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________________ सूयगडो १ ५३७ अध्ययन : १३ टिप्पण ३५-३७ ३५. मुनि-पद में (मोणपदंसि) चूर्णिकार ने मौन पद का अर्थ-संयम-स्थान किया है । वृत्तिकार ने भी मूल अर्थ यही किया है । वैकल्पिक रूप में उन्होंने इसका अर्थ -सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित मार्ग-किया है।' ३६. गोत्र (उच्चत्वाभिमान) (गोते) चूर्णिकार ने 'गोत्र' के दो अर्थ किए हैं'--- १. गौरव--- अभिमान । वह तीन प्रकार का है--ऋद्धि का गौरव, रस का गौरव, और सुख-सुविधा का गौरव । २. अठारह हजार शील के अंग । वृत्तिकार के अर्थ इनसे भिन्न हैं:-- १. जो यथार्थ अर्थ का प्रतिपादन कर वाणी की रक्षा करता है, वह समस्त आगमों का आधारभूत सर्वज्ञ का मत । २. उच्च गोत्र आदि । हमने इसका अर्थ----उच्चत्व का अभिमान-किया है। जैन आगमों में 'गोत्रमद' न करने का स्थान-स्थान पर निषेध किया गया है। निर्ग्रन्थ धर्म में प्रत्येक वर्ग के लोग दीक्षित होते थे। वे विभिन्न गोत्रों से आते थे । यदि गोत्र के आधार पर एक-दूसरे को उच्च या न माना जाए तो फिर परंपरा रह नहीं सकती। इसीलिए भगवान महावीर ने तथा उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने गोत्रमद पर प्रहार किया और कहा कि प्रव्रज्या ले लेने पर सभी बन्धु हो जाते हैं, फिर चाहे वे किसी भी गोत्र के हों, किसी भी जाति या वर्ग के हों। इस समानता के प्रतिपादन ने जैन परंपरा का द्वार सबके लिए उद्घाटित रखा और इसीलिए सभी वर्ग, जाति और गोत्र के लोग इसमें सम्मिलित हुए । _ अगले दो श्लोकों में गोत्र-मद के परिहार की बात कही गई है । यह श्लोक उनकी पृष्ठभूमि है। ३७. (जे माणणठेणः... अबुज्झमाणे) चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इनका भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्थ किया है। चूर्णिकार के अनुसार 'माणणऽह्रण विउक्कसेज्जा' का अर्थ है-वह पुरुष मान के लिए (संयम, प्रज्ञा अथवा) अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है। वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत दो चरणों का अर्थ है जो पुरुष लाभ, पूजा सत्कार आदि के द्वारा अपना उत्कर्ष दिखाता है, (वह मुनिपद में नहीं है।) जो परमार्थ को नहीं जानता हुआ संयम अथवा अन्य किसी प्रकार से उत्कर्ष दिखाता है वह सब शास्त्रों को पढ़ता हुआ तथा अर्थ को जानता हुआ भी सर्वज्ञ के मत को यथार्थरूप में नहीं जानता। ___ चूर्णिकार ने 'वसुमण्णतरेण' के स्थान पर 'वसु पण्णऽण्णतरेण' पाठ मान कर व्याख्या की है।" १. चूणि, पृ० २२२ : पदं नाम स्थानम्, मुनेः पदं मौनपवम्, संयमस्थानमित्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २४१ : मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपद-संयमस्तत्र मौनीन्द्र वा पवे---सर्वज्ञप्रणीतमार्ग। ३. चूणि, पृ० २२२ : गोते त्ति गारवा....... अथवा गोत्रमिति अष्टादशशोलाङ्गासहस्राणि। ४. वृत्ति, पत्र २४१ : सर्वज्ञमतमेव विशिनष्टि-गां-वाचं त्रायते---अर्थाविसंवादनतः पालयतीति गोत्रं तस्मिन् समस्तागमाधारभूत इत्यर्थः। ५. चूणि, पृ० २२२ :जे माणणठेण विउक्कसेज्जा, माननं एवार्थः माननार्थः, मानप्रयोजन: माननिमित्त इत्यर्थः, विविधं उत्कर्ष करोति । वृत्ति, पत्र २४१ : यश्च मानन-पूजनं सत्कारस्तेनार्थः प्रयोजनं तेन माननार्थेन विविधमुत्कर्षयेदात्मानं, यो हि माननार्थन-लाम पूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ सर्वज्ञपवे विद्यते । ७. चूणि, पृ० २२२ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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