् महावीर ने इन भूतों का जीवत्व स्थापित किया। उन्होंने बतलायापृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस - ये सब जीव हैं। जितने प्रकार के जीव हैं, वे सब इन छह जीवनिकायों में समाविष्ट हो जाते हैं । इनसे भिन्न कोई जीव नहीं है । षड्जीवनिकाय का वर्गीकरण तीन रूपों में मिलता है १. पहला वर्गीकरण - पृथ्वी अप् अग्नि दूसरा वर्गीकरण - पृथ्वी अप् अग्नि] वायु वायु तृण-वृक्ष और बीज । त्रस - प्राण - अंडज, जरायुज, संस्वेदज, रसज । तृण-वृक्ष और बीज अंडज, पोत, जरा, रस, संस्वेद, उद्भिज अध्ययन ११ टिप्पण १४ १. ठाणं ६२ : से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं छरजोमणिकाया पण्णत्ता, तं जहा- पुढविकाइया, आउकाडया, तेजकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया । २. दीघनिकाय पृ० ४८ । ३. सूयगडो १1१1७,८ । ४. सूयगडो १।१।१८ : पुढवी आऊ तेऊ य तहा वाऊ य एगओ । चतारि धाउणो रूवं एवमाहंसु जाणगा ॥ ५. सुगडी १७११। ६. सूयगडो, १६८, ६ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४७३ अध्ययन ११ : टिप्पण १५ तीसरा वर्गीकरण' पृथ्वी अप् अग्नि वायु तृण-वृक्ष और बीज त्रस-प्राण तीनों वर्गीकरणों में प्रथम चार मूल नाम हैं। इनमें वनस्पति का उल्लेख नहीं है, उसके प्रकार निर्दिष्ट हैं। प्रथम दो वर्गीकरणों में त्रस का उल्लेख नहीं है, उसके प्रकार निर्दिष्ट हैं। तीसरे वर्गीकरण में बस का उल्लेख है, उसके प्रकार उल्लिखित नहीं हैं। प्रथम वर्गीकरण में बस के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं और दूसरे वर्गीकरण में त्रस के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं। इसमें 'पोत' और 'उद्भिज्ज' ये दो अधिक हैं । त्रस के तीनों वर्गीकरणों में सम्मूच्छिम और औपपातिक का उल्लेख नहीं है । आचारांग (१।११८) में ये दोनों मिलते हैं-'से बेमि- संतिमे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओववाइया' । आचारांग में उपपात का प्रयोग सामान्य जन्म के अर्थ में भी मिलता है-उववायं चवणं णच्चा (३।४५), किन्तु वहां (१११८) औपपातिक का प्रयोग सामान्य जन्म के अर्थ में नहीं है। उक्त वर्गीकरणों के आधार पर क्रम-विकास का अध्ययन नहीं किया जा सकता। ये सब प्रकरण-सापेक्ष और छंद-सापेक्ष हैं । आचारांग के गद्य (१।११८) में बस के आठ प्रकार उल्लिखित हैं और जहां पद्य में छह काय का निरूपण है वहां केवल 'तसकायं च सव्वसो' (६।१२) इतना उल्लेख मात्र है। श्लोक ६ : १५. अनुयुक्तियों (सम्यक् हेतुओं) से (अणुजुत्तीहिं) अनुयुक्ति का अर्थ है-अनुरूप युक्ति अर्थात् सम्यक् हेतु ।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अनुकूल साधन, युक्तिसंगत युक्ति ।' प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि मतिमान् पुरुष छह जीवनिकायों के जीवत्व की संसिद्धि उनके अनुकूल युक्तियों से करे । सभी जीवों की संसिद्धि एक ही हेतु से नहीं हो सकती। उनके लिए भिन्न-भिन्न युक्तियां होती हैं। विशेषावश्यक भाष्य गाथा १७५३-१७५८ की स्वोपज्ञवृत्ति में इन युक्तियों का सुन्दर समावेश है।' वृत्तिकार ने इन युक्तियों का संक्षिप्त विवरण दिया है १. पृथ्वी सजीव है, क्योंकि पृथ्वी रूप प्रवाल, नमक, पत्थर आदि पदार्थ अपने समान जातीय अंकुर को उत्पन्न करते हैं, जैसे अर्श का विकार अंकुर । २. पानी सजीव है, क्योंकि भूमि को खोदने पर वह स्वाभाविक रूप से उपलब्ध होता है, जैसे दर्दुर । अन्तरिक्ष से स्वाभाविक रूप से गिरता है, जैसे कि मत्स्य । ३. अग्नि सजीव है क्योंकि अनुकूल आहार (ईंधन) की वृद्धि से वह बढ़ती है, जैसे बालक आहार मिलने पर बढ़ता है। ४. वायु सजीव है क्योंकि बिना किसी की प्रेरणा के वह नियमत: तिरछी गति करता है, जैसे गाय । ५. वनस्पति सजीव है, क्योंकि उसमें उत्पत्ति, विनाश, रोग, वृद्धत्व आदि होते हैं । वह रुग्ण होती है और चिकित्सा से १. सूयगडो, १११११७,८। २. चूणि, पृ० १६७ : अनुरूपा युक्तिः अनुयुक्तिः । ३. वृत्ति, पत्र २०३ : अनुरूपा-पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनस्वेनानुकला युक्तयः----साधनानि, यदि वा.......... 'युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः । ४. चूणि, पृ० १६७ । ५. वृत्ति, पत्र २०३। Jain Education Intemational Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४७४ अध्ययन ११ : टिप्पण १६-१६ बह स्वस्थ होती है। उसके व्रण भरते हैं। उसमें आहार की इच्छा होती है, दोहद भी होता है। कुछ वनस्पतियां स्पर्श से संकुचित होती हैं, कुछ रात में सोती हैं और दिन में जागती हैं, कुछ दूसरे के आश्रय से उपसर्पण करती हैं। १६. जीवों को दुःख अप्रिय है (अकंतदुक्खा) अकन्त का अर्थ है-अकान्त-अप्रिय, अनिष्ट । शारीरिक और मानसिक दुःख सबको अकान्त है, इसलिए सब प्राणी अहिंस्य हैं । अहिंसा का आधार है-जीव । त्रस जीव में गति होती है, इसलिए उसकी पहचान हमारे लिए स्पष्ट है। दूसरे जीवों की पहचान बस में प्राप्त लक्षणों के आधार पर की जाती है। अहिंसा का दूसरा आधार है कि कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता। श्लोक १०: १७. समता अहिंसा है (अहिंसा समयं) प्रस्तुत श्लोक १।११८५ में आया हुआ है। इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार का मतभेद है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है अहिंसा ही समता है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है । अथवा मुझे पीडित करने से मुझे दुःख होता है वैसे ही दूसरे जीवों को पीडित करने से उन्हें दुःख होता है। इसलिए अहिंसा समता है या समता ही अहिंसा है। वृत्तिकार ने 'समय' का अर्थ आगम किया है। उनके अनुसार 'अहिंसा-समयं' का अर्थ है--अहिंसा प्रधान आगम अथवा उपदेश । यह अर्थ मूलस्पर्शी नहीं लगता ।' वस्तुत: प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि पढ़ने का सार है-हिंसा से निवृत्त होना । सबके साथ समान बर्ताव करना यही समता है, यही अहिंसा है। श्लोक ११: वति १८. श्लोक ११: यह श्लोक १/३/८०, १/८/१६ में आ चुका है। टिप्पण के लिए देखें-१/३/८० । श्लोक १२: १६. जितेन्द्रिय पुरुष (पभू) चूर्णिकार ने प्रभु के तीन अर्थ किए हैं-- १. चूणि, पृ० १९७ : सारीरं माणसं वा सव्वेसि अणिठें अकंतं अपियं दुक्खं, अत इत्यस्मात् कारणाद् नवकेन भेदेन अहिंसणीया अहिंसकाः। २. चूर्णि, पृ० १९८ : अहिंसा समयं ति, समता 'जध मम ण पियं दुक्खं' गाधा अथवा यथा हिसितस्य दुःखमुत्पद्यते मम, एवमभ्या ख्यातस्यापि चोरियातो वाऽस्य, दुःखमुत्पद्यते, एवमन्येषामपि इत्यतो अहिंसासमयं चेव । ३. वत्ति, पत्र २०३ : तदेवहिंसाप्रधान: 'समय-आगमः संकेतो बोपदेशरूपः। ४. चूणि, पृ० १९८ : पभवतीति प्रभुः, वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, न वा संयमावरणानां कर्मणां वशे वर्तते । अथवा स्वतन्त्रत्वाद् जीव एवं प्रभुः, शरीरं हि परतन्त्रम्, मोक्षमार्ग वाऽनुपला (? पाल) यितव्ये प्रभुः । Jain Education Intemational Education International Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयगडो १ ४७५ १. जितेन्द्रिय । २. आत्मा । ३. मोक्ष मार्ग (ज्ञान-दर्शन- चारित्र) की अनुपालना में समर्थ । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'-- १. जितेन्द्रिय । २. संयम के आवारक कर्मों को तोड़कर मोक्ष मार्ग का पालन करने में समर्थ । २०. दोषों ( क्रोध आदि) का ( दोसे) चूर्णिकार ने क्रोध आदि को दोष माना है और वृत्तिकार ने पांच आस्रव द्वारों - मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को दोष माना है।' प्रकरण के अनुसार 'दोष' का अर्थ द्वेष प्रतीत होता है । मनुष्य द्वेष के कारण दूसरों के साथ विरोध करता है । इसीलिए बतलाया गया है कि द्वेष का निराकरण कर किसी के साथ विरोध न करे । २१. निराकरण कर (निराकिन्या) अध्ययन ११ टिप्पण २०-२४ चूर्णिकार ने 'णिरे किच्चा' पाठ की व्याख्या की है। 'णिरे' अव्यय है । इसका अर्थ है- पीठ पीछे ।" श्लोक १३ : २२. संवृत (संवडे) संवृत का अर्थ है - प्राणातिपात आदि आस्रवों को रोकने वाला अथवा इन्द्रिय और मन का संवरण करने वाला ।" २३. एषणा समिति से युक्त (एसणासमिए) एसणा के तीन प्रकार हैं १ गवेषणा - भिक्षा की खोज में निकलकर मुनि आहार के कल्प्य अकल्प्य के निर्णय के लिए जिन नियमों का पालन करता है अथवा जिन दोषों से बचता है उसे गवेषणा कहते हैं । २. ग्रहणैषणा - आहार को ग्रहण करते समय जिन नियमों का पालन करना होता है, उसे ग्रहणषणा कहते हैं । ३. प्रासंषणा या परिभोगंषणा प्राप्त आहार को खाते समय जिन नियमों का पालन किया जाता है, वह है ग्रासपणा या परिभोगषणा । श्लोक १४ : २४. जीवों का (नुयाई) भूत का अर्थ है- प्राणी जो प्राणी अतीत में वे वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, वे भूत कहलाते हैं-यह टीकाकार का अभिमत है । " १. वृत्ति, पत्र २०४ : इन्द्रियाणां प्रभवतीति प्रभुर्वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, यदि वा संयमावारकाणि कर्माण्यभिभूय मोक्षमार्गे पालयितव्ये प्रभुः —समर्थः । २. णि, पृ० १६८ : दोषाः क्रोधादयः । ३. वृत्ति पत्र २०४ दूषयन्तोति दोषामिच्यात्याविरतिप्रमादकषाययोगास्तान् । ४. चूर्ण, पृ० ११८ : निरे इति पृष्ठतः कृत्वा । ५. णि. पृ० ११८ हिसाद्याचयसंयुतः इंडिय-गोदियाबुद्ध था। ६. वृत्ति, पत्र २०४ : अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि भूतानि - प्राणिनः । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २५. पूतिकर्म (अन्न पान) का ( पूतिकम् ) २६. संयमी का (सीमतो ) ४७६ श्लोक १५: इसका अर्थ है --आधाकर्मी आहार से मिश्रित भोजन यह उद्गम का तीसरा दोष है । देखें इसलिये ५/५५ का टिप्पण, पृ० २३६ । देखें - ८ / २० का टिप्पण | २७. सर्वथा (सव्वसो) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-प्राण निकलते हों तो भी किया है । वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- सभी प्रकार का (आहार, उपकरण आदि) ।' अध्ययन ११ टिप्पण २५-२६ श्लोक १६-२१ : २८. श्लोक १६-२१: प्रश्न करने वाला स्वतंत्र होता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रश्न पूछ सकता है, किन्तु उत्तर देने वाले को बुद्धि और विवेक- दोनों का संतुलन रखना होता है। कोरा बौद्धिक उत्तर हिंसा का निमित्त बन सकता है और अन्य समस्याएं भी उत्पन्न कर सकता है, इसलिए उत्तरदाता को विवेक से काम लेना होता है । अनेक प्रकार के लोग होते हैं। कुछ श्रद्धालु होते हैं, कुछ श्रद्धालु नहीं होते । कुछ श्रद्धालु लोग दानरुचि वाले होते हैं। वे दान देने में श्रद्धा रखते हैं । वे साधु से पूछते हैं - हम लोग ब्राह्मण या भिक्षु का तर्पण करते हैं। उसमें धर्म होता है या पुण्य होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में मुनि 'हां' या 'ना' न कहे - यह सूत्रकार का निर्देश है । इसका कारण सूत्र में स्पष्ट है । चूर्णिकार ने - 'पुण्य होता है, ऐसा न कहे- इसके कुछ कारण बतलाए हैं । उनके अनुसार ऐसा कहने से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है । उस आहार से पुष्ट होकर भिक्षुक असंयम करते हैं, उसका अनुमोदन होता है । * 'पुण्य नहीं होता' - ऐसा इसलिए नहीं कहना चाहिए कि जिन्हें दिया जा रहा है उसके अन्तराय होता है । चूर्णिकार ने बताया है कि मुनि ऐसे प्रसंग में मौन रहे। यदि प्रश्नकर्त्ता बहुत आग्रह करे तो बताए कि हम आधाकर्म आदि बयालीस दोष रहित पिंड को प्रशस्त मानते हैं । * इसका तात्पर्य यह है कि जहां वर्तमान में दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता, इस प्रकार का प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए। यह उसका वाणी का विवेक है । श्लोक २२ : २४. तीर्थकरों के निर्वाण परम होता है (णियाण परमा बुढा) चूर्णिकार ने बुद्ध का अर्थ अर्हत् किया है। उनके शिष्य बुद्ध-बोधित कहलाते हैं। वे निर्वाण को परम या प्रधान मानते हैं । वेदना को शान्त करने के जितने सांसारिक प्रतिकार हैं वे निर्वाण के अनन्तवें भाग तक भी नहीं पहुंच पाते, इसलिए निर्वाण को परम १. चूणि, पृ० १६९ : सर्वश इति यद्यपि प्राणात्ययः स्यात् । २. वृत्ति, पत्र २०४ : सर्वशः सर्वप्रकारम् । ३. चूर्णि, पृ० १९६ : अस्थि पुण्णं ति णो वदे, मिच्छत्तथिरीकरणं, जं च तेणाऽऽहारेण परिबूढा करेस्संति असंयमं, अप्पाणं परं च बहूहि भावेति तदनुज्ञातं भवति । ४. पुर्णि, पृ० १११ तुतिणीहि अति निबंध वाचोति अहं आधाकम्मा दिवातालीस दोसपरिशुद्ध पडो पसायो । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४७७ अध्ययन ११: टिप्पण ३०-३४ माना गया है।' अर्हत की दृष्टि में वेदना के अन्य सब उपचार अस्थायी हैं । उसका स्थायी उपचार निर्वाण है। इसकी पुष्टि वीरस्तुति के उस सूक्त से होती है 'निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं।' ३०. जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा (णक्खत्ताण व चंवमा) ___ग्रह, नक्षत्र और ताराओं की कान्ति, सौम्यभाव, प्रमाण और प्रकाश की दृष्टि से चंद्रमा उनसे प्रधान होता है। इसी प्रकार सांसारिक सुखों से निर्वाण सुख परम है, अधिक है।' ३१. संधान करे (संधए) संधान दो प्रकार का होता है-छिन्न-संधान और अछिन्न-संधान । जो बीच में टूट जाता है वह छिन्न-संधान होता है। चूर्णिकार ने बतलाया है कि साधक निर्वाण के मार्ग को स्वीकार कर अछिन्न-संधान के द्वारा उसका संधान करे।' श्लोक २३ : ३२. कल्याणकारी (साधुतं) मूल शब्द 'साधुकं' है। तकार की अनुश्र ति के अनुसार 'क' के स्थान पर 'त' हुआ है। इसका अर्थ है-कल्याणकारी। ३३. द्वीप (या दीप) का (दीवं) इसके दो अर्थ हैं- द्वीप और दीप । यहां द्वीप का अर्थ ही विवक्षित है।' जैसे समुद्र में गिरा हुआ प्राणी लहरों के थपेड़ों से आकुल-व्याकुल होकर मरणासन्न हो जाता है, उसको यदि कहीं द्वीप प्राप्त हो जाता है तो वह अपने प्राण बचा लेता है। उसी प्रकार भगवान् का धर्म संसारी प्राणियों के लिए द्वीप के समान है। स्रोत में बहने वाले प्राणियों के लिए द्वीप जैसे प्रतिष्ठा होता है, वैसे ही यह मार्ग संसार सागर में बहने वाले प्राणियों के लिए प्रतिष्ठा होता है। उत्तराध्ययन में धर्म को द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और शरण कहा गया है।' श्लोक २४: ३४. (आयगुत्ते सया दंते ....... छिण्णसोए णिरासवे) आत्मगुप्त का अर्थ है-- इन्द्रिय और मन का प्रत्याहार करने वाला । दांत के दो अर्थ हैं-इन्द्रिय और मन को वश में करने वाला तथा धर्मध्यान का ध्याता । स्रोत का अर्थ है-हिंसा आदि आश्रव। जो व्यक्ति इनका छेदन कर देता है वह छिन्नस्रोत होता १. चूणि, पृ० २०० : जेव्वाणं परमं जेसि ते इमे णेन्वाणपरमा एते बुद्धा अरहन्तः, तच्छिष्या बुद्धबोधिताः, परमं निर्वाणमित्यतोऽनन्य तुल्यम्, नास्य सांसारिकानि तानि तानि वेदनाप्रतीकाराणि निर्वाणानि अनन्तभागेऽपि तिष्ठन्तीति । २. सूयगडो, १।६।२१ : णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते । ३. चूणि, पृ० २०० : न क्षयं यान्तीति नक्षत्राणि, तेभ्यः कान्त्या सौम्यत्वेन प्रमाणेन प्रकाशेन च परमश्चन्द्रमाः नक्षत्र-ग्रह-तारकाभ्यः, ___ एवं संसारसुखेभ्योऽधिकं निर्वाणसुखमिति । ४. चूणि, पृ० २०० : मोक्षमग्गपडिवण्णे उत्तरगुणेहि वड्डमाणेहि अच्छिण्णसंधणाए णेव्वाणं संधेज्जा। ५. चूणि, पृ० २०० : दीपयतीति दीपः, द्विधा पिबति वा द्वीपः, स तु आश्वासे प्रकाशे च, इहाऽऽश्वासद्वीपोऽधिकृतः । ६. वृत्ति, पत्र २०६। ७. उत्तराध्ययन २३१६८: जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ Jain Education Intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। ४७८ अध्ययन ११ : टिप्पण ३५-३८ है । जो छिन्नस्रोत होता है वही निरास्रव होता है।' आयगुत्ते आदि इन चार पदों में साधना का क्रम बतलाया है। साधक को सर्वप्रथम प्रत्याहार करना होता है, इन्द्रिय और मन की गति को बदलना तथा उन्हें बाहर से हटाकर भीतर में स्थापित करना होता है । यह गुप्ति की प्रक्रिया है। गुप्ति का बार-बार अभ्यास करने से इन्द्रिय और मन दान्त-उपशान्त हो जाते हैं। जैसे-जैसे उनकी शांति बढ़ती है वैसे-वैसे उनका स्रोत सूखता जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जब स्रोत सर्वथा छिन्न हो जाते हैं । उस अवस्था में साधक निरास्रव बन जाता है। ३५. प्रतिपूर्ण (पडिपुण्णं) वही धर्म प्रतिपूर्ण होता है जो सभी प्राणियों के लिए हितकर, सुखकर, सबके लिए समान, निरुपाधिक, सर्वविरतिभय, मोक्ष में ले जाने वाला होता है । अथवा जो धर्म दया, संयम, ध्यान आदि धर्म के कारणभूत तत्त्वों से सहित होता है व प्रतिपूर्ण होता है। श्लोक २५ : ३६. वे समाधि से दूर हैं (अंतए ते समाहिए) वे भिक्ष समाधि से दूर हैं। उन्हें मोक्ष समाधि प्राप्त नहीं हो सकती। अनेकाग्र होने के कारण उन्हें इहलोक में भी जब समाधि प्राप्त नहीं होती तब उन्हें परमसमाधि की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? वे संसार में रहते हुए भी इन्द्रिय-सुखों से वंचित रहते हैं और उन्हें परम समाधि का सुख भी प्राप्त नहीं होता। क्योंकि जहां हिंसा और परिग्रह है वहां एकाग्रता नहीं होती। जहां एकाग्रता नहीं होती वहां चार प्रकार की भावनाएं (कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना) प्राप्त नहीं होती। वे सुख से सुख पाने की बात सोचते हैं। ३७. श्लोक २५-३१: प्रस्तुत आलापक (२५-३१) में बौद्धदृष्टि की समीक्षा की गई है। प्राणीमात्र को आश्वासन देने वाला धर्म-अहिंसा धर्म शुद्ध धर्म होता है । जो इसे नहीं जानते वे अबुद्ध होते हैं। बौद्ध बुद्धवादी हैं । वे समाधि की साधना करते हैं, फिर भी आरंभ और परिग्रह में आसक्त होने के कारण उसे उपलब्ध नहीं होते। वे हिंसा भी करते हैं और ध्यान भी करते हैं। वे आत्मा को नहीं जानते, इसलिए समाधिस्थ भी नहीं हो सकते। श्लोक २६: ३८. श्लोक २६: __प्रस्तुत श्लोक में चूर्णिकार ने बौद्ध परंपरागत कुछेक व्यवहारों का निर्देश किया है। बौद्ध भिक्षु अपने लिए कृत भोजन-पानी १. (क) चूणि, पृ० २०० : आत्मनि आत्मसु वा गुप्त आत्मगुप्तः, इन्द्रिय-नोइन्द्रियगुप्त इत्यर्थः, न तु यस्य गृहादीनि गुप्तानि । हिंसादीनि श्रोतांसि छिन्नानि यस्य स भवति छिन्नस्सोते, छिन्नश्रोतस्त्वादेव निराश्रवः । (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : मनोवाक्कार्यरात्मा गुप्तो यस्य स आत्मगुप्तः, तथा 'सदा-सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो वश्येन्द्रियो धर्मध्यानध्यायो वेत्यर्थः, तथा छिन्नानि-नोटितानि संसारस्रोतांसि येन स तथा, एतदेव स्पष्ट तरमाह-निर्गत आश्रवः-प्राणातिपातादिकः कर्मप्रवेशद्वाररूपो यस्मात् स निराधवः । २. चूणि, पृ० २००,२०१ : प्रतिपूर्णमिदं सर्वसत्त्वानां हित सुहं सर्वाविशेष्यं निरुपधं निर्वाहिक मोक्षं नैयायिकम् इत्यत: प्रतिपूर्णम् अथवा सर्दया-दम-ध्यानादिभिर्धर्मकारणः प्रतिपूर्णमिति । ३. चूणि, पृ० २०१ : दूरतस्ते समाधिए । कथम् ? इहलोकेऽपि तावं तेऽनेकाग्रत्वात् समाधि न लभन्ते कुतस्तहि परमसमाधि मोक्षम् ? । तद्यथा-शाक्याः अबुद्धा बुद्धवादिनः सुखेन सुखमिच्छन्ति, इहलोकेऽपि तावद् ग्रामव्यापारैर्न सुखमास्वादयन्ति, कुतस्तहि परमसमाधिसुखमिति ? । उक्तं हि-तत्रैकाग्रं कुतो ध्यान, यत्राऽऽरम्भ-परिग्रहः ? इति । अतस्ते चतुविधाए भावणाए दूरतः । Jain Education Intemational www Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन ११ : टिप्पण ३६-४० लेते हैं । वे धान्य आदि के कणों को सजीव नहीं मानते । उपासक उनके लिए पचन-पाचन करते हैं । वे उनका अनुमोदन भी करते हैं। वे जीव में अजीव की और तत्त्व में अतत्त्व की बुद्धि रखते हैं। वे संघभक्त आदि की सतत कामना करते हैं। वे अतीत में किए गए संघभक्तों की तथा भविष्य में किए जाने वाले संघभक्तों की गणना करते रहते हैं । यदि उनके भी ध्यान हो तो फिर ध्यान किसके नहीं होगा? उन भिक्षुओं के विहार भित्तिचित्रों से भरपूर होते हैं। उनकी परंपरा है कि वे अपने लिए मारे हुए पशु का मांस नहीं लेते । किन्तु यदि वह मांस कोई दूसरा व्यक्ति खरीद कर दे तो वे उसे ग्रहण कर लेते हैं । उसे वे 'कल्पिक' कहते हैं। आज भी तिब्बत आदि बौद्ध देशों में 'कल्पिक' जाति के रूप में एक वर्ग है । उस वर्ग के लोग बौद्ध भिक्षुओं के लिए मांस खरीद कर उन्हें देते हैं। यह उनका मुख्य कार्य है । ऐसे हजारों स्त्री-पुरुष वहां हैं । देने वाली उन दासियों को 'कल्पकारी' कहा जाता है और मांस को कल्पिक कहते हैं। संभव है चूणिकार के समय में भारत में भी बौद्ध परंपरा में यह प्रथा रही हो। नूणिकार ने इस पर व्यंग करते हुए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। बर्बर जाति के एक व्यक्ति ने मांस का प्रत्याख्यान कर दिया। अपनी प्रतिज्ञा को पालने में असमर्थता दिखाई दी। उसने मांस का नाम 'भ्रमर' रखा और खा लिया। क्या वह उसको खाता हुआ अमांसभक्षी कहा जा सकता है ? लूता (मकड़ी) का नाम शीतलिका रख देने मात्र से क्या वह नहीं मार देती? विष का नाम 'मधुर' रख देने मात्र से क्या वह मृत्यु का कारण नहीं बनता ? इसी प्रकार बौद्ध भिक्षु संज्ञाओं का भेद कर आरंभ में प्रवृत्त होते हैं । वे प्रवृत्तियां उनके निर्वाण के लिए नहीं होतीं। वे वैराग्य की द्योतक भो नहीं होती। जो भिक्षु ऐसे विहार या लयनों (गुफाओं) में रहते हैं, जो कामोत्तेजक चित्रों से चित्रित हैं, उनके वहां ध्यान कैसे संभव हो सकता है ? जो भिक्षु मांस लेते समय कल्पिकारियों को व्यवहृत करते हैं, उनके द्वारा खरीदा हुआ मांस खाते हैं, उनके भी ध्यान कैसे हो सकता है ? जो पचन-पाचन में प्रवृत्त हैं, जो केवल अपने शरीर का ही ध्यान रखते हैं, जो प्रतिपल मनोज्ञ, पान, भोजन, विहार, वस्त्र आदि का ध्यान रखते हैं, जो सोचते रहते हैं - "आज कौन उपासक संघभक्त करेगा? आज कौन भक्त वस्त्र-दान करेगा आदि, उनके ध्यान कैसे हो सकता है ? उनके शुद्ध ध्यान हो ही नहीं सकता।' ३६. नहीं जानते (अखेतण्णा) इसका संस्कृत रूप है-अक्षेत्रज्ञाः । चूर्णिकार ने इसका अर्थ--मोक्षमार्ग और शुद्ध ध्यान को न जानने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'अनिपुण' किया है।' ४०. वे असमाहित चित्त वाले होते हैं (असमाहिया) इसका अर्थ है-असंवृत । जो मनोज्ञ पान, भोजन और आवास आदि का निरंतर चिन्तन करते हैं, जो यह खोचते हैं कि आज संघ को कौन भोजन-पान देगा? कौन वस्त्र देगा?, वे असमाहित होते हैं । वे शुद्ध ध्यान करने के अधिकारी नहीं होते।' __वृत्तिकार ने असमाहित का अर्थ समाधि से दूर (शून्य) किया है।" १. चूणि, पृ० २०१: बीयाणि सचेतणाणि शाल्यादीनाम, ७ (? शो) तमपि च उदकं सचेतनमेव, हरिद्रा-कक्कोदकवत्, तमुद्दिश्य च कृतं उपासकादिभिः, स्वयं च पाचयन्ति पक्षचारिकादयः, तेषां हि पक्षे चारिका भवन्ति, अनुजानते च सुपक्वं सुसृष्ट मिति, जीवेषु च अजीवबुद्धयः अतत्त्वे तत्त्वबुद्धयः वराकास्तत्कारिणस्तद्वेषिणश्च सङ्घभक्तानि गणयन्तोऽतीता-ऽनागतानि च प्रार्थयन्तः झाणं णाम क्रियायंति, णाम परोक्षस्तवादिषु, तेऽपि नाम यदि ध्यानं ध्यायन्ति, को हि नाम न ध्यानं ध्यास्यति । ग्राम-क्षेत्र-गहादीनां गवां प्रेष्यजनस्य च । यत्र प्रतिग्रहो दृष्टो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥ सचित्तकम्मा य तेसि आवसथा विहारकुडीउ त्ति, मांसं कल्पिक इत्यपदिश्यते, दासीओ कप्पयारीउ त्ति । यथा बबरेण मांसस्य प्रत्याख्याय अशक्नुवता तमनुपालयितुं भमरमिति संज्ञां कृत्वा भक्षितम्, किमसौ तद् भक्षयन् निविशिको भवति ?, लता वा शीतलिकाभिधानेनाभिलप्यमाना कि न मारयति ? । एवं तेषां न संज्ञान्तरपरिकल्पितास्ते आरम्भा निर्वाणाय भवन्ति, न च वैराग्यकरा भवन्ति । येऽपि तावद् भिक्षाहारा भवन्ति तेऽपि सदिकारस्त्रीरूपसचित्रकर्मसु लेनेषु वसन्ति, तेषामपि तावत् कुत्तो ध्यानम् ? किमङ्ग पुन: कल्पिकारीापारयताम् ? पचन-पाचनप्रवृत्तानां तनुमेब चानुप्रेक्षमाणानां कुतो ध्यानम् ? । २. चूर्णि, पृ० २०१ ते हि मोक्षमार्गस्य ध्यानस्य च शुद्धस्य अखेतण्णा अजाणगा। ३. वृत्ति, पत्र २०७ : अखेदज्ञाः- अनिपुणाः । ४. चूणि, पृ० २०१: असमाहिता णाम असंवृताः, मनोज्ञेषु पान-भोजनाऽच्छावनादिषु नित्याध्यवसिता: 'कोऽत्थं संघभत्तं करेज्जा ? कोऽत्थ परिक्खारं देज्ज वस्त्राणि ? इत्येवं नित्यमेवात्तं ध्यायन्ति । ५ वृत्ति, पत्र २०७ : असमाहिता मोक्षमार्गाख्याद्भावसमाधेरसंवृततया दूरेण वर्तन्त इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। ४८० प्रध्ययन ११: टिप्पण ४१-४६ श्लोक २७: ४१. ढंक कंक (ढंका य कंका य) देखें-१/६२ का टिप्पण । ४२. मछली की खोज में ध्यान करते हैं (मच्छेसणं झियायंति) ढंक आदि जलचर पक्षी मछली की खोज में निश्चल होकर जल के मध्य में खड़े रहते हैं। वे इतने निश्चल हो जाते हैं कि जल हिले-डुले नहीं । जल के हिलने से मछलियां त्रस्त होकर भाग न जाएं-यह उनका ध्यान रहता है।' श्लोक ३० ४३. जन्मान्ध व्यक्ति (जाइअंधो) जात्यन्ध का शाब्दिक अर्थ है-जन्मान्ध । वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण इन दिशाओं में कितना चला, कितना चलना शेष है, को नहीं जानता। श्लोक ३१: ४४. महाभय को (महन्भयं) इसका शाब्दिक अर्थ है-महान् भय । चूर्णिकार ने इसका भावात्मक अर्थ-जन्म-जरा-मरण-बहुल संसार किया है। वह पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मृत्यु से दूसरी मृत्यु में और एक दुःख से दूसरे दुःख में जाता है। इस प्रकार वह हजारों भव करता है। यह उसके महान् भय का हेतु बनता है। वृत्तिकार ने बार-बार संसार में पर्यटन करने से होने वाले दुःख को 'महाभय' माना है।' श्लोक ३३: ४५. ग्राम्य-धर्मों (शब्द आदि विषयों) से (गामधम्महिं) ग्राम्यधर्म का अर्थ है मैथुन । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ शब्द आदि विषय किया है।' ४६. जीव है (जगा) यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है—प्राणी। १. चूणि, पृ० २०२: मच्छेसणं झियायंति, निश्चलास्तिष्ठन्ति जलमज्झे उदगमक्खोभेन्ता, मा भन्मत्स्यादयो नक्षयन्ति उत्तसिष्यन्ति वा। २.चूणि, पृ० २०२ : जातित एव अन्धो जात्यन्धः पूर्वा-पर-दक्षिणोत्तराणां दिशां मार्गाणां गत-गन्तव्यस्थानभिज्ञः एतावद् गतं एतावद् गन्तव्यम् । ३. चूणि, पृ० २०२: महन्भयमिति संसार एव जाति-जरा-मरणबहुलो। तं जधा--गमतो गब्भं जम्मतो जम्मं मारयो मारं दुक्खतो दुवखं, एवं भवसहस्साई पर्यटन्ति बहून्यपि । ४. वृत्ति, पत्र २०८ : 'महाभयं' पौन: पुन्येन संसारपर्यटनया नारकादिस्वभावं दुःखम् । ५. (क) चूणि पृ० २०३ : ग्रामधर्माः शब्दादयः । (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : ग्रामधर्माः---शब्दादयो विषयाः। ६. (क) चूणि, पृ०२०३ : जग त्ति जायत इति जगत् तस्मि जगति विद्यन्ते ये, जायन्त इति वा जगाः जन्तवः । (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : जगा इति जन्तवो जीवितापिनः । Jain Education Intemational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ४७. ( सव्यमेयं णिकिच्चा सूत्रकार का अभिमत है की विद्यमानता में संयम का सम्यक् मुणी) कि जब तक कषाय या अन्यदोष विद्यमान हैं तब तक निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । कषाय पालन नहीं हो सकता। कहा है ४८ १ श्लोक ३४ : सामण्णमणुचरंतरस, कसाया जस्स उक्कडा होंति । मण्णामि उच्छुपुष्कं व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥ श्रामण्य का पालन करने वाले जिस पुरुष के कषाय प्रबल होते है, उसका श्रामण्य ईक्षु के फूल की भांति निरर्थक है, निष्फल है । ' ४८. तप में पराक्रम करने वाला (उधाणवीरिए) इलोक ३५ : उपधान का अर्थ है - तप तप में वीर्य - पराक्रम करने वाला 'उपधानवीर्य' कहलाता है ।" ४६. साधु-धर्म का संधान करे (संघ साधम्मं ) 'साधु-धर्म के दो अर्थ है 1 १. क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, लाघव आदि दश प्रकार का श्रमण धर्म । २. सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र । अज्ञान, अविरति मिथ्यात्व आदि पापधर्म है। 'संघए' का अर्थ है - इन गुणों की वृद्धि करे । ज्ञान के विषय में ए ज्ञान को प्राप्त कर और अधीत ज्ञान का स्मरण कर ज्ञान की वृद्धि करे, दर्शन के विषय मेंनिःशंकित आदि गुणों को दृढ कर दर्शन की वृद्धि करे तथा चारित्र के विषय में से चारित्र की वृद्धि करे । - मूल गुणों का अखंड पालन कर नए-नए अभिग्रहो ५०. पापधर्म का (पावधम्मं ) अध्ययन ११ : टिप्पण ४७-५१ श्लोक ३६ : ५१. श्लोक ३६ : इस श्लोक के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस निर्वाण मार्ग के प्रतिपादक केवल भगवान् महावीर ही थे या १. वृत्ति पत्र २०६ । २ (क) चूर्ण, पृ० २०३ : उपधानवीयं नाम तपोवीर्यम् । (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : तथोपधानं तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्युपधानवीर्यः । ३. (क) भूमि, पृ० २०३ दसविधो परिधम्मो गाणदंसण-चरिताणि या तं असिंघणाए, गाणे अपुण्यहणं पुष्याधीतं च गुणाति हंसणे निस्संतादि चरिते अड (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो वा । तम् 'अनुसंधयेत्' - वृद्धिमापादयेत्, तद्यथा--प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानं तथा शङ्कादिदोषपरिहारेण सम्यश्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग् - दर्शनम् अस्खलित मूलो सरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाग्रहग्रहणेन (च) चारित्रं (च) वृद्धिमापादयेदिति । ४. चूर्ण, पृ० २०३ : पावधम्मो - अण्णाण अविरति-मिच्छत्ताणि । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४८२ प्रध्ययन ११ : टिप्पण ५२-५३ अन्य तीर्थंकरों ने भी इसका प्रतिपादन किया था ?' शास्त्रकार इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं कि जो अतीत काल में अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं, जो भविष्य काल में अनन्त तीर्थकर होंगे और जो वर्तमान में संख्येय तीर्थंकर हैं-उन सबने इसी निर्वाण-मार्ग का प्रतिपादन किया था, करेंगे और कर रहे हैं। केवल प्रतिपादन ही नहीं, सबने इस मार्ग का अनुसरण किया था, करते हैं और करेंगे। चूर्णिकार ने 'बुद्ध' का अर्थ तीर्थकर या आचार्य किया है। चूर्णिकार ने शांति के दो अर्थ किए हैं—चारित्रमार्ग, निर्वाण ।' वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं-भावमार्ग, मोक्ष ।' ५२. पृथ्वी (जगई) इसके दो अर्थ हैं१. स्थावर और जंगम जीवों का आधार पृथ्वी ।' २. तीन लोक ।' श्लोक ३७: ५३. उनसे हत-प्रहत न हो (ण तेहिं विणिहण्णेज्जा) ____ संयम-मार्ग में अनेक कष्ट आते हैं। मुनि उनसे त-प्रहत होने पर भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र मार्ग से च्युत न हो। क्रमश: उन परीषहों को जीतता हुआ मुनि संयमवीर्य को वृद्धिंगत करे जिससे कि वे बड़े कष्ट भी छोटे हो जाएं, महान् उपसर्ग भी तूच्छ हो जाएं।' ___एक अहीरन युवती थी। उसकी गाय ने बछड़ा दिया। उसी दिन से वह युवति उस बछड़े को उठाकर गाय के पास ले जाती और जब स्तनपान कर लेता तब उसे वापस ला खूटे से बांध देती। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा । बछड़ा बढ़ता गया। यूवति में उठाने की शक्ति भी बढती गई। यह क्रम चार वर्ष तक चला। बछड़ा चार वर्ष का बैल हो गया। परन्तु युवति उसको सहजतया उठाकर चल देती, क्योंकि उसका वह प्रति दिन का अभ्यास बन गया था। इसी प्रकार मुनि भी क्रमशः परीषहों पर विजय पाता हुआ सन्मार्ग से कभी च्युत नहीं होता। जीतने के अभ्यास से उसकी शक्ति क्रमशः वृद्धिंगत होती रहती है। एक दिन ऐसा आता है कि बड़े से बड़े कष्ट को भी हंसते हुए झेलने में वह सफल हो । जाता है। १. (क) चूणि, पृ० २०४ : किमेवं वर्द्धमानस्वामी एतन्मार्गमुपदिष्टवान उतान्येऽपि तीर्थकरा: ? (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : अथैवंभूतं भावमागं कि वर्धमानस्वाम्येवोपदिष्टवान् उताम्येपि । २. चूणि, पृ० २०४ : ते आचार्या वा। ३. चणि, पृ० २०४ : शान्तिश्चारित्रमार्ग इत्यर्थः ........."निर्वाणं वा शान्तिः । ४. वृत्ति, पत्र २०६, २१०: शान्ति:-भावमार्गः........."यवि वा शान्तिः-मोक्षः । ५. चूणि, पृ० २०४ । जगती नाम पृथिवी। ६. वृत्ति, पत्र २१० । जगती-त्रिलोकी। ७. चूणि, पृ० २०४ : ण तेहि उदिण्णेहि वि णाण-बंसण-चरित्तसंजुत्ताओ मग्गाओ विणिहण्णेज्जा, (आणु)पुवीए जिणंतो संयमवीरियं उप्पादेज्जासि त्ति, जधा ते गुरुगा वि उदिण्णा लहुगा भवंति । ८. (क) चूणि, पृ० २०४ : दृष्टान्तः आभीरयुवति:-जातमत्तं वच्छगं दुणि वेलाए उक्खिविऊण णिक्खामेति, पीतं चैनं पुनः प्रवेश यति । तमेवं क्रमशो वर्द्धमानं अहरहर्जेयं कुर्वती जाव चउहायणं पि उक्खिवेति । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः-एवं साधुरपि सन्मार्गात क्रमशो जयाद् उदीर्णरपि परीष हैन विहन्येत ।। (ख) वृत्ति, पत्र २१० : परीषहोपसगंजयश्चाभ्यासक्रमेण विधेयः अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टांतः, तद्यथा-कश्चिद्गोपस्तबहतिं तर्णकमुक्षिप्य गवान्तिकं नयत्यानयति च, ततोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुरिक्षपन्नभ्यासवशाविहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरभ्यासात् शनैः-शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्त इति । Jain Education Intemational ducation Intermational Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ४८३ प्रध्ययन ११:टिप्पण ५४-५६ श्लोक ३८: ५४. धीर मुनि (धोरे) इसके दो अर्थ हैं१. बुद्धिमान् । २. कष्टों से न घबराने वाला। ५५. काल की आकांक्षा (प्रतीक्षा) करे (कालमाकंखे) मरण-काल की आकांक्षा करे अर्थात् वह यह सोचे कि जीवन पर्यन्त मुझे इस सन्मार्ग पर निरन्तर चलना है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ- मृत्यु की आकांक्षा करे-किया है।' यहां 'आकखे' का अर्थ प्रतीक्षा करना उपयुक्त लगता है। जैन परम्परा के अनुसार यह मान्य है कि मुनि न जीवन की आकांक्षा करे और न मृत्यु की आकांक्षा करे । वह संयम का पालन करता हुआ मृत्यु की प्रतीक्षा करे। ५६. केवली का मत है (केवलिणो मतं) सुधर्मा ने जंबू से कहा- तुमने मुझे मार्ग का स्वरूप पूछा था। मैंने उसका प्रतिपादन अपने मन से नहीं किया है। केवली भगवान् ने जैसा उसका प्रतिपादन किया वही मैंने प्रस्तुत किया है।' १ वृत्ति, पत्र २१० : धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः, परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा । २ चूणिः पृ. २०४ : कालं काङ्क्षतीति कालकंखी, मरणकालमित्यर्थः । कोऽर्थः ? तावदनेन सन्मार्गेण अविधामं गन्तव्यं यावन्मरणकालः। ३. वृत्ति, पत्र २१० 'कालं'-मृत्युकालं यावदमिकाङ्क्षत् । ४. वृत्ति, पत्र २१० : जम्बूस्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह-तदेतत्त्वया मार्गस्वरूपं प्रश्नितं तन्मया न स्वमनीषिकया कषितं, कि सहि ?, केवलिनो मतमेतवित्येवं भवता पाह्यम् । (ख) चूणि, पृ० २०४॥ Jain Education Intemational Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं प्रायरणं समोसरणं बारहवां अध्ययन समवसरण Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-'समवसरण' । समवसरण का अर्थ है-वाद-संगम । जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं। इस अध्ययन में क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद---इन चारों वादों (तीन सौ तिरेसठ अवान्तर भेदों) की कुछेक मान्यताओं की समालोचना कर, यथार्थ का निश्चय किया गया है। इसलिए इसे समवसरण अध्ययन कहा गया है। आगम सूत्रों में विभिन्न धार्मिक वादों का चार श्रेणियों में वर्गीकरण मिलता है-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । इनके अवान्तर भेद अनेक हैं। नियुक्ति में अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन है।' चारों वादों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैक्रियावाद जो दर्शन आत्मा, लोक, गति, अनागति, जन्म-मरण, शाश्वत, अशाश्वत, आस्रव, संवर, निर्जरा को मानता है वह क्रियावादी है। इसका फलित है कि जो अस्तित्ववाद, सम्यग्बाद, पुनर्जन्मवाद और आत्मकर्तृत्ववाद में विश्वास करता है वह क्रियावादी दर्शन है। नियुक्तिकार ने क्रियावाद के १८० प्रवादों का उल्लेख किया है । आचार्य अकलंक ने मरीचिकुमार, उलूक, कपिल आदि को क्रियावादी दर्शन के आचार्य माना है। भक्रियावाद ये चार नास्ति मानते हैं१. आत्मा की नास्ति २. आत्म-कर्तृत्व की नास्ति ३. कर्म की नास्ति ४. पुनर्जन्म की नास्ति यह एक प्रकार से नास्तिकवादी दर्शन है । स्थानांग में अक्रियावाद के आठ प्रकार बतलाए गए हैं।' कपिल, रोमश, अश्वलायन आदि इस दर्शन के प्रमुख आचार्य थे । चूर्णिकार ने सांख्य दर्शन और ईश्वरकारणिक वैशेषिक दर्शन को अक्रियावादी दर्शन माना है।' तथा पंचभूतवादी, चतुर्भूतवादी, स्कंधमात्रिक, शून्यवादी और लोकायतिक-इन दर्शनों को भी अक्रियावाद में गिना है। ......... अज्ञानवाद इस दार्शनिकवाद का आधार है अज्ञान । इनका मानना है कि सब समस्याओं का मूल है ज्ञान, इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। ज्ञान से लाभ ही क्या है ? शील में उद्यम करना चाहिए । ज्ञान का सार है-शील संवर । शील और तप से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। १. वृणि, पृ० २०७ : समवसरंति जेसु बरिसणाणि विट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । २. नियुक्ति गाथा ११३ : तेसि मताणुमतेणं, पण्णवणा वण्णिताणे इहऽजायणे । सम्भावणिच्छयत्थं, समोसरणमाहु तेणं ति ॥ ३. नियुक्ति गाथा १११ : अत्थि ति किरियवादी वयंति, णत्थि त्ति अकिरियवादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥ ४. ठाणं दा२२॥ ५. चूणि, पृ० २०९ : संख्या (सांख्या) वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी ......... ..वही, पृ० २०७:. . . * "पंचमहाभूतिया चतुभूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवाविणो लोगायतिगा इच्चादि अकिरियावाविणो। ७. देखें-१३१४१ का टिप्पण तथा प्रस्तुत अध्ययन का नं०१का टिप्पण । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ ४८८ अध्ययन १२: प्रामुख इनके ६७ भेद होते हैं । चूणिकार ने मृगचारिका की चर्या करनेवाले, अटवी में रहकर फल-फूल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी माना है।' साकल्प, वाष्कल, बादरायण आदि इस वाद के प्रमुख आचार्य थे। सूत्रकृतांग के वृत्तिकार शीलांकसूरी ने अज्ञानवाद को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है१. अज्ञानी अन्यतीथिक–सम्यग्ज्ञानविरहिताः श्रमणाः ब्राह्मणाः । (वृत्ति पत्र ३५) २. अज्ञानी बौद्ध-शाक्या अपि प्रायशोऽज्ञानिकाः । (वृत्ति पत्र २१७) ३. अज्ञानवाद में विश्वास करने वाला-अज्ञानं एव श्रेय इत्येवं वादिनः । (वृत्ति पत्र २१७) विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है। ये मानते हैं कि विनय से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इनके बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। आगम साहित्य में विनय शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त है। यहां 'विनय' का अर्थ आचार होना चाहिए। जैसे ज्ञानवादी ज्ञान पर अधिक बल देते हैं, वैसे ही ये विनयवादी आचार पर अधिक बल देते हैं। एकांगी होने के कारण ये मिथ्यावाद की कोटि में परिगणित हैं। वशिष्ठ, पाराशर आदि इस दर्शन के विशिष्ट आचार्य थे। चूणिकार ने तीसरे श्लोक की व्याख्या में विनयवादियों की मान्यताओं का विशद निरूपण किया है।' इन चारों दार्शनिक परंपराओं की विस्तृत जानकारी के लिए प्रस्तुत अध्ययन के टिप्पण विमर्शनीय हैं । नियुक्तिकार ने भाव समवसरण को दो प्रकार से प्रस्तुत किया है१. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक-इन छह भावों का समवसरण-एकत्र मेलापक । २. क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी-इनका समवसरण-एकत्र मेलापक । इस अध्ययन में बावीस श्लोक हैं। उनमें चारों समवसरणों का विवेचन हैश्लोक २-४ अज्ञानवाद ५-१० अक्रियावाद ११-२२ क्रियावाद अक्रियावादी दर्शन के संबंध में पांचवें श्लोक में द्विपाक्षिक और एकपाक्षिक कर्म का उल्लेख है। चूणिकार ने इसका विशद विवेचन प्रस्तुत किया है । एकपाक्षिक कर्म का अभिप्राय यह है कि क्रियामात्र होती है, कर्म का चय नहीं होता। वह एक पक्ष-एक जन्म में भोग लिया जाता है । द्विपाक्षिक कर्म का अभिप्राय है कि उसमें कर्म-बंध होता है और वह इस जन्म या पर जन्म में भगतना पड़ता है। कुछ अक्रियावादी एकपाक्षिक कर्म को मानते हैं और कुछ द्विपाक्षिक कर्म को।' ___ नौवें-दसवें श्लोक में अष्टांगनिमित्त के केवल पांच अंगों का स्पष्ट निर्देश है, शेष उनके अन्तर्भूत हैं। चूर्णिकार ने अष्टांगनिमित्त के ग्रन्थमान का भी उल्लेख किया है। १. चूर्णि, पृ० २०७ : ते तु मिगचारियादयो अडवीए पुष्फफलमक्खिणो अच्चादि (अस्यागिनः) अण्णाणिया । २. षड्दर्शनसमुच्चय, वृत्ति, पृ० २६ । ३. देखें-टिप्पण-७.६। ४. नियुक्ति गाथा ११० : भावसमोसरणं पुण, णायव्वं छव्विहम्मि भावम्मि । अधवा किरिय अकिरिया, अण्णाणी चेव वेणइया ॥ ५. देखें--श्लोक ५ का टिप्पण, संख्या १२ । Jain Education Intemational Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ अध्ययन १२ : श्रामुख सूयगडो १ अष्टांग निमित्त का अध्ययन करने वाले सभी समान ज्ञानी नहीं होते। उनमें अनन्त तारतम्य होता है । यह तारतम्य अपनीअपनी क्षमता पर आधारित है । निमित्त जिस घटना की सूचना देता है, परिस्थिति बदल जाने पर वह घटना अन्यथा भी हो जाती है। इस दृष्टि से लोग उसे अयथार्थ मान लेते हैं । चूर्णिकार ने अनेक उदाहरणों से इसे समझाया है ।" तेरहवें श्लोक में देवों का वर्गीकरण प्रचलित वर्गीकरण से भिन्न काल का प्रतीत होता है। यह श्लोक ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय है।' सूत्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार में बतलाया है कि बहुत सारे दर्शन स्वयं को क्रियावादी घोषित करते हैं, किन्तु घोषणा मात्र से कोई क्रियावादी नहीं हो जाता। क्रियावादी वह होता है जो क्रियावाद के आधारभूत सिद्धान्तों को मानता है । वे ये हैं १. आत्मा है । २. लोक है । ३. आगति और अनागति है । ४. शाश्वत और अशाश्वत है । ५. जन्म और मरण है । ६. उपपात और च्यवन है । १. देखें - टिप्पण संख्या १५, १६ । २. देखें-- टिप्पण संख्या २४ । ३. सूयगडो, १२०२०,२१ ॥ ७. अधोगमन है । ८. आस्रव और संवर है ६. दुःख और निर्जरा है । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. चत्तारि समोसरणाणिमाणि पावाया जाई पुढो वति । किरि अकिरियं विषयं ति तइयं अण्णाणमाहंसु चत्वमेव ॥ २. अण्णाणिया ता कुराला वि संता असंथुया णो वितिगिच्छ तिष्णा । अकोविया आह अकोविएहि अणाणुवीईति मुसं वदंति ॥ ३. सच्चं असच्चं इति चितयंता असाहु साहु त्ति उदाहरंता । जेमे जणा बेणइया अणेगे पुट्ठा वि भावं विनईसु णाम । ४. अणोवसंखा इति ते उदाहु अट्ठे स ओभासद अम्ह एवं वावसपकी व अणागए ह णो किरियमाहंसु अकिरियआया ॥ बारसमं श्रज्झयणं : बारहवां अध्ययन समोसरणं : समवसरण संस्कृत छाया चत्वारि समवसरणानि इमान, प्रावादुका : यानि पृथग् वदन्ति । क्रियां अक्रियां विनयमिति तृतीयं, अज्ञानमाहः चतुर्थमेव ॥ अज्ञानिकाः तावत् कुशला अपि सन्तः, असंस्तुताः नो विचिकित्सां तीर्णाः । अकोविदाः आहुः अकोविदेषु, अननुवीचि इति मृषा वदन्ति ।। सत्यं असत्यं इति चिन्तयन्तः, असाधु साधु इति उदाहरन्तः । ये इमे जनाः वैनायिकाः अनेके, पृष्टा अपि भावं व्यनैषुर्नाम ॥ ॥ अनुपसंख्यया इति ते उदाहुः अर्थ एष अवभाषते अस्माकं एवम् लवावण्यस्की अनागतेषु, नो क्रियामाहुः अक्रियात्मानः ॥ च हिन्दी अनुवाद १. ये चार समवसरण (वाद - संगम) हैं । प्रावादुक' (अपने-अपने मत के प्रवक्ता ) भिन्न-भिन्न प्रतिपादन करते हैंक्रिया, क्रिया, तीसरा विनय और और चौथा अज्ञान । २. अज्ञानवादी कुशल होते हुए भी सम्मत नहीं हैं । वे संशय का पार नहीं पा सके हैं। वे स्वयं 'कौन जानता है?' (को बेति कोविद) इस प्रकार का संशय करते हैं और इस प्रकार संशय करने वालों (कोविदों) में ही अपनी बात रखते हैं वे पूर्वापर का विमर्श (दो में से एक का निश्चय ) नहीं करते इसलिए वे मृषा बोलते हैं' ३. (परलोक आदि) सत्य हैं या असत्य हैं ? ( यह हम नहीं जानते ) - ऐसा चिन्तन करते हुए तथा यह बुरा है. यह अच्छा है ऐसा कहते हुए वे मृषा बोलते हैं ।) जो ये अनेक विनयवादी जन हैं वे (बिना पूछे वा पूछने पर भी विनय को ही यथार्थ बतलाते हैं ।' ४. वे अज्ञानवश " यह कहते हैं कि यही अर्थ (विनय ही वास्तविक है ) - ऐसा हमें अवभाषित होता है । आत्मा भविष्य में (वर्तमान और अतीत में भी) कर्म से बद्ध नहीं होता।" अत्रिय आत्मवादी क्रिया को स्वीकार नहीं करते । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ प्र०१२: समवसरण : श्लोक ५-१० सूयगडो १ ५. संमिस्समावं सगिरा गिहीते से मुम्मुई होइ अणाणुवाई। इमं दुपक्खं इममेगपक्खं आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥ सम्मिश्रभावं स्वगिरा गृहीतः, स 'मुम्मुई' भवति अननवादी। इदं द्विपक्षं इदं एकपक्ष, आहुः षडायतनं च कर्म ।। ५. (शून्यवादी बौद्ध) अस्तित्व या नास्तित्व का स्पष्ट व्याकरण नहीं करते। वे अपनी वाणी से ही निगृहीत हो जाते हैं। प्रश्न करने पर वे मौन रहते हैं(एक या अनेक, अस्ति या नास्ति का) अनुवाद नहीं करते । वे अमुक कर्म को द्विपाक्षिक और अमुक कर्म को एकपाक्षिक तथा उसे छह आयतनों से होने वाला मानते हैं। ६.ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा विरूवरूवाणिह अकिरियाता। जमाइइत्ता बहवे मणूसा भमंति संसारमणोवदग्गं ते एवमाख्यान्ति अबुध्यमानाः, विरूपरूपाणि इह अक्रियात्मानः । यमादाय बहवो मनुष्याः , भ्रमन्ति संसारमनवदग्रम् ॥ ६. आत्मा को अक्रिय मानने वाले वे तत्त्व को नहीं जानते हुए नाना प्रकार के सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। उन्हें स्वीकार कर बहुत सारे मनुष्य अपार संसार में भ्रमण करते हैं। ७.णाइच्चो उदेइ ण अत्थमेइ ण चंदिमा वड्ढति हायती वा। सलिला ण संदंति ण चंति वाया वंझे णितिए कसिणे हलोए॥ नादित्यः उदेति नास्तमेति, न चन्द्रमाः वर्धते हीयते वा । सलिलाः न स्यन्दन्ते न वान्ति वाताः, वन्ध्यो नित्यः कृत्स्नो खल लोकः ।।। ७. (पकुधकात्यायन के अनुसार) सूर्य न उगता है और न अस्त होता है। चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है। नदियां बहती नहीं हैं। पवन चलता नहीं है, क्योंकि यह संपूर्ण लोक वन्ध्य (शून्य) और नित्य (अनिर्मित) है।" ८.जहा हि अन्धे सह जोइणा वि रूवाणि णो पस्सइ होणणेत्ते । संतं पि ते एवमकिरियआता किरियं ण पस्संति विरुद्धपण्णा॥ यथा हि अन्धः सह ज्योतिषाऽपि, रूपाणि नो पश्यति होननेत्रः ।। सतीमपि ते एवमक्रियात्मानः, क्रियां न पश्यन्ति निरुद्धप्रज्ञाः॥ ८. जैसे अंधा मनुष्य नेत्रहीन होने के कारण प्रकाश के होने पर भी रूपों को नहीं देखता, इसी प्रकार अक्रियआत्मवादी निरुद्धप्रज्ञ" (ज्ञानावरण का उदय) होने के कारण विद्यमान क्रिया को भी नहीं देखते। ६.संवच्छरं सुविणं लक्खणं च णिमित्तदेहं च उप्पाइयं च। अलैंगमेयं बहवे अहित्ता लोगंसि जाणंति अणागताई ॥ संवत्सरं स्वप्नं लक्षणं च, निमित्तं देहं च औत्पातिकं च । अष्टांगमेतद् बहवोऽधीत्य, लोके जानन्ति अनागतानि ।। ६. अन्तरिक्ष, स्वप्न, शारीरिक लक्षण, निमित्त (शकुन आदि), देह (तिल आदि) औत्पातिक (उल्कापात, पुच्छल तारा आदि) अष्टांग निमित्तशास्त्र को पढ़कर अनेक पुरुष इस लोक में अनागत तथ्यों को जानते हैं।" १०. कई णिमित्ता तहिया भवंति केसिंचि ते विप्पडिएंति णाणं। ते विज्जभावं अणहिज्जमाणा आहंसु विज्जापलिमोक्खमेव ॥ केचिद् निमित्ताः तथ्या भवन्ति, केषांचिद् ते विपरियन्ति ज्ञानम् । ते विद्याभावं अनधीयमानाः, आहुः विद्यापरिमोक्षमेव ॥ १०. कुछ निमित्त सत्य होते हैं । कुछ पुरुषों का (निमित्त) ज्ञान तथ्य के विपरीत होता है । वे (निमित्त) विद्या के भाव को नहीं पढते, इसलिए (निमित्त) विद्या को छोड़ने की बात करते हैं। Jain Education Intemational Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ११. से एवमति समेच्च लोयं तहा - तहा समणा माहणा य । सयंकडं णऽण्णकडं च दुक्खं आहंसु विज्जाचरणं पमोक् ॥ १२. ते चक्खु लोगस्सिह णायगा उ मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तहा तहा सासयमा लोए जंसी पया माणव ! संपगाढा ॥ १३. जे रक्खसा जे जमलोइया या जे आसुरा गंधव्वा य काया । आगासगामी व पुढोसिया ते पुणो पुणो विष्परिवासुर्वेति ॥ १४. जमाह ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमवतं । जंसी विसण्णा विसयंगणाहि दुहतो वि लोयं अणुसंचरंति ॥ १५. कम्मुणा कम्म सति बाला अकम्पुणा कम्म खति धीरा । मेघाविणो लोममया वतीता संतोसिणो णो पकरेति पावं ॥ १६. ते तीत उप्पण्णमणागयाई लोगस्स जाणंति तहागताई। णेतारो अण्णेसि अणण्णणेया बुद्धा ते अंतकडा भवंति ॥ हु १७. ते णेव कुव्वंति ण कारवैति भूतामिसंकाए दुखमाणा । सदा जता विष्पणमंति धीरा विष्णत्ति वीराय भवंति एगे ॥ ४३३ ते एवमाख्यान्ति समेत्य लोक, तथा तथा श्रमणान् ब्राह्मणांश्च । स्वयं कृतं नान्यकृतं च दुःखं आहुः विद्याचरणं , प्रमोक्षम् ॥ प्र १२ समवसरण श्लोक ११-१७ ११. तीर्थंकर लोक का भली-भांति जानकर श्रमणों और ब्राह्मणों को यह यथार्थ बतलाते हैं-दुःख स्वयंकृत है, किसी दूसरे के द्वारा कृत नहीं है। (दुःख की ) मुक्ति विद्या और आचरण के द्वारा " होती है । ते चक्षुः लोकस्य इह नायकास्तु, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तथा तथा शाश्वतमाहूः लोक, यस्मिन् प्रजाः मानव संप्रगाढाः ॥ ये राक्षसाः ये यमलौकिकाः वा, ये आसुराः गन्धर्वाश्च कायाः । आकाशगामिनश्च पृथ्व्युषिताः ते, पुनः पुनः विपर्यासमुपयन्ति ।। यमाहु: ओघं सलिलं अपारगं, जानीहि तद् भवगहनं दुर्मोक्षम् । यस्मिन् विषण्णाः विषयाङ्गनाभिः, द्वाभ्यामपि लोकमनुसंचरन्ति ॥ न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः । मेधाविनो लोभमवाद् व्यतीताः संतोषिणो तो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ ते अतीत उत्पन्न - अनागतानि, लोकस्य जानन्ति तथागतानि । नेतारोयेषां अनन्यनेयाः, बुद्धाः खलु ते कृतान्ताः भवन्ति ॥ ते नैव कुर्वन्ति न कारयन्ति, भूताभिशंकया जुगुप्तमानाः । सदा यताः विप्रणमन्ति धीराः, विज्ञप्ति - वीराश्च भवन्ति एके ॥ १२. ये सीकर लोक के चक्षु" और " हैं। वे जनता के लिए हितकर " मार्ग का अनुशासन करते हैं। उन्होंने वैसेवैसे ( आसक्ति के अनुरूप ) लोक को शाश्वत कहा है ।" हे मानव" ! उसमें यह प्रजा संप्रगाढ - आसक्त" है । १३. जो राक्षस, यमलोक के देव, असुर और गंध निकाय के हैं, जो आकाशगामी (पक्षी आदि) हैं, जो पृथ्वी के आश्रित प्राणी हैं, वे सब बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होते हैं ।" १४. जिसे अपार सलिल का प्रवाह कहा है" उसे दुर्मोक्ष" गहन संसार जानो, जिसमें विषय और अंगना " दोनों प्रमादों से प्रमत्त होकर" लोक में अनुसंचरण करते हैं । १५. अज्ञानी मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते। धीर पुरुष अकर्म से कर्म को क्षीण करते हैं। मेघावी लो और मद से अतीत", पाप नहीं करता ।" 1 संतोषी मनुष्य १६. वे तीर्थंकर) लोक के अतीत, वर्तमान और भविष्य को यथार्थ रूप में जानते हैं।" वे दूसरों के नेता हैं।" स्वयंबुद्ध होने के कारण दूसरों के द्वारा संचालित नहीं है।" वे (भव या कर्म का) अन्त करने वाले" होते हैं । १७. जिससे सभी जीव भय खाते हैं उस हिंसा से उद्विग्न होने के कारण " वे स्वयं हिंसा नहीं करते, दूसरों से हिंसा नहीं करवाते वे धीर पुरुष सदा संयमी" और विशिष्ट पराक्रमी " होते हैं, जबकि कुछ पुरुष वाग्वीर ** होते हैं, कर्मवीर नहीं। ४३ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६४ प्र० १२: समवसरण : श्लोक १८-२२ १८. डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे ते आततो पासइ सव्वलोगे। उहती लोगमिणं महंतं बुद्धप्पमत्तेसु परिव्वएज्जा॥ दहरांश्च प्राणान् वृद्धाश्च प्राणान्, तान् आत्मतः पश्यति सर्वलोके । उपेक्षते लोकमिमं महान्तं, बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत् ॥ १८. लोक में विद्यमान छोटे"-बड़े सभी प्राणियों को जो आत्मा के समान देखता है, जो इस महान् लोक की" उपेक्षा करता है-- सबके प्रति मध्यस्थ भाव रखता है, वह बुद्ध अप्रमत्त पुरुषों में परिव्रजन करे । १९.जे आततो परतो वा वि णच्चा अलमप्पणो होति अलं परेसिं । तं जोइभूयं सततावसेज्जा जे पाउकुज्जा अणुवीइ धम्म । यः आत्मतः परतो वापि ज्ञात्वा, अलमात्मनो भवति अलं परेषाम् । तं ज्योतिर्भूतं सततं आवसेत्, यः प्रादुष्कुर्यात् अनुवीचि धर्मम् ।। १६. जो (जीव आदि पदार्थों को) स्वत: या परत: जानकार, जो अपने या दूसरों के (आत्महित) में समर्थ होता है, जो प्रत्यक्ष जानकर धर्म का आविष्कार करता है, उस ज्योतिर्भूत पुरुष के पास सतत रहना चाहिए। २०. जो आत्मा" और लोक को जानता है", जो आगति" और अनागति (मोक्ष) को जानता है, जो शाश्वत और अशाश्वत को जानता है, जो जन्म-मरण तथा च्यवन और उपपात को जानता है २०. अत्ताण जो जाणइ जोय लोगं जो आगतिं जाणइ ऽणागति च । जो सासयं जाण असासयं च जाति मरणं च चयणोववातं ॥ आत्मानं यो जानाति यश्च लोक, यः आगति जानाति अनागर्ति च । यः शाश्वतं जानाति अशाश्वतं च, जाति मरणं च च्यवनोपपातम् ॥ २१. अहो वि सत्ताण विउट्टणं च जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरंच सो भासिउमरिहति किरियवाद। अधोऽपि सत्त्वानां विवर्तनं च, यः आस्रवं जानाति संवरं च । दुःखं च यो जानाति निर्जरांच, सः भाषितुमर्हति क्रियावादम् ॥ २१. जो" अधोलोक में५८ प्राणियों के विवर्तन (जन्म-मरण) को जानता है, जो आस्रव और संवर को जानता है, जो दुःख" और निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद का प्रतिपादन कर सकता है। २२. सद्देसु रुवेसु असज्जमाणे रसेसु गंधेसु अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाभिकंखे आयाणगुत्ते वलया विमुक्के । शब्देषु रूपेषु असजन, रसेषु गन्धेषु अद्विषन् । नो जीवितं नो मरणं अभिकांक्षेत, आदानगुप्तः वलयाद् विमुक्तः ॥ २२. जो शब्दों, रूपों, रसों और गंधों में राग-द्वेष नहीं करता, जीवन और मरण की आकांक्षा नहीं करता," इन्द्रियों का संवर करता है वह वलय (संसारचक्र) से मुक्त हो जाता है । -त्ति बेमि ॥ -इति ब्रवीमि ॥ -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन १२ इलोक १ : १. श्लोक १ : आगम-सूत्रों में विभिन्न धार्मिक वादों का चार श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया है-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । प्रस्तुत सूत्र के १।६।२७ में भी इन चार वादों का उल्लेख मिलता है । नियुक्तिकार ने अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का निरूपण किया है ।" १.फियाबाद क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रु तस्कंध में मिलती है । उससे क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं—आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्म और कर्मवाद ।' प्रस्तुत सूत्र में बतलाया है कि जो आत्मा, लोक, गति, अनागति, शाश्वत, जन्म, मरण, च्यवन, उपपात को जानता है तथा जो अधोलोक के प्राणियों के विवर्तन को जानता है, आस्रव, संवर, दुःख और निर्जरा को जानता है, वह क्रियावाद का प्रतिपादन कर सकता है। इससे क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं १. अस्तित्ववाद - आत्मा और लोक के अस्तित्व की स्वीकृति । २. सम्यग्वाद - नित्य और अनित्य- दोनों धर्मों की स्वीकृति -- स्यादवाद, अनेकान्तवाद | २. पुनर्जन्मबाद। ४. क्रियावाद में उन सभी धर्म-वादों को सम्मिलित किया गया है जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करते थे और जो आत्मा के कर्तव्य को स्वीकार करते थे। आचारांग सूत्र में चार वादों का उल्लेख है - आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । प्रस्तुत संदर्भ में आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद का स्वतंत्र निरूपण है । इस अवस्था में क्रियावाद का अर्थ केवल आत्म-कर्तृत्ववाद ही होगा । नियुक्तिकार ने कियाबाद के १८० प्रवादों का उल्लेख किया है।' पूर्णिकार ने १५० क्रियावादों का विवरण प्रस्तुत किया है । किन्तु वह विकल्प की व्यवस्था जैसा लगता है । उससे धर्म-प्रवादों की विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। वह विवरण इस प्रकार है— जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये नौ तत्त्व हैं । स्वतः और परतः की अपेक्षा इन नौ तत्त्वों के अठारह भेद हुए । इन अठारह भेदों के नित्य, अनित्य की अपेक्षा से छत्तीस भेद हुए । इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर, आत्मा आदि कारणों की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने पर (३६x५) १८० भेद हुए । इसकी चारणा इस प्रकार है- जीव स्वरूप से काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा नित्य है । ये नित्य पद के पांच भेद हुए । इसी प्रकार अनित्यपद के पांच भेद हुए | ये दस भेद जीव के स्व-रूप से नित्य- अनित्य की अपेक्षा से हुए । इसी प्रकार दस भेद जीव के पर रूप से नित्य - अनित्य की १. सूत्रकृतांग निर्युक्ति, गाथा १११ : अस्थि त्ति किरियावादी, वयंति णत्थि त्ति अकिरियवादी य । अण्णाणी अण्णार्थ, विणइत्ता वेणइयवादी ॥ २. दशस्कंध, दशा ६ सूत्र ७ किरियाबादी यानि भवति तं जहाहियवादी आहियपणे आहिवदिट्ठी सम्मावादी गोपावादी संतरोगवादी अपि इहलोगे अस्थि परलो सुचिया कम्मा सुचिणकता भवंति दुचिणा कम्मा दुचिणफला भवंति ३. सूयगडो, १।१२।२०,२१ । ४. आधारो, १५ : से आयाबाई, लोगावाई, कम्माबाई, किरियाबाई । ५. सूत्रकृतांग निर्युक्ति, गाथा ११२ : असियसयं किरियाणं, अक्किरियाणं च होति चुलसोती । अण्णाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६६ अध्ययन १२ : टिप्पण १ अपेक्षा से लेते हैं । इसी प्रकार शेष तत्त्वों के भी भेद होते हैं । सबका संकलन करने पर (२०४६) १८० भेद होते हैं।' चूणिकार ने प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम श्लोक की व्याख्या में क्रियावादों के बारे में संक्षिप्त सी जानकारी प्रस्तुत की है। क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं । उसका अस्तित्व मानने पर भी वे उसके स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हैं। कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे अ-सर्वव्यापी मानते हैं । कुछ मूर्त मानते हैं और कुछ अमूर्त । कुछ उमे अंगुष्ठ जितना मानते हैं और कुछ श्यामाक तंदुल जितना । कुछ उसे हृदय में अधिष्ठित प्रदीप की शिखा जैसा मानते हैं। क्रियावादी कर्म-फल को मानते हैं । आचार्य अकलंक ने क्रियावाद के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख किया है-मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर, मौद्गल्यायन आदि ।' २. अक्रियावाद नियुक्तिकार ने 'नास्ति' के आधार पर अक्रियावाद की व्याख्या की है।' नास्ति के चार फलित होते हैं-१. आत्मा का अस्वीकार, २. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार, ३. कर्म का अस्वीकार और ४. पुनर्जन्म का अस्वीकार ।' अक्रियावादी को नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ, नास्तिकदृष्टि कहा गया है ।' स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी के आठ प्रकार बतलाए गए हैं१. एकवादी ५. सातवादी २. अनेकवादी ६. समुच्छेदवादी ३. मितवादी ७. नित्यवादी ४. निर्मितवादी ८. नास्तिपरलोकवादी। विशेष जानकारी के लिए देखें-स्थानांग ८।२२ का टिप्पण (ठाणं, पृष्ठ ८३१-८३३) एकवादी के अभिमत का निरूपण प्रस्तुत सूत्र के १२१६ में मिलता है। निर्मितवादी का निरूपण ११११६४-६७ तथा २।१।३२ में प्राप्त है। सातवादी का निरूपण १।३।६६ में मिलता है। नास्तिपरलोकवाद का निरूपण १।१।११,१२ तथा २।१।१३ में मिलता है। जैन मुनि के लिए एक संकल्प का विधान है जो प्रतिदिन किया जाता है.--अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि-मैं अक्रिया का परित्याग करता हूं और क्रिया की उपसंपदा स्वीकार करता हूं।' १. चूणि, पृ० २०६ : एवं असीतं किरियावादिसतं । एएसु पदेसु णं चितितं जीव अजीवा आसव, बंधो पुण्णं तहेव पावं ति। संवर णिज्जर मोक्खो, सन्भूतपदा णव हवंति ॥ इमो सो चारणोवाओ-अस्थि जीवः स्वतो नित्यः कालतः, अत्थि जीवो सतो अणिच्चो कालतो, अत्थि जीवो परतो निच्चो कालओ, अस्थि जीवो परतो अणिच्चो कालओ र्क, अस्थि जीवो सतो णिच्चो णियतितो एवं णियतितो एक, स्वभावतो एक, (ईश्वरतो एक), आत्मतः एक, एते पंच चउक्का वीसं । एवं अजीवादिसु वि वीसावीसामेत्ताओ, णव बीसाओ आसीतं किरियावादिसतं १८० भवति । २. चूणि, पृ० २०७ : किरियावादोणं अस्थि जीवो, अत्थित्ते सति केसिंच सम्वगतो केसिंच असव्वगतो, केसिंच मुत्तो केसिंच अमुत्तो, केसिंच अंगुट्ठप्पमाणमात्रः केसिंच श्यामाकतन्दुलमात्रः, केसिंच हिययाधिट्ठाणे पदीवसिहोवमो, किरियावादी कम्म कम्मफलं च अत्थि ति भणंति । ३. तत्त्वार्थवार्तिक ८.१ भाग २ पृष्ठ ५६२। ४. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा १११ :........ " 'णत्थि ति अकिरियवादी य। ५. दशाश्रुतस्कंध, दशा ६, सूत्र ३ : अकिरियावादी यावि भवति–नाहियवादी नाहियपण्णे नाहियविट्ठी, नो सम्मावादी, नो नितिया वादी, न संति-परलोगवादी, णत्थि इहलोए णत्थि परलोए............"णो सुचिण्णा कम्मा सुचिण्ण फला भवंति, णो दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति । ६ वही, सूत्र ६ : नाहियवादी, नाहियपण्णे, नाहियविट्ठी। ७. ठाणं, ८।२२ : अट्ठ अकिरियावाई पण्णत्ता, तं जहा-एगावाई, अणेगावाई, मितवाई, णिम्मित्तवाई, सायवाई समुच्छेदवाई, णिता वाई, संतपरलोगवाई। ८. आवश्यक ४ सूत्र। Jain Education Intemational Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयगडो। अध्ययन १२ : टिप्पण १ नियुक्तिकार ने अक्रियावाद के ८४ प्रवादों का उल्लेख किया है।' चूर्णिकार के अनुसार उनका विवरण इस प्रकार है-जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-ये सात तत्त्व हैं । इनके स्वतः और परत:-ये दो-दो भेद हैं । इस प्रकार ७४२=१४ भेद हुए। काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा-इन छह तत्त्वों के साथ गुणन करने से (१४४६) ८४ भेद हुए। आचार्य अकलंक ने अक्रियावाद के कुछ प्रमुख आचार्यों का उल्लेख किया है-कौक्वल, कांठेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु मान्, कपिल, रोमश, हारित, अश्वमड, अश्वलायन आदि । चूर्णिकार ने सांख्य और ईश्वर को कारण मानने वाले वैशेषिक को अक्रियावादी माना है। सांख्य-दर्शन के अनुसार क्रिया का मूल प्रकृति है । पुरुष अकर्ता है । पुरुष के अकर्तृत्व की दृष्टि से सांख्य दर्शन को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया गया है। वैशेषिकों के अनुसार जगत् के मूल उपादान परमाणु हैं । नाना प्रकार के परमाणुओं के संयोग से भिन्न-भिन्न वस्तुएं बनती हैं । कारण के बिना कार्य नहीं होता । जगत् कार्य है और उसका कर्ता ईश्वर है । जैसे कुंभकार मिट्टी आदि उपादानों को लेकर घड़े की रचना करता है, वैसे ही ईश्वर परमाणुओं के उपादान से सृष्टि की रचना करता है। वह जीवों को कर्मानुसार फल देता है। कर्म का फल आत्मा के अधीन नहीं है इस दृष्टि से वैशेषिक दर्शन को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया है। क्रियावाद और अक्रियावाद का चिंतन आत्मा को केन्द्र में रख कर किया गया है। आत्मा है, वह पुनर्भवगामी है। वह कर्म का कर्ता है, कर्म-फल का भोक्ता है और उसका निर्वाण होता है-यह क्रियावाद का पूर्ण लक्षण है। इनमें से एक अंश को भी अस्वीकार करने वाला अक्रियावादी होता है। सांख्यदर्शन में आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है और वैशेषिक दर्शन में आत्मा कर्म-फल भोगने में स्वतंत्र नहीं है। इसी अपेक्षा से चूर्णिकार ने दोनों दर्शनों को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया, ऐसी संभावना की जा सकती है। प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने पंचमहाभौतिक, चतुर्भोतिक, स्कंधमात्रिक, शून्यवादी, लोकायतिक-इन्हें अक्रियावादी बतलाया है। ३. अज्ञानवाद अज्ञानवाद का आधार अज्ञान है ।' अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं संकलित हैं। कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में संदेह करते हैं और उनका मत है कि आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ? दूसरी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है, इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। विस्तृत जानकारी के लिए देखें-१।४१ का टिप्पण । नियुक्ति के अनुसार अज्ञानवाद के ६७ प्रकार होते हैं । उनकी गाणितिक पद्धति इस प्रकार है-जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों को सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सद्-अवक्तव्य, असद्-अवक्तव्य तथा सद्-असद्-अवक्तव्य-इन सात भंगो से गुणन करने पर १ सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ११२........ अक्किरियाणं च होति चुलसीति । २. चूणि पृ० २०६ : इदाणि अकिरियावादी काल-यदच्छा-नियति-स्वभावेश्वरा-ऽऽत्मतश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति .सप्त स्व-परसंस्था: ८ एक । इमेनोपायेन–णत्यि जीवो सतो कालओ १ स्थि जीवो परतो कालतो २ एवं यदृच्छाए वि दो २ णियतीए वि दो २ इस्सरतो वि दो २ स्वभावतो वि दो २, (आत्मतो वि दो २,) सव्वे वि बारस, जीवादिसु सत्तसु गुणिता चतुरासीति भवंति ८४ । ३. तत्त्वार्थवातिफ ८१, भाग २ पृष्ठ ५६२ : कौक्वलकाण्ठे विद्धिकौशिकहरिश्मश्रुमानकपिलरोमशहारिताश्वमुण्डाश्वलायनादिमत विकल्पात् क्रिया (अक्रिया) वादाश्चतुरशीतिविधा द्रष्टव्याः। ४. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ११२, चूणि, पृ० २०६ : सांसचा वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी चउरासीति । ५.णि, पृ० २०७ : ते तु जधा पंचमहाभूतिया चतुमतिया खंधमेत्तिया सुग्णवादिणो लोगायतिगा इच्चादि अकिरियावादिणो। ६. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा १११ :..........."अण्णाणी अण्णाणं । Jain Education Intemational Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ૪&# अध्ययन १२ : टिप्पण १ ( Ex७ ) = ६३ हुए । तथा सत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है ? उसके जानने से क्या लाभ ? असत् भावोत्पत्ति को कौन जानता है ? उसके जानने से क्या लाभ ? ये चार भंग मिलाने पर कुल ६७ भेद होते हैं । ' चूर्णिकार ने मृगचारिका की चर्या करने वाले, अटवी में रहकर पुष्प और फल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी कहा है ।" आचार्य अकलंक ने अज्ञानवादियों के कुछ आचार्यों का उल्लेख किया है-साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पैप्पल्लाद, बादरायण आदि । अज्ञानवाद का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र के १।१।४१ - ५०; १।६।२७; १।१२।२, ३; में मिलता है । अज्ञानवाद की विचारधारा की ओर मनुष्यों का झुकाव कई कारणों से हुआ था १. मनुष्य जानता है । अच्छे को अच्छा जानता और बुरे को बुरा जानता है। फिर भी अच्छाई को स्वीकार और बुराई को अस्वीकार नहीं कर पाता। इस प्रकार की मनोवृत्ति ने मनुष्य के मन में एक निराशा का भाव उत्पन्न किया कि जानने से क्या लाभ ? जान लेने पर भी बुराई नहीं छूटती और अच्छाई पर नहीं चला जाता फिर उस ज्ञान की क्या सार्थकता ? इस प्रकार की मनोवृत्ति ने अज्ञानवाद को जन्म दिया । २. कुछ लोग सोचते थे कि सत्य वही है जो इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध है । अतीन्द्रिय सत्य के बारे में बहुत चर्चा होती है, किन्तु उसका साक्षात् करने वाला कोई नहीं है। यदि कोई हो भी तो हमें क्या पता कि वह है या नहीं ? हम केवल उसकी कही हुई बात को सुनते हैं या मानते हैं। उसने अतीन्द्रिय विषय का साक्षात् किया हो-यह भी हम नहीं जान सकते और साक्षात् न किया हो - यह भी हम नहीं जान सकते । इसलिए अतीन्द्रियज्ञान की बात व्यर्थ है । इस चिन्तनधारा के अनुसार अज्ञानवाद का अर्थ होता है - अतीन्द्रिय विषयों को जानने का अप्रयत्न । अतीन्द्रिय विषयों के बारे में उलझने में इस विचारधारा के लोग सार्थकता का अनुभव नहीं करते थे इन्द्रियगम्य सत्य के द्वारा ही जीवन की समस्याओं को सुलझाने और दुखों से मुक्ति पाने का प्रयत्न करते हैं। ३. कुछ लोग वर्तमान जन्म में उपलब्ध विषयों से विरत होकर अदृष्ट पुनर्जन्म की खोज करने को यथार्थं नहीं मानते थे । प्राप्त को त्याग कर अप्राप्त के प्रति दौड़ना उन्हें बुद्धिमत्ता प्रतीत नहीं होती थी। उन्होंने जीवन के अतीत और भावी —- दोनों पक्षों को छोड़कर केवल वर्तमान जीवन की समीक्षा करना ही पसन्द किया। उन्होंने वर्तमान जीवन के लिए इन्द्रियज्ञान को पर्याप्त समझ कर अतीन्द्रियज्ञान की उपेक्षा की और तद् विषयक अज्ञानवाद का समर्थन किया । जयधवला में अज्ञानवाद के पश्चात् और विनयवाद के पूर्व 'ज्ञानवाद' का उल्लेख मिलता है। * ज्ञानवादी ज्ञान का ही समर्थन करते थे । विनयवाद की भूमिका के रूप में इसका उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । ४. विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है ।" चूर्णिकार के अनुसार विनयवादियों का अभिमत है कि किसी भी संप्रदाय या गृहस्थ १. चूर्णि, पृ० २०६ : अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदाविसप्तविधान् । भावोत्पत्ति सबसन्तको बेति ? ६७ ॥ इमे दिद्विविधाण - सन् जीव को वेत्ति ? "एवमेते सत्त णवगा तिसट्ठी ६३, इमेहि संजुत्ता सत्तसट्ठी ६७ हवंति, तं जधा - सती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? १ असती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? कि श ताए जाताए ? २ सदसती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? ३ अवचनीया भावोत्पत्ति को वेत्ति ? कि वा ताए जाताए ? ४ । उक्ता अज्ञानिकाः । २ पूर्ण १० २०७ ते तु भगवारियादयो अडीए पुष्क- फलभयो बच्चादि अन्याणिया । ३. तत्त्वार्थवार्तिक ८१, भाग २ पृष्ठ ५६२ : साकल्यवाष्कलकुथु मिसात्यमु ग्रिनारायण काठमाध्यन्दिनीमोदप्पप्पलादबादरायणस्विष्ठिकृतिकायनमिनिप्रभृतिदित्संख्या अज्ञानवादा या ४. कसायपाहुड, भाग १, पृष्ठ १३४ : किरियावादं अकिरियावादं अण्णाणवादं णाणवादं वेणइयवाद ५. सूत्रांग निर्मुक्ति गाया १११- विगतवारी। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ४६६ श्रध्ययन १२ : टिप्पण की निन्दा नहीं करनी चाहिए। सबके प्रति विनम्र होना चाहिए । विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। देवता, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, कृपण, माता, पिता- इन आठों का मन से, वचन से, काया से और दान से विनय करना (८x४ = ३२ ) । ' विनयवादी दर्शन के कुछ प्रमुख आचार्य ये हैं- वशिष्ठ, पाराशर, वाल्मीकि, व्यास, इलापुत्र, सत्यदत्त आदि ।' चूर्णिकार ने नियुक्ति गाथा (११२) की व्याख्या में 'दाणामा' 'पाणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी बतलाया है और श्लोक की व्याख्या में आणामा, पाणामा आदि का विनयवादियों के रूप में उल्लेख किया है । * प्रस्तुत भगवती सूत्र में आणामा और पाणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है । तामलिप्ति नाम की नगरी में तामली गाथापति रहता था । उसने 'पाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की । उसका स्वरूप इस प्रकार है- पाणामा प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वह तामली जहां कहीं इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, दुर्गा, चामुण्डा आदि देवियों तथा राजा ईश्वर ( युवराज आदि), तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक ईभ्यष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता या चांडाल को देखता तो उन्हें प्रणाम करता। उन्हें ऊंचा देखता तो ऊंचे प्रणाम करता, और नीचे देखता तो नीचे प्रणाम करता । " पूरण गाथापति ने ‘दाणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसका स्वरूप इस प्रकार है- प्रव्रज्या के पश्चात् वह चार पुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में भिक्षा के लिए गया। जो भोजन पात्र के पहले पुट में गिरता उसे पथिकों को दे देता । जो भोजन दूसरे पुट में गिरता उसे कौए, कुत्तों को दे देता । जो भोजन तीसरे पुट में गिरता उसे मच्छ-कच्छों को दे देता । जो चौथे पुट में गिरता वह स्वयं खा लेता । यह दाणामा प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार है। वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी विनय का अर्थ विनम्रता ही किया है । किन्तु यह अर्थ विचारणीय है। यहां विनय का अर्थ आचार होना चाहिए । ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचारवादी केवल आचार पर ही बल देते थे । उनका घोष था - 'आचारः प्रथमो धर्मः' । ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं । प्राचीन साहित्य में आचार के अर्थ में विनय का बहुलता से प्रयोग हुआ है ज्ञाताधर्मकया सूत्र में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बतलाया गया है । थावच्चापुत्र ने शुकदेव से कहा- मेरे धर्म का मूल विनय है।" यहां विनय शब्द मुनि के महाव्रत और गृहस्थ के अणुव्रत के अर्थ में व्यवहृत है। बौद्धों के विनयपिटक में विनय - आचार की व्यवस्था है। विनय शब्द के आधार पर विनम्रता और आचार - दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। आचार पर अधिक बल देने वाली दृष्टि का प्रतिपादन बौद्ध साहित्य में भी मिलता है । जो लोग १. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा १११, चूर्णि पृ० २०६ : वेणइयवाविणो भणति - ण कस्स वि पासंडल्स गिहत्यस्स वा जिंदा कायव्वा, सव्वस्सेव विणीयविणयेण होतव्वं । २. सूत्रकृतांग निर्मुक्ति, गाथा ११३, चूर्णि, पृ० २०७ : वैनयिकमतं १ विनयश्चेतो वाक्- काय दानतः कार्यः । gr-qafa-afa-ang-safari-sau-ang-fagg a २. दर्शनसमुच्चय श्री गुणरत्नसूरी, दीपिका, पृ० २२ वशिष्ठपराशरात्मोकिम्यासेस | पुत्रसत्यदत्तप्रभृतयः । ४ (क) सूत्रकृतांग निर्मुक्ति, गाथा ११३, चूणि, पृ० २०६ : वेणइयवादीणं बत्तीसा दाणामा-पाणामादिप्रव्रज्यादि । (ख) सूयगडो १।१२।१, चूर्णि, पृ० २०७ : वेणइया तु आणाम-पाणामादीया कुपासंडा । ५. भगवई, ३।३४ : से केणट्ठेण भंते एवं वृच्चइपाणामा पव्वज्जा ? गोयमा ! पाणामाए णं पव्वज्जाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ - इंदं वा खंदं वा रद्दं वा सिवं वा वेसमणं वा अज्जं वा कोट्टकिरियं वा रायं वा ईसरं वा तलवरं वा माबि वा कोबिगं वा इन्भं वा सेट्ठि वा सेणावई वा सत्यवाहं वा काकं वा साणं वा पाणं वा उच्चं पासह उच्चं पणामं करेइ, नीयं पासइ नोगं पणामं करेइ, ज जहा पासइ तस्स तहा पणामं करेइ । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ पाणामा पव्वज्जा । सयमेव चउegsi दारुमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता ६ भगवई ३ । १०२ : तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ दाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए । ७. वृत्ति, पत्र २१३ : इदानीं विनयो विधेयः । ८. नायाधम्मक हाओ, ११५५६ तए णं यावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासीभूयंसणा विषयमूलय धम्मे Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०० अध्ययन १२ : टिप्पण २-७ आचार के नियमों का पालन करने मात्र से शील-शुद्धि होती है-ऐसा मानते थे, उन्हें 'सीलब्बतपरामास' कहा गया है । केवल ज्ञानवादी और केवल आचारवादी - ये दोनों धाराएं उस समय प्रचलित थीं। विनयवाद के द्वारा एकान्तिक आचारवाद की दृष्टि का निरूपण किया गया है। विनम्रतावाद आचारवाद का ही एक अंग है, इसलिए उसका भी इसमें समावेश हो जाता है । किन्तु विनयवाद का केवल विनम्रतापरक अर्थ करने से आचारवाद का उसमें समावेश नहीं हो सकता । २. समवसरण (समोसरणाणि) समवसरण का अर्थ है-वाद-संगम । जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं । ' ३. प्रावादुक (प्रावाया ) प्रावादुक का अर्थ है - प्रवक्ता, किसी दर्शन का प्रतिपादन करने वाला ।' श्लोक २ : ४. सम्मत नहीं है (असंधुया) असंस्तुत का अर्थ है - असम्मत । जिनका सिद्धान्त लौकिक परीक्षकों के द्वारा भी सम्मत न हो, जो समस्त शास्त्रों से बाहिर हो, मुक्त हो, वह सिद्धान्त या दर्शन असंस्तुत कहलाता है।" वृत्तिकार ने इसका अर्थ - असंबद्धभाषी किया है ।" ५. संशय का ( वितिगिच्छ ) विचिकित्सा का अर्थ है-वितविलुप्ति, वित्तभ्रांति, संजाय ।" ६. मृषा बोलते हैं (मुलं वदंति ) चूर्णिकार ने शाक्यों को भी प्रायः अज्ञानवादी माना है। शाक्यों की मान्यता है कि अविज्ञानोपचित कर्म नहीं होता । इसलिए जो बालक, मत्त या सुप्त हैं, उनका ज्ञान स्पष्ट नहीं होता अतः उनके कर्म-बंध नहीं होता । वे सब अज्ञानी हैं । जैसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही वे शाक्य उपदेश करते हैं। 'अज्ञान' से बंध नहीं होता यह मान्यता उनके शास्त्रों में निबद्ध है ।" इस दृष्टि से वे मृषा लोलते हैं । श्लोक ३ : ७. श्लोक ३ : प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरण अज्ञानवादी मत के और शेष दो चरण विनयवादी मत के प्रतिपादक हैं। चूर्णिकार का यह १. धम्मसंगणि [ना० सं ], पृ० २७७ तत्थ कतमो सीलब्बतपरामासो ? इतो बहिद्धा समण-ब्राह्मणानां सीलेन सुद्धिवतेन सुद्धि सीलब्बतेन सुद्धी ति-या एवरूपा बिट्ठि विद्विगतं ये० विपरियासम्गाहो - अयं युपपति सीलम्बत परामासो । २. चूर्ण, पृ० २०७ : समवसरंति जेसु दरिसणाणि विट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । ३. चूर्ण, पृ० २०७ : प्रवदन्तीति प्रावादिकाः । ४. चूर्ण, पृ० २०८ : असंयुता णाम ण लोइयपरिवखगाणं सम्मता सव्वसत्थबाहिरा मुक्का । ५. वृत्ति, पत्र २१६ : 'असंस्तुता' - अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादितया असंबद्धाः । ६ वृत्ति पत्र २१६ विचिकित्सा-चित्तविलुप्तिविभ्रान्तिः संशीतिः । ७. (क) चूणि, पृ० २०८ : शाक्या अपि प्रायश: अज्ञानिकाः येषामविज्ञानोपचितं कर्म नास्ति, जैसि च बाल-मत्त सुत्ता अकम्मबद्धगा, ते सव्व एव अण्णाणिया । सस्यधम्मता सा तसि जध चेव ठितेल्लगा तध चेव उवदिसंति, जधा - अण्णाणेण बंधो णत्थि, सह चैव ताणि सक्ष्याणि णिबद्धाणि । (ख) वृत्ति पत्र २१७। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०१ अध्ययन १२ : टिप्पण ८-१० अभिमत है। वृत्तिकार ने पूरे श्लोक को विनयवादी मत का प्रतिपादक माना है। यह भ्रांति है। ८. (सच्चं असच्चं............."उदाहरंता) चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ इस प्रकार किया हैअज्ञानवादी ऐसा चिन्तन करते हैं कि सत्य भी कभी-कभी असत्य हो जाता है, इसलिए सत्य भी नहीं कहना चाहिए । साधु को देखकर भी उसे साधु न कहा जाए। कभी वह साधु हो सकता है और कभी असाधु हो सकता है। चोर कभी चोर हो सकता है और कभी अ-चोर हो सकता है। वेष के आधार पर स्त्री को स्त्री न कहा जाए। वह स्त्री भी हो सकती है, पुरुष भी हो सकता है । इसी प्रकार पुरुष पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी हो सकता है । इस प्रकार सभी विषयों में अभिशंकित होने के कारण उनके दर्शन के लिए असम्यग्दर्शन सम्यग् और सम्यग्दर्शन असम्यग् बन जाता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वे (विनयवादी) सत्य को असत्य और असत्य को सत्य तथा असाधु को साधु मानते हैं।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने जो अर्थ किए हैं वे मूल से बहुत दूर जा पड़ते हैं। यथार्थ में अज्ञानवादी प्रत्येक विषय में अभिशंकित होते हैं । वे किसी भी तथ्य का निश्चय नहीं कर पाते । प्रस्तुत दो चरणों में यही स्पष्ट किया गया है। परलोक, स्वर्ग, नरक सत्य हैं या असत्य हैं-ऐसा पूछने पर वे कहते हैं हम नहीं जानते। वे यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है यह बुरा है। (विशेष विवरण के लिए देखें ११४१ का टिप्पण)। ६. विनय को ही यथार्थ बतलाते हैं (भावं विणइंसु) भाव का अर्थ है --- यथार्थ का उपलंभ । विनयवादी विनय को ही यथार्थ मानते हैं। कोई व्यक्ति उनसे पूछता है-तुम्हारा धर्म कैसा है ? वे कहते हैं-हमारा यह विनयमूल धर्म परिगणना, परीक्षा और मीमांसा करता रहता है। हम विनय धर्म की प्ररूपणा करते हैं। हम सबको अविरोधी मानते हैं--मित्र और अरि को सम मानते हैं। हम समस्त प्रव्रजित व्यक्तियों तथा देवों को प्रणाम करते हैं। जैसे दूसरे मतावलंबी परस्पर विरोध रखते हैं, हम वैसा नहीं करते। हम प्रव्रजित होते ही, इन्द्र हो या स्कन्द, जब ऊंचे को देखते हैं तो ऊंचा प्रणाम करते हैं, नीचे को देखते हैं तो नीचा प्रणाम करते हैं। जो स्थान या ऐश्वर्य से ऊंचा है, जैसे राजा, सेठ आदि उनको देखते ही हम ऊंचा प्रणाम करते हैं और जो क्षुद्र प्राणी हैं, जैसे कुत्ता आदि, उनको नीचा प्रणाम करते हैं । हम भूमि पर शिर रख कर नमन करते हैं।' श्लोक ४: १०. अज्ञानवश (अणोवसंखा) इसका संस्कृत रूप है-अनुपसंख्यया । संख्या का अर्थ है---ज्ञान, 'उप' का अर्थ है-समीप । उपसंख्या अर्थात् ज्ञान के समीप । न उपसंख्या-अनुपसंख्या अर्थात अज्ञान।" १. चूणि, पृ० २०८ : सच्चं मोसं . . . . . 'वुत्ता अण्णाणिया । इदाणी वेणइयवादी-जेमे जणा वेणइया.... । २. वृत्ति, पत्र २१८ : साम्प्रतं वैनयिकवादं निराचिकीर्षुः प्रक्रमते-'सच्चं असच्चं'। ३. चूणि, पृ० २०८ । ४. वत्ति, पत्र २१८ । ५. चूणि, पृ० २०८। ६. चूर्णि, पृ० २०९ : संखा इति णाणं, संखाए समोवे उपसंखा, ण उपसंखा अणोपसंखा अज्ञानं इत्यर्थः । Jain Education Intemational Education International Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०२ अध्ययन १२: टिप्पण ११-१२ वृत्तिकार ने उपसंख्या का अर्थ-वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानना—किया है । अनुपसंख्या का अर्थ है-अपरिज्ञान ।' ११. कर्म से बद्ध नहीं होता (लवावसक्की) लव का अर्थ है-कर्म । अवष्वस्क का अर्थ है-दूर रहना अर्थात् कर्म से दूर रहना ।' चूर्णिकार ने लव के दो अर्थ किए हैं-कर्म तथा काल । क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष,मास, ऋतु, अयन, संवत्सर आदि काल के अनेक भेद हैं। अक्रियावादी मानते हैं कि आत्मा अतीत, वर्तमान और भविष्य में भी कर्म से बद्ध नहीं होता। 'लव' शब्द 'लू' धातु से बना है । लव का एक अर्थ है-विनाश । कर्म विनाश का मूल कारण है, अत: 'लव' का अर्थ 'कर्म' किया गया है। श्लोक ५: १२. श्लोक ५: चूर्णिकार के अनुसार अक्रियावादी (लोकायतिक, बौद्ध, सांख्य) दर्शन दो प्रकार के धर्म (कर्म) का प्रतिपादन करते हैंएकपाक्षिक और द्विपाक्षिक । एकपाक्षिक कर्म का अभिप्राय यह है कि उसमें क्रियामात्र होती है, कर्म का चय नहीं होता, बंध नही होता। वह कर्म इसी भव में भोग लिया जाता है । एकपाक्षिक कर्म के चार प्रकार हैं-अविज्ञानोपचित, परिज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वप्नान्तिक । द्विपाक्षिक कर्म वह होता है जिसमें चार का योग होता है-(१) सत्त्व (२) सत्त्वसंज्ञा (३) मारने का संकल्प (४) प्राणवियोजन । इससे होने वाला कर्म-बंध द्विपाक्षिक होता है- इस जन्म में भी भुगता जाता है और परजन्म में भी भुगता जाता है। जैसे-चोर यहां चोरी करते हैं । इसी भव में उन्हें कारावास, बन्धन, वध आदि दंड भुगतने पड़ते हैं। शेष परिणाम उन्हें अगले जन्म-नरक आदि में भुगतने पड़ते हैं।' एकपाक्षिक वृत्तिकार ने अक्रियावादियों के एकपाक्षिक तथा द्विपाक्षिक कर्म को विभिन्न प्रकार से व्याख्यात किया है__वे (अक्रियावादी) कहते हैं-हमारा दर्शन एकपाक्षिक है, उसका कोई प्रतिपक्ष नहीं है । वह एकान्तिक और पूर्वापर-अविरुद्ध द्विपाक्षिक वे अक्रियावादी कहते हैं-हमारे दर्शन से भिन्न दर्शन द्विपाक्षिक हैं, क्योंकि उनका प्रतिपक्ष प्राप्त होता है, वे अनैकान्तिक और पूर्वापरविरुद्ध वचनों के प्रतिपादक हैं। हम द्विपाक्षिक दो दृष्टियों से हैं-- १. हम कर्म बन्ध और कर्म-निर्जरण-इन दो पक्षों को स्वीकृति देते हैं। १वृत्ति, पत्र २१८ : संख्यानं संख्या-परिच्छेदः उप–सामीप्येन संख्या उपसंख्या---सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानं, नोपसंख्याऽनुपसंख्या तयाऽनुपसंख्यया-अपरिज्ञानेन । २. वृत्ति, पत्र २१८ : लवं-कर्म तस्मादपशङ्कितुम्-अपसतुं शोलं येषां ते लवापशङ्किनः। ३. चूणि, पृ० २०६ : लवमिति कर्म, वयं हि लवात्--कर्मबन्धात् अवसक्कामो किट्टामो अवसराम इत्यर्थः, संववहारबंधेणावि ण बज्झामो, किं पुण णिच्छयतो ? .... अथवा अवसक्कि त्ति क्षण-लव-मुहूर्त-अहोरात्र-पक्ष-मास-र्वयन-संवत्सरादिलक्षणे काले सर्वत्र कर्मबन्धादवशक्नुमः । लवः कालः, वर्तमानादवसक्कामो। ४. चूणि पृ० २१० : ते पुण अक्किरियावाविणो दुविधं धम्मं पण्णवेंति, तं जधा-इमं दुपक्खं इमं एगपक्खं तावत् अविज्ञानोपचितं परिजो पचितं ईर्यापथं स्वप्नान्तिकं च चतुर्विधं कर्म चयं न गच्छति, एतद्धि एकपाक्षिकमेव कर्म भवति, का तहि भावना ? क्रियामात्रमेव, न तु चयोऽस्ति, बन्धं प्रतीत्याविकल्प इत्यर्थः एगपक्खियं । दुपक्खियं तु यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च सञ्चित्य जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपातः, एतद् इह च परत्र चानुभूयते इत्यतो दुपक्खिक, यथा चौरादयः इह पुष्फमात्रमनुभय शेषं नरकादिष्वनुभवन्ति । Jain Education Interational Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०३ प्रध्ययन १२ : टिप्पण १३ २. हमारा एक पक्ष यह है कि चार प्रकार के कर्म-अविज्ञोपचित, परिज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वप्नान्तिक-इहभव वेद्य होते हैं । हमारा दूसरा पक्ष यह है कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका बेदन इहभव और परभव दोनों में होता है।' इहभब वेद्य और जन्मान्तर वेद्य कर्मों के आधार पर बौद्ध एकपाक्षिक भी है और द्विपाक्षिक भी है। उसकी मान्यता है कि क्रियाचित्त से जो कर्म किया जाता है, उससे कर्मों का चय नहीं होता, बंध नहीं होता । वह इहभव वेद्य कर्म है। कुशलचित्त और अकुशलचित्त से जो कर्म किया जाता है, उससे कर्मों का चय होता है, बंध होता है। उसका परिणाम दोनों भवों-इहभव और परभव में भुगतना पड़ता है । विपाक या फलदान के आधार पर वे चार प्रकार के कर्म मानते हैं १. दिट्ठधम्मवेदनीय- इसी शरीर में भुगते जाने वाले कर्म । २. उपपज्जवेदनीय-परभव में भुगते जाने वाले कर्म । ३. अपरापरियवेदनीय-जन्म-जन्मान्तर में भुगते जाने वाले कर्म । ४. आहोसिकम्म-अविपाकी कर्म । वह कर्म जिसका कोई फल नहीं होता।' चूणि और वृत्तिगत व्याख्या के आधार पर एकपक्ष और द्विपक्ष वाली मान्यता मुख्यत: बौद्धों की रही है । बौद्ध ग्रंथ इसके साक्षी हैं। षट् आयतन कर्म के छह आयतन या आश्रवद्वार ये हैं- १. श्रोत्र आयतन २. चक्षु आयतन ३. घ्राण आयतन ४. रसन आयतन ५. स्पर्शन आयतन ६. मन: आयतन । ये छह कर्म के उपादान कारण है।' चूर्णिकार ने केवल यही एक अर्थ किया है । वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है। उनके अनुसार यह छल का आयतन-स्थान है। जैसे किसी ने कहा - 'नवकम्बलो देवदत्तः ।' सुननेवाला इसके दो अर्थ निकाल सकता है । 'नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं-नया और नौ (संख्या) । यह 'छल' है।" श्लोक ७: १३. श्लोक ७: प्रस्तुत श्लोक की तुलना संयुक्तनिकाय के इस अंश से होती है"--- 'न वाता वायंति, न नज्जो संदंति, न गम्मिणियो विजायंति, न चंदिम-सूरिया उदेति वा अति वा ।' १. वृत्ति, पत्र २२० : अस्मदभ्युपगतं दर्शन मेकः पक्षोऽस्येति एकपक्षमप्रतिपक्षतयकान्तिकमविरुद्धार्थाभिधायितया निष्प्रतिबाधं पूर्वापरा विरुद्धमित्यर्थः, .... द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं -सप्रतिपक्षमनैकान्तिकं पूर्वापरविरुद्धार्थाभिधायितया विरोधिवचनमित्यर्थः,..... यदिवेदमस्मवीयं दर्शनं द्वौ पक्षावस्येति द्विपक्षं--कर्मबन्धनिर्जरणं प्रतिपक्षद्वयसमाश्रयणात्, तत्समाश्रयणं चेहामुत्र च वेदनां चौरपारदारिकादीनामिव, ते हि करचरणनासिकादिच्छेदादिकामिहैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विडम्बनामनुभवन्ति अमुत्र च नरकादौ तत्फलभूतां वेदनां समनुभवन्तीति, एवमन्यदपि कर्मोभयवेद्यमभ्युपगम्यते, तच्चेदं 'प्राणी प्राणिज्ञान' मित्यादि पूर्ववत्, तथैकमेकः पक्षोऽस्येत्येकपक्षं इहैव जन्मनि तस्य वेद्यत्वात्, तच्चेदम् ---अविज्ञोपचितं परिज्ञोपचितमीर्यापथं स्वप्नान्तिकं चेति । २. अभिधम्मत्यसंगहो ५११६ : पाकदान परियायेन-दिठुधम्मवेदनीयं उपपज्जवेदनीय अपरापरियवेदनीयं अहोसिकम्मञ्चेति नवनीत टीका:दिट्ठधम्मे इमस्मि चेव अत्तभावे वेदनीयं फलदायक । यस्य विपाको उपपज्जित्वा वेदनीयो, तं उपपज्जवेदनोग, समनन्तरमवतो अपरापरेसु भवेसु विपच्चमानं अपरापरियवेवनीगं, यस्स विपाको न होति, तं आहोसिकम्मं नाम । ३. चूणि, पृ० २१०: षडायतनमिति षड् आयतनानि यस्य तदिदं आथवद्वारमित्यर्थः, तद्यथा-श्रोत्रायतनं यावन्मनआयतनम् । ४. वृत्ति, पन २२०:छलायतनं-छलं नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकम् । ५. संयुक्तनिकाय, II, पृ०४१४ । Jain Education Intemational Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ १४. निरुद्धप्रज्ञ ( णिरुद्ध पण्णा ) ज्ञानावरण के उदय से जिनकी प्रज्ञा निरुद्ध होती है, वे निरुद्धप्रज्ञ कहलाते हैं । वे वास्तविकता को नहीं देख पाते । जो अनिरुद्धप्रज्ञ होते हैं वे प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा अथवा परोक्षज्ञान --आगम के द्वारा जीव आदि पदार्थों को यथार्थ रूप में जानते हैं । अवधि, मनःपर्यंव और केवल —ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष और मति और श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष होते हैं । प्रत्यक्षज्ञानी जीव आदि पदार्थों को करतलामलकवत् साक्षात् देखते हैं । समस्त श्रुतज्ञानी उन्हें लक्षण द्वारा जान लेते हैं तथा अष्टांग महानिमित्त के पारगामी निमित्त के द्वारा जान लेते हैं । ** श्लोक ८ : १५. श्लोक 8 : प्रस्तुत श्लोक में अष्टांग निमित्त का निर्देश मिलता है । निमित्त के आठ अंग हैं- भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष, अंग, स्वर, लक्षण और व्यंजन । यहां संवत्सर, स्वप्न, लक्षण, देह और उत्पात ये पांच साक्षात निर्दिष्ट हैं, शेष तीन इनके द्वारा सूचित हैं । संवत्सर, अन्तरिक्ष और ज्योतिष- ये तीनों एकार्थक हैं । यह अष्टांग निमित्त नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु से उद्धृत है । इसका अध्ययन कर भविष्य को जाना जा सकता है तथा भूत और वर्तमान को भी जाना जा सकता है । अष्टांगनिमित्तज्ञ व्यक्ति केवली की तरह तीनों काल की बात बता सकता है । " श्लोक 8 : चूर्णिकार ने अष्टांगनिमित्त के ग्रन्थमान का भी उल्लेख किया है। अंग को छोड़कर शेष सात विषयों का अनुष्टुभ छन्द के अनुपात से १२५० सूत्र हैं और उनकी परिभाषा गत टीका साढे बारह लाख श्लोक परिमाण की है। अंग के सूत्र का परिमाण साढे बारह हजार और वृत्ति का परिमाण साढे बारह लाख श्लोक हैं । वार्तिक अपरिमित है । इतने विशाल अष्टांगनिमित्त का अध्ययन करने पर भी सब समान ज्ञानी नहीं होते। उनमें षट्स्थानपतित (अनन्तभागहीन और अनन्तगुण अधिक) अन्तर होता है। चतुर्दशपूर्वी तथा आचारधर आदि में भी इतना ही अन्तर होता है । । (ख) वृत्ति, पत्र २२२ ३. (क) चूर्ण, पृ० २१२ १६. (केई णिमिता...) अभिन्नदनपूर्वी अष्टांगनिमित्त कोनी पूर्व में ही पढ लेते हैं फिर वह उनके गुणित और परिणत हो जाता है। इसलिए उनका निमित्त यथार्थं होता है । प्रत्येक ज्ञान में षट्स्थानपतित अन्तर होता है। कुछ लोग विशुद्ध नैमित्तिक पुरुषों की दृष्टि से हीन १. चूर्ण, पृ० २११ : निरुद्धा येषां प्रज्ञा ते भवन्ति निरुद्धपन्ना णाणावरणोदयेण, अथवा ते वराकाः कथं ज्ञास्यन्ति ये आगमज्ञान परीक्षा एवं ? जे पुण अनिरुद्धपन्ना ते प्रत्यक्षेण या आगमेन परोक्षेण जीवादी पदार्थान् पचादानन्ति तत्रावधिमनःपर्याय- केवलानि प्रत्यक्षम् मतिभूते परोक्षम् प्रत्यक्षज्ञानिनस्तायजीवादी पदार्थान् करतलामलक पयन्ति समताणणो विलक्षण असंगमहानिमित्तपारणा वि साधवो जयंति मिले। २. (क) पुष १० २१२ वरसर- निमित्तं मे एगडिया, (ख) वृत्ति, पत्र २२२, २२३ ॥ अध्ययन १२ टिप्पण १४-१६ श्लोक १० : संपत्सरे तिया अंतरिवेति वा जोतिसेति वा मिगं सुविणभावा व, लक्खणं सारीरं । एतेण चैव सेसयाएं पि सूइताएं, तं जधा - मोमं १ उप्पात २ सुमिणं ३ अंतरिवखं ४ अंगं ५ सरं ६ लक्खणं ७ वंजणं ८ णवधस्स पुव्वस्स ततियातो आयारवत्यूतो एतं णीणितं जाणंति अणागताई, अतिक्रान्त वर्तमानानि च केवलिवद् वाकरेति । अङ्गवर्णानां अनुष्टुभेन च्छन्दसा अर्द्धत्रयोदश शतानि (सूत्रम्), एवं तावदेव शतसहस्राणि परिभाषाटीका । अस्य तु अत्रयोदश सहस्राणि सूत्रम् तावदेव शतसहस्राणि वृत्ति, अपरिमितं वार्तिकम् एवं निमित मध्यधीत्य न स तुल्याः परस्वरतः पद्स्याम्यतिताः, चोट्सपुष्यो वि पहाणपडिता एवं आवारपरायी वि रणदिया। " Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो १ xox अध्ययन १२ : टिप्पण १७ ज्ञान वाले होते हैं । वे सम्यक् तत्त्व को उपलब्ध नहीं होते, परिभाषा सहित निमित्तांगों का अध्ययन करने पर भी उनका निमित्त यथार्थ नहीं होता । कुछ लोग निमित्त का अध्ययन नहीं करते अथवा सम्यक् प्रकार से नहीं करते, उस स्थिति में उनका निमित्त यथार्थ नहीं होता, तब वे कहते है यह सब मिथ्या है।' किसी मनुष्य को जाने की शीघ्रता थी। वह जाने लगा तब किसी को छींक आ गई। वह शंकित मन से गया । उस समय कोई दूसरा शुभ शकुन हो गया। उससे छींक प्रतिहत हो गई । उसका काम सिद्ध हो गया, तब उसने सोचा- निमित्तशास्त्र झूठा है। मैं अपशकुन में चला था, फिर भी मेरा काम सिद्ध हो गया । कोई आदमी शुभ शकुन में चला, किन्तु अन्य अशुभ शकुन के द्वारा उसका शुभ शकुन प्रतिहत हो गया। उसका काम सिद्ध नहीं हुआ तब उसने सोचा- निमित्त शास्त्र झूठा है। मैं शुभ शकुन में चला था, फिर भी मेरा कार्य सिद्ध नहीं हुआ । इन दोनों प्रतिघातों (शुभ के द्वारा अशुभ का और अशुभ के द्वारा शुभ का) को नहीं जानने वाला मनुष्य कहता है कि निमित्तविद्या सारहीन है, इसलिए इसका परिमोक्ष कर देना चाहिए, इसे नहीं पढना चाहिए । निमित्त कहने वाले सब मिथ्यावादी हैं।' बुद्ध ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा 'अभी बारह वर्षों का दुष्काल होने वाला है, इसलिए तुम सब देशान्तर में चले जाओ ।' जब वे प्रस्थान करने लगे तब उन्हें रोक दिया और कहा - 'अब सुभिक्ष होने वाला है।' कारण की जिज्ञासा करने पर बुद्ध ने कहा-आज एक पुण्यवान् पुरुष पैदा हुआ है। उसके कारण सुभिक्ष होगा, दुर्भिक्ष का खतरा टल गया ।' इससे ज्ञात होता है कि निमित्त जिस घटना है । इसलिए उसकी गहराई को न समझने वाले उसके की सूचना देता है, परिस्थिति बदल जाने पर वह घटना अन्यथा भी हो जाती परिमोक्ष की बात कह देते हैं । मोक्ष के प्रति निरर्थक मान उसे छोड़ देते हैं । श्लोक ११ : १७. विद्या और आचरण के द्वारा (विश्वाचरणं) विद्या का अर्थ है - ज्ञान और चरण का अर्थ है-— चारित्र – क्रिया । - प्रस्तुत चरण - 'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं' में ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति की बात कही है । सांख्य आदि केवल ज्ञान से मुक्ति का कमन करते हैं वे ज्ञानवादी हैं। अनवाद केवल क्रिया (शील या आचार) से मुक्ति का कथन करते हैं । इन दोनों एकान्तिक मतों का निरास करने के लिए सूत्रकार ने 'आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं' का उल्लेख किया है। विकार ने इस तथ्य की पुष्टि में सिद्धसेन दिवाकर का एक श्लोक उद्धृत किया है २. पूर्ण पृ० २२२ १. पूणि, पृ० २२२ : अभिन्नवसपुब्विणो हेट्ठेण एतं अट्ठगं पि महानिमित्तं अघोतं गुणितुं वा अधित एमेव केचित् परिणामयंति, ते पति गिमिता धिया चयंति केति पुष बुद्धिर्ककयाद् विशुद्धमित्तिके हितो न्हं ठाणा अम्मतरं ठाणं परिहीणा अविसुद्ध खयोवसमा विपर्ययज्ञानं भवति, असम्यगुपलब्धिरित्यर्थः, (? सपरिभवमप्यङ्गमित्यर्थः ? ) सपरिभवमप्यङ्गमधीत्य अधीतेन निमित्तेण दुरधीतेन वितथं दृष्ट्वा निमित्तं वदति - निमित्तमेव णत्थि । शनि एवं गतः तस्य चान्यः शुभः शकुन उत्थितः येनास्तत्सुतं प्रतिहतम् स च तेन शकुनेनोपलक्षितः सन् मन्यते व्यलीकमेव निमित्तम्, येनाशकुनेऽपि सिद्धिर्माता इति एवं होम राहुतमन्येनाशोमनेनाप्रतिहतमनुष्यमान कार्यसिद्धिनिमित्तमेव नास्तीति मन्यते अपरिणामवन्त एवं बराकाश्वमपि णिमितमपरिणामयतः अहं विश्वापतिमोक्तमेव निमितविद्यापरिमोक्षम् एवं हि कर्तव्यम्, नाधीतव्यानि निमित्तशास्त्राणीत्यर्थः किञ्चित् तथा किञ्चिदन्यथेति कृत्वा मा भून्मृषावादप्रसङ्गः । ३. चूर्ण, पृ० २२२ : बुद्ध किल शिष्यानाहूयोक्तवान् — द्वादश वर्षाणि दुर्भिक्षं भविष्यति तेन देशान्तराणि गच्छत, ते प्रस्थितास्तेन प्रतिषिद्धाः, सुभिक्षमिदानीं भविष्यति, कथम् ? अर्थ वैकः सत्वः पुण्यवान् जातः तत्प्राधान्यात् सुभिक्षं भविष्यतीति । अतो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति कृत्वा ...मोक्षं च प्रति निरर्थकमित्यतस्तैरुत्सृष्टम् । ४. चूर्ण, पृ० २१३ : विज्जया चरणेण पमोक्खो भवति न तु यया संख्या ज्ञानेनैवैकेन, अज्ञानिकाश्च शीलेनैवकेन । ५. सिद्धसेन द्वात्रिंशिका १, कारिका २१ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५०६ अध्ययन १२ टिप्पण १८-२३ : , कियां च सज्ञानवियोगनिल क्रियाविनयसंपद निरयंका कलेशसमूहशान्तये त्वया शिवायशालिखितेय पद्धतिः ॥ - सद् ज्ञान के बिना क्रिया निष्फल है और क्रियाविहीन ज्ञानसंपदा भी निष्फल है । आपने ( महावीर ने ) केवल ज्ञान या केवल क्रिया को क्लेश- समूह की शांति के लिए निरर्थक बता कर जगत् को कल्याणकारी मार्ग बताया है । इलोक १२ : १८. चक्षु (च) छंद की दृष्टि से यहां ह्रस्व का प्रयोग है। इसका अर्थ है कि तीर्थंकर लोक के लिए चक्षु के समान या प्रदीप के समान होते हैं।' १६. नायक ( जायगा ) नायक का अर्थ है-ले जाने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-देशक और प्रकर्षक' तथा वृत्तिकार ने 'प्रधान' किया है। तीर्थंकर प्रधान होते हैं, क्योंकि वे सदुपदेश देते हैं।' २०. हितकर (हियं ) चूर्णिकार ने हित का अर्थ सुख किया है । वृत्तिकार ने हितकर उसे माना है जो सद्गति का प्रापक और अनर्थ का निवारक हो।" २१. (तहा तहा सातयमाह लोए, जंसी पया.. ·) लोक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । जैसे कषायलोक, विषयलोक, आस्रवलोक । यहां लोक के दो अर्थ किए गए हैं- आस्रवलोक और संसार । संप्रगाढ का अर्थ है आसक्ति । उस आसक्ति के कारण लोक शाश्वत होता है अर्थात् कर्म की संतति अव्यवच्छिन्न होती चली जाती है । तब तक इस आस्रव लोक या संसार- परिभ्रमण का अंत नहीं होता जब तक मार्गानुशासन के द्वारा आसक्ति का बंधन टूट नहीं जाता । २२. हे मानव ! (मानव) चूर्णिकार ने 'मानव' शब्द से प्राणिमात्र का ग्रहण किया है। विकल्प में उसे मनुष्य का संबोधन भी माना है ।" यहां मानव का संबोधन इसलिए किया गया है कि वे ही उपदेश श्रवण के योग्य होते हैं ।" २३. संप्रगाढ (संवगाढा ) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संप्रसृत सम्यक्रूप से फैला हुआ । इसका अर्थ अवगाढ और विगाढ भी है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- प्रकृष्टरूप से व्यवस्थित किया है । संसार में रहने वाले प्राणी नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवलोकस्य प्रदीपभूता इत्यर्थः । १. ०२१३ २. चूर्ण, पृ० २१३ : देशका नायकाः पगढगाः । ३ वृत्ति, पत्र २२४ : नायका:- प्रधानाः "सदुपवेशदानतो नायकाः । ४. णि १० २१३ हितं सुहं ५. वृति पत्र २२४हितं सव्यतित्रापरूमन निवारकं च । ६. (क) भूमि, १० २१३ । (ख) वृति पत्र २२५ ७. चूर्णि, पृ० २१३ : सर्व एव सत्त्वा मानवा इत्यपविश्यन्ते, मानवानां प्रजा माणवप्रजा । अथवा माणव ! इति है मानवाः ! | वृत्ति ०२२५ हे मानव माणामेव प्रायश उपदेशात्रमानवग्रहणम् । ६. णि, पृ० २१३ : संप्रसृताः संप्रगाढा, ओगाढा विगाढा सम्प्रगाढा इत्यर्थः । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन : १२ टिप्पण २४-२५ सूयगडो१ ५०७ इन चार गतियों में भलीभांति व्यवस्थित हैं।' इसका एक अर्थ आसक्त भी होता है। यहां यही अर्थ प्रस्तुत है। श्लोक १३ : २४. श्लोक १३: प्रस्तुत श्लोक में जीवों का वर्गीकरण छह कायों में किया गया है, किन्तु ये काय षट्जीवनिकाय से भिन्न हैं। इस षट्जीवनिकाय में राक्षस, यमलौकिक, आसुर और गन्धर्व --ये चार देवकाय हैं। देवों का यह वर्गीकरण भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-इस वर्गीकरण से भिन्न-काल का है । संभावना की जा सकती है कि द्वितीय वर्गीकरण, जो कि व्यवस्थित वर्गीकरण है, से पहले यह वर्गीकरण प्रचलित हो । इस प्रकार का एक वर्गीकरण उत्तराध्ययन में भी मिलता है। उसमें देवों की छह श्रेणियां बतलाई गई हैं-देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ।' आकाशगामी-इस पद में खेचर जीवों तथा पुढोसिता-इस पद में स्थलचर और जलचर-दोनों प्रकार के जीवों का निर्देश है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने राक्षस आदि का चार देवनिकायों में समावेश करने का प्रयत्न किया है।' चूर्णिकार बृत्तिकार राक्षस व्यन्तर व्यन्तर यमलौकिक भवनपति भवनपति' असुर भवनपति भवनपति गंधर्व व्यन्तर व्यन्तर श्लोक १४: २५. (जमाहु ..."अपारगं) स्वयम्भुरमण समुद्र अपार जल-राशि का भंडार है। उसका पार न जलचर जीव पा सकते हैं और न स्थलचर जीव, केवल महद्धिक देव ही उसका पार पा सकते हैं। इसी प्रकार इस संसार का पार भी सम्यग्दर्शन के बिना नहीं पाया जा सकता। १. वृत्ति, पत्र २२५ : सम्यग्नारकतिर्यङनरामरभेदेन 'प्रगाढा:'--प्रकर्षण व्यवस्थिता इति । २. उत्तराध्ययन, १६/१६ । देवदाणवगंधब्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बम्मयारि नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ ३. (क) चूणि, पृ० २१४ : केषाञ्चिद् भवनपत्यादिदेवाः शाश्वताः तेण रक्खसगहणम् । अथवा व्यन्तरा गृहीता राक्षसग्रहणात् । जमलोइयग्रहणाद् वैमानिकाः सूचिताः, जेणं जमदेवकाइया तिविधा नमग्नः (?) सर्वे ते जमस्स महारायस्स आणा-उववात-वयणणिद्देसे चिट्ठति । असुरग्रहणेन भवनवासिनः सूचिताः । गान्धर्वा व्यन्तरा एव । (ख) वृत्ति, पत्र २२५ : ये केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तद्ग्रहणाच्च सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ (म्बाम्ब) म्बादयस्तदुपलक्षणात् सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुराः'-सौधर्मादिवैमानिकाः च शब्दाज्यो तिष्काः सूर्यादयः, तथा ये 'गान्धर्वाः' --विद्याधरा व्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थम् । ४. भगवई, ३/२५६ । ५. भगवई, ३/२५७-२६० । ६. (क) चूणि, पृ० २१४ : द्रव्योधः स्वयम्भुरमणः, स एवौधः सलिलः, ओघसलिलेन तुल्यं ओघसलिलम् । नास्य पारं जलचराः स्थल चरा वा शक्नुवन्ति गन्तुं णऽण्णत्थ देवेण महड्डिएण इत्यतः अपारगः । (ख) वृत्ति, पत्र २२५ : यथा स्वम्भुरमणसलिलौधो न केनचिज्जलचरेण स्थलचरेण वा लवयितुं शक्यते, एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनमन्तरेण लयितुं न शक्यत इति । Jain Education Intemational Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । अध्ययन १२ : टिप्पण २६-२८ २६. दुर्मोक्ष (दुमोक्खं) चूर्णिकार ने दुर्मोक्ष के दो हेतु प्रस्तुत किए हैं-मिथ्यात्व और सातगौरव । आस्तिक भी इन दो कारणों से संसार का पार नहीं पा सकते तो फिर नास्तिकों का तो कहना ही क्या ?' भगवान् ऋषभ के साथ चार हजार व्यक्ति प्रवजित हुए थे। वे कालान्तर में सुविधावादी होकर श्रामण्यपालन में असमर्थ हो गए। भूख-प्यास को सहना कठिन प्रतीत होने लगा। वे कंद-मूल को खाने लगे और सचित्त जल पीने लगे । इस प्रकार वे षट् जीव-काय के हिंसक हो गए। ऐसे व्यक्तियों के लिए यह संसार दुर्मोक्ष है । वे कभी संसार का पार नहीं पा सकते। २७. विषय और अंगना (विसयंगणाहि) ये दो शब्द हैं-विषय और अंगना। विषय का अर्थ है-पांच प्रकार के इन्द्रिय-विषय और अंगना का अर्थ हैस्त्री। इस शब्द-समूह का दो प्रकार से अर्थ किया गया है--विषय-प्रधान स्त्रियां अथवा विषय और स्त्रियां । चूर्णिकार का अभिमत है कि पांच विषयों में स्पर्श का विषय गरीयान् है। स्पर्श में भी स्त्री का पहला स्थान है। स्त्रियों में पांचों विषय पाए जाते हैं।' २८. दोनों प्रमादों से (दुहतो) इसका अर्थ है-दोनों प्रमादों से अर्थात् विषय और अंग ना से । ___ चूर्णिकार ने 'दुहतो' को स्वतंत्र और लोक का विशेषण मानकर उसके अनेक अर्थ किए हैं। द्विविध प्रमाद अनेक विषयों में हो सकता है, जैसे-वेश और स्त्री विषयक प्रमाद, आरंभ और परिग्रह द्वारा प्रमाद, राग और द्वेष द्वारा प्रमाद तथा अन्न और पानी विषयक प्रमाद । 'दुहतो' को लोक का विशेषण मानने पर इसके दो अर्थ होते हैं-वस और स्थावरलोक अथवा इहलोक और परलोक। वृत्तिकार ने 'दुहतो' को 'लोक' का विशेषण मान कर इसके दो अर्थ किए हैं१. आकाश आश्रित लोक और पृथ्वी आश्रित लोक । २. स्थावर लोक और जंगम लोक । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में 'दुहतो' को स्वतंत्र मानकर इसके दो अर्थ किए हैं१. लिंग मात्र प्रव्रज्या और स्त्री से । २. राग तथा द्वेष से। १. चूणि पृ० २१४ : दुर्मोक्षेति मिच्छत्त-सातगुरुत्वेन च ण तरंति अणुपालेत्तए जे वि अत्थिवादियो, किमंग पुण नास्तिकाः ? । २. (क) आवश्यक चूणि, पूर्वभाग पृ० १६२ : जेण जणो भिक्ख ण जाणति दाउं तो जे ते चत्तारि सहस्सा ते मिक्खं अलभता तेण माणेण घरंपि ण वच्चंति भरहस्स य भएणं पच्छा वणमतिगता तावसा जाता, कंदमूलाणि खातिउमारद्धा। (ख) चूणि, पृष्ठ २१४ : जधा ताणि चत्तारि तावससहस्साणि सातागुरुवत्तणेण छक्कायवधगाई जाताई। ३. वृत्ति, पत्र २२५ : विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्गनास्ताभिः, यदि वा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिः। ४. चूणि, पृ० २१४ : सुगरीयान् स्पर्शः तेष्वप्यङ्गनाः, तासु हि पञ्च विषया विद्यन्ते । ५. चूणि, पृ० २१४ : दुहतो वि त्ति द्विविधेनापि प्रमादेन लोकं अणुसंचरंति । तं जधा-लिंग-वेस-पज्जाए अविरतीए य, अथवा आरम्भ परिग्रहाभ्यां राग-द्वेषाभ्यां वा अन्न-पानाभ्यां वा त्रस-स्थावरलोगं वा इमं लोगं परलोगं वा । ६. वृत्ति, पत्र २२६ : 'द्विधाऽपि'-आकाशाश्रितं पृथिव्याधितं च लोकं... . . . . 'यदि वा-'द्विधाऽपि' इति लिङ्गमात्रप्रवज्ययाऽविरत्या (च) रागद्वेषाभ्याम् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयपडो। प्रध्ययन १२ : टिप्पण २६-३३ २६.जिसमें प्रमत्त होकर (जंसी विसण्णा) 'जंसी' का अर्थ है-जिसमें । चूर्णिकार ने इस शब्द से अनेक अर्थों की कल्पना की है। जैसे—संसार में, सावध धर्म में, असमाधि में, कुमार्ग में, असत् मान्यता में अथवा इन्द्रियों के पांच विषयों में ।' वृत्तिकार ने इसका एक ही अर्थ किया है-संसार में । 'विषण्ण' का अर्थ है-प्रमत्त या आसक्त । श्लोक १५: ३०. (ण कम्मुणा कम्म......."खति धीरा) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच आश्रव हैं, कर्म के मूल स्रोत हैं । इनसे कर्म-पुद्गलों का बंध होता है, इसलिए ये कर्म-बंध के हेतु हैं । संक्षेप में इन्हें कर्म कहा जाता है । सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग-ये पांच संवर हैं । इनसे कर्म का निरोध होता है । संक्षेप में इन्हें अकर्म कहा जाता है। अज्ञानी मनुष्य कर्म-बंध के हेतुओं में वर्तमान होता है और कर्म को क्षीण करने की बात सोचता है। इस अवस्था में सूत्रकार कहते हैं-कर्म से कर्म को क्षीण नहीं किया जा सकता। उसे अकर्म से क्षीण किया जा सकता है । देखें-८।३ का टिप्पण । ३१. मेधावी (मेधाविणो) मेधा का अर्थ है-वह प्रज्ञा जो हित की प्राप्ति और अहित के परिहार से युक्त हो। इस प्रकार की मेधा से व्यक्ति मेधावी कहलाता है। चूर्णिकार ने मेधावी का अर्थ मर्यादाशील किया है।' ३२. लोभ और मद से अतीत (लोभमया वतीता) यहां दो शब्द हैं-लोभ से अतीत और मद से अतीत । लोभ से अतीत अर्थात् वीतराग ।' चार कषायों में सबसे अन्त में नष्ट होने वाला है-लोभ कषाय । दशवें गुणस्थान में जब उसका संपूर्ण नाश हो जाता है तब साधक ऊपर आरोहण करता हुआ वीतराग बन जाता है। 'मया' का संस्कृत रूप है-मदात् । हमने मय का अर्थ मद किया है। 'मय' शब्द से माया का अर्थ भी ग्रहण हो सकता है । छन्द की दृष्टि से 'मा' के स्थान में 'म' प्रयोग भी होता है।' चूर्णिकार ने 'माया' शब्द मान कर इसका अर्थ 'माया से अतीत' किया है।' ३३. संतोषी मनुष्य पाप नहीं करता (संतोसिणो णो पकरेंति पावं) यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में प्रयुक्त 'लोभ... वतीता' लोभ से अतीत और अत्र प्रयुक्त 'संतोषी'-दोनों समानार्थक हैं । क्या यह पुनरुक्त नहीं है ? चूर्णिकार समाधान देते हुए कहते हैं कि दोनों शब्द दो अर्थ-विशेष के द्योतक हैं, अतः वे समानार्थक नहीं हैं । इसलिए पुनरुक्त भी नहीं हैं । लोभातीत का अर्थ है-लोभ से शून्य वीतराग और संतोषी का १. चूणि, पृ० २१४ : यत्र संसारे यत्र वा सावध धर्मेऽसमाधौ कुमार्गे वा असत्समवसरणेषु, पंचसु वा विसएसु । २. वृत्ति, पत्र २२५ : यत्र-यस्मिन् संसारे । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : मेधा-प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविन:--हिताहितप्राप्तिपरिहाराभिज्ञाः । ४. चूर्णि, पृ० २१४ : मेराधाविणो मेधाविणो। ५. चूणि, पृ० २१४,२१५ : लोभमतीता लोमातीताः, वीतरागा इत्यर्थः । ६. वशवकालिक ९।११ : मयप्पमाया । ७. चूणि, पृ० २१५ : एवं मायामतीता मायातीता वा। Jain Education Intemational Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५१० अर्थ है जो नियह करने में उत्कृष्ट हैं, वे अयीतराग होने पर भी वीतराग है।' वृत्तिकार ने इस पुनरुक्त प्रश्न का समाधान दो प्रकार से दिया है १. लोभ से अतीत - इसमें लोभ का प्रतिषेधांश दिखाया है। तथा 'संतोषी' इसके द्वारा लोभ की अल्प विद्यमानता अर्थात् लोभ का विधि अंश प्रदर्शित किया गया है । २. लोभ से अतीत- अर्थात् समस्त लोभ का अभाव । संतोषी अर्थात् वीतराग न होने पर भी उत्कट लोभ से रहित । 'णो पकरेंति पावं' - संतोषी पाप नहीं करते'- इसका तात्पर्य है कि वे लोभ को प्रतनु बना देते हैं इसलिए उनके लोभ से होने वाले कर्मबंध तद्भव वेदनीय हो जाता है।' वे दीर्घकालीन पाप कर्म का बंध नहीं करते तथा लोभ के वशीभूत होकर पापकारी आचरण नहीं करते । इलोक १६: ३४. (ते तीतउप्पण्ण तहागताई ) अनिरुद्ध प्रज्ञा वाले पुरुष इस प्राणिलोक के पूर्वजन्म संबंधी तथा वर्तमान और भविष्य संबंधी सुख-दुःख को यथार्थरूप में जानते हैं। प्रत्यक्षज्ञानी (केवलज्ञानी) वा चतुर्दश पूर्वधर (परोक्षज्ञानी) होने के कारण उनका ज्ञान अवितय होता है। वे की तरह वितथ बात नहीं जानते, नहीं कहते । अज्ञानी विव-जानी पूर्णिकार और कृतिकार ने यहां भगवती सूत्र का पाठ उधृत कर स्पष्ट किया है कि माथी, मिध्यादृष्टि अनगार यथार्थ को नहीं जानता । वह अयथार्थ जानता है । उसका पूरा विवरण इस प्रकार है— अध्ययन १२ : टिप्पण ३४ मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार वीसन्धि, मंत्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि से युक्त है। यह वाणारी नगरी में अपनी शक्ति का संप्रेषण कर क्या राजगृह नगर के रूपों को जानता देखता है ? प्रश्न का उत्तर मिला- हां, जानता-देखता है । प्रतिप्रश्न हुआ - भंते ! क्या वह तथाभाव को जानता देखता है या अन्यथाभाव को जानता देखता है ? उत्तर मिला- गौतम । यह तथा-भाव को नहीं जानता- देखता, किन्तु अन्यथाभाव को जानता देखता है । फिर पूछा- भंते ! इसका क्या कारण है ? उत्तर मिला - गौतम ! उसको ऐसा होता है, मैं राजगृह नगरी में अपनी शक्ति का संप्रेषण कर वाणारसी नगरी के रूपों को जानता देखता हूं। यह उसका दर्शन विपर्यास है। इसलिए यह कहा जाता है—वह तथाभाव को नहीं जानता- देखता, अन्यथाभाव को जानतादेखता है ।" ४. (क) चूणि, पृ० २१५ (ख) वृत्ति, पत्र २२६ । १. घृणि, पृ० २१५: स्याद् बुद्धिः - अलोभाः सन्तोषिणश्च एकार्थमिति कृत्वा तेन पुनरुक्तम्, उच्यते, अर्थविशेषान्न पुनरुक्तम्, लोभातीता इति अतिकान्तलोमा दौतरागा संतोष इति निग्रहपरमा वीतरागा अपि वीतरागाः । २. वृत्ति, पत्र २२६ : न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो ( विधेयाsत्र यतो ) लोमातीतत्वेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, सन्तोषिण इत्यनेन च विध्वंश इति यदि वा सोमालीतग्रहणेन समस्तलोमाभाव: संतोषिष इत्यनेन तु सत्यप्यवीतरागत्वे मोरकटलोचा इति लोभाभावं दर्शयन्तपरकषायेभ्यो लोभस्य प्राधान्यमाह । प. पूणि, पृ० २१५ णो पकरिति पायं संतोसियो पययं पकरेति तमववेदभिन्नमेव अथवा यत एव सोभाईया अत एव संतोसिणः । ५. भगवती, ३।२२२-२२४ । अणगारे गं मंते ! भाविया माथी मिट्टी पीरियडीए वैलिडीए दिगनाणसडीए वागारति नगर समोहए, समोहणिता रामगि नगरे रुवाई जागइ-पास ? से भंते! कि तहाभावं जाणइ-पासह ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ? गोयमा ! नो तहाभावं जाणइ पासह, अण्णहाभावं जानपासइ । मे केण े णं भंते ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ-पासइ ? अण्णहाभावं जाणइ-पासइ ? गोपमा । तस्स णं एवं एवं अहं रायगिहे नगरे सोहर, समोहजिला बाणारसीए नगरीए ब्वाई आगामिपासामि । 'सेस दंसण-विवच्चासे' मन्त्रइ । से तेणटुण गोयमा ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण पासइ । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५११ अध्ययन १२: टिप्पण ३५-४० ३५. वे दूसरों के नेता हैं (णेतारो अण्णेसि) वे केवलज्ञानी या चतुर्दश पूर्वविद् पुरुष संसार का पार पाने वाले भव्य पुरुषों को मोक्ष की ओर ले जाते हैं या उन्हें सदुपदेश देते हैं । ३६. स्वयंबुद्ध (बुद्धा) इसके दो अर्थ हैं-स्वयंबुद्ध या बुद्धबोधित । चूर्णिकार ने गणधर आदि को बुद्धबोधित के अन्तर्गत माना है, जब कि वृत्तिकार ने गणधर को स्वयंबुद्ध माना है। वास्तव में गणधर बुद्धबोधित होते हैं, स्वयंबुद्ध नहीं होते। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों का इतिवृत्त इसका साक्षी है। ३७. दूसरों के द्वारा संचालित नहीं हैं (अणण्णणेया) वे अनन्य नेता होते हैं अर्थात् उनका कोई दूसरा नेता नहीं होता, कोई उन्हें चलाने वाला नहीं होता । वे स्वयंबुद्ध होते हैं, अतः कोई दूसरा उन्हे तत्त्वबोध नहीं कराता । हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के विषय में कोई उनको ज्ञान नहीं देता। वे स्वयं इस विवेक से परिपूर्ण होते हैं । चूर्णिकार ने इसकी पुष्टि में एक गद्यांश उद्धृत किया है-'इत्ताव ताव समणेण वा माहणेण वा धम्मे अक्खाते, णत्थेतो उत्तरीए धम्मे अक्खाते' ( ) श्रमण, माहन (महावीर) ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, उससे बढ़कर कोई धर्म प्रतिपादित नहीं है।' इसलिए वे महावीर अनन्य नेता हैं-उनका कोई दूसरा नेता नहीं है।' ३८. अन्त करने वाले (अंतकडा) अंतकड या अंतकर--दोनों एकार्थक हैं । 'ड' और 'र' का एकत्व माना गया है। इसका अर्थ है-भव (संसार) का अन्त करने वाले अथवा भव के उपादानभूत कर्मों का अन्त करने वाले।' अंतकड का दूसरा संस्कृत रूप कृत+अन्त भी होता है। श्लोक १७: ३९. जिससे सभी जीव भय खाते हैं उस हिंसा से (भूताभिसंकाए) भूत का अर्थ है - त्रस-स्थावर प्राणी । वे जिससे डरते हैं, उसे भूताभिशंका-हिंसा कहा जाता है।' ४०. उद्विग्न होने के कारण (दुगुंछमाणा) इसका संस्कृत रूप है-जुगुप्समानाः । 'गुपङ्-गोपनकुत्सनयोः' इस धातु से निन्दा अर्थ में 'सन्' प्रत्यय करने पर 'जुगुप्सते' रूप निष्पन्न होता है । इसका अर्थ है-निन्दा करना । १. (क) वृत्ति, पत्र २२६ : ते चातीतानागतवर्तमानज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वविदो वा परोक्षज्ञानिनः 'अन्येषां'-संसारोत्तितोष॑णां मव्यानां मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति । (ख) चूणि, पृ. २१५। २. (क) चूणि, पृ० २१५ : बुद्धा स्वयंबुद्धा बुद्धबोधिता वा गणधराधाः । (ख) वृत्ति, पत्र २२६ : 'बुद्धाः'- स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधरादयः । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : न च ते स्वयम्बुद्धत्वादन्येन नीयन्ते-तत्त्वावबोध कार्य (धवन्त: क्रिय) 'न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । ४. चूणि, पृ० २१५। ५. (क) चूणि, पृ० २१५ : अन्तं कुर्वन्तीति अन्तकराः, भवान्तं कर्मान्तं वा। (ख) वृत्ति, पत्र २२६ : ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतस्य वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति । ६. चूणि, पृ० २१५ : भूताणि तस-यावराणि ताणि यतोऽभिसंकति सा मृताभिसंका भवति, हिंसेत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ५१२ जुगुप्सा का एक अर्थ है--घृणा । वृत्तिकार ने इस शब्द का अर्थ - पाप कर्म से घृणा करना किया है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ सर्वथा भिन्न किया है । उद्विग्न होना । ' ४१. सदा संयमी (सदा जता) इसका अर्थ है - प्रव्रज्या - काल से लेकर जीवन पर्यन्त संयम का आचरण करने वाला । ४२. विशिष्ट पराक्रमी (विप्पणमंति) इसका अर्थ है -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र में विविध प्रकार से पराक्रम करना, उनकी वृद्धि में सतत प्रयत्नशील रहना, संयमानुष्ठान के प्रति तत्पर रहना ।" ४३. वाग्वीर (विष्णत्ति- वीरा) विज्ञप्ति वीर का अर्थ है- जो वाग्वीर हैं, करण-वीर नहीं, जो केवल कहने में वीरता दिखाते हैं, किन्तु करने की वेला आने पर पीछे खिसक जाते हैं।' उनके अनुसार इसका अर्थ है - हिंसा तथा हिंसा करने वालों से विज्ञप्ति का अर्थ ज्ञान या विज्ञापन है । जो ज्ञान या विज्ञापन मात्र से वीर हैं, अनुष्ठान से नहीं, वे विज्ञप्ति-वीर कहलाते हैं। वैसे व्यक्ति ज्ञान मात्र से ही लक्ष्य की प्राप्ति मान लेते हैं, किन्तु ज्ञान मात्र से इष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। कहा है'अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥ ४४. छोटे (डहरे) —शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी बहुत सारे लोग मूर्ख ही रह जाते हैं। जो पुरुष शास्त्रोक्त क्रिया से युक्त होता है वह विद्वा है । औषधि के ज्ञान मात्र से कोई भी रोगी स्वस्थ नहीं हो जाता। नीरोग होने के लिए उसे औषधि का सेवन करना ही होता है ।" श्लोक १८: ४५. बड़े (बुड्डे) अध्ययन १२ : टिप्पण ४१-४६ पूर्णिकार ने इसका अर्थ कुन्दु आदि सूक्ष्म जीव अथवा सूक्ष्मकाविक जोन किया है।" बड़े शरीर वाले अथवा बादर प्राणी । ४६. जो आत्मा के समान देखता है ( ते आततो पासइ) इसका अर्थ है--- जो व्यक्ति इन सब प्राणियों को आत्मा के समान देखता है । जिस प्रमाण वाली मेरी आत्मा है, उसी प्रमाण १. वृत्ति, पत्र २२७ : पापं कर्म जुगुप्समानाः । २. चूर्ण, पृ० २१५: तां भूताभिसंकां (हिंसां) तत्कारिणश्च जुगुप्साना उद्विजमाना इत्यर्थः । ३ चूर्ण, पृ० २१५ : सदेति सर्वकालं प्रव्रज्याकालादारभ्य यावज्जीवं । ४. चूर्ण, पृ० २१५: ज्ञानादिषु विविधं प्रणमन्ति पराक्रमन्त इत्यर्थः । ५. बुति पत्र २२७ विविधं संयमनुष्ठानं प्रति 'प्रथमन्ति' प्रतीभवन्ति । ६. चूणि, पृ० २१५: विज्ञप्तिमात्रवीरा एवैके भवन्ति, ण तु करणवीराः । ७. वृत्ति पत्र २२० विज्ञप्तिज्ञानं सन्मात्रेणेव वीरा नानुष्ठानेन न च ज्ञानादेवाभिलधितार्यावाप्तिरपनायते तथाहि अधीत्व शास्त्राणि ८. चूर्ण, पृ० २१५ : डहराः सूक्ष्माः कुन्थ्वादयः सुहमकायिका वा । E. (क) चुणि, पृ० २१५: बुड्ढा महासरीरा बादरा वा । (ख) वृत्ति, पत्र २२७ । वृद्धाः बादरशरीरिणः । , Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूडो १ ५१३ अध्ययन १२ : टिप्पण ४७ वाली आत्मा सबकी है, हाथी और कुन्थु की आत्मा भी समान प्रमाणवाली है ।" जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी छोटे-बड़े प्राणियों को दुःख प्रिय नहीं है-इससे भी आत्मतुस्यता प्रमाणित होती है।" गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा- भंते ! पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होने पर किस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं ? भगवान् ने कहा- 'गौतम ! जैसे एक तरुण और शक्तिशाली मनुष्य दुर्बल और जर्जरित मनुष्य के मस्तक पर मुष्ठि से जोर का प्रहार करता है, उस समय वह कैसी वेदना का अनुभव करता है ?" 'भंते ! वह अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है।' 'गौतम ! जैसे वह जर्जरित मनुष्य अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीव आहत होने पर करता है।" इसी प्रकार सभी जीव ऐसी ही घोर वेदना का अनुभव करते हैं । आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में पृथ्वीकायिक आदि स्थावर प्राणियों और त्रसकायिक जीवों में वेदना - बोध का स्पष्ट निदर्शन प्राप्त है । वेदना की समान अनुभूति के कारण भी उनकी आत्म-तुल्यता प्रमाणित होती है ।" बृहत्कल्प चूर्णिकार का यह स्पष्ट अभिमत है कि स्थावर निकाय में चेतना का विकास क्रमशः अधिक होता है-चेतना का सबसे अल्प विकास पृथ्वीकायिक जीवों में है, उनसे अधिक अप्कायिक जीवों में, उनसे अधिक तेजस्कायिक जीवों में, उनसे अधिक वायुकायिक जीवों में और उनसे अधिक वनस्पतिकायिक जीवों में । स्थावर जीवों में वनस्पति के जीवों का चैतन्य विकास सबसे अधिक है ।" आज का विज्ञान भी इसे मान्यता देता है। इस चैतन्य विकास के आधार पर स्थावर जीवों का संवेदन-बोध भी स्पष्टस्पष्टतर होता जाता है । ४७. इस महान् लोक की (लोगमिणं महंतं ) यहां लोक को महान् कहा गया है। इसके अनेक कारण हैं- १. यह लोक सूक्ष्म और बादर छह प्रकार के जीवों से भरा पड़ा है, इसलिए महान् है । २. यहां के सभी प्राणी आठ प्रकार के कर्मों से आकुल हैं, इसलिए महान् है । ३. यह लोक अनादि और अनन्त है, इसलिए महान् है तथा यहां कुछ प्राणी ऐसे हैं जो किसी भी काल में सिद्ध नहीं होंगे, इसलिए महान् है । १. चूर्णि पृ० २१५, २१६ आत्मना तुल्यं आत्मवत्, यत्प्रमाणो वा मम आत्मा एतत्प्रमाणः कुन्धोरपि हस्तिनोऽपीति । २. दशकालिक निक्ति, गाथा १५४ : जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ अक्कंते समाणे केरिसियं वेदणं पञ्चणुरभवमाणे एवं पुरिसं पुण्यं राजरिय "केरिसियं वेदणं पञ्च णन्भवमाणे विहरति ? पुरिसस वेदणाहितो पुढविकाइए अवकंते समाणे एत्तो अणितरियं ४ आयारो, प्रथम अध्ययन, सूत्र २८-३०, ५१-५३, ८२-८४, ११०-११२, १३७-१३६, १६१-१६३ । ५. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ७५, चूणि तं च सव्वथोवं पुढविकाइयाणं, कस्मात् ? निश्चेष्टत्वात् । ततः क्रमाद् यावद् वनस्पतिकाइयाणं ३. भगवई १९३५ : पुढविकाइए णं भंते! पुरिसे सपने बल बलवं गोयमा ! पुरिसे विसुद्धतरं । ६. (क) चूर्ण, पृ० २१६ : महान्त इति छज्जीवकायाकुलं अष्टविधकर्माकुलं वा, बलिपिडोवमाए महंतो लोगो, अथवा कालतो महंते अनादिनिधनः अस्त्येके भव्या अपि ये सर्वकालेनापि न सेत्स्यन्ति । अथवा द्रव्यत: क्षेत्रतश्च लोकस्यान्तः, कालतो भावतश्च नान्तः । (ख) वृति पत्र २२७ पीवदमवार कुलस्वाहा यदि वाहनाद्यनिधनत्वान्हा लोक तवाहिन्या अपन सर्वेणापि कालेन न त्स्यन्तीति, यद्यपि द्रव्यतः षद्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दश रज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तचापि तो मातश्चानाद्यनिधनत्वात् पचानाम्महान्तमुत इति । विहरइ ? गोयमा ! से जहानामए – केइ पति अभिषेक सेणं अणिट्ठ समणाउसो ! तस्स णं गोयमा ! "वेदणं पञ्चणुभवमाणे विहरइ । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५१४ अध्ययन १२:टिप्पण ४८-५० ४. द्रव्य की दृष्टि से लोक षड् द्रव्यात्मक और क्षेत्र की दृष्टि से चौदह रज्जु प्रमाण वाला होने के कारण सावधिक है। काल और भाव की दृष्टि से अन्त रहित तथा पर्यायों की दृष्टि से अनन्त होने के कारण वह महान है। ४८, उपेक्षा करता है (उबेहती) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. उपेक्षा करना, सर्वत्र मध्यस्थ रहना। २. देखना। वृत्तिकार ने केवल एक ही अर्थ किया है-उत्प्रेक्षा करना। ४६. बुद्ध अप्रमत्त पुरुषों में (बुद्धप्पमत्तेसु) व्याकरण की दृष्टि से यहां दो पदों में संधि की गई है-बुद्धे+अप्पमत्तेसु अथवा बुद्धे+पमत्तेसु । चूर्णिकार ने इन दो पदों का अर्थ इस प्रकार किया है १. बुद्ध धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण-इन पूर्ववर्ती चार अध्ययनों (९, १०, ११, १२) में वर्णित क्रियाओं के प्रति अप्रमत्त रहता है, तथा जो षड् जीव-निकाय के प्रति संयम रखता है। २. बुद्ध प्रमत्त अर्थात् असंयत व्यक्तियों में जागृत रहता है। इस अर्थ के संदर्भ में पाठ होगा-'बुद्धे पमत्तेसु'। उत्तराध्ययन ४।६ में 'सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी' पाठ है । वह भी इसी आशय को स्पष्ट करता है । ३. 'बुद्धे अप्पमत्ते सुठ्ठ परिव्वएज्जा'-ऐसा पाठ भी माना है । इसका अर्थ है-अप्रमत बुद्ध उचित प्रकार से परिव्रजन करे । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं - १. सभी प्राणियों के स्थान अशाश्वत हैं, इस दुःखमय संसार में सुख का लेश भी नहीं है-ऐसा मानने वाला तत्त्वज्ञ-पुरुष (बुद्ध) संयमी मुनियों में...........। (बुद्धेऽपमत्तेसु) यहां बुद्ध का अर्थ है,- तत्वज्ञ पुरुष और अप्रमत्त का अर्थ है- संयमी मुनि । २. बुद्ध पुरुष गृहस्थों में अप्रमत्त रहता हुआ संयमानुष्ठान में परिव्रजन करे। श्लोक १९: ५०. स्वतः या परतः (आततो परतो वा) ज्ञान दो प्रकार से होता है--स्वत: अर्थात् अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से और परतः अर्थात् दूसरों से सुनकर । जो व्यक्ति विशिष्ट ज्ञानी होता है, सर्वज्ञ होता है वह स्वतः सब कुछ जान लेता है। जो व्यक्ति अल्प ज्ञानी होता है अथवा जो पूर्ण ज्ञानी नहीं है वह दूसरों से ज्ञान प्राप्त करता है। तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं । वे सब स्वत: जान लेते हैं। गणधर आदि तीर्थंकरों से ज्ञान प्राप्त करते हैं।' १. चूणि, पृ० २१६ : उबेहती उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थः, उपेक्षा करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २२७ : ....."उत्प्रेक्षते । ३. चूणि, पृ० २१६ : बुढे नाम धर्म समाधौ मार्गे समोसरणेसु च अप्रमत्तः कायेषु जयणाए य, अथवा प्रमत्तेषु असंजतेषु परिवएज्जासि त्ति बेमि। अथवा बुद्धे अप्पमत्ते सुट्ठ परिव्वएज्जा। ४. वृत्ति, पत्र २२७, २२८ : एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः-अवगततत्त्व: सर्वाणि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसवे संसारे सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमान: 'अप्रमत्तेषु-संयमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः-समन्ताद व्रजेत् परिव्रजेत्, यदि वा बुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु'-गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेविति । ५ (क) चूणि, पृ० २१६ : आत्मन: स्वयं तीर्थकरा जाणंति जीवादीन पदार्थान् परतो गणधरादयः । (ख) वृत्ति, पत्र २२८ : स्वयं सर्वज्ञ आत्मनस्त्रलोक्योदरविवरवतिपदार्थदर्शी यथाऽवस्थितं लोकं ज्ञात्वा, तथा यश्च गणधरादिकः 'परत:'--तीर्थकरावेर्जीवादीन् पदार्थान् विदित्वा परेभ्य उपविशति । Jain Education Intemational Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५१५ ५१. ज्योतिर्भूत पुरुष के पास सतत रहना चाहिए (जोइभूयं सतताव सेज्जा ) 'जोइभूयं' का अर्थ है - ज्योति के समान, प्रकाशतुल्य । ज्योति चार हैं—सूर्य, चन्द्रमा, मणि और प्रदीप । जैसे ये चारों प्रकाश देते हैं, प्रकाशित करते हैं, वैसे ही जो लोक और बजोक को ज्योतिर्मय करता है वह ज्योतिर्भूत होता है। तीर्थंकर गणधर आदि ज्योतिर्भूत होते हैं । " अध्ययन १२ टिप्पण ११-५४ सततावसेज्जा - यहां दो पदों में संधि की गई है - सततं + आवसेज्जा । इसका अर्थ है- यावज्जीवन तक उन ( तीर्थंकर, गणधर ) की सेवा करे । अथवा जो व्यक्ति जिस काल में प्रकाश देने वाला हो, उसकी सेवा करे । वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- सतत गुरु के पास रहे, सदा गुरुकुलवास में रहे――किया है । " श्लोक २० : ५२. आत्मा को जानता है (अत्ताण जो जाणइ ) जो आत्मा को जानता है अर्थात् जो आत्मज्ञ है। इसका तात्पर्य यह है कि जो आत्मा को परलोक में जाने वाला, शरीर से भिन्न और सुख-दुःख का आधार जानता है तथा जो आत्महित की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है वह आत्मा को जानता है, वह आत्मज्ञ है ।" छंद की दृष्टि से यहां 'अत्ताणं' में अनुस्वार का लोप माना है । ५३. लोक को जानता है (लो) भूविकार ने लोक का अर्थ प्रवृत्तिनिवृत्ति लोड किया है। जैसे—दृष्ट पदार्थों में मेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है, पैसे ही सब जीवों की होती है ।" प्रस्तुत प्रकरण में यह अर्थ बुद्धिगम्य नहीं होता । आचारांग चूर्णि में 'लोयवाई' पद के लोक शब्द का जो अर्थ किया गया है, वह संगत लगता है। जैसे 'मैं हूं वैसे अन्य जीव भी हैं।' जीव लोक के भीतर ही होते हैं। जीव और अजीव का समुदय लोक है ५४. जो आगति को जानता है (जो आगत जाणइ ) मनुष्य कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? कौन से कौन से कर्मों से कहां-कहां उत्पन्न होते हैं ? मैं कहां से आया हूं ?, मैं कहां जाऊंगा ? इन सबको जानना आगति को जानना है । " १. णि, पृ० २१६ : ज्योतयतीति ज्योतिः आवित्यश्चन्द्रमाः मणिः प्रदीपो वा यथा प्रदीपो ज्योतयति एवमसौ लोका-लोकं ज्योतयतीति ज्योतिस्तुल्य इत्यर्थ - तित्थगरं गणधरे वा (यो) यस्मिन् काले ज्योतिर्भूतः । २०२१६ आवसेनासित जावजीबाए सेवेच्या तिस्वगरं गणधरे वा (वो) पश्मिम् काले ज्योतिर्भूतः । वृति पत्र २२८ सततम्' अनवरतम् 'आवसेत्' सेवेत पुर्वन्तिक एवं ४ (क) वृति पत्र २२८ वसेत्। यो झापा परलोकयायिनं शरीराद्व्यतिरिक्तं सुखदु:खाधारं जानाति पश्चात्महितेषु प्रवर्तते स आरमो भवति । (ख) चूणि, पृ० २१६ : आत्मानं यो वेत्ति यथा 'अहमस्ति' इति संसारी च । अथवा स आत्मज्ञानी भवति य आत्महितेष्वपि प्रवर्त्तते । अथवा त्रैलोक्य (त्रैकाल्य) कार्यपदेशादात्मा प्रत्यक्ष इति कृत्वानित्यादि । ५. चूर्ण, पृ० २१६ : येनाऽऽत्मा (ज्ञातो) भवति तेन प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपो लोको ज्ञात एव भवति आत्मोपम्येन, यथा--ममेष्टानि, प्रवृत्तिनिवृति भवतः यथास्तीति । ६. आचारांग चूर्ण, पृ० १४ : लोगवादी णाम जह चेव अहं अस्थि एवं अन्नेऽवि देहिणो संति, लोगअव्मंतरे एव जीवा, जीवाजीवा लोगसमुदयो इति भचितवादी ७. (क) पूणि, पृ० २१६ कुतो मनुष्य आगच्छन्ति कर्मभिः कुत्र वा गच्छन्ति ? न विद्मः कुतोऽहमायतः गमिष्यामि : ?- - कैर्वा वा ? | (ख) मूर्ति पत्र २२८ यश्च जीवानाम् आगतिम् आगमनं कुनः समागता नारकास्तिर्यच्यो मनुष्या देवा? कंर्या कर्मचिनरकावित्वेनोत्पद्यन्ते ?, एवं यो जानाति । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५५. अनागति (मोक्ष) को जानता है (अणागत) अनागति का अर्थ है - सिद्धि, मुक्ति । समस्त कर्म-क्षय को भी सिद्धि या मुक्ति कहा जाता है और लोकाग्र भाग में संस्थित सिद्धशिला को भी सिद्धि या मुक्ति कहा जाता है। वहां जाने के बाद पुनः आगमन नहीं होता, अतः वह अनागति है। वह सादि और अनन्त है ।" ५१६ ५६. ( जाति मरणं च चयणोववातं) संसारवर्ती प्रत्येक प्राणी का जन्म और मरण होता है। जैन दर्शन में इस स्थिति का अवबोध कराने के लिए पांच शब्द व्यवहृत होते हैं- जन्म, मरण, उपपात, च्यवन और उद्वर्तन। वे भिन्न-भिन्न गति के जीवों के जन्म-मरण के द्योतक हैं जन्म-मरण - औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यञ्चों के लिए । उपपात (जन्म) - नारक और देवों के लिए । च्यवन ( मरण) ज्योतिष और वैमानिक देवों के लिए। उर्तन (मरण) धवनपति और व्यंतर देवों तथा नारक जीवों के लिए। प्रस्तुत चरण के 'चयणोवपातं' में च्यवन का उल्लेख पहले और उपपात का उल्लेख बाद में हुआ है । छन्द की दृष्टि से ऐसा करना पड़ा है । अन्यथा उपपात (उत्पत्ति, जन्म) का कथन पहले और च्यवन ( मरण) का कथन बाद में होना चाहिए था । श्लोक २०-२१ : ५७. श्लोक २०-२१ : प्राचीन काल में क्रियावाद और अक्रियावाद - ये दो मुख्य समवसरण थे। वर्तमान में जैसे - आस्तिक और नास्तिक ये शब्द बहु प्रचलित हैं वैसे ही उस समय क्रियावाद और अक्रियावाद बहुप्रचलित थे। सूत्रकार ने प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार में यह बतलाया है कि बहुत सारे दर्शन स्वयं को क्रियावादी घोषित करते हैं, किन्तु केवल घोषणा करने से कोई क्रियावादी नहीं हो सकता । क्रियावादी वही हो सकता है जो क्रियावाद के आधारभूत सिद्धान्तों को जानता है । वे ये हैं १. आत्मा २. लोक ३. आगति और अनागति ४. शाश्वत और अशाश्वत ५. जाति ओर मरण ६. उपपात और च्यवन ७. अधोगमन अध्ययन १२ टिप्पण ५५-५७ ८. आश्रव और संवर ६. दुःख और निर्जरा । कुछ दार्शनिक दुःख ओर दुःख हेतु (आव) मोदा (संबर), मोहेतु (निर्जरा) को जानते हैं, पर शाश्वत को नहीं जानते । कुछ शाश्वत को जानते हैं, पर अशाश्वत को नहीं जानते । कुछ आगति को जानते हैं, पर अनागत को नहीं जानते । कुछ जन्म और मरण को जानते हैं, पर उपपात और च्यवन को नहीं जानते । इस स्थिति में वे सही अर्थ में क्रियावाद के प्रवक्ता नहीं हो सकते । आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, क्रियावाद और कर्मवाद - ये चार सिद्धांत मिलते हैं । प्रस्तुत दो श्लोकों में उनका विस्तार है । यहां प्रतिपादित सिद्धान्तों का विस्तार इसी सूत्र के पांचवें अध्ययन (श्लोक १२ से २८) में मिलता है। भगवान् महावीर क्रियावादी थे । उनकी वाणी में ये सिद्धान्त मुख्य रूप से चर्चित हुए हैं। उदाहरण स्वरूप कुछ स्थलों का निर्देश किया जा रहा है ५१०४-१०६, १२३-१४० । अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई १. आत्मवाद - अंगसुत्ताणि भाग १ आयारो १११-४; १११६७ १६६ २११३६, १३७, ६।१७४ -१८२; १२/१३०, १३२ । १. वृत्ति, पत्र २२८ : तत्रानागतिः- सिद्धिरशेषकर्मच्युतिरूपा लोकाग्राकाश देशस्थानरूपा वा ग्राह्या, सा च सादिरपर्यवसाना 1 २. चूर्ण, पृ० २१६ : जाति मरणं च जानीते, औदारिकानां सत्वानां जातिः, एत्थ जोणीसंगहो भाणितव्यो णवविधो वि । ओरालियागं चैव मरणम् अन्धानुलोम्यात् चयणोषवार्थ इतरथा तु पूर्व उपपालो बत्तव्यः स तु नारक देवानाम्, चयणं तु जोतिसिय-वैमाणियाणं, उचट्टणा भगवारियागं वंतराणं नराणं च । 1 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १२ : टिप्पण ५८-६० २. लोकवाद -अंगसुत्ताणि भाग १, आयारो ११५। अंगसुत्ताणि, भाग २ भगवई २१४५, १३८-१४०; ७।३; ६।१२२, २३१-२३३; ११।६०-११४; १३१४७-५०, ५५-६०, ८८-६२; १६।११०-११५, २०१०-१३; २५।२१-२३; ३. आगति-अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई ११।३०-४०; २१७; २४।२७-३३, ३८, ४०, ४४, ४७, ५०, ५३, ६२, ६४, ६५, ६७, ६६, ७१, ७३, ७५, ७७, ७६, ८१, ८४, ८६, ८८, ६० आदि-आदि । ४. अनागति (मोक्ष)--भगवई १।२००-२१०; ३।१४६-१४८; ६।३२। ५. शाश्वत-अशाश्वत-अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई ६।२३३; ७५८-६०, ६३.६५; १६५; ६।१७६, २३१, २३३; १४१४६,५०। ६ जन्म-मरण-भगवई ६।८७, ८८, १०४; ११६४०, ४२, ५६, १२।१३०-१५३; १६।६५ ७. उपपात-च्यवन -- भगवई १।११३, ४४६, ४४७; २।११७, ८।३४१-३४३, ११।२; १२।१५४, १६६-१७७; ठाणं २।२५२। ८. अधोगमन-भगवई ११३८४ । ६. आस्रव-भगवई ११३१२-३१३; २१६४; ३३१३३-१४५ । १०. संवर-भगवई ११४२३; ४२४, ४२६; २६४, २०१११; ५।११५; ७।१५६; ६।१६, २०, ३१; १७।४८ । ११. दुक्ख -भगवई ११४४-४७, ५३, ५६, ५६; ६।१८३-१८५; ७।१६-१६ । १२. निर्जरा-भगवई १८१६६-७१ । श्लोक २१ ५८. अधोलोक में (अहो वि) 'अधो' का अर्थ है-'सर्वार्थसिद्ध'-अनुत्तर विमान से लेकर नीचे सातवीं नरक भूमि तक का भाग।' ५९. विवर्तन (जन्म-मरग) को (विउट्टणं) चूर्णिकार ने 'विकुट्टन' शब्द मानकर इसका अर्थ जन्म, मरण किया है।' वृत्तिकार ने 'वि' का अर्थ नाना प्रकार की या विकृत रूप वाली और 'कुट्टना' का अर्थ-जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से उत्पन्न शारीरिक पीड़ा किया है। दोनों के अर्थ में भिन्न ता है । हमने इसका संस्कृत रूप 'विवर्तन' किया है। विवर्तन का अर्थ जन्म-मरण है। ६०. संवर को (संवर) आश्रव के निरोध को संवर कहा जाता है। यह आश्रव का प्रतिपक्षी है। संवर का अर्थ है-संयम । समस्त योगों का निरोध चौदहवें गुणस्थान में होता है । यह उत्कृष्ट संवर है । यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासानिर्वाणावेशहेतवः ॥ -जिस प्रकार के जितने हेतु संसार-प्राप्ति के कारण हैं, उतने ही उनसे विपरीत हेतु निर्वाण-प्राप्ति के हेतु हैं । १. (क) चूणि, पृ० २१७ : सर्वार्थसिद्धादारभ्य यावदधोसप्तम्याः तावदधो वर्तन्ते । (ख) वृत्ति, पत्र २२६ : सर्वार्थसिद्धादारतोऽध:सप्तमी नरकभुवम् । २. चूणि, पृ० २१७ : विविधं कुट्टति विकुटुंति, जातन्ते म्रियन्त इत्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र २२६ : विविषां विरूपां वा कुट्टना-जातिजरामरणरोगशोककृतां शरीरपीडाम् । ४. (क) चूणि, पृ० २१७ । (ख) वृत्ति, पत्र २२६ । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबगडो १ ५१८ अध्ययन १२ : टिप्पण ६१-६५ ६१. दुःख (को) दुक्खं) चूर्णिकार ने कर्मबंध और कर्म के उदय को दुःख माना है। कर्म-बन्ध के चार प्रकार हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश । ६२. वही क्रियावाद का प्रतिपादन कर सकता है (सो भासिउ ...."किरियवादं) चूर्णिकार ने प्रस्तुत आगम के धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण (९,१०,११,१२ वां अध्ययन) के प्रतिपादन को क्रियावाद का प्रतिपादन माना है।' श्लोक २२: ६३. जीवन और मरण की आकांक्षा नहीं करता (णो जोषियं णो मरणाभिकंखे) जीवन और मरण की आकांक्षा नहीं करता-इसका यह भी तात्पर्य है कि वह नहीं सोचता कि मैं लंबे काल तक रहं या शीघ्र ही मर जाऊं।' मरणाभिकंखे-इसमें दो पदों में संधी की गई है-मरणं+अभिकंखे । ६४. इन्द्रियों का संवर करता है (आयाणगुत्ते) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयम से गुप्त, कर्म से गुप्त ।' हमने आदान का अर्थ इन्द्रिय किया है । जो इन्द्रिय-गुप्त होता है वह आदानगुप्त कहलाता है। ६५. वलय (संसारचक्र) से (वलया) वलय का अर्थ है-वक्रता, कुटिलता। उसके दो प्रकार हैं-१. द्रव्य वलय-नदी का वलय, शंख का वलय । २. भाव वलय-कर्म ।' तात्पर्य में इसका अर्थ है-संसार-चक्र । वृत्तिकार ने माया को भाव वलय माना है।' १. चूणि, पृ० २१७ : दुक्खमिति कर्मबन्धः प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशात्मकः तदुदयश्च । २. चूणि, पृ० २१७ : सो धम्म समाधि मग्गं समोसरणाणि य भाषितुमर्हति । ३. चूणि, पृ० २१७ : असंजमजीवितं अणेगविधं पत्थए विपत्थए, ण वा परीसहपराइया मरणं विपत्थए । अथवा माह चितेज्जासी जीवामि चिरं, मरामि व लहुँ। ४. वृत्ति, पत्र २३५ : तथा मोक्षाथिनाऽऽदीयते-गृह्यत इत्यावानं-संयमस्तेन तस्मिन्वा सति गुप्तो, यदि वा-मिथ्यावादिनाऽऽवीयते इत्यादानम्-अष्टप्रकारं कर्म तस्मिन्नादातव्ये मनोवाक्कायैर्गुप्तः समितश्च । ५.णि पृ० २१७ : वलयं कुडिलमित्यर्थः। तत्र द्रव्यवलयं नदीवलयं वा संखवलयं वा भाववलयं तु कर्म । ६. वृत्ति, पत्र २३५ : भाववलयं-माया। Jain Education Intemational Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयरणं पाहत्तहीयं तेरहवां अध्ययन Jain Education Intemational Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख आदानपद के आधार पर इस अध्ययन का नाम 'याथातथ्य' है । इस अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य है --शिष्य के दोष और गुणों का यथार्थ चित्रण करना । नियुक्तिकार ने बताया है कि यथातथ धर्म को उपलब्ध होकर भी आत्मोत्कर्ष करने वाला विनष्ट हो जाता है । इसलिए आत्मोत्कर्ष का वर्जन करना चाहिए।' प्रस्तुत अध्ययन के दूसरे श्लोक से नियुक्तिकार के उक्त आशय की पुष्टि होती है । याथातथ्य का अर्थ है- यथार्थ, परमार्थ, सत्य । शील, व्रत, इन्द्रिय संवर, समिति, गुप्ति, कषाय- निग्रह, त्याग आदि परमार्थ हैं, यथार्थ हैं, सत्य हैं ।' प्रस्तुत अध्ययन के तेवीस श्लोकों में निर्वाण के साधक-बाधक तत्त्वों, शिष्य के दोष गुणों तथा अनेक मद स्थानों का वर्णन है। सूत्रकार ने शिष्य के निम्न गुण-दोषों का उल्लेख किया है गुण आचार्य की आज्ञा मानना आगम की आज्ञा मानना संयम का पालन करना एकान्तदृष्टि सम्यग्दृष्टि होना माया रहित व्यवहार करना मृदु और मित बोलना जैसे कहे वैसे करना अनुशासित होने पर मध्यस्थ रहना कलह से दूर रहना मद स्थानों का सेवन नहीं करना जाति-कुल, गण, कर्म और शिल्प का प्रदर्शन कर आजीविका नहीं कमाना सरप भाषी, प्रणिधानवान्, विशारद, आगाढप्रज्ञ, भावितात्मा प्रतिभावान् होना । दोष मोक्ष समाधि का अप्रतिपालन आचार्य का अवर्णवाद कहना १. नियुक्ति, गाथा ११८, ११६ । २. चूर्ण, पृ० २१९ ॥ स्वच्छन्द व्याकरण करना अनाचार का सेवन करना असत्य वचन कहना विद्या गुरु का अपलाप करन असाधु होकर स्वयं को साधु मानना मायाचार का सेवन करना क्रोध करना सूत्रकार ने सात श्लोकों (१०-१६) में मद स्थानों और उनके परिहार के उपाय सूत्र बतलाए हैं- गोत्रमद, प्रज्ञामद, जातिमद, कुलमद, लाभमद, तपोमद, आजीविकामद-ये मदस्थान हैं । इनके परिहार के लिए कुछ उपाय सूत्र बतलाए गए हैं-संयम और मोक्ष अगोत्र होते हैं, जाति और कुल त्राण नहीं देते, भिक्षु सुधीर होता है, मृतार्चा होता है, दृष्टधर्मा होता है । पापकारी भाषा बोलना उपशान्त कलह की उदीरणा करना विग्रह करना प्रतिकूल भाषा बोलना अपने आपको उत्कृष्ट संयमी समझना । अंतिम पांच श्लोकों (१९-२३) में धर्मकथी के स्वरूप का विमर्श किया गया है। यह माना जाता है कि मुनि बनने मात्र से ही किसी को धर्मकथा करने का अधिकार प्राप्त नहीं हो जाता । आचारांग आदि आगमों में धर्मदेशना देने का अधिकारी कौन हो सकता है, इसका स्पष्ट निरूपण है । प्रस्तुत श्लोकों में बताया गया है कि धर्मकथी मुनि दो प्रकार के होते हैं १. अतीन्द्रियज्ञान से संपन्न । २. परोक्षज्ञानी - प्रत्यक्षज्ञानी से सुने हुए या समझे हुए तथ्य का प्रतिपादन करने वाले । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगतो. ५२२ अध्ययन १३ : प्रामुख अतीन्द्रियज्ञान से संपन्न धर्मकथी के लिए कोई निर्देश आवश्यक नहीं होता । जो परोक्षज्ञानी है, आगम और श्रुत के आधार पर धर्म-प्रवचन करते हैं, उनके लिए निर्देश आवश्यक होते हैं । वे ये हैं १. धर्मकथी पूछे जाने पर या बिना पूछे भी संयमपूर्वक बोले। वह धर्म संबंधी ऐसी बात कहे जो संयम को पुष्ट करने वाली हो। २. धर्मकथी मुनि हिंसा और परिग्रह को बढ़ावा देने वाली, कुतीथिकों की प्रशंसा करने वाली या सावद्यदान की प्रतिष्ठापना करने वाली भाषा न बोले । ३. वह ऐसे तर्कों का प्रयोग न करे, जिससे अश्रद्धालु व्यक्ति कुपित होकर अनर्थ घटित कर सकता है, मार सकता है। ४. धर्मकथी मुनि अनुमान के द्वारा दूसरे के भावों को जानकर धर्म-देशना करे । वह यह जान ले कि यह मनुष्य कौन है ? किस दर्शन को मानने वाला है ? मैं जो कह रहा है, वह परिषद् को प्रिय लग रहा है या अप्रिय ? जब उसे लगे कि अप्रिय लग रहा है तो तत्काल विषय को मोड़ दे। ५. धर्म-प्रवचन करते समय मत-मतान्तरों की बात छोड़कर ऐसी बात कहे जिससे स्वयं का और सुनने वालों का कल्याण हो, इहलोक और परलोक सुधरे। ६. धर्मकथी मुनि परिषद् की रुचि को ध्यान में रखे । जो परिषद् जिससे प्रभावित होती हो, वैसी धर्मदेशना दे । ७. धर्मकथी मुनि अक्षोभ्य और अनुत्तेजित रहे । ८. धर्मकथी मुनि पूजा और श्लाघा प्राप्त करने के लिए धर्मकथा न करे। वह यह कामना न करे कि धर्मकथा करने से मुझे अच्छे वस्त्र, पात्र, अन्न, पान, लयन, शयन प्राप्त होंगे । वह यह भी न सोचे कि लोग मेरी प्रशंसा करेंगे। लोग कहेंगे-अरे! हमने इस जैसे अर्थ का विस्तार करने वाला नहीं देखा । अरे, यह बहुत मिष्टभाषी है । ६. वह प्रियता या अप्रियता पैदा करने के लिए धर्मकथा न करे । वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर, रागद्वेष से रहित होकर, सम्यग् दर्शन आदि यथार्थ धर्म का उपदेश करे । १०. धर्मकथी मुनि क्षुधा आदि परीसहों को सहने में धीर और पवित्र रहे। ११. धर्मकथी मुनि निष्प्रयोजन - केवल निर्जरा के लिए धर्मकथा करे। १२. धर्मकथी मुनि अकषायी रहे-न क्रोध करे, न अहंकार करे, न माया करे और न लोभ के वशीभूत हो। Jain Education Intemational Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं : तेरहवां अध्ययन पाहत्तहीयं : याथातथ्य संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. आहत्तहोयं तु पवेयइस्सं णाणप्पगारं पुरिसस्स जातं । सतो य धम्म असतो य सोलं संति असंति करिस्सामि पाउं॥ याथातथ्यं तु प्रवेदयिष्यामि, नाना प्रकारं पुरुषस्य जातम् । सतश्च धर्म असतश्चाऽशील, शान्ति अशान्ति करिष्यामि प्रादुः ॥ १. मैं यथार्थ का निरूपण करूंगा । पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। मैं साधु के धर्म, असाधु के अधर्म तथा साधु की शांति और असाध की अशांति को प्रगट करूंगा। २. दिन-रात जागरूक तथागतों (तीर्थ करों) से' धर्म को प्राप्त कर, उनके द्वारा आख्यात समाधि का सेवन नहीं करते हुए वे (अविनीत शिष्य) शास्ता के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करते २. अहो य रातो य समुट्टितेहि तहागतेहि पडिलब्भ धम्म। समाहिमाघातमजोसयंता सत्यारमेवं फरसं वयंति ॥ अहश्च रात्रौ च समत्थितेभ्यः, तथागतेभ्यः प्रतिलभ्य धर्मम् । समाधिमाख्यातमजोषयन्तः, शास्तारमेवं परुष वदन्ति ।। ३. विसोहियं ते अणु काहयंते जे याऽऽतभावेण वियागरेज्जा। अट्टाणिए होइ बहुगुणाणं जे गाणसंकाए मुसं वदेज्जा ॥ विशोधिका तान् अनुकथयतः, यश्चात्मभावेन व्यागणीयात् । अस्थानिको भवति बहुगणानां, यो ज्ञानशंकया मृषा वदेत् ॥ ४.जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति आदाणमझें खलु वंचयंति । असाहुणो ते इह साहुमाणी मायण्णिएहिति अणंतघातं ॥ ये चापि पृष्टाः परिकुञ्चयन्ति, आदानमर्थ खल वञ्चयन्ति । असाधवस्ते इह साधुमानिनः, मायान्विताः एष्यन्ति अनन्तघातम् ।। ३. जो विशोधिका (धर्मकथा या सूत्रार्थ) का' परंपरागत निरूपण करने वाले आचार्य के अर्थ को उलट कर अपना अर्थ बतलाता है, जो ज्ञान में शंकित हो' असत्य बोलता है, वह बहुत गुणों का अस्थान बन जाता है।" ४. जो पूछने पर (अपने गुरु का) नाम छिपाते हैं", वे आदानीय अर्थ (ज्ञान आदि) से अपने आपको वंचित करते हैं । वे असाधु होते हुए अपने आपको साधु मानने वाले छलनापूर्वक व्यवहार कर अनन्त बार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।" ५.जे कोहणे होइ जगभासी विओसितं जे य उदीरएज्जा । अद्धे व से दंडपहं गहाय अविओसिते घासति पावकम्मी॥ यः क्रोधनो भवति जगदर्थभाषी, व्यवसितं यश्च उदीरयेत् । अध्वनि इव स दंडपथं गृहीत्वा, अव्यवसितो ग्रस्यते पापकर्मा । ५. जो क्रोधी होता है, जो ग्राम्यजन की भांति अशिष्ट बोलता है", जो उपशांत कलह की उदीरणा करता है", वह अनुपशान्त कलह वाला पापकर्मा मनुष्य राजपथ के स्थान पर पगडंडी लेकर (चलने वाले पुरुष की भांति) कठिनाई में फंस जाता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपको १ ६. जे विग्गहिए अ गायभासी ण से समे होइ अभवत् । ओवायकारी व हिरीमणे व एतबिट्ठी य अमाइरूवे ॥ ७. से पेसले सुहमे पुरिसजाते जगणिते चैव सुनुवारे । बहु पि अणुसासिए जे तहच्ची समे हु से होइ जपते ॥ ८. जे वावि अप्पं तुमं ति मंता संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा । तवेण वाहं अहिए ति मंता अगं जणं परसति विबभूतं ॥ १. एगंतकूण तु से पलेइ ण विज्जई मोणपदंसि गोते । जे माणणट्ठेण विउक्कसेज्जा वसुमण्णतरेण अबुझमाणे ॥ १०. जे माहणे खत्तिए जाइए वा तहूग्यपुले तह लेच्छवी वा । पव्वइए परदत्तभोई गोतेण जे धम्मति माणबद्धं ॥ ११. ण तस्स जाती व फुलं व ताणं गणत्थ विज्जाचरणं सुचिणं । णिक्खम्म से सेवइsगारिकम्मं ण से पारए होति विमोयणाए ॥ ५२४ यो वैग्रहिकश्च नसः समो भवति अवपातकारी च एकान्तदृष्टिश्च शातभाषी, अाप्राप्तः । ह्रीमनाश्च अमायिरूपः ॥ स पेशलः सूक्ष्मः पुरुषजात, जात्यान्वितश्चैव सु- ऋजुचारः । बहु अपि अनुशासितः वस्तवाचिः समः खलु स भवति अप्राप्तः ॥ यश्चापि आत्मानं वसुमान् इति मत्वा, संख्याकः वादं अपरोक्ष्य कुर्यात् । तपसा या अहं अधिकः इति मत्वा, अन्यं जनं पश्यति विम्बभूतम् ॥ एकान्तकुटेन तु स पर्येति, न विद्यते मौनपदे मौनपदे गोत्रम् । माननार्थेन व्युत्कर्धयेत् वसु-अन्यतरेण यः अबुध्यमानः ॥ यो ब्राह्मणः क्षत्रियः जात्या वा, तथोग्रपुत्रः तथा लिच्छविर्वा । यः प्रव्रजित: परदत्तभोजी, गोत्रेण य स्तभ्नाति मानबद्धः ॥ न तस्य जातिर्वा कुलं वा त्राणं, नान्यत्र विद्याचरणात् सुचीर्णात् । निष्क्रम्य स सेवते अगारिकर्म, नख पारको भवति विमोचनाय || ० १३ : याथातथ्य : श्लोक ६-११ ६. जो झगड़ालू और ज्ञातभाषी" (जानी हुई हर बात को कहने वाला है, वह सम (मध्यस्थ), कलह से परे, गुरु के निर्देश में चलने वाला" तालु", ( संयम में) एकान्तदृष्टि वाला" और छद्म से मुक्त नहीं होता। ७. जो पुरुषजात" प्रिय" और परिमित बोलता है जातिमान् है ऋ 7 रण करता है", गुरु के द्वारा बहुत अनुशासित होने पर भी शांतचित्त रहता है", यह सम (मध्यस्थ ) और कलह से परे होता है।" ८. जो अपने आपको संयमी और ज्ञान 1 ८.३० मानकर परीक्षा किए बिना आत्मोत्कर्ष दिलाता है" में सबसे बड़ा तपस्वी हूं - ऐसा मानकर दूसरे लोगों को प्रतिबिम्ब (केवल मनुष्य - आकृति ) जैसा देखता हूँ" ६. वह एकान्त माया के द्वारा " संसार में भ्रमण करता है । * मुनि-पद में " गोत्र" (वाभिमान नहीं होता। जो सम्मान के लिए संयम अथवा अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है वह परमार्थ को नहीं जानता ।" १०. जो जाति से ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र और लिच्छवी" हो, किन्तु जो प्रव्रजित होने पर दूसरे का दिया हुआ खाता है, फिर भी जो मान के वशीभूत होकर गोत्र का मद करता है? ११. जाति और कुल" उसे त्राण नहीं दे सकते केवल आचरित विद्या और आचरण" ही त्राण दे सकते हैं। जो घर से निष्क्रमण कर गृहस्थ - कर्म ( जाति और कुल के मद) का सेवन करता है, वह विमुक्ति के लिए समर्थ नहीं छोटा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२५ प्र० १३ : याथातथ्य : श्लोक १२-१८ सूयगडो १ १२.णिक्किचणे भिवख सुलहजीवी जे गारवं होइ सिलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥ निष्किञ्चनो भिक्षः सुरूक्षजीवी, यो गौरववान् भवति श्लोककामी। आजीवमेतं तु अबुध्यमानः, पुनः पुनः विपर्यासमुपैति ॥ १३.जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी पडिहाणवं होइ विसारए य । आगाढपण्णे सुय-भावियप्पा अण्णं जणं पण्णसा परिहवेज्जा॥ यो भाषावान् भिक्षुः सुसाधुवादी, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च । आगाढप्रज्ञः श्रुतभावितात्मा, अन्यं जनं प्रज्ञया परिभवेत् ॥ १४. एवं ण से होति समाहिपत्ते जे पण्णसा भिक्खु विउक्कसेज्जा। अहवा वि जे लाभमदावलित्ते अण्णं जणं खिसति बालपण्णे ॥ एवं न स भवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञया भिक्षुः व्युत्कर्षयेत् । अथवापि यो लाभमदावलिप्तः, अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः ॥ १२. जो अकिंचन", भिक्षा करने वाला और रूक्षजीवी" होकर भी (जाति आदि का) गर्व करता है", (उसका प्रकाशन कर) प्रशंसा चाहता है - यह आजीविका है", इस बात को नहीं जानता हुआ वह बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है । ५२ १३. जो भिक्षु सुसंस्कृतभाषी", वाक्पटु", प्रतिभा-संपन्न", विशारद, प्रखर प्रज्ञावान्" और श्रुत से भावितात्मा है वह दूसरे लोगों को अपनी प्रज्ञा से पराजित कर देता है। १४. ऐसा होने पर भी वह समाधि को प्राप्त नहीं होता। जो भिक्षु अपनी प्रज्ञा का उत्कर्ष दिखलाता है अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरे लोगों की अवहेलना करता है, वह बालप्रज्ञ (बचकानी बुद्धि वाला) है। १५. जो भिक्षु प्रज्ञामद, तपोमद, गोत्रमद" और चौथे आजीविका-मद को निरस्त कर देता है वह पंडित है और उत्तम आत्मा " है। १६. धीर और चारित्र-संपन्न मुनि जिन मदों को छोड़कर प्रव्रजित हुए हैं, फिर उनका सेवन न करें।" वे सारे गोत्रों से मुक्त महर्षि ही उस उच्च गति को प्राप्त होते हैं जहां कोई गोत्र नहीं १५. पण्णामदं चेव तवोमदं च णिण्णामए गोयमदं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु से पंडिए उत्तमपोग्गले से ॥ १६. एयाई मदाई विगिच धोरा ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सव्वगोतावगता महेसी उच्च अगोतं च गतिं वयंति ॥ प्रज्ञामदं चैव तपोमदं च, निर्नामयेद् गोत्रमदं च भिक्षः । आजीवकं चैव चतुर्थमाहुः, सः पंडितः उत्तमपुद्गलः सः ॥ एतान् मदान् विविच्य धीराः, नेतान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः । ते सर्वगोत्रापगताः महर्षयः, उच्चां अगोत्रां च गतिं व्रजन्ति ॥ १७. भिक्खू मुतच्चे तह दिट्टधम्मे गाम व गगरं व अणुप्पविस्सा। से एसणं जाणमणेसणं च जो अण्णपाणे य अणाणुगिद्धे ॥ भिक्षमतार्चः तथा दृष्टधर्मा, ग्रामं वा नगरं वा अनुप्रविश्य । स एषणां जानन् अनेषणां च, यः अन्नपाने च अननगृद्धः ।। १८. अति रति च अभिभूय भिक्खू बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा एगस्स तंतो गतिरागती य॥ अरति रति च अभिभूय भिक्षः, बहुजनो वा तथा एकचारी। एकान्तमौनेन व्यागृणीयात, एकस्य जन्तोः गतिरागतिश्च ॥ १७. भिक्षु मृत शरीर वाला" तथा धर्म को प्रत्यक्ष करने वाला" होता है, इसलिए बह ग्राम या नगर में प्रवेश कर एषणा और अनेषणा को जानता है तथा अन्न-पान के प्रति अनासक्त होता है। १८. अरति और रति को" अभिभूत करने वाला भिक्षु संघवासी हो" या एकचारी* (अकेला विचरण करने वाला), एकांत मौन (संयम) के साथ किसी तत्त्व का निरूपण करे",-जीव अकेला जाता है और अकेला आता है । Jain Education Intemational Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १३ : याथातथ्य : श्लोक १९-२३ सूयगडो १ १९.सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा भासेज्ज धम्मं हितयं पयाणं । जे गरहिता सणिवाणप्पओगा ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ २०.केसिंचि तक्काए अबुज्झ भावं खुई पि गच्छेज्ज असद्दहाणे । आउस्स कालातियारं वघातं लद्धाणुमाणे य परेसु अलैं॥ तो आतभावं। २१.कम्मं च छंदं च विगिच धीरे विणएज्ज तु सव्वतो आतभावं । हवेहि लुप्पंति भयावहेहि विज्जं गहाय तसथावरेहि ॥ विनयत् भयावहेष, स्वयं समेत्य अथवापि श्रुत्वा, १६. स्वयं जानकर" या सुनकर प्रजा के भाषेत धर्म हितकं प्रजानाम् ।। लिए हितकर धर्म का प्रतिपादन करे । ये गहिताः सनिदानप्रयोगाः, धर्मकथी मुनि निदान के प्रयोग", जो न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः॥ गहित हैं, का सेवन न करे। केषांचित् तर्केण अबुध्वा भावं, २०. अपनी तर्क-बुद्धि के द्वारा दूसरों के क्षौद्रमपि गच्छेद् अश्रद्दधानः । भावों को न जानकर (तत्व चर्चा आयुषः कालातिचारं व्याघातं, करने पर) अश्रद्धालु मनुष्य क्रोध को" लब्धानुमानश्च परेषु अर्थान् ॥ प्राप्त हो सकता है और वक्ता को मार सकता है" या कष्ट दे सकता है, इसलिए (धर्मकथा करने वाला मुनि) अनुमान के द्वारा दूसरों के भावों को जानकर" धर्म कहे। कर्म च छन्दं च विविच्य धीरः, २१. धीर पुरुष" श्रोता के कर्म और छंद विनयेत् तु सर्वतः आत्मभावम् । (रुचि) का विवेचन कर, (बाह्य रूपेषु लप्यन्ति भयावहेष, पदार्थों में होने वाले) उसके आत्मीय विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरेषु ॥ भाव का सर्वथा विनयन करे। इस तत्त्व को जानकर कि भय पैदा करने वाले चल-अचल' रूपों (आकृतियों) में मूर्छित होकर मनुष्य नष्ट होते हैं । न पूजनं चैव श्लोकं कामयेत, २२. निर्मल" और उपशान्त भिक्षु पूजा प्रियमप्रियं कस्यचिद् नो कुर्यात् । और श्लाघा का कामी हो (धर्मकथा सर्वान् अनर्थान् परिवर्जयन्, न करे ।)" किसी का प्रिय या अप्रिय अनाविलश्च अकषायी भिक्षुः॥ न करे। (प्रियता या अप्रियता उत्पन्न करने के लिए धर्मकथा न करे।) सब अनर्थों का परिवर्जन करे। याथातथ्यं समपेक्षमाणः, २३. याथातथ्य को भली भांति-देखता हुआ सर्वेषु प्राणेषु निहाय दण्डम् । (भिक्षु) सब प्राणियों की हिंसा का" नो जीवितं नो मरणं अभिकांक्षेत, परित्याग करे। जो जीवन और मरण परिव्रजेद् वलयाद् विमुक्तः ॥ की अभिलाषा नहीं करता हुआ परिव्रजन करता है। वह वलय (संसार-चक्र) से" मुक्त हो जाता है। २२.ण पूयणं चेव सिलोय कामे पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अणठे परिवज्जयते मणाइले या अकसाइ भिक्ख ॥ २३.आहत्तहीयं समुपेहमाणे सम्वेहि पाहि णिहाय दंडं। णो जीवियं णो मरणाहिकंखे परिव्वएज्जा वलया विमुक्के । -त्ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि ।। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. यथार्थ का (आहतहियं ) इसका अर्थ है - यथार्थता, परमार्थ, सत्य । टिप्पण अध्ययन १३ पूर्णिकार ने शील, व्रत, इन्द्रिय-संबर समिति गुप्ति, कषाय निग्रह आदि को यथार्थ बतलाया है।' विकल्प में व्रत और समिति के ग्रहण और रक्षण तथा कषायों के निग्रह और त्याग को यथार्थ बतलाया है ।" वृत्तिकार ने तत्त्व और परमार्थ को याथातथ्य माना है ।" श्लोक १ : इस अध्ययन के तेवीसवें श्लोक में 'आहत्तहीयं' शब्द की व्याख्या में चूर्णिकार ने याथातथ्य से इसी सूत्र के चार अध्ययनों (ह से १२) - धर्म, समाधि, मार्ग और समवसरण का ग्रहण किया है। वृत्तिकार ने उस श्लोक में याथातथ्य से नौवें, दसवें और बारहवें अध्ययन (धर्म, मार्ग और समवसरण ) में वर्णित तत्त्व, सम्यक्त्व या चारित्र को ग्रहण किया है ।" २. पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है (पाणपगारं पुरिसस्स जातं) पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। 'नाना प्रकार' का तात्पर्य है - अनेक अभिप्राय वाला, अनेक शील वाला । - अनेक पुरुष 'अनेक अभिप्राय वाले हों, भिन्न-भिन्न शील वाले हों, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु एक ही पुरुष अनेक परिणामों में परिणत होता हुआ अनेक प्रकार का पुरुष हो जाता है, एक अनेक हो जाता है। वह कभी तीव्र परिणाम वाला, कभी मंद परिणाम वाला और कभी मध्यम परिणाम वाला हो जाता है । कभी वह मृदु और कभी कठोर हो जाता है। कभी अकार्य कर उससे निवृत्त हो जाता है तो कभी उसमें प्रवृत्त हो जाता है, सतत उसका आचरण करता है । किसी व्यक्ति को कोई कष्ट अत्यन्त दुःखदायी होता है और किसी को किसी दूसरे के कष्ट से दुःख होता है । दारुण और अदारुण स्वभाव से वह एक होते हुए भी अनेक हो जाता है ।" वृत्तिकार ने लिखा है कि पुरुष का स्वभाव विचित्र होता है। वह कभी प्रशस्त और कभी अप्रशस्त, कभी ऊंचा और कभी नीचा होता है।" १. २. वही, पृ० २१९ : अथवा व्रत समिति कषायाणां धारणारक्षणं विनिग्रहत्यागी । ३. वृत्ति, पत्र २३७ : यथातथाभावो याथातथ्यं तत्त्वं परमार्थः । ४. चूर्ण, पृ० २२६ : आधत्तधिज्जं धम्मं मग्गं समाधि समोसरणाणि य यथावदुवितानि । ०२१धतधियं याचातव्यम् शति-गुप्तिकवावनिग्रहसर्वधति यथातथम्। ५. वृत्ति, पत्र २४६ : यथातथाभावो यायातथ्यं धर्ममार्गसमवसरणाख्याध्ययनत्रयोक्तार्थतत्वं सूत्रानुगतं सम्यक्त्वं चारित्रं वा । ०२१९ नाना अर्थान्तरभावे, पुरिस (एस) जातमिति केचित् ६. विद्यासुन्दा, सत्पुरुषशीलगुणांश्चोपदेश्या ( क्ष्या) म:, समोसरणे तु अण्णउत्थिय गिहस्थाण वृष्टयो दर्शिताः इत्यतो जाणवणारं पुरिस ( स ) जातं, तिष्ठन्तु तावन्नानाप्रकारा गृहस्थाः, अन्यतीथिका पासत्यादयो संविग्गा य णाणापगारा पुरिसजाता, जाणाछन्दा इत्यर्थः । अथवा कि चित्रं यदि नानाविधाः पुरुषाः नानाशीला एव भवन्ति ?, एक एव हि पुरुषस्तानि तानि परिणामान्तराणि परिणामयन् णाणापगारो पुरिसज्जातो भवति तं कदाचित् तीयपरिणामः कदाचित्संदस्यमायः कदाचिन्मध्यमः कदाचिन्मृस्वभाव कदाचित्रिधर्म एव भवति, कृत्वा चात्यं करियते कश्चित् सुतरां प्रवर्तते, अन्यस्य चान्यः परीषो विषहो भवति अथवा (बाया-बायस्वभाववाच्च नानाप्रकारं पुरुषजातं भवति । ७. वृत्ति, पन २३८ । विश्चित्रं पुरुषस्य स्वभावम् — उच्चावचं प्रशस्ताप्रशस्त रूपम् । -- Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५२८ अध्ययन १३ : टिप्पण ३-६ ३. (सतो य धम्म............) सत् पुरुष के साथ शील और शान्ति का तथा असत् पुरुष के साथ अशील और अशांति का संबंध जुड़ता है। चूर्णिकार ने शील का अर्थ धर्म, समाधि और मार्ग किया है।' इस आधार पर अशील का अर्थ अधर्म, असमाधि और अमार्ग अपने आप हो जाता है । शांति का अर्थ है-अशुभ से निवृत्ति अथवा पूर्व संचित कर्म की निर्जरा। परम शान्ति को निर्वाण कहा जाता है। अशान्ति का अर्थ है-अशुभ में प्रवृत्ति और कर्म-बंध के हेतु । श्लोक २: ४. जागरूक तथागतों (तीर्थंकरों) से (समुट्टितेहिं तहागतेहि) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इन दोनों की व्याख्या भिन्न पद मान कर की है। मुनि संयमगुणों में स्थित व्यक्तियों से दोनों प्रकार की शिक्षा ग्रहण कर तथागत-तीर्थंकर से संसार-तरण का उपाय जाने ।' वृत्तिकार ने 'समुट्टितेहिं' का अर्थ--ऐसे श्रुतधर मुनि जो सदनुष्ठान में तत्पर रहते हैं—किया है और तथागत का अर्थ तीर्थंकर किया है। ५. सेवन नहीं करते हुए (अजोसयंता) __ 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' धातु से इसका संस्कृत रूप 'अजोषयन्तः' होगा। इसके दो अर्थ हैं-प्रेम रखना और सेवन करना। यहां यह सेवन के अर्थ में प्रयुक्त है । इसका अर्थ है-सेवन नहीं करते हुए। कुछ पुरुष समाधि को प्राप्त करके भी अपने कर्मोदय के कारण तथा ज्ञान के झूठे अहं के कारण उस पर श्रद्धा नहीं करते । कुछ श्रद्धा करते हुए भी अपने धृति-दौर्बल्य के कारण उसका यावज्जीवन पालन नहीं कर सकते।' ६. शास्ता के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं (सत्यारमेवं फरसं वयंति) शास्ता का अर्थ है-आचार्य ।' जब व्यक्ति कहीं भूल कर बैठता है, तब उसके आचार्य, जिन्होंने निःस्वार्थ वत्सलता से उसे पाला-पोषा है, उसे कहते हैंतुम ऐसा मत करो। यह शास्ता के उपदेश के विपरीत है।' तब वह अपने उपदेष्टा को कहता है-'दूसरों को उपदेश देने में क्या लगता है ? दूसरों के हाथों से जलते अंगारों को निकलवाना सरल होता है।' इस प्रकार वह कठोर वचन कहता है।' १. चूणि, पृ० २१९ : धर्मो भवति यथार्थः, एवं समाधिमार्गश्च । २. चूणि, पृ० २१९ : सर्वाशुभनिवृत्तिः शांतिः, सर्वभूतशान्तिकरत्वात् सर्वाशुभनिवृत्ति: शांतिः, तथा च परमशांति: निर्वाणं भवति । अशांतिः अशीलः, आत्मनः परेषां च इह वा शान्तिभवत्यमुत्र च, तां कर्मनिर्जरणशांति ............ 'कर्मबन्धकारणं चाशान्ति। ३. चूणि, पृ० २१६ : सम्यग् उत्थिताः समुत्थिताः, सम्यग्ग्रहणात् समुत्थितेभ्यः संयमगुणस्थितेभ्यश्च द्विविधां शिक्षा गृहीत्वा तीर्थकरा दिभ्यः तथागतेभ्यः संसारनिस्सरणोपायस्तावत् प्रतिलभ्येत । ४. वृत्ति, पत्र २३८ । सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः सदनुष्ठानवन्तस्तेभ्यः श्रुतधरेभ्यः, तथा 'तथागतेभ्यो'-वा तीर्थकृद्भ्यो। ५. चूणि, पृ० २२० : "जुषी प्रीति-सेवनयोः" तं अभूसयंता कम्मोदयदोसेणं केयि दुग्वियबुद्धी असद्दहंता, केचित् श्रद्दधतोऽपि धृति दुर्बला: यावज्जीवमशक्नुवन्तो यथारोपितमनुपालयितुम् । ६. चूणि, पृ० २२० : यः शास्ति स शास्ता आचार्य एव । ७. वही, पृ० २२० : जेहिं चेव णिक्कारणवत्सलेहि पुत्रवत् सङ्ग्रहीताः ते चेव कहिचि चुक्क-क्खलिते चोदेमाणा अण्णतरं वा साधुं पति चोवंति फरसं वदंति, 'मा एवं करेहि त्ति नैष शास्तारोपदेशः इति सत्थारमेव फरसं वंदति, सो हि न ज्ञातवान्, कि वा तस्स उवविसंतस्स पारक्कस्स छिज्जति ? सुहं परायएहि हत्थेहिं दंगालाकडिज्जति । Jain Education Interational Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ७. विशोधिका (धर्मकथा या सूत्रार्थ) का ( विसोहियं ) पूगिकार ने विशोधिका के दो अर्थ किए है १. धर्मकथा । २. सूत्रार्थं । वृत्तिकार के अनुसार जो मार्ग विविध प्रकार से निर्दोष कर दिया गया है, शुद्ध कर दिया गया है, वह विशोधित (मार्ग) कहलाता है । तात्पर्य में इसका अर्थ है - मोक्ष मार्ग । ८. अपना अर्थ बतलाता है (आतभावेण वियागरेज्जा) भाव के दो अर्थ हैं - ज्ञान अथवा अभिप्राय । आत्मभाव का अर्थ है - स्वयं का ज्ञान अथवा स्वयं का अभिप्राय । जो पुरुष आत्मोत्कर्ष के कारण तथा अपनी व्याख्या के प्रति आसक्ति के कारण, आचार्य परंपरा से आए हुए अर्थ को गौण कर अपने अभिप्राय के अनुसार तथ्यों की व्याख्या करते हैं, विपरीत अर्थ बतलाते हैं वे गंभीर अभिप्राय वाले सूत्र और अर्थ को सही नहीं समझते । अपने कर्मों के उदय के प्रभाव से वे उसे यथार्थ रूप में परिणत नहीं कर पाते। वे पंडितमानी पुरुष उत्सूत्र की प्ररूपणा करने लग जाते हैं । वे गोष्ठामाहिल की तरह आचार्य की अनुपस्थिति में विपरीत कथन करते हैं 'यह ऐसा नहीं है। जैसा मैंने कहा है, वैसे ही है।' उन्हें जब कोई कुछ कहता है तब वे कहते हैं—जैसे तुम कहते हो, यह वैसे नहीं है। यह इस प्रकार होना चाहिए।' वह स्वच्छंद प्ररूपणा करने लग जाता है ।" 1 वे जमालि की तरह शासन से पृथक् होकर कहते हैं ६. ज्ञान में शंकित हो ( णाणसंकाए ) इसके दो अर्थ हैं *--- १. ज्ञान में शंका या संदेह । २. अपने आपको ज्ञानी मानना । पहले अर्थ में 'शंका' का अर्थ है - संदेह और दूसरे में उसका अर्थ है- मानना । १०. बहुत गुणों का अस्थान बन जाता है (अट्टाणिए होइ बहुगुणाणं) ५२६ श्लोक ३ : इसका अर्थ है - वैसा पुरुष अनेक गुणों का अस्थान ( अपात्र ) बन जाता है। चूर्णिकार ने अनायतन, असंभव, अनाचार और अस्थान को एकार्थक माना है ।" वृत्तिकार ने 'अस्थानिक' का अर्थ अनाधार, अभाजन किया है ।" २. नि, पृ० २२० यहां 'गुण' शब्द से निम्न गुणों का ग्रहण किया गया है— आचार्य के प्रति विनय, जिज्ञासा करना, आचार्य के कथन को सुनना, उसे ग्रहण करना, उसके विषय में तर्क-वितर्क करना, अर्थ का निश्चय करना, बार-बार प्रत्यावर्तन के द्वारा उसे आत्मसात् १. चूर्ण, पृ० २२० : विसोधिकरं विसोधियं, धम्मकधा सुत्तत्यो वा । २ वृत्ति पत्र २३८ : विविधम्- अनेकप्रकारं शोधितः कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीतो विशोधितः सम्यग्दर्शन -ज्ञानपरित्रायो मोक्षमार्गः । 1 समीपे गोण्डमा कथ्यमानमपि ब्रुवते ४. (क) पूर्णि, १०२२० (ख) वृत्ति ५. चूर्ण, पृ० २२० ६. वृत्ति पत्र २३० अध्ययन १३ : टिप्पण ७-१० चानामा अभिप्राय वा उपपति, पौर्वापार स्वतः परिणमयितुं विलयं रूपयन्ति आचार्यनिम्ता या जातियत् एवं न युज्यते ययोदितमेव संयते' इत्येवं बात मावेन वियागति केचित् नैतदेवं युज्यते यथा भवानाह, स्यादेवं तु युज्यते । स एवं स्वच्छन्दः । 1 गाणे कामाका, तेसु तेसु पाणंतरेतु एवमेत पुयते सा संकेत मान्यार्याः ये ज्ञानयन्तमात्मानं मन्यमानाः । जानेवार २३ : अनायतनं असम्भवः अनाचार : अस्थानमित्यनर्थान्तरम् । 'अस्थानिक 'अनाधारो बहूनां ज्ञानादिगुणानामभाजनं भवतीति । "यदि वा ज्ञानशङ्कया पाण्डित्याभिमानेन । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १३:टिप्पण ११ करना और तदनुसार सम्यक् आचरण करना।' अथवा पारस्परिक वैयावृत्य करना, विनय करना।' वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में गुणों के विषय में इस प्रकार प्रतिपादन किया है गुरु की सेवा-शुश्रुषा करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, उससे सम्यक् प्रवृत्ति होती है और अन्त में समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, मोक्ष प्राप्त हो जाता है । यहां छन्द की दृष्टि से 'बहू' में दीर्घ उकार का प्रयोग किया गया है। श्लोक ४: ११. (जे यावि पुट्टा पलिउंचयंति) कोई व्यक्ति ऐसे आचार्य से विद्या सीखता है जो जाति आदि से कुछ न्यून है। दूसरा व्यक्ति उससे पूछता है-अरे, तुमने यह विद्या किससे सीखी ?' वह आचार्य से अपने आपको जातिवान् मानता हुआ उस आचार्य का नाम नहीं बताता, उसको छुपा देता है और उसके स्थान पर किसी प्रख्यात आचार्य का नाम ले लेता है। वज्रस्वामी पदानुसारीलब्धि से सम्पन्न थे । वे अपने आचार्य से अधिक प्रज्ञापना करने में समर्थ थे। इसी प्रकार कोई शिष्य अपने आचार्य से अधिक ज्ञानी हो, फिर भी उसे अपने आचार्य के नाम को नहीं छिपाना चाहिए । जो व्यक्ति ज्ञान आदि की दृष्टि से आचार्य के समान हों, या उनसे न्यून हों, उनको तो वैसा करना ही नहीं चाहिए। उनको गुरु के विषय में पूछने पर वे उत्कर्ष के साथ कहते हैं-- मैंने ही इस सूत्र के अर्थ का विस्तार से वर्णन किया है। मैंने ही इस सूत्र और अर्थ पद का विशोधन किया है। ऐसा व्यक्ति अशांतिभाव में स्थित निन्हवक होता है । कोई व्यक्ति किसी के पास विद्या ग्रहण करता है। वह अपनी ग्रहणशक्ति की प्रबलता के कारण व्याकरण, छन्द-शास्त्र, न्यायशास्त्र का अधिक विद्वान् बन जाता है । अथवा गृहस्थावस्था में इन शास्त्रों का पारगामी होकर फिर प्रवजित होता है । तब कोई उसे पूछता है—'क्या तुमने यह सारा अमुक आचार्य के पास सीखा है ? वह कहता है-अरे ! वह बेचारा क्या जानता हैं ? वह तो मिट्टी का लोंदा है। उसके होठ भी ठीक नहीं हैं तो वह मुझे क्या वाचना दे पाएगा? (यह सब मैंने अपनी बुद्धि से ही जाना, सीखा है।) इस प्रकार वह आचार्य के प्रति किए जाने वाले अभ्युत्थान आदि विनयों से डर कर उनका नाम छिपाता है । यह ज्ञान और दर्शन की परिकुंचना है। इसी प्रकार चारित्र की भी परिकंचना होती है, जैसे- कोई शिथिलाचारी मुनि पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा करता है। उस समय कल्प्य और अकल्प्य की विधि को जानने वाला कोई श्रावक उससे पूछता है-'महाराज !' क्या यह आपको कल्पता है ? क्या ऐसा करना आपके लिए विहित है ? सजीव जल से गीली वस्तु को ग्रहण करते हुए देखकर वह श्रावक मुनि से कहता है-अमुक मुनि इस प्रकार की गीली वस्तु नहीं लेते । आप इसे कैसे ले रहे हैं ? ऐसी कौनसी दरिद्रता आपके आ गई है? __इस प्रकार पूछने पर वह सचित्त-अचित्त विषयक परिकुंचना करते हुए कहता है-वह इस विषय में क्या जानता है? अथवा तुम भी इस विषय में क्या जानते हो ? मैं इतने वर्षों से संयम का पालन कर रहा हूं, व्रतों को पाल रहा हूं। मैं जानता हूं कि क्या लेना है, क्या नहीं लेना है ? इस प्रकार वह गोपन करता है। १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा २२ : 'सुस्सूसति पडिपुच्छति, सुणेति गेण्हति य ईहए यादि । तत्तो अपोहए वा, धारेति करेति वा सम्मं ।' २. चूणि, पृ० २२० । ३. वृत्ति, पत्र २३८ । यदि वा गुरुशुश्रूषादिना सम्यग्ज्ञानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठानमतः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः । ४. (क) चूणि, पृ० २२०, २२१ । (ख) वृत्ति, पत्र २३६ । Jain Education Intemational e & Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५३१ अध्ययन १३ : टिप्पग १२-१३ वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है कोई शिष्य स्वयं प्रमादवश भूल करता है और उसका प्रायश्चित्त करते समय, गुरु के पूछने पर उसको इस दृष्टि से छिपाता है कि कहीं मेरी निन्दा न हो।' १२. (मायण्णिएहिति अणंतघातं) यहां दो पदों में संधि की गई है-मायण्णिआ-एहिति । 'घात' शब्द के तीन अर्थ हैं-जन्म-मरण, विनाश, संसार । वे मायावी पुरुष दो दोषों से युक्त होते हैं- एक तो वे स्वयं असाधु होते हैं और दूसरे में वे अपने आपको साधु मानते हैं। जो व्यक्ति स्वयं पाप में प्रवृत्त होकर अपने आपको शुद्ध बताता है, वह दुगुना पाप करता है । यह अज्ञानी व्यक्ति की दूसरी अज्ञानता है।' इस प्रकार जो व्यक्ति अपने शिक्षक-गुरु का अपलाप करते हैं, वे अपने अहं के कारण बोधि-लाभ से वंचित रहते हैं तथा अनन्त जन्म-मरण करते हैं।' आचार के पांच प्रकार हैं-दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप:-आचार और वीर्याचार । इनके अनेक प्रकार हैं। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिन्हवन, व्यंजन, अर्थ और व्यंजन-अर्थ ।' प्रस्तुत श्लोक में 'अनिन्हवन' का उल्लेख है । दशवकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने इस प्रसंग में एक कथा प्रस्तुत की है। वह इस प्रकार है एक नाई था । उसे एक विद्या प्राप्त थी। उस विद्या-बल से वह अपनी हजामत की पेटी को आकाश में अधर रख सकता था । एक परिव्राजक ने यह देखा । विद्या के प्रति उसका मन ललचा गया। उसने नाई की खूब सेवा की । उसका बार-बार सत्कार किया । नाई ने प्रसन्न होकर उस परिव्राजक को यह विद्या सिखाई। एक बार परिव्राजक कहीं दूर देश में चला गया। वह विद्या-बल से अपने त्रिदंड को आकाश में अधर खड़ा कर देता। लोगों ने देखा, वे चमत्कृत हुए। उसकी खूब पूजा होने लगी। राजा ने यह चमत्कार सुना । उसने परिव्राजक को अपनी सभा में बुला भेजा। परिव्राजक से राजा ने पूछा-- 'आपका त्रिदंड आकाश में अधर टिक जाता है। क्या यह विद्या का चमत्कार है या तपस्या का ? परिव्राजक ने कहा- राजन् ! यह विद्या का चमत्कार है।' भगवन् ! आपने यह विद्या कहां से सीखी ? राजन् ! एक बार मैं हिमालय की यात्रा पर गया था। वहां मुझे एक महान् ऋषि के दर्शन हुए। उन्होंने कृपा कर मुझे यह विद्या दी। यह कहते ही वह त्रिदंड धडाम से भूमी पर आ गिरा। इस प्रकार आचार्य या विद्या-गुरु, चाहे वह कोई भी क्यों न हो, उसका अपलाप नहीं करना चाहिए।' श्लोक ५: १३. जो ग्राम्यजन की भांति अशिष्ट बोलता है (जगट्ठभासी) चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं १. संसार में बोली जाने वाली रूखी, कठोर और निष्ठुर भाषा बोलने वाला। १. वृत्ति, पत्र २३६ : यदि वा-सदपि प्रमावस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिके अवसरा पृष्टाः सन्तो मातृस्थानेनावर्णवादभयान्निह नुक्ते। २. चूणि, पृ० २२१ : जाइतब्व-मरितव्बाई घातं । ३. वृत्ति, पत्र २३६ : 'घात'--विनाशं संसारं वा। ४. वही, पत्र २३६ : दोषद्वयवुष्टत्वात्तेषाम्, एकं तावत्स्वयमसाधवो द्वितीयं साधुमानिनः, उक्त'च - "पावं काऊण सयं, अप्पाणं सुद्धमेव वाहर।। दुगुणं करेइ पावं, बीयं बालस्स मंदत्तं ॥ ५. वही, पृ० २३६ : तदेवमात्मोत्कर्ष दोषाद् बोधिलाभमप्युपहत्यानन्तसंसारभाजो भवन्त्यसुमन्त इति । ६. दशवकालिक नियुक्ति गाथा, १८१,१८४ । ७. बसवेआलिग.....", अगस्यसिंहस्थविर चूणि पृ० ५३ । Jain Education Intemational Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५३२ अध्ययन १३ : टिप्पण १४-१६ २. आचार्य, साधु या गृहस्थ को रूखे, कठोर या निष्ठुर वचन कहने वाला। ३. छेदो, भेदो, बांधो, मारो-कहने वाला। ४. लोक-सम्मत जातिवाद के आधार पर बोलने वाला, काने को काना कहने वाला ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है---जगत् में जो जैसे व्यवस्थित है, उसको वैसे ही कहता है, जैसे-ब्राह्मण को 'डोड', बनिये को 'किराट', शूद्र को आभीर, श्वपाक को चांडाल, काने को काना, लंगड़े को लंगड़ा, कुबड़े को कुबड़ा, कुष्ट वाले को कुष्टी और क्षयरोग से ग्रस्त को क्षयी कहता है । जो पुरुष जिस दोष से युक्त है उसे उसी दोष के माध्यम से कठोर वचन कहता है, वह जगदर्थभाषी होता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसके पाठान्तर के रूप में 'जयट्ठभासी' शब्द दिया है। इसका अर्थ है-जिस किसी प्रकार से असद् बात कहकर अपनी जय चाहने वाला ।' १४. जो उपशान्त कलह को उदीरणा करता है (विओसितं जे य उदीरएज्जा) दो व्यक्ति परस्पर कलह करते हैं । कालान्तर में वे परस्पर क्षमायाचना कर उस कलह को शान्त कर देते हैं। किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो समय-समय पर ऐसी बातें कह देते हैं, जिससे उपशान्त कलह पुनः भडक उठता है।' १५. (अद्दे व से पावकम्मो) अध्व का अर्थ है- राजपथ' और दडपथ का अर्थ है--- पगडंडी। कोई व्यक्ति राजपथ के उद्देश्य से पगडंडी पर चल पड़ता है। आगे जाकर वह पगडंडी समाप्त हो जाती है । वह किंकर्तव्यविमूढ हो आगे चलता है । उसे अनेक विपदाओं का सामना करना पड़ता है। कभी वह गढ़े में गिर पड़ता है और कभी विष म कूप में जा पड़ता है। इसी प्रकार विषम मार्ग में चलते हुए उसे पत्थर, कांटे, अग्नि, सर्प और हिंस्र पशुओं का सामना करना पड़ता है। १६. कठिनाई में फंस जाता है (घासति) इसका संस्कृत रूप है-ग्रस्यते । इसका अर्थ है- कठिनाई में फंसना । वह पुरुष शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होता है। १. चणि, पृ० २२१ : जगतः अट्ठा जगतट्ठा जे जगति भाषन्ते, जगति जगति तावत् खर-फरस-णिठ्ठरा, ण संयतार्था इत्यर्थः । ते पुनराचार्यादीन् साधून गहिणो वा खर-फरस-गिट्ठराणि भणंति, कक्कसकसुगादीणि वा। अथवा जगदर्था छिन्द्धि मिन्द्धि बद्ध मारयत, जातिवादं वा काण-कुटादिवादं वा फुडंभाणी वा।। २. वृत्ति, पत्र २३६ : जगत्यर्था जगदर्था ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्य-जगदर्थमाषी, तद्यथा-ब्राह्मणं डोडमिति ब्रयात्तथा वणिज किराटमिति, शूद्रभाभी रमिति, श्वपाकं चाण्डालमित्यादि; तथा काणं काणमिति, तथा खजं कुब्जं वडममित्यादि तथा कुष्ठिनं क्षयिणमित्यावि, यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुषं ब्रूयात् यः स जगदर्थमाषी। ३. (क)णि पृ० २२१ : 'जयट्ठभासी'---पठ्यते च येन तेन प्रकारेणाऽऽत्मजयमिच्छति । (ख) पत्ति, पत्र२३६,२४० : यदि वा जयार्थभाषी यथवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थ भासते तच्छीलश्चयेन केनचित प्रकारेणासवर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः : ४. (क) चूणि, पृ० २२१ : विसेसेण ओसवितं, लिओसितं खामितमित्यर्थः, तं सपक्खं परपक्खं वा क्षापयित्वा पुनरुदीरयति । (ख) बत्ति, पत्र २४० : 'विओसियं' ति–विविधमवसितं ---पर्यवसितमुपशान्तं द्वन्द्व --- कलहं यः पुनरप्युदीरयेत्, एतदक्त भवति । कलहकारिभिमिथ्यादष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि तत्तद् ब्र याद्यन पुनरपि तेषां क्रोधोदयो भवति । ५. चूणि, पृ० २२१ : अखे..... महापध इत्यर्थः। ६ (क) चूणि, पृ० २२१ : दंडपध णाम एक्कपइय । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : 'दण्डपथं'-गोदण्डमार्ग (लघुमार्ग)। ७ चूणि, पृ०२२१ । तं अध्वउद्देसतो गृहीत्वा गर्तायां घृष्ट विषमे कुपे वा पतति, पाषाण-कण्टका-ऽग्न्यहि-श्वापदेभ्यो वा दोष मवाप्नोति। ८. (क) चूणि, पृ० २२१ : घासति सारीर-माणसेहि दुक्खेहि ति । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : असौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनः पुग्येन पीड्यत इति । Jain Education Intemational Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडा १ अध्ययन १३ : टिप्पण १७-१६ श्लोक ६: १७. ज्ञातभाषी (णायभासी) चूणिकार ने 'नायभासी' का संस्कृत रूप 'नात्याभाषी' किया है। किन्तु यह शब्द स्पष्ट अर्थ देने वाला नहीं है । इसके तीन अर्थ किए गए हैं १. अस्थानभाषी। २. गुरु पर आक्षेप करने वाला। ३. प्रतिकूलभाषी । वृत्तिकार ने 'अन्नायभासी' पाठ मानकर उसके दो अर्थ किए हैं-' १. अन्यायपूर्ण वाणी बोलने वाला। २. जो कुछ मन में आया, उसे बोलने वाला। हमने इसका अर्थ ज्ञातभाषी-जानी हुई हर बात को कहने वाला किया है। १८. कलह से परे (अझंझपत्ते) झंझा का अर्थ है-- 'कलह' । 'अझंझाप्राप्त' अर्थात् जो कलह को प्राप्त नहीं है। वृत्तिकार ने इसका एक अर्थ-- अमायाप्राप्त भी किया है। सातवें श्लोक में वृत्तिकार ने झंझा के दो अर्थ किए हैं क्रोध और माया। चूणिकार और वृत्तिकार ने विकल्प में इसे तृतीया विभक्ति के बहुवचन का रूप 'अझञ्झाप्राप्तः' मानकर इसका अर्थ-वह अकलहप्राप्त व्यक्तियों के समान नहीं होता, किन्तु गृहस्थों के समान होता है-किया है। १६. गुरु के निर्देश में चलने वाला (ओवायकारी) अवपात का अर्थ है-- आचार्य का निर्देश, जैसे-ऐसा करो, ऐसा मत करो, जाओ, आओ आदि को मानने वाला 'अवपातकारी, होता है । एक शब्द में इसका अर्थ है-आचार्यनिर्देशकारी।' वृत्तिकार ने 'उववायकारी' शब्द मानकर उसका संस्कृत रूप 'उपपातकारी' दिया है। इसका वही अर्थ है जो 'ओवायकारी' . वृत्तिकार ने पाठान्तर के रूप में 'उवायकारी' शब्द मानकर उसका अर्थ-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रवृत्ति करने वालाकिया है। चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप में 'उववाय' पाठ देकर उसका अर्थ सूत्रोपदेश किया है।" १. चूणि पृ० २२१ : नात्याभाषी अस्थानभाषी गुर्वधिक्षेपी प्रतिकलभाषी। २. वृत्ति, पत्र २४० : अन्याय्यां भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्य माषी, यरिकनभाष्यस्थानभाषी गुर्वाद्यधिक्षेपकरो वा । ३. चूणि, पृ०२२१: झंझा णाम कलहः। ४. वत्ति, पत्र २४० : अझझां प्राप्तः-अकलहप्राप्तो वा भवस्यमायाप्राप्तो वा । ५. वृत्ति, पत्र २४०,२४१ : अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा। ..(क) चूणि, पृ० २२१ : अथवा नासौ समो भवति असझाप्राप्तः, (झञ्झाप्राप्तः) तु गहिभिः समो भवति, तेत नवं विधेन माव्यं शिष्येण । (ख) वृत्ति, पत्र २४०। ७ चूणि, पृ० २२१ : ओवातो णाम आचार्यनिर्देशः, तद्धि एवं कुरु मा चैवं कुरु तथा गच्छ आगच्छति वा । ८ वृत्ति, पत्र २४० : उपपातकारी-आचार्गनिर्देशकारी-यथोपदेशं क्रियासु प्रवृत्तः। ६. वही, पत्र २४० : यदि वा उपायकारित्ति सूत्रोपदेशप्रवर्तकः । १०. चूणि, पृ० २२१ : अथवा सूत्रोपदेशः उववायः । Jain Education Intemational Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । अध्ययन १३ : टप्पण २०-२५ २०. लज्जालु (हिरीमणे) ह्री, लज्जा और संयम-ये तीनों एकार्थक हैं । ह्रीमान् अर्थात् लज्जावान् या संयमवान् । वह संयमी व्यक्ति अनाचार का सेवन करते हुए आचार्य आदि गुरुजनों तथा लोक व्यवहार से लज्जा का अनुभव करता है।' २१. एकान्तदृष्टि वाला (एगंतदिट्ठी) एकान्तदृष्टि का अर्थ है - एक अन्त वाली दृष्टि, वैसी दृष्टि जिसका एक ही अन्त हो-लक्ष्य हो । आगमों में यह साधु के विशेषण के रूप में बहु-प्रयुक्त शब्द है । स्थान-स्थान पर साधु को 'अहीव एगंतदिट्ठी' -सर्प की भांति एकांतदृष्टि वाला होना कहा है। सर्प जैसे अपने लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है उसी प्रकार मुनि को भी लक्ष्यवेध दृष्टि वाला होना चाहिए । चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-सम्यग्दृष्टि और असहायी।' वृत्तिकार ने जीव आदि पदार्थों के प्रति एक मात्र दृष्टि रखने वाले को एकान्तदृष्टि कहा है।' देखें-५॥५१ का टिप्पण। २२. छद्म से मुक्त...होता (अमाइरूवे) जो छद्म से मुक्त होकर धर्म और गुरु की सेवा करता है वह 'अमायिरूप' होता है।' श्लोक ७: २३. पुरुषजात (पुरिसजाते) यह सामान्य रूप से पुरुष प्रकारवाची शब्द है । स्थानांग सूत्र में इसका बहुलता से प्रयोग मिलता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पुरुषार्थकारी किया है।' २४. प्रिय (पेसले) इसके दो अर्थ हैं -मीठा बोलने वाला अथवा विनय आदि गुणों से प्रीति उत्पन्न करने वाला ।' २५. परिमित बोलता है (सुहमे) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-१. जो सूक्ष्म बोलता है अर्थात् अधिक नहीं बोलता, २. जो जोर-जोर से नहीं बोलता। वृत्तिकार ने इसका भिन्न अर्थ किया है । जो सूक्ष्म अर्थ को देखने वाला है या सूक्ष्म (थोड़ा) बोलने वाला है, वह सूक्ष्म है।' १. (क) चूणि, पृ० २२१ : ह्री: लज्जा संयम इत्यनान्तरम्, ह्रीमान् संयमवानित्यर्थः । लज्जते च आचार्यादीनां अनाचारं कुर्वन लोकतश्च । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : ह्री:-लज्जा संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिन्नस्तत्र मनो यस्यासौ होमनाः, यदि वा अनाचारं कुर्वन्ना चार्यादिभ्यो लज्जते स एव मुच्यते। २ चूणिः पृ० २२१ : एगंतविट्ठी नाम सम्मद्दिठ्ठी असहायो। ३ वृत्ति, पत्र २४० : तथैकान्तेन तत्त्वेषु-जीवादिषु पदार्थेषु दृष्टिर्यस्यासावेकान्तदृष्टिः । ४ (क) चूणि, पृ० २२१ : अमायरूपी नाम न छद्मना धर्म गुर्वावीश्चोपचरति । (ख) वृत्ति, पत्र २४० : अमायिनो रूप यस्यासावमायिरूपोऽशेषच्छद्मरहित इत्यर्थः, न गुर्वादीन् छद्मनोपचरति नाप्यनेन केनचित्साधं छद्मव्यवहारं विधत्त इति । ५. वृत्ति, पत्र २४० : ...... पुरुषार्थकारी।। ६. चूणि, पृ० २२२ : पेसलो नाम पेसलवाक्य , अयवा विनयादिभिः शिष्यगुणः प्रीतिमुत्पादयति पेशलः । ७ चूणि, पृ० २२२ : सुहुमो णाम सुहुमं भाषते अबहुं च अविष्टं च नोच्चैः । ८. वृत्ति, पत्र २४० : सूक्ष्म:--सूक्ष्मदशिल्वात् सूक्ष्मभाषि (वि) स्वाद्वा सूक्ष्मः । Jain Education Intemational Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ २६. ऋजु आचरण करता है ( सुउज्जुयारे ) इसका अर्थ है - अच्छी प्रकार से ऋजु आचरण करने वाला। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने ऋजु के दो अर्थ किए हैं-संयम और सरल । ऋजुकारी वह है जो संयमपूर्ण प्रवृत्ति करता है या सरल प्रवृत्ति करता है, जो कहता है वैसे ही सरलता से करता है, विलोम नहीं करता । जो गुरु के उपदेश के अनुसार आचरण करता है किन्तु वक्रता से आचार्य आदि के वचन का खंडन नहीं करता, वह ऋजु आचार वाला होता है ।' २७. शान्तचित्त रहता है (तहच्ची) 1 अधि का अर्थ है लेग्या चित्तवृत्ति जो गुरु द्वारा अनुशासित होने पर भी पूर्ववत् अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है, शान्त रखता है वह तथाचि होता है। अनुशासन से पूर्व उसकी चित्तवृत्ति शांत थी, विशुद्ध थी और अनुशासित होने पर भी उसमें कोई अन्तर नहीं आया, वह पुरुष तथाचि होता है । जो व्यक्ति अनुशासित होने पर क्रोध या मान करता है, वह तथाचि नहीं होता । " २८. ( समे हु से होइ अझपत्ते ) २१. संयमी और ज्ञानी (वसुमं संखाय ) चूर्णिकार का अर्थ है वही मुनि वीतराग व्यक्तियों के तुल्य होता है । चूर्णिकार ने 'सम' का अर्थ तुल्य और 'अभंझपत्ते' का अर्थ - वीतराग व्यक्तियों से किया है ।" वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए है ५३५ १. वह मध्यस्थ होता है-न निन्दा से रुष्ट होता है और न प्रशंसा से तुष्ट । वह अक्रोधी और अमायावी होता है । २. वह मध्यस्थ होता है तथा वीतराग व्यक्तियों के तुल्य होता है । श्लोक ८ : +1 'वसु' का अर्थ है - द्रव्य । लोकोत्तर प्रसंग में इसका अर्थ है-संयम । ' चूर्णिकार ने 'वुसिम' पाठ मान कर उसका अर्थ संयममय आत्मा वाला किया है ।" संख्या का अर्थ है- ज्ञान ।" हमने इस शब्द का संस्कृत रूप 'संख्याक' दिया है और वृत्तिकार ने 'संख्यावन्तम्' ।" इसका अर्थज्ञानी । ३०. ( संखाय वायं अपरिच्छ कुज्जा) अध्ययन १३ : टिप्पण २६-३० वह अपने आपको ज्ञानी मानता हुआ कहता है-आज इस संसार में मेरे जैसा संयमी और सामाचारी का पालन करने वाला दूसरा कौन है ? ' रोष, प्रतिनिवेश या अकृतज्ञता के भाव से अथवा मान के वशीभूत होकर वह परीक्षा किए बिना ही अपना १ (क) चूर्णि, पृ० २२२ : उज्जुगो णाम संजमो, जं वा बुच्चति तं उज्जुगमेव करेति ण विलोमेति 1 (ख) वृत्ति, पत्र २४० : ऋजु संयमस्तस्करणशीलः -- ऋजुकरः, यदि वा उज्जुचारे त्ति यथोपदेशं यः प्रवर्तते, न तु पुनर्वक्रतयाऽपार्यादिवचनं विलोमयति प्रतिकूलयति । - २. नि. ०२२२ अविरिनि लेश्या तथेति यथा पूर्व लेखा तथालेश्य एव भवति पूर्वमसौ विशुद्धलेश्य आसीत् अनुशास्यमानोऽपि तथैव भवत्यतो । तथा च न क्रोधाद्वा मानाद्वा विशुद्धलेश्यो भवति । ३. चूर्ण, पृष्ठ २२२ : समो नाम तुल्यः असौ हि समो भवत्यप्राप्तः वीतरागैरित्यर्थः । ५. चूर्णि पृ० २२२ : वुसिमं संय [म] मयमात्मानं । ६. वृत्ति, पत्र २४१ : वसु-द्रव्यं तच्च परमार्थचिन्तायां संयमः । ४. वृत्ति, पत्र २४०-२४१ : समो मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्यति, नापि तुष्यति; तथा अभंझा — अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽ प्राप्तः यदि वा वीतरागः समः --तुल्यो भवतीति । । ७. चूणि, पृ० २२२ : संख्या इति ज्ञानम् । ८. वृत्ति, पत्र २४१ : संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५३६ अध्ययन १३: टिप्पण ३१-३४ आत्मोत्कर्ष दिखाता है। ३१. मैं सबसे बड़ा तपस्वी हूं (तवेण वा.....) 'मैं सबसे बड़ा तपस्वी हूं' ऐसा मान कर वह दूसरे साधुओं को कहता है-तुम सब ओदनमुंड हो-रोटी के लिए साधु बने हो । तुम में से कौन है मेरे जैसी तपस्या करने वाला ?' ३२. (अण्णं जणं पस्सति बिबभूतं) वैसा आत्मोत्कर्षी दूसरों को केवल बिबभूत-मनुष्य आकृति मात्र मानता है। उनमें प्राप्त विज्ञान आदि मानवीय गुणों को नहीं देखता।' चूर्णिकार ने 'बिंबभूतं' के स्थान पर 'चिंधभूतं' पाठान्तर का उल्लेख कर उसका अर्थ इस प्रकार किया है-वह आत्माभिमानी व्यक्ति दूसरों को जल में प्रतिबिंबित चन्द्रमा या नकली सिक्के की भांति अर्थशून्य मानता है। वह केवल उन्हें लिंगमात्र को धारण करने वाला मानता है। उनमें श्रमणगुणों को नहीं मानता।' वृत्तिकार ने 'बिंबभूत' का यही अर्थ किया है। श्लोक ६ : ३३. माया के द्वारा (कूडेण) ___ 'कूट' शब्द के अनेक अर्थ हैं-माया, झूठ, यथार्थ का अपलाप, धोखा, चालाकी, अन्त, समूह, मृग को पकड़ने का यंत्र, आदि-आदि। वृत्तिकार ने इसका अर्थ--मृग को बांधने का पाश किया है।' प्रस्तुत श्लोक में इसका अर्थ 'माया' ही उचित लगता है । क्योंकि पूर्व श्लोक में मुनि किस प्रकार माया कर अपनी यथार्थता को छिपाकर लोगों को धोखा देता है, उसका स्पष्ट उल्लेख है। ३४. संसार में भ्रमण करता है (पलेइ) वह जन्म-कुटिल संसार में बार-बार प्रलीन होता है, अनेक बार जन्म-मरण करता हैं।' १.णि, पृ० २२२ : संखाए त्ति एवं गणयित्वा, अथवा संख्या इति ज्ञानम्, ज्ञानवन्तमात्मानं मत्वा । वदनं वादः, कि वदति ? कोऽ- . न्यो मयाऽद्यकाले संयमे सदृशः सामाचारीए वा? । अपरिक्ख णाम अपरीक्ष्य भणति रोस-पडिणिवेस-अकयण्ण त्ताए वा, अथवा मानदोषादपरीक्ष्य ववति । २. (क) चूणि, पृ० २२२ : षष्ठादीनां तपसां कोऽन्यो मया सदशो भवतामोदनमुण्डानाम् ? (ख) वृत्ति, पत्र २४१ : तपसा-द्वादशभेवभिन्नेनाहमेवात्र सहितो-युक्तो न मत्तुल्यो विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोऽस्तीत्येवंमत्वाऽऽ मोत्कर्षाभिमानीति । ३. चूर्णि, पृ० २२२ : बिबभूतमिति मनुष्याकृतिमात्रम्, द्रव्यमेव च केवलं पश्यति न तु विज्ञानाविमनुष्यगुणानन्यत्र प्रतिमन्यते । ४. वही, पृष्ठ २२२ : अथवा-"चिध [भूत] मिति" लिङ्गमात्रमेवान्यत्र पश्यति, न तु श्रमणगुणान् उदकचन्द्रकवत् कूटकार्षापणवच्चे त्यादि। ५ वृत्ति, पत्र २४१ : अन्यं जन-साधुलोकं गृहस्थलोकं वा, "बिम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारिणं पुरुषाकृतिमात्रं वा 'पश्यति'--अवमन्यते । ६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-'कुट' शब्द ।' ७. वृत्ति, पन २४१ : कूटवस्कूटं यथा कूटेन मृगादिबंद्धः । ८ (क) चूणि, पृ० २२२ : संयमातो पलेऊण पुनर्जन्मकुटिले संसारे पुनः पुनीयन्ते प्रलीयन्ते। (ख) वृत्ति, पत्र २४१ : असौ संसारचक्रवालं पय ति, तत्र वा प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते अनेकप्रकारं संसारं बंभ्रमीति । Jain Education Intemational Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५३७ अध्ययन : १३ टिप्पण ३५-३७ ३५. मुनि-पद में (मोणपदंसि) चूर्णिकार ने मौन पद का अर्थ-संयम-स्थान किया है । वृत्तिकार ने भी मूल अर्थ यही किया है । वैकल्पिक रूप में उन्होंने इसका अर्थ -सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित मार्ग-किया है।' ३६. गोत्र (उच्चत्वाभिमान) (गोते) चूर्णिकार ने 'गोत्र' के दो अर्थ किए हैं'--- १. गौरव--- अभिमान । वह तीन प्रकार का है--ऋद्धि का गौरव, रस का गौरव, और सुख-सुविधा का गौरव । २. अठारह हजार शील के अंग । वृत्तिकार के अर्थ इनसे भिन्न हैं:-- १. जो यथार्थ अर्थ का प्रतिपादन कर वाणी की रक्षा करता है, वह समस्त आगमों का आधारभूत सर्वज्ञ का मत । २. उच्च गोत्र आदि । हमने इसका अर्थ----उच्चत्व का अभिमान-किया है। जैन आगमों में 'गोत्रमद' न करने का स्थान-स्थान पर निषेध किया गया है। निर्ग्रन्थ धर्म में प्रत्येक वर्ग के लोग दीक्षित होते थे। वे विभिन्न गोत्रों से आते थे । यदि गोत्र के आधार पर एक-दूसरे को उच्च या न माना जाए तो फिर परंपरा रह नहीं सकती। इसीलिए भगवान महावीर ने तथा उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने गोत्रमद पर प्रहार किया और कहा कि प्रव्रज्या ले लेने पर सभी बन्धु हो जाते हैं, फिर चाहे वे किसी भी गोत्र के हों, किसी भी जाति या वर्ग के हों। इस समानता के प्रतिपादन ने जैन परंपरा का द्वार सबके लिए उद्घाटित रखा और इसीलिए सभी वर्ग, जाति और गोत्र के लोग इसमें सम्मिलित हुए । _ अगले दो श्लोकों में गोत्र-मद के परिहार की बात कही गई है । यह श्लोक उनकी पृष्ठभूमि है। ३७. (जे माणणठेणः... अबुज्झमाणे) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्थ किया है। चूर्णिकार के अनुसार 'माणणऽह्रण विउक्कसेज्जा' का अर्थ है-वह पुरुष मान के लिए (संयम, प्रज्ञा अथवा) अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है। वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत दो चरणों का अर्थ है जो पुरुष लाभ, पूजा सत्कार आदि के द्वारा अपना उत्कर्ष दिखाता है, (वह मुनिपद में नहीं है।) जो परमार्थ को नहीं जानता हुआ संयम अथवा अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है वह सब शास्त्रों को पढ़ता हुआ तथा अर्थ को जानता हुआ भी सर्वज्ञ के मत को यथार्थरूप में नहीं जानता। ___ चूर्णिकार ने 'वसुमण्णतरेण' के स्थान पर 'वसु पण्णऽण्णतरेण' पाठ मान कर व्याख्या की है।" १. चूणि, पृ० २२२ : पदं नाम स्थानम्, मुनेः पदं मौनपवम्, संयमस्थानमित्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २४१ : मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपद-संयमस्तत्र मौनीन्द्र वा पवे---सर्वज्ञप्रणीतमार्ग। ३. चूणि, पृ० २२२ : गोते त्ति गारवा....... अथवा गोत्रमिति अष्टादशशोलाङ्गासहस्राणि। ४. वृत्ति, पत्र २४१ : सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टि-गां-वाचं त्रायते---अर्थाविसंवादनतः पालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः। ५. चूणि, पृ० २२२ :जे माणणठेण विउक्कसेज्जा, माननं एवार्थः माननार्थः, मानप्रयोजन: माननिमित्त इत्यर्थः, विविधं उत्कर्ष करोति । वृत्ति, पत्र २४१ : यश्च मानन-पूजनं सत्कारस्तेनार्थः प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थन-लाम पूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ सर्वज्ञपवे विद्यते । ७. चूणि, पृ० २२२ । Jain Education Intemational Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ५३८ वृत्तिकार ने 'अण्णतर' शब्द से ज्ञान आदि का ग्रहण किया है । ' चूर्णिकार ने 'प्रज्ञा' का अर्थ ज्ञान किया है। वह तीन प्रकार का है सूत्र, अर्थ और सूत्र - अर्थ ( तदुभय) | ज्ञान का मद करते हुए वह कहता है- मेरे पास शुद्ध सूत्र है । मैं सूत्र का विशुद्ध उच्चारण अर्थ का विस्तार करने में समर्थ हूं। मैं लौकिक सिद्धान्तों का ज्ञाता हूं। दूसरे हैं, चन्द्रमा के नीचे घूमते रहते हैं । ' कर सकता हूं। मुझ में अर्थ-ग्रहण की पटुता भी है । मैं लोगों से क्या । दूसरे सभी पशु की तरह विचरण करते 'वसुम' इसमें मकार अलाक्षणिक है । श्लोक १०: ३८. ब्राह्मण, क्षत्रिय (माहणे खत्तिए) पूर्णिकार ने माह का अर्थ-साधु किया है। वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ है-वह व्यक्ति जो साधु बनने से पूर्व ब्राह्मण जाति का सदस्य था। - चूर्णि के अनुसार क्षत्रिय के तीन अर्थ हैं-राजा, राजा के कुल में उत्पन्न या उस जाति में उत्पन्न कोई दूसरा 1* वृत्तिकार ने इक्ष्वाकु आदि विशिष्ट वंशो में उत्पन्न व्यक्ति को क्षत्रिय माना है ।" ३९. उग्रपुत्र ओर लिच्छवी (उग्गपुत्ते लेच्छवो) चूर्णिकार ने उग्र और लिच्छवी को क्षत्रियों का ही गोत्र - विशेष बतलाया है । " वृत्तिकार ने 'उग्रपुत्र' और 'लिच्छवी' को इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न क्षत्रियों की विशेष जाति माना है ।" ४०. प्रव्रजित (प) १. वृत्ति, पत्र २४१ २. पूमि पृ० २२२ अध्ययन १३ टिप्पण ३६-४२ जो राज्य और राष्ट्र को छोड़कर अथवा अल्प या बहुत परिग्रह को छोड़कर प्रव्रजित होता है । " ४१. दूसरे का दिया हुआ खाता है ( परदत्तभोई ) दूसरे (स्व) के लिए पका कर दिया हुआ तथा एवणीय बहारपानी लेने वाला 'परदत्तभोगी' कहलाता है। इस गुण के उपलक्षण से अन्य सभी संयमगुणों का ग्रहण किया गया है।" ४२. मान के वशीभूत होकर गोत्र का मद करता है (गोते जे यन्नति माणबद्धे ) हमने इसका अर्थ मान के वशीभूत होकर क्षेत्र का मद करता है - ऐसा किया है। वृत्तिकार ने 'गोत्ते ण जे थंभभिमाणबद्धे' - ऐसा पाठ मानकर सर्वथा भिन्न अर्थ किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ हैंमुनि अभिमानास्पद गोत्र में उत्पन्न होकर भी गर्व न करे ।" अन्यतरेण ज्ञानादिना । प्रज्ञानं ज्ञानं नाम उच्यं वा समाहि (? गम हि) कंठोविध्यमुक्कं विशुद्धं सुतं अर्थप्रणयायविस्तरतस्तान् कथयामि लोक-सिद्धान्तान्मन्यजनः मृगास्त्यन्ये चरन्ति चन्द्राद्यस्ता भ्रमन्ति । ३. चूर्ण, पृ० २२३ : माहण इति साधुरेवः जो वा पूर्व ब्राह्मणजातिरासीत् । ४. चूर्ण, पृ० २२३ : क्षत्रियो राजा तत्कुलीयोऽन्यतरो वा । ५ वृत्ति, पत्र २४१ : क्षत्रियो वा इक्ष्वाकुवंशाविकः । ६. चूणि, पृ० २२३ : उग्ग इति लेच्छवीति च क्षत्रियाणामेव गोत्रभावः । ७. वृत्ति, पत्र २४१ : इक्ष्वाकुवंशाविकः तद्भेदमेव दर्शयत - 'उग्रपुत्रः ' - क्षत्रिय विशेषजातीय:, तथा 'लेच्छद्द' त्तिक्षत्रिय विशेष एव । - ८. घृणि, पृ० २२३ : चइत्ताणं रज्जं रठ्ठे च पव्वइतो, अथवा अप्पं वा बहुं वा चहत्ता पन्वइतो । ६. चूर्ण, पृ० २२३ : परतो पापञ्चदत्तमेषणीयं च मुंक्त, शेषेरन्यैः सर्वैरपि संयमगुणैः युक्तः । १०.२४१२४२ पोत्रे हरिवंशस्थानीये समुत्पन्नोऽपि च स्तम्भ' गोत्रे ? 'मि मानबढे' - अभिमानास्पदे इति : Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १३ : टिप्पण ४३-४६ वृत्ति कार ने 'गोत्तेण' में 'गोत्ते' को और 'ण' को अलग-अलग मान लिया है। चूणिकार और वृत्तिकार ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि जिसने सिर मुंडा लिया, जिसने तुण्ड (मुंह) भी मुंडा लिया अर्थात् जो घर-घर से भीख मांग कर खाता है, वह फिर गर्व कैसे कर सकता है।' श्लोक ११: ४३. जाति और कुल (जाती व कुलं) जाति ओर कुल दो हैं । जाति का संबंध मातृपक्ष से होता है और कुल का संबंध पितृपक्ष से होता है । यही जाति और कुल में अन्तर है। ४४. विद्या और आचरण (विज्जाचरणं) चूर्णिकार ने विद्या से ज्ञान और दर्शन तथा आचरण से चारित्र और तप का ग्रहण किया है। विद्या और आचरण के अतिरिक्त कोई भी साधन त्राण नहीं दे सकता । दूसरे शब्दों में विद्या से 'ज्ञान' और आचरण से 'क्रिया' का ग्रहण किया जा सकता है। यह शब्द 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' का संवादी है। ४५. गृहस्थ-कर्म (जाति और कुल के मद) का (अगारिकम्म) इसका शब्दार्थ है-गृहस्थ-कर्म । चूणिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में जाति आदि के मद को और ममकार तथा अहंकार को गृहस्थ-कर्म माना है।' वृत्तिकार ने पापमयी प्रवृत्ति अथवा जाति आदि के मद को गृहस्थ-कर्म कहा है। ४६. वह समर्थ नहीं होता (ण से पारए) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. जो गृहस्थ-कर्म का सेवन करता है वह व्यक्ति धर्म, समाधि और मार्ग का पारगामी नहीं होता। २. वह मोक्ष का पारगामी नहीं होता। ३ वह न स्वयं को और न 'पर' को पार पहुंचाने में समर्थ होता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जो गृहस्थ-कर्म का सेवन करता है वह समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होता। १. (क) चूणि, पृ० २२३ : जो गोतेण जात्यादिना स्तभ्यते, स्वरूपतो जो कोई हरिएसबलत्थाणीयो मेतज्जथाणीयो वा। अन्यतरं वा एवंविधं द्रमकादिप्रवजित निन्वति । अथवा जे माहणा खत्तिया अदुवा उग्गपुत्ता अदु लेच्छवी वा जे पम्वइता प्रवजिता अपि भूत्वा शिरस्तुण्डमुण्डन कृत्वा परगृहाणि भिक्षार्थमटन्त: मानं कुर्वन्तीत्यतीव हास्यम्, कामं मानोऽपि क्रियते यद्यसौ श्रेयसे स्यात् । (ख) वृत्ति, पत्र २४२ । एतदुक्तं भवति विशिष्ट जातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रवृजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षार्थ पर गृहाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गवं कुर्यात ?, नेवासौ मान कर्याविति तात्पर्यार्थः । २. (क) चूर्णि, पृ० २२३ : जातिकुलयोविभाषा मातसमुत्थेत्यादि । (ख) वृत्ति, पत्र २४२ : मातृसमुत्था जातिः, पितृसमुत्थं कुलम् । ३. चूणि पृ० २२३ : विद्याग्रहणाद् ज्ञानदर्शने गृहीले, चरणपहणात संयम-तपसी । ४ चूर्णि, पृ. २२३ : अकारिणं कर्म अकारिकर्म, तद्यथा-अहं जात्यादिसुद्धो, न भवानिति, ममकारा-हङ्कारौ वा इत्यादि अगारिकर्म । ५. वृत्ति, पत्र २४२ : अगारिणां कर्म-अनुष्ठानं सावद्यमारम्भं जातिमदादिकं वा । ६. चूणि, पृ० २२३ : नासौ पारको भवति धर्म-समाधि-मार्गाणां विमोक्षस्य वा, अथवा नाऽऽस्मनः परेषां वा तारको भवति । ७. वृत्ति, पत्र २४२: न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्षयकारी न भवतीति भावः । Jain Education Intemational Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ४७. अकिंचन (णिक्किंचणे) ५४० श्लोक १२: चूर्णिकार ने 'णिगिणे' पाठ मान कर उसका अर्थ - द्रव्य अचेल किया है । ' ४८. रूक्षजीवी (सुलूहजीवी ) चूर्णिकार ने 'रूक्ष' के दो अर्थ किए है-संयम और अन्त प्रान्त आहार जो संयमी जीवन जीता है या जो अन्त प्रान्त आहार से जीवन यापन करता है, वह सुख्क्षजीवी होता है।" वृत्तिकार ने चने आदि अन्त प्रान्त आहार करने वाले को रूक्षजीवी माना है। वाला । ५०. प्रशंसा चाहता है (सिलोगगामी) ४६. गर्व करता है ( गारवं ) यहां छन्द की दृष्टि से एक 'वकार' का लोप माना गया है-गारववं । गौरववान् का अर्थ है - जाति आदि का गर्व करने इसका अर्थ है - जाति आदि का प्रकाशन कर दूसरों से प्रशंसा चाहने वाला । वृत्तिकार ने इसका अर्थ - आत्मश्लाघा चाहने वाला किया है।* चूर्णिकार ने इस शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है। अध्ययन १३ टिप्पण ४७-५२ ५१. यह आजीविका है (आजीव मेयं) अकिंचनता, भिक्षाचरी और रूक्षभोजित्व – ये आजीविका के साधन मात्र बन जाते हैं यदि भिक्षु इनके माध्यम से अभिमान करता है और आत्म प्रशंसा चाहता है ।" जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प - ये पांच आजीविकाएं हैं, आजीविका के साधन हैं । जो व्यक्ति इनका उत्कर्ष दिखाकर या इनके आधार पर जीवन-यापन करता है, वह वस्तुतः साधक नहीं है, केवल अपना पेट पालने वाला है । ' ५२. विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है (विपरिया सुवेति ) यहां छन्द की दृष्टि से 'मुवेति' के मकार का लोप किया गया है । चूर्णिकार के अनुसार विपर्यास का अर्थ है— जन्म-मरण । वृत्तिकार ने जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, आदि उपद्रवों को विपर्यास माना है ।" १. चूर्ण, पृ० २२३ : निगिणो नाम द्रव्याचेल: । २. चूर्ण, पृ० २२३ : लूहो संयमः, तेन जीवति अन्तप्रान्तेन । ३. वृत्तपत्र २४२ सुष्ठु सम्-अन्तप्रान्तं बल्लचणकादि तेन जीवितुं प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य न सुखजीवी । ४. वृत्ति, पत्र २४२ : श्लोककामी आत्मश्लाघाभिलाषी । ५. पत्र २४२स चैवंभूतः परमार्थमवान एतदेवानित्यं गुरूशीविश्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परता आगोम्-आजीविकामारमवर्तनोपायं कुर्वाणः । ६. चूर्ण, पृ० २२३ : जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा तु पचंविधा । [ पिण्डनि० गा ४३७] जात्या सम्पन्नोऽहम् इति मानं करोति, प्रकाशयति चात्मानं स्वपक्षे परपक्षे, तथा चैनं कश्चित् पूजयति एसा हि आजीविका भवति मवदोषश्च । ७. चूर्ण, पृ० २२३ : विपर्यासो नाम जाति-मरणे । वृत्ति पत्र २४२-जातिहरावरण रोग हो कोपद्रवमुपैति गच्छति । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५४१ अध्ययन १३: टिप्पण ५३-५५ श्लोक १३ : ५३. सुसंस्कृतभाषी (भासवं) भाषावान् के दो अर्थ हैं---सत्यभाषी या धर्मकथा करने की लब्धि से युक्त।' भाषा के दोषों और गुणों को जानने के कारण सही भाषा बोलने वाला भाषावान् कहलाता है-यह वृत्तिकार का अर्थ है।" ५४. वाग्पटु (सुसाहुवावो) ___ जो हित, मित, और प्रिय बोलता है उसे सुसाधुवादी कहते हैं । जो मुनि क्षीरमध्वाश्रव आदि लब्धि से संपन्न होते हैं, उनकी वाणी बहुत ही मधुर होती है। वे सुसाधुवादी कहे जाते हैं।' ५५. प्रतिभा-संपन्न (पडिहाणवं) वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. जो औत्पत्तिकी आदि बुद्धि के गुणों से युक्त है, जो दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए आक्षेपों का तत्काल उत्तर देने में समर्थ है, वह प्रतिभावान होता है। २. जो धर्मकथा करने के समय परिषद् में उपस्थित व्यक्ति कौन-कैसे हैं ? वे किस देव को मानने वाले हैं ? वे किस दर्शन में विश्वास करते हैं ?- आदि का अपनी बुद्धि से संकलन कर फिर धर्मकथा में प्रवृत्त होता है, वह प्रतिभावान् कहलाता है। चूर्णिकार ने आक्षेप का उत्तर देने वाले औत्पत्तिकी आदि बुद्धि से युक्त मुनि को प्रतिभानवान् बतलाया है। उनके अनुसार यह वैकल्पिक पाठ है । उनका मूल पाठ है-पणिधाण-प्रणिधानवान् ।' चर्णिकार ने इस शब्द की व्याख्या में आचारांग के प्रथम श्रु तस्कंध के दो स्थल उद्धृत किए हैं १. वह भिक्षु कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ, समयज्ञ, भावज्ञ, .......... आदि होता है। २. यह पुरुष कौन है ? यह किस दर्शन का अनुयायी है ?, ऐसा विमर्श करना।। प्रस्तुत आगम के १४११७ में 'पडिभाणवं' शब्द आया है। चूणिकार ने 'प्रतिभा' के दो निरुक्त किए हैं-'तांस्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिभा 'पभणति वा प्रतिभा ।' इनका अर्थ है-उन-उन लोगों के प्रति अर्थ का प्रकाश करने वाली तथा जो प्रकृष्टरूप में निरूपण करती है। उन्होंने प्रतिभावान् का अर्थ-श्रोताओं के संशय को मिटाने वाला किया है।' वृत्तिकार ने यहां इसका अर्थ-उत्पन्न प्रतिभा वाला किया है।' १. चूणि, पृ० २२३ : सत्यभाषावान् धर्मकथालब्धियुक्तो वा भाषावान् । २. वृत्ति, पत्र २४२ : भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् । ३. (ख) चुणि, पृष्ठ २२३ : सष्ठ साधु वदति सुसाधुवादी, मृष्ठाभिधानो वा क्षीरमध्वाधवादि । (ख) वृत्ति, पत्र २४२ : सुष्ठ साधु-शोभनं हितं नितं प्रियं ववितुं शीलमस्येत्यसौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाधववादीत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र २४२, २४३ : प्रतिभा प्रतिमानम् - औत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमन्वितत्वेनोत्पन्नप्रतिभत्वं तत्प्रतिमानं विद्यते यस्यासौ प्रति मानवान्–अपरेणाक्षिप्तस्तदनन्तरमेवोत्तरदानसमर्थः । यदि वा धर्मकथावसरे कोऽयं पुरुषः? कं च देवताविशेष प्रणतः ? कतरद्वा दर्शनमाधित इत्येवमासनप्रतिभतयाऽवेत्य यथायोगमाचष्टे । ५. चूणि, पृ० २२४ : अक्षिप्तः पडिभणति उत्तरं भाषते प्रतिभणतीति (पडि) माणवं, औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तः सन् प्रतिभानवान् । ६. चूणि, पृ० २२३, फुटनोट १५ । ७. (क) आयारो २०११० : से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयपणे विणयण्णे समयण्णे भावण्णे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणुढाई अपडिण्णे। (ख) वही, २०१७७ : के यं पुरिसे ? कं च णए ? ८. चूणि पृ० २३३ : तांस्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिमा, पमणति वा पतिमा श्रोतृणां संशयोच्छेत्ता। ६. वृत्ति, पत्र २५४ : प्रतिभानवान् उत्पन्न प्रतिभः । Jain Education Intematona Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चू सूयगडो. ५४२ अध्ययन १३ : टिप्पण ५६-५६ ५६. विशारद (विसारए) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं--- १. अर्थ ग्रहण करने में समर्थ । २. प्रियता से कथन करने वाला। वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. अर्थ ग्रहण करने में समर्थ । २. अनेक प्रकार से व्याख्या करने में समर्थ । ३. भोता के अभिप्राय को जानने वाला। प्रस्तुत सूत्र के १४।१७ में विशारद शब्द आया है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ अपने सिद्धान्तों का जानकार' और वृत्तिकार ने अपने सिद्धान्तों का यथार्थ प्रतिपादन करने वाला-किया है।' ५७. प्रखर प्रज्ञावान् (आगाढपण्णे) आगाढप्रज्ञ का अर्थ है--- प्रखर प्रज्ञावान्, परमार्थ पर्यवसित और तत्त्वनिष्ठ प्रज्ञा से सम्पन्न व्यक्ति । ५८. श्रुत से भावित आत्मा (सुय-भावियप्पा) चूणिकार ने श्रुत का अर्थ - वैशेषिक आदि के हेतुशास्त्र (तर्कशास्त्र) किया है। उससे जिसकी आत्मा भावित है, वह श्रुतभावितात्मा कहलाता है। चूर्णिकार का यह अर्थ सामयिक वाद-विवाद से प्रभावित होकर किया गया प्रतीत होता है। वृत्तिकार ने 'सुविभाविअप्पा' पाठ मानकर उसका अर्थ सम्यक् और विविध प्रकार से धर्म की वासना से वासित आत्मा किया है। ५९. पराजित कर देता है (परिहवेज्जा) परिभव के दो अर्थ हैं-पराजित करना, तिरस्कृत करना । वृत्तिकार ने दूसरा अर्थ स्वीकृत किया है। वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक के अंतिम चरण का तात्पर्य भिन्न प्रकार से किया है-निर्जरा के हेतुभूत पूर्वोक्त गुणों में मद करता हुआ वह मानता है-मैं ही भाषाविधिज्ञ हूं, मैं ही साधुवादी हूं, मेरे जैसा प्रतिभावान् दूसरा कोई नहीं है, लोकोत्तर शास्त्र का अर्थ करने में मेरे समान कोई प्रवीण नहीं है, मेरी प्रज्ञा तत्त्वनिष्ठ है, मैं ही सुभावितात्मा हूँ'- इस प्रकार आत्मोत्कर्ष करता हुआ वह दूसरे व्यक्ति की अवमानना करता है और कहता है-इस कुंठित वाणी वाले, कुंडिका में पड़ी सूई के समान तथा आकाश की १. चूर्णि, पृ० २२४ : अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा । २. वृत्ति, पत्र २४३ : विशारदः- अर्थग्रहणसमर्थो बहुप्रकारार्थकथनसमर्थो वा, च शब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायज्ञः । ३. चूणि, पृ० २३३ : विशारदः स्वसिद्धान्तजानकः । ४. वृत्ति, पत्र २५४ : सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छोतृणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति'-प्रतिपादको भवति । ५. वृत्ति, पत्र २४३ : अवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा --बुद्धिस्यासावागाढप्रज्ञः । ६. चूर्णि, पृ० २२४ : (श्रतं) वैशेषिकाविहेतुशास्त्राणि, तेरस्य मावितः आत्मा स भवति (श्रत) भावितास्मा। ७. वत्ति पत्र २४३ : सष्ठ विविध भावितो-धर्मवासनया वासित आत्मा यस्यासौ सुविमावितात्मा। ८. वत्ति, पत्र २४३ : परिभवेत् अवमन्येत । ६. वृत्ति, पत्र २४३ : यश्चैभिरेव निर्जराहेतु भूतैरपि मदं कुर्यात्, तद्यथा--अहमेव भाषाविधिज्ञस्तथा साधुवाद्यहमेव च न मत्तल्य: प्रतिभानवानस्ति, नापि च मत्समानोऽलौकिकः लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोऽवगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेति च, एवमात्मोत्कर्षवानन्यं जनं स्वकीयया प्रज्ञया परिभवेत्, अवमन्येत, तथाहि किमनेन वाककुण्ठेन दुर्दुरूढेन कुण्डिकाकासकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? क्वचित्स मायां धर्मकथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति तथा चोक्तम् । अन्यः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वाङ्मयमित इति खावत्यङ्गानि दर्पण ॥ Jain Education Intemational Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५४३ अध्ययन १३ : टिप्पण ६०-६४ ओर झांकने वाले से क्या कार्य हो सकता है। धर्मकथा के अवसर पर परिषद् में इस प्रकार अपना उत्कर्ष प्रदर्शित करता है। वह दूसरों द्वारा स्वेच्छारचित अर्थों को श्रमपूर्वक जान लेता है और फिर पूरा वाङ्मय मेरे पास है इस प्रकार दर्प के साथ अपने ही अवयवों को काटता है। श्लोक १४: ६०. समाधि को प्राप्त (समाहिपत्ते) चूर्णिकार ने समाधि से चार प्रकार की समाधि का ग्रहण किया है-ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि, चारित्र समाधि, और तपः समाधि। वृत्तिकार ने समाधि के दो अर्थ किए हैं - १. ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप मोक्ष मार्ग । २. धर्म-ध्यान। ६१. लाभ के मद से मत्त (लाभमदावलिते) वह सोचता है-मैं वस्त्र, पात्र, पीढ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि पदार्थ दूसरों को भी देने में समर्थ हूं तो भला स्वयं के उपभोग की तो बात ही क्या ! दूसरे व्यक्ति (तुम और वह) बेचारे स्वयं के लिए भी अन्न-पान प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं।' श्लोक १५ : ६२. प्रज्ञामद, तपोमब, गोत्रमद (पण्णामद..... तवोमदं...."गोयमदं) प्रज्ञा का गर्व करना, जैसे-मैं ही शास्त्र के यथार्थ अर्थ को जानने वाला हूं। तपस्या का गर्व करना, जैसे-मैं ही विकृष्ट तप करने वाला हूं, मुझे तपस्या से कभी ग्लानि नहीं होती। गोत्र का मद, जैसे-मैं इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश आदि उच्च वंशों में उत्पन्न व्यक्ति हूं।" ६३. आजीविका मद (आजीवगं) जिसके द्वारा प्राणी जीवन यापन करते हैं उसे 'आजीव' कहा जाता है । वह है-अर्थसमूह ।' ६४. उत्तम आत्मा (उत्तमपोग्गले) पुद्गल का एक अर्थ आत्मा भी है। उत्तम पुद्गल अर्थात् उत्तम आत्मा, श्रेष्ठ जीव । वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में पुद्गल शब्द को प्रधानवाची मान कर 'उत्तम पुद्गल' का अर्थ-उत्तम से भी उत्तम अर्थात् महान् से भी महान् किया है।' १. चूणि, पृ० २२४ :............ समाधिश्चतुर्विधः। २. वृत्ति, पत्र २४३ : 'समाधि' मोक्षमार्ग-ज्ञानवर्शनचारित्ररूपं-धर्मध्यानालयं वा। ३. चूणि, पृ० २२४ : अहं वत्थ-पडिग्गह-पीढ-फलग-सेज्जासंथारगमादी अण्णस्स वि ताव दावेउं सत्तो, किमंग पुण अप्पणो अप्पावितुं तुमं सो वा सअण्ण-पाणगमवि ण लमसि । ४. वृत्ति, पत्र २४३ । ५. वृत्ति, पत्र २४३ : आ-समन्तारजीवन्त्यनेनेत्याजीवः-अर्थनिचयस्तम् । ६. (क) भगवई, ८१४९९ : जीवे गं मंते ! कि पोग्गली? पोग्गले ? गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। (ख) वृत्ति, पत्र २४३ : पुद्गल आत्मा भवति । ७. वृत्ति, पत्र २४३ : प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दः, ततश्चायमर्थः उत्तमोत्तमो-महतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। ५४४ अध्ययन १३ : टिप्पण ६५-६५ चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-- लाटदेश वासी सुन्दर को 'पुद्गल' कहते हैं, जैसे-पुद्गल जन्म, अर्थात् सुन्दर जन्म, पुद्गल जव अर्थात् सुन्दर यव ।' __आप्टे की डिक्शनरी में पुद्गल का एक अर्थ-- सुन्दर, प्रिय किया है। दूसरे अर्थ ये हैं-परमाणु, शरीर, आत्मा, अहं, पुरुष आदि। श्लोक १६ : ६५. चारित्र-संपन्न मुनि (सुधीरधम्मा) चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-ज्ञानधर्मी, गीतार्थ ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-श्रत और चारित्र धर्म में प्रतिष्ठित किया है।' ६६. उनका सेवन न करें (ताणि सेवंति) _ 'मुनि उन पदों का सेवन नहीं करते'- इस कथन का तात्पर्य यह है कि मुनि जाति आदि का मद नहीं करते । जैसे-मुनि के लिए यह निषेध है कि वह पूर्वक्रीडित कामभोगों का स्मरण न करे, उसी प्रकार प्रवजित होने के पश्चात् अपनी उच्च जाति, वंश तथा विपुल ऐश्वर्य आदि को याद न करे । प्रव्रज्या के बाद जो श्रुत सीखा है, उस बहुश्रुतता का भी उत्कर्ष न दिखाए। ६७. (उच्चं अगोतं च गति वयंति) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इस चरण का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। वे इस संसार में उच्च अर्थात् सर्वलोक की उत्तमता को प्राप्त कर निर्वाणसंज्ञक अगोत्र स्थान को प्राप्त करते हैं यह चूर्णिकार का अभिमत है। वे उच्च अर्थात् मोक्ष गति या सर्वोत्तम गति को प्राप्त होते हैं जहां गोत्र आदि कोई कर्म नहीं है । यह वृत्तिकार का अभिमत है। उन्होंने 'च' शब्द से पांच कल्पातीत विमानों का ग्रहण किया है।' श्लोक १७: ६८. मृत शरीर वाला (मुतच्चे) इसमें दो पद हैं-मृत और अर्चा । यहां अर्चा का अर्थ शरीर है। इस संयुक्त पद का अर्थ होगा-मृत शरीर वाला । भिक्षु को मृत शरीर की भांति व्यवहार करना चाहिए। जैसे मृत व्यक्ति न सुनता है, न देखता है, उसी प्रकार भिक्षु सुनता हुआ भी न सुने, देखता हुआ भी न देखे । यही मृतार्च की परिभाषा है।' १. चूणि, पृ०२२४ : उत्तमपुद्गलश्च, उत्तमजीव इत्यर्थः । अथवा जो शोभणो लाडाणं सो पुद्गलो वुश्चति, जधा पुद्गलजम्मो पुग्गलजवत्ती। २. आप्टे, संस्कृतइंग्लिश डिक्शनरी, 'पुद्गल' शब्द । ३. चूणि, पृ० २४४ : सुष्ठु धीरधर्माणः ज्ञानर्धामणो गीतार्थाः । ४. वृत्ति, पत्र २२४ : सुप्रतिष्ठितो धर्म:- श्रुतचारित्रास्यो येषां ते सुधीरधर्माणः । ५. चूणि, पृ० २२४ : न जात्यादिभिरात्मानं उत्कर्षेत्, यथापूर्वरतादीनि न स्मर्यन्ते तथा तान्यपि, न वा पश्चाज्जातैर्बहुश्रुतादिमि रात्मानं उत्कर्षेत्। ६ चूणि, पृ० २२४ : उच्चं नाम इहैव सर्वलोकोत्तमतां प्राप्य लोकाग्रं निर्वाणसंज्ञकं अगोत्रस्थान प्राप्नोति । ७. वृत्ति, पत्र २४४ : उच्चां-मोक्षाख्यां सर्वोत्तमा वा गति व्रजन्ति-गच्छन्ति, च शब्दात् पञ्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा व्रजन्ति, अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम् । ८. (क) चूणि, पृ० २२५ : अर्चयन्ति तां विविधराहारैर्वस्त्राद्यलङ्कारश्चेत्यर्चा । (ख) वृत्ति, पत्र २४४ : अर्चा-तनुः शरीरम् । ६. चूणि, पृ० २२५ : मतो हि न शृणोति न पश्यतीत्यर्थः, एवं भिक्षुरपि शृण्वन्नपि न शणोति, पश्यन्नपि न पश्यतीत्यादि इत्यतो मुतच्चा। Jain Education Intemational Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५४५ अध्ययन १३ टिप्पण ६९-७२ अथवा 'मुत्' का अर्थ है -- संयम और अर्चा का अर्थ है -- लेश्या । जिसके संयममय लेश्या होती है वह मुद कहलाता है । तीन प्रशस्त लेश्याएं संयममय होती हैं ।" वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए है १. जो मरे हुए शव की तरह अपने शरीर का स्नान, विलेपन आदि संस्कार नहीं करता वह 'मृतार्च' कहलाता है । २. मुद् का अर्थ है सुन्दर, प्रशस्त और अर्चा का अर्थ है - लेश्या । जिसकी लेश्याएं प्रशस्त हैं, वह मुद कहलाता है। इसकी तुलना 'वोसचत्तदेहे' - व्युत्सृष्टत्यक्तदेह से की जा सकती है । ६९. धर्म को प्रत्यक्ष करने वाला (विदुधम्मे) यहां दृष्ट का अर्थ केवल देखना नहीं है। इसका अर्थ है- प्रत्यक्ष करना, साक्षात् करना । दृष्टधर्मा वही होता है जो धर्म को प्रत्यक्ष कर लेता है, धर्म जिसके जीवन में साक्षात् हो जाता है । चूर्णिकार ने इसका अर्थ -- दृष्टसार अर्थात् जिसने सार देख लिया है— किया है। जो सूत्र और अर्थ का ज्ञाता होता है, वह दृष्टधर्मा है।" वृत्तिकार ने श्रुत और चारित्र धर्म के ज्ञाता को दृष्टधर्मा कहा है । * ७०. एषणा और अनेषणा को जानता है (एसणं ...अणेसणं) .... एषणा के तीन अर्थ है १. स्थविरकल्पी मुनियों के लिए बयालीस दोषों से रहित आहार- पान एषणीय है, शेष अनेषणीय । २. जिनकल्पी मुनि के लिए अलेप आदि पांच प्रकार की एषणा और शेष अनेषणा । ३. जिसका जो अभिग्रह है, वह उसके लिए एषणा है, शेष अनेषणा ।" श्लोक १८: ७१. अरति और रति को (अति ति) प्रस्तुत प्रकरण में संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति के अभिभव का निर्देश किया गया है । सहज ही मनुष्य मन असंयम में रमण करता है, संयम में रमण नहीं करता । इस स्वाभाविक वृत्ति को साधना के द्वारा ही बदला जा सकता है । ७२. संघवासी हो (बहुजणे) जिसकी संयम यात्रा में अनेक जन सहायक होते हैं वह 'बहुजन' होता है । यह संघवासी, गच्छवासी का द्योतक है । १. पृ० २२५ वा तनुष्यते, अति लेश्या समुतस्यो मुतच्या विशुद्धानो सम्मताओं अविद्धासम्म ताओ । २. वृत्ति, पत्र २४४ : मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावावर्धा - तनुः शरीरं यस्य स मृतार्थः; यदि वा मोदनं मुत् तद् भूता शोभनापद्मादिकालेश्या यस्य स भवति सुदर्चः प्रशस्तलेश्यः । ३. चूर्ण, पृ० २२५ : सूत्रे चार्थे च दृष्टधर्मा, दृष्टसारो दष्टधर्मा इत्यर्थः । ४ वृत्ति पत्र २४४ दृष्टः अवगतो यथावस्थितो धर्मः- - तचारित्राढ्यो येन सः । ५. (क) चूणि, पृ० २२५: स एषणा बातालीसदोसविसुद्धा तस्त्रिवता अणेसणा । अथवा एसणा जिनकप्पियाणं पंचविधा अलेवाडादि, ट्ठिलगातो असणातो अथवा जा अभिग्गहिताणं सा एसणा, सेसा असणा । (ख) वृत्ति पत्र २४४ ]: Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन १३ : टिप्पण ७३-७६ जैन परम्परा में कुछ पुरुष संघबद्ध साधना करते हैं और कुछ अकेले रहकर साधना करते हैं । यह शब्द 'संघवासी' साधना का प्रतीक है। ७३. एकचारी (अकेला विचरण करने वाला) (एगचारी) इसका अर्थ है- अकेला साधना करने वाला, एकलविहारी।' हर कोई मुनि एकलविहारी नहीं हो सकता। यह एक विशेष 'प्रतिमा' है, जिसे विशिष्ट श्र तसंपन्न और गुणसम्पन्न व्यक्ति ही ग्रहण कर सकता है। एकलविहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर साधना करने का संकल्प । स्थानांग सूत्र (12) में एकलविहार प्रतिमा स्वीकार करने वाले साधक की योग्यता के आठ अंग बतलाए हैं १. श्रद्धावान् -अपने अनुष्ठान के प्रति पूर्ण आस्थावान् । २. सत्यवादी। ३. मेधावी। ४. बहुध त । ५. शक्तिमान् । ६. अल्पाधिकरण-उपशान्त कलह की उदीरणा एवं नए कलहों की उद्भावना न करने वाला। ७. धृतिमान् । ८. वीर्यसंपन्न-साधना में सतत उत्साह रखने वाला ।' वृत्तिकार ने 'एगचारी' से एकलविहारी अथवा जिनकल्पी का ग्रहण किया है। जिनकल्पी मुनि अकेले रहते हैं किन्तु 'एकलविहारी' और जिनकल्पी की चर्या और साधना में अन्तर होता है। जिनकल्प की चर्या के लिए देखें-ठाणं, पृष्ठ ७०४-७०६ । ७४. एकान्त मौन (संयम) के साथ किसी तत्त्व का निरूपण करे (एगंतमोणेण वियागरेज्जा) मौन का अर्थ है-संयम । एकान्त मौन अर्थात् एकान्त संयम । धर्मकथा करने के अवसर पर मुनि पूछे जाने पर या बिना पूछे भी संयमपूर्वक बोले । वह धर्म संबंधी ऐसी बात कहे जिससे संयम में कोई बाधा न आए। वह पापकारी, सावद्य या कार्य का प्रत्यक्ष निर्देश देने वाली भाषा न बोले। श्लोक १७: ७५. जानकर (समेच्चा) धर्म का प्रतिपादन करने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं। कुछ साधक अतीन्द्रियज्ञान को विकसित कर सत्य को स्वयं जान लेते हैं, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं। कुछ साधक परोक्षज्ञानी होते हैं। वे प्रत्यक्षज्ञानी से सुन कर सत्य का प्रतिपादन करते हैं। ७६. निदान के प्रयोग (सणिवाणप्पओगा) प्रस्तुत श्लोक के अंतिम दो चरणों का अर्थ है-धर्मकथी मुनि निदान के प्रयोगों (बंधन पैदा करने वालों) का सेवन न करे। १. (क) चूणि, पृ० २२५ : बहुजणमज्झम्मि गच्छवासी । (ख) वृत्ति, पत्र २२४-२४५ : बहवो जना।—साधवो गच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजनः । २. चूणि, पृ० २२५ : एगचारि त्ति एगल्लविहारपडिवण्णगो। ३ विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं १ का टिप्पण, पृष्ठ ८२३ । ४. वृत्ति, पत्र २४५ : तथैक एव चरति तच्छीलश्चकचारी, स च प्रतिमाप्रतिपन्न एकलविहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात् । ५. (क) चूणि, पृ० २२५ : एगंतमोणेण तु एगंतसंयमेणं, एकान्तेनैव संजममवलम्बमानः पृष्टो वा किञ्चिद् वाकरोति, न तु यथा मौनोपरोधो भवति, संयमोपरोध इत्यर्थः । तद्यथा-'जाय भासा पाविका सावज्जा सकिरिया।" (ख) वृत्ति, पत्र २४५। Jain Education Intemational Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ वे गहित होते हैं । चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ इस प्रकार से किया है-' १. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति, जो निन्दित और कर्म बंधन युक्त है, धर्मकथी उनका प्रयोग न करे । २. धर्मंकथी धर्मकथा करने के समय जो वाक्प्रयोग गर्हित हैं उनका कथन न करे। जैसे-- जो वचन, हिंसा और परिग्रह का प्रज्ञापन करते हों वे न कहे । कुतीर्थी भी कायक्लेश आदि करते हैं- इस प्रकार उनकी प्रशंसा न करे । सावद्य दान की प्रशंसा न करे । ऐसी धर्मकथा न करे जिससे दूसरा कुपित हो । वह वचन के दोषों का वर्जन करे । वृत्तिकार ने इन दो चरणों का अर्थ दो प्रकार से किया है १. जो निदान कर्म-बंध का कारण है, तथा जो प्रवृत्ति (धर्मकथा आदि) निदानयुक्त है - भविष्य के लाभ की आशंसा से युक्त है- महर्षि उसका सेवन न करे । ५४७ २. जो वाक्प्रयोग सहित और निदानयुक्त है, सुधीरधर्मा व्यक्ति उसको न बोले वह ऐसा न कहे तीविक सावय अनुष्ठान में रत रहते हैं वे तीन रहित और व्रत रहित हैं वे जादू-टोना करने वाले हैं। इस प्रकार दूसरे के दोष को प्रगट करने वाला तथा मर्मभेदी वचन न कहे । श्लोक २० : ७७. फोध को (खुद्द) इसका अर्थ है - क्रोध । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ क्षुद्रत्व - नीचता' किया है और तीसरे चरण की ओर संकेत करते हुए कहा है कि वह पुरुष मार डालने तक की नीचता कर सकता है । " ७८. वक्ता को मार सकता है (आउस्स कालातिया रं) जिस प्राणी ने जितना आयुष्य निर्वर्तित किया है, अर्जित किया है, वह उसका आयुष्य काल कहलाता है। अतिचार का अर्थ है-अतिक्रमण करना ।" १. चूर्ण, पृ० २२५ । २. वृत्ति, पत्र २४५ । ३. चूर्णि, पृ० २२५ : ७६. अनुमान के द्वारा दूसरे के भावों को जानकर (लखाणुमाणे) इस चरण में धर्मंकथी मुनि के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वह अनुमान आदि के द्वारा परिषद् में उपस्थित लोगों के भावों को जानकर धर्मकथा करे । धर्मकथा करना भी एक कला है । वह पुरुष - विशेष को ध्यान में रखकर करनी चाहिए। प्रध्ययन १३ : टिप्पण ७७-७६ पूर्णिकार के अनुसार मुनि धर्मकथा करते समय सतत परिषद् की ओर दृष्टि रखे और जानता रहे कि उसके कथन का किस पर क्या असर हो रहा है ? यह कहा गया है कि मनुष्य के नेत्र और मुंह पर होने वाले परिवर्तनों से उसके अन्तर्मन को जाना जा सकता है, इसलिए मुनि लोगों को सतत देखता रहे। वह सोचे कि जो मैं कह रहा हूं वह परिषद् में उपस्थित व्यक्ति ( या व्यक्तियों) को प्रिय लग रहा है या अप्रिय ? यदि उसे लगे कि उसका कथन अप्रियता पैदा कर रहा है तो यह तत्काल विषय को मोड़ दे और दूसरे विषय पर व्याख्यान करने लग जाए। वह मत-मतान्तर की बातों को छोड़कर केवल ऐसी बात कहे जिससे स्वयं का और दूसरे का कल्याण हो, जिससे इहलोक और परलोक सुधरे । ' (ख) वृत्ति पत्र २४५ : ४. (क) पूर्ण ० २२५,२२६ , - क्षौद्रम् । 'क्षुद्रत्वम् । - (ख) वृत्ति पत्र २४५ । " ५. णि, पृ० २२६ यावन्नाऽकालो नितितः स तस्यायुः कालः अतिचरणमतीवारः । ६. णि, पृ० २२६ । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो अध्ययन १३ : टिप्पण ८०-८३ वृत्तिकार के अनुसार--- सबसे पहले धर्मकथा करने वाला मुनि यह जाने कि परिषद् में उपस्थित पुरुष कौन है ? यह किस देवता विशेष को मानने वाला है ? यह किस दर्शन को मानने वाला है ? इसके मन में किसी मत विशेष के प्रति आग्रह है या नहीं? इन सारी बातों को अच्छी तरह जानकर ही उसे धर्मकथा करनी चाहिए। जो व्यक्ति इन बातों को जाने बिना धर्मोपदेश करता है और दूसरे के मत पर, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, आक्षेपकारी वचन कह देता है, उसको अनेक प्रकार की विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं। कभी-कभी उसे मृत्यु का सामना भी करना पड़ सकता है। अत: उसे दूसरे के अभिप्राय को जानकर, सत्य की उपलब्धि कराने मात्र के लिए, तत्त्वज्ञान कराने के लिए, धर्मकथा करनी चाहिए।' श्लोक २१: ८०. धीर पुरुष (धोरे) विषय और कषायों से अक्षोभ्य या उत्तम बुद्धि सम्पन्न पुरुष 'धीर' कहलाता है। ८१. कर्म (कम्म) चूर्णिकार के अनुसार कर्म का अर्थ है-आजीविका का साधन, व्यवसाय । वे किसी को उसके व्यवसाय से संबोधित करने या उस व्यवसाय के आधार पर निन्दा करने का निषेध करते हैं। जैसे-हे जलाहा, हे चर्मकार ! आदि । अरे, तुम तो चर्मकार हो, तुम तो जुलाहे हो---आदि-आदि ।' वृत्तिकार ने कर्म के दो अर्थ किए हैं१. अनुष्ठान । २. गुरु-लघु कर्म का भाव। ८२. छंद (रुचि) का (छंद) चूर्णिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं१. अभिप्राय, रुचि। २. जिससे सुनने वाला प्रभावित हो वह अभिप्राय या वचन । जैसे-कोई व्यक्ति शृगार रस से, कोई वैराग्य रस से, और कोई दूसरे रस से प्रभावित होता है। धर्मकथी मुनि उसका विवेचन करे। ३. श्रोता कौन है ? वह किस दर्शन का अनुयायी है ?' यह जानना। ८३. आत्मीयभाव (आतभावं) चूर्णिकार ने आत्मभाव से मिथ्यात्व या अविरति का ग्रहण किया है । ये अप्रशस्त आत्मभाव हैं।' वृत्तिकार ने अनादि जन्मों में अभ्यस्त मिथ्यात्व आदि को अथवा विषयासक्ति को आत्मभाव कहा है।' उन्होंने मूलपाठ 'पापभावं' मानकर 'आतभावं' को पाठान्तर माना है। 'पापभाव' का अर्थ है-अशुद्ध अन्तःकरण ।' हमने इसका अर्थ बाह्य पदार्थों में होने वाले आत्मीयभाव अर्थात् विषयानुरक्ति किया है। १. वृत्ति, पत्र २४५। २. वृत्ति, पत्र २४६ : 'धीरा-अक्षोभ्यः सदबुद्ध्यलंकृतो वा । ३. चूणि, पृ० २२६ : येन कर्मणा जीवति न तेनैनं परिभाषेत्, यथा हे कोलिक !,न चैवगं तेन कर्मणा निन्वयेविति, यथा-चर्मकारो भवान् कोलिको वा, मा सो उड्डष्ट्ठो गं गेण्हेज्ज । ४. वृत्ति, पत्र २४६ : 'कर्म'-अनुष्ठानं गुरुलघुकर्मभावं वा। ५. चूणि, पृ० २२६ : छन्दं चास्य जाणेज्ज तद्यथा-वारुणो मृदुर्वा । अथवा छन्द इति येनाऽक्षिप्यते वैराग्येन शृंगारेण वा, तथा के अयं पुरिसे? कं वा दरिसणमभिप्पसण्णे ? ६. चूणि, पृ. २२६ : आतभावो णाम मिथ्यात्वं अविरतिर्वा, ततो अप्रशस्तावात्मभावात् । ७ वृत्ति, पत्र २४६ : 'आत्मभावः; अनाविभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिकस्तमपनयेत, यदि बाऽऽत्मभावो-विषयगृध्नुता। ८. वृत्ति, पत्र २४६ : पापभावम्'-अशुद्धमन्तःकरणम्..."आयमाव' ति क्वचित्पाठः । Jain Education Intemational Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ प्रध्ययन १३ : टिप्पण८४-८७ ८४. तत्त्व को जानकर (विज्जं गहाय) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-विद्या को जान कर किया है। वृत्तिकार ने 'विज्ज' का अर्थ-विद्वान्, धर्म-देशना देने में निपुण और 'गहाय' का अर्थ-दूसरे के अभिप्राय को सम्यग जानकर-किया है। ८५. चल-अचल (तसथावरेह) हमने प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में इनका अर्थ-चल, अचल पदार्थ किया है। प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार सर्वथा भिन्न मत रखते हैं । चूर्णिकार के अनुसार धीर मुनि किसी पुरुष को उसके व्यवसाय से संबोधित न करे। (अथवा उस व्यवसाय के द्वारा उसकी निन्दा न करे ।) वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर उसके मिथ्यात्व का सर्वथा अपनयन करे। रूप आदि इन्द्रिय-विषय भयावह होते हैं जो इनमें आसक्त होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। (इन इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न दोषों को) जानकर मुनि बस-स्थावर प्राणियों के रक्षण करने वाले धर्म का कथन करे। वृत्तिकार के अनुसार धीर मुनि श्रोताओं के अनुष्ठान और अभिप्राय को जानकर (धर्मोपदेश करे) तथा उनके पापभाव (मिथ्यात्व) को सर्वथा दर करे । स्त्रियों के रूप भयावह होते हैं । (जो इनमें आसक्त होते हैं), वे धर्म से च्युत हो जाते हैं। विद्वान् मुनि दूसरे के अभिप्राय को जानकर त्रस और स्थावर प्राणियों के लिए हितकर धर्म का उपदेश दे । चुणिकार और वृत्तिकार द्वारा कृत अर्थाभिव्यक्ति स्पष्ट नहीं है। उसका पौर्वापर्य भी सम्यग घटित नहीं होता। ८६. रूपों (आकृत्तियों) में (रूवेहि) चुणिकार का कथन है कि इन्द्रियों के पांच विषयों में रूप प्रधान है। उसमें भी स्त्रीरूप सबसे प्रधान है। वृत्तिकार ने नयन और मन को लुभाने वाले स्त्रियों के अंग, प्रत्यंग, अर्द्ध-कटाक्ष, निरीक्षण आदि को 'रूप' माना है।" हमने इसका अर्थ 'मूर्त पदार्थ' किया है। श्लोक २२: ८७. निर्मल (अणाइले) अनाविल का अर्थ है-निर्मल, पवित्र । चूर्णिकार ने इसका अर्थ अनातुर किया है । जो क्षुधा आदि परिषहों से अनातुर होता है, वह अनाविल कहलाता है' वृत्तिकार ने अनाकुल का अर्थ - सूत्र के अर्थ से दूर न जाने वाला किया है।' १. चूणि, पृ० २२६ : विद्यां गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः : २. वृत्ति, पत्र २४६ : 'विद्वान्'-पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञो गृहीत्वा पराभिप्रायम् । ३. चूर्णि, पृ० २२६ । ४. वृत्ति, पत्र २४६ । ५ चूणि, पृ० २२६ : रूपं सर्वप्रधानं विषयाणाम, तत्रापि स्त्रीरूपादि। ६ वृत्ति, पत्र २४६ : 'रूपः नयनमनोहारिभिः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गार्द्धकटाक्षनिरीक्षणादिभिः । ७. चूर्णि, पृ० २२६ : अणाइलो णाम अनातुरः क्षुधादिभिः परीषहैः । ८. वृत्ति, पत्र २४६ : अनाकुलः सूत्रार्थादनुत्तरन् । Jain Education Intemational Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ५५० ८८. पूजा और लावा का कामी हो ( धर्मकया न करे) (ण पूपणं चैव सिलोय कामे) पूजा का अर्थ है - वस्त्र, पात्र, आदि का लाभ । श्लोक का अर्थ है - श्लाघा, कीर्ति, आत्मप्रशंसा, यश आदि । मुनि पूजा और श्लाधा प्राप्त करने के लिए धर्मकथा न करे । वह यह कामना न करे कि धर्मकथा करने से मुझे अच्छे वस्त्र, पात्र, अन्न-पान आदि मिलेगा । लोग यह कहने लगेंगे कि यह मुनि अर्थ का विस्तार करने में निपुण है । हमने इस जैसे अर्थ का विस्तार करने वाला नहीं देखा । यह बहुत मिष्टभाषी है ।' ८. किसी का प्रिय या अप्रिय न करे ( पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा ) अध्ययन १३ टिप्पण८८-६० : इसके अनेक अर्थ हैं --- १. मुनि सावद्य उपकार के द्वारा किसी गृहस्थ का न प्रिय करे और न अप्रिय करे । २. यह मेरा प्रिय है, यह मेरा अप्रिय है— मुनि ऐसा न माने । ३. जो जिसके लिए प्रिय हो, उसको चुगली या विद्वेष के द्वारा अप्रिय न बनाए ।" ४. योगा के लिए जो प्रिय (राजकथा आदि) हो तथा जो अभिय (इष्टदेव की निन्दा आदि) हो, वैसा कवन न करे । मुनि समता की साधना करता है। वह किसी के प्रति अनुरक्त और किसी के प्रति द्विष्ट नहीं होता । वह राग-द्वेष से दूर रहता है। इसलिए यह उपयुक्त है कि वह न किसी का प्रिय करे और न किसी का अप्रिय करे। प्रियता और अप्रियता राग-द्वेष के द्योतक हैं। जो एक के लिए प्रिय होती है वह दूसरे के लिए अप्रिय भी हो सकती है । जो एक के लिए अप्रिय होती है वह दूसरे के लिए प्रिय भी हो सकती है। समता की आराधना करने वाला मुनि मध्यस्थ रहे, न कहीं प्रियता करे और न कहीं अप्रियता करे । वह प्रियता और अप्रियता पैदा करने के लिए धर्मकथा न करे। वह श्रोता के अभिप्राय को जानकर अरक्तद्विष्ट होकर दर्शन आदि यथार्थ धर्म का उपदेश करे ।" सम्यग् १०. अनवों का (अगट्ठे ) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अशोभन या संयम में बाधा उपस्थित करने वाला कार्य । इसका तात्पर्यार्थ है अर्थदण्ड | वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-पूजा, सत्कार और लाभ के अभिप्राय से किया जाने वाला तथा दूसरे पर दोषारोपण रूप अनर्थ ।' प्रकरण की दृष्टि से यहां अनर्थ का अर्थ है - अप्रयोजन । इसी आगम के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में बताया है कि मुनि अन्न प्राप्त करने के लिए, पान प्राप्त करने के लिए, वसति प्राप्त करने के लिए, शय्या प्राप्त करने के लिए तथा विभिन्न प्रकार के कामभोगों को प्राप्त करने के लिए धर्म देशना न करे। ये धर्म१. (क) चूर्णि, पृ० २२६ ण पूया मे भविस्सती, सिलोगो णाम जसोकित्ती, यथा नानेन तुल्य प्रज्ञप्तविस्तरो कथको मृष्टवाक्य इत्यादि । (ख) वृत्ति, पत्र २४६ : साधुदेशनां विदधानो न पूजनं वस्त्रपात्रादिलाभ रूपमभिकाङ्क्षन्नापि श्लोकं श्लाघां कीर्तिम् - आत्मप्रशंसां कामद २ णि, पृ० २२६ : प्रियं च न कुर्यादसंयतानां अन्यतरेण सावद्योपकारेण वा अप्रियम् । अथवा ममायं प्रियः अयं चाप्रिय इति, अथवा यो यस्य प्रियः स न तस्य पिशुनवचन- विद्वेषणादिभिः कुर्यात् कर्मकथाम् । ३. वृत्ति, पत्र २४६ : तथा श्रोतुर्यत्प्रियं राजकथाविकथादिकं छलितकथादिकं च तथाऽप्रियं च तत्समाश्रितदेवता विशेष निन्दादिकं न कथयेत् । ४. वृत्ति, पत्र २४६ ॥ ५. चूर्ण, पृ० २२६ : अणट्ठे अशोभना अर्थाः अनर्थाः संयमोपरोधकृद् अर्थोऽनर्थः, अनर्थदण्ड इत्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र २४६ : अनर्थान् पूजासत्कारलाभाभिप्रायेण स्वकृतान् परदूषणतया च परकृतान् । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ देशना के अनर्थ हैं ।" XX? श्लोक २३ : १. हिंसा का (दंड) चूर्णिकार ने इसका अर्थ घात किया है । वृत्तिकार ने प्राणव्यपरोपण की विधि को दंड माना है। २. परित्याग करे ( निहाय) वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'निधाय' कर इसका अर्थ 'परित्यज्य' किया है। निधाय का अर्थ परित्यज्य (त्याग करके) कैसे हो सकता है ? इसका संस्कृत रूप 'निहाय होना चाहिए जहां त्यागे' धातु से यह रूप निष्पन्न होता है। इसका अर्थ होगा-त्याग करके । अध्ययन १३ टिप्पण २१-१४ प्राचीन प्रयोगों में 'हकार' का धकार के रूप में वर्ण परिवर्तन मिलता है। इसी सूत्र के १४। १ में चूर्णिकार ने 'विहाय' के स्थान पर 'विधाय' पाठ स्वीकृत कर उसका अर्थ 'विशेषेण हित्वा' किया है। १३. (जो जीवियं णो मरणाहिले) मुनि जीने और मरने की आकांक्षा न रखे । जीने कीं आकांक्षा राग है और मरने की आकांक्षा द्वेष है। मुनि दोनों की वांछा न करे । वह केवल संयम यात्रा की आकांक्षा करे । चूर्णिकार ने असंयममय जीवन और परीषहों के उदय से मरण की वाञ्छा न करे – यह अर्थ किया है ।" वृत्तिकार ने इस भावना का विस्तार किया है—मुनि असंयम जीवन की इच्छा न करे तथा स्थावर और जंगम प्राणियों की घात कर लंबे जीवन की बांछा न करे। मुनि परीषहों से पीडित होकर तथा अन्यान्य वेदनाओं से दुःखित होकर, उन दुःखों को न सह सकने के कारण जल में डूब कर आग में जलकर अथवा हिंसक प्राणी से अपना वध कराकर मरने की वांछा न करे । १४. वलय (संसारचक्र) से ( वलया) पूर्णिकार ने इसका अर्थ मावा और वृतिकार ने माया तथा मोहनीय कर्म किया है।" प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ संसार-चक्र उपयुक्त लगता है । १. सूयगडो २।१।६९ : णो अण्णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । जो पाणस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा । णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो णस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । जो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा णो अर्णोस विरूवरूवाणं कामभोगाणं हे माहवे। २. चूर्ण, पृ० २२६ : बंडो नाम घातः । ३. वृत्ति, पत्र २४६ : वण्ड्यन्ते प्राणिनो येन स दण्ड: प्राणव्यपरोपणविधिः । ४. वृत्ति पत्र २४६ : निधाय परित्यज्य । ५. चूर्ण, पृ० २२६ । असंजमजीवितं परीषहोदयाद्वा मरणं । ६.२४६मजीवितं दीर्घायुकं का स्वाद निकाशी स्वा (जे) व् वरीवजितो वेदनासमुधात (समय) हृतो वा तद्वेषनाम (भ) सहमानो जनतापाविजयन नापि मरणामिका स्यात् । ७. चूर्णि, पृ० २२६ : वलया - माया । ८. वृत्ति, पत्र २४७ : वलयेन मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमं अज्झयरणं गंथो चौदहवां अध्ययन ग्रन्थ Jain Education Intemational Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नामकरण भी आदानपद के आधार पर 'ग्रन्थ' रखा गया है । वृत्तिकार ने नामकरण का आधार गुणनिष्पन्नता भी माना है ।" ग्रन्थ का अर्थ है - आत्मा को बांधने वाला तत्त्व । चूर्णिकार के अनुसार ग्रन्थ दो प्रकार का होता है— द्रव्यग्रन्थ और भावग्रन्थ । द्रव्यग्रन्थ सावद्य होता है । भावग्रन्थ के दो प्रकार हैं प्रशस्तभावग्रन्थ - ज्ञान, दर्शन चारित्र । अप्रशस्तभावग्रन्थ प्राणातिपात आदि तथा मिथ्यात्व आदि । ग्रन्थ का अर्थ आचारांग आदि आगम भी है। जो शिष्य उनको पढ़ता है, वह भी ग्रन्थ कहलाता है। शिष्य दो प्रकार के होते हैं होते है- १. प्रव्रज्या शिष्य – स्वयं गुरु द्वारा दीक्षित | - २. शिक्षा शिष्य आचार्य आदि के पास शिक्षा ग्रहण करने वाला शिष्य । आचार्य भी दो प्रकार के होते हैं- प्रव्रज्या आचार्य और शिक्षा - आचार्य ( वाचनाचार्य ) । शिक्षा आचार्य दो प्रकार के + १. शास्त्रपाठ की वाचना देने वाले । २. अर्थ की वाचना देने वाले तथा सामाचारी का सम्यग् पालन कराने वाले । दोनों प्रकार के ग्रन्थों - बाह्य और आभ्यन्तर की पूरी जानकारी आचार्य से ही प्राप्त हो सकती है वे श्रुत- पारगामी होते हैं। उनकी शिक्षा के अनुसार शिष्य 'ग्रन्थ' (ग्रन्थियों) के स्वरूप को समझकर धन-धान्य आदि बाह्य ग्रन्थों तथा, मिथ्यात्व. अज्ञान आदि आभ्यन्तर ग्रन्थों (ग्रन्थियों) को क्षीण करने का प्रयत्न करे। मुनि ग्रन्थ विनिर्मुक्त होकर ही निर्ग्रन्थ बन सकता है । निर्ग्रन्थ ही मोक्ष का अधिकारी होता है । जैसे रोगी चतुर वैद्य के निर्देश का पालन करता हुआ रोगमुक्त हो जाता है वैसे ही मुनि भी सावद्य ग्रन्थों को छोड़कर पापकर्म को दूर करने वाली औषधि रूप प्रशस्त भावग्रन्थ- ज्ञान, दर्शन, चारित्र को स्वीकार करे । उसका कर्मरूपी रोग शान्त हो जाएगा।" प्रस्तुत अध्ययन में गुरुकुलवास की निष्पत्तियों का बहुत सुन्दर विवेचन है। सूत्रकार ने उदाहरणों से उन्हें स्पष्ट किया है । गुरुकुलबास का वाचक शब्द है 'ब्रह्मचर्य' ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं- चारित्र, नौ गुप्तियुक्त मैथुन- विरति और गुरुकुलबास ।' आचार, आचरण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्य - ये एकार्थक हैं । * जो गुरुकुल (ब्रह्मचर्य) में वास करता है उसे ग्रन्थ का सम्यग्ज्ञान हो सकता है । गुरुकुलवास में ही सामाचारी और परंपराओं की जानकारी होती है। इनकी जानकारी के अभाव में मुनि अपरिपक्व रह जाता है । वह अपुष्टधर्मा मुनि अहंकार से ग्रस्त होकर, आचार्य की अवज्ञा कर, एकलविहार आदि प्रतिमा के लिए सक्षम न होने पर भी उसे स्वीकार कर गण से अलग हो जाता है । वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे पंखहीन पक्षी का बच्चा घोंसले से निकल कर उड़ने की चेष्टा करने पर दूसरे पक्षियों द्वारा मार दिया जाता है। इसलिए मुनि ग्रन्थ की शिक्षा के लिए गुरुकुलवास में रहे। यह प्रथम छह श्लोकों का प्रतिपाद्य है । आगे के छह श्लोकों (७-१२)में में रहने वाले मुनि को अनुशासन सहन करने की क्षमता अजित करने का उपदेश है । अकेले के लिए कोई अनुशासन नहीं होता। संघ अनुशासन से ही चलता है। गुरुकुलवास में सभी का सहावस्थान होता १. वृत्ति, पत्र २४७ : आदानपदाथ् गुणनिष्पन्नत्वाच्च ग्रन्थ इति नाम । २. वृत्ति, पत्र २४८ । ३. चूर्ण, पृ० २२८ । ४. चूर्णि, पृ० ४०३ । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ ५५६ अध्ययन १४ प्रामुख हैं वहां एक दूसरे को सहने से ही हो सकता है। मुनि जन्म-पर्याय से छोटे-बड़े या दीक्षान्यवय से छोटे-बड़े सहदीक्षित या अन्य किसी भी प्रकार से मुनि द्वारा अनुशासित किए जाने पर, अनुशासन को स्वीकार करे । अत्यन्त तुच्छ गृहस्थ भी यदि अनुशासना करे तो उस पर भी क्रोध न करे, कठोर वचन न कहे। 'यह मेरे लिए श्रेयस्कर है, ऐसा सोचकर उसे स्वीकार करे ।' इसी प्रकार आगे के छह श्लोकों में ब्रह्मचर्य - गुरुकुलवास में रहने का फल बतलाया गया है। वह इस प्रकार है १. ज्ञानप्राप्ति और धर्म की सम्यग् अवगति । २. संयम की परिपक्वता । ३. मानसिक प्रद्वेष का विनयन । ४. समाधि प्राप्ति का अवबोध । ५. धर्म, समाधि और मार्ग का ज्ञान और आचरण की निपुणता । ६. चित्त की शांति और निरोध की प्रक्रिया का अवबोध | ७. अप्रमत्त साधना का अभ्यास । ८. प्रतिभा और विशारदता का विकास । अंतिम दस श्लोकों (१८-२७) में बी के कर्तों का स्कुट निर्देश है जो गुरुकुतनाव में रहता है वह निपुण पन्थी (भावग्रन्थी) बन जाता है | उसे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए, इसका स्पष्ट विवेक इन श्लोकों में प्रतिपादित है । इन श्लोकों में भाषा - विवेक के निर्देश इस प्रकार प्राप्त हैं अर्थ को न छिपाए । अप-सिद्धान्त का निरूपण न करे । परिहास न करे । प्रशस्ति वचन न कहे । असाधु वचन न कहे । स्व-प्रशंसा न करे । विभज्यवाद से बोले । सत्यभाषा और व्यवहार भाषा का प्रयोग करे । मंदमति श्रोता के लिए हेतु दृष्टान्त आदि का प्रयोग करे । कर्कश वचन न बोले । किसी के वचनों का तिरस्कार न करे । शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए । संगत, अर्थपूर्ण और अस्खलित बात कहे । आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे । पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे । मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले । सिद्धान्त की यथार्थ प्ररूपणा करे । अपरिणत को रहस्य न बताए । और अर्थ को अन्यथा न करे । सूत्र वाद और श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे । सूत्रपाठ का शुद्ध उच्चारण करे । प्रस्तुत अध्ययन में कुछेक शब्द विमर्शनीय हैं आसिसाबाद (श्लोक १९) मुनि किसी पर संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हुए यह न कहे स्वस्थ रहो, भाग्यशाली हो, तुम्हारा धन बढे, तुम्हें पुत्रों की प्राप्ति हो, आदि-आदि । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५५७ अध्ययन १४ : प्रामुख जैन मुनि भौतिक अभ्युत्थान का वाचक आशीर्वाद न दे। वह आध्यात्मिक अभ्युदय के लिए आशीर्वाद या निर्देश दे । कुछ विद्वान् इसका अर्थ-अ-स्याद्वाद करते हैं, जो सही नहीं है । विभज्जवायं (श्लोक २२) बावीसवें श्लोक में 'विभज्जवायं च वियागरेज्जा' ऐसा निर्देश है। इसका अर्थ है- मनि विभज्यवाद के आधार पर वचनप्रयोग करे। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- भजनीयवाद और अनेकान्तवाद । वृत्ति के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं१. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद । २. स्याद्वाद। ३. अर्थों का सम्यग विभाजन करने वाला वाद । बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद की अनेक स्थलों पर चर्चा प्राप्त होती है। उसका स्वरूप-निर्णय भी वहां से होता है। बुद्ध ने स्वयं को विभज्यवाद का निरूपक कहा है। विशेष विवरण के लिए देखें-टिप्पण संख्या ८१ । Jain Education Intemational Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमं अज्झयणं: चौदहवां अध्ययन गंथो : ग्रन्थ मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.गंथं विहाय इह सिक्खमाणो उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा। ओवायकारी विणयं सुसिक्खे जे छेए से विप्पमादं ण कुज्जा॥ ग्रन्थं विहाय इह शिक्षमाणः, उत्थाय सुब्रह्मचर्यः वसेत् । अवपातकारी विनयं सुशिक्षेत्, यश्छेकः स विप्रमादं न कुर्यात् ।। १. ग्रन्थ (परिग्रह) को' छोड़ भावग्रन्थ (श्रु तज्ञान) को प्राप्त कर, जिन-शासन में शिक्षा प्राप्त करता हुआ प्रवजित हो गुरुकुल-वास में रहे', निर्देश का पालन करे और विनय का' अभ्यास करे । जो चतुर होता है वह प्रमाद नहीं करता। २. जहा दिया-पोतमपत्तजातं सावासगा पवितुं मण्णमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजायं ढंकादि अव्वत्तगमं हरेज्जा। यथा द्विजपोतमपत्रजातं, स्वावासकात् प्लवितुं मन्यमानः । तमशक्तं तरुणमपत्रजातं, ध्वांक्षादिः अव्यक्तगमं हरेत् ।। २. जैसे पूरे पंख आए बिना पक्षी का बच्चा अपने घोंसले से उड़ना चाहता है, किन्तु वह उड़ नहीं सकता। उड़ने में असमर्थ उस पंखहीन बच्चे को कौए' आदि उठाकर ले जाते हैं।' ३. एवं तु सिक्खे वि अपुट्टधम्मे णिस्सारं सिमं मण्णमाणो। दियस्स छावं व अपत्तजातं हरिसु णं पावधम्मा अणेगे। एवं तु शैक्षोऽपि अपुष्टधर्मा, निस्सारं वृषिमन्तं मन्यमानः । द्विजस्य शावमिव अपत्रजातं, अहार्षः पापधर्माणः अनेके । ३. इसी प्रकार अपुष्ट-धर्म वाला' शैक्ष (नव-दीक्षित) चारित्र को निस्सार मानकर (गुरुकुल-वास से) निकलना चाहता है। उसे अनेक पाप-धर्म वाले' वैसे ही हर लेते हैं जैसे पंखहीन पक्षी के बच्चे को कौए आदि । ४. ओसाणमिच्छे मणुए समाहि अणोसिते गंतकरे ति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं ण णिक्कसे बहिया आसुपण्णो॥ अवसानमिच्छेद् मनजः समाधि, अनषितो नान्तकरः इति ज्ञात्वा । अवभाषमाणः द्रव्यस्य वित्तं, न निष्कसेतु बहिराशुप्रज्ञः ॥ ४. जो गुरुकुल-वास में" नहीं रहता वह साधु (असमाधि या संसार का) अन्त नहीं कर सकता-यह जानकर" शिष्य गुरुकुलवास में आजीवन रहने और समाधि प्राप्त करने की इच्छा करे । गुरु साधु के" वित्त (या वृत्त) पर" अनुशासन करता है", इसलिए आशुप्रज्ञ शिष्य" गुरुकुलवास से बाहर न निकले। ५.जे ठाणो या सयणासणे या परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते । समितोसु गुत्तीसु य आयपण्णे वियागरेंते य पुढो वएज्जा ॥ यः स्थानतश्च शयनासनयोश्च, पराक्रमे चापि सुसाधुयुक्तः । समितिषु गुप्तिषु च आत्मप्रज्ञः, व्याकुवंश्च पृथग वदेत् ॥ ५. स्थान, शयन, आसन और प्रत्येक चेष्टा में जो सु-साधुओं से युक्त तथा समितियों और गुप्तियों में आत्मप्रज्ञ" होता है वह (दूसरों को) कहता है तो बहुत अच्छे ढंग से कह सकता है। Jain Education Intemational Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयगडो १ ५६० प्र० १४ : ग्रन्थ : श्लोक ६-११ ६. सहाणि सोच्चा अदु भेरवाणि अणासवे तेसु परिव्वएज्जा । णिदं च भिक्खू ण पमाय कुज्जा कहं कहं वी वितिगिच्छ तिण्णे ॥ शब्दान् श्रुत्वा अथ भैरवान्, अनाश्रवः तेषु परिव्रजेत् । निद्रां च भिक्षुः न प्रमादं कुर्यात्, कथं कथं अपि विचिकित्सां तीर्णः ।। ६. मुनि प्रशंसा या कठोर शब्दों को सुन कर उनके प्रति मध्यस्थ रहता हुआ परिव्रजन करे । भिक्षु निद्रा-प्रमाद न करे । 'कैसे होगा ?' 'कसे होगा?'-" इस प्रकार की विचिकित्सा को तर जाए। ७. डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु रातिणिएणाऽवि समन्वएणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे णिज्जंतए वावि अपारए से॥ दहरेण वृद्धेन अनुशासितस्तु, रालिकेनापि समव्रतेन । सम्यक् तक स्थिरतः नाभिगच्छेद्, नीयमानो वापि अपारगः सः ।। ७. (जन्म-पर्याय से) छोटे-बड़े तथा (दीक्षापर्याय से) छोटे-बड़े २९, रात्निक' या सह-दीक्षित के द्वारा अनुशासित होने पर जो उस अनुशासन को भली भांति स्थिर रूप में" (भूल को पुनः न दोहराने की दृष्टि से) स्वीकार नहीं करता वह संसार के पार ले जाया जाता हुआ भी उसका पार नहीं पा सकता।" ८. विउट्टितेणं समयाणु सिठे डहरेण वुड्ढेण ऽणुसासिते तु । अब्भुट्टिताए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिढें ॥ व्युत्थितेन समयानुशिष्टः, दहरेण वृद्धेन अनुशासितस्तु । अभ्युत्थितया घटदास्या वा, अगारिणा वा समयानुशिष्टः ॥ ८. किसी शिथिलाचारी व्यक्ति के द्वारा समय (धार्मिक सिद्धांत) के अनुसार, किसी छोटे या बड़े के द्वारा, किसी पतित घटदासी के द्वारा अथवा किसी गृहस्थ के द्वारा समय (सामाजिक सिद्धांत) के अनुसार अनुशासित होने पर - ६. उन (अनुशासन करने वालों) पर क्रोध न करे", उन्हें चोट न पहुंचाए, कठोर वचन न कहे, 'अब मैं वैसा करूंगा', 'यह मेरे लिए श्रेय है"-ऐसा स्वीकार कर फिर प्रमाद न करे। ६.ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेज्जा ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा ॥ न तेषु क्रुध्येत् न च प्रव्यथयेत्, न चापि किञ्चित् परुषं वदेत् । तथा करिष्यामि इति प्रतिशृणुयात्, श्रेयः खलु ममैतद् न प्रमादं कुर्यात् ॥ १०.वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणा वि मज्झं इणमेव सेयं जं मे बुधा सम्मऽणसासयंति ॥ बने मूढस्य यथा अमूढाः, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तेनापि मम इदमेव श्रेयः, यद् मे बुधाः सम्यग् अनुशासति ॥ ११.अह तेण मूढेण अमूढगस्स कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । एतोवमं तत्थ उदाहु वीरे अणुगम्म अत्थं उवणेइ सम्मं ॥ अथ तेन मुढेन अमूढकस्य, कर्तव्या पूजा सविशेषयुक्ता । एतां उपमां तत्र उदाह वीरः, अनुगम्य अर्थ उपनयति सम्यक् ।। १०. जैसे वन में दिग्मूढ व्यक्ति को अमूढ व्यक्ति" सर्व-हितकर मार्ग दिखलाते हैं।" और वह दिग्मूढ व्यक्ति (सोचता है) जो अमूढ पुरुष मुझे सही मार्ग बता रहे हैं, वही मेरे लिए श्रेय है। ११. (गन्तव्य-स्थल प्राप्त होने पर) उस दिग्मूढ व्यक्ति के द्वारा अमूढ (पथदर्शक) पुरुष की कुछ विशेषता सहित पूजा करणीय होती है। महावीर ने" इस प्रसंग में यह उपमा कही है । इसके अर्थ को समझकर मुनि इसका भलीभांति उपनय करता है-अपने पर घटित करता है।" Jain Education Intemational Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १२. णेता जहा अंधकारंसि राओ मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । से सुरियस्सा अनुगमेणं मग्गं विमाणाति पगासितंसि ॥ १३. एवं सेहे व अपुट्ठधम्मे धम्मं ण जाणाति अनुभमाणे । से कोविए निणययणेण पच्छा सूरोदए पासइ चक्खुणेव ॥ १४. आहे पं तिरियं दिसासु तसा य जे थावर जे य पाणा । सया जए तेसु परिव्वज्जा मणप्पओसं अविकपमाणे || १५. काले पुच्छे समियं पयासु आइलमाणो ववियस्स वित्तं । तं सोयकारी व पुढो पवेसे संखाइमं केवलियं समाहिं ॥ १६. अस्स सुठिच्चातिविहेण तायी एएम या संति णिरोधमाह । ते एवमक्वंति तिलोगवंसी ण मुक्तमेतं ति पमायसंगं ॥ १७. जिसम्म से भिक्खु समीहमट्ठ पडिभाणवं होति विसारदे य । आदाणमट्टी वोदाण-मोणं उवेच्च सुण उबेइ मोक्खं ॥ नेता मार्ग स मार्ग ५६१ यथा न अन्धकारे रात्रौ जानाति अपश्यन् । सूर्यस्य अभ्युद्गमने, विजानाति प्रकाशिते ॥ अष्टधर्मा एवं तु सेोऽपि धर्म न जानाति अनुध्यमानः । स कोविदः जिनवचनेन पश्चात् सूरोदये पश्यति चक्षषेव ॥ ऊर्ध्वं अधश्च तिर्यग दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावराः ये च प्राणाः । सदा यतः तेषु परिव्रजेत् मनः प्रदोषं अविकल्पमानः || कालेन पृच्छेत् सम्यक् प्रजासु, आचक्षाणं द्रव्यस्य वित्तम् । तं श्रोतः का च पृथक् प्रवेशयेत्, संख्याय इमं कैवलिकं समाधिम् ॥ अस्मिन् सुस्थित्य विविधेन तादृग्, एतेषु च शान्ति निरोधमा । ते एवमाख्यान्ति त्रिलोकदर्शिनः न भूयः एवं एति प्रमादसंगम् ।। निशम्य स भिक्षुः समोदय अर्थ, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्य । आदानार्थी व्यवदान मौनं उपेत्य शुद्धेन उपेति मोक्षम् ।। श्र० १४ : ग्रन्थ : श्लोक १२-१७ १२. जैसे नेता (चलने वाला) रात के अंधकार में नहीं देखता हुआ मार्ग को नहीं जानता ", वह सूर्य के उगने पर प्रकाश में मार्ग को जान लेता हैं १३. इसी प्रकार अपुष्ट-धर्म वाला" शैक्ष, अज्ञानी होने के कारण, धर्मं को नहीं जानता। वह जिन प्रवचन के द्वारा ज्ञानी" होकर धर्म को जान लेता है, जैसे नेता सूरज के उगने पर चक्षु के द्वारा मार्ग को देख लेता है । १४. ऊंची, नीची ओर तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उनके प्रति सदा संयम करता हुआ परिव्रजन करे, मानसिक प्रद्वेष का विकल्प न करे । *c ४७ १५. प्रजा के बीच में मुनि के वित्त ( ज्ञान आदि) की व्याख्या करने वाले आचार्य से, समय पर विनयावनत हो" पूर्ण समाधि के विषय में पूछे, उसे ग्रहण करे और इस पूर्ण या केवली - सबंधी समाधि को जानकर उसे विस्तार से अपने हृदय में स्थापित करे । १६. सा मुनि धर्म समाधि और मार्ग की" आराधनापूर्वक गुरुकुल-वास में सम्यम्-स्थित होकर इस धर्म समाधि और मार्ग) में प्रवृत्त होता है, उससे ( चित्त की ) " शान्ति और निरोध होता है । त्रिलोकदर्शी तीर्थंकर"" ऐसा कहते हैं कि वैसा मुनि फिर प्रमाद में लिप्त नहीं होता । १७. वह भिक्षु अर्थ को मुग, उसकी समीक्षा कर प्रतिभावा" और विशारद हो जाता है। वह आदान (ज्ञान आदि ) का अर्थी बना हुआ, तपस्या" और संयम" को प्राप्त कर शुद्ध ( धर्म, समाधि और मार्ग ) के द्वारा मोश को प्राप्त होता है । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ १८. संखाए धम्मं च वियागरंति बुद्धा हु से अंतकरा भवति । ते पारगा दोण्ह विमोयणाए संसोधि मुदाहरति ॥ १६. जो छाए णो वि व लूसएग्जा माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण याविपणे परिहास कुज्जा ण याऽसिसाबाद वियागरेजा ।। २०. भूयाभिसंकाए दुगु छमाणे ण णिव्यहे मंतपण गोयं । ण किचि मिच्छे मणुए पयासु असाधम्माणि ण संवएज्जा ॥ २१. हासं पि णो संधए पावधम्मे ओए तहियं फरुसं वियाणे । णो तुच्छए णो य विकत्थएज्जा अणाइले या अक्साइ भिक्खू ॥ २२. संकेज्ज या siकितभाव भिक्खू विभज्जयायं च वियामरेज्जा । भासादुगं धम्मसमुद्धतेहि वियागरेज्जा समयाऽापणे ॥ २३. अगच्छमाणे विहं ऽभिजाणे तह तहा साह अकक्कसेणं । ण करबई भास विहिंसएग्जा णिरुद्ध वावि ण बीहएन्ना ॥ ५६२ संख्याय धर्म बुद्धाः खल ते ते पारगाः संशोधितं च व्याकुर्वन्ति अन्तकरा भवन्ति । द्वयोविमोचनाय प्रश्नमुदाहरन्ति ॥ नो छादयेद् नो अपि च लूषयेत्, मानं न सेवेत प्रकाशनं च । न चापि प्राज्ञः परिहासं कुर्यात्, आशीर्वादं व्याकुर्यात् ॥ न च भूताभिशंकया जुगुप्समान, न निर्वहे मंत्रपदेन गोत्रम् । न किञ्चिद् इच्छेद् मनुजः प्रजासु असापुधर्मान् न संवदेत् ॥ हासमपि नो संधत्ते पापधर्मे, ओजा तथ्यं परुषं विजानीयात् । नो तुच्छयेद् नो च विकत्थयेत्, अनाविलश्च अकषायी भिक्षुः ॥ शंकेत विभज्यवाद भाषाद्विकं व्याकुर्यात् च अशंकितभावो भिक्षुः, च व्याकुर्यात् । धर्मसमुत्थितैः समया आशुप्रज्ञः ।। " अनुगच्छन् वितथमभिजानाति, तथा तथा साधु अकर्कशेन । न कुत्रचिद् भाषां विहिन्स्यात्, निरुद्धक वापि न दीर्घयेत् ॥ अ० १४ ग्रन्थ श्लोक १८-२३ १८. जो आचार्य " ( क्षेत्र, काल, पुरुष और सामर्थ्य को ) जानकर " धर्म का प्रतिपादन करते हैं वे (शिष्यों के संदेहों का अन्त करने वाले होते हैं ।" वे श्रुत के पारगामी आचार्य" अपने और शिष्य के (संदेह ) विमोचन के लिए संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं । " १६. प्रज्ञावान् न अर्थ को छिपाए ", न अपसिद्धान्त का निरूपण करे, न अभिमान करे, न अपना ख्यापन करे, ( सही न समझने वाले का ) परिहास" न करे और (तुष्ट होकर) होकर ) आशीवंचन (प्रवचन) क २०. जीव- वध की आशंका से जुगुप्सा करता हुआ मंत्र पद के द्वारा" सयम जीवन का निर्वाहन करे । प्रजा में प्रवचन करता हुआ वह प्रवचनकार कुछ भी (यश, कीति आदि की ) इच्छा न करे और असाधु-धर्मों का सवाद न करे । २१. निर्मल और प्रशान्त भिक्षु पाप-धर्म ( असाधु-धर्म ) की स्थापना करने वालों का परिहास न करे।" तटस्थ रहे।" सत्य कठोर होता है, इसे जाने । " न अपनी तुच्छता प्रदर्शित करे" और न अपनी प्रशंसा करे । २२. भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे ।" प्रतिपादन में विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का " प्रयोग करे। आशुप्रज्ञ मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषों के साथ" बिहार करता हुआ दो भाषाओं" (सत्य भाषा और व्यवहार भाषा) का समतापूर्वक " प्रयोग करे । २३. (बक्ता के वचन को कोई श्रोता पदार्थ रूप में जान लेता है और कोई उसे यथार्थ रूप में नहीं जान पाता ।" उस ( मंदमति) को वैसे-वैसे ( हेतु दृष्टांत आदि के द्वारा) भली-भांति समझाए किन्तु कर्कश वचन का प्रयोग न करे।" कहीं भी उसकी भाषा की हिंसा ( तिरस्कार ) न करे ।" शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए । “ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र०१४ : ग्रन्थ : श्लोक २४-२७ सूयगडो १ २४.समालवेज्जा पडिपुण्णभासी णिसामिया समियाअट्ठदंसी । आणाए सिद्धं वयणं भिजुजे अभिसंधए पावविवेग भिक्खू ॥ ५६३ समालपेत् प्रतिपूर्णभाषी, निशम्य सम्यग् अर्थदर्शी । आज्ञया सिद्धं वचनं अभियुञ्जीत, अभिसंधत्ते पापविवेक भिक्षः ।। २५.अहाबुइयाइं सुसिक्खएज्जा जएज्ज या णाइवेलं वएज्जा। से दिद्विमं दिट्टि ण लसएज्जा से जाणइ भासिउं तं समाहि॥ यथोक्तानि सुशिक्षेत, यतेत च नातिवेलं वदेत् । स दृष्टिमान् दृष्टि न लूषयेत्, स जानाति भाषितुं तं समाधिम् ।। २४. आचार्य के पास सुनकर भलीभांति अर्थ को देखने वाला भिक्षु संगत बात कहे," अर्थपूर्ण और अस्खलित वचन बोले," आज्ञा-सिद्ध वचन का प्रयोग करें और पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे। २५. यथोक्त वचन को" सम्यक् प्रकार से सीखे, उसे क्रियान्वित करे और मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले।" वह दृष्टिमान् भिक्षु दृष्टि को खंडित या दूषित न करे ।" ऐसा भिक्षु ही उस कवलिक समाधि को कहने की विधि जान सकता है। २६. सिद्धांत को यथार्थरूप में प्रस्तुत करे, (अपरिणत को) रहस्य न बताए," सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे। शास्ता की भक्ति और परम्परा के अनुसार वाद (सिद्धान्त) और श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे। २६.अल्सए णो पच्छण्णभासी णो सुत्तमत्थं च करेज्ज अण्णं । सत्थारभत्तो अणवीचि वायं सुयं च सम्म पडिवादएज्जा ॥ अलूषकः नो प्रच्छन्नभाषी, नो सूत्रमर्थं च कुर्याद् अन्यम् । शास्तृभक्तिः अनुवीचि वादं, श्रतं च सम्यक् प्रतिपादयेत् ॥ २७.से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च धम्मं च जे विदति तत्य तत्थ । आएज्जवक्के कुसले वियत्ते से अरिहइ भासिउं तं समाहि ॥ स शुद्धसूत्रः उपधानवांश्च, धर्म च यो विन्दति तत्र तत्र । आदेयवाक्यः कुशलः व्यक्तः, स अर्हति भाषितुं तं समाधिम् ॥ २७. जो सूत्र का शुद्ध उच्चारण करता है," तपस्वी है," धर्म को विविध दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है, जिसका वचन लोकमान्य होता है, जो कुशल (आत्मज्ञ) है और व्यक्त (परिणत) है, वह (ग्रन्थी या शास्त्रज्ञ भिक्षु) उस कैवलिक समाधि का प्रतिपादन कर सकता है। -ऐसा मैं कहता हूं। -ति बेमि॥ -इति ब्रवीमि॥ Jain Education Intemational Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: प्रध्ययन १४ श्लोक १: १. प्रन्थ (परिग्रह) को (गंथं) ग्रन्थ का अर्थ है-आत्मा को बांधने वाला तत्त्व ।' चूर्णिकार के अनुसार ग्रंथ के दो प्रकार हैं- द्रव्य-ग्रन्थ और भाव-ग्रन्थ । द्रव्य-ग्रन्थ सावध होता है। भाव ग्रन्थ के दो प्रकार हैं प्रशस्तभावग्रन्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । अप्रशस्तभावग्रन्थ-प्राणातिपात आदि तथा मिथ्यात्व आदि । २. प्रवजित हो गुरुकुलवास में रहे (उढाय सुबंभचेरं) उत्थाय का अर्थ है-सम्यग् अनुष्ठान को स्वीकार करने के लिए उठकर अर्थात् प्रबजित होकर ।' सुब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं१. सुचारित्र । २. नौ गुप्तियुक्त मैथुन-विरति । ३. गुरुकुलवास । सुत्रकृतांग २१५१ में 'बंभचेरं' की व्याख्या में चूर्णिकार ने आचार, आचरण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्य को एकार्थक माना है।' ३. विनय का (विणयं) विनय के अनेक अर्थ हैं१. भाषा का शुद्ध प्रयोग। २. आचार । ३. विनय । यहां विनय का अर्थ है-आचार । शिष्य गुरु के प्रत्येक वचन को सम्यक् रूप से ग्रहण करे और उससे भावित होकर उसको १. वृत्ति, पत्र २४८ : प्रथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थः । २. चूणि, पृ० २२७,२२८ । ३. चूणि, पृ० २२८ : उत्थायेति प्रव्रज्य। ४. (क) चूणि, पृ० २२८ : सोमणं बंभचेरं वसेज्जा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनं बंभचेरं वुच्चति, गुरुपादमूले जावज्जीवाए जाव मभुज्जतविहारं ण पडिवज्जति ताव वसे । (ख) वृत्ति, पत्र २४८ । ५. सूयगडो २०५१, चूणि, पृ०४०३ : आचारोत्ति वाऽऽचरणंति वा संवरोत्ति वा संजमोत्ति वा बंभचेति वा एगहूँ। ६. (क) दसवेआलियं, ७१, जिनदासचूणि पृ० २४४ : जं भासमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विणयो मण्णइ । (ख) वही, हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र २१३ : विनयं शुद्धप्रयोगम् । ७. दसवेआलियं, २१:धम्मस्स विणो मूलं । Jain Education Intemational Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ कार्य रूप में परिणत करे । ' 'विनय' शब्द के विविध अर्थों के लिए देखें १. दसवे आलियं - ७।१ टिप्पण, पृष्ठ ३४६ । ११ टिप्पण, पृष्ठ ४२५, ४३० । ५६५ ४. ( जे छेए ... ) संयम का पालन करता हुआ निपुण मुनि संयम या आचार्य के उपदेश में किसी भी प्रकार के प्रमाद का प्रमाद का अर्थ है - संयम में अनुद्यम । विप्रमाद का अर्थ है - जैसा कहना वैसा करना। वही मुनि निपुण होता है है वैसा ही करता है । ५. ढंक आदि ( ढंकावि ) जैसे रोगी चतुर वैद्य के निर्देश का पालन करता हुआ रोगमुक्त होकर शांति और श्लाघा को प्राप्त करता है, वैसे ही साधु भी सावद्य ग्रन्थों को छोड़कर पापकर्म को दूर करने वाली औषधि रूप प्रशस्तभावग्रन्थ या आचार्य वचनों को स्वीकार कर कर्मरूपी रोग को शान्त करता है। इससे दूसरे साधुओं में उसकी प्रशंसा भी होती है और अशेष कर्मक्षय भी होता है।' देखें - १।६२ का १२० वां टिप्पण | अध्ययन १४ टिप्पण ४-६ श्लोक २ : सेवन न करे । जो जैसा कहता ६. (डंकादि हरेना) उस पंखहीन शिशु को ढंक आदि उठाकर ले जाते हैं। चूर्णिकार ने आदि शब्द से निम्न सूचनाएं दी हैं-चींटियां उसे खा डालती हैं, दूसरे पक्षी उसे मार डालते हैं, बच्चे उसे डराते हैं अथवा कौआ उसे उठाकर ले जाता है ।" इस श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि जो मुनि एकलविहार प्रतिमा की साधना के लिए योग्य नहीं होता, गच्छ में कोई भी मुनि उसे एकलविहार प्रतिमा स्वीकार नहीं करवाता क्योंकि वह अभी तक उतने शास्त्रों को नहीं पढ़ पाया है जितने शास्त्र उसको पढ़ने चाहिए थे, तब वह आचार्य के उपदेश के बिना भी स्वच्छन्दता से गच्छ से बहिर्गमन कर एकलविहारी बन जाता है, तब वह अनेक दोषों का सेवन करने वाला होता है। वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे पंखहीन पक्षी का बच्चा घोंसले से निकल कर उड़ने की चेष्टा करने पर दूसरों द्वारा मार दिया जाता है।" १. वृत्ति, पत्र २४८ : विनीयते—अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठु शिक्षेद् - विदध्यात् ग्रहणसेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालये । दिति २. (क) पूर्णि, पृ० २२० देशविप्रमादं प्रमादो नाम अनुद्यमः (विप्रमादः यथोक्तकरणम वचातुरः सम्यग्वेोक्यातकारी शांति लभते एवं साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानीयेन प्रशस्त भावग्रन्थेन कर्मामयशांति लभते । (ख) वृत्ति, पत्र २४८ : 'छेको' – निपुणः स संयमानुष्ठाने सवाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्याद्, यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन्ालते रोगोपशमं च एवं साधुरपि साम्यपरिहारी पापकर्मजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि विसायः साधुकारमशेषकर्मशयं चायानोतीति । ३. चूर्ण, पृ० २२८ : ढङ्क पंखी, ढङ्क आदिर्येषां ते भवति ढंकादिणो अन्यतराः, अव्यक्तगम इति अपर्याप्तः, हरेज्ज वा पिवीलिकाओ व णं खाएज्जा, मारेज्ज वा णं चेडरूवाणि धाडेज्ज वा अपि कानेनापि हियते । ४. (क) पूर्णि, पृ० २२० जो पुन एलविहारपडिमाए अपनतो, पम्म के रिले अविदिणि (?) जिगच्छेति महोदधी हा मासी तीर्थंकराविभित्तिः तत्व दादोसा भवति । , (ख) वृत्ति पत्र २४६ यः पुनराचार्योपदेशमन्तरेण स्वन्यतयागादित्य एकाकिविहारितां प्रतिपद्यते स च बहुरोपचा भवति ....... व्यापादयेयुरिति । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । प्रध्ययन : १४ टिप्पण ७-११ श्लोक ३: ७. अपुष्ट धर्म वाला (अपुट्ठधम्मे) चूर्णिकार ने इसको 'अस्पृष्टधर्मा' मानकर इसका अर्थ-अगीतार्थ किया है।' वृत्तिकार ने अपुष्टधर्मा का अर्थ-सूत्र और अर्थ से अनिष्पन्न-अगीतार्थ तथा ऐसा व्यक्ति जिसमें धर्म का परमार्थ सम्यक् रूप से परिणत नहीं हुआ है-किया है। इसी अध्ययन के तेरहवें श्लोक में भी इस शब्द का यही अर्थ किया है।' ८. चारित्र को (सिम) चूणिकार ने इसका अर्थ चारित्र किया है।' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ 'वश्य' और वैकल्पिक अर्थ चारित्र माना है।' देखें-सूयगडो ८।२० में 'वुसीमओ' का टिप्पण । ६. पाप धर्म वाले (पावधम्मा) ___ जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि वाले और अविरत हैं, वे पाप धर्म वाले होते हैं । चूर्णिकार ने ३६३ प्रावादुकों को इसके अन्तर्गत माना है। वृत्तिकार के अनुसार सभी कुतीथिक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय से कलुषित होते हैं । वे सभी पापधर्मा कहलाते हैं। १०. हर लेते हैं (हरिसु) पाखण्डी व्यक्ति अगीतार्थ मुनि के पास आकर उसको पथच्युत करने के लिए कहते हैं-'देखो, तुम्हारे जैन दर्शन में अग्निप्रज्वालन, विषापहार, चोटी कटाना आदि के विषय में कोई विश्वास नहीं है। अणिमा, लघिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियां भी नहीं हैं। तुम्हारा मत न राजा आदि विशिष्ट पुरुषों के द्वारा आश्रित ही है। तुम्हारे आगमों में जो अहिंसा का विधान है वह दुःसाध्य है, क्योंकि समूचा लोक जीवों से आकुल है, व्याप्त है । तुम्हारे मत में स्नान आदि का विधान भी नहीं है । उसमें शौच के लिए कोई स्थान नहीं है।' स्वजन, बन्धु-बान्धव आकर उस अगीतार्थ मुनि को कहते हैं- 'आयुष्मन् ! तुम ही हमारे आधार हो, तुम्हारे बिना हमारा पोषण करने वाला दूसरा कोई नहीं है । तुम ही हमारे सर्वस्व हो। तुम्हारे बिना सारा संसार सूना है।' इसी प्रकार स्त्रियां आकर उसे भोग का निमन्त्रण देती हैं और विविध प्रकार से उसे संयमच्युत करने का प्रयत्न करती हैं। श्लोक ४: ११. गुरुकुलवास में (ओसाणं) चूर्णिकार ने 'अवसान' के दो अर्थ किए हैं-जीवनपर्यन्त अथवा गुरुकुलवास ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ गुरुकुलवास १. चूणि पृ० २२८ : न स्पृष्टो येन धर्मः स भवति अपुट्ठधम्मे, अगीतार्थ इत्यर्थः । २ (क) वृत्ति, पत्र २४६ : सूत्रनिष्पन्नमगीतार्थम् 'अपुष्टधर्माण'–सम्यगपरिणतधर्मपरमार्थम् । (ख) सूयगडो १४.१३, वृत्ति पत्र २५३ : अपुदुधम्मे ... "सूत्रार्थानिष्पन्न: अपुष्टः-अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातः । ३ चूणि, पृ० २२८ : वुसिमं णाम चारित्रं । ४. वृत्ति, पत्र २४६ :..."वश्यम् ....."यदि वा 'बुसिम' त्ति चारित्रम् । ५ चूणि, पृ० २१८ : पापो येषां धर्म:-मिथ्यादर्शनं अविरतिश्च ते पापधर्माः भिक्षुकादीनि तिण्णि तिसट्ठाणि पावादियसताणि । ६. वृत्ति, पत्र २४६ : पापधर्माणो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायकलुषितान्तरात्मानः कुतीथिकाः । ७. वृत्ति, पत्र २४६ । ८ चूणि पृ० २२६ : ओसाणमित्यवसानं जीवितावसानमित्यर्थः, अथवा ओसाणमिति स्थानमेव गुरुपादमूले । उक्त हि-आसवपवमोसाणं मल्लिस्स मणोरमे चेव । Jain Education Intemational Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ मध्ययन १४ : टिप्पण १२-१३ किया है। आचार्य के निकट रहना गुरुकुलवास है। जो मुनि अन्यत्र रहता हुआ भी गुरु के निर्देशों का पालन करता है वह भी गुरुकुलवासी माना जाता है। जो गुरु के अत्यन्त निकट रहकर भी उनके निर्देशों का पालन नहीं करता, व गुरु के निकट नहीं है, दूर है। वह गुरुकुलवास में नहीं है । गुरु के कालगत हो जाने पर वह किसी अन्य गीतार्थ के पास चला जाए।' १२. साधु (मणुए) यहां मनुज शब्द साधु के अर्थ में प्रयुक्त है।' चूर्णिकार का अभिमत है कि जब तक मनुष्यत्व (मनुज-पर्याय) हो तब तक मुनि गुरुकुलवास में रहे।' वृत्तिकार का मानना है कि वही वास्तव में मनुा है जो आनी प्रतिज्ञा का यथार्थ निर्वाह करता है। प्रतिज्ञा का यथार्थ निर्वाह गुरु के निकट रहकर समाधि का पालन करने वाला ही कर सकता है।' १३. (अणोसिते णंतकरे ति णच्चा) - 'अणोसिते' का संस्कृत रूप है -अनुषितः । इसका अर्थ है-जो गुरुकुलवास में नहीं रहता, जो अव्यवस्थित है, स्वच्छन्दाचारी है। जो मुनि गुरुकुल वास में नहीं रहता वह भव-संसार का अन्त नहीं कर सकता । वृत्तिकार के अनुसार जो स्वच्छन्दविहारी होता है, वह समाधि या यथाप्रतिज्ञात कार्य का पार पाने वाला नहीं होता।' चूणिकार तथा वृत्तिकार ने यहां 'वालुंक वैद्य' के दृष्टान्त की सूचना दी है। वह इस प्रकार है राजघराने में एक वैद्य था। वह मर गया। राजा ने लोगों से पूछा-क्या उसके कोई पुत्र था या नहीं। लोगों ने कहाएक पुत्र है, परन्तु वह अशिक्षित है । राजा ने उसे बुलाकर कहा-जाओ, विद्या का अध्ययन करो। राजा की आज्ञा पाकर वह अन्यत्र गया और एक वैद्य के पास विद्या-अध्ययन करने लगा। एक बार एक व्यक्ति अपनी बकरी लेकर वैद्य के पास आया। उसके गले में कुछ फंस गया था। गला सूज गया । वैद्य ने पूछा-यह कहां चर रही थी ? उसने कहा-अमुक स्थान पर । वैद्य ने जान लिया कि इसके गले में 'ककड़ी' फंस गई है । वैद्य ने बकरी के गले पर एक कपड़ा बाधा और जोर से मरोड़ा, ककड़ी टूट गई वह गले से बाहर आकर गिर पड़ी। बकरी स्वस्थ हो गई। उस वैद्यपुत्र विद्यार्थी ने यह देखा । उसने जान लिया कि यही वैद्य-क्रिया है, वैद्यक रहस्य है । वह वहां से चला और राजा के पास आ गया । राजा ने कहा-'वैद्य-विद्या का अध्ययन कर लिया? उसने कहा-हां । राजा ने कहा-बहुत शीघ्रता से तुमने ज्ञान कर लिया । तुम मेधावी हो । राजा ने उसका सत्कार किया। एक बार रानी के गले में गांठ (गलगंड) उठी । उस वैद्यपुत्र को बुला भेजा । उसने गले की गांठ देखी। अपने शिक्षक वैद्य की बात उसे स्मृत हो आई। उसने रानी के गले में कपड़ा बांधा और जोर से मरोड़ा। रानी मर गई। तब राजा ने दूसरे वैद्यों से पूछा-क्या इसने शास्त्र के अनुसार चिकित्सा की है अथवा अशास्त्र के अनुसार ? वैद्यों ने कहा-अशास्त्र के अनुसार । राजा ने उसे शारीरिक दण्ड देकर विसर्जित किया, निकाल दिया। १. वृत्ति, पत्र २४६ : अवसानं-गुरोरन्तिके स्थान। २. चणि पृ० २०३ : अन्यत्रापि हि वसन् जो गुरुणिदेशं वहति स गुरुकुलवासमेव वसति, अनिर्देशवर्ती तु सन्निकृष्टोऽपि दूरस्थ एव, लोकेऽपि सिद्धा प्रत्यक्ष-परोक्षा सेवा। आह च-"कामक्रोधावनिजित्य, किमारण्यं करिष्यसि ? कालगतेऽपि गुरो असहायेन गीतार्थेन चान्यत्र गन्तव्यम् । ३. वृत्ति, पत्र २४६ : मनुजो मनुष्य साधुरित्यर्थः । ४. चूणि, पृ० २२६ : मनुष्य इति यावन्मनुष्यत्वमस्य तावदिच्छति वसितुं । ५. वत्ति, पत्र २४९ : स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति, तच्च सदा गुरोरन्तिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधि मनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथा । ६. (क) चूणि, पृ० २२६ : ण उषितः गुरुकुलेहि अनुषितः । (ख) वृत्ति, पत्र २४६ : गुरोरन्तिके 'अनुषितः'–अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी । ७. वृत्ति, पत्र २४६: समाधेः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्य वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसतंव्यः । ८. वृहत्कल्पमाष्य गाथा ३७६, पृ० १११, ११२ । Jain Education Intemational Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ मध्ययन १४ : टिप्पण १४-१८ १४. साधु के (दवियस्स) चूर्णिकार ने इसको तीर्थंकर का वाचक माना है।' वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. मुक्तिगमन योग्य साधु । २. रागद्वेष रहित व्यक्ति । ३. सर्वज्ञ । १५. वित्त (या वृत्त) पर (वित्तं) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं-वित्त या वृत्त । वित्त का अर्थ है-ज्ञान । इसका वैकल्पिक अर्थ है -ज्ञान, दर्शन और चारित्र । वृत्त का अर्थ है-अनुष्ठान ।' इस पूरे चरण का तात्पर्य यह होगा जो मुनि आचार्य के पास रहता है, आचार्य समय-समय पर उसके ज्ञान-दर्शन और चारित्र को प्रकाशित करते हैं। वह मुनि वादी है, धर्मकथी है, विशुद्ध चारित्र वाला है या तपस्वी है-इसको प्रकाशित करते हैं, उसे इस ओर बढ़ने में प्रेरित करते हैं । जब मुनि इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर पथ-च्युत होने लगता है या कषाय के वशीभूत हो जाता है तब आचार्य उस पर अनुशासन करते हुए कहते हैं-ऐसा मत करो।' १६. अनुशासन करता है (ओभासमाणे) चूर्णिकार ने 'अवभाष' के दो अर्थ किए है-प्रकाशित करना, अनुशासन करना।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-उद्भासित करता हुआ, अनुष्ठान का सम्यग् पालन करता हुआ-किया है।" १७. आशुप्रज्ञ शिष्य (आसुपण्णो) इसका अर्थ है-शीघ्र प्रज्ञा वाला अर्थात् प्रतिक्षण जागरूक ।' प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के ५११ में आशुप्रज्ञ शब्द प्रयुक्त है। वहां चूर्णिकार ने इसका अर्थ-केवली, तीर्थंकर' और वृत्तिकार ने पटुप्रज्ञा वाला, सदसद्विवेकज्ञ किया है।" ___ साधना की दृष्टि से प्रतिक्षण जागरूक व्यक्ति आशुप्रज्ञ होता है। यह अप्रमत्त अवस्था का सूचक है । तात्पर्य में यह वीतराग अवस्था का द्योतक है। श्लोक ५: १६. श्लोक ५: चूणिकार ने प्रस्तुत श्लोक को छठा श्लोक और छठे श्लोक को पांचवा श्लोक मानकर व्याख्या की है। १. चूणि, पृ० २२६ : ववियस्स ...'णाम द्वेषरहितत्वात् तीर्थकर एव भगवान् । २ वृत्ति, पत्र २५० : द्रव्यस्य ---मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य वा । ३ चूणि, पृ० २२६ : ज्ञानधना हि साधवः इति कृत्वा वित्तं ज्ञानमेव, ज्ञानवर्शनचारित्राणि वा। ४. वृति, पत्र २५० : वृत्तम् अनुष्ठानम् । ५. चूणि, पृ० २२६ । ६. चूणि, पृ० २२६ : ... " 'प्रकाशयति-वादी वा धम्मकथी वा विशुद्धचरित्रो वा तपस्वी वा। ७. वृत्ति, पत्र २५० : 'अवभासयन्'-उद्भासयन् सम्यगनुतिष्ठन् । ८ चूणि, पृ० २२६ : आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षण-लव-मुहूर्तप्रतिबुद्धयमानता। ६. चूणि, पृ० ४०३ : आसुपण्णे-आसु प्रज्ञा यस्य भवति स आसुप्रज्ञो, केवली तीर्थकर एव । १०. वृत्ति, पत्र ११६ : आशुप्रज्ञ: पटुप्रज्ञः सदसद्विवेकज्ञः । Jain Education Intemational Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगंडा १ अध्ययन १४ : टिप्पण १९-२१ चूणिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है जो मुनि स्थान का सम्यक् प्रतिलेखन और प्रमार्जन करता है, बिछौने पर सोते समय जागृत अवस्था में सोता है, आसन पर बैठते समय उन पीढ, फलक आदि का सम्यक प्रति लेखन करता है और आसनों को कब ग्रहण करना चाहिए, कब उनका उपभोग करना चाहिए-इसका विवेक रखता है, पांच प्रकार की निषद्याए'-पर्यकादि का उपभोग करता है तथा जो प्रत्येक प्रवृत्ति में संयत रहता है, वह सुसाधु युक्त (सुसाधु की क्रिया से युक्त) होता है।' वृत्तिकार के अनुसार इन दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है जो मुनि स्थान की दृष्टि से सदा गुरुकुलवास में रहता है तथा शयन, आसन, गमनागमन और तपश्चरण में पराक्रम करते समय उद्यतविहारी मुनियों के साथ रहता है वह सुसाधु युक्त होता है । वह मेरु पर्वत की भांति निष्प्रकम्प तथा शरीर से निःस्पृह होकर कायोत्सर्ग करता है । सोते समय वह शयनभूमी, बिछौना और शरीर का सम्यक् प्रतिलेखन करता है और गुरु की आज्ञा प्राप्त कर, गुरु द्वारा निर्दिष्ट समय में सोता है । सोते समय भी वह जागते हुए की भांति सोता है। आसन पर बैठते समय भी वह अपने शरीर को संकुचित और संयत कर, स्वाध्याय तथा ध्यान की मुद्रा में बैठता है।' १६. आत्मप्रज्ञ (आयपण्णे) चणिकार और वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'आगतप्रज्ञः' दिया है। इसका अर्थ है-प्रज्ञावान्, कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से युक्त ।' २०. बहुत अच्छे ढंग से (पुढो) चूर्णिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ फलित होते हैं१. विस्तार से। २. प्रत्येक को। ३. परस्पर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पृथक्-पृथक् रूप से अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है।' श्लोक ६: २१. मुनि प्रशंसा या कठोर शब्दों को सुनकर (सहाणि .. ......."भेरवाणि ।) शब्द दो प्रकार के होते हैं -मनोज्ञ और अमनोज्ञ, कर्णप्रिय और कर्णकटु । स्तुति, बन्दना, आशीर्वचन, निमंत्रण आदि के शब्द मनोज्ञ होते हैं । इसी प्रकार वेणु, वीणा आदि वाद्यों के शब्द भी कर्णप्रिय होते हैं । जो शब्द भय उत्पन्न करते हैं वे भैरव कहलाते हैं । वे अप्रिय होते हैं । इसी प्रकार खर, परुष और निष्ठुर शब्द भी अप्रिय होते हैं। १. ठाणं ५/५०। २. चूर्णि, पृ० २२६, २३० । ३. वृत्ति, पत्र २५०। ४. (क) चूणि, पृ० २३० : आगता प्रज्ञा यस्य स भवति आगतप्रज्ञः । (ख) वृत्ति, पत्र २५० : आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः-संजात-कर्तव्याकर्तव्यविवेकः स्वतो भवति । ५. चूणि, पृ० २३० : पुढो बिस्तरतः कथयति, पुढो-पतिचोदिज्ज स्वयम्,..."अथवा पुढो त्ति परस्परं चोदयति । ६. वृत्ति, पत्न २५० : ....''पृथक् पृथक् । ७. (क) चूणि, पृ० २२६ : वन्दन-स्तुत्याशीर्वाद-निमन्त्रणादीन् तयोपसेवनादीनि । ... "भयं कुर्वन्तीति भैरवाणि, तद्यथा-खर-फरस णिठ्ठर-भैरवादीनि । (ख) वृत्ति, पत्र २५० : शम्दान् वेणुवीगाविकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् " "मैरवान् -भयावहान् कर्णकटून् । Jain Education Intemational Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। अध्ययन १४ : टिप्पण २२-२७ २२. मध्यस्थ (अणासवे) आस्रव का अर्थ है-राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति । जो मध्यस्थ या राग-द्वेष रहित होता है वह अनाश्रव कहलाता है। शब्दों को अच्छे या बुरे रूप में ग्रहण करना आस्रवण है। इसके विपरीत जो शब्द आदि के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, उनके विषयों में मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है । चूर्णिकार ने 'अणासए' पाठ माना है । उसके संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं--अनाशय, अनाश्रय और अनाश्रव ।' २३. निद्रा (णिई) निद्रा प्रमाद का एक प्रकार है । भिक्षु दिन में सोकर नींद न ले। जिनकल्पी मुनि के लिए यह विधान है कि वह रात्री में भी दो प्रहर से ज्यादा नींद नहीं लेता। बहुत थोड़ी नींद लेने वाला भी शरीर-धारण के लिए नींद लेता है, क्योंकि नींद परम विश्राम है।' २४. कैसे होगा ? कैसे होगा? (कहं कह) क्या मैं अपनी प्रव्रज्या को जीवन भर नहीं निभा पाऊंगा? क्या मुझे समाधि-मरण प्राप्त नहीं होगा ? मैं जो साधना करता हूं उसका कुछ फल होगा या नहीं? इस प्रकार का चिन्तन करना।' २५. विचिकित्सा को (वितिगिच्छ) विचिकित्सा का सामान्य अर्थ है-संदेह, शंका । साधक अपनी साधना के प्रति संदेहशील न रहे। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भी निःशंक रहे । वह यही माने-'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं ।' वह प्रवचन करते समय तथा अन्यकाल में भी इस सूत्र को याद रखे । वह ऐसा प्रवचन न करे जिससे दूसरों के मन में विचिकित्सा उत्पन्न हो। श्लोक ७ : २६ (जन्म-पर्याय से) छोटे-बड़े तया (दोक्षा-पर्याय से) छोटे-बड़े (डहरेण वुड्ढेण) ___ 'डहर' का अर्थ है छोटा और 'बुड्ढ' का अर्थ है बूढा । प्रस्तुत प्रसंग में दीक्षा-पर्याय और अवस्था की दृष्टि से छोटे-बड़े का उल्लेख किया गया है। चणिकार और वृत्तिकार ने 'डहर' के साथ जन्म-पर्याय और दीक्षा-पर्याय को जोड़ा है। चूर्णिकार ने वृद्ध के साथ अवस्था का और वृत्तिकार ने अवस्था और श्रुत-दोनों का संबंध जोड़ा है।' २७. रात्निक (रातिणिएण) ___'रानिक' का शाब्दिक अर्थ है -दीक्षा-पर्याय में बड़ा । चूणिकार ने आचार्य, दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ तथा प्रवर्तक, गणी, गणधर, गणावच्छेदक और स्थविर को 'रात्निक' शब्द के अन्तर्गत गिनाया है।' १. चूणि, पृ० २२६ । २. चूणि, पृ० २२६ : दिवसतो गणिहायति, रति पि दोहि जामे जिणकप्पो, एकान्तं पि तणुणिद्दो सरीरधारणार्थ स्वपिति, निद्रा हि परमं विधामणम् । ३.णि पृ० २२६ : कथं कथमिति, किमहं पव्वजण णित्थरेज्ज? समाधिमरणं ण लभेज ? अधवा कथं कथमिति सम्यगनुचीर्ण स्यास्य किं फलमस्ति नास्ति ? ४. चूणि पृ० २२६ । ५. (क) चूणि, पृ० २३० : डहरो जन्म-पर्यायाभ्याम् । (ख) वृत्ति, पत्र २५१ : वयः पर्यायाभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना । ६. (क) चूणि, पृ० २३० : वुड्डो वयसा । (ख) वृत्ति, पत्र २५१ : 'वृद्धेन वा' वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा। ७.णि, पृ० २३० : रायणिओ आयरिओ परियारण वा पवत्तगाईण वा पम्चानामन्यतमेन । Jain Education Intemational Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १४ : ठिप्पण २८-३६ वृत्तिकार ने दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि को 'रानिक' माना है।' देखें दसवेआलियं ९।३।३॥ २८. सह-दीक्षित के द्वारा (समव्वएण) - इसका अर्थ है-- दीक्षा-पर्याय अथवा अवस्था में समान । हमने इसका संस्कृत रूप 'समव्रतेन' और अर्थ सहदीक्षित किया है । चूणि और वृत्ति के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'समवयसा' होता है। 'समवयस्' का प्राकृत रूप 'समवय' होता है। यहां वकार का द्वित्वीकरण छन्द की दृष्टि से माना जाए तभी इसका 'समन्वय' रूप बन सकता है। रात्निक के संदर्भ में 'समन्वय' का अर्थ समव्रत अधिक संगत प्रतीत होता है। २६. स्थिर रूप में (थिरओ) इसका अर्थ है-प्रमाद के प्रति सावधान किए जाने पर प्रमाद पुनः न दोहराना।' ३०. (णिज्जंतए........... अपारए से) 'नीयमान' का अर्थ है-ले जाया जाता हुआ, अनुशासित किया जाता हुआ।" कोई व्यक्ति नदी की धारा में बहता जा रहा है। कोई उसे कहता है-'भाई ! तुम वेग से बहते हुए इस काठ का, सरकने के स्तंब का या वृक्ष की शाखा का मुहूर्त मात्र के लिए अवलंबन लो। तुम पानी में डूबने से बच कर पार पा जाओगे।' ऐसा कहने पर वह उस पर कुपित होता है और वैसा नहीं करता। वह व्यक्ति नदी में डूब कर मरता है, कभी उस पार नहीं जा पाता। इसी प्रकार प्रमादाचरण करने वाले मुनि को आचार्य बार-बार सावधान करते हैं और उसे मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु वह कषाय के वशीभूत होकर उनके उपदेश को स्वीकार नहीं करता। अथवा अन्य मुनियों द्वारा सावधान किए जाने पर वह अहं से परिपूर्ण होकर सोचता है-'ये छोटे और अल्पश्रुत मुनि भी मुझे सावधान कर रहे हैं।' ऐसा व्यक्ति कभी संसार का पार नहीं पा सकता। श्लोक ८: ३१. किसी शिथिलाचारी व्यक्ति के द्वारा समय (धार्मिक सिद्धान्त) के अनुसार (विउट्टितेणं समयाणुसि ) व्युत्थित का अर्थ है--संयम के प्रतिकूल आचरण करने वाला । व्युत्थान चित्त की चंचल अवस्था है। पातंजल योगदर्शन में व्युत्थान-संस्कार निरोधसं-स्कार का प्रतिपक्षी है । व्युत्थान धर्म की प्रधानता वाला व्युत्थित व्यक्ति संयम से विचलित हो जाता है, इसलिए उसकी संज्ञा व्युत्थित है। वह स्वतीथिक भी हो सकता है और परतीथिक भी। कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है। वह ईर्या-समिति का सम्यग् शोधन न करता हुआ त्वरित गति से चल रहा है। तब व्युस्थित व्यक्ति उसे कहता है-'मुने ! ऐसा चलना १. वृत्ति, पत्र २५१ : रत्नाधिकेन वा प्रव्रज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा । २. चूणि, पृ० २३० : समवयो परियारण वयसा वा। ३. (क) चूणि, पृ० २३०। (ख) वृत्ति, पत्र २५१ : समवयसा वा। ४. चूणि, पृ० २३० : थिरं नाम जं अपुणक्कारयाए अन्मुट्ठति । ५. वृत्ति, पत्र २५१ : नीयमानः'-उामानोऽनुशास्यमानः । ६. चूणि, पृ० २३० : यथा नदीपूरेण हियमाणः केनचिदुक्तः-इदं तुरकाष्ठं अवलम्बस्व शरस्तम्बं वृक्षशाखां वा मुहूर्तमानं चाऽस्मानं धारय, इत्युक्तो रुष्यति न वा करोति, यदुच्यते स हि अपारगे भवति, पारं गच्छतीति पारगः, एवं समिओ वि । अथवा नियन्त्रणामिवाऽऽतुरः न रागपारं गच्छति । अथवा णिज्जतग इति णिज्जंततो, स हि आचार्येर्मोक्षं प्रति नीयमानोऽपि सम्यगुपदेशः पडिचोअणाहि य ण पारं गच्छति संसारस्य कषायवशात्, अहं पि चोइज्जामि डहरेहि गुपदेशः पाल ७. पातञ्जलयोगवर्शन Im जलयोगी अप्पसुत्तेहि Jain Education Intemational Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७२ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ३२-३४ तुम्हारे लिए योग्य नहीं है, क्योंकि तुम्हारे आगमों में यह प्रतिपादित है कि मुनि युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ धीरे-धीरे चले ।' इस प्रकार व्युत्थित के द्वारा आगम-प्रमाण पुरस्सर अनुशासित होने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है। ३२. किसी पतित घटदासी के द्वारा (अमुदिताए घडवासिए) अभ्युत्थित का अर्थ है --तत्पर होना । प्रकरणवश अभ्युत्थित का अर्थ दुःशील के आचरण में तत्पर किया गया है।' घटदासी का अर्थ हैं --पानी लाने वाली दासी। घटदासी के द्वारा भी प्रमादाचरण के प्रति सावधान किए जाने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है । घटदासी के विषय में यह कथन है तो भला अल्पशील वाले व्यक्ति के द्वारा कहने पर तो अस्वीकार करने की बात ही नहीं होनी चाहिए । वह घटदासी सर्पिणी की भांति फुफकार करती हुई मुनि को सावधान करते हुए कहे-'अरे ! क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अथवा अत्यन्त पतित दासदासी भी सावधान करे तो मुनि ऐसा न कहे -'तुम भले ही सच कह रही हो, परन्तु मुझे कहने वाली तुम कौन हो ?' 'घडदासिए' यह शब्द 'घडदासीए' होना चाहिए था। किन्तु छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग किया है। ३३. (अगारिणं वा समयाणुसि?) अगारी अर्थात् घर-गृहस्थी, चाहे फिर वह स्त्री, पुरुष या नपुंसक हो।" प्रस्तुत प्रसंग में 'समय' का अर्थ है-सामाजिक-शास्त्र । गृहस्थों के सारे अनुष्ठान सामाजिक-शास्त्र के द्वारा अनुशासित होते हैं। प्रमादाचरण करने वाले मुनि को गृहस्थ कहता है-'मुने! गृहस्थ के लिए भी ऐसा आचरण करना विहित नहीं है और आप ऐसा आचरण कर रहे हैं ?" ३४. श्लोक ८: प्रस्तुत श्लोक में 'समय' शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है । यहां अनुशासन का प्रयोग करने वालों के चार युगल हैं -- १. स्वपक्ष और प्रतिपक्ष के व्युत्थित । २. बच्चे या बूढ़े । ३. घटदासी। ४. गृहस्थ । १. चूणि, पृ० २३० : विउद्वितो णाम विग्गुतो, यया व्युस्थितपरः -व्युत्थितोऽस्य विमवः सम्पत्, व्युत्थिताः संयमविप्रतिपन्ना इत्यर्थः । पावस्थादीनामन्यतमेन वा क्वचित् प्रमादाच्चातुऐंग वा त्वरितत्वरितं गच्छन् 'जधा तुम्भ ण वट्टति तुरितं गंतुं, कहं कोडगादीनि न हिंसध ? रुस्सिहित्तु वा। एवं मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा विराधणाए अण्णतरेण वा समये नाऽनुशास्त–ण तुम्भ वट्टति एवं काउं, जुअंतरपलोअणेण होतव्वं । (ख) वृत्ति, पत्र २५१ । २. (क) चूणि, पृ० २३० : अतीव उत्थिता अब्भुट्ठिता, कुत्रोत्थिता ? दौ:शील्ये । (ख) वृत्ति, पत्र २५१ : अतीवाकार्यकरणं प्रति उत्थिता। ३. चूणि, पृ० २३०: घटदासीग्रहणं तोसे वि ताव णोदिज्जंते ण रुस्सितव्वं, कि पुण जो तणुआणि वि सोलाणि धरेति ? अथवा अब्भुद्विता सा बंडघट्टिता भुगगीव धमधमेंती रुट्ठा गं भणेति--तुब्भं वट्टति एवं कातु ? अधवा अन्भुट्टिते त्ति पडिपक्खवयणेण गत, चन्द्रगुप्तस्त्रीवत् पुरुषः, तद्यथा-दासदासी पतितेभ्योऽपि पतिता सा वि चोदंति गं वक्तव्या-सच्चा वि ताव तुमं का होसि ममं चोदेतुं ? ४. चूणि, पृ० २३० : अगारिणं ति स्त्री-पु-नपुंसकं वा ५. वृत्ति, पत्र २५१ । गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तुं यवारब्धं भवता । Jain Education Intemational Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७३ अध्ययन १४ टिप्पण ३५-३६ पहले युगल के संदर्भ में 'समय' का अर्थ आगम' तथा शेष तीन के संदर्भ में 'समय' का अर्थ लौकिक सिद्धान्त' किया गया है। प्रसंगवश यह उचित प्रतीत होता है । इलोक ३५. फोन करे (... कुन्भे) दूसरे के द्वारा दुर्वचन कहने पर वह मुनि सोचे 'आष्टेन मतिमता, तरयार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥ J — 'कोई व्यक्ति आक्रुष्ट हो तब वह उसके आक्रोश करने के कारणों को खोजे । यदि आक्रोश करने का कारण उपस्थित है तो उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? यदि आक्रोश व्यर्थ ही हो रहा है तो उससे क्या उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? * ३६. चोट न पहुंचाए ( पव्वज्जा ) इसका अर्थ है - लकड़ी, पत्थर या ईंट आदि से मारना, चोट पहुंचाना।* सेयं खमेयं) ३७. (तहा करिस् *********** अनुसासन किए जाने पर कोप करना, व्यथित करना और परुष वचन बोलना --ये वर्जित हैं । अनुशासन के उत्तर में दो वाक्यों का प्रयोग होना चाहिए (१) तहा करिस्स और (२) सेयं खुमेयं । चूर्णिकार के अनुसार ' तथा करिष्यामि' - वैसा करूंगा - यह स्वपक्ष में 'मिच्छामि दुक्कड' के समान तथा पर-पक्ष वालों के लिए - 'श्रेयः खलु मम' - 'यह मेरे लिए श्रेय है' - यह कहना उचित है ।" वृत्तिकार ने स्व-पक्ष या पर-पक्ष का विभाजन नहीं किया है। श्लोक १० : ३८. अमूढ व्यक्ति ( अमूडा) इसका अर्थ है - सही मार्ग का जानकार । वह पथदर्शक जो सही-सही जानता है कि कौन-सा मार्ग किस ओर जाता है । " २६. मार्ग दिखलाते हैं ( मग्गाणु सासंति) यहां दो पदों - मग्ग + अणुसासंति में संधि हुई है । इसका अर्थ है कि पथदर्शक उस दिग्मूढ पथिक को सही मार्ग दिखाता है । वह कहता है - तुम इस मार्ग से चलो, अपने गन्तव्य तक पहुंच जाओगे । यह मार्ग तुम्हारे लिए हितकर और क्षेमंकर है । इस १ वृत्ति, पत्र २५१ चोदितः स्वसमयेन तद्यथा— नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि । यदि वा व्युत्थितः - संयमाद् भ्रष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन - अर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितः । २. वृत्ति, पत्र २५१: गृहस्थानां यः समयः अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितः । ३. वृत्ति, पत्र २५२ ॥ ४. (क) चूर्ण, पृ० २३१: कटु-लोट्ठ- इट्टादीहि । (ख) वृत्ति, पत्र २५२ : प्रकर्षेण 'व्यथेद्' - दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् । ५. चूर्ण, पृ० २३१: सपक्खेण वा ओसण्णेण चोदितो भणति को तुमं ममट्ठ े वा चोबेतुं भवति ? तथा करिस्सं ति सपक्खे मिच्छामि परतः । ६. वृत्तपत्र २५२ममेवानुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति पोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वषिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्या प्रतिभृगुदा अनुतिष्ठ मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, यदेतच्चोदनं नामैतन्ममैव श्रेयः । ७. वृत्ति, पत्र २५२ : अमूढाः सदसन्मार्गज्ञाः 1 .......... Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७४ अध्ययन १४ : टिप्पण ४०-४२ मार्ग में फलों से लदे वृक्ष तथा स्थान-स्थान पर जल के सरोवर हैं। इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा ।" ४०. सही मार्ग बता रहे हैं (सम्म सासयंति) यहां दो पदों - सम्म + अणुसासयंति में संधि हुई है। चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ ऋजु और अनुशासना का अर्थ - मार्गोपदेशना किया है ।" श्लोक ११ : वृत्तिकार ने 'वीर' शब्द से तीर्थंकर अथवा गणधर आदि का ग्रहण किया है । " ४१. महावीर ने (वीरे ) ४२. ( एतो मं उवणे सम्म) गन्तव्य स्थान प्राप्त कर लेने पर दिग्मूढ व्यक्ति अपने मार्ग-दर्शक की कुछ विशेष पूजा करता है, उसका सम्मान करता है । फिर चाहे पथदर्शक चाण्डाल, पुलिन्द, गन्द, गोपाल आदि ही क्यों न हो और स्वयं उससे विशिष्ट जाति या बलोपेत भी क्यों न हो । वह यह सोचता है - इस पथदर्शक ने मुझे दुर्ग आदि दुर्लध्य स्थानों तथा हिंस्र पशुओं के भय से बचाकर निर्विघ्न रूप से गन्तव्य तक पहुंचाया है । मुझे इसके प्रति विशेष कृतज्ञ होना चाहिए। इसने जो मेरी सहायता की है, उससे भी अधिक मैं इसे कुछ दूं। ऐसा सोचकर वह उस मार्ग दर्शक को वस्त्र, अन्न, पान तथा अन्य भोग-सामग्री स्वयं देता है । यह एक दृष्टान्त है । धर्म के क्षेत्र में भी साधक के लिए अपने मार्ग दर्शक के प्रति विशेष पूजा का व्यवहार करणीय है । अपने आचार्य को आहार आदि लाकर देना द्रव्य-पूजा है । उनकी भक्ति और गुणानुवाद करना भाव-पूजा है । ....... प्रस्तुत श्लोकगत अर्थ को भलीभांति समझकर मुनि उसको अपने पर घटित करे । वह यह सोचे --- गुरु ने अपने सद् उपदेशों के द्वारा मुझे मिथ्यात्व रूपी वन से तथा जन्म-मरण आदि अनेक उपद्रव बहुल अवस्थाओं से बचाया है । ये मेरे परम उपकारी हैं । मुझे इनके प्रति बहुत कृतज्ञ रहना चाहिए। अभ्युत्यान आदि विनय प्रदर्शित कर मुझे इनकी पूजा करनी चाहिए। मुनि चाहे चक्रवर्ती ही क्यों न रहा हो और आचार्य यदि तुच्छ जाति के भी हों, तो भी मुनि का कर्तव्य है कि वह आचार्य के प्रति पूर्ण कृतज्ञ रहे, उनकी विशेष पूजा करे । दिग्मूढ मुनि को सत्पथ पर लाने वाले आचार्य उसके परमबन्धु होते हैं । 'जो व्यक्ति जलते हुए घर में सोए हुए व्यक्ति को जगाता है, वह उसका परमबन्धु होता है ।' 'कोई अज्ञानी व्यक्ति विष-मिश्रित भोजन करता है और ज्ञानी उसे विष बता देता है, वह उसका परमबन्धु होता है ।" १. मि १० २३१ दिग्मूहस्थ उत्पथप्रतिपन्नस्य या अमूढः कश्चित् पुमान् अग्यो ग्रामो वा अविसं गच्छतो मार्ग कथयति यथा कथयामि तथा तथा मार्ग ईप्सितां भुवं गच्छति, अनुशासन्तो यदि उन्मार्गापायान् दर्शयित्वा ब्रवीति-अयं ते मोहितः क्षेम: अकुटिलरत्वादितः फलोवगाविवृक्षजलोपेतत्वाच्च । सम्मं उज्जुगं, न वा द्वेषेण, अनुशासना नाम मार्गोपदेशनंव । २. णि, पृ० २३१ : ३. वृत्ति, पत्र २५२ : वीरः - तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः । ४. (क) पूर्णि, पृ० २३१ ततः सेन निस्तीर्णकान्तारेण सहा (ख) पत्र २२ । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां दो पद्य उद्धृत किए मूढेनेश्वरेण वा अदस्येति देशिकरण, यद्यपि चण्डाल-पुलिन्द-मन्त्र-गोपालादिवसस्यापि तेन या कायस्वा पूया सविसेसत्ता, अहमनेन पुर्याश्वापभयाविशेषेयो मोक्षित इत्यतोय कृतज्ञत्वात् प्रतिपूजां करोमि । विशेषयुक्ता नाम यावती मे तेन पूजा कृता अतो अस्याधिकं करोमि, तद्यथा वस्त्राऽन्नपान भोगप्रदानं च राजा दद्यात् । ... *****... नाना उत्तरन्तेन अभ्युत्थानादि सविशेष पूजा कर्तव्या पद्यप्यवर्ती आचार्यश्चन्द्रमः कुलाविजातः । द्रव्यपूजा आहारादि भावे भक्तिः वर्णवादश्च । वार्त्तास्वन्येऽपि दृष्टान्ताः । तद्यथा 'गेहे वि अग्गिजाला उलम्मि, जलमाण- उज्झमाणम्मि । जो बोधेति सुबंधुं, सो तस्स जणो परमबंधू ॥ या विससंत्तं मतं मदुमिह चोकामस्स । जो विसबोस साहति सो तस्स जो परमबंधू ॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७५ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ४३-४७ श्लोक १२: ४३. (मग्गंण.........) एक अटवी है । वह गढ़ों, पत्थरों, कन्दराओं तथा वृक्षों से दुर्गम है । ऐसी अटवी से प्रतिदिन आने-जाने के कारण कोई व्यक्ति उसकी पगडंडियों से परिचित हो जाता है। किन्तु वह भी उस अटवी में अंधकार के कारण पूर्व परिचित पगडंडियों को भी नहीं देख पाता। श्लोक १३: ४४. अपुष्ट धर्मवाला (अपुट्ठधम्मे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'अदृष्टधर्मा' किया है ।' संभव है उनके सामने 'अदिट्ठधम्मे' पाठ रहा हो । देखें-तीसरे श्लोक का ७ वां टिप्पण। . ४५. धर्म को (धम्म) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं--प्रवृत्ति-निवृत्ति प्रधान धर्म, चारित्र धर्म अथवा अप्रमाद धर्म ।' ४६. ज्ञानी (कोविए) चूर्णिकार के अनुसार कोविद का अर्थ है-ज्ञानी । जो ग्रहण शिक्षा में निपुण होता है, वह जान लेता है कि उसे कैसा आचरण करना चाहिए और कैसा आचरण नहीं करना चाहिए।" जो व्यक्ति सर्वज्ञप्रणीत आगमों के अनुसार वर्तन करने में निपुण होता है वह कोविद कहलाता है, यह वृत्तिकार का अर्थ है।' श्लोक १४: ४७. (उड्ढं अहे......) हिंसा की व्याख्या चार दृष्टियों से की जाती है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । दिशा-यह क्षेत्रीय दृष्टिकोण है। त्रस या स्थावर-यह द्रव्य संबंधी दृष्टिकोण है। सदा- यह काल संबंधी दृष्टिकोण है । मानसिक प्रद्वेष का अभाव-यह भावात्मक दृष्टिकोण है। इन चारों दृष्टिकोणों से हिंसा की समग्रता समझी जा सकती है।' १ चूणि, पृ० २३२ : अन्धं करोतीति अन्धकारः मेघान्धकारं अचन्द्रा वा रात्रिः, अडवी या गर्ता-पाषाण-वरी-वृक्षदुर्गमा, से तस्यां पूर्वदृष्टमपि दण्डकपयं न पश्यति । २ चूणि, पृ० २३२ : अपुट्ठधम्मो णाम अष्टधर्मा। ३. चूणि, पृ० २३२ । धम्म ... प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानादि-प्राणातिपातादिषु यथासंख्यं, अथवा चारित्रधर्म अप्रमावधर्म वा। ४. चूणि, पृ० २३२ : कोवितो णाम विपश्चित्कृतः गहणसिक्खाए कोवितो, आसेवितव्वं च ग्रहणशिक्षया ज्ञायते । ५. वृत्ति, पत्र २५३ : कोविवः अभ्यस्तसर्वशप्रणीतागमत्वान्निपुणः। ६. (क) चूणि, पृ० २३२ : उड्ढं अधेयं ति खेत्तपाणातिवातो । जे थावरा जे य तसा दम्बपाणादिवादो। सदा जतो त्ति कालप्राणाति पातः । तसि परक्कमंतो मणप्पयोसं अविकंपमाणे ति भावपाणातिवातो। (ख) वृत्ति, पक्ष २५३ : Jain Education Intemational Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ५७६ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ४८-५२ ४८. प्रकम्पित न हो (अविकंपमाणे) वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'संयम से अविचलित रहता हुआ' किया है।' चूणिकार ने 'अविकप्पमाणे' पाठ मानकर इसका अर्थ 'विविध कल्पना न करता हुआ' किया है।' श्लोक १५ : ४६. विनयावनत हो (समियं) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-समितं, सम्यक् । चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ तीन प्रकार की पर्युपासना (कायिकी, वाचिकी और मानसिको) किया है।' ५०. ग्रहण करे (सोयकारी) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं'१. ग्रहण करने वाला। २. श्रोत्र से ग्रहण कर हृदय में धारण करने वाला। ३. सुनकर करने वाला। वृत्तिकार ने इसका अर्थ यथोपदेशविधायी-आज्ञा का पालन करने वाला किया है।' ५१. विस्तार से अपने हृदय में स्थापित करे (पुढो पवेसे) इस वाक्य में निर्देश दिया गया है कि धर्म के उपदेश का पृथक्-पृथक् या बार-बार पुनरावर्तन करे। बार-बार पुनरावर्तित विद्या हजार गुनी हो जाती है । इसका तात्पर्य है, केवल सुने नहीं, किन्तु सुने हुए तत्त्व पर चिन्तन और मनन करे। इस वाक्य का दूसरा अर्थ होता है- जो धर्म का उपदेश मिले उसे भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से स्वीकार करे। सब तत्त्वों को एक ही दृष्टि से देखने पर यथार्थ का बोध नहीं होता । उत्सर्ग सूत्र को उत्सर्ग की दृष्टि से, अपवाद सूत्र को अपवाद की दृष्टि से देखे। इसी प्रकार स्व-समय को स्व-समय की दृष्टि से और पर-समय को पर-समय की दृष्टि से देखे । भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखा हुआ सत्य चित्त में समाधि उत्पन्न करता है।' श्लोक १६: ५२. धर्म, समाधि और मार्ग की (तिविहेण) चूणिकार ने इसका अर्थ दो प्रकार से किया है१. समिति, गुप्ति और अप्रमाद- इन तीनों से । २. धर्म, समाधि और मार्ग-इन तीनों से (नौंवे, दसवें और ग्यारहवें अध्ययन के ये नाम हैं)। १. वृत्ति, पत्न २५३ : अविकम्पमानः-संयमावचलन् । २. चूणि, पृ० २३२ : विविधं कप्पयति विकप्पमाणो। ३. चूणि, पृ० २३२ : सम्यगिति तिविधाए पज्जुवासणताए। ४ चूणि, पृ० २३२ : श्रोतसि करोतीति श्रोतःकारी ग्रहीतेत्यर्थः गृह णाति । अथवा श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोतःकारी, श्रुत्वा वा करोतीति श्रोतःकारी। ५. वृत्ति, पत्र २५४ : श्रोत्रे-कणे कर्तुं शीलमस्य श्रोतकारी-ययोपदेशकारी आज्ञाविधायी। ६. चूणि, पृ० २३२, २३३ : पुढो पवेसे त्ति पृथक पृथक पुणो पुणो वा पवेसे हृदयं पुढो पवेसे, सहनगुणिता विद्या शतशः परिवर्तिताः।' पत्तेयं वा पत्तेयं पवेसे पुढो पवेसे, तं जधा-उस्सग्गे उस्सग्गं अववाते अववातं, एवं ससमये ससमयं परसमये परसमयं वा, अतिक्रान्ते अतिक्रान्तकालम् । ७. चूणि, पृ० २३३ : समिति-गुप्स्यप्रमादेषु धर्म-समाधि-मार्गेषु च । Jain Education Intemational Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७७ अध्ययन १४ : टिप्पण ५३-५६ वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है१. मन, वचन और काया से । २. कृत, कारित और अनुमति से । चूर्णिकार का अर्थ प्रकरणानुसारी होने के कारण अधिक उपयुक्त लगता है। ५३. चित्त को शांति (संति) इसका अर्थ है-शांति, सुख, सर्वकर्मशान्ति, समस्त द्वन्द्वों से उपरति ।' हमने इसका अर्थ-चित्त की शान्ति किया है। ५४. निरोध (णिरोधं) निरोध का अर्थ है-कर्म-प्रवाह का रुकना । प्रत्येक प्राणी में निरंतर कर्म पुद्गलों का प्रवाह आता है । उसके आने का हेतु है-अशांति और उसके निरोध का हेतु है शान्ति । प्रस्तुत सूत्र के १।३।८० में शान्ति को निर्वाण (संति निव्वाणमाहियं) कहा है और यहां शान्ति को निरोध कहा है (संति णिरोधमाह) । शान्ति निर्वाण का हेतु है या शान्ति ही निर्वाण है । इसी प्रकार शान्ति निरोध का हेतु है या शान्ति ही निरोध है। ये दोनों अर्थ किए जा सकते हैं । ५५. त्रिलोकदर्शी तीर्थकर (तिलोगदंसी) - इसका अर्थ है ... तीन लोक को देखने वाला । चूर्णिकार ने-ज्ञान, दर्शन, और चारित्र-को तीन लोक माना है । उसको देखने वाला होता है-तीर्थंकर । उन्होने विकल्प में ऊंचा, नीचा और तिरछा लोक देखने वाला यह अर्थ किया है।' वृत्ति में यह वैकल्पिक अर्थ ही मिलता है।' श्लोक १७: ५६. प्रतिभावान् (पडिमाण) देखें-१३।१३ का ५५ वां टिप्पण। ५७. विशारद (विसारदे) देखें-१३॥१३ का ५६ वां टिप्पण। ५८. आदान (ज्ञानादि) का अर्थी बना हुआ (आवाणमट्टी) आदान का अर्थ है-ज्ञान आदि ।' यहां मकार अलाक्षणिक है। ५९. तपस्या (वोदाण) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ तप किया है। स्थानांग (३३१४८) के अनुसार व्यवदान तप नहीं है वह तपस्या का फल है । तप और तप के फल में अभेदोपचार कर तप के अर्थ में व्यवदान शब्द का प्रयोग किया है। १. वृत्ति, पत्र २५४ : त्रिविधेनेति मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वा । २ चूणि, पृ० २३३ : शान्तिर्भवति, हहान्यत्र च सौख्यमित्यर्थः सर्वकर्मशान्तिर्वा । ३.णि पृ० २३३ : ते तीर्थकराः, ज्ञान-दर्शन-चारित्राख्यास्त्रीन लोकान् पश्यतीति त्रिलोकशिनः, ऊर्धादि वा त्रिलोकं पश्यति । ४. वृत्ति, पत्र २५४ : त्रिलोकम्-अधिस्तिर्यगलक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकशिनः तीर्थकृतः सर्वशाः । ५. (क) चूणि, पृ० २३३ : आदीयत इत्यादानम ज्ञानादीनि आदानानि । (ख) वृत्ति, प० २५३ : मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं-सम्यग्ज्ञानादिकम् । ६. (क) चूणि, पृ० २३३ : बोवानं विदारणं तपः। (ख) वृत्ति, पत्र २५४ : व्यवदानं द्वादशप्रकारं तपः । Jain Education Intemational Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६०. संयम (मोणं) मौन का अर्थ है - संयम । ६१. आचार्य (बुद्धा) ६२. जानकर (खाए ५७८ श्लोक १८ : यूर्णिकार ने इसका अर्थ 'बुद्धबोधित बचायें" और वृत्तिकार ने 'विकालवेदी' किया है।" इसका संस्कृत रूप है— संख्याय और अर्थ है- जानकर मुनि क्षेत्र, काल, परिषद् और अपने सामर्थ्य को भलीभांति जानकर धर्म का उपदेश देता है । अथवा गुरु यह भलीभांति जान ले कि अमुक शिष्य अमुक मात्रा में श्रुत के योग्य है, उससे आगे श्रुतग्रहण की शक्ति उसमें नहीं है । शक्ति के होने पर जितना वह पा सकता है उतना पा लिया- ऐसा जानकर अथवा यह शिष्य परंपरा या श्रुत को अविछिन्न रूप से चला सकता है - यह जानकर गुरु उसे धर्म कहता है ।" वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप ' संख्यया' देते हुए संख्या का अर्थ सद्बुद्धि किया है।" मुनि अपनी तथा श्रोतृवर्ग की शक्ति को जानकर, परिषद् की पूरी पहचान कर तथा प्रतिपाद्य अर्थ के तात्पर्य को भी प्रकार से जानकर फिर धर्म का प्रतिपादन करता है, यह वृत्तिकार का वैकल्पिक अर्थ है । ६३. (शिष्यों के संदेहों का) अंत करने वाले होते हैं (अंतकरा भवंति ) २. चूर्ण, पृ० २३३ [बुद्धा] बुद्धबोधितास्ते आचार्या । ३. वृत्ति, पत्र २५५ : बुद्धा: - कालत्रयवेदिनः । ४. चूर्ण, पृ० २३३ : अध्ययन १४ : टिप्पण ६०-६४ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ- कर्मों का अंत करने वाला किया है । " पूरे श्लोक के सन्दर्भ में पूर्णिकार और प्रतिकार का अर्थ सम्यग् नहीं लगता । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि वे बहुश्रुत आचार्य अपने शिष्यों के मन में उत्पन्न होने वाले प्रश्नों और सन्देहों का सम्यग् समाधान देकर उन्हें समाहित करते हैं । शिष्य सन्देहों से मुक्त हो जाते हैं । ६४. भूत के पारगामी आचार्य (पारगा) धर्म की व्याख्या करते हुए वे आचार्य धर्म का पार पा जाते हैं, उसकी सूक्ष्मतम व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं । वे स्व पर संदेहों को दूर करने के लिए पार तक चले जाते हैं ।" १. (क) चूर्णि पृ० २३३ : मौनं संयमः । (ख) वृत्ति, पत्र २५४ : मौनं संयमः - आश्रवनिरोधरूपः । संखाए त्ति धर्मं ज्ञात्वा श्रुतं धर्मं वा कथयति, सिरसपछि गाणं धर्मकथा च कथयति । अथवा संख्यायेति खेतं कालं परिसं सामत्थं चप्पणो वियाणित्ता परिकथयति । अथवा के अयं पुरिसे ? कं च गये ?" अथवा संख्यायेति एतन्मात्रस्यार्थ भूतस्य योग्य, अतः परं शक्तिर्नास्ति सत्य या त जति प्रचरति सत्तिय हि एवं संख्याय । अन्वोच्छित्तिकरे त्ति एवमादिभिः प्रकारैः संख्याय धम्मं वागरयंता । ५. वृत्ति, पत्र २५५ : सम्यक् ख्यायते - परिज्ञायते यया सा संख्या- सद्बुद्धिस्तथा । ६. वृति, पत्र २५५ : यदि वा स्वपरशक्त परिज्ञाय पर्षदं वा प्रतिपाद्यं चार्थं सम्यगवबुध्य धर्मं प्रतिपादयन्ति । ७. (क) चूर्णि, पृ० २३३ : कम्माणं अंतं करेंतीति अंतकराः । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति । ८. चूणि, पृ० २३३ : धर्मं व्याकरयन्तः पारं गच्छतीति पारगाः, आत्मनः परस्य च दोन्ह वि विमोयणाए पारं गच्छति । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५७६ अव्ययन १४ : टिप्पण ६५-६७ वे आचार्य संसार समुद्र का पार पा जाते हैं यह वृत्तिकार का अर्थ है।' ६५. संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं (संसोधियं पण्हमुदाहरंति) वे आचार्य संशोधित प्रश्न की व्याख्या करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि धर्म-प्रवचन करने से पूर्व या किसी के प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व आचार्य अपनी बुद्धि से यह सम्यक् पर्यालोचन कर लेते हैं कि सुनने वाली परिषद् किस मान्यता को स्वीकार करने वाली है, प्रश्नकर्ता किस दर्शन का अनुयायी है, यह किस अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ है अथवा मैं स्वयं किस अर्थ की अभिव्यक्ति अच्छे प्रकार से कर सकता है । इस प्रकार अनेक पहलुओं से सम्यक् परीक्षा कर फिर वह धर्म-प्रवचन करता है या प्रश्न का उत्तर देता है। अथवा एक व्यक्ति कोई प्रश्न पूछता है तो यह आवश्यक है कि उत्तरदाता उस प्रश्न की सम्यग् परीक्षा कर फिर उचित उत्तर दे। चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-- पूर्वापर की समीक्षा कर, अपनी या पराई शक्ति को जानकर, द्रव्य-गुण और पर्यायों को जानकर, सूत्र से परिचित होकर जो उत्तर दिया जाता है वह है संशोधित प्रश्न का उदाहरण । अच्छिद्र प्रश्न (गूढ प्रश्न) का व्याकरण करने वाले अ-केवली हों या केवली रत्नकरंडक के समान तथा कुत्रिकापण (वह दुकान जहां तीन लोक की सारी वस्तुएं विक्रय के लिए उपलब्ध हों) तुल्य होते हैं। वे तथा चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी यावत् दशवकालिक सूत्र के अध्येता धर्म की प्रज्ञा को अविच्छिन्न करते हैं।' श्लोक १६ : ६६. अर्थ को न छिपाए (णो छादए) अर्थ को छिपाने के तीन कारण हो सकते हैं :१. मात्सर्य- इस कारण से व्यक्ति अर्थ को छिपा लेता है। २. कभी-कभी धर्म को कथा करने वाला भी स्वार्थ के वशीभूत हो यथार्थ को छिपा लेता है। ३. अहंकारवश अपने वाचनाचार्य का नाम छिपा लेता है।' ६७. अप-सिद्धान्त का निरूपण (लूसएज्जा) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१ वत्ति, पत्र २५५ : संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति । २. वृत्ति, पत्र २५५ : सम्यक शोधितं-पूर्वोत्तराविरुद्धं प्रश्नं-शब्दमुदाहरन्ति, तथाहि-पूर्व बुद्धया पर्यालोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थ स्य ग्रहणसमर्थोऽयं वा किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक परीक्ष्य व्याकुर्यादिति अथवा परेण कञ्चिदर्थ पृष्ट स्तं प्रश्नं सम्यक परीक्ष्योबाहरेत्-सम्यगुत्तरं दद्यादिति : ३ चूणि, पृ० २३३, २३४ : जं संसोधिगा पण्हमुदाहरंति सम्यक् समस्तं वा सोधिया संसोधिया, पृच्छति तमिति प्रश्नः, पूर्वापरेण समी क्षितुं आत्मपरशक्ति च ज्ञात्वा द्रव्यादीनि च तथा “केऽयं पुरिसे" ति परिचितं च सुतं कातण'आयरियादेसा धारितेण अत्येण [गुणिय] सरितेणं । तो संघमझयारे बवहरितुं जे सुहं होति ।' (व्यवहार उ० ३, भाष्य गाथा ३५९) अच्छिद्दपसिण-वागरणा अकेवली केवली वा, रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूता तथा चोद्दस-दस-णवपुष्वी जाव बसकालिय ति संसाधितुं अवोच्छिन्नं करेति । ४. (क) चूणि, पृ० २३४ : मत्रारित्वेनाथ नो छादयेत्, पात्रस्य धर्मस्य कथां कथयन् न सद्भुतगुणान् छादयेत्, न वा वायणायरिय छादयेत् । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : सूत्रार्थ 'न छादयेत्'- नान्यथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलपेत् धर्मकयां वा कुर्वन्नाथ छादयेद आत्मगुणोत्कर्षाभिप्रायेण वा परगुणान्न छादयेत् । ५. चूणि, पृ० २३४ : लूसिता णाम अवसिद्धान्तं कथयति सिद्धान्तविरुद्धं वा । Jain Education Intemational Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५८० अध्ययन १४ : टिप्पण ६०-७० १. अपसिद्धान्त का प्रतिपादन । २. सिद्धान्त-विरुद्ध तत्त्व का प्रतिपादन । वृत्तिकार ने ये दो अर्थ किए हैं१. दूसरों के गुणों की विडंबना । २. अपसिद्धान्त का प्रतिपादन । ६८. न अभिमान करे, न अपना ख्यापन करे (माणं ण सेवेज्ज पगासणं च) अपनी प्रज्ञा का, स्वयं के आचार्य होने का, अपने तथा दूसरों के संदेहों का अपनयन करने का मद हो सकता है । इसलिए उसका निषेध किया गया है। 'मैं समस्त शास्त्रों का जानकार हं। सारे लोक में मेरी प्रसिद्धि है । मैं सभी प्रकार के संशयों को दूर करने में समर्थ हूं । मेरे जैसा हेतु और युक्ति के द्वारा तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाला दूसरा नहीं है'-इस प्रकार अभिमान न करे । आत्मप्रकाशन अभिमान का ही एक पहलू है । इसके द्वारा अपना उत्कर्ष प्रदर्शित करने का प्रयत्न होता है। मैं बहुश्रुत और तपस्वी हूं, मैं आचार्य हूं, मैं धर्मकथी हूं - इस प्रकार के आत्म-ख्यापन का निषेध किया गया है।' ६६. परिहास (परिहास) यह विभक्तिरहित प्रयोग है । यहां 'परिहासं' होना चाहिए था। परिहास का अर्थ है-हंसी, मजाक । चूर्णिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-मुनि ऐसी धर्मकथा न करे जिससे सुनने वालों को तथा स्वयं को हंसी आए । अथवा धर्मकथा करने पर सुनने वाले उसके हार्द को न समझ सकें या अन्यथा समझें, तो भी अपने प्रज्ञामद के कारण उनका परिहास न करे, हंसी न करे।' ७०. आशीर्वचन (प्रशस्तिवचन) (आसिसावाद) आसिसावाद-यह विभक्तिरहित प्रयोग है। किसी व्यक्ति द्वारा वंदना करने पर या दान आदि देने पर मुनि संतुष्ट होकर उसे आशीर्वचन देते हुए ऐसा न कहे-स्वस्थ रहो, भाग्यशाली हो, पुत्रों की प्राप्ति हो, धन बढ़े आदि आदि । इसका पाठान्तर 'ण यासियावाय' मिलता है । इस आधार पर डा० ए० एन० उपाध्ये ने असियावाय का अर्थ किया थाअस्याद्वाद । उन्होंने टीकाकार के 'आशीर्वाद' अर्थ की आलोचना की है। यदि वे मूल पाठ और टीका के सम्बन्ध में विचार करते तो ऐसा नहीं होता। चूर्णिकार और वृत्तिकार के सामने 'आसिसावाय' पाठ था और इसके आधार पर उन्होंने इसका अर्थ आशीर्वाद किया था। चूर्णि और वृत्ति में 'असियावाय' का पाठान्तर के रूप में भी उल्लेख नहीं है।' १ वृत्ति, पत्र २५५ : परगुणाग्न लषयेद्-4 विडम्बयेत् शास्त्रार्थ वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत् । २. (क) चूणि, पृ० २३४ : प्रज्ञामानमाचार्यमानं वा संशयान् वाऽऽत्मनः परस्य वा छेत्तुं न मदं कुर्यात् । न वा प्रकाशयेदात्मानम् यथा हमाचार्यः कथको बहुश्रुतो वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५५ : तथा समस्तशास्त्रवेत्ताऽहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता, न मत्तुल्यो हेतुयुक्तिभिरर्थप्रतिपादयितेत्येव मात्मकं मानम्-अभिमानं गर्व न सेवेत, नाप्यात्मनो बहुश्रुतस्वेन तपस्वित्वेन वा प्रकाशनं कुर्यात्, च शब्दा वन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत् । ३. चूणि, पृ० २३४ : प्रज्ञावान् प्रामः न चेदशी कयां कथयेद येन श्रोतुरात्मनो वा हास्यमुत्पद्यते, अपरियच्छते वा परे अण्णधा वा बुज्झमाणे न प्रज्ञामदेन परिहासं कुर्यात् "यथा राजा तथा प्रजा" इति कृत्वा न सर्वत्रैव परिहासः । ४. (क) चणि, पृ० २३४ : "शंसु स्तुतौ" तस्य आशीर्भवति, स्तुतिवादमित्यर्थः न तद्दान-वन्दनादिभिस्तोषितो ब्रूयाद्-आरोग्यमस्तु तेवी ते दोघं चाऽऽयुः, तथा सुभगा भवाष्टपुत्रा, इत्येवमादीनि न व्याकरेत् । एवं वाक्समितः स्यात् । (ख) वृत्ति, पत्र २५५ तथा नापि चाशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो [बहुधर्मो] दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि व्यागृणीयात्, भाषासमिति युक्तन माध्यमिति। Jain Education Intemational Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ७१. मन्त्र पद के द्वारा ( मंतपण ) ७२. संयम जीवन का (गोयं) चूर्णिकार ने मंत्र का मुख्य अर्थ - सामान्य वचन और वैकल्पिक अर्थ - विद्या, मंत्र आदि किया है । ' वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं—विद्या और राजा आदि के साथ गुप्त मंत्रणा ।' चूर्णिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं १. सतरह प्रकार का संयम । २. अठारह हजार शीलांग । ३. छह जीवनिकाय । ४. जीवन । वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए है १. मौन - वाक्संयम । २. प्राणियों का जीवन | ७३. निर्वाह . ( विहे ) ७४. साधु धर्मों का ( असाधम्माणि ) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-पंथम से बाहर निकलना या संयम को गाल देना, नष्ट कर देना ।" वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं-संयम को निःसार करना या जीवों को मारना । चूर्णिकार के अनुसार असाधु धर्म तीन प्रकार का होता हैं १. दर्प, मद, अहंकार आदि असाधु धर्म | २. पचन - पाचन आदि सावद्य कर्म । ३. असंयत दान तथा कुतीर्थिक आदि की प्रशंसा । ५८१ श्लोक २० : वृत्तिकार ने भी असाधु धर्म के तीन निर्देश दिए हैं १. वस्तुओं का दान - तर्पण आदि । २. साधु धर्म कहने वालों का अनुमोदन । ३. धर्मकया या व्याख्यान करते हुए आत्मश्लावा या कीर्ति की इच्छा । १. चूर्ण, पृ० २. २३४ : मन्यत इति मन्त्रः वचनम्, मन्त्र एवं पदं मन्त्रपवम् । अथवा मन्त्रा इति विद्या मन्त्रादयो गृह्यन्ते । २५६ जपदेन विज्ञापमान विधिना यदि वा 'मन' - राजादिगुप्तभावणपदेन । वृत्ति, पत्र : मन्त्रपवेन - 'मन्त्रपवेन' ३. चूर्ण, पृ० २३४ ४. वृत्ति, पत्र २५६ ५. ० २३४ ६. वृत्ति पत्र २५६ ७. घृणि, पृ० २३४ अध्ययन १४ टिप्पण ७१-७४ : : ..... : गुप्यत इति गोत्रं संयमः सप्तदसविधः अष्टादश च शीलाङ्गसहस्राणि इति षट् काया वा गोत्रम् ... गोत्राद् जीवितादित्यर्थः । गास्त्रायत इति गोत्रं - मौनं वाक्संयमः ' .......यदि वा गोत्रं जन्तूनां जीवितम् । मे निर्मार्थः न वायि संयमं निर्माये। न निःसारं कुर्यात् मानयेत् । असाधूनां धर्माः तान् असाधुधर्मान् ण संठवेज्जा, ते च दर्प-मदाऽहङ्कारावयः, अथवा न तत् कथयेत् येन असाधुधर्माणां 'सन्धानं भवति पचन-पाचनादीनाम्, असंयतदानादि वा कुतीथिकान् वा प्रशंसति । वृति ०२५६ तथा कुत्सितानाम् असाधूनां धर्मान् वस्तुदानतर्पणादिकान् न संवदेत् न ब्रूयाद्यदि वा नासाधर्मान् ब्रुवन् संवावयेद्, अथवा धर्मकथां व्याख्यानं वा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यग ७५. निर्मल (अणाइले ) अनाविल का अर्थ है— निर्मल । जो मुनि लाभ आदि से निरपेक्ष होकर व्याख्यान देता है या धर्मकथा करता है वह अनाविल होता है।" चूर्णिकार ने 'अणाउले' मानकर व्याख्या की है कि मुनि धर्म देशना करता हुआ आतुर न हो अथवा किसी बात के लिए प्रेरित किए जाने पर आकुल-व्याकुल न हो। " ७६. पाप-धर्म (असा धर्म) की स्थापना करने वालों का परिहास न करे (हासं पि णो संधए पावधम्मे) ५८२ श्लोक २१: इस चरण की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है— १. मुनि पाप धर्मों की स्थापना करने वालों का परिहास न करे । २. हास्य में भी पाप-धर्म का संधान न करे - प्रतिपादन न करे, जैसे— इसको छेदो, भेदो । इसको खाओ । ऐसे प्रसन्न हाओ आदि । ७७. तटस्थ रहे (ओए) ३. हास्य द्वारा भी कुतीर्थिकों की प्रशंसा न करे । ४. मुनि कुप्रावचनिकों से मजाक करते हुए ऐसा वचन न कहे जिससे उनके मन में अमर्ष पैदा हो, जैसे 'अरे ! आपके व्रत तो बड़े अच्छे हैं। सोने के लिए मृदु शय्या, प्रातःकाल उठते ही अच्छे-अच्छे पेय, मध्यकाल में भोजन, अपरान्ह में पीने के लिए पानक, अर्धरात्रि में द्राक्षाखंड और शर्बत (शर्करा ) इस प्रकार सुविधापूर्वक जीवन यापन करते हुए भी आपको मोक्ष प्राप्ति हो जाती है । हंसी में भी दूसरों के दोषों की अभिव्यक्ति करना पाप कर्म के बंधन का हेतु होता है ऐसा समझकर मुनि हंसी में भी पापधर्मों का संधान न करे ।" आचारांग सूत्र में 'ओज' के दो अर्थ किए हैं १. अकेला । * २. पक्षपात शून्य । अध्ययन १४ टिप्पण ७०-७७ : प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने 'ओज' के दो अर्थ किए हैं-राग-द्वेष रहित, सत्य को विपरीत न करने वाला ।' वृत्तिकार ने इसका एक अर्थ अकिंचन किया है। सामान्यतः ओज का अर्थ है शारीरिक शक्ति । आयुर्वेद के ग्रन्थों में रस से लेकर शुक्र तक की धातुओं के पश्चात् होने वाले तेज को 'ओज' माना है ।" जैन आगमों में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त है और विशेषतः यह मुनि के विशेषण के रूप में आता है। यह शब्द वीतरागता और आकिञ्चन्य का सूचक है । १. वृत्ति, पत्र २५६ व्याख्यानावसरे धर्मकथावसरे वाडनाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत् । २०२३ ३. (क) चूर्ण, पृ० २३५ । (ख) वृति पत्र २५६ , ४. आया ५ / १२६, वृत्ति, पत्र २०६ : 'ओज:' एकोऽशेष मलकलङ्काङ्करहितः । ५ आया ६/१००, वृत्ति, पत्र २३१ 'ओज:' एको रागादिविरहात् । ६. ० २५ ओवेति राग-द्वेषरहित नवगंत सद्भूतम् । ७. वृति पत्र २५६ 'जो' राग-द्वेवरहितः सबाह्यान्तरप्रयागाद्वा निष्किनः । सुश्रुत 'रसादीनां कान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् तुओजः । गाउले ति न धर्म देशनो आरोभवति चोदितो वा आकुलव्याकुलीत 7 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५८३ अध्ययन १४ : टिप्पण ७८-८० ७८. सत्य कठोर होता है इसे जाने (तहियं फरसं वियाणे) तथ्य अर्थात् सत्य । चूर्णिकार ने इसका अर्थ-संयम किया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में इसके तीन अर्थ किए हैंपरमार्थभूत, अकृत्रिम, अप्रतारक । ___ परुष का अर्थ है- कठोर । चूर्णिकार ने इसका तात्पर्यार्थ संयम किया है।' वृत्तिकार ने मुख्य रूप से उस वचन को परुष माना है जो दूसरे के चित्त को विकृत करता है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ संयम किया है। उनका कथन है कि संयम परुष होता है, क्योंकि उसमें कर्मों का श्लेष नहीं होता, ममत्व नहीं रहता और वह सामान्य शक्ति वाले व्यक्तियों के द्वारा अयापनीय होता है अथवा संयम परुष इसलिए है कि संयमी मुनि को अंत-प्रान्त आहार का सेवन करना होता है।' इस पूरे चरण का अर्थ है--'सत्य कठोर होता है, मुनि इसे जाने ।' चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संयम तथ्य है, इसे साक्षात् जाने ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-संयम परमार्थभूत, वास्तविक और हितकर है। उसका स्वतः पालन कर मुनि सम्बग् ज्ञान करे।' ७९.न अपनी तुच्छता प्रदशित करे (णो तुच्छए) मुनि अपनी तुच्छता प्रदर्शित न करे । इसका तात्पर्य है कि मुनि किसी अर्थ विशेष या लब्धि विशेष की प्राप्ति कर अथवा पूजा-सत्कार आदि प्राप्त कर उन्मत्त न हो । उन्मत्त होना अपनी तुच्छता दिखाना है, यह वृत्तिकार का अर्थ है।' चूणि के अनुसार इसका अर्थ है-मुनि जैसे तुच्छ कठियारे को धर्म का उपदेश देता है, वैसे ही वह राजा को भी उपदेश दे ।' श्लोक २२: ८०. सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे (संकेज्ज) सत्य की साधना करने वाला भिक्षु-मैं ही इस अर्थ का जानकार हूं, दूसरा नहीं-इस प्रकार गर्व न करे । वह अपनी उदंडता को मिटाए । वह गूढार्थ की अभिव्यक्ति करता हुआ सशंक होकर प्रतिपादन करे। अथवा अर्थ को स्पष्टता से जानता हुआ, अर्थ के प्रति निःशंक होने पर भी, वह इस प्रकार से उसको प्रस्तुत न करे जिससे दूसरे में शंका पैदा हो।' तत्त्व की व्याख्या करते समय वह नम्रतापूर्वक यह कहे-मैं इस तत्त्व का इतना ही अर्थ जानता हूं। इससे आगे जिन भगवान् जानें ।' चूर्णिकार ने यह अर्थ संकेज्ज और संकितभाव-इन दो पदों के आधार पर किया है।" ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है । वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खंडित हो। सत्य हैं-द्रव्य और पर्याय । अनेक द्रव्य और अनन्त पर्याय । उन सबको जानना प्रत्येक सत्यान्वेषी के लिए भी संभव नहीं है। सत्य १. चूणि, पृ० २३५ : तथ्यं संयमम् ।। २. वृत्ति, पत्र २५६ : 'तथ्य' मिति परमार्थतः सत्यम् . . . . यदि वा तथ्यं-परमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं । ३. चूणि, पृ० २३५ : राग-द्वेषबन्धनाभावात् फरुषः संयमः, कर्मणामनाथय इत्यर्थः । ४. वृत्ति, पत्र २५६ : परुषं-कर्मसंश्लेषाभावान्निर्ममत्वादल्पसत्त्वर्दुत्नुष्ठेयत्वाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुष-संयमम् । ५. चूणि, पृ० २३५ । ६. वृत्ति, पत्र २५६ । ७. वृत्ति, पत्र २५६ : तथा स्वतः कञ्चिदर्थविशेष परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य न तुच्छो भवेद् -नोन्मादं गच्छेत् । ८. चूणि, पृ. २३५ : जधा तुच्छस्स कधेति तणहारगस्स वि तथा राज्ञोऽपि । ६. वृत्ति, पत्र २५६ : साधुर्व्याख्यानं कुर्वनर्वाग्दशित्वादर्थनिर्णय प्रति अशतिभावोऽपि 'शङकेत'-औद्धत्यं परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं गर्व न कुर्वीत, किंतु विषममर्थ प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद, यदि वा परिस्फुर मप्यशङ्कित भावमप्यर्थ न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत । १०. चूणि, पृ० २३५ : यङ्कितमस्य ज्ञानादिषु तन्न कथयति, अपृष्टः पृष्टो वा शङ्केत शङ्कितभावः-एवं तावद् ज्ञायते, अतः परं जिना जानन्ति। Jain Education Intemational Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो. ५८४ अध्ययन १४ : टिप्पण ८१ का अन्वेषण करने वाला जितने सत्य को जान जाता है, उसे विनम्रता से स्वीकार करता है। उसके लिए आग्रह की खाइयां नहीं खोदता । सत्य की स्वीकृति के दो रूप बन जाते हैं-विनम्र स्वीकृति और आग्रहपूर्ण स्वीकृति । विनम्र स्वीकृति का स्वर यह होता है-'मैं इतना जानता हूं। इससे आगे मुझसे अधिक ज्ञानी जानते हैं ।' अपनी ज्ञान की सीमा का अनुभव करना, यह शंकितवाद है। शंकितवाद का प्रयोग यह होता है-मेरी दृष्टि में यह तत्त्व ऐसा है, पर मेरे पास समन ज्ञान नहीं है जिसके आधार पर मैं कह सक-यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है। इस प्रकार सत्य की विनम्र स्वीकृति शंकितवाद है। शंकित का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किन्तु अनाग्रह है। ५१. विभज्यवाद (मजनीयवाद या स्यादवाद) का (विभज्जवायं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए है-भजनीयवाद या अनेकान्तवाद । तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे-'मैं इस विषय में ऐसा मानता हूं। इस विषय की विशेष जानकारी करने के लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए।' विभज्यवाद का दूसरा अर्थ है—अनेकान्तवाद । जहां जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे । अमुक नित्य है या अनित्य ? ऐसा प्रश्न करने पर अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, अमुक अपेक्षा से यह अनित्य है- इस प्रकार उसको सिद्ध करे। वृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किए हैं१. पृथग्-पृथग् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद । २. स्याद्वाद। ३. अर्थों का सम्यग् विभाजन करने वाला वाद, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद । सभी पदार्थों का अस्तित्व अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से है। पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं है। बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। विभज्य के दो अर्थ हैंविभज्य-विश्लेषण पूर्वक कहना (analysis)* विभज्य-संक्षेप का विस्तार करना बुद्ध ने स्वयं को 'विभज्यवाद' का निरूपक कहा है। इसका तात्पर्य इस प्रकार समझाया गया है । बुद्ध से पूछा गया 'गहट्ठो आराधको होतिञायं धम्म कुसल ?' 'न पब्बजितो आराधको होतिजायं धम्म कुसलं ?' क्या गृहस्थ आराधक होता है-न्याय, धर्म और कुशल को पाने में सफल होता है ? क्या प्रव्रजित आराधक नहीं होता-न्याय, धर्म और कुशल को पाने में सफल नहीं होता है ? १. चूणि, पृ०२३५: विभज्यवादो नाम भजनीयवादः । तत्र शंकिते भजनीयवाद एव बक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छज्जसि । अथवा विभज्यवादो नाम अनेकांतवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्या नित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि । २ वृत्ति, पत्र २५६, २५७ : तथा विभज्यवादं पृथगर्थनिर्णयवाद व्यागृणीयात्, यदि वा विभज्यवाद:-- स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसवादितया सर्वव्यापिन स्वानुभवसिद्धं वदेद, अथवा सम्यगर्यान् विभज्य-पृथक्कृत्वा तद्वादं वदेत्, तद्यथा-नित्यवाद द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालमावः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम्-'सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ? । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।' ३. Early Buddhist Theory of Knowledge, K.N. Jayatilleke, Page 280. ४. Early Buddhist Theory of Knowledge, Page 293: The term vi+vbhaj-is found in another important sense in the Pali Canon to denote a detailed classification, exposition or explanation of a brief statement or title. Jain Education Intemational Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५८५ अध्ययन १४ : टिप्पण ८२-८३ क्योंकि यदि गृहस्थ मिथ्या प्रतिपन्न है तो बुद्ध ने कहा - इसका निश्चित उत्तर (सत्य या असत्य) नहीं दिया जा सकता। पहला भंग असत्य है और यदि गृहस्थ सम्यक् प्रतिपन्न है तो पहला भंग सत्य है । इसी प्रकार यदि प्रव्रजित मिथ्या प्रतिपन्न है तो पहला भंग सत्य है और यदि वह सम्यक् प्रतिपन्न है तो पहला भंग असत्य है । इसलिए कुछ कथन ऐसे होते हैं, जिनका पूरा विश्लेषण किए बिना, वे सत्य हैं या असत्य, ऐसा नहीं कहा जा सकता । ' बौद्ध साहित्य में चार प्रकार के प्रश्नों का उल्लेख है' १. ही एकशव्याकरणीयो ईसा प्रश्न जिसका उत्तर एकांसकामी हो । २. पण्हो पतिपुच्छव्याकरणीयो- वैसा प्रश्न जिसका उत्तर प्रतिप्रश्न से दिया जाए । ३. पण्होथापणीयो - वैसा प्रश्न जिसका उत्तर अपेक्षित नहीं होता | ४. पण्हो विभज्जव्याकरणीयो - वैसा प्रश्न जिसका उत्तर विश्लेषण के साथ दिया जाए । विभज्यवाद को अनेकांशिकवाद भी कहा जा सकता है । इसका अंग्रेजी रूपान्तर है-Conditional assertions or Analytical assertions. पालि साहित्य में 'वि' पूर्वक 'भज्' धातु विशेष अर्थ में प्रयुक्त है। उसका अर्थ है-विस्तारपूर्वक कहना । पालि भाषा में 'उद्देश' का अर्थ संक्षेप में कहना और विभ या विमंग' का अर्थ है-विस्तारपूर्वक कहना 'अर्ली बुद्धिस्ट थियरी ऑफ नोलेज' के विद्वान् लेखक ने बौद्धों के अनेकांशिकवाद की तुलना जैन दर्शन सम्मत 'अनेकान्तवाद' से की है । वे लिखते Anekamsika=an + ek (a ) + ams (a ) + ika ānd anekāntaan+ek (a ) + anta and while amsa means 'part, corner or edge' (s. v. amsa, PTS. Dictonary') anta means 'end or edge'.4 ין यह शाब्दिक दृष्टि से तुलना हो सकती है किन्तु अनेकान्तवाद की जो दार्शनिक पृष्ठभूमि है, वह अनेकांशिकवाद की नहीं है। अनेकवाद प्रत्येक पदार्थ में अनन्तविरोधी धर्मों की स्वीकृति देता है अनेकांशवाद में ऐसा नहीं है। लेखक ने अनेकांश वाद को विभज्यवाद का पर्याय कहा है । " बुद्ध स्वयं कहते हैं- एकांसिकापि मया धम्मा देसिता पन्नता, अनेकांसिकापि मया धम्मा देसिता पन्नता ।" उन्हें पूछा गया - एकांशिक धर्म कौन से हैं और अनेकांशिक धर्म कौन से हैं ? उत्तर में उन्होंने कहा - 'इदं दुक्खं इति' - यह दुःख है यह एकांशिक धर्म की प्रज्ञप्ति है और 'सस्तो लोको ति वा' लोक शाश्वत भी है यह अनेकांशिक धर्म की प्रज्ञप्ति है ।" ---- ८२. धर्म के लिए समुत्थित पुरुषों के साथ (धम्मसमुट्ठितेहि ) धर्म या संयम के अनुष्ठान से सम्यक् उत्थित अर्थात् सत्साधु, उद्यतविहारी। ऐसे साधु जो यथार्थ में साधनारत हैं और जो संयम से ओतप्रोत हैं । केवल प्रयोजन मात्र को सिद्ध करने के लिए मुनिवेश को धारण करने वाले धर्म में समुत्थित नहीं हो सकते । ८३. दो भाषाओं (भासादुगं ) भाषा के चार प्रकार हैं १. मज्झिमनिकाय II, ४६१, २०४६६ । २. अंगुत्तरनिकाय II ४६ । ३. मज्झिमनिकाय III १९३ । अंगुत्तरनिकाय II ११८, २२३ । ४. Early Buddhist Theory of Knowledge, Page 280. ५. Early Buddhist Theory of Knowledge, Page 280 A Conditional assertion (vibhajja-vada) would be an anekarisa - (or anekamsika.) vada. ६. दीघनिकाय I १६१ । ७. वही, I १९१ । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो१ १. सत्य भाषा । २. मृषा भाषा । ३. सत्यामृषा - मिश्र भाषा । ४. असत्यामृषा-व्यवहारभाषा । मुनि के लिए प्रथम और अन्तिम — इन दो भाषाओं का प्रयोग करणीय और शेष दो भाषाओं का प्रयोग अकरणीय है । दशवैकालिक सूत्र के सातवें अध्ययन का नाम है- 'वाक्यशुद्धि ।' इसमें चारों प्रकार की भाषाओं का स्वरूप कथन तथा विधि-निषेध का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है । प्रस्तुत प्रसंग में 'भाषाद्विक' - सत्यभाषा और व्यवहार भाषा के बोलने का कथन किया गया है।' वृत्तिकार का कथन है कि मुनि विभज्यवाद का प्रतिपादन भी इन दो भाषाओं से ही करे। किसी के प्रश्न किए जाने पर या न किए जाने पर अथवा धर्म का व्याख्यान करते समय या और किसी अवसर पर मुनि इन दो भाषाओं का ही सहारा ले । ८४. समतापूर्वक ( समया ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'सम्यक्' किया है । ' चक्रवर्ती और कंगाल — दोनों के प्रति समभाव ५८६ ८६. ( तहा तहा साहु अकक्कसेणं) ८५. (अणुगच्छमाणे वितऽभिजाणे ) आचार्य, मुनि आदि जब धर्मकथा करते हैं या तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं तब कोई मेधावी शिष्य अपनी प्रखर बुद्धि से उस तत्त्व को सम्यक् ग्रहण कर लेता है, उस तत्त्व का अनुसरण कर लेता है और कोई मन्द बुद्धि वाला शिष्य उस तत्व को विपरीत रूप से ग्रहण करता है ।" अध्ययन १४ : टिप्पण ८४-८६ रखता हुआ या राग-द्वेष से रहित होकर मुनि विहरण करे । * श्लोक २३ : यहां 'साहु' शब्द दीर्घ होना चाहिए था। छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग हुआ है । तुम जो मंद मेधा वाला शिष्य तत्त्व का यथार्थ अनुसरण नहीं कर पाता तब आचार्य उसे वैसे-वैसे हेतु दृष्टान्त, युक्ति, उपसंहार आदि के द्वारा भलीभांति समझाने का प्रयत्न करें, किन्तु कर्कश वचनों से उसकी निर्भर्त्सना करते हुए यह न कहें - अरे ! निरे मूर्ख हो । धिक्कार है तुम्हें ! इस अर्थ से तुम्हारा क्या प्रयोजन ! तुम दुर्बोध्य हो। तुम्हे ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता । मुनि तत्त्व समझाते समय मन, वचन और काया से भी शिष्य की अवहेलना न करे, भर्त्सना न करे । मन से भर्त्सना, जैसे-आंख, मुंह को विकृत करना । वचन से भर्त्सना —तुम मूर्ख हो, दुर्बोध्य हो आदि कहना । काया से भर्त्सना - क्रुद्धमुख होना तथा हाथ और होठों को फड़फड़ाना। ६. (क) पृषि, पृ० २३५ । (ख) वृति पत्र २५७ ॥ पढम चरिमाओ दुवे भासाओ । १. चूणि, पृ० २३५: सत्या असत्यामृषा च भाषावुगं २. वृत्तपत्र २५७ भयादपि भावाद्वितयेनंवादित्वाभाव: आद्यचरनयोः सत्यासत्यामृषयोकिं भाषाद्विकं - चायायं स्वचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मरूपावसरेऽयदा या सा था। ३. चूर्ण, पृ० २३५: समयेत्ति सम्यग् । ४. वृत्ति, पत्र २५७ : सह विहरन् चक्रवतिंद्र मकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा । ५. (क) चूर्णि, पृ० २३५ - तस्यैवं कथयतः कश्चिद् ग्रहण- धारणा सम्पन्नः यथोक्तमेवा वितत्थं गृह्णाति कश्चित्तु मन्वमेधावी विnasमिजाणाति । (ख) वृत्ति पत्र २५७ तस्यैव भावाइमेन कथयतः कश्चिग्मेधावितया तथैव समर्थयाचार्यादिना कथितमनुगच्छन्सम्यगवते, अपरस्तु मन्दमेधावितथा वितथम् अन्ययाभिजानीयात्। -- तो Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५८७ प्रध्ययन १४ : टिप्पण ८७-८९ ८७. (ण कत्थई भास विहिंसएज्जा) इसका अर्थ है-भाषा की हिंसा न करे, दूसरे के कथन का तिरस्कार न करे, निन्दा न करे । दूसरे के कुछ कहने पर, उसके कथन में असंबद्धता का उद्घाटन कर उस प्रश्नकर्ता की विडम्बना न करे।' ८८. (णिरुद्धगं वावि ण वोहएज्जा) निरुद्ध का अर्थ है-थोड़े अर्थ वाला व्याख्यान या थोड़े समय में पूरा होने वाला व्याख्यान ।' इसका तात्पर्य है कि मुनि तत्त्व की व्याख्या करते समय या धर्मकथा करते हुए, अर्थ को बढ़ाकर उसे अधिक लम्बा न करे । केवल उतना ही अर्थ बताए जो अक्षरों में निबद्ध है-सो अत्यो वत्तम्वो जो अत्थो अक्खरेहिं आरूढो ।' चार प्रकार के सूत्र होते हैं१. अक्षर अल्प, अर्थ महान् । २. अक्षर अधिक, अर्थ अल्प । ३. अक्षर अल्प, अर्थ अल्प। ४. अक्षर अधिक, अर्थ महान् । इनमें प्रथम भंग ही प्रशस्त है। वही सूत्र-वाक्य अच्छा माना जाता है जो अल्पाक्षर वाला हो, किन्तु जिसका अर्थ महान् हो। इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने कहा है 'सो अत्थो वत्तव्यो, जो मण्णइ अक्खरेहि थोवेहि । जो पुण थोवो बहुअक्खरेहि सो होइ निस्सारो॥' -जो अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाला होता है, वही अच्छा है । जो अधिक अक्षर वाला और अल्प अर्थ वाला होता है वह निस्सार है। मुनि अल्प अर्थ वाले या अल्पकाल में पूर्ण होने वाले व्याख्यान या तत्त्व-प्रसंग को व्याकरण, तर्क आदि तथा प्रसक्ति या अनुप्रसक्ति के द्वारा लम्बा न करे।" श्लोक २४: ८६. भलीभांति अर्थ को देखने वाला (समियाअददंसी) इसका संस्कृत रूप है--'सम्यक् + अर्थदर्शी'। इसका अर्थ है-यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादन करने वाला, देखने वाला। मूनि आचार्य आदि के पास अर्थ की जैसी अवधारणा की हो उसी प्रकार से उसकी अभिव्यक्ति करे, मनगढ़त कथन न करे । वह नई व्याख्या न करे । वह यह समझे कि मैं आचार्य नहीं हूं। मुझे नई व्याख्या करने का अधिकार नहीं है। मैंने आचार्य के पास जैसी अवधारणा की है, वही मैं दूसरों को बताऊं । इस प्रकार सोचने वाला सम्यक् अर्थदर्शी होता है । १. (क) चूणि, पृ० २३५ : तस्य वाऽबुद्ध्यमानस्य श्रोतुर्न कुत्रचिद् भाषां विहन्सेत्-अहो ! भङ्गा लक्ष्यन्ते, न निन्वेदित्यर्थः । (ख) वृत्ति, पत्र २५७ : न तिरस्कुर्याद् असंबद्धोद्घट्टनतस्तं प्रश्नयितारं न विडम्बगेदिति । २. वृत्ति, पत्र २५७ : निरुद्धम्-अर्थस्तोकम् ........"निरुद्धं वा-स्तोककालीनं व्याख्यानम् । ३. चणि, पृ० २३५ : निबद्धं वाऽमर्थाख्यानं वा न दीर्घ कुर्याद अधिकार्थः सो अत्यो वत्तवो जो अत्यो अक्खरेहि आरूढो। ४. (क) चूणि पृ० २३५ । (ख) वृत्ति, पत्र २५७ । ५. वृत्ति, पत्र २५७ : स्तोककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या 'न दीर्धयेत्'-न दीर्घकालिकं कुर्यात् । ६. (क) चूणि, पृ० २३६ : समिया नाम सम्यग् यथा गुरुसकाशादुपधारितम्, सम्यग् अर्थ पश्यन्ति समियाअट्ठदंसी नाहमाचार्य इति कृत्वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५७ : सम्यग-यथावस्थितमर्थं यथा गुरुसकाशादवधारितमर्थप्रतिपाद्रष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी । Jain Education Intemational Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६०. संगत बात कहे ( समालवेज्जा ) ५८८ इसके दो अर्थ हैं- अच्छी प्रकार से बात कहना या संगत बात कहना । " प्रश्नकर्त्ता यदि अल्पाक्षर वाली बात को अच्छी तरह से न समझ सके तो मुनि अपने कथन को विविध प्रकार से कहे, उसका भावार्थ बताए । ' १. अर्थपूर्ण और अस्खलित वचन बोले (पडिपुण्णभासी ) अपूर्ण और अस्मलित वचन बोलने वाला प्रतिपूर्णभावी होता है। अक्षरों तथा अर्थ की दृष्टि से जो वाक्य अहीन, अस्खलित और अमिश्रित होता है, वही वाक्य प्रतिपूर्ण होता है, वही भाषा प्रतिपूर्ण होती है । जो मुनि ऐसी भाषा का प्रयोग करता है, वह प्रतिपूर्णभाषी कहलाता है ।" अध्ययन १४ टिप्पण १०-१२ मुनि व्याख्यान करते समय अथवा प्रश्न का उत्तर देते समय थोड़े अक्षर बोलकर ही अपने आपको कृतार्थ न समझे। क्योंकि यदि विषय गहन हो, उसकी अर्थाभिव्यक्ति दुरूह हो तो श्रोता के आधार पर उचित हेतु और युक्तियों के द्वारा विषय को स्पष्ट करे, जिससे कि श्रोता उसे हृदयंगम कर सके। दशकालिक सूत्र में भी मुनि को 'प्रतिपूर्ण' भाषा बोलने का निर्देश दिया है।' १२. आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे ( आणाए सिद्धं बघणं भिजु जे ) मुनि आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे। जैसे गुरु ने अर्थ की अभिव्यक्ति की है, उसी प्रकार से अर्थ की अभिव्यक्ति करे । इस प्रकार आज्ञासिद्ध का अर्थ है— गुरु के पास की हुई अवधारणा, स्वेच्छाकल्पित नहीं । वचन का अर्थ है – सूत्र और अर्थ | मुनि तत्त्व का निरूपण करते समय उत्सर्ग के स्थान पर उत्सर्ग, अपवाद के स्थान पर अपवाद, स्व- समय के स्थान पर स्वसमय और पर समय के स्थान पर समय का अवलंबन ले । स्वेच्छाचारिता से वह कुछ भी न कहे । ' वृत्तिकार ने 'आणाए सुद्ध' पाठ मानकर आज्ञा का अर्थ - सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगम और शुद्ध का अर्थ - निर्मल, पूर्वापरअविरुद्ध निरवद्य वचन किया है। शेष व्याख्या चूर्णिकार के समान ही है । " आचारांग ११३८ में 'आणाए' का अर्थ - तीर्थङ्कर या अतिशयज्ञानी का वचन किया है ।" उसी आगम के ११६७ में 'अमाणाए' का अर्थ तीर्थदूर के वचनों का अतिक्रमण किया है। १. चूर्ण, पृ० २३४ : सोमणं संगयं वा लवेज्जा । २. वृत्ति, पत्र २५७ : यत्पुन र तिविष मत्वादल्पाक्षरैनं सम्यगवबुध्यते तत्सम्यक् शोभनेन प्रकारेण समन्तात् पर्यायशब्दोच्चारणतो भावार्थकथमतश्चालपे । ३. (क) चूर्ण, पृ० २३६ : पडिपुण्णमासी अट्ठ-अक्खरे हि अहीनं अक्खलितं अमिलितं । (ख) वृत्ति पत्र २५७ प्रतिपुर्णभास्वाद अस्थासितामिलिताहीनाक्षी भवेदिति । ४. वृति पत्र २५७ ५. बसवेल ४ नारेवाल रंक्त्वा कृतार्थो भवेद, अपितु शेयनामावणे सहेतुकत्वादिभिः धोतारम्" अवि पनि वियं नियं अपरमणिं चासं निसिर अन्तर्व ६. पूमि, पृ० २२३ आणाए सिद्ध व आशा यथा गुरुगोपदिष्टं तचैवोपदेष्टव्यम् आशासिद्धं नाम ययोपधारितम् न स्वेच्छाविकल्पितम् वचनमिति समत्यो वा विविधं मुंजे कां ? उसको उत्सम् अववाते अचवावं, एवं ससमये ससमयं परसमये परसमयं । ७. वृति पत्र २५७ तीर्थकराया-- सर्वनप्रणीतागमानुसारेण 'शुद्धम्' अवदातं पूर्वापराविरुद्ध निरवद्यं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सति उत्सर्गमपवादविषये चापवाद तथा स्वपरसमयोर्यथास्वं वचनमभिवेत् । ८. आयारो, १/३८ वृत्ति, पत्र ३६: आज्ञया मौनीन्द्रवचनेन । ६. वही, १/२७, वृत्ति पत्र १८ अनाशां वर्त्तते न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीति । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ५८६ अध्ययन १४ टिप्पण ९३-९६ 'आणाए मामगं धम्मं - इसका अर्थ हैं- वे मेरे धर्म को जानकर मेरी आज्ञा को स्वीकार कर (आजीवन मुनि-धर्म का पालन करते हैं) । 'आज्ञा' शब्द के ये सारे परम्परागत अर्थ हैं। वास्तव में इसका अर्थ- अतीन्द्रियज्ञान या उपचार से अतीन्द्रियज्ञानी का वचन भी हो सकता है । १३. पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे (अभिसंधए पायविवेग) तत्त्व की व्याख्या करते समय मुनि प्रतिपल यह सोचे कि मेरे पाप का पृथक्करण कैसे हो ? वह पूजा, सत्कार या किसी प्रकार के गौरव के वशीभूत होकर व्याख्यान न करे। वह केवल यह सोचे कि व्याख्यान करने का एकमात्र उद्देश्य है- कर्मों की निर्जरा, पाप का पृथक्करण । मुनि लाभ, सत्कार आदि से निरपेक्ष रहकर निर्दोष वचन कहे ।" श्लोक २५ : १४. यथोक्त वचन को (अहाबुदवाई) इसका अर्थ है - यथोक्त वचन अर्थात् तीर्थंङ्कर, गणधर आदि विशिष्ट ज्ञानियों का वचन । * ६५. मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले ( णाइवेलं वएज्जा ) भूमिकार ने 'बेला' के दो अर्थ किए है १. जिस सूत्र और अर्थ का या धर्मदेशना का जो काल है, वह । २. मर्यादा । वृत्तिकार ने 'वेला' का अर्थ - अध्ययन-काल और कर्त्तव्य-काल किया है । जिस कार्य को जिस समय में करना हो, उसी समय में उसे निष्पन्न करना चाहिए। काल का अतिक्रमण दोष है । इसका तात्पर्य है कि मुनि अध्ययन काल में अध्ययन करे और निर्धारित काल में अपने दूसरे कर्त्तव्यों को सम्पन्न करे । जिस समय जो सूत्र पढ़ना हो, उसे पढ़े, जो अर्थ धारण करना हो उस अर्थ को धारण करे और जिस समय व्याख्यान करना हो, उस समय व्याख्यान करे । काल-मर्यादा का अतिक्रमण न करे । दशवैकालिक सूत्र का प्रसिद्ध सूक्त है- 'काले कालं समायरे ।' मुनि यथाकालवादी और यथाकालचारी हो । ' ६. वृष्टि को खंडित या दूषित न करे (दिट्ठि ण लसएन्जा) 'लूसएज्जा' के दो अर्थ हैं - खंडित करना, दूषित करना । दृष्टिमान् मुनि धर्मकथा करते समय, स्वपक्ष या परपक्ष की बात कहते हुए ऐसी बात कहे जिससे सम्यग्दृष्टि का हनन न हो । कुतीर्थिकों की प्रशंसा या अपसिद्धान्त के कथन से श्रोताओं की दृष्टि को भी दूषित न करे । वह तत्त्व का प्रतिपादन इस रीति से १. आयारो ६ / ४८ ॥ २. चूर्ण, पृष्ठ २३६ : कथं मम वाचयतः पापविवेकः स्यात् ? न च पूजा-सरकार-गौरवादिकारणाद् वाचयति । ३. वृत्ति, पत्र २५७ : लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्क्षमाणो निर्दोषं वचनमभिसन्धयेदिति । ४. वृत्ति, पत्र २५८ : यथोक्तानि तीर्थंकरगणधराविभिस्तानि । ५. घृणि, पृष्ठ २३६ : वेला नाम यो यस्य सूत्रस्यार्थस्य धर्मदेशनाया वा कालः, वेला मेरा, तां वेलां नातीत्य ब्रूयादित्यर्थः । ६. वृत्ति, २५८ : सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वा तां बेलामतिलंध्य नातिवेलं वदेद्— अध्ययनकर्त्तव्य मर्यादां नातिलङ्घयेत् स ( स ) गुण्डानं प्रति प्रजेद्वा यथावसरे परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० सूयगडो १ अध्ययन १४ : टिप्पण६७-१०० करे जिससे श्रोताओं को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो या सम्यग्दर्शन स्थिर होता जाए।' ६७. समाधि को (समाहि) चूर्णिकार ने ज्ञान आदि समाधि तथा धर्म, मार्ग ओर चारित्र-तीनों का ग्रहण किया है । वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप समाधि अथवा चित्त का सम्यक् व्यवस्थापन ।' श्लोक २६ : १८. सिद्धान्त को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करे (अल्सए) अलूषक वह होता है जो सिद्धान्त और आचार को यथार्थरूप में प्रस्तुत करता है।' ६६. (अपरिणत को) रहस्य न बतार (पच्छण्णभासी) जो सिद्धांत और आचार के विषय को प्रकट नहीं करता, प्रच्छन्न वचनों के द्वारा उसे छुपाता है, वह प्रच्छन्नभाषी होता है । अथवा जो अपरिणत श्रोता के सम्मुख ऐसे रहस्यों का उद्घाटन करता है, ऐसे अपवाद-सूत्रों का कथन करता है कि श्रोता असमंजस में पड़ जाता है, शंकाशील बन जाता है । वह भी प्रच्छन्नभाषी होता है।" जो सिद्धान्त के सूक्ष्म रहस्य को अपरिणत शिष्य के सामने अभिव्यक्त करता है, वह रहस्य उस शिष्य के लिए दोषकारी होता है 'अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीण, शमनीयमिव ज्वरे ॥' -अप्रशान्त चित्त वाले व्यक्ति के सम्मुख शास्त्र के रहस्य का प्रतिपादन करना उसके दोष के लिए ही होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न ज्वर में दी गई औषधि ज्वर को बढाती है, घटाती नहीं। १००. सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे (णो सुत्तमत्थं च करेज्ज अण्णं) मुनि सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि सूत्र--- आगम को सर्वथा इधर-उधर न करे। उसके एक अक्षर को भी न घटाए और न बढाए । वह जैसा और जितना है उसे वैसा और उतना ही रखे । अर्थ की विकल्पना में व्यक्ति स्वतंत्र होता है । वह अपनी मेधा और सूक्ष्म में जाने की योग्यता के अनुसार उसके अर्थ की अभिव्यक्ति करता है। वह अर्थाभिव्यक्ति स्वसिद्धान्त से विरुद्ध या अविरुद्ध भी हो सकती है। किन्तु मुनि जानबूझकर सम्यक् को असम्यक् और असम्यक् को सम्यक् न करे। १. (क) चूणि. पृ० २३६ : सम्यग्दष्टिः सपक्खे परपक्खे वा कथां कथयन् तत् कथयेद् जेण दरिसणं ण लूसिज्जइ, कुतीर्थप्रशंसाभिः अपसिद्धान्तदेशनाभिर्वा न श्रोतुरपि दृष्टिं दूषयेत्, तथा तथा तु कथयेद् यथा यथाऽस्य सम्यग्दर्शनं भवति स्थिरं वा भवति । (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : न दूषयेत, इदभुक्तं भवति---पुरुषविशेषं ज्ञात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति । २. चूणि पृ० २३६ : ज्ञानाविसमाधि-धर्म-मार्ग चारित्रं जानीते । ३. वृत्ति, पत्र २५८ : समाधि- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यकचित्तव्यवस्थानाख्यं वा । ४. चूर्णि, पृ० २३६ : अलूसकः सिद्धान्ताचारयो. प्रकटमेव कथयति । ५. चूणि, पृ० २३६ : न तु प्रच्छन्नवचनस्तमर्थ गोपयति, अपरिणतं वा श्रोतारं प्राप्य न प्रच्छन्नमुद्घाटयति, अपवादमित्यर्थः मा भूत् "आमे घडे णिहितं । किञ्च-अणुकंपाए दिज्जति । ६. वृत्ति, पत्र २५८ : न प्रच्छन्नभावी भवेत्-सिद्धान्तार्थमविरुद्धमदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न गोपयेत्, यदि वा प्रच्छन्नं वाऽथमपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायव संपद्यते, तथा चोक्तम् अप्रशान्तमतौ ...। ७. चूणि, पृ० २३६ : न सूत्रमन्यत् प्रद्वेषेण करोति अन्यथा वा, जधा "रण्णो भत्तंसिणो जत्थं"। प्रश्नो नाम अर्थः, तमपि नान्यथा कुर्याद, जधा- "आवंती के आवंती" (आयारो १/५/१) एके यावता तं लोगा विष्परामसंति । सूत्रं सर्वथैवान्यथा न कर्तव्यम् अर्थविकल्पस्तु स्वसिद्धान्तविरुद्धो अविरुद्धः स्यात् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ सूयगडो १ अध्ययन १४ : टिप्पण १०१-१०६ १०१. शास्ता की भक्ति (सत्थारभत्ती) शास्ता का अर्थ है तीर्थंकर, सर्वज्ञ । भक्ति का अर्थ है-बहुमान । शास्ता स्वहित साध चुके होते हैं, अत: वे सदा परहित में रत रहते हैं । आगम-श्रुत उन्हीं के द्वारा प्रणीत है। इसलिए मुनि उनके प्रति अपनी भक्ति से प्रेरित होकर सूत्रार्थ को अन्यथा न करे। १०२. परम्परा के अनुसार (अणुवीचि) इसका संस्कृत रूप है 'अनुवीचि' । यह क्रिया विशेषण है । इसका अर्थ है-परंपरा के अनुसार । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप-अनुविचिन्त्य किया है।' १०३. श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे (सुयं च सम्म पडिवादएज्जा) मुनि संघ में रहता है, वहां अध्ययन करता है, संघ से सहयोग प्राप्त करता है । इस प्रकार वह संघ का ऋणी हो जाता है। उस ऋण से मुक्त होने के लिए संघ को सेवा देना ऋण-परिमोक्ष होता है। श्रुत के प्रतिपादन का एक उद्देश्य है - ऋण-परिमोक्ष ।' श्लोक २७: १०४. जो सूत्र का शुद्ध उच्चारण करता है (सुद्धसुत्ते) चूर्णिकार के अनुसार श्रुत जिसके लिए अत्यन्त परिचित हो चुका है और जिसका उच्चारण व्यत्यानेडित आदि दोषों से रहित है, वह शुद्ध सूत्र है।' वृत्तिकार के अनुसार जिसका प्रवचन अध्ययन और प्ररूपणा की दृष्टि से यथार्थ होता है वह शुद्ध-सूत्र कहलाता है। १०५. तपस्वी है (उवहाणवं) आगमों में जिस-जिस आगम के लिए जो-जो तपश्चरण विहित है, उसको करने वाला उपधानवान् कहलाता है।' १०६. धर्म को विविध दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है (धम्मं च जे विदंति तत्थ तत्थ) इसका अर्थ है-जो धर्म को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है। 'विदंति' के दो अर्थ हैं-जानना, सम्यक् रूप से प्राप्त करना । इस वाक्य का तात्पर्याथं यह है मुनि आज्ञाग्राह्य अर्थ को केवल आगम से ही जाने और हेतुग्राह्य अर्थ को सम्यक् हेतुओं से समझे। अथवा अपने सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध अर्थ को अपने सिद्धान्त में व्यवस्थापित करे और पर-सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध अर्थ को पर-सिद्धान्त में व्यवस्थापित करे । अथवा उत्सर्ग सूत्र से व्यवस्थित अर्थ को उत्सर्ग सूत्र से समझे और अपवाद को अपवाद सूत्र से समझे । मुनि सूत्र को विभिन्न १. (क) चूणि, पृ० २३६ : शासतीति शास्ता, शास्तरि भक्तिःसस्थारभक्तिः, स भवति सत्थारभक्तिः । (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : परहितकरतः शास्ता तस्मिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्ति:-बहुमानस्तया तद्भक्त्या....." २. (क) चूणि, पृ० २३६ : ... 'अणुविचिणंतु अणुविचितेऊण ... अनुविचिन्त्य । (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : ..... अनुविचिन्त्य । ३. (क) चूणि, पृ० २३६ : तच्च श्रुत्वा सम्यग् अन्येभ्यः रिणपरिमोक्खी पडिवावएज्जा तदिदं पडिवादयेत् पडिवावेज्जा सूत्रमर्थ धर्म कथां वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : तथा यत् श्रुतमाचार्यादिभ्यः सकाशातत्तशैव सम्यक्त्वाराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्ष प्रतिपद्यमानः 'प्रतिपादयेत्'-प्ररूपयेन सुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेविति । ४. चूर्णि, पृ० २३७ : सुद्धं परिचितं अविच्चामेलितं च । ५. वृत्ति, पत्र २५८ : शुद्धम् - अवदातं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतोऽध्ययनतश्च सूत्रं-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः । ६. (क) चूणि, पृ० २३७ : उपधानवानिति तपोपधानवान् । (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : उपधानं–तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रस्याभिहितमागमे तद्विद्यते यस्यासावुपधानवान् । Jain Education Intemational Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ दृष्टियों से समझने का प्रयत्न करे। १०७. जिसका वचन लोकमान्य होता है (आएण्जयमके) १०८. कुशल (कुसले) ५६२ आदेववाक्य अर्थात् वह व्यक्ति जिसका वचन लोकमान्य होता है, ग्राह्य होता है।" अध्ययन १४ टिप्पण १०७-१०८ पूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए है १. प्रत्यक्षज्ञानी । २. परोक्षज्ञानी । ३. खेदज्ञ - आत्मज्ञ । वृत्तिकार के अनुसार जो मुनि आगम के प्रतिपादन में तथा सद् अनुष्ठान में निपुण होता है वह कुशल कहलाता है ।" १. (क) चूणि, पृ० २३७ : आशाग्राह्या आगमेनैव प्रज्ञापयितव्याः दान्तिकोऽपि हेतुदाहरणोपसंहारः । अथवा तत्र तत्र इति स्वसमये परसमये वा तथा ज्ञानादिषु द्रव्याविषु वा, उत्सर्गाऽपवादयोर्वा यत्र यत्र तत् तथा द्योतयितव्यम् । (ख) वृत्ति पत्र २४० २५९ धर्मचारिवासवं यः सम्यक् वेति विन्दते वा सम्य समते तत्र त ति जाज्ञाप्राह्योऽर्थः स आशय प्रतिपतयो हेतुस्तु सम्यहेतुना यदि वा स्वसमयसिद्धोऽर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीयः पर (समय) सिद्धस्व परस्मिन् अथवोत्सर्गापचादयो वस्थितोऽस्ताभ्यामेव वचास्वं प्रतिपादयितव्यः । २. (क) चूर्णि, पृ० २३७ : आवेयवाक्य इति ग्राह्यवाक्यः । (ख) वृत्ति, पत्र २५६ : आदेयवाक्यो ग्राह्यवाक्यो भवति । ३. चूर्णि, पृ० २३७ : प्रत्यक्षः परोक्षज्ञानी वा खेदण्णे । ४. वृति पत्र २५ कुशलो - निपुणः आगमप्रतिपादने सहाने । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमं अज्झयरणं जमईए पन्द्रहवां अध्ययन यमकोय Jain Education Intemational Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' है । समवायांग में भी यही नाम निर्दिष्ट है। इसके सभी श्लोक 'यमक' अलंकार से युक्त हैं। प्रथम श्लोक के अन्तिम चरण और दूसरे श्लोक के प्रथम चरण में 'यमक' है। जैसे--दूसरे श्लोक के अन्तिम शब्द हैं.---'तहितहिं' और तीसरे के प्रथम शब्द हैं 'तहिं तहि' । सर्वत्र शब्द-साम्य या भाव-साम्य है । 'यमक' में निबद्ध होने के कारण इसे 'यमकीय' कहा गया है। चूर्णिकार ने इसके दो नाम बताए हैं-आदानीय और संकलिका ।' वृत्तिकार ने मुख्य नाम आदानीय और विकल्परूप में यमकीय' (प्रा० जमतीयं) और संकलिका'-ये दो नाम माने हैं । इस प्रकार इस अध्ययन के तीन नाम हो जाते हैं -- आदानीय, यमकीय और संकलिका। वृत्तिकार ने 'आदानीय' और 'संकलिका' नामकरण को सार्थकता इस प्रकार बतलाई है मुमुक्षु व्यक्ति अपने समस्त कर्मों को क्षीण करने के लिए जिन ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आदान (ग्रहण) करता है, उनका इस अध्ययन में प्रतिपादन है, इसलिए इसे 'आदानीय' नाम से सम्बोधित किया गया है।" संकलिका के दो प्रकार हैं१. द्रव्य संकलिका-सांकल आदि। २. भाव संकलिका-जिसमें उत्तरोत्तर विशिष्ट अध्यवसायों का संकलन होता है । इस अध्ययन के श्लोकों के अन्त-आदि पद में एक प्रकार की संकलना (संकलिका) है। उसके आधार पर इसे 'संकलिका' कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में एक शृंखला (संकलिका) का प्रयोग है। इसमें तीन प्रकार की शृंखला है-१. सूत्र शृंखला, २. अर्थ शृंखला और ३. तदुभय (सूत्र-अर्थ) शृंखला।' चूर्णिकार ने दूसरे श्लोक में सूत्र संकलिका और अर्थ संकलिका-दोनों माना है तथा पन्द्रहवें श्लोक में केवल अर्थ संकलिका माना है। शेष श्लोक संभवतः सूत्र-संकलिका के हैं । १. चूणि, पृ०२३८ : आवाणिज्जं ति वा संकलितम्झयणं ति वा । २. वृत्ति, पत्र २५६ : अथवा जमतीयं ति अस्याध्ययनस्य नाम । ३. वृत्ति, पत्र २६० : केचित् तु पुनरस्याध्ययनस्यान्ताविपदयोः संकलनात् संकलिकेति नाम कुर्वते। ४. वृत्ति, पत्र २६०। ५. वृत्ति, पत्र २६० : आद्यन्त (अन्तादि ?) पदयोः संकलनादिति । ६. चूणि, पृ० २३८ : कहिंचि सुत्तेण संकला भवति, कहिंचि अत्थेण, कहिचि उभयेण वि । ७. चूणि, पृ० २३६ : अत्रोभयेनापि संकलिका। ८. चूर्णि, पृ० २४१ : इयमर्थसंकलिका-अंताणि धीरा सेवंति। Jain Education Intemational Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. जमतो पडपणं आयमिस्सं च णायओ । सव्वं मण्णति तं ताई दंसणावरणंत ए ॥ २. अंतए वितिगिच्छाए से जाणइ अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया ण से होइ तह तह ॥ ३. तह तह सुक्खायं से य सच्चे सुआहिए । सदा सच्चेण संपणे मेति भूतेगु कप्पए । ४. भूतेसु ण विरुज्भेज्जा एस धम्मे बुसीमओ । वुसोमं जगं परिण्णाय अस्सि जीवियभावणा ॥ ५. भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा सब्वदुक्खा तिजवृति ॥ ६. तिउट्टती उ मेहावी जाणं लोगंसि पावनं । तुति पावकम्माणि णवं कम्मम ॥ ७. अकुब्वओ णवं णत्थि कम्मं णाम विजाणतो । णच्चाण से महावीरे जेण जाई ण मिज्जती ॥ पण्णरसमं अभयणं पन्द्रहवां अध्ययन जमईए : यमकीय संस्कृत छाया यदतीतं प्रत्युत्पन्नं, आगमिष्यच्च ज्ञायकः । सर्व मन्यते तत् तादृग, दर्शनावरणान्तकः 11 अन्तकः विचिकित्सायाः, स जानाति अनीवृशस्य न स भवति तत्र तत्र तच्च सत्यं सदा सत्येन मैत्रीं भूतेषु अनीदृशम् । आख्याता, तत्र तत्र ॥ स्वाख्यातं, सु-आहुतम् । संपन्न:, कल्पयेत् ॥ विरुध्येत भूतेषु न एष धर्मः वषीमतः । वृषीमान् जगत् परिज्ञाय, अस्मिन् जीवितभावना ॥ भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव बहुतः । नौरिव तीरसंपन्नाः, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ।। मेधावी, त्रुट्यति तु जानन् लोके लोक पापकम् । त्रुट्यन्ति पापकर्माणि, नवं कर्म अकुर्वतः ॥ नास्ति, विजानतः । अकुर्वतो नवं कर्म नाम ज्ञात्वा स महावीरः, यो न जायते न म्रियते । हिन्दी अनुवाद १. दर्शनावरण का अन्त करने वाला ज्ञाता और द्रष्टा पुरुष अतीत, वर्तमान और भविष्य ' -- सबको जानता है । २. विचिकित्सा का अन्त करने वाला अनुपम तत्त्व को जानता है । अनुपम तत्त्व का व्याख्याता यत्र-तत्र नहीं होता। ३. ( जहां विचिकित्सा का अन्त होता है) वहां-वहां स्वाख्यात हैं । वह सत्य' और सुभाषित यह हैसदा सत्य से संपन्न हो जीवों के साथ मैत्री करे । ४. जीवों के साथ विरोध न करे यह संयमी का धर्म है । संयमी पुरुष परिज्ञा से जगत् को जानकर इस धर्म में जीवित - भावना करे । ५. जिसकी आत्मा भावना-योग से शुद्ध है" वह जल में नौका की तरह कहा गया है।" वह तट पर पहुंची हुई नौका की भांति सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।" ६. मेधावी पुरुष लोक में पाप को जानता हुआ उससे मुक्त होता है । उसके पाप-कर्म टूट जाते हैं" जो नए कर्म का अकर्त्ता है । ७. जो नए कर्म का कर्त्ता नहीं है, विज्ञाता (पा द्रष्टा ) है उसके नया कर्म नहीं होता। इसे जानकर जो ( ज्ञाताभाव या चैतन्य के शुद्ध स्वरूप में) महावीर्य - वान्" है वह न जन्म लेता है और न मरता हैमुक्त हो जाता है।" १६ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ८. मिनती महावीरे जस्स णत्थि पुरेकडं । वाऊ द जालम पिया लोगंसि इथिओ | ६. इरिथम जेण सेवंति आदिमोक्खा हु ते जणा । ते जगा बंधणुम्मुक्का णावकखंति जीवितं ॥ १०. जीवितं पिटुओकिया अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता जे सासति ॥ ११. अणुसासणं पुढो पाणी वसुमं पुयणासते । अणासते जते दंते दढे आरतमेहुणे ॥ १२. णीवारे व ण लीएज्जा छिण्णसोते अणाइले । अणाइले सदा दंते संधि पत्ते अणेलिसं ॥ १२. अपेलिसस्स येणे ण विरुज्ज्ज केणइ । मणसा वयसा चैव कायसा चेव चक्खुमं ॥ १४. से चलू मनुस्साणं जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहती चक्कं अंतेग लोहति ॥ १५. अंताणि धीरा सेवंति तेण अंतकरा इहं । इह माणुस्सए ठाणे धम्ममाराहि णरा १६. ट्टि व देवा व उत्तरी त्ति मे सुतं । सुतं च मेतमेणेसि अमणुस्सेसु णो तहा ॥ ५६८ न प्रियते महावीरः, । यस्य नास्ति पुराकृतम् । वायुरिव ज्वालामत्येति, प्रियाः लोके स्त्रियः ॥ । स्त्रियः ये न सेवते आदिमोक्षाः खलु ते जनाः । ते जनाः बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥ जीवितं पृष्ठतः कृत्वा, अन्तं प्राप्नुवन्ति कर्मणाम् । कर्मणा सम्मुखीभूता, ये मार्गमनुशासति ।। अनुशासनं पृथक् प्राणिषु, वसुमान् पूजाऽनाशयः । अनाशयः यतो दान्तः, दृढः आरतमैथुन: ।। नोवारे वा न लीवेत, छिन्नस्रोता अनाविलः । अनाविलः सदा दान्तः, सन्धि प्राप्तः अनीदृशम् ॥ अनीदृशस्य क्षेत्रज्ञः, केनचित् । चैव, न विरुध्येत मनसा वचसा कायेन चैव चैव चक्षुष्मान् ॥ 11 स खलु चक्षुर्मनुष्याणां, यः कांक्षायाश्च अन्तकः । अन्तेन क्षुरो चक्रं अन्तेन अन्तान् धीराः तेन अन्तकरा इह मानुष्यके धर्ममाराध्य वहति, लुठति ॥ सेवन्ते, इह । स्थाने, नराः ॥ वा, श्रुतम् । निष्ठितार्था वा देवा उत्तरीये इति मे श्रुतं च मे एतद् एकेषां, अमनुष्येषु तथा ॥ प्र०१५ यमकीय श्लोक ८-१६ ८. जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं होता वह महावीर्यवान् नहीं मरता" (और नहीं जन्मता) जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है वैसे ही वह (विज्ञाता या द्रष्टा ) लोक में त्रि होने वाली स्त्रियों ( काम-वासना) का" पार पा जाता है । ९. जो स्त्रियों का सेवन नहीं करते (जो काम वासना से मुक्त होते हैं) वे जन मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में हैं ।" वे बन्धन से उन्मुक्त हो, जीने की इच्छा नहीं करते । ११ १०. वे जीवन की ओर पीठ कर कर्मों का अन्त करते हैं । वे कर्मों के सामने खड़े हो" मार्ग का अनुशासन करते हैं।" ११, संयम धन से सम्पन्न पुरुष" प्राणियों में उनकी योग्यता के अनुसार" अनुशासन" करते हैं। वे पूजा का आशय नहीं रखते।" वे अनाशय, संयत, दान्त, दृढ़ और मैथुन से विरत होते हैं। २८ १२. जिसके लोत छिन्न हो चुके हैं जो निर्मल वित्त वाला है," वह प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो !" वह सदा निर्मल चित्त वाला दान्त अनुपम संधि ( ज्ञान आदि) को प्राप्त करता है। १३, अनुपम संधि को जानने वाला" चक्षुष्मान् पुरुष" किसी के साथ मनसा, वाचा, कर्मणा विरोध न करे । १४. वह मनुष्यों का चक्षु है जो आकांक्षा का अन्त करता है । उस्तरा अंत (धार) से चलता है । चक्का अन्त (छोर) से चलता है ।" १५. धीर पुरुष अंत का सेवन करते हैं, इसलिए वे धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं"। वे इस मानव जीवन में धर्म की आराधना कर १६. या तो मुक्त होते हैं" या अनुत्तर देवलोकों में देव होते है, यह मैंने सुना है" कुछ बचनकारों (बुद्ध) का यह मत भी मैंने सुना है कि अ-मनुष्यों (देवों) का भी निर्माण होता है, किन्तु ऐसा नहीं होता, मनुष्य ही निर्वाण को प्राप्त करता है । *" Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र० १५ : यमकोय : श्लोक १७-२५ १७. कुछ प्रवचनकारों (तीर्थकरों) का यह अभिमत है कि मनुष्य ही दुःखों का अन्त करता है। उनका यह अभिमत है कि यह मनुष्य का शरीर दुर्लभ १८. इस मनुष्य शरीर से च्युत जीव को फिर संबोधि दुर्लभ होती है । जो धर्म के तत्त्व का उपदेश दें वैसी विशुद्ध लेश्या वाली आत्माओं का योग भी" दुर्लभ सूयगडो १ १७. अंतं करेंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं। आघातं पुण एगेसि दुल्लभेऽयं समुस्सए॥ १८. इतो विद्धंसमाणस्स पुणो संबोहि दुल्लमा। दुल्लभाओ तहच्चाओ जे धम्मठें वियागरे ॥ १६.जे धम्मं सुद्धमक्खंति पडिपुण्णमणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं तस्स जम्मकहा कुतो? ॥ २०.कुतो कयाइ मेहावी उप्पज्जति तथागता?। तथागता अपडिण्णा चक्खू लोगस्सणुत्तरा॥ अन्तं कुर्वन्ति दुःखानां, इह एकेषां आहृतम् । आख्यातं पुनरेकेषां, दुर्लभोऽयं समुच्छयः॥ इतो विध्वस्यमानस्य, पुनः संबोधिः दुर्लभा। दुर्लभास्तथार्चाः, ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ ये धर्म शुद्धमाख्यान्ति, प्रतिपूर्णमनीदृशम् । अनीदृशस्य यत् स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः ? ।। कुतः कदाचिद् मेधाविनः, उत्पद्यन्ते तथागताः ? तथागताः अप्रतिज्ञाः, चक्षुर्लोकस्य अनुत्तराः॥ १६. जो शुद्ध, प्रतिपूर्ण और अनुपम धर्म का निरूपण करता है और यह अनुपम धर्म जिसमें ठहरता है, उसके पुनर्जन्म की बात कहां ?* २०. मेधावी तथागत (तीर्थकर)" कहां और कब उत्पन्न होते हैं ? तथागत अप्रतिज्ञ, लोक के चक्षु और अनुत्तर (श्रेष्ठ) होते हैं। २१. काश्यप (महावीर) ने उस सर्वश्रेष्ठ स्थान का प्रतिपादन किया है, जिसका आचरण कर कुछ पंडित मनुष्य उपशांत हो" निष्ठा (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं। २२. पंडित पुरुष कर्म-क्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को५० प्राप्त कर पूर्वकृत कर्म की निर्जरा करता है" और नये कर्म का बन्ध नहीं करता। २१. अणुत्तरे य ठाणे से कासवेण पवेदिते। जं किच्चा णिव्वुडा एगे णिठं पाति पंडिया ॥ २२. पंडिए वीरियं लद्धं णिग्यायाय पवत्तगं। धुणे पुश्वकर्ड कम्म णवं चावि ण कुव्वा॥ २३. ण कुम्वइ महावीरे अणुपुवकडं रयं। रयसा संमुहीभूते कम्मं हेच्चाण जं मतं ॥ २४. मतं सव्वसाहूणं तं मतं सल्लगत्तणं। साहइत्ताण तं तिण्णा देवा वा अविसु ते॥ २५. अविसु पुरा वीरा आगमिस्सा वि सुव्वया। दुण्णिबोहस्स मग्गस्स अंतं पाउकरा तिण्ण ॥ -त्ति बेमि॥ अनुत्तरं च स्थानं तत्, काश्यपेन प्रवेदितम् ।। यत् कृत्वा निर्वता एके, निष्ठां प्राप्नुवन्ति पण्डिताः॥ पंडितो वीयं लब्ध्वा , निर्घाताय प्रवर्तकम्। घनाति पूर्वकृतं कर्म, नवं चापि न करोति ॥ न करोति महावीरः, अनपूर्वकृतं रजः । रजसा सम्मुखीभूतः, कर्म हित्वा यद् मतम् ॥ यद् मतं सर्वसाधूनां, तद् मतं शल्यकत्तनम् । साधयित्वा तत् तीर्णाः, देवा वा अभवंस्ते ॥ अभवन् पुरा वीराः, आगमिष्या अपि सुव्रताः। दुनिबोधस्य मार्गस्य, अन्तस्य प्रादुष्करा: तीर्णाः॥ इति ब्रवोमि॥ २३. महावीर (महावीर्यवान्)२ पुरुष कर्म-परम्परा में होने वाले" रज का (बंध) नहीं करता। वह रज के सामने खड़ा होकर कर्म को क्षीण कर जो मत (इष्ट) है (उसे पा लेता है ।) २४. जो सभी साधुओं का मत (इष्ट) है वह मत" (निर्ग्रन्थ प्रवचन) शल्य को काटने वाला है। उसकी साधना कर वे संसार का पार पा जाते हैं अथवा देव होते हैं। २५. वीर्यवान् सुव्रत पहले हुए हैं और भविष्य में भी होगे । वे स्वयं तैरते हुए कठिनाई से समझे जा सकने वाले मार्ग के अन्त (उच्चतम शिखर) को प्रगट करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १५ श्लोक १ : १. लोक ११: अतीत, वर्तमान और भविष्य - ये तीन काल होते हैं । दर्शनावरण का अन्त करने वाला इन तीनों को जानता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- इन चारों दृष्टियों से जानता है- इसका अर्थ है वह सबको जानता है । प्रस्तुत श्लोक में जानने के अर्थ में 'मण्णति' (सं० मन्यते ) धातु का प्रयोग मिलता है और ज्ञानावरण के स्थान में दर्शनावरण का प्रयोग है। जाणइ-पास का संयुक्त प्रयोग होता है । प्राचीन काल में दर्शन का प्रयोग अधिक प्रचलित था । उत्तर-काल में ज्ञान का प्रयोग अधिक प्रचलित हो गया । २. जानता है (ताई) इसका संस्कृत रूप है तादृग्वृत्तिकार ने इसका अर्थ बायी किया है। उन्होंने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-नावी और तायी। त्रयी का अर्थ है- त्राण देने वाला और 'तायी' का अर्थ है-जानने वाला ।' देखें दसवेवालयं ३/१, टिप्पण पृष्ठ ४७,४८ श्लोक २ : ३. विचिकित्सा का ( वितिगिच्छाए ) पूर्णिकार ने इसका अर्थ-संदेहज्ञान किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयज्ञान और चित्तविष्तुति। श्लोक ३ : ४. स्वाख्यात है ( सुक्खायं) स्वाख्यात अर्थात् वह वचन जो पूर्वापर में अविरुद्ध तथा युक्तियुक्त है। ठाणं (३।५०७ ) में स्वाख्यात धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन है उसके अनुसार धनवान् महावीर ने तीन प्रकार का धर्म प्ररूपित किया है-सु-अधीत सुख्यात और सु-चपस्थित (सु-आचरित) । जय धर्म सुधीत होता है तब वह सुध्यात होता है जब धर्म सुरूपात होता है तब वह सु-तपस्थित होता है। सु-अधीत और सु-तपस्थित धर्म स्वाख्यात धर्म है । * सु-ध्यात ५. सत्य ( सच्चे ) सत्य का अर्थ है- अवितथ अथवा संयम । सत्य के तीन प्रकार हैं - तपः सत्य, संयमसत्य और ज्ञानसत्य । सत्य के संयम अर्थ की मीमांसा करते हुए चूर्णिकार कहते हैंजो यथावादी तथाकारी होते हैं, उनके मूल में संयम होता है । कथनी और करनी की समानता सत्य की सूचक है । कथनी और करनी १ वृत्ति, पत्र २६१ : श्राय्यसौ - त्राणकरणशीलः, यदि वा — अयवयपयमयचयतयणय गतावित्यस्य धातोर्घञ्प्रत्ययः तयनं तायः स विद्यते यस्यासौ-तायी, 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था' इति कृत्वा सामान्यस्य परिच्छेदकः । २. चूर्ण, पृ० २३९ : वितिगिखा नाम सन्देहज्ञानम् । २. वृति पत्र २६१ विचिकित्सा-चित्तविवृतिसंशयज्ञानम् । ४. देखें — ठाणं ३।५०७, टिप्पण पृष्ठ २८२ : Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ६०१ की पूर्ण समानता वीतरागी में घटित होती है। वीतरागी उत्कृष्ट संयमी होते हैं। वे कभी असत्य नहीं बोलते 'वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या नवते वचः । यस्मात् तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥' श्लोक ४ : ६. विरोध न करे (ण विरुज्भेज्जा) विरोध के दो अर्थ हैं— विग्रह, उपघात । ७. संयमी का (बुसीमतो ) ८. धर्म में (अहिंस) चूर्णिकार ने वृषीमान् का अर्थ तीर्थंकर या साधु' तथा वृत्तिकार ने तीर्थंकर और संयम किया है ।" देखें - ८१२० का टिप्पण | चूर्णिकार ने इसे 'धर्म' के साथ और वृत्तिकार ने प्रधानरूप से जगत् के साथ और गौण रूप से धर्म के साथ जोड़ा है ।" ६. जीवित भावना (जीवियभावणा) इसके दो अर्थ है १. यावज्जीवन तक अपनी आत्मा को पचीस या बारह भावनाओं से भावित करना । २. जीव को समाधान देने वाली भावनाओं की भावना करना । श्लोक ४ : १०. जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध है ( भावणाजोग सुद्धप्पा ) जिन चेष्टाओं और संकल्पों के द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है ।" भावनाएं असंख्य हैं । फिर भी उनके अनेक वर्गीकरण प्राप्त हैं-पांच महाव्रत की पचीस भावनाएं, अनित्य आदि बारह भावनाएं, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ आदि चार भावनाएं, आदि आदि । भावनाओं का महत्त्व बतलाते हुए योगशास्त्र ४१२२ में कहा है अध्ययन १५ : टिप्पण ६-१० १. णि, पृ० २३९ : सच्चे - अवितथो । संयमो वा सत्यः । आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संघते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥ — जो साधक भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है वह विच्छिन्न विशुद्ध ध्यान के क्रम को पुनः सांध लेता है । तपः संयमज्ञान सत्येन वा । कस्मात् सत्यं संयमः ? येन यथावादिनः तथाकारिणो भवन्ति यथोद्दिष्टं चास्य सत्यं भवति । विरोधो विग्रहः तदुपधात वा २. वृषि, ०२३६ ३. वही, पृ० २३९ : वसीमांश्च भगवान् साधुर्वा बुसीमान् । ४. वृति पत्र २६३ सीमति सीकृतोऽयं सत्यमवतो बेति । ५. (क) भूमि, १० २३९ (ख) वृति पत्र २६३ । " ६. चूर्णि ० २३९ आजीवितादात्मानं भावयति पथवोसाए भावगाहि बारसह वा ७. वृत्ति, पत्र २६३ : जीवसमाधानकारिणीः सत्संयमाङ्गतया मोक्षकारिणी भावयेदिति । ८.पासनारि वाजिद जीए वो विमुचेद्वाए सा भावपत्ति युण्यद । ४६० Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १५: टिप्पण ११-१४ विशेष विवरण के लिए देखें१. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १३७-१४२ । २. उत्तरज्झयणाणि, भाग २ पृष्ठ २६७-२६८। चूर्णिकार ने भावना और योग को भिन्न-भिन्न मानकर जिसकी आत्मा भावना और योग से विशुद्ध है उसे 'भावनायोगशुद्धात्मा' माना है । अथवा भावना और योग में जिसकी आत्मा विशुद्ध है, वह भावनायोगशुद्धात्मा है।' वृत्तिकार ने इसे एक शब्द मानकर व्याख्या की है।' जैन-योग की अनेक शाखाएं हैं -- दर्शन-योग, ज्ञान-योग, चारित्र-योग, तपो-योग, स्वाध्याय-योग, ध्यान-योग, भावना-योग, स्थान-योग, गमन-योग, और आतापना-योग । ११. जल में नौका को तरह कहा गया है (जले णावा व आहिया) जैसे जल में चलती हुई या ठहरी हुई नौका नहीं डूबती वैसे ही जिसकी आत्मा भावना-योग से विशुद्ध है वह भी संसार में नहीं डूबता। वह संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता, नौका की तरह जल से ऊपर रहता है।' १२. (णावा व ..........तिउट्टति) नौका में नाविक है, अनुकूल पवन बह रहा है, किसी भी प्रकार को बाधा नहीं है, वह नौका सहजता से तीर को प्राप्त कर लेती है। वैसे ही विशुद्ध चारित्र वाला यह जीवरूपी पोत, आगमरूपी कर्णधार से अधिष्ठित होकर, तपरूपी पवन से प्रेरित होता हआ, सर्व दुःखात्मक संसार से पार चला जाता है और समस्त द्वन्द्वों से रहित मोक्षरूपी तीर को पा लेता है। श्लोक ६: १३. पाप कर्म टूट जाते हैं (तुटेंति पावकम्माणि) __वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जिस मुनि ने अपने आस्रवद्वारों को बंद कर दिया है, जो विकृष्ट तप करने में संलग्न है, उसके पूर्वसंचित कर्म टूट जाते हैं और जो नए कर्म नहीं करता, उसके संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।' श्लोक ७: १४. कर्म का "विज्ञाता (या द्रष्टा) है (कम्मं णाम विजाणतो) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जो कर्म और कर्म-निर्जरण के उपायों को जानता है।' वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. नाम का अर्थ है 'नमन' अर्थात् जो कर्म के नाम-निर्जरण को जानता है। २. जो कर्म और नाम को जानता है । अर्थात् जो कर्म के अवान्तर भेदों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश को सम्यग् जानता है। १.णि पृ० २४० : मावनाभियोगेन शुद्ध आत्मा यस्य स भवति मावणाजोगसुद्धप्पा । अथवा भावनासु योगेषु च यस्य शुद्धारमा । २. वृत्ति, पत्र २६३ : भावनाभिर्योगः सम्यकप्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यस्य स तथा। ३. (क) चूणि, पृ० २४० : यथा जलेऽन्तनोर्गच्छन्ती तिष्ठन्ती वा न निमज्जति स एवं। (ख) वृत्ति, पत्र २६३ : स च भावनायोगशुद्धात्मा सन् परित्यक्तसंसारस्वभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते, संसारोदन्वत इति; नौरिव-यथा जलेऽनिमज्जनत्वेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोवन्वति न निमज्जतीति । ४. (क) चूणि, पृ० २४० । (ख) वृत्ति, पत्र २६३ । ५ वृत्ति, पत्र २६३ : निरुद्धाश्रवद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि युट्यन्ति निवर्तन्ते वा नवं च कर्माकुर्वतोशेषकर्म क्षयो भवतीति । ६. चूणिः पृ० २४० : विजानतो हि कर्म कर्मनिर्जरणोपायांश्च कृतो बन्धः स्यात् ? एवं कर्म तत्फलं संवरं विर्जरोपायांश्च । Jain Education Intemational Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ३. 'नाम' शब्द का प्रयोग संभावना के अर्थ में है ।" इसका वास्तविक अर्थ है कि जो व्यक्ति कर्म का विज्ञाता वा द्रष्टा है, उसके नये कर्म का बंध नहीं होता ।) १५. महावीर्यवान् (महावीरे) इसका अर्थ है महावीर्यवान् महान पराली आतचारित्री, कर्मों को नष्ट करने में समर्थ १६. न जन्म लेता है, न मरता है (जे ण जाई ण मिज्जती ) इस चरण का अर्थ है - जो न जन्म लेता है और न मरता है अर्थात् जो जन्म मरण की परम्परा से सर्वथा छूट जाता है। वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है वह प्राणी सदा के लिए मुक्त हो जाता है। फिर उसके लिए 'यह नारक है, यह तिर्यञ्चयोनिक है', इस प्रकार का व्यपदेश नहीं होता, इस प्रकार का भेद नहीं होता।' चूर्णिकार ने 'मज्जती' पाठ मानकर उसका अर्थ डूबना किया है ।" श्लोक ६-७ : १८. मरता (मिज्जती) ६०३ १७. श्लोक ६-७ : भगवान् महावीर की साधना-पद्धति के दो मूल तत्त्व हैं--संवर और निर्जरा - नए कर्मों का बंध न होना और पुराने कर्मों का क्षय होना । निर्जरा संवर के बिना भी हो सकती है, परंतु प्रस्तुत श्लोकों में निर्जरा और संवर का साहचर्य बतलाया गया है । संवरविहीन निर्जरा चित्तशुद्धि का समग्र साधन नहीं बनती। समग्रता के लिए निरोध और क्षय — दोनों का साहचर्य आवश्यक है । आस्रव निरोध के उपायों के आलंबन से नए कर्मों के द्वार बंद हो जाते हैं। जब नए कर्मों को पोषण नहीं मिलता, नया आहार नहीं मिलता, तब पुराने कर्म अपने आप शिथिल होकर टूट जाते हैं। ज्ञाता और द्रष्टा होना संवर है, नए कर्मों को न करने का उपाय है। श्लोक ८ : इसके दो संस्कृत रूपों के आधार पर दो अर्थ किए गए हैं" - १. मीयते परिच्छेद करना, मापना । २. म्रियते-मरना । - १६. लोक में प्रिय होने वाली स्त्रियों ( कामवासना) का ( पिया लोगंसि इत्थिओ ) प्रश्न होता है कि यहां केवल स्त्रियों का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? वृत्तिकार ने इस प्रश्न के समाधान में अनेक विकल्प प्रस्तुत किए है अध्ययन १५ टिप्पण १५-१६ : १. आस्रवों में स्त्री का प्रसंग प्रधान आश्रव है । १. वृत्ति, पत्र २६४ : नमनं नामकर्मनिर्जरणं तच्च सम्यग् जानाति, यदि वा कर्म जानाति तनाम च, अस्य चोपलक्षणार्थत्वा तद्भेदांश्च प्रकृति स्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः । २ (क) चूर्णि, पृ० २४० : महावीरे इति आयतचारित्रो महावीर्यवान् । (ख) वृत्ति, पत्र २६४ : महावीर :- कर्मदारणसहिष्णुः । ३. वृत्ति, पत्र २६८ : तत्करोति येन कृतेनास्मिन् संसारोदने न पुनर्जायते तदभावाच्च नापि म्रियते, यदि वा - जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न मीयतेन परिच्छिद्यते । ४. चूर्ण, पृ० २४० : मज्जतो संसारोदधौ । ५. वृत्ति, पत्र २६४ : न जात्यादिना 'मीयते' - परिच्छिद्यते, न म्रियते वा । ६. वृत्ति पत्र २६४ । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। अध्ययन १५ टिप्पण २०-२४ २. कुछ दर्शनों में स्त्री के उपभोग को आश्रवद्वार नहीं माना है, उनके मत का खंडन करने के लिए। ३. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में चतुर्याम धर्म का ही प्रचलन रहता है । अंतिम तीर्थंकर के समय में पंचयाम धर्म की स्थापना है- इस तथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए। ४. दूसरे सारे व्रत अपवाद सहित होते हैं, ब्रह्मचर्य व्रत अपवाद रहित होता है, इसे प्रकट करने के लिए। ५. सभी व्रत समान होते हैं, किसी एक के टूटने पर शेष सभी व्रत टूट जाते हैं, अत: किसी एक व्रत का नामोल्लेख किया गया है। श्लोक है: २०. मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में है (आदिमोक्खा) __ इसका अर्थ है-मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में। इसका तात्पर्यार्थ है कि वैसे मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान रूप से उद्यम करने वाले हैं । वे पहले मोक्ष जाने वाले हैं। चूणिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है-वे मुनि आदि, मध्य और अवसान में आयतचारित्रभाव में परिणत होते हैं।' २१. जीने की इच्छा नहीं करते (णावकखंति जीवितं) __ चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - वे मनुष्य असंयम जीवन या कषायपूर्ण जीवन जीने की अभिलाषा नहीं करते। वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ भी किया है-वे दीर्घकाल तक जीने की इच्छा नहीं करते।' श्लोक १०: २२. कर्मों के सामने खडे हो (कम्मुणा संमुहीभूता) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-कर्मों को क्षीण करने के लिए उनके सामने खडे हो जाना, न कि पीठ दिखा कर भाग जाना। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दूसरे प्रकार से किया है -विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा मोक्ष के अभिमुख होकर ।' २३. अनुशासन करते हैं (अणुसासति) भगवान् प्राणियों के सर्वहित के लिए मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं और स्वयं भी उस मार्ग का अनुसरण करते हैं । श्लोक ११: २४. संयम धन से संपन्न पुरुष (वसुमाम) वसु का सामान्य अर्थ है-धन । मोक्षाभिमुख व्यक्ति का धन होता है-संयम । वसुमान् अर्थात् संयमी।' १. चूणि, पृ० २४० : आदिमध्याऽवसानेषु आयतचारित्तभावपरिणताः । २. चूणि, पृ. २४० : असंजम कसायादिजीवितं । ३. वृत्ति, पत्र २६५ : नाभिलषन्ति असंयमजीवितम् अपरमपि परिग्रहादिकं नामिलषन्ते, यदि वा परित्यक्तविषयेच्छाः सवनुष्ठानपरा यणा मोक्षकताना जीवितं'-दीर्घकालजीवितं नाभिकाङ्क्षन्तीति । ४. चूणि, पृ० २४१ : येनासौ कर्मानीकस्य क्षपणाय सम्मुखीभूत: न पराङ्मुखः। ५. वृत्ति, पत्र २६५ : कर्मणा-विशिष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संमुखीभूता-धातिचतुष्टयक्षयक्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपस्याभि मुखीभूताः ।। ६. (क) चूणि, पृ० २४१ : जेणिमं णाण-दंसण-चरित्त-तवसंजुत्तं मग्गमणुसासति अणेसि च कथयति, आत्मानं चानुशासते। (ख) वृत्ति, पत्र २६५ : मोक्षमार्ग-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम्, 'अनुशासन्ति' ---सत्वहिताय प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतश्चानु तिष्ठन्तीति । ७. वृत्ति, पत्र २६५ : वसु-द्रव्यं स ब मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयम : तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान् । Jain Education Intemational Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगो । ६०५ मध्ययन १५ टिप्पण २५-२७ आचारांग (६/३०) में 'अनुवसु' का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने वसु का मूल अर्थ वीतराग और 'अनुवसु' का अर्थ सराग-छद्मस्थ किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप से वसु और अनुवसु के तीन-तीन अर्थ किए हैं' वसु-वीतराग, जिन, संयत । अनुवसु-छद्मस्थ, स्थविर, श्रावक । २५. योग्यता के अनुसार (पुढो) इसके तीन अर्थ हैं-विस्तार से, पृथक्-पृथक् अथवा पुनः पुनः ।' २६. अनुशासन (अणुसासणं) अपने सद्-असद् विवेक से प्राणियों को सन्मार्ग में अवतरित करने के उपाय को अनुशासन कहते हैं।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ केवल कथन किया है।' २७. पूजा का आशय नहीं रखते (पूयणासते) इसमें दो शब्द हैं-पूजा+अनाशय । छन्द की दृष्टि से 'यकार' का ह्रस्व प्रयोग किया गया है। इसमें द्विपदसंधि भी हो सकती है-पूया+अणासते। इसका अर्थ है-पूजा का आशय न रखने वाला। वृत्तिकार ने इसको 'पूजनास्वादक' मानकर व्याख्या की है। चूर्णिकार ने 'पूयं णासंसति' पाठ मानकर इसका अर्थ-पूजा की आशंसा-प्रार्थना न करना—किया है।' प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों का अर्थ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है। चूर्णिकार के अनुसार संयमी पुरुष प्राणियों को धर्म की ओर अग्रसर करने के लिए विस्तार से या बार-बार अनुशासन करते हैं, किन्तु पूजा की वांछा नहीं करते।' वृत्तिकार के अनुसार संयमी पुरुष प्राणियों को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए पृथक् पृथक् रूप से अनुशासन करते हैं । वे देवादिकृत पूजा-अतिशयों का उपभोग करते हैं।' यथार्थ में चूर्णिकार का अर्थ ही उचित लगता है । यद्यपि वृत्तिकार ने अपनी भावना को स्पष्ट करने के लिए स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है कि देवादिकृत समवसरण आदि तीर्थंकरों के लिए ही बनाए जाते हैं । वे आधाकर्म दोषयुक्त होते हैं । उनका उपभोग १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : वसु-द्रव्यं सद्भूतः कषायकालिकाविमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुवसु, सराग इत्यर्थः, यदि वा वसुः-साधुः अनुवसुः-श्रावकः, तदुक्तम् वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽयवा । सरागो ह्यऽनवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ २. (क) चूर्णि, पृ० २४१ । (ख) वृत्ति, पत्र २६५ । ३. वृत्ति, पत्र २६५ : अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतायन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तवनुशासनम् । ४. चूणि, पृ० २४१ : अनुशासन्तो कधेतो। ५. वृत्ति, पत्र २६५ : पूजन-देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति --- उपमुक्त इति पूजनास्वादकः । ६. चूर्णि, पृ० २४१ : पूर्व णाऽसंसति ण पत्थेति । ७. चूर्णि, पृ० २४१। ८. वृत्ति, पत्र २६५। Jain Education Intemational Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १५ : टिप्पण २८-३० करने वाले सत्संयमी कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में अगले (तीसरे) चरण में आए हुए 'अणासते' (सं० अनाशय) की व्याख्या करते हुए कहते हैं- उनमें पूजा-प्राप्ति का आशय ही नहीं होता अथवा द्रव्यतः पूजा का आशय होने पर भी समवसरणादि के उपभोग में वे भावत: अनास्वादक ही होते हैं, क्योंकि उनमें गृद्धि नहीं होती। इसी प्रकार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे-चौथे चरण में प्रयुक्त 'पांच' शब्दों को वृत्तिकार एक-दूसरे से संबद्ध कर, अनुलोम और प्रतिलोम विधि से व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । वह इस प्रकार है १. तीर्थंकर द्रव्यतः समवसरण आदि का उपभोग करते हैं किन्तु भावत: उनमें उन पूजा-स्थानों के उपभोग की आशंसा नहीं रहती, क्योंकि वे गृद्धि से उपरत होते हैं । संयमपरायण होने के कारण वे उन वस्तुओं का उपभोग करते हुए भी 'यतनावान्' हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों और नो-इन्द्रिय से दान्त होते हैं । यह जितेन्द्रियता संयम की दृढता से उत्पन्न होती है। वे मैथुन से सर्वथा उपरत होते हैं । यह संयम का ही फलित है। २. तीर्थकर में 'काम' का अभाव होता है इसलिए वे संयम में दृढ होते हैं । विशुद्ध चारित्र के पालन से वे दान्त होते हैं । इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय के दमन से वे 'प्रयत' होते हैं । यतनावान् होने के कारण वे देवादि की पूजा के अनास्वादक होते हैं और अनास्वादक होने के कारण ही द्रव्यत: वस्तुओं का उपभोग करते हुए भी सत्संयमवान् होते हैं।' श्लोक १२: २८. जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं (छिण्णसोते) स्रोत दो प्रकार के हैं-इन्द्रियों के विषय प्राणातिपात आदि आनवद्वार तथा राग-द्वेष आदि। ये जन्म-मरण के मूल हेतु हैं। जिस पुरुष के ये स्रोत छिन्न हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, वह छिन्न-स्रोत हो जाता है। २९.जो निर्मल चित्त वाला है (अणाइले) अनाविल का अर्थ है-निर्मल चित्त वाला। जिसका चित्त अकलुष तथा राग-द्वेष से मलिन नहीं होता वह अनाविल होता है। वैकल्पिक रूप से 'अणाउले' पाठ मानकर अनाकुल का अर्थ विषयों में अप्रवृत्त स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति किया है। ३०. प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो (णीवारे व ण लीएज्जा) इसका अर्थ है-मुनि प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो। नीवार सूअर आदि प्राणियों का प्रिय भोजन है। इसका प्रलोभन देकर मनुष्य सूअर आदि को वध-स्थान में ले जाते हैं । सूअर नीवार में लिप्त हो जाता है । वध-स्थान में उसे नाना प्रकार की यातनाएं दी जाती हैं और अन्ततः उसे मार दिया जाता है। वृत्तिकार के अनुसार स्त्री-प्रसंग (मैथुन) नीवार के समान है। मनुष्य अब्रह्मचर्य के वशीभूत होकर अनेक प्रकार की यातनाएं पाता है । इसलिए वह इस प्रलोभन के स्थान में लीन न हो, लिप्त न हो।' १. वृसि, प० २६६ : यदि वा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनास्वावकोऽसौ, तद्गतगाामावात्, सत्यप्युपभोगे 'यत:'-प्रयतः सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणत्वात्, कुतो?, यतः इन्द्रिय नोइन्द्रियाभ्यां वान्तः, एतद्गुणोऽपि कथमित्याह वृढ़ः संयमे, आरतम्-उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुन:-अपगतेच्छामदनकामः, इच्छामबनकामाभावाच्च संयमे दृढोऽसौ भवति, आयतचारित्रत्वाच्च बान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोइन्द्रियमदमाच्च प्रयतः, प्रयत्नवत्त्वाच्च देवादिपूजनानास्वादकः, तदनास्वादनाच्च सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमवानेवासाविति । २. (क) चूणि, पृ० २४१ : सोतं प्राणातिपातादि [1] न्द्रियाणि वा। (ख) वृत्ति, प० २६६ : छिन्नानि-अपनीतानि स्रोतांसि-संसारावतरणद्वाराणि यथाविषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्नस्रोताः । ३. वृत्ति, प० २६६ । अनाविलः-अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा-विषयाप्रवृत्तेः स्वस्थचेता एवंभूतश्चानाविलोऽना कुलो वा। ४. वृत्ति, प० २६६ : नीवारः-सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेषस्तत्कल्पमेतत्मैथुनं, यथा हि असौ पशुर्नीवारेण प्रलोभ्य वध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते, एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसङ्गन वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्राप्नोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य स तस्मिन् ज्ञाततत्त्वो 'न लीयेत' न स्त्रीप्रसङ्गकर्यात् । Jain Education Intemational Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूययो । ६०७ अध्ययन : १५ टिप्पण ३१-३५ ३१. संधि (ज्ञान आवि) को (संधि) चूणि के अनुसार संधि का अर्थ है- सन्धान । उसमें भाव सन्धि के तीन उदाहरण दिए हैं- मनुष्यता, कर्म संधि, अर्थात् कर्म का विवर तथा ज्ञान आदि ।' वृत्तिकार ने केवल कर्म-विवर रूपी संधि को ही भाव-संधि माना है।' श्लोक १३: ३२. अनुपम सन्धि को (अणेलिसस्स) पूर्व श्लोक के अनुसार इसका अर्थ है- अनुपमसंधि । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयम, मुनि-धर्म या अहंत् धर्म ।' ३३.जाननेवाला (खेयण्णे) इसके अनेक अर्थ हैं-आत्मज्ञ, निपुण', ज्ञाता' आदि । ३४. चक्षुष्मान् पुरुष (चक्लम) चक्षुष्मान् वही होता है जो प्रशान्त चित्त वाला, हितमितभाषी और संयमित प्रवृत्ति करने वाला होता है।' श्लोक १४: ३५. श्लोक १४: प्रस्तुत श्लोक का भावार्थ यह हैवही व्यक्ति भव्य मनुष्यों के लिए चक्षुर्भूत होता है जो अपनी विषय-तृष्णा, भोगेच्छा के पर्यन्त में रहता है। प्रश्न होता है कि क्या अन्त में रहने वाला अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है ? इसका उत्तर श्लोक के उत्तरार्द्ध में है । कहा गया है कि हां, अंत से चलने वाला अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है। जैसे उस्तरा अन्त (धार) से चलता है और गाड़ी का चक्का भी अन्त (छोर) से चलता है। वे दोनों अन्त से चलते हुए अपने कार्य को सिद्ध कर लेते हैं।' क्षुर के प्रसंग में 'अंत' का अर्थ है-धार और चक्र के प्रसंग में 'अंत' का अर्थ है-छोर ।' __ जैसे क्षुर और चक्र का 'अन्त' ही अर्थकारी होता है, प्रयोजनीय होता है, वैसे ही विषय-कषायात्मक मोहनीय कर्म का अन्त (नाश) ही संसार का क्षयकारी होता है।' १. चूणि, पृ० २४१ : सन्धानः सन्धिः भावसन्धिर्मानुष्यम् कर्मसन्धिः कर्मविवरः ज्ञानादीनि च भावसन्धिः । २. वृत्ति, ५० २६६ : कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम् । ३. वृत्ति, प० २६६ : अनन्यसदृशः संयमो मौनीन्द्रधर्मो वा। ४. वृत्ति, प० २६६ : खेदज्ञो-निपुणः । ५. चूणि, पृ० २४१ : खेतणे जाणगे । ६. वृत्ति, ५० २६६। ७. (क) चूणि, पृ० २४१ । (ख) वृत्ति, पत्र २६६। ८. (क) चूणि, पृ० २४१ : अन्तेनेति धारया।... चक्रमप्यन्तेन । (ख) वृत्ति, पत्र २६६ : 'अन्तेन'-पर्यन्तेन 'क्षुरो'-नापितोपकरणं तवन्तेन वहति, तथा चक्रमपि रथाङ्गमन्तेनैव मार्ग प्रवर्तते । ६. वृत्ति, पत्र २६६ : इवमुक्तं भवति-यया क्षरादीनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकषायात्मकमोहनीयान्त एवापसबसंसार. क्षयकारीति। Jain Education Intemational Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६०८ अध्ययन १५ : टिप्पण ३६-४० श्लोक १५: ३६. अन्त का (अंताणि) चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. निवास के लिए आराम, उद्यान आदि । २. भोजन के लिए अन्त-प्रान्त आहार । ३. कर्म और आस्रवों का अन्त अर्थात् उनमें वर्तन न करना। इसका तात्पर्य यह है कि जो मुनि विषय-कषाय और तृष्णा के परिकर्म के लिए आराम-उद्यान आदि में निवास करता है, अन्त-प्रान्त आहार लेता है वह 'अन्त' का सेवन करने वाला होता है।' ३७. इसलिए वे धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं (तेण अंतकरा इह) इसलिए वे (धीर पुरुष) धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं-यह चूर्णिकार के अनुसार व्याख्या है।' वृत्तिकार ने इसका सर्वथा भिन्न अर्थ किया है-अन्त-प्रान्त के अभ्यास से वे (धीर पुरुष) यहां संसार का या उसके कारणभूत कर्म का अन्त कर देते हैं।' चूर्णिकार का अर्थ ही उचित प्रतीत होता है। ३८. मानव जीवन में (माणुस्सए ठाणे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मनुष्य जीवन में किया है । उन्होंने वैकल्पिक रूप में 'स्थान' शब्द से कर्मभूमि, गर्भव्युत्क्रान्ति और संख्येय वर्ष का आयुष्य ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने 'णरा' की व्याख्या में कर्मभूमि आदि का ग्रहण किया है।' श्लोक १६ : ३६. मुक्त होते हैं (णिट्ठितट्ठा) जिनके ज्ञान आदि अर्थ पूर्ण हो जाते हैं, वे निष्ठितार्थ कहलाते हैं । इसका तात्पर्य है-वे मनुष्य जो मुक्त हो गए हैं, कृतकृत्य हो गए हैं।' ४०. अनुत्तर देवलोकों में (उत्तरोए) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में तथा अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होना। २. इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिशक आदि उत्तरीय-ऊंचे स्थानों में उत्पन्न होना। १. चूर्णि, पृ० २४२ : अंताई आरामोद्यानानि वसत्यर्थम्, अन्तप्रान्त-भूतानि आहारार्थम् कर्माश्रवांश्च न सेवन्ते, न तेषु वर्तन्ते इत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २६६, २६७ : 'अन्तान्'--पर्यन्तान विषयकषायातृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वाऽन्तप्रान्तादीनि । ३. चूर्णि, पृ० २४२ : तेनैव प्रान्तसेवित्वेनाऽऽयतचारित्रकर्माऽन्तकरा भवन्ति इह धर्मे। ४. वृत्ति, पत्र २६७ : तेन चान्तप्रान्ताभ्यसनेन 'अन्तकरा:'-संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणा भयकारिणो भवन्ति । ५. चूणि, पृ० २४२ : इह माणुस्सए ठाणे मनुष्यभवे, अथवा स्थाने ग्रहणात् कर्मभूमिः गम्भवक्कंतियसंखेज्जवासाउयत्तं च गृह्यते । ६. वृत्ति, पत्र २६७ : 'नराः' मनुष्या कर्मभूमिगर्भव्युत्क्रान्तिजसंख्येयवर्षायुषः । ७. (क) चूणि पृ० २४२ : णिद्वितठ्ठा निष्ठानं च येषां ज्ञानादयोऽर्थाः गतास्ते भवन्ति णिट्टितद्वा, सिड्यन्त इति । (ख) वृत्ति, पत्र २६७ : निष्ठिताः -कृतकृत्या भवन्ति । ८. चूणि, पृ० २४२ : उत्तरीयं ति अणुत्तरोववादिया (वि) कप्पेसु वा उववज्जमाणा इन्द्र-सामानिक-त्रास्त्रिशकाविषूत्तरीकेषु स्थानेष पपचन्ते, नाभियोग्या इत्यना। Jain Education Intemational Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १५ टिप्पण ४१-४३ वृत्तिकार ने इसका सर्वथा भिन्न अर्थ किया है । उन्होंने 'उत्तरीए' का संबंध 'देवा' से न मानकर स्वतंत्र रखा है। उनके अनुसार भी इसके दो अर्थ हैं १. लोकोत्तर प्रवचन । २. लोकोत्तर भगवान् महावीर । प्रसंग की दृष्टि से इसका संबंध 'देवा' शब्द से है और इसका अर्थ होना चाहिए-वैमानिक देव । दृत्तिकार ने यह अर्थ 'देवा' शब्द की व्याख्या में भी दिया है।' ४१. (णिट्टितट्ठा......सुतं) प्रस्तुत श्लोक (१६) के प्रथम दो चरणों की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है१. आयं सुधर्मा ने जंबू से कहा- कुछ मनुष्य धर्म की आराधना कर मुक्त हो जाते हैं या वैमानिक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं-यह मैंने तीर्थंकर से सुना है। २. आर्य सुधर्मा ने जंबू से कहा- कुछ मनुष्य धर्म की आराधना कर मुक्त हो जाते हैं या इंद्र, सामानिक, वायस्त्रिशक आदि ऊंचे पद पर देव होते हैं- यह मैंने तीर्थंकर से सुना है।' ३. लोकोत्तरीय प्रवचन में आगमभूत सुधर्मा ने जंबू से कहा-मैंने लोकोत्तरीय भगवान् से यह बोध प्राप्त किया है कि धर्म की आराधना कर कुछ मनुष्य सिद्ध हो जाते हैं और कुछ वैमानिक देव ।' ४२. श्लोक १६ बौद्ध-मत के अनुसार राग तीन प्रकार का होता है-कामराग, रूपराग और अरूपराग । जो इन तीनों का सर्वथा नाश कर देता है वह अर्हत् पद प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। जो साधक केवल कामराग को ही नष्ट कर पाता है, उसके रागांश शेष रह जाता है। वह यहां से मरकर देवगति में जाता है। यहां से च्युत होकर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है, पुनः मनुष्यभव में नहीं आता। वे देव 'अनागामी' कहलाते हैं।' सत्रकार ने इस मत का खंडन 'णो तहा' इन दो शब्दों से किया है। उनका प्रतिपाद्य है-देव (या अन्य गति वाले प्राणी) मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते, मनुष्य ही निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने भी बौद्ध मान्यता को उद्धृत करते हुए उसका खंडन किया है।' श्लोक १७: ४३. श्लोक १७: प्रस्तुत श्लोक में पूर्ववर्ती श्लोक में प्रतिपादित सिद्धान्त की पुष्टि की गई है। मनुष्य जीवन में ही निर्वाण हो सकता है, दुःखों या कर्मों का अन्त हो सकता है। यह तीर्थंकर-सम्मत सिद्धान्त है । चूणिकार ने लिखा है-इस सिद्धान्त को सब दार्शनिक स्वीकार नहीं करते । कुछ दार्शनिक अर्थात् हम इसे स्वीकार करते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है। इस शरीर में जैसा १वृत्ति, पत्र २६७ : ..." एतल्लोकोत्तरीये प्रवचने.... लोकोत्तरीये भगवत्यहति । २. वृत्ति, पत्र २६७ । ३. चूणि, पृ० २४२ : .. . अज्जसुहम्मो जंबु भणति-इति मया सुयं तित्थगरसगासातो, न स्वेच्छयोच्यते। ४. वृत्ति, पत्र २६७ : लोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतम्-आगमः एवंभूतः सुधर्मस्वामी वा जम्बूस्वामिनमुद्दिश्यैवमाह-यथा मयतल्लोकोत्त रीये भगवत्यहत्युपलब्धं, तद्यथा-अवाप्तसम्यक्त्वादिसामग्रीक: सिध्यति वैमानिको वा भवतीति । ५. अंगुत्तरनिकाय २/२१५, अभिधम्मत्थसंगहो, नवनीत टीका, पृ० १७७ : अनागामिमग्गं भावेत्वा कामरागव्यापारनं अनवसेसप्पहानेन अनागामी नाम होति, अवगन्ता इत्थतं । ६. (क) चूणि, पृ० २४२ : शाक्या वा अवन्ति–'अनागामिनो देवा भवन्ति, ते हि देवा नान्तं (? देवा अनागत्यान्त) कृर्वन्ति । (ख) वृत्ति, पत्र २६७ । एतेन यच्छाक्यरमिहितं, तद्यथा--देव एवाशेषकर्मप्रहाणं कृत्वा मोक्षमाग्भवति, तदपारतं भवति । Jain Education Intemational Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । अध्ययन १५ : टिप्पण ४४-४७ नाड़ी-संस्थान विकसित है वैसा अन्य शरीरों में नहीं है। इस शरीर में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का जैसा विकास किया जा सकता है वैसा अन्य शरीरों में नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत श्लोक में शरीर के लिए 'समुच्छ्य' (समुस्सय) शब्द का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ ही उन्नयन या उर्ध्वगमन है। श्लोक १८: ४४. श्लोक १८ जो मनुष्य इस शरीर में संबोधि का प्रयत्न नहीं करता, इस महान् क्षमता वाले शरीर को व्यर्थ ही गंवा देता हैं, वह फिर अन्यान्य शरीरों में संबोधि को प्राप्त नहीं हो सकता । मनुष्य जैसे शरीर और लेश्या वाले व्यक्तित्व का योग बहुत दुर्लभ है। धर्म का व्याकरण मनुष्य शरीरधारी या मनुष्य शरीर के उपयुक्त लेश्या वाला व्यक्ति ही कर सकता है । चूर्णिकार ने अर्चा का अर्थ लेश्या किया है और वृत्तिकार ने उसके लेश्या और शरीर दोनों अर्थ किए हैं। श्लोक १६: ४५. श्लोक १६ चूणिकार ने प्रतिपूर्ण का अर्थ यथाख्यातचारित्र'-वीतराग चेतना का अनुभव किया है। धर्म-साधना की उत्कृष्ट भूमिका वीतरागदशा है । वह राग-द्वेषात्मक दशा से सर्वथा भिन्न है। इसीलिए उसे अनीदृश- असाधारण कहा गया है। वीतरागी व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, इसलिए उसका पुनर्जन्म नहीं होता। . . प्रस्तुत श्लोक में विशुद्ध या अलौकिक धर्म की परिभाषा, उसके स्वरूप और परिणाम की चर्चा की गई है। श्लोक २० ४६. तथागत (तीर्थकर) (तथागता) तथागत का अर्थ है-वीतराग । वीतराग यथावादी तथाकारी होता है। जो अवस्था जिस रूप में घटित होती है, वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेता है । यथाख्यात चारित्र को प्राप्त होने वाला व्यक्ति तथागत ही होता है। वह प्रिय और अप्रिय संवेदनों से ऊपर उठकर केवल तथात्व, तथाता या वीतराग-चेतना के अनुभव में ही रहता है । चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) यथास्यात अवस्था को प्राप्त (२) निर्वाण को प्राप्त । तथागत का तात्पर्यार्थ हैतीर्थकर, केवली, गणधर आदि ।' श्लोक २१: ४७. सर्वश्रेष्ठ स्थान का (अणुत्तरे य ठाणे). चूर्णिकार ने स्थान का अर्थ-आयतन किया है। इसका तात्पर्य है-चरित्र-स्थान ।' ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अनेक या असंख्य स्थान होते हैं । यहां चरित्र के अनुसार स्थान का उल्लेख किया गया है। १ (क) चूणि, पृ० २४२ : समुच्छीयते इति समुच्छ्यः शरीरम्, समुच्छितानि वा ज्ञानादीनि । (ख) वृत्ति, पत्र २६७ । २ वृणि, पृ० २४२ : अर्चा लेश्या। ३. वृत्ति, पत्र २६७ : अर्चा - लेश्याऽन्तःकरणपरिणतिः .. यदि वाऽ —मनुष्य शरीरं । ४ चूणि, पृ० २४३ : पडिपुण्णं नाम सर्वतो विरतं पडिपुण्णं आहाख्यातं चारित्रम् । ५. चूणि, पृ० २४३ : तथागता अथाख्यातीभूता मोक्षगता वा। ६ वही, पृ० २४३ : च ग्रहणात केवलिनो गणधराश्च । ७. चूणि, पृ० २४३ : ठाणं आयतनं चरित्तठाणं । Jain Education Intemational Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगो वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम स्थान किया है ।' ४८. उपशान्त हो (जिम्बुडा ) चूर्णिकार के अनुसार निर्वृत का अर्थ है-उपशान्त वृत्तिकार ने इसका अर्थ- निर्वाण प्राप्त किया है।" ४६. निष्ठा (मोक्ष) को (ट्ठि) ५०. पंडित - निष्ठा का अर्थ है - पर्यवसान, संपन्न होना । इसका तात्पर्य है-मोक्ष * श्लोक २२ : कर्मक्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को (पंडिए वीरियं) यहां 'पंडियं वीरियं' पाठ होना चाहिए। चूर्णि में 'पंडियं वीरियं' - यह व्याख्यात है 'पंडियवीरियं'- संजमवीरियं तपोवीरियं च ।' पूर्वकृतकर्म का क्षय और नवकर्म का अकरण - निर्जरा और संवर का मुख्य साधन पंडितवीर्य है । तेवीसवें श्लोक में आए हुए 'महावीर' शब्द का संबंध भी इस पंडितवीर्य से है । पंडितवीर्य से संपन्न व्यक्ति ही महावीर होता है । ५१. निर्जरा करता है ( धुणे ) 1 पुरुष ६११ ५२. महावीर (महावीर्यवान्) पुरुष (महावीरे) इसका संस्कृत रूप नीपाद हो सकता है है - धुण + इ । यह प्राकृत नियम के अनुसार माना जा सकता है । १. वृत्ति, पत्र २६८ : स्थानं तच्च तत्संयमाख्यम् । २. चूर्णि, पृ० २४३ : निव्वता उवसंता । ३. वृत्ति, पत्र २६८ : निर्वृता निर्वाणमनुप्राप्ताः । अर्थ-विचारणा की दृष्टि से यदि 'धुनाति' मानें तो यहां एक पद में संधि हुई श्लोक २३ : जो महान् वीर्य से संपन्न होता है वह महावीर कहलाता है। चूर्णिकार ने महावीर का अर्थ ज्ञानी से सम्पन्न पुरुष किया है। कृतिकार ने महावीर का अर्थ कर्मक्षय करने में समर्थ व्यक्ति किया है। किन्तु प्रकरण के अनुसार 'महावीर' का अर्थ संयमवीर्य और तपोवीर्य से संपन्न व्यक्ति होना चाहिए। पूर्व श्लोक में बतलाया गया है कि संयमवीर्य के द्वारा नए कर्मबंध का निरोध होता है और तपोवीर्य के द्वारा पूर्वकृत कर्म का क्षय होता है । प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि महावीर पुरुष कर्मबन्ध के हेतुओं को क्षीण या उपशांत कर नए कर्म का बन्ध नहीं करता और आत्माभिमुखी होकर तपस्या के द्वारा पूर्वकृत कर्म को क्षीण कर देता है । ५३. कर्म परम्परा में होने वाले (अणुपुष्यकर्ड) अनुपूर्व का अर्थ - कर्म, हेतु या कारण है। पूर्व का अर्थ भी कर्म, हेतु या कारण होता है । पूर्ववर्ती श्लोक में 'पूर्वकृत' और प्रस्तुत श्लोक में अनुपूर्वकृत शब्द का प्रयोग किया गया है। कर्म या हेतु विद्यमान रहता है । उसके कारण निरन्तर नए-नए कर्मों का आस्रवण होता रहता है ।" अध्ययन १५ : टिप्पण ४८-५३ ४. वृत्ति, पत्र २६८ : निष्ठां पर्यवसानम् । ५. णि, पृ० २४३ । ६. चूर्णि, पृ० २४३ : णाणवीरियसंपण्णो । ७. वृत्ति, पत्र २६९ : महावीरः - कर्मविदारणसहिष्णुः । भूणि, पृ० २४३ अपुण्यक नाम मिलावीहि कम्यहेतुहि ते अनुसमयकृतं । : Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६१२ अध्ययन १५ टिप्पण ५४ श्लोक २४: ५४. मत (मतं) _ चूणि के अनुसार 'मत' का अर्थ है-निर्ग्रन्थ-प्रवचन ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम-स्थान किया है। आवश्यक-सूत्र में निर्ग्रन्थ-प्रवचन का 'सल्लगत्तणं' विशेषण मिलता है और प्रस्तुत श्लोक में वह 'मत' का विशेषण है। १. चूणि, पृ० २४४ : सर्वसाधुमतं तविदमेव णिग्गंथं पावयणं । २. वृत्ति, पत्र २६६ मतम्..."तदेतत्सत्संयमस्थानम् । Jain Education Intemational Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयणं गाहा सोलहवां अध्ययन गाथा Jain Education Intemational Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'गाथा' है। नियुक्ति में इसका नाम 'गाथा षोडश' है। यह सोलहवां अध्ययन है, इसलिए इसका नाम 'गाथा षोडश' है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसी नाम का अनुसरण किया है। आवश्यक' और उत्तराध्ययन सूत्र' में 'गाथा षोडशक' का प्रयोग सोलह अध्ययन वाले प्रथम श्रुतस्कंध के लिए किया गया है। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध का नाम 'गाथा षोडशक' है।' यह नाम भी सोलहवें अध्ययन के आधार पर हुआ है । इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'गाथा' इतना ही पर्याप्त लगता है। नियुक्तिकार ने 'गाथा' शब्द के निक्षेप बतलाए हैं। उनमें 'द्रव्यगाथा' और 'भावगाथा' दो निक्षेप मननीय हैं। पत्र और पुस्तक में लिखित गाथा 'द्रव्यगाथा' कहलाती है और हमारी चेतना में अकित गाथा 'भावगाथा' कहलाती है।' • नियुक्ति में 'गाथा' के अर्थ-पर्याय और निरुक्त निर्दिष्ट हैं - १. जिसका उच्चारण श्रुतिपेशल-सुनने में मधुर होता है, जो गाई जाती है, वह गाथा है। २. प्रस्तुत अध्ययन में अर्थ का ग्रथन या गुम्फन किया गया है। इसलिए इसका नाम 'गाथा' है। ३. यह सामुद्रक छन्द में गुम्फित है, इसलिये इसका नाम गाथा है। ४. पूर्ववर्ती पन्द्रह अध्ययनों में प्रतिपादित अर्थ पिण्डितरूप में प्रस्तुत अध्ययन में गुम्फित है, इसलिये इसका नाम गाथा है। प्रस्तुत अध्ययन में पहले के पन्द्रह अध्ययनों का सार-संक्षेप संगृहीत हैं। पूर्ववर्ती अध्ययनों में विधि और निषेध के द्वारा जिनजिन आचरणों की ओर निर्देश किया गया है, उनका सम्यग् पालन करने वाला मुनि मुमुक्षु और मोक्षमार्ग का अधिकारी होता है । इस अध्ययन में माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ का स्वरूप निर्दिष्ट है । ये चारों शब्द भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के सूचक भी हैं और एकार्थक भी हैं। इनके स्वरूपगत गुणों का निर्देश पूर्ववर्ती पन्द्रह अध्ययनों में प्राप्त है। वहां उनका विस्तार से कथन हुआ है और यहां उन सब गुणों को पिण्डित कर—संक्षिप्त कर कहा गया है। चूणिकार और वृत्तिकार के अनुसार अध्ययनों के क्रम से उनका वर्णन या उनकी संकलिका इस प्रकार हैं१ नियुक्ति गाथा १३४ : गाधासोलस णामं अज्झयणमिणं बर्वादसति । २. (क) चूर्णि, पृ० २४५ : गाहासोलसमं अज्झयणं समत्तं । (ख) वृत्ति, पत्र २७० : गाथाषोडशकमिति नाम । ३. आवश्यक, ४॥ ४. उत्तरज्झयणाणि ३१११३ : गाहासोलसएहिं .........। ५. चूणि, पृ० १५ : तत्थ पढमो सुतखंधो (गाधा) सोलसगा। ६. नियुक्ति गाथा १३०, १३१ : ....."पत्तय-पोस्थय निहिता, होति इमा दव्वगाधा तु ।। होति पुण भावगाधा, सागारुवयोगमावणिफण्णा । ७. नियुक्ति गाथा १३१, १३२, १३४ : मधुराभिधाणजुत्ता, तेण य गाहं ति णं बेति ।। गाधीकता य अत्था, अधवा सामुद्दएण छंदेण । एएण होती गाधा, एसो अण्णो वि पज्जाओ। पण्णरससु अज्झयणेसु, पिडितत्थेसु जे अवितहं ति । पिडितवयणेणऽत्थं, गहेति जम्हा ततो गाधा ॥ ८. वृत्ति, पत्र २७१ : सामुद्रेण छन्दसा या निवद्धा सा गाथेत्युच्यते । तच्चेदं छन्दः-अनिबद्धं च यल्लोके, गाथेति तत् पण्डितैः प्रोक्तम् । ६. (क) चुणि, पृ० २४६ : (ख) वृत्ति, पत्र २६६, २७० । Jain Education Intemational Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १६ : प्रामुख १. स्वसमय और परसमय का परिज्ञान करने से मुनि सम्यक्त्व में स्थिर होता है। २. ज्ञान कर्मक्षय का कारण है । आठों कर्मों के क्षय के लिये प्रयत्न करने वाला मुनि होता है । ३. अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव से सहनेवाला साधु होता है । ४. विश्व में स्त्री परीसह दुर्जेय है । जो इसको जीत लेता है वह मुनि होता है । ५. नारकीय वेदनाओं को जानकर जो उनसे उद्विग्न होता है, नरक-योग्य कर्म से विरत होता है, वह श्रामण्य में स्थित होता ६. चार ज्ञान से संपन्न भगवान् महावीर ने भी इस कर्मक्षय के लिये संयम का सहारा लिया था, वैसे ही छद्मस्थ मुनि को __ भी संयम के प्रति उद्यमशील रहना चाहिये । ७. कुशील व्यक्ति के दोषों को जानकर मुनि सुशील के प्रति स्थिर रहे। ८. बालवीर्य का प्रतिहार कर, पंडितवीर्य के प्रति उद्यमशील रहकर, सदा मोक्ष की अभिलाषा करनी चाहिये। ६. क्षांति, मुक्ति आदि धर्मों का आचरण कर मुनि मुक्त हो जाता है। १०. संपूर्ण समाधि से युक्त मुनि सुगति को प्राप्त करता है। ११. मोक्षमार्ग के तीन साधन हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र। तीनों की आराधना करनेवाला मुनि समस्त ___ क्लेशों से मुक्त हो जाता है। १२. अन्यान्य दर्शनों के अभिमतों की गुणवत्ता और दोषवत्ता का विवेक कर मुनि उनमें श्रद्धाशील नहीं होता। १३. शिष्य के दोषों और गुणों को जानकर सद्गुणों में वर्तन करने वाला मुनि अपना कल्याण कर लेता है। १४. प्रशस्त भावग्रन्थ से भावित आत्मा वाला मुनि बंधन के सभी स्रोतों को उच्छिन्न कर देता है । १५. मुनि यथाख्यात चारित्र का अधिकारी होता है। इस प्रकार इन पन्द्रह अध्ययनों में मोक्षमार्ग के लिये प्रस्थित मुनि के लिये करणीय और अकरणीय का विशद विवेचन किया गया है। प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में उन्हीं का संक्षेप मुनि आदि के विशेषण के रूप में निरूपित है। प्रस्तुत अध्ययन में 'माहण, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ'-इन चारों के निर्वचन बतलाये गये हैं । 'माहण' शब्द के निर्वचन में सोलह विशेषण प्रयुक्त हैं । 'श्रमण' शब्द के निर्वचन में बारह, 'भिक्षु' शब्द के निर्वचन में आठ और 'निर्ग्रन्थ' शब्द के निर्वचन में पन्द्रह विशेषण प्रयुक्त हैं। माहण, समण, भिक्खु और निग्गंथ-ये चार मुनि-जीवन की साधना भूमिकाएं प्रतीत होती हैं । चूणिकार ने 'समण', 'माहण' और 'भिक्खु', को एक भूमिका में माना है और 'निग्गंथ' की दूसरी भूमिका स्वीकार की है। निर्ग्रन्थ की भूमिका का एक विशेषण हैआत्मप्रवाद-प्राप्त । चौदह पूर्वो में 'आत्मप्रवाद' नाम का सातवां पूर्व है। जिसे आत्मप्रवादपूर्व ज्ञात होता है वही निर्ग्रन्थ हो सकता है। माहण, श्रमण और भिक्षु के लिये इसका ज्ञात होना अनिवार्य नहीं है। औपपातिक सूत्र में भगवान महावीर के साधुओं को चार भूमिकाओं में विभक्त किया गया है-श्रमण, निर्ग्रन्थ, स्थविर और अनगार । वहां श्रमण सामान्य मुनि के रूप में प्रस्तुत है। निर्ग्रन्थ की भूमिका विशिष्ट है । उसमें विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट बल, विशिष्ट लब्धियां (योगज विभूतियां), विशिष्ट तपस्याएं और विशिष्ट साधना की प्रतिमाएं उल्लिखित हैं। स्थविर की भूमिका का मुनि राग-द्वेष विजेता, आर्जव-मार्दव आदि विशिष्ट गुणों से संपन्न, आत्मदर्शी, स्वसमय तथा परसमय का ज्ञाता, विशिष्ट श्रुतज्ञानी और तत्त्व के प्रतिपादन में सक्षम होता है । अनगार की भूमिका का मुनि विशिष्ट साधक और सर्वथा अलिप्त होता है। प्रत्येक भूमिका में मुनि के लिये जो भिन्न-भिन्न विशेषण हैं वे ही साधना की भिन्न-भिन्न भूमिकाओं को सूचना देते हैं। इस प्रसंग में प्रस्तुत सूत्र और औपपातिक सूत्र का तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । १. चूणि, पृ० २४८ : जहविट्ठस ठाणेस वट्टति, ते वि य समण-माहण-भिक्खुणो। णिग्गंथे किंचि जाणत्तं । २. समवाओ १४॥२॥ ३. ओवाइयं, सूत्र २३-२७ । Jain Education Intemational Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६१७ अध्ययन १६ : प्रामुख प्रस्तुत आगम के अनुसार 'माहण' की भूमिका का साधक सब पापकर्मों से विरत है । पापकर्म के अठारह प्रकार हैं-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पंशुन, रति, अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य । प्रस्तुत भूमिका का मुनि राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य से विरत होता है । इसका अर्थ है कि 'माहण' अठारह पापों में से उत्तरवर्ती नौ पापों के परित्याग की विशेष साधना करते थे। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती परम्परा में प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट नौ पापों के वर्जन में ही 'माहण' दीक्षा का स्वरूप निर्धारित किया गया हो। 'समण' की भूमिका में भी पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं है। उसमें अतिपात (हिंसा), मृषावाद और बहिस्तात् (परिग्रह), क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष--इन आदानों से विरत होने का उल्लेख है। 'भिक्षु' की भूमिका में एक सर्वसहिष्णु, देहनिरपेक्ष, अध्यात्मयोगी, स्थितात्मा मुनि का रूप सामने आता है। दशवकालिक के दसवें अध्ययन में प्रयुक्त व्युत्सृष्टकाय, परीषहोपसर्गजयी, अध्यात्मयोगी, स्थितात्मा आदि शब्दों के संदर्भ यहां खोजे जा सकते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त -माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ-इन चारों शब्दों के स्वरूप का निरूपण अगले सूत्रों (३, ४, ५, ६) में हुआ है। चूर्णिकार के अनुसार ये चारों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु उनकी व्यंजन-पर्याय (शाब्दिक-दृष्टि) से भिन्नता है।' माहण जो यह कहता है- किसी भी जीव को मत मारो, जो किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, वह माहण कहलाता है। समण जिसका मन शत्रु और मित्र के प्रति सम रहता है, जिसके लिये न काई प्रिय है और न कोई द्वेष्य, वह 'समन' (श्रमण) कहलाता है। मिक्स जो कर्मों का भेदन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। णिग्गंय जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से रहित होता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। प्रस्तुत आगम के प्रथम श्रुतस्कंध का आदि-शब्द है-"बुज्झेज्ज । यह ग्रन्थ का आदि-मंगल है। मध्यमंगल के रूप में आठव अध्ययन के प्रथम श्लोक में प्रयुक्त 'वीर' शब्द माना जा सकता है। इस अध्ययन का प्रथम शब्द 'अथ' अन्त्य मंगल है। इस प्रकार यह श्रुतस्कंध तीनों मंगलों-आदि-मंगल, मध्य-मंगल और अन्त-मंगल से युक्त होने के कारण मंगलमय है। इस अध्ययन का अंतिम वाक्य है.---'से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो'-इसे ऐसा ही जानो जो मैंने भदन्त (महावीर) से सुना है। सुधर्मा स्वामी ने जम्बू आदि श्रमणों को संबोधित कर कहा--आर्यो ! जो मैंने कहा है, उसे तुम वैसा ही जानो। मैंने जैसा महावीर से सुना है, वैसा कहा है। स्वेच्छा से कुछ भी नहीं कहा है।' १. चूर्णि, पृ० २४६ । एवमेतेगट्ठिया माहण णामा चत्तारि, बंजणपरियाएण वा किंचि णाणत्तं, अत्थो पुण सो च्चेव। २. चूणि, पृ० २४६ : मा हणह सव्वसत्तेहि भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । मित्ता-रिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो, अथवा 'णत्थि य से कोई वेसो पिओ ब०।' 'मिदिर् विदारणे' क्षु इति कर्मण आख्या, तं मिवंतो भिक्खू भवति । बन्झ-अन्तरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गंथो। ३. (क) चूर्णि, पृ० २४८ । (ब) वृत्ति, पत्र २७४, २७५ । Jain Education Intemational Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयणं : सोलहवां अध्ययन गाहा : गाथा मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.अहाह भगवं एवं से दंते दविए वोसटकाए ति बच्चे-माहणे त्ति वा, समणे ति वा, भिक्खू त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा॥ अथाह भगवान्-एवं स दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः इति वाच्यः-माहन इति वा, श्रमण इति वा, भिक्ष इति वा, निर्ग्रन्थ इति वा। १. भगवान् ने कहा-'जो ऐसा (पूर्ववर्ती अध्ययनों में वर्णित गुण-संपन्न मुनि) उपशान्त', शुद्ध चैतन्यवान्' और देह का विसर्जन करने वाला है, वह इन शब्दों से वाच्य होता है-माहन, श्रमण, भिक्षु और निग्रन्थ । २.पडिआह-भंते ! कहं दंते दविए वोसट्टकाए ति। वच्चे-माहणे तिवा? समणे त्ति वा ? भिक्खू त्ति वा? णिग्गंथे त्ति वा ? तं णो बूहि महामुणी! प्रत्याह-भदन्त ! कथं दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः इति वाच्यः-माहन इति वा? श्रमण इति वा ? भिक्षः इति वा, निर्ग्रन्थ इति वा ? तद् नो ब्रूहि महामुने ! २. शिष्य ने पूछा -'भंते ! उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाले को माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ क्यों कहना चाहिए? महामुनि !' इसे हमें बतलाएं।' ३. इतिविरतसव्वपावकम्मे इतिविरतसर्वपापकर्मा प्रेयो- पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण- दोष-कलह-अभ्याख्यान-पैशुन्यपेसुण्ण-परपरिवाद- अरति- परपरिवाद-अरतिरति-मायारति- मायामोस - मिच्छा- मषा-मिथ्यादर्शनशल्यविरतः दसणसल्लविरते समिए समितः सहितः सदा यतः, नो सहिए सया जए, णो कुज्झे । ऋध्येत् नो मानी 'माहन' इति णो माणी 'माहणे' त्ति वच्चे ॥ वाच्यः । ३. जो सब पाप-कर्मों से विरत होता है"-प्रेय', द्वेष, कलह, आरोप', चुगली, पर-निन्दा", अरति-रति", मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य" से विरत होता है", जो सम्यग् प्रवृत्त", ज्ञान आदि से संपन्न" और सदा संयत" होता है, जो क्रोध नहीं करता, अभिमानी नहीं होता" वह 'माहन' कहलाता है । ४. एत्थ वि समणे-अणिस्सिए अत्रापि श्रमणः-अनिश्रितः अणिदाणे आदाणं च अति- अनिदानः आदानञ्च अतिपातं वायं च मुसावायं च बहिद्धं च मषावादं च बहिस्तात् क्रोधं च कोहं च माणं च मायं च च लोभं च मानं च मायां च लोहं च पेज्जं च दोसंच- प्रेयश्च दोषं च-इत्येव यतो इच्चेव जतो-जतो आदाणाओ यतः आदानात् आत्मनः प्रदोषअप्पणो पहोसहेऊ ततो-ततो हेतुः ततः ततः आदानात् पूर्व आदाणाओ पुव्वं पडिविरते प्रतिविरतः स्यात् दान्तः द्रव्यः सिआ दंते दविए वोसट्टकाए व्युत्सृष्टकायः 'श्रमण' इति 'समणे ति वच्चे॥ वाच्यः। ४. यहां भी श्रमण---जो अप्रतिबद्ध" होता है, जो अनिदान" (आशंसा-मुक्त) होता है, जो आदान" प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय और द्वेष—इस प्रकार जो-जो आदान आत्मा के लिए प्रदोष का हेतु बनता है, उस-उस आदान से पहले ही प्रतिविरत होता है, वह उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला 'श्रमण' कहलाता है। Jain Education Intemational Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० अ० १६ : गाथा : सूत्र ५-६ सूयगडो १ ५. एत्थ वि भिक्ख-अणुण्णते णावणते दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई 'भिक्खू' ति वच्चे॥ अत्रापि भिक्षः-अनुन्नतः नावनतः दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अध्यात्म-योगशुद्धादानः उपस्थितः स्थितात्मा संख्याक: परदत्तभोजो 'भिक्षु'रिति वाच्यः । ५. यहां भी भिक्षु-जो गर्वोन्नत तथा हीन-भावना से ग्रस्त नहीं होता, जो उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला है, जो नाना प्रकार के परीषह और उपसर्गों को" पराजित कर" अध्यात्म-योग के द्वारा शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध होता है, जो संयम के प्रति उपस्थित, स्थितात्मा", विवेक-संपन्न" और परदत्तभोजी" होता है, वह 'भिक्षु' कहलाता है। ६.एत्थ वि णिग्गंथे-एगे अत्रापि निर्ग्रन्थः -एकः एगविदू बुद्धे संछिण्णसोए एकविद् बुद्धः संछिन्नस्रोताः सुसंजए सुसमिए सुसामाइए। सुसंयतः सुसमितः सुसामायिकः आतप्पवादपत्ते विऊ दुहओ आत्मप्रवादप्राप्त: विद्वान् वि सोयपलिछिण्णे णो पूया- द्वितोऽपि परिच्छिन्नस्रोता: नो सक्कारलाभट्टीधम्मट्टीधम्म- पूजासत्कारलाभार्थी धर्मार्थी विऊ णियागपडिवण्णे समियं धर्मविद् नियागप्रतिपन्नः चरे दंते दविए वोसट्टकाए सम्यक्चरः दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्ट'णिग्गंथे' त्ति वच्चे। से एक- कायः 'निर्ग्रन्थ' इति वाच्यः । मेव जाणह जमहं तत् एवमेव जानीत यदहं भयंतारो॥ भदन्तात् । ६. यहां भी निर्ग्रन्थ-जो अकेला होता है, एकत्व भावना को जानता है", बुद्ध (तत्त्वज्ञ) है, जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं", जो सु-संयत, सुसमित" और सम्यक् सामाधिक (समभाव) वाला है, जिसे आत्मप्रवाद (आठवां पूर्व-ग्रन्थ) प्राप्त है", जो विद्वान् है, जो इन्द्रियों का बाह्य और आंतरिकदोनों प्रकार से संयम करने वाला है", जो पूजासत्कार और लाभ का अर्थी नहीं होता, जो केवल धर्म का अर्थी", धर्म का विद्वान्", मोक्ष-मार्ग के लिए समर्पित", सम्यग् चर्या करने वाला", उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला है, वह 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है । इसे ऐसे ही जानो जो मैंने भदन्त से सुना है। -ऐसा मैं कहता हूं। -त्ति बेमि ॥ -इति ब्रवीमि ।। Jain Education Intemational Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन १६ १. (अथ) चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार इस श्रुतस्कंध का आदि-मंगल वाचक शब्द है 'बुज्झज्ज' (१/१) और यह 'अथ' शब्द अन्त-मंगल है । आदि और अन्त मंगल के कारण यह सारा श्रुतस्कंध मंगलरूप है । 'अथ' शब्द का एक अर्थ आनन्तर्य भी है। २. उपशान्त (दंते) दान्त वह होता है जो अपनी पांचों इन्द्रियों तथा चार कषायों का निग्रह करता है।' ३. शुद्ध चैतन्यवान् (दविए) द्रव्य का अर्थ है --भव्यप्राणी, शुद्ध चैतन्यवान्, मोक्षगमन-योग्य । जो राग-द्वेष की कालिमा से रहित होता है, वह द्रव्य कहलाता है । जैसे स्वर्ण विजातीय पदार्थ से रहित हो जाता है तब वह शुद्ध द्रव्य कहलाता है।' ४. देह का विसर्जन करने वाला (वोसट्टकाए) जो अपने शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, जो शरीर की सार-संभाल छोड़ देता है, वह व्युत्सृष्टकाय कहलाता है।' देखें-दसवेआलियं १०/१३ का टिप्पण, पृष्ठ ४६३, ४६४ । सूत्र २ ५. भंते ! (भंते !) चूर्णिकार के अनुसार यह तीर्थंकर का आमंत्रण है।' वृत्तिकार ने इसके चार अर्थों के वाचक चार शब्द दिए हैं-भगवन् !, भदन्त !, भयान्त ! और भवान्त ।' ६. महामुनि (महामुणी !) ___ महामुनि अर्थात् तीर्थंकर, श्रमण महावीर ।' १. (क) चूणि, पृ० २४६ : अथेत्ययं मङ्गलवाची आनन्तर्ये च द्रष्टव्यः । यदिवमुदितं पञ्चदशानामध्ययनानामन्तरे वर्तते, आदी मंगलं "बुज्झज्ज" (सूत्र १/१/१) त्ति, इहाप्यथशब्दः अन्ते, तेन सर्वमङ्गल एवायं श्रुतस्कन्धः। (ख) वृत्ति, पत्र २७१ : 'अथे' त्ययं शब्दोऽवसानमङ्गलार्थः, आदिमङ्गलं तु बुध्येतेत्यनेनाभिहितं, अत आद्यन्तयोर्मङ्गलत्वात् सर्वोऽपि श्रुतस्कन्धो मङ्गलमित्येतदनेनावेदितं भवति । आनन्तर्ये वाऽयशब्दः । २. चूणि, पृ० २४६ : वंते इंदिय-णोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोइंदिय दमादि पंचविधो, णोइंदियदमो कोधणिग्गहावि चतुम्विधो । ३. वृत्ति, पत्र २७१ : द्रव्यभूतो मुक्तिगमनयोग्यत्वात्, 'द्रव्यं च भव्ये' इति वचनात्, रागद्वेषकालिकापद्रव्यरहितत्वाता जात्यसुवर्णवत् शुद्धद्रव्यभूतः। ४. (क) चूणि, पृ० २४६ : बोसटुकाए त्ति अपडिकम्मसरीरो, उच्छृढसरीरे ति वृत्तं होति । (ख) वृत्ति, पत्र २७१ : व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया काय:-शरीरं येन स भवति व्युत्सृष्टकायः । ५. चूर्णि, पृ० २४६ : भंते त्ति भगवतो तित्थगरस्स आमंतणं । ६. वृत्ति पत्र २७२ : एवं भगवतोक्ते सति प्रत्याह तच्छिष्यः-भगवन् !, भदन्त !, भयान्त !, मवान्त इति वा। ७. (क) चूणि, पृ० २४७ । (ख) वृत्ति, पत्र २७२। Jain Education Intemational Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १६:टिप्पण ७-१३ सूत्र ३: ७. सब पाप कर्मों से विरत होता है (विरतसव्वपावकम्मे) चूर्णिकार ने इस संदर्भ में दो सूचनाएं दी हैं'-- १. पन्द्रह अध्ययनों में मुनि के गुण बतलाए हैं । उन गुणों से सर्वपापकर्मविरत फलित होता है। २. राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति-अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शन शल्य-इन नौ पापकों से जो विरत होता है वह सर्वपापकर्मविरत कहलाता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अठारह पापकर्मों की परंपरा से पूर्व नौ पापकर्मों की परंपरा भी रही है। इन नौ पापकर्मों से विरत होने का अर्थ सब पापकर्मों से विरत होना है। ८.प्रेय (पेज्ज) प्राचीनकाल में प्रेम के अर्थ में 'प्रेयस्' शब्द अधिक प्रचलित रहा है। उपनिषद् काल में इस शब्द का प्रचुरता से उपयोग हुआ है। प्रेयस् अर्थात् प्रेम या राग। ..आरोप (अब्भक्खाण) अभ्याख्यान अर्थात् झूठा आरोप लगाना, जैसे-तूने ही यह किया है।' १०. परनिन्दा (परपरिवाव) दूसरे व्यक्ति के गुणों को सहन न कर सकने के कारण उसके दोषों का उद्घाटन करना, परनिन्दा करना। ११. अरति-रति (अरति-रति) धर्म के प्रति अरति-अनुत्साह और अधर्म के प्रति रति-उत्साह ।' संयम के प्रति चित्त का उद्विग्न होना अरति और विषयों के प्रति आसक्ति का होना रति है।' १२. माया-मृषा (मायामोस) मायामृषा का अर्थ है-माया सहित झूठ बोलना । दूसरे को ठगने के लिए असद् अर्थ का आविर्भाव करना मायामृषा है।। १३. मिथ्यावर्शनशल्य (मिच्छादसणसल्ल...) मिथ्यादर्शन का अर्थ है-अतत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश अथवा तत्त्व में अतत्त्व का अभिनिवेश । चूणिकार और वृत्तिकार ने एक गाथा को उद्धृत कर मिथ्यात्व के छह स्थानों का उल्लेख किया है।' 'णस्थि ण णिच्चो ण कुणति, कतं ण वेदेति णत्थि जेव्वाणं । णस्थि य मोक्खोवायो, छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥' (सन्मतितर्क, काण्ड ३, गाथा ५४) .१.णि, पृ० २४७ : जे एते अज्झयणेसु गुणा वृत्ता ताहि वुत्तो विरतसव्वपावकम्मो, सव्वसावज्जजोगविरतो ति मणितं होति। अथवा विरतसव्वपावकम्मो त्ति सुत्तण चेव भणितं, तं जधा-पिज्ज-बोस ...। २. चूणि, पृ० २४७ : अब्भक्खाणं असम्भूताभिनिवेसो यथा-त्वमिदमकार्षीः । ३. वृत्ति, पत्र २७२: परस्य परिवादः काक्वापरदोषापादनं । ४. चूणि, पृ०२४७ : अरती धम्मे । अधम्मे रती। ५ वृत्ति, पत्र २७२ : अरतिः चित्तोद्व गलक्षणा संयमे, तथा रतिः-विषयाभिष्वङ्गः। ६. वृत्ति, पत्र २७२ : माया-परवञ्चना तया कुटिलमतिम॒षावाद-असवर्थाभिधानं गामश्वं ब्रवतो भवति । ७. चर्णि, पृ० २४७ ॥ Jain Education Intemational Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६२३ अध्ययन १६ : टिप्पण १४-१६ ___ आत्मा नहीं है । वह नित्य नहीं है। वह कुछ नहीं करता । वह अपने कृत का वेदन नहीं करता । निर्वाण नहीं है और मोक्ष के उपाय नहीं हैं- ये छह मिथ्यात्व के स्थान हैं।' यह मिथ्यादर्शन है । यह तीन शल्यों में एक शल्य है। १४. विरत होता है (विरते) ___ यह 'विरत' शब्द सभी पापकर्मों की विरति का सूचक है। चूर्णिकार का मत है कि जो इस सूत्र में उल्लिखित सभी पापों से विरत है वही यथार्थ में विरत है।' वृत्तिकार ने 'मिच्छादसणसल्लविरते' पाठ मानकर अर्थ किया है।' क्वचित् 'सल्ले' पाठ भी मिलता है। १५. सम्यक् प्रवृत्त (समिए) समित का अर्थ है-सम्यक् प्रवृत्त । जो ईर्यासमिति आदि पांचों समितियों से युक्त होता है, वह समित कहलाता है।' १६. ज्ञान आदि से संपन्न (सहिए) सहित के दो अर्थ हैं१. परमार्थ भूत हित से युक्त । २. ज्ञान आदि से संपन्न । देखें-१२१५२ का टिप्पण । १७. सदा संयत (सया जए) चर्णिकार ने 'सदा' का अर्थ सर्वकाल और 'यत' का अर्थ 'यती प्रयत्ने' धातु को उद्धृत कर प्रयत्नवान् किया है।' 'यमु उपरमे' धातु का क्त प्रत्ययान्त रूप 'यतः' बनता है। वही यहां विवक्षित है। १८. अभिमानी नहीं होता (णो माणी) इसका अर्थ है-गर्व न करे । मैं उत्कृष्ट तपस्वी हूं-ऐसा मान न करे । वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है'जह सो वि निज्जरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेसमयठ्ठाणा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ।' आठ मद-स्थानों का परिहार करने वालों ने निर्जरा-मद का भी प्रतिषेध किया है। अत: शेष मद-स्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना ही चाहिए।' १६. अप्रतिबद्ध (अणिस्सिए) वृत्तिकार ने निश्रित का निरुक्त इस प्रकार किया है-निश्चयेन आधिक्येन वा श्रित:-निश्रितः-जो निश्चय से या बहुलता १. वृत्ति, प० २७२। २. चूणि, पृ० २४७ : एवमादीसु पावकम्मेसु जो विरतो सो विरतसव्वपावकम्मे । ३. वृत्ति, प० २७२। ४. वृत्ति, प० २७२ : सम्पगितः समितः-ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यर्थः । ५. वृत्ति, प० २७२ : सह हितेन-परमार्थभूतेन वर्तत इति सहित: यदि वा सहितो-युक्तो ज्ञानादिभिः । ..चूर्णि, पृ० २४७ : सदा सम्वकालं, "यती प्रयत्ने" सर्वकालं प्रयत्नवानीति । ७. वृत्ति, प० २७२। Jain Education Intemational Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ ६२४ अध्ययन १६ : टिपण २०-२२ से लगा हुआ है वह निश्रित है। निश्रित का आशय है-किसी के आश्रय में रहना। जो शरीर या कामभोगों से अप्रतिबद्ध है, उनके वश में नहीं है, वह अनिश्रित है।' २०. अनिदान ( आशंसा - मुक्त ) ( अणिदाणे) निदान का अर्थ है - पौद्गलिक सुख का संकल्प । यह तीन शल्यों में से एक शल्य है । व्रती वही हो सकता है जो शल्यों का निरसन कर देता है । इसलिए श्रमण को अनिदान कहा गया है, जो आकांक्षाओं से मुक्त है वह अनिदान कहलाता है ।" २१. आदान (आदाणं ) आदान का अर्थ है - ग्रहण, कर्महेतु । जिससे कर्म का ग्रहण होता है उसे आदान कहते हैं।" राग और द्वेष कर्म के आदान हैं। उत्तराध्ययन में राग और द्वेष को कर्म बीज कहा है ।" प्रस्तुत सूत्र में आदान के नौ प्रकार बतलाए गए हैं । उनमें अतिपात और बहिस्तात्- ये दो एक कोटि के हैं । चूर्णिकार के अनुसार इनका संबंध मूलगुण से है । क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष—ये दूसरी कोटि के हैं । चूर्णिकार ने इनका संबंध उत्तरगुण से बतलाया है । इस परंपरा में भी पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं है । चूर्णिकार ने 'बहिद्धा' शब्द के द्वारा मैथुन और परिग्रह का ग्रहण किया है तथा एक के ग्रहण से सबका ग्रहण होता है, यह एक न्याय है । इस न्याय के अनुसार मृषावाद और अदत्तादान का ग्रहण होता है ।' वृत्तिकार के अनुसार कर्मबंध के हेतुभूत साधन- कषाय, परिग्रह और पापकारी अनुष्ठान 'आदान' कहलाते हैं ।" सूत्र ५ २२. जो गर्वोन्नत तथा हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता ( अणुष्णते णावणते ) भिक्षु वह है जो गर्व से उन्नत नहीं है और हीनभावना से ग्रस्त नहीं है । प्रधानरूप से उन्नत दो प्रकार का है १. द्रव्य उन्नत शरीर से उन्नत - गर्वित । २. भाव उन्नत --- जाति आदि के मद से गर्वित । अनुन्नत ( अवनत ) भी दो प्रकार का होता है १. द्रव्य अनुन्नत - शरीर से अवनत । २. भाव अनुन्नत - जिसका मन हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता, वस्तु की अप्राप्ति होने पर 'मुझे कोई नहीं पूजता ' ऐसा सोचकर जो दुर्मना नहीं होता।" १. वृत्ति, प० २७३ : निश्चयेनाधिक्येन वा 'श्रितो' - निश्रितः न निश्रितोऽनिश्रितः क्वचिच्छरीरादावप्यप्रतिबद्धः । (ख) चूर्णि, पृ० २४७ : अणिस्सिते त्ति सरीरे काम-भोगेसु य । २. तत्त्वार्थ ७।१८ : निःशल्यो व्रती । ३. वृत्ति, प० २७६ : न विद्यते निदानमस्येत्यनिदानो निराकांक्षः । ४. चूर्णि, पृ० २४७ : आदाणं च य ेनाऽऽबीयते तदादानम्, राग-द्वेषौ हि कर्मादानं भवति । ५. उत्तरज्भयणाणि ३२।७ : रागो य दोसो वि य कम्मवीयं । कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ॥ ६. ०२४७ हि मैथुन-परिग्रह एवमाह गुणास्तु — क्रोधं च माणं च सालाबादात्तादागाणां ग्रहणं रुतं भवति। उक्ता मूलगुणाः । उत्तर 1 ७. वृत्ति, प० २७३ : तथाऽऽदीयते - स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानं— कषायाः परिग्रहसावद्यानुष्ठानं वा । ८. वृषि, पृ० २४७ अण्णा पावते, ण उम्मते ते उच्च पापादि चतुब्विधो रगतो जो सरीरेण उणतो, सो भवितो, भावण्णतो जात्यादिमदस्तब्धो एव स्यात् । अवनतोऽपि शरीर भजितः, भावे तु दीनमना न स्यात्, अलामेन वा 'ण मे कोइ पूयेति' त्तिण दुम्मणो होज्ज । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६२५ अध्ययन १६ : टिप्पण २३-२७ उत्तराध्ययन सूत्र (२०।२१) में अणुण्णए नावणए महेसी' और दसवेआलियं (५।१।१३) में 'अणुन्नए नावणए' पद प्रयुक्त हैं। २३. परोषह और उपसर्गों को (परीसहोवसग्गे) परीषह का अर्थ है-जो कष्ट इच्छा के बिना प्राप्त होता है, वह परीषह है। ये बावीस हैं । देखें-उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन । उपसर्ग का अर्थ है-उपद्रव, बाधा । स्थानांग में उपसर्ग के चार प्रकार बतलाए हैं१. देवताओं से होनेवाला। २. मनुष्यों से होनेवाला। ३. तिर्यञ्चों से होनेवाला। ४. स्वयं अपने द्वारा होनेवाला।' २४. पराजित कर (संविधुणीय) परीषहों और उपसर्गों को समता से सहना, उनसे अपराजित रहना ही उनको धुनना है ।' २५. अध्यात्म योग के द्वारा शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध होता है (अज्झप्पजोगसुद्धादाणे) हमने इसका अर्थ चूणि के अनुसार किया है।' वृत्तिकार ने अध्यात्म योग का अर्थ-- सुसमाहित मन से धर्मध्यान करना-किया है। उनके अनुसार आदान का अर्थचारित्र है। २६. स्थितात्मा (ठिअप्पा) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अवस्थित । वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है' जो परीषहों और उपसगों से अपराजित होकर मोक्ष-मार्ग में अवस्थित होता है, वह स्थितात्मा कहलाता है। २७. विवेक-संपन्न (संखाए) इसका संस्कृत रूप है-संख्याकः । हमने इसका अर्थ विवेक-सम्पन्न किया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार के अर्थ से भी यही फलित होता है। चणिकार ने इसका शब्द-परक अर्थ इस प्रकार किया है-जो गुण और दोषों की परिगणना करता है, वह 'संख्याक' कहलाता है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'संख्याय' और अर्थ-'जानकर' किया है। इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-संसार की १. तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय), पृष्ठ ३०१, सू० ९।१७ की वृत्ति-यदृच्छया समागतः परीषहः । २. ठाणं ४१५६७ : चउन्विहा उवसग्गा पण्णता, तं जहा-दिव्वा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, आयसंचयणिज्जा। विशेष विवरण के लिए देखें ठाणं, पृष्ठ ५३५, ५३६ । ३. वृत्ति, पत्र २७३ : द्वाविंशतिपरीषहान तथा दिव्यादिकानुपसर्गाश्चेति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्यक सहनं-तैरपराजितता। ४. चूणि, पृ० २४८ : अध्यात्मैव योगः, अध्यात्मयोगः, अध्यात्मयोगेन शुद्धमादत्त इति । ५. वृत्ति, पत्र २७३ : अध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम्-अवदातमादानं-चारित्रं यस्य स । ६. चणि, पृ० २४८ : ठितप्पा णाण-दंसण-चरित्तेहि । ७. वृत्ति, पत्र २७३ : स्थितो.मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसगैरप्यधृष्यः आत्मा यस्य स स्थितात्मा। ८. चूणि, पृ० २४८ : संखाए परिगणेत्ता गुणदोसे। Jain Education Intemational Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ अध्ययन १६ : टिप्पण २८-३१ असारता, कर्मभूमि की दुष्प्राप्ति और बोधि की दुर्लभता को जानकर तथा संसार-समुद्र से पार लगानेवाली सारी साधन-सामग्री को पाकर जो संयम के प्रति उद्यमशील होता है वह संख्याक (?) कहलाता है। २८. परदत्तभोजी (परदत्तभोई) जैन मुनि परदत्तभोजी होता है । 'पर' का अर्थ गृहस्थ भी है। गृहस्थ के द्वारा अपने लिए बनाया हुआ, प्रासुक और एषणीय आहार लेनेवाला--यह इस शब्द का वाच्य है।' सूत्र ६: २६. अकेला (एगे) इसका अर्थ है- अकेला । चूणिकार ने इसकी मीमांसा दो प्रकार से की है-द्रव्य से अकेला और भाव से अकेलाजिनकल्प मुनि द्रव्य से भी अकेले होते हैं और भाव से भी अकेले होते हैं। स्थविरकल्पी मुनि भाव से अकेले होते हैं और द्रव्य से अकेले होते भी हैं और नहीं भी होते ।' वृत्तिकार ने 'एक' के दो अर्थ किए हैं१. रागद्वेषरहित, मध्यस्थ ।। २. प्राणी स्वसुखदुःख का भोग अकेला ही करता है-इस दृष्टि से 'एक' ।' ३०. एकत्व भावना को जानता है (एगविदू) इसका अर्थ है-एकत्व भावना को जानने वाला। चूर्णिकार के अनुसार एकविद् वह होता है जो यह भावना करता है कि मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं। १. अकेला ही आत्मा परलोकगामी होता है । २. दुःख से बचाने वाला कोई भी सहायक नहीं है । ३१. जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं (संछिण्णसोए) स्रोत का अर्थ है-कर्माश्रव के द्वार । उनको छिन्न करने वाला-संछिन्नस्रोत कहलाता है।' स्रोत ऊपर भी हैं, नीचे भी हैं और तिरछे भी हैं। १. वृत्ति, पत्र २७३ : संख्याय परिज्ञायासारतां संसारस्य दुष्प्रापतां कर्मभूमेोधेः सुदुर्लभत्वं चावाप्य च सकला संसारोत्तरणसामग्री ___सत्संयमकरणोद्यतः। २. (क) चूणि, पृ० २४८ : परदत्तभोइ ति परकड-परिणिट्टितं फासुएसणिज्जं मुंजति त्ति। (ख) वृत्ति, पत्र २७३ : परैः-गृहस्थैरात्मार्थ निर्वतितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शोलमस्य परबत्तभोजी। ३. चूणि, पृ० २४८: एगे बव्वतो मावतो य, जिणकप्पिओ बब्वेगो वि मावेगो वि, थेरा भावतो एगो, बवतो कारणं प्रति भइता। ४. वृत्ति, पत्र २७४ : 'एको' रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदि वाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटनसुमान् स्वकृतसुखदुःखफलमाक्त्वेनकस्यौव परलोकगमनतया सदैकक एव भवति । ५. चूणि, पृ० २४८ : एगविदू एकोऽहं न च मे कश्चित् । ६. वृत्ति, पत्र २७४ : तथैकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीत्येकवित्, न मे कश्चिद्द :वपरित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकवित् । ७. (क) चूणि, पृ० २४८ : सोताई कम्मासवदाराई, ताई छिण्णाई जस्स सो छिण्णसोतो। (ख) वृत्ति, पत्र २७४ : सम्यक् छिन्नानि-अपनीतानि मावस्रोतांसि संवृतत्वात् कर्माश्रवद्वाराणि येन स तथा। ८. आयारो, ५३११८ : उड्ड सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया। Jain Education Intemational Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ सूयगडो। ६२७ अध्ययन १६ : टिप्पण ३२-३७ ३२. सुसंयत (सुसंजए) सुसंयत का अर्थ है-निरर्थक काय-क्रिया से विरत ।' ३३. सु-समित (सुसमिए) जिसकी प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यक होती है, जो चलने, बोलने, भोजन आदि क्रिया करने में जागरूक होता है वह 'सू-समित' कहलाता है। ३४. सम्यक्-सामायिक (समभाव) वाला (सुसामाइए) सामायिक का अर्थ है-समभाव । जिसका समभाव सध जाता है वह 'सु-सामायिक' कहलाता है।' ३५. जिसे आत्मप्रवाद (आठवां पूर्व-ग्रन्थ) प्राप्त है (आतप्पवादपत्ते) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ शब्द-परक किया है। जैसे आत्मा का प्रवाद अर्थात् आत्मप्रवाद । आत्मा नित्य, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता और उपयोग लक्षण वाला है। सभी जीवों का यही लक्षण है। ऐसा कोई एक आत्मा नहीं है जो सर्वव्यापी हो । आत्मा असंख्येय प्रदेश वाला है। उसमें संकोच-विकोच का सामर्थ्य है। वह प्रत्येक-शरीरी और साधारण-शरीरी के रूप में व्यवस्थित है। वह द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से अनन्त धर्मात्मक है। हमारी दृष्टि में आत्मप्रवाद एक ग्रन्थ है। इसमें आत्मा के संबंध में विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया था । यह चौदह पूर्वो में आठवां पूर्व है। ३६. (दुहओ वि सोयपलिछिण्णे) जो द्रव्य से और भाव से-----दोनों प्रकार से इन्द्रियों का संयम करता है वह 'स्रोतपरिछिण्ण' कहलाता है। कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता और आंखों से देखता हुआ भी नहीं देखता-यह द्रव्यतः स्रोतपरिछिण्ण है । जो इन्द्रिय विषयों के प्रति अमनस्क होता है, राग-द्वेष नहीं करता वह भावतः स्रोतपरिछिण्ण है।' ३७. धर्म का अर्थी (धम्मट्टी) जो समस्त क्रियाएं केवल धर्म के लिए ही करता है, वह धर्मार्थी है । वह धर्म के लिए ही प्रयत्न करता है, बोलता है, खाता है, अनुष्ठान करता है। उसके लिए और कोई प्रयोजन शेष नहीं रहता।' १. वृत्ति, पत्र २७४ : संयत:-कूर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः । २. वृत्ति, पत्र २७४ : सुष्ठ पञ्चभिः समितिभिः सम्यगितः-प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ सुसमित. । ३. वृत्ति, पत्र २७४ : सुष्ठु समभावतया सामायिक समशत्रुमित्रमावो यस्य स सुसामायिकः । ४. (क) चूणि, पृ० २४८ : अप्पणो पवादो अत्तप्पवातो, यथा-अस्त्यात्मा नित्यः अमूर्तः कर्ता भोक्ता उपयोगलक्षणः, य एवमादि आतप्पवादो सो य पत्तेयं जीवेसु अस्थि त्ति, न एक एव जीवः सर्वव्यापी। (ख) वत्ति, पत्र २४८ : तयाऽऽत्मन:-उपयोगलक्षणस्य जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशमाजः स्वकृतफलभुजा प्रत्येकसाधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्तधर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवावप्राप्तः सम्यग्यथावस्थितात्मस्वतत्त्ववेदीत्यर्थः। ५. (क) चूणि, पृ० २४८ : दुहतो त्ति दब्बतो भावतो य, सोताणि इंदियाणि, दन्वतो संकुचितपाणिपादो। लास्सुत्तिकारणाणि 'सुणमाणो वि ण सुणति पेच्छमाणो वि ण पेच्छति । भावतो इंदियात्थेसु राग-द्दोसं ण गच्छति ॥' अतो वुहतो वि सोतपलिच्छण्णे । (ख) वृत्ति, पत्र २७४ । ६. चूणि, पृ० २४८ : धम्मट्ठी णाम धर्ममेव चेष्टते भाषते वा भुंक्त सेवते, नान्यत् प्रयोजनम् । Jain Education Intemational Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६२८ प्रध्ययन १६ : टिप्पण ३८-४० ३८. धर्म का विद् (धम्मविऊ) जो धर्म के सब प्रकारों को जानता है वह धर्मविद् कहलाता है।' जो धर्म के सभी पहलुओं को और उसके फल को जानता है वह धर्मविद् कहलाता है।' ३९. मोक्षमार्ग के प्रति समर्पित (णियागपडिवण्णे) इसका अर्थ है-मोक्ष के लिए समर्पित । चूर्णिकार ने 'नियाग' का अर्थ चारित्र' और वृत्तिकार ने मोक्षमार्ग अथवा सत्संयम किया है।' ४०. सम्यक् चर्या करने वाला (समियं चरे) इसके दो अर्थ हैं-(१) सम्यक् चर्या करने वाला। (२) सतत समभाव में रहने वाला। १. चूणि, पृ० २४८ : धम्मविद् ति सर्वधर्माभिज्ञः। २. वृत्ति, पत्न २७४ : धर्म यथावत्तत्फलानि च स्वर्गावाप्तिलक्षणानि सम्यक् वेत्ति । ३. धूणि, पृ० २४८ : नियागं णाम चरितं तं पडिवण्णो। ४. वृत्ति, पत्र २७४ : नियागो-मोक्षमार्गः सत्संयमो वा तं सर्वात्मना भावतः प्रतिपन्न: नियागपडिवन्ने ति। ५. चूणि, पृ० २४८ : समियं चरे सम्यक् चरेत् । ६. वृत्ति, पत्र २७४ : समियं ति समतां समभावरूपा वासीचन्दनकल्पां 'चरेत्'-सततमनुतिष्ठेत् । Jain Education Intemational Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. टिप्पण-अनुक्रम २. पदानुक्रम ३. सूक्त और सुभाषित ४. उपमा ५. व्याकरण-विमर्श Jain Education Intemational Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट : पृ०६३० से ६४. तक पृ. सध्या के स्थान पर हिम्पण संख्या और टिप्पण संख्या के स्थान पर पृ० संख्या पर्ने। परिशिष्ट १ टिप्पण-अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम GWwx MG.० xx २१५ ८४ MY २६६ xw G शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० सं० सं० सं० सं० अइदुक्खधम्मयं (५।१२) २५२ ३४ अगणी (५।११) २५१ २६ अणज्जधम्मे (७६) ___३३७ ३८ अइमाण (९।३६) ४२२ ११६ अगरु' (४।३६) अणठे (१३।२२) ५५० १० अंडकडे (१।६७) ६५ १२६ अगारिकम्मं (१३।११) अणण्णणेया (१२।२५) ५११ अंजणसलागं (४।४१) २१६ १०२ अगारिणं (१४८) अणवज्ज (६।२३) ३०८८२ अंजणि (४१३८) अगारिणो (६३१) २८६ अणवज्ज अतहं (११५६) अंजु (३।१) ४ अगिद्धे (११७६) अणवेक्खमाणे (१०।११) अंजुं समाहिं (१०।१) अगिद्धे । (३५) ४२१ ११८ अणाइले (६।८) अंजू (१४८) अणाइले (१३।२२) ५४६ ८७ अंतए ते समाहिए (११।२५) ४७८ अग्गं (२०५७) ११७ ७७ अणाइले (१४।२१) ५८२ ७५ अंतं करेंति (१५।१७) ६११ अग्गं वणिएहि (२०५७) ११७ ___ अणाइले (१५१२) ६०८ २६ अंतकडा (१२।१५) ५११ अग्गे वेणुव्व (३।५४) अणाऊ (६५) २६३ २८ अंतकरा भवंति (१४।१७) ५७८ अजोसयंता (१३।२) ५२८ अणागति (१२।२०) अंतगं सोयं (९७) ३६८ अजोसिया (२०५६) ११६ ७५ अणायु (६।२६) अंतलिक्खे (१४४) २६६ अज्झत्तदोसा (६।२६) अणारिया (१॥३७) अंतसो (८।१०) ३७२ २१ अज्झत्थं (११८७) ७६ १५६ ५७० अणासवे (१४१६) अंताणि (१५।१५) ६१० ३६ अज्झत्थविसुद्धं (४.५३) २२७ १३८ अणिएयचारी (६।६) अंधं तमं (५।११) अज्झप्पजोगसुद्धादाणे अणिदाणभूते (१०११) अकंतदुक्खा (११८४) ७४ १५२ (१६।५) २५ अणिदाणे (१६॥३) अकंतदुक्खा (११।६) ४७४ अज्झप्पेण (८।१६) अणिस्सिए (१६॥३) अकम्मंसे (११३६) ४२ अज्झोववण्णा (२०५८) अणिहे (२०५२) अकसाइ (६८) २६७ ४३ अझंझपत्ते (१३।६) ५३३ १८ अणुक्कसे''जावए (११७७) ६६ १४१ अकिरियाता (१०१६) ४४५ ___ अट्टे (१०।१८) ४४८ अणुगच्छमाणे (१४।२३) ५८६ अकिरियावायं (१२।१) ४६६१ अट्ठपदोवसुद्धं (६।२९) ३१४ १०० अणुजुत्तीहिं (३१५६) १६४ ८० अकोवियं (८।१३) ३७३ अट्ठाणिए (१३।३) अणुजुत्तीहिं (११।६) अकोविया (१॥६१) ५७ ११५ अट्ठापदं (९।१७) ४०४ अणुण्णते णावणते (१६१५) ६२४ अक्कोसे (३।५७) १६५ ८३ अछे (२०४१) अणुतप्पई (४१०) २०० अक्खिरागं (९।१५) ४०३ ५० अणंतचक्खु (६।६) २६४ अणुत्तरं झाणवरं । (६६१६) ३ अखिले (१२८) ३५१ ९७ अणंतचक्खू (६।२५) ३११ ८६ अणुत्तरं तवति (६।६) २६५ अखेतण्णा (१११७६) ४७६ ३६ अणंते अपरिमाणं अणुत्तरग्ग (६।१७) ३०३ अगणिसमारभिज्जा (७१५) ३३४ २५ (१८१-८२) ७२ १५० अणुत्तरे य ठाणे (१५।२१) ६१२ २६४ २५१ २८ . ६२५ ७६ ० WW०८ ० m २२ m Jain Education Intemational Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो। परिशिष्ट १ : टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शव अनुकम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं. सं० सं० सं० सं० अणुधम्मचारिणो (२०४७) १०६ ६१ अस्थि पुण्णं. 'णत्थिपुण्णं अमुच्छितो. (१०।२३) ४५१ ७७ अणुधम्मो (२०११) १०० २२ (११।१६-२१) ४७६ २८ अमूढा (१४।१०) अणुपाणा (२०११) ६६ १६ अथ (१६।१) ६२१ १ अयं (५१३५) २६४ अणुपुवकडं (१५१२३) ६१३ ५३ अदु णाइणं...(४।१४) २०४ ४३ अयाणंता (११६) २४ २२ अणुपुव्वेण (१११५) ४७० ___ अदु'दासा वा (४|४६) २२२ १२२ अयोहारि ब्व (३॥६७) १७१ अणुप्पियं भासति (७।२६) ३४६ ८७ अदु भोयणेहि (४।१५) २०४ ४५ अरति रति (१३।१८) ५४५ ७१ अणुभावे (६७) २६६ ३८ अद्देव से (१३॥५) ५३२ १५ अरति रतिं च (१०।१४) ४४४ ५१ अणु माणं (८।१८) ३७४ ३६ अधोऽवि (१९७३) ६७ १३४ अरति-रति (१६।३) ६२२ अणुवीइ (१०११) ४३३ २ अपडिण्णं (६।१६) ३०५ ७० अरहस्सरा (५७) २४६ १५ अणुवीइ वियागरे (९।२५) ४१२ ८३ अपडिण्णस्स (२।४२) १०८ ५५ अरहस्सरा (२३८) २६६ ६५ अणुवीचि (१४१२६) ५६१ १०२ अपडिण्णे (१०११) ४३४ ४ अररियाभिता अरहियाभितावे (५२१७) २५४ ४३ अणुसासणं (२।११) ६६ २० अपडिण्णेण (३१५३) १६२ ७६ अलंकारं (४१३८) २१६ ८५ अणुसासणं (२०६८) १२२ ६३ अपरं परं (६।२८) ३१३ ६७ अलूसए (१४।२६) ५६० ६८ अणुसासणं (१५॥११) ६०७ २६ अपरिच्छ दिट्ठि (१९) ३४५ ६८ अविकपमाणे (१४।१४) ५७६ अणुसासति (१५१०) ६०६ ।। अपुटुधम्मे (३३३) १४६ ५ अविजाणओ (५।१२) २५२ अणुस्सुयं (२०४७) १०६ ___ अपुटुधम्मे (१४॥३) ७ अवि धूयराहिं (४।१३) २०३ अणेलिसस्स (१५।१३) ६०६ ३२ अपुटुधम्मे (१४।१३) ५७५ ४४ अवियत्ता (११३८) ४२ अणोवसंखा (१२१४) १० अप्पं भासेज्ज (८।२६) ३७८ ४६ अवि हत्थ 'अदु.. अणोसिते ..(१४।४) ५६७ १३ अप्पपिंडासि (८।२६) ३७८ ४५ (४।२१-२२) अण्णं (११४८) ५० ६५ ___ अप्पणो य वियक्काहिं असंकियाई 'असंकिणो अण्णं जणं पस्सति (१३।८) ५३६ ३२ (१।४८) (११३७) अण्णं वा अणुजाणइ (११२) २१ ८ अप्पेण (५।२६) असंथुया (१२।२) अण्णत्थं (२६) ४१५९४ अबोहिए (२०५५) ११५ ७१ असमाहिए (३।२७) अण्णत्थ वास (१३) ३४२ ५७ अब्भक्खाण (१६॥३) असमाहिया (३।१०) अण्णमण्णेहिं मुच्छिए (११४) २२ १४ अब्भागमियम्मि (२०७१) १२३ ६६ असमाहिया (३।५२) अण्णयरम्मि संजमे (२।२६) १०३ ३४ । अब्भुट्टिताए घडदासिए असमाहिया (११।२६) अण्णवुत्त-तयाणुगं (११८०) ७२ १४६ (१४१७) ५७२ ३२ असमाही (२०४०) १०७ अण्णाणवायं (१२।१) ४६७१ अभए (६५) २९३ २७ असाहुधम्माणि (१४।२०) ५८१ ७४ अण्णाणिया (१।४३) ४८ अभिजुजिया रूद्द (५१४२) २६७ १०२ असुहत्तं तहा तहा (८।११) ३७२ अण्णायपिंडेण (७।२७) ३५० अभिणिबुडे (८।२६) ३७८ ४७ असूरियं (५।११) अतिक्कमंति (८।२१) अभिणूमकडेहि (२।७) ६७ असेसकम्मंस (६।१७) ३०३ अत्तगामी (१०।२२) ४५० ७३ अभिदुग्गंसि (५।३२) २६२ ७२ अस्सिं (१५।४) अत्तत्ताए (३।४६) अभिदुग्गा (५८) २५० अस्सि च लोए. (७।४) अत्तदुक्कडकारिणो (८1८) ३७१ १६ अभिपातिणीहिं (५॥३३) २६२ ७५ अह (७५) ३३३ १६ अत्तपण्णेसी (६।३३) ४१६ ११२ अभिसंधए पावविवेग अह (७६) अत्तसमाहिए (३१५८) १६६ ८५ (१४१२४) ५८६६३ अहम्ममावज्जे (१।४७) ४६ अत्ताण जो जाणइ (१२।२०) ५१५ ५२ अभोच्चा (७.१३) ३४२ ५६ अहाबुइयाइं (१४।२५) ५८६ अत्ताण जो जाणइ अमणुण्णसमुप्पायं' (१।६६) ६६ १३१ अहावरं "पुत्तं पिता (१२।२०-२१) ५१६ ५७ अमाइस्वे (१३१६) ५३४ २२ (११५१-५५) ५२ १०६ ५०१ ५० ०४"ur१० २५१ ३७५ ६०३ orma Jain Education Intemational Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयपडो १ ६३३ परिशिष्ट १: टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम सं० सं० टिप्पण पृष्ठ सं० सं० २० ३७६ mmmm १३८ GG ३४ ४६ ३२९ अहिंसा समय (११।१०) अहियपोरुसीया (५।२४) अहियासएज्जा (७१२७) अहे करेंति (५६) अहो वि (१२।२१) अहोसिरं (५१५) अहोसिरं कटु (५॥३५) आइट्टो (४११६) आइएज्जा (७।२६) आउक्खयं (१०।१८) आउखेमस्स (८।१५) आउस्स कालातियारं (१३।२०) आएज्जवक्के (१४।२७) आगाढपण्णे (१३।१३) आघाइ धम्म (७।२४) आघायं (१।२८) आघायं “जे एवं (११२८-४०) आघातकिच्चं (३।४) आजीवगं (१३।१५) आजीवमेयं (१३।१२) आणवयंति (४१७) आणा (३।२६) आणाए सिद्ध वयणं.. (१४१२२) आणीलं च वत्थं रावेहि (४१४०) आततो परतो वा (१२।१६) आतप्पवादपत्ते (१६६६) आतभावं (१३।२१) आतभावेण वियागरेज्जा (१३१३) आतसाते (७५) आतसुहं पडुच्च (७८) आतहितं (२०५२) आदाणं (१६॥३) आदाणमठ्ठी (१४।१७) ४७४ १७ आदिमोक्खं (७१२२) ३४७ ८० आवट्टा (३।३१) १५५ ४७ २५७ ५३ __ आदिमोक्खा (१५२९) ६०६ २० आवसह (४१४५) २२२ ११६ ३५१६३ आदीण वित्ती (१०१६) ४३७ आसंढी (२१) ४०७ ७० २५० २३ ___ आदीणियं (१२) २४८७ आसंदियं (४।४६) २२२ १२० ५१७ ५८ आमंतिय (४१६) १६७ २० आसणं (२।३६) १०७ ४८ १२ आमंतिय "णिमंतेंति आसाविणि णावं (११५८) ५६ ११० २६४ ८६ ( ६) १६८ २१ आसिले देविले (३।६३) १६८ ६१ २०७ ५५ आमलगाई (४१४१) २१८ १०० आसिसावाद (१४।१६) ५८० ७० ३५२ १०१ आमिसत्थेहिं (१६२) ५८ ११६ आसुपण्णे (५।२) २४६ ४४८ ६२ आमोक्खाए (८।२७) ५१ आसुपण्णे (६७) २६५ ३५ ३७४ ३१ आय (१०१३) आसुपण्णो (१४॥४) ५६८ १७ आयगुत्ता (८।२२) आसुरकिब्बिसिय (१८७५) ५४७ ७८ आयगुत्ते (७।२०) ३४६ ७३ आसुरियं (२।६३) १२० ५६२ १०७ आयगुत्ते (११।२४) आसूणि (६।१५) ४०२ ५४२ ५७ आयछट्ठा (१।१५) आहाकडं (१०८) ४३६ २८ आयतट्ठिए (२०६८) आहाकडं (१०।११) ४४१ ३६ आयदंड (२०६३) ११६ आहडं (९।१४) ४०२ ४७ आयदंडसमायारा (३।१४) १४६ २२ आहत्तहियं (१३।१) आयदंडे (७१२) आहार-देहाइं (७८) आयदंडे (७६) आहारसंपज्जण (७।१२) ३४० ५४३ ६३ आयपणे (१४१५) १६ आहु (६।१) ५४० आयरियाई (६।३२) ४१६ १०८ इइ से अप्पगं निरु भित्ता २०० २५ आयसुहं (१४) २४८६ (४।५१) २२६ १३४ ४१३ ८७ आयाणं सारक्खए (११८६) ७५ १५७ इओ पुव्वं (१११५) आयाणं सुसमाहरे (८।२१) ३७६ ४१ इंगालरासिं (१७) २४६ १४ ५८८६२ आयाणगुत्ते (१२।२२) ५१८ ६४ ___ इच्चेयाहिं दिट्ठीहिं (१९५७) ५५ १०६ आया लोगे य सासए इणमेव (२।७३-७४) १२५ १०६ २१८१८ (१२१५) ४७ इतो विद्धंस..(१५१८) ६१२ ४४ आरं परं (२८) इत्तरवास (२०६२) ११६ ८५ आरंभणिस्सिया (१६१०) २७ ३२ इत्थिवेय (४।२०) २०७ ५८ ६२७ आरंभणिस्सिया (१।१४) ३१ ४३ इत्थी वा कुद्धगामिणी ५४८ ८३ आरंभणिस्सिया (२) ३६५ १५० आरंभसंभिया कामा (६।३) ३६६ १५ इत्थीवेदे (४।२३) ५२६ आरण्णा (१।१६) ३६ ५३ इत्थीसु सत्तो (१०८) ४४० ३३३ २० आरतो परतो (८।६) ३७० १४ इमं दरिसणमावण्णा (१११६) ३६ ५५ ३३६ ३२ आराहि (५१४१) २६७ १०० इह जीवियट्ठी (१०१३) ४३६ १३ ११५ ६६ आरियं मग्गं (३।६६) १७१ ६६ इहलोइयस्स (७।२६) ३४६ ८६ ६२४ २१ आवज्जे उप्पहं जंतू (११४६) ४६६० उंछ (२०६८) ५७७ ५८ आवट्टती (१०।४) ४३७ १६ उंछ (४।१२) २०२ ३५ १२२ Jain Education Intemational Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ * ३६ ५३४ có सूयगडो १ ६३४ परिशिष्ट १ : टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० सं० सं० सं० सं० उक्कसं जलणं णूमं (११८७) ७६ १५८ उवेहती (१२१८) ५१४ ४८ एवं लोगो भविस्सइ (३।२१) १५२ ३३ उग्गपुत्ते'लेच्छवी उसिणोदगतत्तभोइणो एवं से (२१७६) १२६ (१३।१०) ५३८ ३६ (२०४०) ४६ एवमप्पा सुरक्खिओ होइ उग्गहं च अजाइयं (६।१०) ३६६ २६ उसिया वि (४।२०) ५६ (४१५) १६७ १६ उच्च अगोतं ..(१३१६) ५४४ ६७ उसीरेण (४।३६) ६२ एसंतणंतसो (१।६३) ५६ १२३ उच्चावएसु (१०।१३) ४४३ ४७ उसु (५॥३१) २६१ ७० एसणं असणं (१३।१७) ५४५ ७० उच्छोलणं (६।१५) ४०३ ५१ ___ उस्सयणाणि (३।११) ३६६ ३४ एसणासमिए (११।१३) ४७५ उज्जला (३।१०) १४८ एगंतकूडे (५।४५) २७० ११३ एसिया (२) ३६५ उज्जाणंसि (३।३७) ___एगंतदिट्ठी (५।५१) १२६ एहि तात ! ...(३।२३) उज्जालओ पाण · (७६) ३३३ . एगंतदिट्ठी (१३।६) २१ ओए (४।१०) २०१ ३२ उज्झिय (३३५२) एगंतदुक्खे (७।११) ओए (४।३२) २१३ ७३ उट्ठाय सुबंभचेरं (१४११) ५६४ एगंतमोणेण (१३।१८) ५४६ ७४ ओए (१४।२१) ५८२ ७७ उड्ढे (२०५६) ११७ एगंतलूसगा (२।६३) १२० ८७ ओभासमागे (१४१४) उड्ढे अहे (१४।१४) ५७५ एगचारी (१३॥१८) ५४६ ओमाणं (११७६) ७१ १४७ उड्ढं अहे यं (१०१२) ४३४ एगत्तं (१०।१२) ४४२ ४४ ओवायकारी (१३।६) ५३३ १६ उड्ढकाएहिं (५।३४) २६३ ७६ एगया (४।४) ओसाणं (१४।४) ५६६ उड्ढमहे (३।८०) एगविदू (१६।६) ६२६ ३० ओहं तरति दुत्तरं (११।१) ४६६ उत्तमपोग्गले (१३।१५) ५४३ ६४ एगायए (२०४४) २६६ १०६ ओहंतराहिया (०२०) ३७ ५६ उत्तर (२०४७) १०६ एगायता (५।४८) २७१ १२३ ओहंतरे (६।६) २६४ ३१ उत्तरा (३३२२) १५३ ३५ एगे (११४८) ___५० ६४ कंचणमट्टदण्णे (६।१२) २६६ ५१ उत्तरीए (१५।१६) ६१४ एगे (२।३४) १०५ ४२ कडूविणठेंगा (३।१०) १४८ १४ उदएण सिद्धि मावण्णा एगे (३१६६) १७२ १०१ कंदूसु (५३३४) २६३ ७८ (३१६१) १६७ ६० एगे (४।१) १६३ २ ककाणओ (५१४२) २६८ १०४ उदगस्सऽभियागमे (११६१) ५७ ११६ एगे (७/१२) ३४१ ५१ कक्कं (६।१५) ४०३ ५३ उदगेण । (७।१४) ५६ एगे (१६।६) ६२६ कट्ठसमस्सिता (७७) ३३४ २८ उदासीणं (४।१५) २०४ ४४ एगे मंते अहिज्जते (८।४) ३६८ कडेसु (११७६) ७० १४४ उदिण्णकम्माण (५।१८) एगेसि (१७) २४ २४ कप्पकालं (१९७५) ६८ १३७ उद्दा (७।१५) ३४४ ६२ एगो (१८) २५ २७ कम्मं (१३।२१) ५४८ ८१ उद्देसियं (६।१४) ४०२ ४४ एगो सयं । (५१४६) २७२ १२५ कम्मं णाम विजाणतो उराल (१८४) ७५ १५३ एतं पमोक्खे (१०।१२) ४४३ ४५ (१५१७) ६०४ १४ उरालं (१०।११) ४४२ ४१ एताई (७१२) ३२८ ५ कम्मंता (३.५) १४७ १० उरालेसु (६।३०) ४१६ एते (११७६) ६६ १३६ कम्मचिंतापणट्ठाणं (१३५१) ५२ १०४ उवधायकम्मगं (६।१५) ४०३ ५१ एतेहिं दोहि ·-(८२) ३६७ ३ कम्मणा उ तिउट्टइ (११५) २३ १६ उवधाणवीरिए (११।३५) ४८१ ४८ एतोवमं (१४।११) ५७४ ४२ कम्ममेव (८२) ३६७ २ उवलद्धे (४१३५) २१४ ७७ एयं खु (१८५) ७५ १५४ कम्मी (७।२०) ३४६ ७२ उवहाणवं (६।२८) ३१२ ६५ एवं पिता (४१२३) २१० ६४ कम्मुणा संमुहीभूता उवहाण (१४१२७) ५६१ १०५ एयं वीरस्सं वीरियं (८।१८) ३७५ ३७ (१५१०) ६०६ २२ उवहाणेण (३।३८) १५८ ५८ एवं तु समणा (३।४२) १५८ ६२ कयकिरिए (२०५०) ११३ ६३ उवाहणाओ (१८) ४०५ ६२ एवं पुवठ्ठिया (११३१) ४० ६५ कयकिरिए (६।१६) ४०४ ५५ २६ २५५ Jain Education Intemational Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । ६३५ परिशिष्ट १: टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० टिप्पण पृष्ठ सं० सं० २६४ २५६ १५० २७० ११४ २२३ १२४ १४६ १४६ 9 mrry ०२ ० ८ कयरे (६१) ३६४ ३ कुसले (६।३) २८६ १४ गारं पिय' (२०६७) १२१ कयरे (११११) ४६८२ कुसले (१४।२७) ५६२ १०८ गारवाणि (३६) ४२२ १२० करकं (४।४४) २२० ११० कुसीलधम्मे (७५) २२ गिरिसु (६।१२) कलंबुया (२१०) २५१ २४ कुसीलयं (७।२६) ९ गिरीवरे (६।१२) कलुणं थणंति (५॥३५) कुसोलाणं (४।१२) २०२ ३६ गिलाणा (५॥३७) ___२६५ ६१ कलुसं (५।२७) ____ कूडेण (१३।६) ५३६ ३३ गिहिमत्तेसणं(२२४२) १०८ कसायवसणेहि (३३१५) कूडेन (५४४५) ११४ गुत्ते वइए (१०।१५) ४४४ कसिणे (१।११) कूरकम्मा ... (५॥१३) २५३ ३५ गुलियं (४।३८) २१६ ८८ कसिणे (५।२७) २५६ के ईणिमित्ता'. (१२।१०) ५०४ गेण्हसु वा णं (४।४७) कहं कहं (१४।६) ५७० केयणे (३।१३) २१ गोते (१३।६) कहं व णाणं... (६।२) २८७६ केवलिणो मतं (१११३८) ४८३ ५६ गोतेण जे थब्भति... कामभोगे (८।५) केस (३।१३) २० (१३।१०) ५३८ ४२ काममइवढे (४।३३) को जाणइ... (३।४३) १५६ ६३ गोयं (१४।२०) ५८१ ७२ कामा (६।२२) कोट्टबलि करेंति (५४३) २६६ १०७ गोयण्णतरेण (२।२३) कामेहि (२।६) कोठं (४.३६) २१६ ८६ गोयवायं (६।२७) ४१४६० कायं विओसज्ज (१०।२४) ४५२ ८१ कोलाहलं (६।३१) ४१८ १०५ गोरहग (४।४४) ३७६ २२१ कायं वोसेज्ज (८।२७) ११४ ५० कोलेहिं (५६) २५० २२ घडिगं (४।४५) २२१ ११६ कालं (५२५२) २७४ १३३ कोविए (१४।१५) धम्मठाणं (५।१२) कालमाकंखे (१११३८) ४८३ २५२ ३२ ५५ कोसं च मोयमेहाए (४१४३) २२० १०८ घम्मठाणं (५।२१) २५७ ५० काले (३७५) १७५ १०६ खणं (२०७३) १२४ १०३ कासवस्स (२०४७) घातं (७.१६) ३४५ खत्तिया (३।४) ६६ कासवस्स (२०७३) १२५ १०५ खत्तिया (३।३२) घातमेंति (११६२) १२१ १५६ ५० कासवेण (१११५) ४७० ८ ___ खत्तिया (हा२) ३६५६ घासति (१३३५) काहिए (२०५०) ११० ६३ खारस्स लोणस्स (७।१३) ३४२ ५४ चंदण (६।१६) ३०५ ६६ किंचुवक्कम (८।१५) ३७४ ३२ खुड्डया (३।२२) चंदे व ताराण (६।१६) किमाह बंधणं । (११) १६ ४ खुदं (१३।२०) ५४७ चक्खु (१२।१२) ५०६ १८ किरियाकिरियं .. (६।२७) ३११ ६१ खुद्दमिगा (१०।२०) ४४६६७ चक्खुपहे ठियस्स (६॥३) २६० १६ किरियावाइदस्सिणं (१३५१) ५२ १०२ खेयण्णए (६।३) २८८ चक्खुम (१५१३) किरियावायं (१२।१) ४६८ १ खेयण्णे (१५।१३) ६०६ ३३ चत्तारि समोसरणाणि किवणेण समं - (२०५८) ११८ ८१ खोओदए वा (६।२०) ३०५ ७३ (१२।१) ४६५ किसामपि (१२) २०७ गंथं (१४।१) १ चयं ण कुज्जा (१०१३) ४३६ १५ कीयगडं (६।१४) ४०२ गंथा अतीते (६३५) २६ चयंति ते. (७।१०) ३३८ ४३ कुंभी (५।२४) २५७ ५४ गंथे (११६) २४ २१ चरगा (२।३६) १०६ ४६ कुकम्मिणं (७।१८) ३४५ ६७ गंधमल्ल (६।१३) चरिया (११८६) ___७५ १५७ कुक्कययं (४।३८) २१६ ८६ गब्भाइ (७.१०) ३६ चरिया (८।३०) ४१७ १०० कुणिमे (५।२७) २५६ ६१ गहन (३।४०) १५८ चरे आयतुले पयासु कुमारभूयाए (४।४५) २२१ ११५ गाढ (५।१२) २५२ ३३ (१०१३) ४३५ १२ कुले (११४) २२ १२ गामकुमारियं किहुं (९।२६) ४१६ ९७ चित्तमंतं (११२) २०६ कुव्वं. 'जे ते (१।१३-१४) ३२ ४५ गामधम्मेहिं (१११३३) ४८० ४५ चित्तमंतमचित्त' (१२) २० ५ m ० xmmx ० ० १५३ ० ५६४ m " . Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गडो १ शब्द अनुक्रम चिरं दूइज्ज माणस्स (२०२५) चिरईया (५७) चिरईया (२०३३) चिरईया (२०२६) लगोल (४०४५) छंद (१३।२१) Et (CIR) छण्णं च... (२१५१) (४२) (२०१८) fig (12) सोते (१५/१२) जइ ते सुया (५।२४) जं जार (२०५०) जंसी विया (१२०१४) जगई (११।३६) जगभासी (१३५) जगा (११।२२) जती (७११६) जमती (१५१) जराउ ( ७११) जरिए (७।११) जो अमणी अको (५२३८) जले जावा (१५।५) किसी (१।२२) जहा एबमेगे (१०९-१० ) जहा कडे (२०२६) जहा गंड (३१७०-७२ ) जहातणं (५१२८ ) टिप्पण पृष्ठ सं० सं० जमाहुअपारगं ( १२।१४ ) ५०७ जमिणं ( २२४ ) ६७ १५७ ५६ २५० १७ २६२ ७७ २६५ ८६ २२१ ११८ ५४८ ८२ ४१३ ८५ ११३ ६४ १९४ ६ ४०६ ६३ ३७१ २० ६०८ २८ २५.७ ५२ २७२ १२६ ५०६ २६ ४८२ ५३१ ४८० ३४४ ६०२ ३२८ ३३६ २६६ ६०४ ४०६ ཝཱ २७ २५८ १७३ २६० जादी (१५) ४८० ३३० जाइमो (११०३०) जाईप (७३) जाहं च बीया (७९) जरामर (२०७२) १२४ जाएफले समुय (४/४७) २२२ ३३६ ५२ १३ ४६ ६४ १ २५ ७ ४८ ६३ ११ ७५ ३५ ५८ १०६ ६२ ५६ ११० ४३ १० ३५ १०२ १२३ शब्द अनुक्रम ६३६ जाणं (१०७८) जाणंति (४११८) जाणासि (६२) जाहि ( ३०३४) जात बालस्स (१०।१७ ) जाति मरणं (१२।२० ) जाति जाति (७३) जाती - जसो (६।१४) जाती कुलं (१३।११) जसी (६१४) जीवि (२०७५) जी (२०३४) जीवियभावणा ( १५/४ ) जुत्ते (२२६६ ) जे उ संगाम ( ३।४५ ) १०३) जे छेए .. ( १४।१) जे ठाणओ (१४१५ ) जे जाई. (१५७) जेणेहं . ( २३ ) .. (१३४ ) (१२।१३ ) जोइभूयं सततावसेज्जा (१२०११) जोगवं (२०११) जोगेहि ( ४१४ ) जो तुमे ( ३।३५) भागो (२७) टिप्पण पृष्ठ सं० सं० ठाणी ( ८1१२) ठण्णा (१६४५) ७० १४३ २०६ ५३ २८८ ११ १५६ ४४७ जे धम्म (१५.१२) जे माणण (१३९) जे मायरं . ( ७१५) जे बुद्ध (११।२६) जे याबुद्धा (८।२३-२४) ३७६ जे या... (२०२५) जे पावि पुडा १०२ **** जे रक्खसा जो आगति जाणइ ( १२/२० ) ५१६ ३३० ३०१ १५६ ७४ ५५ ५३६ ४३ ३०१ ५५ १७५ १११ ४२१ ११७ ६०३ ह १२२ ६ ५१५ ५६५ ५६८ ६०५ ४०६ ७७ ६१२ ४५ ५३७ ३७ ३३२ १७ ४८ १ ५१ ४३ ३३ ५३० ११ ५०७ २४ ५१५ εε १९५ १५७ ३७६ ५२ ६१ ३७३ ६२५ ५६ १२ ६४ १२१ * १८ १७ ५४ ५१ परिशिष्ट १ टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० ४३८ ३३ ठितप्पा (२०१६) ठितीण लवसत्तमा (६२३) ठिप्पा (६५) डहरा... (२२) डहरे (१२1१८ ) डहरेण तु (१४१०) (४१४५) डिम डंकादि हरेना (१४१२) ढंका य कंका य (११।२७) ढकेहि य कंकेहि य (१/६२) दणं (६।१८) मंदीचुण (४(४०) ण कत्थई भास.. (१४/२३ ) कम्मुणा - (१२।१५ ) ण कुज्के (१४१६ ) णक्खत्ताण व चंदमा (११/२२) णण्णत्थ (SIRE ) तेहि विि (११।३७) पुणे (१।१२) सोबवाइया (१1११) ए (१०।२३ ) (१३।२२) मई (२०१६ ) मी वेदेही (२०६२) णय अदक्खुव !." (२४६४-६५) रगे पडंति (५२०) १८ ११ ५४ ૪૨ णवा (३।२२) २७ २६ वा केई (४४९) संस(१०।१२) ३०६ ८५ २६३ २५ ६६ २ ૪૪ ५१२ ५७० २६ २२१ ११७ ५६५ ४५० ५८ ३०४ २१७ ५८७ ५०६ ५७३ ४७७ ४१५ ४८२ ३० २६ ४५१ ६ १२१ २५६ ४१ १२० ६५ ६६ ८७ ३० ३५ ३० ६ ५३ ४१ ३६ ७६ ५५.० 55 २५४ ४१ १६७ ६१ ६० ४८ १५३ ३७ २२५ १२६ ५० ४४४ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ४७५ ५८३ xxxx ० ० ६२३ १८ or सूयगडो। परिशिष्ट १ : टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पूष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० सं० सं० सं० सं० ण सद्दहे (४।२४) २१० ६५ णियंठिया (१।२६) ४१३ ८६ णेयाउयं (२।२१) १०१ २६ ण से पारए (१३।११) ५३६ णियच्छइ (१।१०) ३४ णेयाउयं (८।११) ३७२ णाइच्चो उदेइ (१२।७) ५०३ १३ णिययाणिययं संतं (१।३१) ३८ ६३ णेयारमणुस्सरंता (७।१६) ३४५ ६५ णाइणं (४।१४) २०४ णियागट्टी (१।४७) ४६६१ णो इत्थिं णिलिज्जेज्जा णाइवेलं वएज्जा (१४।२५) ५८६ णियागपडिवण्णे (१६।६) ६२८ ३६ (४१५१) २२६ १३५ णाइवेलं हसे मुणी णियोजयंति (५।४१) २६७ १०१ णो कुझे (२।२८) १०४ ३६ (६।२६) णिरहंकारो (६६) ३६७ २४ णो छादए (१४।१६) ५७६ णाईणं सरई बाले (३।१६) १५० णो जीवियं णो णागणियस्स (७२१) णिराकिच्चा (११११२) (१२।२२) ५१८ ३४७ णो जीवियं णो (१३।२३) ५५१ णागेसु (६।२०) ३०५ णिरामगंधे (६।५) २६२ णो तासु चक्खु संधेज्जा णिरावकंखी (१०।२४) ४५२ णाणप्पग्गारं पुरिसस्स जातं १६६ (४५) (१३।१) ५२७ णिरुद्धगं वावि (१४।२३) ५८७ २ णो तुच्छए (१४१२१) णाणसंकाए (१३१३) णिरुद्धपण्णा (१२।८) ५०४ णो पीहे । (२।३५) णिरोधं (१४११६) १०६ णाते (६।१८) ५७७ णिव्वहे (१४।२०) ५८१ ७३ णो पूयणं । (७।२७) ३५१ णायगा (१२।१२) १४ णायभासी (१३।६) णो माणी (१६।३) णिव्वाणं (६।३६) ५३३ १७ ४२२ १२१ णो य संसग्गिय भए णालियं (९१८) णिव्वाण परमा बुद्धा (हा२८) ४१४ ६२ णावकखंति जीवितं (११०२२) २६ णो सुत्तमत्थं (१४।२६) ५६ १०० (१६) ६०६ २१ णिव्वाणमेयं (१०।२२) ४५० तओवमं (५॥३१) २६१ ६८ णावा व (१२५) ६०४ १२ णिव्वाणवादी (६।२१) तंगण (३३५७) १६५ ८४ णाहिसी किच्चई (२।८) १६ १६ णिव्वाणसेट्ठा । (६।२३) तगरं (४१३६) २१७६० णिकाममीणे (१०८) ४३६ णिव्वुडा (१५।२१) ६१३. ४८ तज्जातिया इमे कामा णिकामसारी (१०८) ४३६ णिसंतं (६।२) २८८ (४।५०) २२५ १३२ णिक्किचणे (१३।१२) ५४० ४७ णिसढायताणं (६।१५) तज्जिया (११३३) णिरवेक्खो परिव्वए (६७) ३६८ णिसम्मभासी (१०।१०) ४४० तण रुक्ख (७।१) __३२८ १ णिगिणे चरे (२६) ९८ १७ णिसिज्जं च गिहतरे तणादिफा (१०।१४) णिचयं (१०६) ४४० ३४ (२१) ४०७ ७२ तथागता (१५०२०) ६१२ ४६ णिज्जंतए...(१४१७) णिहं (५।३८) २६६ ६२ तथावेदा (४।१८) २०६ णिठे (१५।२१) णिहाय (१३।२३) तपेहि (५॥४३) २६८ णिट्टितट्ठा (१५।१६) णीवार (३॥३६) १५७ ५५ तब्भावादेसओ' (८।३) ३६७ णिट्ठितट्ठा व देवा.. णीवार (४॥३१) २१२ तमाओ ते (११४) ३१ ४४ (१५।१६) ६११ ४१,४२ णीवारगिद्धे (७।२५) ३४८ तमाओ ते. (३११) १४८ णितियं धम्म (६।१) २८७६ णीवारे व ण लीएज्जा तम्हा उवज्जए" (४१११) २०२ णिदान (१०।२४) ४५२ ८२ (१५१२१) तय सं व (२।२३) णिइं (१४१६) ५७० २३ णूम (३।४०) १५८ तलसंपुड व्व (५।२३) २५७ णिमंतयंति (२।३२) १५६ ५१ णेता (६७) २६५ ३६ तवेण वा । (१३।८) ५३६ ३१ णिमंतेंति (४१४) १६६ १४ ताणि सेवंति (१३।१६) ५४४ ६६ तवेसु (६।२३) णिम्ममो (६।६) ३६७ २३ तारो अण्णेसिं तसथावरेहि (१३।२१) ५४६ णियए (३१५३) १६२ ७७ (१२।१६) ५११ ३५ तसा य जे"(६।४) २६० १८ ४७६ २६ ३० ४० ६८ Xur or ० ०Gर . ५ ० ०४ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६३८ परिशिष्ट १: टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम सं० सं० टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम सं० सं० टिप्पण पृष्ठ सं० सं० ३७७ ५७१ २६ .०० १६८ १६ ४०१ ६२१ m तहा करिस्सं. (१४।६) ५७३ ३७ ते य बीयोदगं... (११।२६) ४७८ ३८ दीवायण (३।६३) १६६ ११ तहागयस्स (२०४०) १०७ ५० तेल्लं (४१३६) २१७ ६४ दीवे (६।४) २६१ २० तहा तहा सासय .. तेसिं तु (८।२५) ४४ दोहरायं (६।२७) ३१२ ६४ (१२।१२) ५०६ २१ थंडिल्ल (६।११) ३६६ ३३ दुक्खं (१।४६) ___५१ १०० थणंति (५१७) २५० तहा तहा साहु. १६ दुक्खं (२०५५) ११६ ७२ (१४।२३) थणितं व (६।१६) ३०४ ६७ दुक्खं (१२।२१) ५१८६१ तहाभूएहिं (४।३५) २१४ ७८ थिमियं (३७१) १७३ १०४ दुक्ख (६३) ३६६ १६ तहियं फरुसं. (१४१२१) थिरओ (१४१७) दुक्खखंधविवद्धणं (११५१) ५२ १०५ तहोवहाणे (६।२०) २१ ७४ थिरं (५।२६) (११२) दुक्खा २६० ६५ दुक्खी (५।५०) ताइणो (२०३६) थूलं वियास (५।३०) २७२ १२८ दुगुंछमाणा (१२०१७) ताई (१०।१३) ५११ ४० थेरओ (३।२०) १५२ ३१ दुग्गं (५२) ६०२ ताई (१५१) २४७६ २ दंडं (१३।२३) ५५१ तारागणे (३।६२) दुणियाणि (७।४) ३३२ १६ दंतपक्खालणं (४१४२) २१६ १०६ दुपक्ख (३।५०) तिउद्देज्जा (१११) १६१ ७० ___दंतपक्खालणं (६।१३) दुपक्खं चेव सेवई (१।६०) तिकंडगे (६।१०) ५६ ११३ २६८ ४८ दंतवक्के (६।२२) ३०७ ८० दुमोक्खं (१२।१४) ५०८ तिणच्चा (१९२०) २६ दंते (१६।१) तिमिसंधयारे (१३) २४८८ दुरूवस्स (५।२०) २५६ ४७ दंसमसगेहिं (३।१२) १४६ १६ तिरियं कटु (३।४६) १५६ दुहओ (१।१६) ६५ दगरक्खसा (७।१५) ३४४ ६३ दुहओ वि सोयपलिछिपणे तिलगकरणी (४१४१) २१८ १०१ ___ द? तसे (७।२०) ३४६ ७४ ६२७ ३६ तिलोगदंसी (१४।१६) ५७७ ५५ दढधम्माणं (३।१) १४५ १ दुहतो (१२।१४) ५०८ २८ तिवातए (११३) दत्तेसणं चरे (११७६) दुहम? (१२) २४७५ तिविहेण (१४।१६) दविए (४।१०) २०० २६ दुहमट्ठदुग्गं (१०१६) तिव्वं (१।१०) दविए (८1१०) दुहावास (८।११) ३७२ २५ तिव्वं (११४५) ४६ ८७ दविए (१६।१) ३ दुही (१९६२) ५८ ११६ तिव्वं (५।४) २४८ दवियस्स (१४१४) ५६८१४ दूरं (२।२७) तिव्बाभितावेण (३।५२) १६२ दाणाण सेठं (६।२३) दूरमद्धाण गच्छई (१९४६) ४६८६ तुटूंति पावकम्माणि दारूणि भविस्राई राओ दूरे चरंती (१०।२०) ६०४ २१५ ८० दूवण (२०४६) तुइंति (५।२०) २५६ दासीहिं (४-१३) २०३ ३८ देवउत्ते (११६४) १२४ तुमं तुमं ति (।२७) ४१४ दासे मिए व पेस्से वा देवा (२।५।६) ते (१।१५) (४१४६) २२४ १२७ देवा अदुव माणवा (११।३) ४६६७ ते आततो पासइ (१२।१८) ५१२ दिट्ठधम्मे (१३।१७) ५४५ ६६ दोसे (११।१२) ११.१२) ४७५ २० ते डज्झमाणा (५।३१) २६१ दिट्ठि ण लूसएज्जा धम्म (१४।१३) तेण अंतकरा इह (१५।१५) ६१० (१४।२५) ५८९६६ धम्मं च जे (१४।२७) ५६१ १०६ ते णारगा" (५।१४) २५३ ३८ दिविणं (६७) २६६ ३७ धम्म देसितवं सुतं (६।२४) ४११ ७८ तेणाविमं (१।२०) ३७ ५७ दीणे (१०७) ४३८ २५ धम्मट्ठी (१६।६) ६२७ ते तीतउप्पण्ण... (१२।२६) ५१० ३४ दीवं (॥३४) ४२० ११४ धम्मपण्णवणा (३१५५) १६३ ७६ तेब्भो (१८) २५ २६ दीवं (११।२३) ४७७ ३३ धम्मलद्धं (७।२१) ३४७ १४५ २१ ५७६ २७ ३०७ ५७५ ३७ Jain Education Intemational Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ परिशिष्ट १: टिप्पण-अनुक्रम ad or Um AWAN . ". Mo० mx० १६४ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० सं० सं० सं० सं० धम्मविऊ (१६।६) ६२८ ३८ पण्णसमत्ते. (२।२८) १०४ ३८ पलियंके (हा२१) ___४०७ ७१ धम्मसमुट्टितेहि (१४।२२) ५८५ ८२ पण्णामदं (१३।१५) ५४३ ६२ पलियंतंसि (३।१५) १५० २४ धम्माधम्मे (१।४६) पत्तेयं णत्थि पुणे पलेइ (१३।६) धम्मिए (२१७) (११११,१२) २६ ४० पविज्जला (५।४८) २७१ १२१ धिइमं (६।५) २६२ २४ पभू (११।१२) १६ पब्वइए (१३।१०) धितिमंता (६।३३) पमायं" (८।३) पव्वदुग्गे (६।१२) ३०० ५१ धीरे (१११३८) ४८३ ५४ पयपासाओ (११३५) पव्वया (१।१६) धीरे (१३।२१) पर (७।२५) ३४८ ८३ पव्वहेज्जा (१४६) धुणिया (२०१४) परं (७।२६) ३५२ १०२ पसिणायतनानि (९।१६) ४०४ ५६ धुणे (१५।२२) परं परं (७/४) ३३२ १५ पसुभूए (४।४६) २२५ १२८ धुत (२८) परकिरियं (४१५२) २२७ १३७ पहाणाइ पहावए (१९६५) ६० १२६ धुतं (१०।१६) परकिरियं अण्णमण्णं च पाउल्लाइं (४१४६) २२२ १२१ धुत्तादाणाणि (8।११) ४०० ३५ (६।१०) ४०६ ६६,६७ पाएसु (३१५१) धुयं (२०५१) ११४ ६५ परक्कम्म (४१२) पागब्भि (५१५) २४८ ११ धुयं (५१५२) २७३ १३२ परगेहे (६।२६) ४१५६५ पागब्भिपण्णो (७८) ३३६ धुयं (७।२६) ३५२ १०० परतित्थिया (६।१) पाणाइवाए (३।६८) १७२ १०० धुवमग्म (४११७) २०५ ४६ परदत्तभोइ (१६३५) २८ पाणेहि (१६) २५६ नाय (६।२) २८७८ परदत्तभोई (१३।१०) ४१ पाणेहि णं पाव (५।१६) २५५ पंच खंधे 'पुढवी परपरिवाद (१६१३) १० पापगं च परीणामं (८।१७) (१११७,१८) ३५ ५२ परमं च समाहियं (३।६६) १७१ ९७ पामिच्च (६।१४) ___४०२ ४६ पंचमहन्भूया (१७) २५ २५ परमट्ठाणुगामियं (६६) २१ पायाणि य.(४१३६) पंचसंवरसंवुडे (१८८) १६० परमत्ते (६।२०) ६८ पायाला (३।२६) १५५ ४६ पंचसिहा (७।१०) ३३७ ४१ परिग्गहित्थिकम्मं (६।१३) ४०१ ४३ पारगा (१४११८) ५७८ ६४ पंडगवेजयंते (६।१०) २६८ ४८ परिग्गहे णिविट्ठाणं (९।३) ३६६ १३ पारासरे (३।६३) १६८ ११ पंडिए वीरियं (१५।२२) ६१३ ५० परितप्पए (३१७५) पाव (४।२२) ___ २०६ ६० पकत्थइ (४।१६) ___ परितप्पंति (३।७४) १७४ १०८ पावचेया (१३६) २६५ १० पगब्भिया (३१५६) २२ परितप्पमाणे (१०।१८) ४४६ पावधम्मा (१४।३) पच्छण्णभासी (१४।२६) परिताणेण (१।३३) ४० पावलोगयं (२०६३) १२०८ पट्ठि उम्मद्दे (४१३६) परिवत्तयंता (५।१५) २५४ ४० पावस्स विवेग (७।२६) पडिदुगंछिणो (२।४२) परवत्थं अचेलो वि (हा२०) ४०७ ६६ पावाओ अप्पाण... पडिपंथियमागया (३६) १४७ परिसंकमाणा (१०।२०) ४४६ ६८ (१०।२१) ४५० ७२ पडिपुण्णं (१११२४) ४७८३५ परिसादाणीया (६।३४) ४२० ११५ ११५ पावाया (१२।१) पडिपुण्णभासी (१४।२२) ५८८ परिहवेज्जा (१३।१३) ५६ पाविया (२०२४) १०२ ३२ पडिभाणवं (१४११७) ५७७ - परिहास (१४११६) पासणिए (२०५०) १११ ६३ पडियच्च ठाणं (६।२७) ३१२ ६२ परिहिंति (४१३) पासत्थयं (७१२६) ३४६ ८८ पडिलेह सायं (७२) ३२८ ६ परीसहोवसग्गे (१६३५) पासत्था (११३२) पडिहाण (१३।१३) ५४१ ५५ पलिउंचणं (२०११) पासत्था (३।६६) १७२ १०२ पण्णया अक्खय'' (६८) २६६ ४१ पलिभिदियाण (४।३३) २१३ ७६ पासाणि (४।४) Dr mor army 9००० ५६ xxxarur m Jain Education Intemational Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६४० परिशिष्ट १: टिप्पण-अनुक्रम सब्द अनुक्रम . ५११ irror xorror ३६६ ५४१ टिप्पण पृष्ठ शब्ध अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ शब्द अनुक्रम टिप्पण पृष्ठ सं० सं० सं० सं० सं० सं० १७३ १०५ पूयणा (३१७३) १७४ १०७ बुज्झज्ज तिउट्टेज्जा (१११) १६ १४७ १३ पूयणा (३७७) १७६ ११३ बुद्धप्पमत्तेसु (१२।१८) ५१४ ४६ २६० ६४ पूयणासते (१५३११) ६०७ २७ बुद्धा (१२।१६) १५४ ४५ पूयफलं (४४४३) २२० १०७ बुद्धा (१४।१८) पेच्चा ण ते संति (११११) २८ ३८ बुद्धाणं (६।३२) ४१८ १०७ ५५० ८६ पेज्ज (१६४३) ६२२८ बुद्धे (१०१६) पेसलं (३।६०) १६६ ८७ बुयाबुयाणा (७।१०) ३३७ ४० पेसले (१३१७) २४ बोक्कस (३२) ३९५ ८ पेसे (५।३२) २६२ ७३ बोधि (२०७३) १२४ १०४ २८६ ४ पेह (६॥३) १७ भंते (१६।२) पोस (३।१६) १५१ ३० भयणं (११) पोसवत्थं (४।३) १६५ भवाहमे (५।२६) २५८ २११ प्पभावेणं (११६२) ५७ ११७ भाव विणइंसु (१२॥३) ५०१ ४१७ फणिहं (४।४२) २१६ १०४ भावणाजोगसुद्धप्पा (१५१५) ६०३ १० ३२६ फलगा व तट्ठा (५४१) २६७६६ भारस्स जाता (७२९) ३५२ ६८ फलगावलट्ठी (७।३०) ३५२ १०३ भासमाणो ण भासेज्जा फलेण (३३१६) १५० २६ ( २५) ४११ ४७२ ७६ फासाइं (५।४६) २७१ १२३ भासवं (१३।१३) ४३७ १८ बंभउत्ते (१।६४) ६० १२५ भासादुगं (१४।२२) ____ ५८५ ८३ बंभचेरं (१७२) ६७ १३३ भिक्खु (६।२) २८८ बंधणुम्मुक्का (९।३४) ४२१ ११६ भिण्णकहाहि (४७) १६६ २४ ४४६ बंधणुम्मुक्के (८।१०) ३७१ १६ भिलिंगाय (४॥३६) २१७ ६३ बला (१३२) २६२ ७१ भिसं (४३) १९४८ ३१० ८५ बहिद्धं (९।१०) ३९८ २८ भूइपण्णे (६६) २६४ २६ बहुकूरकम्मा (५।३८) २६६ ६४ भूताभिसंकाए (१२।१७) ५११ ३६ बहुकूरकम्मा (५५४७) २७१ ११६ भूतिपण्णे (६।१५) बहुजणणमणम्मि (२०२६) १०४ ४० भूतिपण्णे (६।१८) १०० बहुजणे (१३।१८) भूतेहिं (७।१६) ३४६ ७१ ५४ १०७ बहुणं (७८) ३३६ ३४ भूमिवट्ठिए (६।११) २६८ ४६ ५२ १०३ बहुणंदणे (६।११) २६६ ४६ भूयाइं (११।१४) ४७५ २४ ५३४ २३ बहुस्सुए (२१७) ६७ १० भूरिवगे (६।१३) ३५० ६१ बाल (५।२८) २६०६३ भेयमावण्णं (४।३३) २१३ ७४ २७० ११६ बालवीयणं (६।१८) ६५ मइमं (१०११) बालस्स मंदयं बीयं (४।२६) २१२ ६८ मईमता (६१) १६७ ८८ बालिएणं अलं भे (७।११) ३३६ ४६ मंगू (७।१५) ५६ ११२ बाहुए (३६२) । ६१ मंजुलाई (४७) २३ ४०२ ४८ बीओदगं (३१५१) ७२ मंतपएण (१४।२०) ५८१ ४७६ २५ बुज्झाहि (७.११) ४४ मंसं (७।१३) २१२ ६६ बुझज्ज (५।५१) २७३ १३० मग्ग (११।१) . पिंग (३७१) पिंडोलग (३।१०) पिट्ठउ (५।२६) पिट्ठओ । (३।२८) पियमप्पियं कस्सइ... (१३।२२) पिया लोगंसि इथिओ (१८) पीढसप्पीव (३।६५) पुच्छिसु (६३१) पुच्छिसुहं (५१) पुढें (२०५५) पुट्ठा · पावं वि (४।२६) पुट्ठो तत्थ (६।३०) पूढवि एताइं (७११-२) पुढवी जीवा अहावरे (१११७-८) पुढो (१०।४) पुढो (१४।५) पुढो (१५।११) पुढो छंदा (१०।१७) पुढो पवेसे (१४।१५) पुढोवमे (६।२५) पुढोवादं (१०।१७) पुढो सत्ता (१११७) पुढो सियाई (७८) पुत्तकारणा (२०१७) पुत्तं पि ता (१९५५) पुरक्खायं (१३५१) पुरिसजाते (१३१७) पुलाए (७।२६) पुवमरी (५१४६) पुव्वसंजोगं (४१) पुदिव (३।६१) पूइकडं (१।६०) पूर्ति (६।१४) पूतिकम्मं (११।१५) पूयणकामो (४१२६) ५६६ ४४६ ४७१ U GA રૂ૪૨ ४६८ Jain Education Intemational Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ शब्द अनुक्रम मग्गं उज्जु (११।१) ... (१४।१२) मग्गसारं (११।४) माणुस संति ( १४।१० ) मच्छरे (२२६८) मच्छा]] (२०१३) मा सालिया (१६१) मझियायंति (११०२७) मज्झिम ( ७|१० ) मणसा अंतसो ( ८1६) मणसा जे . ( ११५६) मए (१४१४) (१५२४) ममाई (१०/१८) ममाती ( ११४) म्यं ( 1२५ ) महंतीउ ( ५३९ ) महतोहि वा कुमारीह (४११३) महम्भ (११।१२) महाणुभावे (५२) महापुरिसा ( ३।६१ ) महामुनी (१६२ ) महार (३१) महाविह (२०२१) महावीरे (१५/७ ) महावीरे (१५।२३) महिंदा (६११) महीएम (६०१३) पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० सं० ४६६ ५७५ ४७० ८ ५७३ ३६ १२२ ९४ ४ ४३ २५३ ३६ ५७ ११६ ४८० ४२ ३३८ ४२ ३७० १३ १०८ ५५ ५६७ १२ ६१४ ५४ ४४८ ६३ १३ २२ ४११ २६६ २०३ ४८० ८० KE ३६ ૪૪ ६ माह w २४६ १६७ ८६ ६२१ ६ १४५ २ १०१ २७ ६०५ १५ ६१३ ५२ २६६ ५० २०० ५३ २४६ १ २६६ ४० ८२ ४१२ महेसि ( ५1१ ) महोदही वा (६८) माइट्टा (२०२५) मा कट्टु मायाओ (८५) ३६६ १० माइले महासज्यं (४१०) २०६ ૪ माणं सेवेज्ज (१४।१९ ) ५८० ६८ मानव ! (१२।१२) माण माए ठाणे (१५।१५) माता पिता (२४) मामए (२०५०) मायणिएहिति (१३।४) मायातं (२२) मायामोस (१६।३) मायाहि (२३) मारेण संया माया (१।६५) ६४१ माया (३०२७) मा सा अण्णं जणं गमे (३२२) माषा (१२४१) माना (२०३२) #TZOTT (12) RIGHT (EIR) माहणे (२१५) माणे खत्तिए (१३|१० ) (२१) (११०१) माह मिना (२०१३) मिगाणं ( ६।२१ ) मि (२०३९) मिच्छादंसणसल्ले (१६।३) मिनाति (७३) मिज्जती (१६) मिस्सीमा (४०१०) मुक्के (६८) मुच्छिए (२७) मुणीण मज्झे ( ६।१५ ) मुतच्चे (१३।१७ ) मुम्मुरे ( ५३१० ) संवदंति (१२२) मुसावा विवा (३/७६) मंगलोदर (७/२४) मुहुत्तगाणं (५।४४) yer (1123) ५०६ २२ मूढगा ( ११३८ ) (७११) २३९ ४५ fr (212) पृष्ठ सं० ६१० ३८ ३६७ २० ११३ ६३ ५३१ १२ १४५ ४ ६२२ १२ ६ ४ ६४ १५४ १५३ ४४ १५६ २८६ ५३८ ३६४ ४६८ ४० ३०६ ४३ ६२२ ३३० ६०५ २०५ २६७ ६८ १ ३६४ ५ १०० २३ ३०२ ५४४ २५१ ५०० टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० २६६ ३४० १२८ ४२ ५०६ ४२ ३८ ८२ ४६ ३८ २ १ ६६ ७५ ८० १७६ ११४ ८४ २४८ १३ १३ १८ ४८ ४४ १३ ५७ ६८ २५ ६ १११ ४६ परिशिष्ट १ टिप्पण-अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण सं० सं० ७६ ३१ मेधावी (१०१९) महावि ( ७६ ) मेहावी (६१२) सार ( २५० ) मोष (१४११७) मोपस (१३ ) मोहं (४३१) मोहेण ( ३।११) रयं ( २।२३) र (१।१२) रसया (७।१ ) राय मच्चा (३३२) हि (१३।२१) लद्वाणुमाणे ( १३ ।२० ) लद्धे कामे ण पत्थेज्जा (२०३२) ४४० ३३४ २८६ १६० ५७८ ५३७ ३५ २१२ ७२ १४८ १७ १०२ २६ ४०० ३६ ३६ २४ ३२८ रहंसि तं (२०३०) २६० ६७ राजोवाई वा (४१४६) २२४ १२४ रातिजिएग (१४१७) ५७० २७ रामउत्ते (३१६२) १६८ ६१ (२०१८) लुत्तपण्णी (५।१२) लुप्पंतस्स ( 12 ) सुप्पति (२०४) लुप्पती ( ११४) लूसएज्जा (१४|१९) लूस व वर (७।२१ ) (२०३) लेसं समाहट्टु (१०।१५) (३०२१) लोए (१।१४) लोए (GIX) लोगमिणं महंतं ( १२।१८) लोगवा (१1८० ) लोगस्स वसं न गच्छे (२०११) १५ ६६ ६० 2 १५५ ४८ ५४६ ८६ ५४७ ७६ ३४७ १४६ ४४५ १५२ ४१८ १०६ १०८ ५६ ५०२ ११ १० ६१ २५ ३० १६ ६ (२०४२) वाकी (१२४) लाडे भरे (१०1३) ४३५ समदा (१२०१४) ५४३ १०१ २५२ ३६७ ६७ २२ १५ ५७६ ६७ ७८ ७ ५५ ३४ ४२ २१ ३१ ३३३ ५१३ ४७ १४८ ७१ २७३ १३१ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६४२ शब्द अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० सं० परिशिष्ट १ : टिप्पण-अनुक्रम टिप्पण शब्द अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण सं० सं० सं० पृष्ठ सं० m ० लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते विज्ज (१६) ३४५ ७० विसलित्तं व कंटगं णच्चा २०१ ३१ (६।२३) ___३०६ ८४ विज्जं गहाय (१३३२१) ५४६ ८४ विसयंगणाहिं (१२।१४) ५०८ २७० लोभमया वतीता (१२।१५) ५०६ ३२ विज्जाचरणं (१२।११) ५०५ १७ विसारए (१३।१३) लोयं (१२।२०) विज्जाचरणं (१३।११) विसारदे (१४।१७) ५७७ ५७ लोलणसंपगाढे (५।१७) २५४ ४२ विष्णू (१६) ३१ विसोहियं (१३।३) ५२६ लोहविलीणतत्ता (५।४८) २७१ १२२ विणयं (१४११) विहारगमणेहि (३।३४) १५६ वई (२।३५) १०६ ४५ विणयवायं (१२।१) ४६८१ विहेडिणो (८१४) ३६६८ वइरोयणिदे (६।६) २६५ ३४ ___ विणासे (१०८) २५ २८ वीतगेही (८२६) ३७८ ४८ वंचइत्ता (५।२६) २५८ ५७ विणासो होइ देहिणो (१८) २६ २६ वीमंसा (१।४४) ४८ ८५ वंदणपूयणा (२।३३) १०५ ४१ विणि घायं (७१३) ३३० ११ वीरा (६।३३) ४१६ १११ विणिहायं (७।२१) २२० १०६ वंदालगं (४।४४) ३४५ ७६ वीरिएणं (६६) २६८ विण्णत्तिवीरा (१२।१७) ५१२ ७६ वग्गुफलाइं (४।३५) २१४ ४३ बीरे (११) विण्णवणा (२०५६) ११६ ७४ वीरे (१४।११) वच्चघरगं (४।४४) २२० विण्णवणित्थीसु (३१७०) १७२ १०३ वीससे (६।२२) ३०७७६ वज्जकरा (४।५०) २२६ १३३ वितिगिच्छ (१२।२) ५०० ५ वुच्चमाणो ण संजले (६।३१) ४१७ १०३ वज्झ (१९३५) ४१ ७० वितिगिच्छ (१४।६) ५७० २५ वुड्ढे (१२।१८) ५१२ ४५ वट्टयं (१२) वितिगिच्छतिण्णे (१०३) ४३५ वणे मूढे (११४५) ६ सिते (११८६) ७५ १५५ वितिगिच्छाए (१५१२) ६४२ ३ सिमं (१४॥३) वत्थाणि य (४॥३७) २१५ वित्त (२०७०) ६८ वुसीमओ (८।२०) वत्थिकम्मं (६।१२) ३७५ ३६ वित्तं (१४।४) वुसीमतो (११११५) वमणं च विरेयणं (।१२) ४७६ विधूमठाणं (५१३५) वम्फेज्ज (२५) ४१२ ८१ वुसीमतो (१५१४) ६०३ विप्पणमंति (१२०१७) वलय (३।४०) १५८ ७७ ५६ वेणुदेवे (६।२१) ३०६ विप्परियासुवेति (७।२) ३२६ वलया (१२।२२) वेणुपलासियं (४।३८) २१६ विप्परियासुवेति (१३।१२) वलया (१३।२३) वेणुफलाइं (४।३६) २१७ विभज्जवायं (१४।२२) वेध (१७) वलयायतानां (६।१५) ४०५ ५६ विमुक्के (१०।२३) वेयइत्ता (६।२७) ३१२ वलया विमुक्के (१०।२४) ४५२ ८३ वियडेण (७।२१) ३४७ ७७ वेयरणी (३१७६) १७५ ११२ वसवत्ती (४।११) २०१ विरतसव्वपावकम्मे (१६।३) वेयरणी (२८) २५० १६ वसुमं 'संखाय (१३।८) ५३५ विरते (१६॥३) ६२३ १४ वेयाणुवीइ (४११६) २०७ वसुमान (१५।११) ५७ विरुज्झज्जा (१५२४) २६७ वहेण (५२४१) वेयालिए (५५४४) ६ २६६ १०८ विलंबगाणि (७८) ३३५ वायं (३१५६) वेरं तेसिं पवड्ढई (६॥३) ३६६ १४ विवरीयपण्णसंभूयं (१८०) ७२ १४६ वायावीरियं (४।१७) २०६ वेरं वड्ढइ अप्पणो (१।३) २१ ११ विवाग (४।१०) २०० २८ वारिया (६।२८) ३१२ विवाय (६।१७) वेराई कुव्वइ (८७) ३७० __४०५ ६१ वाहच्छिण्णा (३।६५) १७० विवित्तेसी (४१) वेराणुगिद्धे (१०६) १६३ ४ वाहेण (२०५६) ११६ १० ___ ८२ ३६५ विवेगे (१०१६) वेसिया (२) ४३८ २२ विउट्टणं (१२।२१) विसण्णमेसी (१०८) वेस्सा (९।२) विउट्टितेणं । (१४८) ५७१ ३१,३४ विसण्णे (१०१७) वोदाण (१४।१७) विउस्सिता (११६) २४ २३ विसण्णेसी (४।२६) ७० वोसट्टकाए (१६।१) विओसितं जे (१३॥५) ५३२ १४ विसमते (१।३६) ७२ सदविप्पहूणा (१९) २५० २१ विगयगिद्धि (१८६) ७५ १५६ विसमंसि (१९६१) ५७ ११४ सउणी पंजरं जहा (१।४६) ५१ ६६ xxx०.स Xnxx mmsmr0.00 Mur Nxnn. xxommrur له سه १६४ ००८rrarr x mmsar Jain Education Intemational Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ शब्द अनुक्रम संजीवणी (२०३६) (४४२) संघ (२०६०) ६५ ४२ ७७ सहि परियारहि (११६८ ) संबंति (२०३०) संकलिया बढा (२०४७) २७० ११८ संबु संकेज्ज (१४।२२) ८० ५८३ ५७८ ६२ खाए (१४११८) ६२५ २७ ५३५ ३० खाए (१५५) संवार्य (१३३) संग (१०३०) संगाई ( ७२ ) ३८ ६२ संथवेज्जा (१०।११) ए (१६६) .. संच (४०१३) संघ (४११६) संथ (४|५० ) तच्छणं (५।१४) (२०३३) संतावणी (२०३३) संति (२०११) संति (२०००) संति (१४१६) ५७७ संति हो (१११४.१६) ३४ संति पंप एए पंच (१०००) २६ संतिमा तहिया (२६) ४१२ संतोसिणो णो (१२।१५) २०६ संघ (११।२२) संघ साधम्मं (११०३५) ४८१ संधाति जीवितं चेव ( ११५) २३ संधि ( १५/१२) ४७७ ६०६ (२०३३) (२०१२) संपातिम (७/७ ) पराए (२०५०) पवार (२1१०) पृष्ठ टिप्पण सं० सं० संपरा (5) सारी (२०१६) संपुच्छणं ( 1२१) संबद्ध... (३१४५) ३५१ ४४१ ६२६ २६४ 55 २१६ ११६ ८३ २०३ ४० २०५ ४७ २२५ २५३ १३० संबाहिया ( ५४४५) २६२ १३० ३७ ४० ६६ शब्द अनुक्रम १०३ संवुडे (११।१३ ) सर्व (१०११३) ८४ ३३ ३१ ४६ १८ ३१ २६२ ७४ ५०६ २३ ३३४ २६ (१) संसोधियं . (१४।१८) सच्चं असच्चं . ( १२३ ) सच्चरए (१०।१२) सच्चे (१५1३) १७७ ११७ सड्ढी (१६०) ७६ २८ ३७ ५३ ५१ ३० २७२ १२७ ११२ ६३ ३७१ १७ ४०४ ५४ बुझमाणे (१०।२१) (२१) संभमे (३६५) ५०२ ५०४ ५१७ २२५ संवासो ण कप्पई (४/१० ) २०१ ६६ संविणीय (१६१५) ६२५ ४० ३१ संवुडकम्मस्स ( २।५५ ) ११५ वुडचारिणो (१०५६) ४०८ ७३ १६० ६७,६८ ६४३ मिस्सा (१२५) संवच्छरं सुमिणं ( १२ ९ ) संवरं (१२।२१) (४०४०) संसारे (२०२४) संसेदया (७७) सह (२०७२) हि (२०३४) सदिया (१३०१९) सतोमं (१२०१ ) सत्तिसु ( २८ ) सत्यं (८४) सत्या दाणाई ( 81१०) त्यात (१४।२६) सत्यारमेवं फरुसं वयंति (१३/२) सदा जता (१२।१७ ) (१२) पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० ཝཱ सं० २६६ ११२ ૪૪૨ ६६ १७० ७० १ ६३ १२ १५ ६० १३१ ३० २४ ७० १०८ २२ ३६६ ३० ५६१ ५.२८ ५१२ ४१ परिशिष्ट १ टिप्पण-अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण सं० સંત २६६ ५१ ३१४ १०१ १०१ १९८ २२ सद्दहंताय ( ६।२९ ) सद्दाणि ( ४/६ ) सद्देहि रूवेहि (७।२७) ३५१ ६५. सद्दाणि भेरवाणि (१४।६) ५६६ २१ (४५) १८ सपरिग्गहा. (१७८) १६७ ७० १४२ हाए (२४६) सपना (८) सबीयगा (११।७) सममाणा (१६) समणव्वए (७५) समणा ( १/४१ ) समाएगे (२०६३) सम (२०२६) समया (१४।२२) १०१ समूसियं ( ५। ३५) समूसिया (५/३६) समयण (१४:७) समारभंति (२०४०) समालवेज्जा (१४।२४) ५५ ४७५ समाहि (१४२५) ५६० ૪૪૪ ૪૨ २५१ माह (११) समाहिनोगे (४०१५) १०२ ३१ २०५ ३३४ २७ समाहिपत्ते (१३०१४ ) ५४३ ३२८ ३ समाहि (६४२९) ३१४ ५७६ ६५ समिए (१६३) ६२३ ५०१ ८ समयं (६४) २६१ ४४३ ४६ समयं (१४/१५) ५७६ ६०२ समियं चरे (१६।६) ६२८ ५ ५६ १११ १२४ १०१ ५८७ समिया असी (१४१२४) समीहते (११) ३७२ २६३ ८० सम्मरभाव (१०।१५) ४४५ समी (२०२५) ४४६ १५३ ५२८ ७६ ३ २० समीरिया (२०४३) २५० समुह तहगतेहि (१३/२) ३६८ ७ समुट्टिए अणगारे (८१४) (३१) समे से होइ (१३।७) ह मोराणि (१२१) सम्मति (१४१०) (६।२०) ३६७ २२ ३६८ २७ ४७१ १२ २४ २० १८ सयं सयं ( ११५० ) कम (२०७२) सयण ( ४/४ ) या जाए (१६०३) ३३३ ४७ ८३ ५६ १२२ १०३ ३५ ५८६ ८४ ५७१ २८ २६६ ६७ ६० ५८८ ६७ २८ ४६ is wo w ६० १५ २१ ૪૨ ४० ८६ २४ ५६ ४० २६८ १०६ * ५२८ ३७३ २६३ २६४ ५४६ ५२५ ४६५-५००१ ५७४ ४० ३०५ ७१ ५१ १०१ १२३ १०० १६५ १२ ६२३ १७ ३० ८२ ८७ ७५ २८ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ५२ ३२ ३७४ 2016 الله WWWी KKKी ه ه س ع सूयगडो। ६४४ परिशिष्ट १ : टिप्पण-अनुक्रम शब्द अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण सं० सं० सं० सं० सं० सं० सयाजला (१४८) २७१ १२० साहसं (४१५) १६६ १७ सुफणि (४१४१) २१८ ६ सयावकोपा (४४७) २७० ११७ सावियापवाएणां (४१२६) २११ ६६ सुभि च दुभि च (१०।१४) ४४४ ५३ सरणं (६।२१) ४०८ ७४ साहसकारि (१०।१८) ४४८ ६४ सुमणो (६।३१) ४१८ १०४ सरपायगं (४१४४) २२१ ११२ साहिए (२०५२) ११४ ६८ सुयं च सम्मं (१४।२६) ५६१ १०३ सलिलाण (६।२१) ७६ साहुसमिक्खए (६।१) सुयक्खातं (८.११) २३ सवा (३।२०) साहुसमिक्खयाए (६।१) सुयक्खायं (४।२३) सव्वओ विप्पमुक्के (१०।४) ४३७ १७ सिक्खं (८।१५) सुयक्खायं (१५१३) सव्वं जगं (१०७) ४३८ २४ सिणाणं (६।१३) ४०१ ४१ सुयक्खायधम्मे (१०॥३) सव्वं 'सब्बवारी (६।२८) ३१३ १८ सितकिच्चोवएसगा (११७६) ६६ सुयभावियप्पा (१३।१३) ५४२ ५८ सव्वकामसमप्पिए (११७३) ६७ १३५ सितेहिं (१८८) सुरालए वा वि . (६६) २६७ ४५ सव्वज्जुयं (११४७) सिद्धा य (११७४) सुलूहजीवी (१३।१२) सव्वदुक्खा विमुच्चति सिरीसिवा (७।१५) सुविवेगं (२०५१) ११४ (१।१६) सिरोवेधे (६।१२) सुविसुद्धलेसे (४।५२) २२७ सव्वत्थ (३०८०) सिलोगगामी (१३।१२) सुव्वया (८।२) ३६७ १ सव्वप्पगं' (१९३६) सिलोयकामी (१०७) २३ सुसंजए (१६।६) सव्वमेयं ण ताणइ (११५) १७ ६२७ सिलोयकामी (१०।२३) सुसमिए (१६।६) ६२७ सव्वमेय णिराकिच्चा.. सिसुपालो (३।१) __४८१ सुसामाइए (१६।६) (११॥३४) ६२७ ४७ सीओदग (२।४२) सुसाहुवादी (१३३१३) सव्वसो (११११५) सीतोदगसेवणेणं (७।१२) ३४१ सुसेहंति (३।२६) सविदियाभिणिव्वुडे. १५४ ४१ सीलेण (६।१७) ३०३ (१०१४) ४३६ सुहुमासंगा (३।१८) सीहं जहा पासेणं (४१८) २०० १५१ २६ सव्वेवि सब्वहा । (१२१६) ३४ सुहुमे (१३१७) ५३४ सीहलिपासगं (४।४२) सहणं (४।१२) २०२ सुहुमेण (४१२) १६४ सुउज्जुयारे (१३१७) २६ सहसंमइए (८।१४) ३७३ सुहम्मा (६।२३) सुक्कम्मि (१९६२) सहस्सणेता (६७) सुहरूवा तत्थुवसग्गा (२८) ४१४ सुगई (२।३) सहिए (२०६६) १२१ ११ सूरं मण्णइ अप्पाणं (३।३) १४६ सुण्णघरस्स (२०३५) ४४ सहिए (४११) सूरियसुद्धलेसे (६।१३) ३०० सुतवस्सि (१०१३) ४३५ ११ सहिए (१६।३) ६२३ सूव (४।४०) सुतवस्सियं (६॥३३) सहीवायं (।२७) ४१४ ८६ ४१६ ११० से आरियाणं (७५२४) ३४८ ८२ सुदंसणे (६६) साइमणंत (६।१७) ३०३ से णिच्चणिच्चेहि । (६४) २६१ १६ सुद्दा (६२) ३६५ ११ सागारियं पिंडं (६।१६) ४०४ सेवमान (७।२६) सुद्धं (४।१८) सातं सातेण विज्जई (३।६६) १७० से सव्वदंसी - (६५) २६२ सुद्धं (११।२) सातियं (८।२०) ३७५ सेहियं वा असेहियं (१।२६) ३८ साधुतं (१११२३) ४७७ सुद्धसुत्ते (१४।२७) ५६१ १०४ से हु चक्खू (१५।१४) ६०६ सामणेराए (४१४४) २२१ ११३ सुद्धे (१०।२३) ४५१ ७५ सोयई । (२०६०) ११६ सामली (६।१८) ३०३ ६३ सुद्धे इह संवुडे .. सोयं (१:४५) सायं (७।१४) ३४३ ५८ (११७०-७१) ६६ १३२ सोयं (१०।११) सायागारवणिस्सिया (११५७) ५६ १०६ सुधीरधम्मा (१३॥१६) ५४४ ६५ सोयकरी (१४।१५) ५७६ ५० सायाणगा (२०५८) ११८ ७६ सुप्पण्णं (१।३३) ४१६ १०६ सो भासिउ (१२।२१) ५१८ ६२ مه २१६ ५३५ ५८ ३०६ P २६६ १६३ २१७ २६८ ३५० २०६ ४४२ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ शब्द अनुक्रम सोरिया ( ११५ ) हंता घेता (AI) हंसा (४०४८) हण छिंदह (५६) हत्थकम्मं ( /१७) हस्थिव बहंति (५४२) हत्थी वा वि (३३२८ ) हत्थे हि पाएहि ( ५।१४ ) पृष्ठ टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० सं० २३ १६ ३७० १२ २२४ १२६ २४६ १३ ४०५ ६० २६८ १०३ १५४ ૪૪ २५४ ३६ ६४५ हत्थे हि पादेहि (१०/२) हम्ममाणो ण ( ६ ३१ ) हरंति तं वित्तं ( ६१४ ) हरिसु (१४१३) हरिस (३|१४ ) हासं प णो (१४१२१ ) हवा (१०।१०) हिप्पसूताणि दुहाणि ( १०१२१ ) पृष्ठ सं० ५८२ ४४१ ४३४ ७ हि (१२०१२) ४१७ १०२ ३६७ १८ ५६६ १० १४६ ૪૪૨ परिशिष्ट १ टिप्पण-अनुक्रम पृष्ठ टिप्पण सं० सं० टिप्पण शब्द अनुक्रम सं० हिरामणे (१३२५) ते एमे (७११२) २३ हुतेण जे (७।१८ ) ७१ तमासम्म (३४) ७६ ३८ हेमवण्णे ( ६।११ ) होलाना (२०२७) ५०६ ५३४ ३४१ ३४५ १४६ २६८ ४१३ २० २० ५३ ६६ ८ ४६ 55 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद अइमाणं च मायं च अकुम एवं णत्यि अकुसीले सदा भव अरवि अगिद्धे सद्दफासेसु अ वणिएहि आहिये अचयंता व लूणं अट्टापदं समा अणं णितिए लोए अणागमपस्संता अपारिया णाम महासियाला अणि सहिए सुसंवुड़े अनुच्यमाने तिचा अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं अत्तरं धम्ममुदीरत्ता अनुसरणं परमं महेसी अतरे से अणुपुवेण महापोरं अणु माणं च मायं चं अणुसाराणं मुझे पाणी अणुस्सु उराले असिस्स खेयण्णे अणोवसंखा इति ते उदाहु अण्णं मणेण चितेति रण्णस्स पाणस्सिहलोइयस्स अण्णाणियाण वीमंसा अण्णाणिया ता कुसला वि संता अण्णाय पडेगऽहियास एज्जा अपने अहि अतरसु तरंगे या स्थल |३६ १५।७ २८ १।१६ ६।३५ २।५७ ३१३८ ६।१७ शब्१ ३।७४ ५।४७ २५२ १४।२३ ६।७ ६।१६ ६।१७ १५।२१ ११।५ ८१८ १५।११ ३० १५।१३ १२/४ ४।२४ पद परिशिष्ट २ पदानुक्रम अतिक्कमति वायाए अतिमाणं च मायं च अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं अस्थि वा णत्थि वा पुण्णं अदखुवाहि अदुअंजण अलंकारं अ] कण्णणारिया जेम्ब अदु णाइणं व सुहिणं वा अदु साविया पवारणं अपरिच्छदिट्ठि ण हु एव सिद्धि अपरिमाणं वियाणाइ अप्पपिंडास पाणासि अच्येगे सूर्य भ अपने पाय दिल्य अप्पेने परिभासंति अप्पेगे पलियं तंसि अप्पेगे वई जुंजंति अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता अभागमिम्मि वा दुहे पुरा भिक्खयो अर्भावसु पुरा वीरा अभिजुंजिया रुद्द असाहुकम्मा अभुंजिया णमी वेदेही अमगुणसमुपायं अयं व तत्तं जलियं सजोई अरति रति च अभिनूप भिक्खू अरति रतिं च अभिभूय भिक्खू अनुसए को पच्छयासी ७।२६ ११४४ १२२ ७२० अविधूयरा पम्माहि २२० अहि ११६ अनि ममागे फलावली स्थल ८२१ ११।३४ १२/२० ११।१७ २।६५ ४१३८ ४।२२ ४|१४ ४।२६ पद अबुढा अणादीय असूरियं णाम महाभितावं अस्ति च लोए अदुवा परत्था स्वातिविण ताइ अह णं वतमावणं अहणं से होइ उवलद्धे अह तं तु भेयमावण्णं अह तं पवेज्ज वज्यं अह तत्थ पुणो णमयंति अ तेच मूग अमूहस्स अह ते पडिभासेज्जा ७।१६ १८२ ८।२६ ३८ ३।१६ ३६ ३।१५ ३।१० अहाबुइयाई सुसिक्खएज्जा ५।२६ अहिगरणकरस्स भिक्खुणो २।७१ अहि मे संति आवडा अहिमेमुहमा गा २|७४ १५।२५ बहिणा ५।४२ अहो य रातोय समुट्टि हि ३।६२ अहो वि सत्ताण विउट्टणं च १६६ ५।३१ १०११४ १३।१८ १४।२६ ४|१३ ४।२१ ७३० यह पास विवेगमुट्ठिए अह से पच्छा अहावरं पुरखखायं अहावरं सासयं दुक्खं अहावरे तसा पाणा आ आश्वयं देव अनुग्भमाणे महम अणुवी धम्मं आघात किच्च माहे आघायं पुण एसि आदीणवित्ती वि करेति पावं आमंतिय ओसवियं वा स्थल १७५ ५।११ ७४ १४।१६ ११।३७ ४ | ३५ ४/३३ १।३५ ४६ १४ । ११ ३।५० २८ ४|१० १।५१ ५।२८ ११1८ १४।२५ २४१ ३।३१ ३।१८. १।३५ १३।२ १२।२१ १०।१८ १०।१ ६१४ ११२८ १०१६ ४६ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६४७ परिशिष्ट २ : पदानुक्रम स्थल पद स्थल स्थख २।१६ ३१५४ आयं ग कुज्जा इह जीवितट्ठी १०।१० आयगुत्ते सयादंडे ११।२४ आयदंडसमायारा ३।१४ आसंदियं च णवसुत्तं ४१४६ आसंदी पलियंके य ६२१ आसिले देविले चेव आसूणिमक्खिरागं च ६।१५ आहेसु महापुरिसा ३१६१ आहत्तहीयं तु पवेयइस्स १३।१ आहत्तहीयं समुपेहमाणे १३।२३ आहाकडं चेव णिकाममीणे १०८ आहाकडं वा ण णिकामएज्जा १०११ उज्जालओ पाणऽतिवातएज्जा ७६ उट्ठियमणगारमेसणं उड्ढे अहे तिरियं च १११११ उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु १४।१४ उड्ढमहे तिरियं दिसासु ८।१६ उड्ढमहे तिरियं वा ३.८० उत्तरमणुयाण आहिया २१४७ उत्तरा महुरुल्लावा ३१२२ उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा ७।१६ उदगस्सप्पभावेणं १२६२ उदगेण जे सिद्धिमुदाहरति ७।१४ उद्देसियं कीयगडं ६।१४ उरालं जगतो जोगं ११८४ उवणीयतरस्स ताइणो २०३६ उवाणहाओ छत्तं च ६।१८ उसिणोदगतत्तभोइणो २६४० उसिया वि इत्थि पोसेसु ४।२० ه له ११५४ एयाई फासाई फुसंति बालं ५।४६ एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे २५१ एयाणुवीइ मेहावी ११७२ एरिसा जा वई एसा एवं उदाहु णिग्गथे ६।२४ एवं कामेसणाविऊ एवं खु तासु विण्णप्पं ४।५० एवं ण से होइ समाहिपत्ते १३।१४ एवं णिमंतणं लद्धं एवं तक्काए साहंता १४६ एवं तिरिक्खमणुयामरेसुं ५२५२ एवं तुब्भे सरागत्था ३।४६ एवं तु समणा एगे ११३७ एवं तु समणा एगे ११५६ एवं तु समणा एगे ११६३ एवं तु समणा एगे ३१४२ एवं तु समणा एगे ११०२८ एवं तु समणा एगे ११३१ एवं तु सिक्खे वि अपुट्ठधम्मे १४१३ एवं तु सेहे वि अपुट्ठधम्मे १४।१३ एवं बहुहिं कयपुव्वं ४१४६ एवं भयं ण सेयाए एबं मए पुढे महाणुभावे एवं मत्ता महंतरं एवं लोगम्मि ताइणा एवं विप्पडिवण्णेगे ३।११ एवं समुट्ठिए भिक्ख ३१४६ एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी २७६ एवं सेहे वि अप्पुळे ३१३ एवमण्णाणिया नाणं एवमायाय मेहावी ८।१३ एवमेगे उ पासत्था ११३२ एवमेगे उ पासत्था ३।६६ एवमेगे उ पासत्था ३१७३ एवमेगे णियागट्ठी १४७ एवमेगे त्ति जपंति एवमेगे वियक्काहिं ११४८ एवमेयाणि जंपंता ११३१ एयाइं मदाई णिगिंच धीरा १३।१६ एहि तात घरं जामो ३।२३ ३१७८ ४१५१ ५।२ इंगालरासि जलियं सजोइ इच्चेयाहिं दिट्ठीहिं इच्चेवं पडिलेहंति इच्चेव णं सुसेहंति इच्चेवमाहु से वीरे इणमण्णं तु अण्णाणं इणमेव खणं वियाणिया इतो विद्धंसमाणस्स इथिओ जे ण सेवंति इत्थीसु या आरयमेहुणे उ इमं च धम्ममादाय इमं च धम्ममायाय इमं च धम्ममायाय इह जीवियमेव पासहा इहमेगे उ भासंति इहलोगे दुहावहं विऊ इह संवुडे मुणी जाए इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं ११६ ५७ ११५७ ३1४४ ३।२६ ४१५३ १६४ २०७३ १५।१८ १५ १०११३ १११३२ ३३५६ ३८१ २०६२ ३३६६ २।३२ १७१ ७।१२ ११८ २०५४ ३१६४ ३।१७ ३।२६ एए उतआ आयाणा एए ओघं तरिस्संति एए गंथे विउक्कम्म एए पंच महब्भूया एए पुवं महापुरिसा एए भो कसिणा फासा एए संगा मणुस्साणं एए सद्दे अचायंता एगंतकूडेण तु से पलेइ एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा एगे चरे ठाणमासणे एतं सकम्मविरियं एताई कायाइं पवेइयाई एते जिया भो! ण सरणं एतेसु बालेसु य पकुव्वमाणे एतेहिं छहि काएहिं एतेहिं तिहिं ठाणेहि एयं खु णाणिणो सारं एयं खु णाणिणो सारं एयमझें सपेहाए १३६ १०।१२ २॥३४ ११४३ ७।२ ११७६ १०१५ ईसरेण कडे लोए ११६५ ११० १८७ १८५ ११।१० उच्चारं पासवणं उच्चावयाणि गच्छंता ६।१६ ११२७ ६।६ Jain Education Intemational Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६४८ परिशिष्ट २: पदानुक्रम पद स्थल पद स्थल स्थल ३।२४ ओए सया ण रज्जेज्जा ओसाणमिच्छे मणुए समाहि ४।३२ १४।४ ११३३ mr अं गंतु तात पुणाऽगच्छे गंथं विहाय इह सिक्खमाणे १४११ गब्भाइ मिज्जति बुयाबुयाणा ७१० गंधमल्लं सिणाणं च ६।१३ गारं पि य आसवे परे २०६७ गिरीवरे वा णिसढायताणं ६.१५ गिहे दीवमपासंता ९।३४ गुत्ते वईए य समाहिपत्ते १०१५ ११५८ अंतए वितिगिच्छाए अंतं करेंति दुक्खाणं अंताणि धीरा सेवंति अंधो अंधं पहं णतो १५२ १५।१७ १५।१५ ११४६ घडिगं सह डिडिमएणं ४।४६ ३२७ चत्तारि अगणीयो समारभेज्जा ॥१३ चत्तारि समोसरणाणिमाणि १२।१ चिच्चा वित्तं च पुत्ते य ६७ चित्तमंतमचित्तं वा १२ चिया महंती उ समारभित्ता ५॥३६ चिरं दूइज्जमाणस्स चोइया भिक्खु चरियाए ३।३७ जमिणं जगई पुढो जगा २।४ जययं विहराहि जोगवं २।११ जया हेमंतमासम्मि ३२४ जविणो मिगा जहा संता जसं कित्ती सिलोगं च ६।२२ जहा आसाविणिं णावं जहा आसाविणि णावं १११३० जहा कुम्मे सअंगाई ८.१६ जहा गंडं पिलागं वा ३१७० जहा ढंकाय कंकाय ११०२७ जहा गई वेयरणी ३७६ जहा दियापोतमपत्तजातं १४१२ जहा मंधादए णाम ३१७१ जहा य पुढवीथूभे ह जहा य वित्तं पसवो य सव्वे १०१९ जहा रुक्खं वणे जायं जहा विहंगमा पिंगा ३१७२ जहा संगामकालम्मि ३१४० जहा सयंभू उदहीण सेठे ६२० जहा हि अंधे सह जो इणा वि ११८ जं किंचि वि पूइकडं श६० जं किंचुवक्कम जाणे ८.१५ जं जारिसं पुबमकासि कम्मं ॥५० जं मतं सव्वसाहूणं १५।२४ जंसि कुले समुप्पण्णे जंसी गुहाए जलणेऽतिवट्टे ५१२ जाईपहं अणुपरियट्टमाणे जाईं च वुड्ढि च विणासयंते जाए फले समुप्पण्णे ४|४७ जाणं काएणऽणाउट्टी ११५२ जीवितं पिट्ठओ किच्चा १५।१० जुवती समणं बूया ४१२५ जे आततो परतो वा वि णच्चा १२।१६ जे इह आरंभणिस्सिया २।६३ जे इह सायाणुगा णरा २१५८ जे उ बुद्धा महाभागा ८।२४ जे उ संगामकालम्मि ३१४५ जे एयं उछ तऽणुगिद्धा जे एयं नाभिजाणंति ११४० जे एवं चरंति आहियं રા૪૬ कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं ५।३४ कडं च कज्जमाणं च ८.२२ कडेसु घासमेसेज्जा ११७६ कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे १३१२१ कम्मं परिण्णाय दगंसि धीरे ૭૨૨ कम्ममेव पवेदेति ८२ कयरे धम्म अक्खाए ६१ कयरे मग्गे अक्खाते १११ कहं व णाणं कह दसणं से ६२ कामेहि य संथवेहि य श६ कालेण पुच्छे समियं पयासु १४११५ किरियाकिरियं वेण इयाणुवायं ६।२७ कुजए अपराजिए जहा १४५ कुतो कयाइ मेहावी १५२० कुलाई जे धावति साउगाई ७।२४ कुब्वं च कारयं चेव कुव्वंति पावगं कम्म ४।२८ कुव्वंति संथवं ताहिं ४।१६ केई णिमित्ता तहिया भवंति १२।१० केसि च बंधित्तु गले सिलाओ ५।१० केसिंचि तक्काए अबुज्झभावं १३१२० को जाणइ वियोवातं३४३ कोळं तगरं अगरं च ४१३६ कोलेहि विज्झंति असाहुकम्मा ५६ कोहं च माणं च तहेव मायं ६।२६ २।४४ छंदेण पलेति मा पया छण्णं च पसंस णो करे छिदंति बालस्स खुरेण णक्कं २१५१ ५।२२ ११४ १११३ ७९ जइ कालुणियाणि कासिया २०१७ जइ केसियाए मए भिक्खू ४१३४ जइ णे केइ पुच्छेज्जा जइ तं कामेहि लाविया २०१८ जइ ते सुया लोहियपूयपाई ५२४ जइ ते सुया वेयरणीऽभिदुग्गा ५८ जइ वि य णिगिणे किसे चरेश६ जइ वो केइ पुच्छेज्जा जउकुम्भे जोइसुवगूढे ४।२७ जं किंचि अणगं तात ! ३।२५ जत्थत्थमिए अणाउले २१३६ जमतीतं पडुप्पण्णं १५६१ जमाहु ओहं सलिलं अपारगं १२॥१४ ११०४ ४।१२ खेयण्णए से कुसले मेहावी Jain Education Intemational Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ पद जे केइ तसा पाणा जे केइ बाला इह जीवियट्ठी ११८३ ५३ जे केइ लोगम्मि उ अकिरियाता १०।१६ जे कोहणे होइ जगट्ठभासी १३।५ जे ठाणओ या सयणासणे या १४।५ जे भिक् जे ते उ वाइणो एवं मंत जे धम्मलद्धं विनिहाय भुंजे जे भास भिसाबादी जे मायरं च पियरं च जे मायरं च पियरं च हिच्चा जे माहणे खत्तिए जाइए वा बुद्धा अतिक्कता जे य दाणं पसंसंति जे या बुद्धा महाभागा जे यावि अणायगे सिया जे यावि अप्पं वसुमंत मंता जे यावि पनिचयंति बुट्टा जे यानि बहुस्सुए सिया जे रक्खसा जे जमलोइया वा जे विहिए पायभासी जे विग्भवणाजिसिया जेसि तं उवकप्पेंति जेहि काले परक्कतं जेहि णारीण संजोगा जोगियो चो जो परिभवई परं जणं जोहेसु पाए जह बीससे वे भ भाणजोगं समाहट्ट 어 ठाणाई संति सड्ढीण ठाणी विविहागाणि ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा ड डहरा बुड्ढा य पासहा डण वुड्ढेणऽणुसासिते तु स्थल ६।२३ १।१४ १५।१६ ७।२१ १३१३ ४|१ ७।२३ १३।१० ११।३६ ११।२० ८।२३ २२५ १३८ १३।४ २७ १२।१३ १३.६ २।५६ ११।१६ ३।७५ ३।७७ ३।३५ २२४ ६।२२ ८।२७ ११।१६ ८।१२ ६।२४ २२ १४।७ पव ૬૪. बहरे व पाय पा ण दी चुगाई पाहराहि ण कुब्वइ महावीरे णण्णत्थ अंतराएणं वासु कु ण य पवजा पुणे व पावे वा ण पूयणं चैव सिलोय कामे ण मिज्जती महावीरे ४१४० १५।२३ हा२६ णतं सयं कडं दुक्खं १२६ ण तस्स जाती व कुलं व ताणं १३।११ १४१६ १।१२ १३।२२ १५८ २।४३ २६४ २।१३ १।३० हि णून पुरा अणुस्सुयं २१५३ २०७ गाइच्चो उदेइ ण अत्थमेइ गागाविहाई दुखाई १।२६ हिजीवी १३।१२ महावो निरावली १०१२४ णिक्खम्मदी पर भोयणम्मि गिट्ठा व देवा व ७।२५ १५।१६ निव्वाणपरमा बुद्धा ११।२२ णिसम्म से भिक्खु समीहमट्ठ णीवारमेव बुज्झेज्जा १४ १७ ४।३१ णीवारे व ण लीएज्जा १५।१२ १४।१२ ११ णय संखयमाहु जीवियं मयमा जीविर्व ण वि ता अहमेव लुप्पए अहि णेता जहा अंधकारंसि राओ या सुरवात णो अभिकंखेज्ज जीवियं णो काहिए होज्ज संजए णो चैव ते तत्थ मसीभवंति जो छाए णोवि य लूस एज्जा णो तासु चक्खु संघेज्जा णो पीहे ण यावपंगुणे स्थल त तं चभिपरिणाय तं च भिक्खु परिण्णाय तं च भिक्खु परिण्णाय अगुत्तरं युद्धं १२।१८ २३८ २५० ५।१६ १४ । १६ ४५ २।३५ १७७ ३।३० ३।७६ ११।२ पद परिशिष्ट २ : पदानुक्रम तरोग गुसा ते तत्थ दंडेण संवीते तत्थ मंदा विसीयंति तमेगे परिभासंति तमेव अविजाणता तमेव अवियाणंता तम्हा उ वज्जए इत्थी तम्हा दवि इक्ख पंडिए तय सं व जहाइ से रयं तहि च ते लोलण संपगाढे हा तउती उमेहावी तिलाहि लाहिऽभितावयति तिरिया मणुया य दिव्वगा तिविहेण वि पाण मा हणे तिब्वं तसे पाणिणो थावरे य भेज पाए से एवमति अनुक्झमाणा ते एवमति सम्मेच लोग ते चक्खु तेणाविमं तिणच्चा णं तेणाविमं तिणच्चा णं तेणाविमं तिणच्चा णं लोगस्सिह णायगा उ तेणाविमं तिणच्चा णं तेणाविमं तिणच्चा णं तेणाविमं तिणच्चा णं ते व कुवंति न कारति ते तिप्यमाणा तिवरांपुढल्य ते तीतउप्पण्णमणागबाई ते य बीओदगं चैव ते संपगाढम्म पवज्जमाणा सि तु तवो सुद्धो तेसि पुढो छंदा माणवाणं ते हम्ममाणा णरगे पडंति थ ति तुष्यति तति कम्मी भणितं व सहाण अगुत्तरं द विए बंधमुक् स्थल ३।५३ ३।१६ ३।६५ ३।४७ ११।२५ १।६१ ४।११ २।२१ २।२३ ५।१७ १५।३ १५।६ ४३७ २।३७ २।७५ ५।४ ३।५१ १२६ १२।११ १२।१२ १२० १२१ १।२२ १।२३ १।२४ १।२५ १२।१७ ५।२३ १२।१६ ११।२६ ५३३ ८२५ १०।१७ ५।२० ७।२० ६।१६ ८१० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो ६५० परिशिष्ट २ : पदानुक्रम स्थल स्थल स्थल ४७ ८६ दाणट्रयाय जे पाणा दाणाण सेठं अभयप्पयाणं दारुणि सागपागाए दुक्खी मोहे पुणो पुणो दुहओ ते ण विणस्संति दुहओ वि जे ण भासंति दुहावेयं सुयक्खायं दूरं अणुपस्सिया मुणी देवा गंधब्बरक्खसा ११११८ ६।२३ ४।३६ २०६६ १११६ ११।२१ ___८१ २।२७ पुच्छिसुहं केवलियं महेसि पुढे गिम्हाहितावेणं ३२५ पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवट्ठिए ६।११ पुट्ठो य दंसमसगेहि ३।१२ पुढवी आऊ अगणी वाऊ पुढवी आऊ तेऊ य १६१८ पुढवी जीवा पुढो सत्ता ११७ पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ ७६ पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा ७१७ पुढोवमे धुणती विगयगेही ६।२५ पुत्तं पिता समारंभ ११५५ पुरिसोरम पावकम्मुणा २।१० पूतिकम्म ण सेवेज्जा ११११५ पूयफलं तंबोलं च ४१४३ २१५ मणबंधणेहिं णेगेहि मणसा जे पउस्संति ११५६ मणसा वयसा चेव महया पलिगोब जाणिया ॥३३ महीए मज्झम्मि ठिए णगिंदे ६।१३ माइणो कटु मायाओ ८.५ मा एयं अवमण्णंता ३।६७ माता पिता ण्हुसा भाया ५ मा पच्छ असाहुया भवे श६१ मा पेह पुरा पमए मायारं पियरं पोस ३२१ मायाहि पियाहि लुप्पइ २।३ माहणा खत्तिया वेस्सा माहणा समणा एगे १४१ माहणा समणा एगे श६७ मिलक्खू अमिलक्खुस्स ११४२ मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी १०.२२ मुसावायं बहिद्धं च ६।१० मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स ३१४१ २०४६ धम्मपण्णवण, जा सा धम्मपण्णवणा जा सा धम्मस्स य पारगे मुणी धावणं रयणं चेव धुणिया कुलियं व लेववं ११३८ ३१५५ २।३१ ६२ ९।१२ २।१४ ४।१७ बहवे गिहाई अवहट्ट बहवे पाणा पुढो सिया २।३० बहुगुणप्पकप्पाई ३१५८ बहुजणणमणम्मि संवुडे २।२६ बालस्स मंदयं बीअं ४।२६ बाला बला भूमिमणुककमंता २३२ बाला बला भूमिमणुक्कमंता ५१४३ बाहू पकत्तंति य मूलओ से बुन्झाहि जंतू इह माणवेसु ७११ बुज्झज्ज ति उट्टेज्जा राओ वि उट्ठिआ संता रागदोसाभिभूयप्पा रायाणो रायमच्चा य रुक्खेसु णाते जह सामली वा रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सियंगे ४।४८ ३१५७ ३।३२ ६।१८ ॥१५ ११ भ ल पंच खंधे वयंतेगे १।१७ पंडिए वीरियं लद्ध १५।२२ पक्खिप्प तासु पपचंति बाले २५ पण्णसमत्ते सया जए २।२८ पण्णामदं चेव तओमदं च १३।१५ पत्तेयं कसिणे आया १।११ पभू दोसे णिराकिच्चा ११११२ पमायं कम्ममाहंसु ८.३ पयाया सूरा रणसीसे ३।२ परमत्ते अण्णपाणं ६।२० परिग्गहे णिविट्ठाणं ३ परिताणियाणि संकेता ११३४ पलिउंचणं च भयणं च ६।११ पाओसिणाणा इसु णस्थि मोक्खो ७।१३ पागन्भिपाणे बहुणं तिवाई पाणाइवाए वटुंता पाणे य णाइवाएज्जा ८.२० पाणेहि णं पाव विओजयंति पावाई कम्माई पकुवओ हि ७।१७ पासे भिसं णिसीयंति पिया ते थेरओ तात ! ३।२० पुच्छिषु णं समणामाहणा य ६१ लद्धे कामे ण पत्थेज्जा लित्ता तिव्वाभितावेणं लोगवायं णिसामेज्जा ६।३२ ३३५२ ११८० भंजंति णं पुवमरी सरोसं २४६ भंजंति बालस्स वहेण पट्टि २४१ भारस्स जाता मुणि भुंजएज्जा ६।२७ भावणाजोगसुद्धप्पा १५२५ भासमाणो न भासेज्जा ६।२५ भिक्खू मुतच्चे तह दिट्ठधम्मे १३।१७ भूतेसु ण विरुज्झेज्जा १५२४ भूयाई समारंभ ११११४ भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणे १४०२० १४।१० ११४५ ३१३४ ५।१६ वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा वणे मूढे जहा जंतू वत्थगंधमलंकारं वत्थाणि य मे पडिलेहेहि वंदालगं च करगं च वाहेण जहा व विच्छए विउट्ठितेणं समयाणुसिठे ४१३७ ४१४४ २०५६ १४८ मच्छाय कम्माय सिरीसिवाय ७१५ Jain Education Intemational Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ पव वित्तं पसवो य णाइओ वित्तं सोयरिआ चेव विवादसंहि विरते गामधम्मेहि विरमा भीरसमुट्टिया विमोहिते अणुका वुज्झमाणाण पाणाणं सिते विगगिद्धी य वैवालिए नाम महाभितावे वेयालियमग्गमागमो वेराई कुव्वती वेरी वेराणुगिद्धे णिचयं करेति संति पंच महन्भूया संति पंच महब्भूया संति मा तहिया भासा संति मे तओ आयाणा स सणी जह पंसुगुंडिया २।१५ सएसए उट्ठा १।७३ सहि परियारहि १।६८ संकेज्ज याsसंकितभाव भिक्खू १४।२२ संखाए धम्मं च वियागरंति १४।१८ संखाय पेसलं धम्मं ३।६० ३।८२ संखाय पेसलं धम्मं संडासगं च फणिहं च ४४२ संतच्छणं णाम महाभितावं ५।१४ संतत्ता केसलोएणं ३।१३ १७ संघए साहुधम्मं च संपरायं नियच्छंति संपसारी पहिरिए संबद्धसमकप्पा संबाहिया दुक्कडिणी थणंति संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं संबुज्झह किरण बुझहा संमिभाव सगरा महीते संलोकणिज्जमणगारं संयच्छरं विगं स संडे से महाप स्थल २७० ११५ ३।२८ ११।३३ २।१२ १३।३ ११।२३ ११८६ ५।४४ २२२ ८७ १०1६ १।१५ |२६ १।५३ ११।३५ 15 ६।१६ ३।४८ ५।४५ १०।२१ २।१ १२।५ ४|३० १२६ ११।१३ पद ६५१ संबुदे से महाप सडकम्मस्स भिक्खुणो जं सच्च असच्चं इति चिंतयंता सत्यमेगेत सदाणि सच्चा अदुवा सहेगुरू असज्जमाने सद्ध अप्पावए आया सपरिहासारंभा सम अण्णयरंमि संजए समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा समणं पि दट्ठू दासी समालवेज्जा पडिपुण्णभासी समिए तु सया साहु समसि णाम विधूमठाणं समूसिया तत्व विनियंगा सयं सहस्साण उ जोयणाणं सणास हि जोगेहि सया कसिणं पुण घम्मठाणं सयाजलं ठाण हिं महंत सयाजला णाम ईऽभिदुग्गा सया दत्तेसणा दुक्खं सब्वं जगं तु समयाणुपेही सव्वं पच्चा अहिए सव्वष्पगं विउक्कस्सं सव्वाई संगाई अइच्च धीरे साहित साह अहि सामपिवा सव्वे सयकम्म कप्पिया स्थल स तिवात पाणे सयं दुक्कडं ण वयइ सयंमुणा कडे लोए सयं समेच्चा अदुवा वि सोच्चा १३।१६ सयं सयं पसंसंता ११५० ६।१० ४|४ सहसम्मइए णच्चा सारे हत्थ पाए य सिद्धा य ते अरोगा य सीओ पछि सीलमंते असीले वा ११।३८ २५५ १२।३ ८|४ १४/६ १२।२२ १1७० १७८ २।२६ ५।२७ ४।१५ १४।२४ १८८ ५।३५ ५।३६ १३ ४|१६ १।६६ ५।४० ५।३८ ५।४८ ३३ १०/७ २६६ ११३६ ७।२८ ३।५६ ११ १०.४ २।७२ ८१४ ८११७ १।७४ २०४२ २३ पव परिशिष्ट २ : पदानुक्रम सीहं जहा खुद्द मिगा चरंता सीहं जहा व कुण सुदंणस्सेस जसो गिरिस्स सुद्ध मग्गं विराहित्ता सुद्ध र परिसाए सुद्धे सिया जाए ण दूसएज्जा ६।१४ ११२६ ४|१८ १०।२३ सुफणि च सागपागाए ४४१ सुक्खाय धम्मेवितिगिच्छतिणे १०।३ सुपमेयमेवमेि सुविसुद्ध से महावी मुस्समाणो उपासेा सुमेणं तं परमम्म सूरं मण्णइ अप्पाणं से पण्णया अक्खयसागरे वा से पवए सहमहासे से पेसले सुहिमे पुरिसजाते से भूप अगिएपचारी से वारिया इत्थि सराइभत्तं से वीरिएवं पडिवीरिए से सव्वसी अभिभूयणाणी स्थल से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च से सुब्बई नगरवहे व सद्दे सेहत व गं ममाइलो १०/२० ४८ ४२३ ४१५२ हा३३ ४२ ३।१ ६८ ६।१२ १३।७ ६।६ ६।२८ ६ ह ६।५ १४।२७ ५।१८ २।१६ १५।१४ २६८ ६।२९ से हु चक्खु मणुस्साणं सोचा भगवासा सोच्चा य धम्मं अरहंतभासियं ह हहिहि ह ५।६ हत्थस्स रहजाणेहिं ३।३३ हत्थी एरावणमाहु जाते ६।२१ ५।२६ हत्येहि पाएहि य मंत्रिऊ हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा हरियाणि भूपाणि नितंबाणि 38 ७८ हासं पि णो संधए पावधम्मे १४।२१ हुतेण जे सिद्धि मुदाहरति होनावायं सहचार्य ७।१८ ६।२७ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंकियाई संकंति, संकियाई असंकिणो । (२०३३) दिग्मूढ प्राणी अशंकनीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति अशंकित रहते हैं । अंधो अंध पहं तो, दूरमद्वाण गच्छ 1 (२०४६) अंधा व्यक्ति अंधे का मार्गदर्शन करता है तो वह भटका देता है, मूल रास्ते से दूर ले जाता है । सयं सर्व पसंसंता, गरहता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया || ( १५० ) अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को बढ़ावा देते हैं । जहा आसार्वािणि णावं, जाइअंधो दुरूहिया | इयपारमा अंतराने दिलीपई । परिशिष्ट ३ सूक्त और सुभाषित ( १.२० ) जन्मान्ध मनुष्य सच्छिद्र नौका में बैठकर समुद्र का पार पाना चाहता है, पर वह उसका पार नहीं पाता, बीच में ही डूब जाता है । अमण्यमुपायं दृश्यमेव। समुपजाता हि पाहिब? ( १/६९ ) दुःख असंयम से उत्पन्न होता है—यह ज्ञातव्य है । जो दुःख की उत्पत्ति को नहीं जानते वे संवर (दुःख निरोध) को कैसे जानेगे ? सएसए उवद्वाणे, सिद्धिमेव ण अन्नहा । ( १/७३) अपने मत की प्रशंसा करने वाले कहते हैं—अपने-अपने सांप्रदायिक अनुष्ठान में ही सिद्धि होती है, दूसरे प्रकार से नहीं होती । सब्वे अकंलक्खा य, कोई भी जीव है। एयं खुणाणिणो सारं, जंण हिंसइ कंचणं । अहिंसा समयं चैव एयावंतं वियाणिया । अओ सच्चे अहिंसा । (१८४) दुःख नहीं चाहता, इसलिए सभी जीव (१२८५) ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है । बुसिले विगयगिडी व आबानं सारख । (8158) संयमी व्यक्ति धर्म में स्थित रहे। वह किसी भी इन्द्रियविषय में आसक्त न बने और आत्मा का संरक्षण करे । संबुझह कि 'बुज्झहा, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, जो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ ( २०१ ) संबोधि को प्राप्त करो। बोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो ? जो वर्तमान में संबोधि को प्राप्त नहीं होता, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती। बीती हुई रातें लौटकर नहीं आतीं। जीवन सूत्र के टूट जाने पर उसे पुन: सांधना सुलभ नहीं है। मोहं जंति णरा असंबुडा । जो अणुसासनमेव पक्कमे । (२०१०) होते हैं, वे मोह को प्राप्त होते हैं। (२०११) ( २०१४ ) जे यावि अणायगे सिथा, जे वि य पेसगपेसगे सिया । इद मोणपयं उबट्ठिए. जो लज्जे समयं सया चरे ।। ( २।२५ ) तू अनुशासन का अनुसरण कर । सामेव पव अहिंसा में ही प्रव्रजन कर । एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा उसके नौकर का नौकर हो । वह सर्वोच्च अधिपति मुनिपद की प्रव्रज्या स्वीकार कर ( पहले से प्रव्रजित अपने नौकर के नौकर को वन्दना करने में ) लज्जा का अनुभव न करे, सदा समता का आचरण करे । समता धम्ममुदाहरे मुणी । (२/२८) मुनि समता धर्म का निरूपण करे । सुह मे सल्ले वुद्धरे । (२०३३) वंदना-पूजा ऐसा सूक्ष्म सत्य है जो सरलता से नहीं निकाला जा सकता । सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए । ( २३ ) जो भय से विचलित नहीं होता, उस साधक के सामाबिक होता है। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड १ अहिमरणं ण करेज्ज पंडिए । पंडित वह होता है जो कलह नहीं करता । माजी तहविव बाल (२०४३) टूटे हुए जीवन-सूत्र को जोड़ा नहीं जा सकता । फिर भी अज्ञ मनुष्य हिंसा आदि में घृष्ट होता है । मा पेह पुरापणामए । छंदेण पलेतिमा पया । (२०४४) माया और मोह से ढंका हुआ प्राणी स्वेच्छा से विभिन्न गतियों में पर्यटन करता है । मुक्त-भोगों की ओर मत देखो । अभिकले उहि मित्तए । (२०४३) उपधि - मान और कर्म को दूर करने की अभिलाषा सव्वस्य विणीयमच्छरे । ६५३ (२०४१) करो। जे दूवण ण ते हि णो गया । ( २२४१ ) जो विषयों के प्रति नत होते हैं, वे समाधि को नहीं जान पाते । (२०५२) आतहितं दुक्खेण लम्भते । आत्महित की साधना अत्यन्त दुर्लभ है । जे इह सायागा बरा, अकोववरणा कामेहि मुच्छिया। किण समं पराया न विसमाहिमाहियं । (२०५८) निम्नोक्त व्यक्ति समाधि को नहीं जान सकते१. जो सुख-सुविधा के पीछे दौड़ते हैं। २. जो आसक्त जीवन जीते हैं । ३. जो कामभोगों में मूच्छित है। ४. जो दोषों का परिमार्जन करने में कृपण है । मावच्छ असाहुया भवे अच्चेही अणुसास अप्पगं । ( २०६१ ) मरणकाल में शोक या अनुताप न हो इसलिए तू कामभोगों का अतिक्रमण कर अपने को अनुशासित कर । णय संखयमाहु जीवियं । (२०६४) टूटे हुए जीवन को सांधा नहीं जा सकता । सह अवश्यंसणा । हे अर्वाग्दर्शी ! तुम द्रष्टा वचन पर श्रद्धा करो ! सोच्या गावास सच्चे तत्कर्म । (२०६८) भगवान् के अनुशासन को सुनकर सत्य को पाने का प्रयत्न करो । किसी के प्रति मात्सर्यभाव मत रखो । इणमेव वणं वियाणिया । उपलब्धि का क्षण यही है । - (२०४९) कठिनाई पैदा होती है। (२०६५) परिशिष्ट ३ सूक्त और सुभाषित : मुहत्ता हलस्स, गृहलो होड सारियो। (3188) कोई एक क्षण वैसा होता है, जिसमें व्यक्ति का अध:पतन या उर्ध्वारोहण होता है । वितिगिमावण्णा, पंथाणं व अकोविया । (२०४४) व्रण को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे कठिनाई पैदा होती है । (२०५२) व्रण को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे णाइकंडूइयं सेयं, अण्यस्सावरभई ॥ कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए। भिक्षु अग्लानभाव से रुग्ण साधु की सेवा करे । अणागयमपस्संता, पुष्पणगवेगा । पति सी आम जोय || (३/७४) भविष्य में होने वाले दुःख को दृष्टि से ओझलक - मान सुख को खोजने वाले मनुष्य आयुष्य और यौवन के क्षीण होने पर परिताप करते हैं । काले पर नपा परितप्य (२००५) जो ठीक समय पर पराक्रम करते हैं वे बाद में परिताप नहीं करते । ते धीरा बंधणुम्मुक्का, णावकंति जीवियं । (३।७५) जो कामभोगमय जीवन की आकांक्षा नहीं करते वे धीर पुरुष बंधन से मुक्त हो जाते हैं । मेरा सेठिया सुसमाहिए। (२०७०) जो अनुकुल परीषों को निरस्त कर देते हैं वे समाधि मैं स्थित हो जाते हैं। आमोक्खाए परिव्वज्जासि । पुरुष ! तू मोक्ष प्राप्ति तक चलता चल । बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो । (३८२) (४२९) मूढ़ की यह दूसरी मंदता है कि वह किए हुए पाप को नकारता है । (२०५९) दुगुणं करेड से पावं, पूयणकामो विसरणेसी । (४।२६) जो पूजा का इच्छुक और असंयम का आकांक्षी होता है, वह दूना पाप करता है । बद्धे विसयपासहि, मोहमावजह पुणो मंदे | (४,३१) जो विषय पाश में आबद्ध होता है, वह मंद मनुष्य फिर मोह में फंस जाता है । दुक्खति दुक्खी इह दुक्कडेणं । (२०१६) अपने दुष्कृत से दुःखी बना हुआ प्राणी दु:ख का ही अनुभव करता है । (२०६८) (२०७३) एगो सर्व पच्यो । प्राणी अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । (२०४९) Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८।१३) सूयगडो १ ६५४ परिशिष्ट ३ : सूक्त और सुभाषित जं जारिसं पुटवमकासि कम्म, तमेव आगच्छह संपराए । (२५०) भासमाणो ण मासेज्जा। (।२५) प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसा ही परलोक में फल पाता बोलते हुए भी न बोलते से रहो। जोय वम्फेज्ज मम्मयं । (हा२५) दुवखेण पुठे धुयमाइएज्जा। (२९) मर्मवेधी वचन मत बोलो। दुःख से स्पृष्ट होने पर शांत रहे। माइट्ठाणं विवज्जेज्जा। (२५) पमा कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं। (फा३) बोलने में माया का वर्जन करो। तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म mata वियागरे। (६।२५) कहा है। सोच-समझ कर बोलो। वेराई कुवती वेरी, ततो वेरेहि रज्जती। (८७) कृणं तं ण वत्तव्वं । (३।२६) वैरी वर करता है और फिर वैर में ही अनुरक्त हो जाता हिंसाकारी वचन मत बोलो। णिवाणं संधए मुणि। (२३) अप्पणो गिद्धिमुदाहरे। (८।१३) निर्वाण की सतत साधना करो। मनुष्य अपनी गृद्धि को छोड़े। आदीणवित्ती वि करेति पावं । (१०६) आरियं उवसंपज्जे, सम्वधम्ममकोवियं । जो दोनवृत्ति वाला होता है, वह पाप करता है। मनुष्य सब धर्मों में निर्मल आर्यधर्म को स्वीकार करे। सव्वं जगं तू समयाणपेही। (१०७) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावेहि अप्पाणं, अज्झप्पेण समाहरे ॥ (८1९६) समूचे प्राणी जगत् को समता की दृष्टि से देखो। जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता वेराणगिद्धे णिचयं करेति । (१०.६) है, इसी प्रकार पंडित पुरुष अपनी आत्मा को पापों से बचा जो संचय करता है, वह जन्मान्तरानुयायी वैर में गृद्ध अध्यात्म में ले जाए। होता है। अवमाणिते परेणं तु, ण सिलोगं वयंति ते। (८२५) (८।२५) आयं ण कुज्जा इह जीवितट्ठी। (१०.१०) महान् वे होते हैं जो दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर मनुष्य इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन, अपनी श्लाघा नहीं करते-अपने कुल-गौरव का परिचय नहीं संचय न करे। देते। एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा। (१०।१२) तितिक्खं परमं गच्चा। (चा२७) __ तितिक्षा मोक्ष का परम साधन है । एकत्व (अकेलेपन) की अभ्यर्थना करो। परिग्गहे णिविट्ठाणं, वेरं तेसि पवड्डई । (१०।१२) जो परिग्रह के अर्जन, संरक्षण और भोग में रत हैं, उनका एकत्व ही मोक्ष है। वैर बढ़ता है। आरंभसत्ता गढिया य लोए, आरंभसंमिया कामा, ण ते दुक्ख विमोयगा। (३) धम्म ण जाणंति विमोक्खहे। (१०.१६) काम आरंभ-प्रवृत्ति से पुष्ट होते हैं। वे दुःख का जो आरंभ-प्रवृत्ति में आसक्त और लोक में गृद्ध होते विमोचन नहीं करते। हैं, वे समाधि-धर्म को नहीं जानते । कम्मी कम्मेहि किच्चती। (४) पवड्ढतो वेरमसंजयस्स ॥ (१०।१७) जो धन के लिए कर्म का बंधन करता है, वह उन्हीं कर्मों असंयमी व्यक्ति का वैर बढ़ता जाता है। से छिन्न होता है। अहो य रामओ परितप्पमाणे, अट्टे सुमूढे अजरामरे ध्व । पलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य । (१०।१८) धुतादाणाणि लोगंसि, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ (११) जो विषयों से पीडित और मोह से मूच्छित होकर अजर माया, लोभ, क्रोध, अभिमान-ये सब कर्म के आयतन अमर की भांति आचरण करता है वह दिन-रात संतप्त रहता हैं। इन्हें विद्वान् त्यागे। (३) एतं पमोक्खे। Jain Education Intemational Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१२१) और पाडा सूयगडो १ ६५५ परिशिष्ट ३ : सूक्त और सुभाषित हिंसप्पसूताणि बुहाणि मत्ता, करे और न (असंयत) मृत्यु की वांछा करे (वह संयत जीवन वेराणुबंधीणि महन्मयाणि । और पंडित मरण की वांछा करे।) दुःख हिंसा से उत्पन्न होते हैं। वे वैर की परम्परा को आयाणगत्ते बलया विमुक्के । (१२।२२) बढ़ाते हैं। वे महा भयंकर होते हैं। जो इन्द्रियों का संवरण करता है, वह संसारचक्र से मुक्त मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी। (११२२) हो जाता है। आत्मगामी मनुष्य असत्य न बोले । एगस्स जंतो गतिरागती च । (१३३१८) णिव्वाणमेगं कसिणं समाहि । (१०।२२) जीव अकेला जाता है और अकेला आता है। सत्य है निर्वाण और समाधि । अणोसिते गंतकरे ति णच्चा । (१४।४) सम्वे अकंतदुक्सा य, अतो सम्वे अहिंसया ॥ (११।६) जो गुरुकुलवास में नहीं रहता वह असमाधि या संसार सभी जीवों को दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी प्राणी की का अन्त नहीं कर सकता। हिंसा मत करो। णो तुच्छए णो य विकस्थएज्जा । (१४१२१) एवं खु णाणिणो सारं, जंण हिंसति कंचणं । व्यक्ति न अपनी तुच्छता प्रदशित करे और न अपनी अहिंसा-समयं चेव, एतावंतं विजाणिया ॥ (११०१०) प्रशंसा करे। ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा संकेज कितनावमिस । (१४१२२) नहीं करता । 'समता अहिंसा है'-इतना ही उसे जानना है। किसी तत्त्व के प्रति शंकित होने पर भी व्यक्ति सत्य के संति णिव्वाणमाहिगं । (१११११) प्रति विनम्र होकर उसका प्रतिपादन करे। __ शांति ही निर्वाण है। विमज्जवागं च वियागरेज्जा। (१४॥२२) ण विरुझज्ज केणइ । (११३१२) प्रतिपादन में सदा विभज्यवाद-स्यावाद का प्रयोग किसी के साथ विरोध मत करो। करे। उम्मग्गगया दुक्खं धातमेसंति तं तहा। (११।२६) ण कत्थई भास विहिसएज्जा। (१४१२३) जो उन्मार्ग में प्रवृत्त होते हैं, वे दुःख और मृत्यु की किसी की भाषा की हिंसा (तिरस्कार) न करे । कामना करते हैं। णिरुद्धगं बावि ण दीहएज्जा । (१४॥२३) संघए साहुधम्म च, पावधम्म जिराकरे। (११३३५) शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए। साधु-धर्म-रत्नत्रयी का संधान करो और पाप-धर्म का अलूसए णो पच्छण्णमासी। निराकरण करो। (११२६) सिद्धांत को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करे। अपरिणत को जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया। रहस्य न बताए। संती तेसि पडट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥ (११॥३६) जो बुद्ध (तीर्थंकर) हो चुके हैं और जो बुद्ध होंगे, उन भूतेसु ण विरुज्झज्जा, एस धम्मे वसीमओ। भूतसु ण विराम (१५.४) सबका आधार है शांति, जैसे जीवों का पृथ्वी। जीवों के साथ विरोध न करे -यह संयमी का धर्म है। ण कम्मुणा कम्म खति बाला, भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। अकम्मुणा कम्म खर्वेति धीरा । (१२।१५) णावा व तीरसंपण्णा, सम्वदुक्खा ति उट्टति ॥ (१५१५) कर्म से कर्म क्षीण नहीं किया जा सकता । अकर्म से कर्म जिनकी आत्मा भावनायोग से शुद्ध है वह जल में नौका क्षीण होते हैं। की तरह कहा गया है । वह तट पर पहुंची हुई नौका की भांति संतोसिणो णो पकरेंति पावं । (१२।१५) सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। ___संतोषी मनुष्य पाप से बच जाता है। तुट्टति पावकम्माणि, गवं कम्ममकुव्वओ॥ (१५६) विण्णत्ति-वीरा य भवंति एगे। (१२०१७) जो नए कर्म नहीं करता उसके पापकर्म टूट जाते हैं । कुछ पुरुष केवल वाग्वीर होते हैं, कर्मवीर नहीं। अकुम्वओ ण णस्थि, कम्मं णाम विजाणतो। (१५७) णो जीवियं णो मरणाभिकखे । (१२।२२) जो नए कर्म नहीं करता, विज्ञाता या द्रष्टा है, उसके मेधावी व्यक्ति न (असंयममय) जीवन की आकांक्षा नया कर्म नहीं होता। Jain Education Intemational Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ परिशिष्ट ३ : सूक्त और सुभाषित इथिओ जे ण सेवंति, आदिमोक्खा हु ते जणा। (१९) इतो विलुसमाणस्स, पुणो संबोहि बुल्लमा। (१५।१८) जो कामवासना से मुक्त होते हैं, वे मोक्ष पाने वालों की मनुष्य शरीर से च्यूत जीव को (अन्य योनियों में) पहली पंक्ति में हैं। संबोधि दुर्लभ है। से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए। (१५।१४) दुल्लभाओ तहच्चाओ, जे धम्मठें वियागरे। (१५:१८) जो आकांक्षाओं का अन्त कर देता है, वह मनुष्यों का धर्म के तत्त्व का उपदेश देने वाली विशुद्ध आत्माओं का चक्षु है। योग भी दुर्लभ है। दुल्लभेऽयं समुस्सए। (१५।१७) यह मनुष्य का शरीर दुलर्भ है । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ उपमा मिगा वा पासबद्धा (११४०) हत्थी वा वि णवग्गहे। मिलक्खू अमिलक्खुस्स जहा वृत्ताणुभासए। (११४२) सूती गो व्व अदूरगा ॥ मिलक्खू व्व अबोहिया ॥ (१।४३) पायाला व अतारिमा । वणे मूढे जहा जंतू मूढणेयाणुगामिए । (११४५) णीवारेण व सूयरं ॥ दुक्खं ते णातिवट्टति सउणी पंजरं जहा ।। (१९४६) उज्जाणंसि व दुम्बला ॥ जहा आसाविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया। (१.५८) पंकसि व जरग्गवा ।। मच्छा वेसालिया चेव उदगस्सऽभियागमे ।। (१९६१) जहा संगामकालम्मि पट्टिओ भीरु बेहह । उदगस्सप्पभावेणं सुक्क म्मि घातमेंति उ । पंथाणं व अकोविया ॥ ढंकेहि य कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही ।। (६।६२) अग्गे वेणु ब्व करिसिया। मच्छा वेसालिया चेव (१।६३) टंकणा इव पम्वर्ग । वियडं व जहा मुज्जो जीरगं सरयं तहा। (१७१) वाहच्छिण्णा व गद्दभा। सेणे जह वट्टयं हरे (२२) पीडसप्पीव संभमे ॥ ताले जह बंधणच्चुए (२१६) अयोहारि व्व जूरहा ॥ धुणिया कुलियं च लेववं (२०१४) जहा गंड पिलागं वा परिपीलेत्ता मुहत्सगं । सउणी जह पंसुगंडिया विहुणिय धंसयई सियं रयं। (२०१५) जहा मंधावए णाम थिमिगं पियति वर्ग । तय सं व जहाइ से रयं (२।२३) जहा विहंगमा पिंगा थिमियां पियति वर्ग । बहुजणमणम्मि संवडे (२०२६) पूयणा इव तरुणए॥ कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं । जहा णई वेयरणी दुत्तरा इह सम्मता। कडमेव गहाय णो कलि णो तेग णो चेव बावरं ॥ (२०४५) समुह व ववहारिणो। कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ॥ (२०४६) सोहं जहा व कुणिमेणं अग्गं वाणिएहि आहियं धारेती रायाणया इहं। (२१५७) रहकारा व मि अणुपुटवीए । बद्ध मिए व पासेणं किवणेण समं पगभिया (२१५८) भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । वाहेण जहा व विच्छए अबले होह गवं पचोइए। विसलित्तं व कंटगं गच्चा। से अंतसो अप्पयामए णाईव चए अबले विसीयइ॥ (२०५६) अदु सावियापवाएणं सिसुपालो व महारहं॥ जउकुम्भे जोइसुवगूढे आसुभितत्ते णासमुवयाइ। रज्जहीणा व खत्तिया ॥ (३।४) आणप्पा हवंति दासा वा ॥ मच्छा अप्पोदए जहा ॥ (३१५) भारवहा हवंति उट्टा वा ॥ संगामम्मि व भीरणो॥ (३७) वल्यधुवा हवंति हंसा वा ॥ तेउपुट्ठा व पाणिणो॥ (३८) दासे मिए व पेस्से वा पसुभए व से ण वा केई॥ मच्छा पविट्ठा व केयणे ॥ (३।१३) मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥ इत्थी वा कुद्धगामिणी॥ फलगं व तच्छंति कुहाडहत्या। हत्थी वा सरसंवीता (३।१७) सजीवमच्छे व अयो-कवल्ले ।। जहा एक्खं वणे जागं मालुया पडिबंधइ । (३।२७) से सुबई णगरवहे व सद्दे (३१२८) (३।२८) (३।२६) (३३३६) (३३३७) (३॥३८) (३।४०) (३।४४) (३३५४) (३१५७) (३३६५) (३६५) (३६७) (३७०) (३७१) (३१७२) (३॥७३) (३७६) (३७८) (४८) (४९) (४।१०) (४॥११) (४।२६) (४।२७) (४१४६) (४१४७) (४१४८) (४१४६) (५।१३) (५।१४) (५।१५) (५।१८) Jain Education Intemational Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो १ ६५८ परिशिष्ट ४ : उपमा ते तिप्पमाणा तलसंपुड व्व पेसे व दंडेहि पुरा करेंति ॥ अयं व सत्थेहि समूसवेंति ॥ सावययं व सप्पी जहा छूढं जोइमझे ॥ सत्तुं व दंडेहि समारभंति ॥ फलगा व तट्ठा उसुचोइया हत्थिवहं वहति । दीवे व ॥ सूरिए वा बइरोणिवे व ॥ इंदे व देवाण महाणभावे सहस्सणेता दिवि णं विसिट्ठे ॥ अक्खयसागरे वा महोदही वा वि अणंतपारे। सक्के व देवाहिवई जुईमं ॥ सुदसणे वा णगसव्वसेठे। जलिए व भोमे ॥ गिरीवरे वा णिसढायताणं त्यगे व सेठे वलयायताणं । संखेंदुवेगतंववातसुक्कं ॥ रुक्खेसु णाते जह सामली वा वणेसु या गंदणमाहु सेठें थणितं व सद्दाण अणुत्तरं र चंदे व ताराण महाण मावे। गंधेसु वा चंदणमाहु सेह्र जहा सयंभू उदहीण से? णागेसु वा धरणिंदमाहु सेठ्ठ। खोओदए व रस बेजयंते हत्थीसु एरावणमाहु णाते सोहो मिगाणं। सलिलाण गंगा। पक्खीसु या गइले वेणुदेवे जोहेसु जाए जह वीससेणे पुप्पेसु वा जह अरविंदमाहु। खत्तीण सेठे जह दंतवक्के दाणाण सेट्र' अभयप्पयाणं सच्चेसु या अणवज्जं वयंति। (५।२३) तवेसु या उत्तम बंभचेरं (१२३) (३३२) ठितीण सेट्ठा लवसत्तमा वा (६॥२४) (५३३५) सभा सुहम्मा व समाण सेट्ठा । (६।२४) (५.३७) णिव्वाणसेदा यह सव्वधम्मा (६।२४) (५०३९) तरिउं समुदं व महामबोध (६।२५) (५४०) अंधं व णेयारमगुस्सरंता (१६) (५५४१) गोवारगिद्धे व महावराहे (१२५) (५४२) णिस्सारए होइ जहा पुलाए । (७।२६) (६४) संगामसीसे व परं दमेज्जा ॥ (७।२६) (६६) अक्खक्खए वा सगडं। ( ३०) (६६) जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे। (८.१६) अजरामरे व्व॥ (१११८) (६७) सीहं जहा खुद्दमिगा चरंता (६८) दूरेण चरंती परिसंकमाणा । (१०२०) (६८) समुई ववहारिणो॥ (१११५) (६८) पक्खताण व चंदमा। (११।२२) (६६) जहा ढंका य कंका य कुलला मग्गुकासिही। (६।१२) मच्छेसणं झियायंति झाणं ते कुलसाधर्म ॥ (११०२७) (६.१५) कंका वा कलुसाधमा । (११०२८) (।१५) जहा आसविणि णावं जाइअंधो दुरूहिया। (६।१६) इच्छई पारमागंतु अंतरा य विसीदति ॥ (१९१३०) (६।१८) वातेण व महागिरी। (१९३३७) (६।१८) जहा हि अंधे सह जोइणा वि (६०१६) रूवाणि णो पस्सह हीणणेत्ते । (१०८) (६।१९) अब (१३१५) (६११६) जहा बिया-पोत मपत्तजातं सावासगा पवितुं मण्णमाणं । (६।२०) तमचाइयं तरुणमपत्तजागं ढंकावि अव्वत्तगर्म हरेज्ना ॥(१४१२) (६।२०) वियस्स छावं व अपत्तजातं (१४॥३) (६।२०) वर्णसि मूढस्स जहा अमूढा (६।२१) मगाणसासंति हितं पयाणं। (६।२१) णेता जहा अंधकारंसि राओ (६।२१) मग्गं ण जाणाति अपस्समाणे । (१४११२) (६३२१) सूरोदए पासइ पक्खुणेव ॥ (६।२२) जले णावा व आहिया। (१५३५) (६।२२) णावा व तीरसंपण्णा (६।२२) वाऊ व जालमच्चेह (६।२३) णीवारे व ण लोए लीएज्जा (१३१२) (६।२३) णिद्वितट्ठा व देवा व Jain Education Intemational Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ व्याकरण विमर्श स पहला अध्ययन श्लोक २० ओहंतरााहिया-अत्र द्विपदयोः संधिः-ओहंतरा+ आहिया । २७ एस्संतणंतसो-एष्यन्ति+अनन्तश: । ३२ एवं पुवट्ठिया-एवं+अपि+उवट्ठिया । ४० एसंतऽणंतसो-एषयन्ति+अनन्तशः । ४५ णियच्छई-छन्दोदृष्ट्या एकवचनं-णियच्छति । ६० सड्ढी-विभक्तिरहितपदं-सड्ढीहिं । ६० आगंतु-विभक्तिरहितपदं वर्णलोपश्च-आगन्तुकान् उद्दिश्य । ६३ चेव-चेव-इव। ६३ एसंतणंतसो-एष्यन्ति+अनन्तशः । ६५ पहाणाइ-अत्र 'कडे' इति वाक्यशेषः । ७३ सिद्धिमेव-मकारः अलाक्षणिकः । ८३ चिट्ठतदुव–अत्र द्विपदयोः सन्धिः-चिट्ठति+अदुव । दूसरा अध्ययन बहुस्सुए, धम्मिए, माहणे भिक्खुए---सर्वत्रापि बहुवचनं युज्यते । अत्र बहुवचनान्तं क्रियापदं स्वीकृतम्, तेन वृत्तिकृता छान्दसत्वाद् बहुवचनं द्रष्टव्यम्-इति लिखितम् । ६ मायादि-विभक्तिरहितपदम्-मायादिणा। ६ गम्भादणंतसो-गर्भादि अनन्तशः । १० पुरिसोरम-पुरुष ! उपरम । १२ कोहाकायरियाइपीसणा-अत्र दीर्घत्वमलाक्षणिकम् । १४ देहमणासणादिहिं-अत्र दीर्घत्वमलाक्षणिकम् । १८ जीवित-विभक्तिरहितपदम्-जीवितस्स । २१ दवि-विभक्तिरहितपदम् -दविए । २१ महाविहिं-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम्-महावीहिं । २३ तय-विभक्तिरहितपदम्-तयं । २८ समता-समतयाः । २८ माणि-विभक्तिरहितपदम्-माणी। ३३ पलिगोव-विभक्तिरहितपदम् -पलिगोवं । ३४ मासणे-मकारः अलाक्षणिकः । ३६ अप्पाण-विभक्तिरहितपदम्-अप्पाणं । ४० संसग्गि-विभक्तिरहितपदम्-संसग्गी । ४२ सीओदग -विभक्तिरहितपदम्-सीओदगस्स । ४६ सेसऽवहाय-विभक्तिरहितं सन्धिश्च-सेस अवहाय । ४७ उत्तर-विभक्तिरहितपदम्-उत्तरा। ४७ गामधम्म-विभक्तिरहितपदम्-गामधम्मे । उट्ठिय-विभक्तिरहितपदम् -उट्ठिया । दूवण-विभक्तिरहितपदम्-दूवणया, ये दुरूपनताः न ते हि समाधि जानन्ति, ये नो नता:-विषयेषु न प्रणताः सन्ति ते समाधि जानन्ति । ५१ पसंस-विभक्तिरहितपदम्-पसंसं । ५१ उक्कोस-विभक्तिरहितपदम्-उक्कोसं । ५१ पगास-विभक्तिरहितपदम् –पगासं । ६१ अच्चेही-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । ६१ असाहु-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ६२ गिद्ध-विभक्तिरहितपदम् -गिद्धा । ६३ आयदंड-विभक्तिरहितपदम् ---आयदंडा । ६८ भिक्खु-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ७५ पाण-विभक्तिरहितपदम् --पाणा। ७५ अणियाण-विभक्तिरहितपदम्-अणियाणे । तीसरा अध्ययन २० सवा-शृण्वन्तीति श्रवाः । २३ कम्म-अकृथाः इति क्रियाशेषः । ३३ हत्थस्स-सन्धिपदमिदम्-हत्थि+अस्स । ३६ गिद्ध-विभक्तिरहितपदम्-गिद्धा । ४० भीरु-विभक्तिरहितपदम्-भोरू । ४७ समाहिए-अत्र पंचम्येकवचने 'समाहीए' इतिरूपं भवति, किन्तु छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ५३ असमिक्खा-अकारस्य दीर्घत्वम् । ५४ उ-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ६३ दीवायण-विभक्तिरहितपदम्-दीवायणे । ७६ अमईमया-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । Jain Education Intemational Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूपगडो १ चौथा अध्ययन १२ इस्वी तृतीया सप्तमी । १२ तऽणुगिद्धा - सन्धिपदम् तयणुगिद्धा | २७ जोइसुवगूढे -- अत्र द्विपदयोः सन्धिः - जोइसा + उवगूढे । पाचवा अध्ययन १२ जीवजोइताअत्र द्विपदयोः सन्धिः जीवंता + उवजोडपत्ता । १६ पाव-विभक्तिरहितपदम्-पावा । २६ तत्वा-छोट्या दीर्घत्वम् । २२ पिउछन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । ३६ महतीउ - अत्र ओकारस्य ह्रस्वत्वम् । ४२ विभक्तिरहितपदम्यई । छठा अध्ययन * थावर - विभक्तिरहितपदम् —थावरा । ११ जंसी छोट्या दीर्घत्वम् । १२ गिरिसु – अत्र सप्तम्याः बहुवचने 'गिरीसु' इति रूपं भवति, किन्तु छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । १५ सिढाताण - द्विपदयोः सन्धिः शिसवे ताणं । १७ साइमवंत - विभक्तिरहितपदम्-साइयतं । २० मुनि विभक्तिरहितपदम् - मुगी । २३ उत्तम - विभक्तिरहित पदम् — उत्तमं । २५ वीर विभक्तिरहितपदम् वीरे २७ सम्म – अत्र अनुस्वारलोपः । २६ विविभक्तिरहितपदम् इत्थि । २६ सवाायद्विपदयोः संधि वर्णवोश्या+ ६६० -- —— आदाय । २९ देवाहिक विकिरतिपदम् देवाहिता । सातवां अध्ययन १] तरतिपदा १ जराउ - विभक्तिरहितं वर्णलोपश्च -- जराउया । २ विप्परिया सुवेति द्विपदयोः संधिः - विप्परियासमुवेति । २ एताई कायाई पवेइयाई – काय पुल्लिंग है। यहां नपुंसकलिंग में प्रयुक्त है । ४ संसारमावण्णविभक्तिरहितपदम् संसारमावण्णा । ४ दुण्णियाणि - बन्धानुलोम्यात् 'दुण्णीयाणि -- अत्र ईकारस्य ह्रस्वत्वम् । २ अणि विभक्तिरहितपदम् अमणि । T ६ पाणऽतिवातएज्जा - द्विपदयोः संधिः पाणा + अतिवातएज्जा । -- परिशिष्ट ५ व्याकरण विमर्श ६ अगणिऽतिवातएज्जा-द्विपदयोः संधिः - अगणि + अति वातएज्जा । ६ अर्गाणि विभक्तिरहितपदम् अि ७ संपातिम विभक्तिरहितपदम्पातिमा ७ अगणि विमक्तिरहितपदम्। १० १६ जती - छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । २५ मुहमंगलिओदरियं द्विपदयोः संधिः- मुहमं गलिओ + ओदरियं । २० बुलू। मुनिगुणी २९ २१ विवेगविवेगं । ३० पवंचुवेइ - द्विपदयोः संधिः पवं चं + उवेइ । आठवां अध्ययन - १५ किचुववकद्विपदयोः मंत्र कवि उक्कम नौवां अध्ययन ६ सपेहाए— अत्र 'सं' शब्दस्य अनुस्वारलोपः । ८ तण रुक्ख - विभक्तिरहित पदम्-तथा रुक्खा । 5 पोय, जराऊ, रस, संसेय - विभक्तिरहितं वर्णलोपश्चपोयया, जराउया, रसया, संसेइया । दसवां अध्ययन २ थावर - थावरा । २ सुतस्तवस्सी । ६ मेधावि - मेधावी । आरयमेहुणे - आ + अरत + मैथुन :- विरतमैथुनः १३ १३ १८ बहु छन्दोदृष्ट्वा स्वत्वम् । मज्झिमविभक्तिरहित पदम् मन्यमा २० २२ ८ इत्यर्थः । भिक्खु - भिक्खू साहसकारि साहसकारी । मेहावि— मेहावी । मुणि- मुणी । ग्यारहवां अध्ययन १ उज्वणुं । ७ तणतणा । छक्काय-छक्काया । बारहवां अध्ययन २ विष्वतिमिन्छ । २ । १२ चक्खु चक्खू 1 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडो । परिशिष्ट ५: व्याकरण विमर्श १२ मग्गाणुसासंति-द्विपदयोः संधिः-मग्गं+अणुसासंति । ६ वितिगिच्छ-वितिगिच्छं । १६ मणागयाइं-मकारः अलाक्षणिकः । ८ अब्मुट्ठिताए-छन्दोदृष्ट्या ह्रस्वत्वम् । १८ बुद्धप्पमत्तेसु-द्विपदयोः संधिः-बुद्धे+अप्पमत्तेसु, ६ पमाद-पमादं । बुद्धे+पमत्तेसु । १० मग्गाणुसासंति --द्विपदयोः संधि:-मग्ग+अणुसासंति । सततावसेज्जा-द्विपदयोः संधिः-सततं+आवसेज्जा। १० सम्मऽणु सासयंति-द्विपदयोः संधिः-सम्म+अणुसास२० अत्ताण-अत्ताणं । यंति । २० जाण-अत्र इकारलोप:-जाणइ । ११ कायव्व-कायव्वा । २२ मरणाभिकखे-द्विपदयोः संधि:-मरणं अभिकखे । १२ सुरियस्सा-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । तेरहवां अध्ययन १४ थावर-थावरा। १६ संति-संती। ३ बहुगुणाणं-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १७ भिक्खु-भिक्खू । ४ मायण्णिएहिति-द्विपदयोः सन्धिः-मायण्णिआ+ १७ समीहमट्ठ-समीक्ष्य-मकारः अलाक्षणिकः । एहिंति । १७ आदाणमट्ठी-मकार: अलाक्षणिकः । १२ भिक्खु-भिक्खू । १६ परिहास-परिहासं । १२ गारवं-अत्र वर्णलोपः-गारववं । १६ याऽऽसिसावाद-आसिसावाद । १३ भिक्खु-भिक्खू । २१ अकसाइ-अकसाई। १४ भिक्खु-भिक्खू । २२ याऽसंकितभाव-अंसकितभावे । २२ सिलोय-सिलोयं । साहु - साहू। २३ अकसाइ-अकसाई। २३ भास-भासं । चौदहवां अध्ययन २४ पावविवेग-पावविवेगं । ४ णंतकरे--ण+अतं करे । २५ दिट्ठि-दिट्ठि। ५ या-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । पन्द्रहवां अध्ययन ६ पमाय—पमायं । ७ जाई-जायई-जाई। ६ वी-छन्दोदृष्ट्या दीर्घत्वम् । १८ संबोहि-संबोही। Jain Education Intemational Page #699 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