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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'नरक-विभक्ति'-नरकवास का विभाग है। चूर्णिकार ने 'नरक' का निरुक्त इस प्रकार दिया है
'नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माण इति नरकाः।'
'न रमन्ति तस्मिन् इति नरकाः।' नियुक्तिकार ने इस अध्ययन का प्रतिपाद्य बतलाते हुए नरक-उत्पति के अनेक कारणों में से दो कारणों--उपसर्ग-भीरता तथा स्त्री-वशवर्तिता का उल्लेख किया है। स्थानांग सूत्र में नरकगमन के चार हेतु बतलाए हैं-महा-आरंभ, महा-परिग्रह, पंचेन्द्रियवध और मांस-भक्षण ।'
तत्त्वार्थ सूत्र में नारकीय आयुष्य के दो कारण निर्दिष्ट हैं१. बहु आरंभ-महान् हिंसा । २. बहु परिग्रह-महान् परिग्रह ।
मूल सूत्रकार ने प्रथम दो श्लोकों में अध्ययन का प्रतिपाद्य और आगे के तीन श्लोकों (३, ४, ५) में नरक गति के हेतुओं का दिग्दर्शन कराया है।
जम्बूकुमार ने सुधर्मा से पूछा-'नरकों का स्वरूप क्या है ? किन-किन कर्मों के कारण जीव नरक में जाता है ? नरकों में नैरयिक किन-किन वेदनाओं का अनुभव करते हैं ?'
सुधर्मा ने कहा-'आर्य जम्बू ! जैसे तुम मुझे पूछ रहे हो, वैसे ही मैंने भगवान् महावीर से पूछा था- भंते ! मैं नहीं जानता कि जीव किन-किन कर्मों से और कैसे नरक में उत्पन्न होता है ? आप मुझे बताएं।'
भगवान् ने तब मुझे कहा- मैं तुमको उन जीवों के पापकर्म का दिग्दर्शन कराऊंगा, जिनसे वे उन विषम और चंड स्थानों में जाकर उत्पन्न होते हैं और भयंकर वेदनाओं को भोगते हैं । नरक के मुख्य हेतु हैं
१. क्रूर पापकर्मों का आचरण । २. महान् हिंसा का आचरण । ३. असंयम में रति । ४. आस्रवों के सेवन में व्यग्रता ।
नरक पद के छह निक्षेप प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार, चूणिकार और वृत्तिकार ने निश्चित नरकावासों में उत्पन्न होना ही नारकीय जीवन नहीं माना है, किन्तु वे कहते हैं कि जिस जीवन में जो प्राणी नरक सदृश वेदनाओं, पीड़ाओं और दुःखों को भोगता है, वह स्थान या जन्म भी नरक ही है ।
१. नाम-नरक-किसी का नाम 'नरक' रख दिया ।
२. स्थापना-नरक-किसी पदार्थ या स्थान में 'नरक' का आरोपण कर दिया। १. चूणि, पृ० १२६ । २. नियुक्ति गाथा २३, चूणि, पृ० १६ : उपसग मीरुणो थीवसस्स गरएसु होज्ज उववाओ। ३. ठाणं ४।६२८ । ४. तस्वार्थ ६.१५: बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः।
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