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प्रयगडो १
अध्ययन ११: प्रामुख द्रव्य मार्ग के प्रकारों का उल्लेख करते हुए नियुक्तिकार ने तत्कालीन यातायात के मार्गों का स्पष्ट निर्देश किया है। वे चौदह प्रकार के मार्गों का उल्लेख करते हैं।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है-- १. फलकमार्ग-कीचड़ आदि के भय से फलक द्वारा पार किया जाने वाला मार्ग या गढ़ों को पार करने के लिए बनाया
___गया फलक मार्ग ।' २. लसामार्ग-नदियों में होने वाली लताओं (वेत्र आदि) का आलंबन लेकर पार करने का मार्ग। जैसे गंगा आदि नदियों
को वेत्र लताओं के सहारे पार किया जाता था।' ३. आन्दोलनमार्ग--यह संभवतः झूलने वाला मार्ग रहा हो। विशेषतः यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया हुआ होता था।
व्यक्ति झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच जाता था।' व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को
पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । ४. वेत्रमार्ग-यह मार्ग नदियों को पार करने में सहायक होता था। जहां नदियों में वेत्र लताएं (बेंत की लताएं) सघन होती
थीं, वहां पथिक उन लताओं का अवष्टम्भ लेकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। चारुदत्त नामक एक व्यक्ति ने वेत्रलताओं का अवलंबन लेकर वेत्रवती (उसुवेगा) नदी को पार किया था। इसकी
प्रक्रिया वसुदेव हिण्डी में उल्लिखित है। यह भी एक प्रकार का लतामार्ग ही है। ५. रज्जुमार्ग-रस्सी के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का मार्ग । यह अति दुर्गम स्थानों को पार करने के
काम आता था। चूणिकार ने गंगा आदि नदियों को पार करने के लिए इस रज्जुमार्ग का उल्लेख किया है।' संभव है एक
किनारे पर रज्जु को वृक्ष से बांधकर उसके सहारे तैरते हुए दूसरे किनारे पहुंचना सरल हो जाता है। ६. ववनमार्ग-दवन का अर्थ है यान-वाहन । उसके आने जाने का मार्ग दवनमार्ग है। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात
में यह मार्ग काम आता था। ७. बिलमार्ग-ये गुफा के आकार वाले मार्ग थे। इनको 'मूषिक पथ' भी कहा जाता था। ये पहाड़ी मार्ग थे, जिनमें चट्टान
काटकर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनानी पड़ती थीं। इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना
पड़ता था।' १. नियुक्ति गाथा १०१ : फलग-लतंदोलग-वेत्त-रज्जु-दवण-बिल-पासमग्गे य ।
खीलग-अय-पक्खिपहे छत्त-जलाकास वग्वम्मि ॥ २. चूणि, पृ० १६३ : फलगेहिं जहा दद्दरसोमाणेहि, जघा फलगेण गम्मति वियरगादिसु, चिक्खल्ले वा जधा। ३. चूणि, पृ० १९३ : वेत्तलताहिं गंगमादी संतरति, जधा चारुदत्तो वेत्तति वेत्तेहि ओलंबिऊण परकूलवेत्तेहिं आलाविऊण उत्तिण्णो । ४. चूणि, पृ० १९४ : अंबोलरण अंदोलारूढो एति य, जं वा रुक्खसालं अंदोलिएऊणं अप्पाणं परतो वच्चति । ५. वसुदेव हिण्डी, पत्र १४०-१४६ : एक बार एक सार्थ यात्रा पर था। वह वहां पहुंचा । नदी के किनारे पड़ाव डाला । वन से पके
हुए फल लाए। रसोई पकाई और सभी ने भोजन किया । तब यात्रा-संरक्षक ने कहा-देखो, यह उसुवेगा नदी है। यह वताढ्य पर्वत से निकलती है। यह बहुत ऊंडी नदी है। जो इसको पार करने के लिए पानी में उतरता है, वह तीर की भांति तीव्र गतिवाले पानी के प्रवाह में बह जाता है। उसमें आड़े-टेढ़े नहीं उतरा जा सकता। इसको पार करने का एक ही मार्ग है-वेत्रलतामार्ग । जब उत्तर दिशा का पवन चलता है और जब वह पर्वतों के दंतुरों से गुजरता है तब उसका वेग बढ़ता है और उसके प्रवाह से नदो को सारी वेत्रलताएं दक्षिण की ओर झुक जाती हैं। वे स्वभावत: कोमल और मृदु तथा गाय के पूंछ के आकार की होती हैं। उन लताओं का आलंबन लेकर व्यक्ति उत्तरकूल से दक्षिणकूल पर चला जाता है, नदी को पार कर जाता है। जब दक्षिण का पवन चलता है तब उसी प्रकार वेत्रलताएं उत्तरविशा की ओर झुकती हैं और तब यात्री उन लताओं के सहारे उत्तरकूल पर पहुंच
जाता है। ६. चूणि, पृ० १९४ : रज्जुहि गंगं उत्तरति । ७. वृत्ति, पत्र १९८ : दवनं-यानं तन्मार्गो दवनमार्गः। ८. (क) चूणि, पृ० १९४ : बिलं बीवहिं पविसंति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १९८ : बिलमार्गो यत्र तु गुहायाकारेण बिलेन गम्यते ।
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