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सूयगडो १
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अध्ययन ५: प्रामुख
३. द्रव्य-नरक-मनुष्य अथवा पशु जीवन में बंदीगृह, यातनास्थान आदि स्थानों का आसेवन करना, जहां नरकतुल्य
वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं। जैसे कालसौकरिक कसाई को मरणावस्था में अत्यन्त घोर वेदनाएं सहनी
पड़ी थीं। द्रव्य-नरक के दो प्रकार हैं
१. कर्मद्रव्य-द्रव्यनरक-नरक में वेदने योग्य कर्म-बंध ।
२. नोकर्मद्रव्यद्रव्य-नरक-वर्तमान जीवन में अशुभ रूप, रस, गंध, वर्ण, शब्द और स्पर्श का संयोग । ४. क्षेत्र-नरक-चौरासी लाख नरकवासों का निर्धारित भूविभाग । ५. काल-नरक–नारकों की कालस्थिति । ६. भाव-नरक-नरक आयुष्य का अनुभव, नरकयोग्य कर्मों का उदय ।
चूर्णिकार ने वर्तमान जीवन में नरकतुल्य कष्टों के अनुभव को भाव-नरक माना है । जैसे—कालसौकरिक ने अपने जीवनकाल में ही नरक का अनुभव कर लिया था।
___इसी प्रकार से 'विभक्ति' शब्द के निक्षेपों का चूर्णिकार और वृत्तिकार से विस्तार से वर्णन किया है।' वृत्तिकार ने क्षेत्रविभक्ति के अन्तर्गत आर्यक्षेत्रों को विस्तार से समझाया है। उन्होंने छह प्राचीन श्लोकों को उद्धृत कर साढे पच्चीस आर्य देशों तथा उनकी राजधानियों का नामोल्लेख किया है।
इसी प्रकार उन्होंने अनार्य देशों के नाम तथा अनार्य देशवासी लोगों के स्वभाव का सुन्दर चित्रण किया है।' चूर्णिकार ने उनका केवल नामोल्लेख किया है।
सात नरक माने जाते हैं । स्थानांग में उनके सात नाम और गोत्रों का उल्लेख है। वे नरक गोत्रों के नाम से ही पहचाने जाते हैं।
नरकों के नाम१. धर्मा २. वंशा ३. शैला ४. अंजना ५. रिष्टा ६. मघा ७. माघवती। नरकों के गोत्र१. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. बालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमा ७. तमस्तमा ।
अधोलोक में सात पृथिवियां (नरक) हैं । इन पृथ्वियों के एक दूसरे के अन्तराल में सात तनुवात (पतली वायु) और सात अवकाशान्तर हैं । इन अवकाशान्तरों पर तनुवात, तनुवातों पर घनवात, घनवातों पर घनोदधि और इन सात घनोदधियों पर फूल की टोकरी की भांति चौड़े संस्थान वाली पृथ्वियां (नरक) हैं।'
प्रस्तुत आगम के २।२।६० में समुच्चय में नरकावासों के संस्थान-आकार-प्रकार, उनकी अशुचिता तथा भयंकर वेदना का १. चूणि, पृ० १२२ : दव्वणिरओ तु इहेव जे तिरिय-मणुएसु असुद्धठाणा चारगादि खडा-कडिल्लग-कंटगा-वंसकरिल्लादीणि असुभाई
ठाणाई, जाओ य गरगपडिरूवियाओ वेषणाओ दोसंति जधा सो कालसोअरिओ मरितुकामो वेदणासमण्णागओ
___ अट्ठारसकम्मकम्मकारणाओ वा वाधि-रोग-परपोलणाओ वा एवमादि . . . . . . . . . ' । २ चूणि, पृ० १२२ : भावणरगा . . . . . 'अधवा (सद्द-) रूव-रस-गंध-फासा इहेव कम्मुदयो रइयपायोग्गो, जधा कालसोअरियस्स
इहमवे चेव ताई कम्माई नेरइयभाव-भाविताई भावनरकः । ३. (क) चूणि, पृ० १२२-१२३ ।
(ख) वृत्ति, पत्र १२१-१२३ । ४. वृत्ति, पत्र १२२। ५. वही, पत्र १२२। ६. ठाणं ७।२३-२४ । ७. ठाणं, ७.१४-२२।
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