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४७. अकिंचन (णिक्किंचणे)
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श्लोक १२:
चूर्णिकार ने 'णिगिणे' पाठ मान कर उसका अर्थ - द्रव्य अचेल किया है । '
४८. रूक्षजीवी (सुलूहजीवी )
चूर्णिकार ने 'रूक्ष' के दो अर्थ किए है-संयम और अन्त प्रान्त आहार जो संयमी जीवन जीता है या जो अन्त प्रान्त आहार से जीवन यापन करता है, वह सुख्क्षजीवी होता है।"
वृत्तिकार ने चने आदि अन्त प्रान्त आहार करने वाले को रूक्षजीवी माना है।
वाला ।
५०. प्रशंसा चाहता है (सिलोगगामी)
४६. गर्व करता है ( गारवं )
यहां छन्द की दृष्टि से एक 'वकार' का लोप माना गया है-गारववं । गौरववान् का अर्थ है - जाति आदि का गर्व करने
इसका अर्थ है - जाति आदि का प्रकाशन कर दूसरों से प्रशंसा चाहने वाला ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ - आत्मश्लाघा चाहने वाला किया है।*
चूर्णिकार ने इस शब्द की कोई व्याख्या नहीं की है।
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अध्ययन १३ टिप्पण ४७-५२
५१. यह आजीविका है (आजीव मेयं)
अकिंचनता, भिक्षाचरी और रूक्षभोजित्व – ये आजीविका के साधन मात्र बन जाते हैं यदि भिक्षु इनके माध्यम से अभिमान करता है और आत्म प्रशंसा चाहता है ।"
जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प - ये पांच आजीविकाएं हैं, आजीविका के साधन हैं । जो व्यक्ति इनका उत्कर्ष दिखाकर या इनके आधार पर जीवन-यापन करता है, वह वस्तुतः साधक नहीं है, केवल अपना पेट पालने वाला है । '
५२. विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होता है (विपरिया सुवेति )
यहां छन्द की दृष्टि से 'मुवेति' के मकार का लोप किया गया है ।
चूर्णिकार के अनुसार विपर्यास का अर्थ है— जन्म-मरण ।
वृत्तिकार ने जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, आदि उपद्रवों को विपर्यास माना है ।"
१. चूर्ण, पृ० २२३ : निगिणो नाम द्रव्याचेल: ।
२. चूर्ण, पृ० २२३ : लूहो संयमः, तेन जीवति अन्तप्रान्तेन ।
३. वृत्तपत्र २४२ सुष्ठु सम्-अन्तप्रान्तं बल्लचणकादि तेन जीवितुं प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य न सुखजीवी ।
४. वृत्ति, पत्र २४२ : श्लोककामी आत्मश्लाघाभिलाषी ।
५.
पत्र २४२स चैवंभूतः परमार्थमवान एतदेवानित्यं गुरूशीविश्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परता आगोम्-आजीविकामारमवर्तनोपायं कुर्वाणः ।
६. चूर्ण, पृ० २२३ : जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा तु पचंविधा । [ पिण्डनि० गा ४३७] जात्या सम्पन्नोऽहम् इति मानं करोति, प्रकाशयति चात्मानं स्वपक्षे परपक्षे, तथा चैनं कश्चित् पूजयति एसा हि आजीविका भवति मवदोषश्च । ७. चूर्ण, पृ० २२३ : विपर्यासो नाम जाति-मरणे ।
वृत्ति पत्र २४२-जातिहरावरण रोग हो कोपद्रवमुपैति गच्छति ।
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