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________________ सूयगडो १ अध्ययन १३ : टिप्पण ४३-४६ वृत्ति कार ने 'गोत्तेण' में 'गोत्ते' को और 'ण' को अलग-अलग मान लिया है। चूणिकार और वृत्तिकार ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि जिसने सिर मुंडा लिया, जिसने तुण्ड (मुंह) भी मुंडा लिया अर्थात् जो घर-घर से भीख मांग कर खाता है, वह फिर गर्व कैसे कर सकता है।' श्लोक ११: ४३. जाति और कुल (जाती व कुलं) जाति ओर कुल दो हैं । जाति का संबंध मातृपक्ष से होता है और कुल का संबंध पितृपक्ष से होता है । यही जाति और कुल में अन्तर है। ४४. विद्या और आचरण (विज्जाचरणं) चूर्णिकार ने विद्या से ज्ञान और दर्शन तथा आचरण से चारित्र और तप का ग्रहण किया है। विद्या और आचरण के अतिरिक्त कोई भी साधन त्राण नहीं दे सकता । दूसरे शब्दों में विद्या से 'ज्ञान' और आचरण से 'क्रिया' का ग्रहण किया जा सकता है। यह शब्द 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' का संवादी है। ४५. गृहस्थ-कर्म (जाति और कुल के मद) का (अगारिकम्म) इसका शब्दार्थ है-गृहस्थ-कर्म । चूणिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में जाति आदि के मद को और ममकार तथा अहंकार को गृहस्थ-कर्म माना है।' वृत्तिकार ने पापमयी प्रवृत्ति अथवा जाति आदि के मद को गृहस्थ-कर्म कहा है। ४६. वह समर्थ नहीं होता (ण से पारए) चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं१. जो गृहस्थ-कर्म का सेवन करता है वह व्यक्ति धर्म, समाधि और मार्ग का पारगामी नहीं होता। २. वह मोक्ष का पारगामी नहीं होता। ३ वह न स्वयं को और न 'पर' को पार पहुंचाने में समर्थ होता है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जो गृहस्थ-कर्म का सेवन करता है वह समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होता। १. (क) चूणि, पृ० २२३ : जो गोतेण जात्यादिना स्तभ्यते, स्वरूपतो जो कोई हरिएसबलत्थाणीयो मेतज्जथाणीयो वा। अन्यतरं वा एवंविधं द्रमकादिप्रवजित निन्वति । अथवा जे माहणा खत्तिया अदुवा उग्गपुत्ता अदु लेच्छवी वा जे पम्वइता प्रवजिता अपि भूत्वा शिरस्तुण्डमुण्डन कृत्वा परगृहाणि भिक्षार्थमटन्त: मानं कुर्वन्तीत्यतीव हास्यम्, कामं मानोऽपि क्रियते यद्यसौ श्रेयसे स्यात् । (ख) वृत्ति, पत्र २४२ । एतदुक्तं भवति विशिष्ट जातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रवृजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षार्थ पर गृहाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गवं कुर्यात ?, नेवासौ मान कर्याविति तात्पर्यार्थः । २. (क) चूर्णि, पृ० २२३ : जातिकुलयोविभाषा मातसमुत्थेत्यादि । (ख) वृत्ति, पत्र २४२ : मातृसमुत्था जातिः, पितृसमुत्थं कुलम् । ३. चूणि पृ० २२३ : विद्याग्रहणाद् ज्ञानदर्शने गृहीले, चरणपहणात संयम-तपसी । ४ चूर्णि, पृ. २२३ : अकारिणं कर्म अकारिकर्म, तद्यथा-अहं जात्यादिसुद्धो, न भवानिति, ममकारा-हङ्कारौ वा इत्यादि अगारिकर्म । ५. वृत्ति, पत्र २४२ : अगारिणां कर्म-अनुष्ठानं सावद्यमारम्भं जातिमदादिकं वा । ६. चूणि, पृ० २२३ : नासौ पारको भवति धर्म-समाधि-मार्गाणां विमोक्षस्य वा, अथवा नाऽऽस्मनः परेषां वा तारको भवति । ७. वृत्ति, पत्र २४२: न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्षयकारी न भवतीति भावः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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