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सूयगडो १
अध्ययन ११ प्रामुख ८. पाशमार्ग-चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से बांधकर रज्जु के सहारे
आगे बढ़ता था । 'रसकूपिका' (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही पुनः बाहर आना होता था।'
वृत्तिकार ने इसे मृगजाल आदि से युक्त मार्ग माना है, जिसका उपयोग शिकारी करते हैं। , कीलकमार्ग-ये वे मार्ग थे जहां-स्थान-स्थान पर खंभे बनाए जाते थे और पथिक उन खंभों के अभिज्ञान से अपने मार्ग
पर आगे बढ़ता जाता था ।। ये खंभे उसे मार्ग भूलने से बचाते थे। विशेष रूप से ये मार्ग मरुप्रदेश में,
जहां बालु के टीलों की अधिकता होती थीं, वहां बनाए जाते थे।' १०. अजमार्ग-चूर्णिकार ने 'अयस्पथ' मानकर इसको लोहे से जटित पथ माना है और इसकी अवस्थिति स्वर्ण-भूमी में
बतलाई है।'
यह 'अजपथ' एक ऐसा संकरा पथ होता था जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषत: पहाड़ों पर होता था जहां बकरों और भेड़ों पर यातायात होता
था। इसे 'मेंढपथ' भी कहा जाता था। वृत्तिकार के अनुसार चारुदत्त इसी मार्ग से स्वर्णभूमि पहुंचा था।' ११. पक्षिपथ—यह आकाश-मार्ग था। भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे इस मार्ग से यातायात होता था।' यह
मार्ग सर्व सुलभ न भी रहा हो परन्तु कुछ श्रीमन्त या विद्याओं के पारगामी व्यक्ति इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते हों, यह असंभव नहीं लगता। क्योंकि आज भी शतुर्मुर्ग पर सवारी की जाती है और उसका वाहन के रूप में उपयोग किया जाता है। उसकी गति भी तेज होती है। इसी प्रकार पक्षियों में सर्वबलिष्ठ भारुण्ड पक्षी पर सवारी करना अत्युक्ति नहीं कही जा सकती।
पाणिनी का हंसपथ, महानिर्देश का शकुनपथ और कालीदास का खगपथ, धनपथ, सुरपथ इसी पक्षिपथ के वाचक हैं। १२. छत्रमार्ग-यह एक ऐसा मार्ग था जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था।' संभव है यह जंगल का मार्ग
हो और जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो । वे पशु छत्ते से डरकर इधर-उधर भाग जाते हों। १३. जलमार्ग-जहाज, नौका आदि से यातायात करने का मार्ग । इसे 'वारिपथ' भी कहा जाता है। १४. आकाशमार्ग-चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग ।' इसे 'देवपथ' भी कहा
जाता था।
क्षेत्रमार्ग और कालमार्ग के प्रसंग में भी नियुक्तिकार, चूर्णिकार और वृत्तिकार ने अनेक तथ्य प्रगट किए हैं३. क्षेत्रमार्ग-भूमीचरों के लिए भूमी मार्ग है, देवताओं के लिए आकाश मार्ग है, पक्षियों तथा विद्याधरों के लिए भुमी और
आकाश-दोनों मार्ग हैं। १. चूणि, पृ० १६४ : रज्जु वा कडिए बंधिऊण पच्छा रज्जु अणुसरंति क्वचिद् रसकूपिकादौ महत्यन्धकारे, पुणो णिग्गच्छति गच्छति सो
चेव पासमग्गो। २ वृत्ति, पत्र १९८ : पाशप्रधानो मार्ग:-पाशमार्गः पाशकटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १९४ : खोलगेहिं रुमाविसए वालुगाभूमीए चक्कमति, क्वचिद् वेणु (? रेणु) प्रचुरे देशे कोलकानुसारेण गम्यते, अन्यथा
पथभ्रंशः। ४. वही, पृ० १९४ : अयपधो लोहबद्धः सुवण्णभूमीए.........। ५. वृत्ति, पत्र १९८ : अजमार्गो यत्र अजेन-बस्त्येन गम्यते, तत्, यथा-सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गत इति । ६. वृत्ति, पत्र १६८। ७. चुणि, पृ०१९४: छत्तगमग्गो छत्तगेणं धरिज्जमाणेणं गच्छति उपद्रवमयात् । ८. वही, पृ० १६४ : आगासमग्गो चारण-विज्जाहराणं । ६. (क) नियुक्ति गाथा १०२। (ख) चूणि, पृ० १९४ । (ग) वृत्ति, पत्र १९८ ।
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