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सूपगडो १
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वृत्तिकार ने 'अण्णतर' शब्द से ज्ञान आदि का ग्रहण किया है । ' चूर्णिकार ने 'प्रज्ञा' का अर्थ ज्ञान किया है। वह तीन प्रकार का है सूत्र, अर्थ और सूत्र - अर्थ ( तदुभय) | ज्ञान का मद
करते हुए वह कहता है- मेरे पास शुद्ध सूत्र है । मैं सूत्र का विशुद्ध उच्चारण अर्थ का विस्तार करने में समर्थ हूं। मैं लौकिक सिद्धान्तों का ज्ञाता हूं। दूसरे हैं, चन्द्रमा के नीचे घूमते रहते हैं । '
कर सकता हूं। मुझ में अर्थ-ग्रहण की पटुता भी है । मैं लोगों से क्या । दूसरे सभी पशु की तरह विचरण करते
'वसुम' इसमें मकार अलाक्षणिक है ।
श्लोक १०:
३८. ब्राह्मण, क्षत्रिय (माहणे खत्तिए)
पूर्णिकार ने माह का अर्थ-साधु किया है। वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ है-वह व्यक्ति जो साधु बनने से पूर्व ब्राह्मण जाति का सदस्य था।
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चूर्णि के अनुसार क्षत्रिय के तीन अर्थ हैं-राजा, राजा के कुल में उत्पन्न या उस जाति में उत्पन्न कोई दूसरा 1* वृत्तिकार ने इक्ष्वाकु आदि विशिष्ट वंशो में उत्पन्न व्यक्ति को क्षत्रिय माना है ।"
३९. उग्रपुत्र ओर लिच्छवी (उग्गपुत्ते
लेच्छवो)
चूर्णिकार ने उग्र और लिच्छवी को क्षत्रियों का ही गोत्र - विशेष बतलाया है । "
वृत्तिकार ने 'उग्रपुत्र' और 'लिच्छवी' को इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न क्षत्रियों की विशेष जाति माना है ।" ४०. प्रव्रजित (प)
१. वृत्ति, पत्र २४१ २. पूमि पृ० २२२
अध्ययन १३ टिप्पण ३६-४२
जो राज्य और राष्ट्र को छोड़कर अथवा अल्प या बहुत परिग्रह को छोड़कर प्रव्रजित होता है । "
४१. दूसरे का दिया हुआ खाता है ( परदत्तभोई )
दूसरे (स्व) के लिए पका कर दिया हुआ तथा एवणीय बहारपानी लेने वाला 'परदत्तभोगी' कहलाता है। इस गुण के उपलक्षण से अन्य सभी संयमगुणों का ग्रहण किया गया है।"
४२. मान के वशीभूत होकर गोत्र का मद करता है (गोते जे यन्नति माणबद्धे )
हमने इसका अर्थ मान के वशीभूत होकर क्षेत्र का मद करता है - ऐसा किया है।
वृत्तिकार ने 'गोत्ते ण जे थंभभिमाणबद्धे' - ऐसा पाठ मानकर सर्वथा भिन्न अर्थ किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ हैंमुनि अभिमानास्पद गोत्र में उत्पन्न होकर भी गर्व न करे ।"
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अन्यतरेण ज्ञानादिना ।
प्रज्ञानं ज्ञानं नाम उच्यं वा समाहि (? गम हि) कंठोविध्यमुक्कं विशुद्धं सुतं अर्थप्रणयायविस्तरतस्तान् कथयामि लोक-सिद्धान्तान्मन्यजनः मृगास्त्यन्ये चरन्ति चन्द्राद्यस्ता भ्रमन्ति ।
३. चूर्ण, पृ० २२३ : माहण इति साधुरेवः जो वा पूर्व ब्राह्मणजातिरासीत् ।
४. चूर्ण, पृ० २२३ : क्षत्रियो राजा तत्कुलीयोऽन्यतरो वा ।
५ वृत्ति, पत्र २४१ : क्षत्रियो वा इक्ष्वाकुवंशाविकः ।
६. चूणि, पृ० २२३ : उग्ग इति लेच्छवीति च क्षत्रियाणामेव गोत्रभावः ।
७. वृत्ति, पत्र २४१ : इक्ष्वाकुवंशाविकः तद्भेदमेव दर्शयत - 'उग्रपुत्रः ' - क्षत्रिय विशेषजातीय:, तथा 'लेच्छद्द' त्तिक्षत्रिय विशेष एव ।
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८. घृणि, पृ० २२३ : चइत्ताणं रज्जं रठ्ठे च पव्वइतो, अथवा अप्पं वा बहुं वा चहत्ता पन्वइतो ।
६. चूर्ण, पृ० २२३ : परतो पापञ्चदत्तमेषणीयं च मुंक्त, शेषेरन्यैः सर्वैरपि संयमगुणैः युक्तः ।
१०.२४१२४२ पोत्रे हरिवंशस्थानीये समुत्पन्नोऽपि च स्तम्भ' गोत्रे ? 'मि मानबढे' - अभिमानास्पदे इति :
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