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सूयगडो १
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अध्ययन ५ प्रमुख
कथन है । वे नारकीय जीव न सोकर नींद ले सकते है, न बैठकर विश्राम कर सकते है, न उनमें स्मृति होती है, न रति, न धृति और न मति। वे वहां प्रगाढ़ और विपुल, चंड और रौद्र, असह्य वेदना का अनुभव करते हुए काल-यापन करते हैं ।
बौद्ध साहित्य में भी नारकीय वेदना का यही रूप है। वहां कहा गया है - वे अधमजीव नरक में उत्पन्न होकर अत्यन्त दुःखप्रद, तीव्र, दारुण और कटुक वेदना को भोगते हैं । '
नारकीय जीव तीन प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं
१. परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पादित वेदना ।
२. परस्परोदीरित वेदना ।
३. नरक के क्षेत्र विशेष में स्वाभाविकरूप से उत्पन्न वेदना ।
इन सात पृथ्वियों में प्रथम तीन - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा - में पनरह परमाधार्मिक देवों द्वारा उत्पादित कष्टों का अनुभव नारकजीव करते हैं। चार पृथिवियों - पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमा और तमस्तमा में नारकीयजीव अत्यधिक वेदना का अनुभव करते हैं। यह क्षेत्रविपाकी वेदना है। उन नरकावासों का ऐसा ही अनुभाव है कि वहां रहने वाले प्राणी अत्यन्त दुःसह कष्टों का अनुभव करते हैं ।"
उन नरकावासों में नारकीयजीव परस्पर लड़ते हैं, एक दूसरे को मारते हैं, पीटते हैं, अंगच्छेद करते हैं—यह वेदना भी वहां से प्राप्त है ।
प्रचुरता
प्रथम तीन नरकों में तीनों प्रकार की वेदनाएं प्राप्त होती हैं और शेष चार में केवल दो प्रकार की वेदनाएं - क्षेत्रविपाकी वेदना और परस्परोदीरित वेदना- प्राप्त होती हैं।
आगमकार के अनुसार छठी सातवीं नरक में नैरयिक बहुत बड़े-बड़े रक्त कुंथुओं को पैदा कर परस्पर एक-दूसरे के शरीर को काटते हैं, खाते हैं।
स्थानांग सूत्र में नारकीय जीवों द्वारा भोगी जाने वाली दस प्रकार की वेदना का उल्लेख प्राप्त है
१. शीत २. उष्ण ३. क्षुधा ४. पिपासा ५. खुजलाहट ६. परतंत्रता ७. भय ८. शोक ६. जरा १०. व्याधि ।
छतीसवें श्लोक में प्रयुक्त 'संजीवनी' शब्द से चूर्णिकार ने नरकावासों की स्वाभाविकता का वर्णन किया है। उन नरकावासों में नारकीय जीवों को सतत कष्ट पाना होता है। वे अपनी स्थिति से पहले मरते नहीं। वे छिन्न-भिन्नतया मूच्छित होकर भी भयंकर वेदना का अनुभव करते हैं । पारे की तरह उनका सारा शरीर बिखर जाता है, पर पानी के छींटे पड़ते ही वे पुनः जीवित हो जाते हैं । इसलिए उन नरकावासों को 'संजीवन' कहा गया है ।
बौद्ध परम्परा में आठ ताप नरक माने जाते हैं । आठवें नरक 'संजीव' का वर्णन भी उपरोक्त वर्णन की तरह ही है । संजीव नरक में पहले शरीर भग्न होते हैं, फिर रजःकण जितने सूक्ष्म हो जाते हैं । पश्चात् शीतलवायु से वे पुनः सचेतन हो जाते हैं ।'
प्रस्तुत अध्ययन में अग्नि के विषय में कुछ विशेष जानकारी प्राप्त होती है। नरक में बादर अग्नि नहीं होती । वहां के कुछ स्थानों के पुद्गल भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं । वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं ।
१. मज्झिमनिकाय ४५।२।२ : निरयं उपपज्जंति ते तत्थ दुक्खा तिव्वा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति ।
२. चूर्ण, पृ० १२३ । ते पुण जाव तच्चा पुढवी, सेसासु णत्थि । सेसासु पुण अणुभाववेदणा चैव वेदेति । ३. चूर्णि पृ० १२३ । वृत्ति, पत्र १२३ ।
४. जीवाजीवाभिगम ३।१११ ।
५. ठाणं १०।१०८ ।
६. अभिधम्मकोश पृ० ३७२, आचार्य नरेन्द्रदेव कृत ।
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