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सूययो ।
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अध्ययन : १५ टिप्पण ३१-३५ ३१. संधि (ज्ञान आवि) को (संधि)
चूणि के अनुसार संधि का अर्थ है- सन्धान । उसमें भाव सन्धि के तीन उदाहरण दिए हैं- मनुष्यता, कर्म संधि, अर्थात् कर्म का विवर तथा ज्ञान आदि ।'
वृत्तिकार ने केवल कर्म-विवर रूपी संधि को ही भाव-संधि माना है।'
श्लोक १३: ३२. अनुपम सन्धि को (अणेलिसस्स)
पूर्व श्लोक के अनुसार इसका अर्थ है- अनुपमसंधि । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयम, मुनि-धर्म या अहंत् धर्म ।' ३३.जाननेवाला (खेयण्णे)
इसके अनेक अर्थ हैं-आत्मज्ञ, निपुण', ज्ञाता' आदि । ३४. चक्षुष्मान् पुरुष (चक्लम) चक्षुष्मान् वही होता है जो प्रशान्त चित्त वाला, हितमितभाषी और संयमित प्रवृत्ति करने वाला होता है।'
श्लोक १४: ३५. श्लोक १४:
प्रस्तुत श्लोक का भावार्थ यह हैवही व्यक्ति भव्य मनुष्यों के लिए चक्षुर्भूत होता है जो अपनी विषय-तृष्णा, भोगेच्छा के पर्यन्त में रहता है। प्रश्न होता है कि क्या अन्त में रहने वाला अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है ?
इसका उत्तर श्लोक के उत्तरार्द्ध में है । कहा गया है कि हां, अंत से चलने वाला अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है। जैसे उस्तरा अन्त (धार) से चलता है और गाड़ी का चक्का भी अन्त (छोर) से चलता है। वे दोनों अन्त से चलते हुए अपने कार्य को सिद्ध कर लेते हैं।'
क्षुर के प्रसंग में 'अंत' का अर्थ है-धार और चक्र के प्रसंग में 'अंत' का अर्थ है-छोर ।' __ जैसे क्षुर और चक्र का 'अन्त' ही अर्थकारी होता है, प्रयोजनीय होता है, वैसे ही विषय-कषायात्मक मोहनीय कर्म का अन्त (नाश) ही संसार का क्षयकारी होता है।' १. चूणि, पृ० २४१ : सन्धानः सन्धिः भावसन्धिर्मानुष्यम् कर्मसन्धिः कर्मविवरः ज्ञानादीनि च भावसन्धिः । २. वृत्ति, ५० २६६ : कर्मविवरलक्षणं भावसंधिम् । ३. वृत्ति, प० २६६ : अनन्यसदृशः संयमो मौनीन्द्रधर्मो वा। ४. वृत्ति, प० २६६ : खेदज्ञो-निपुणः । ५. चूणि, पृ० २४१ : खेतणे जाणगे । ६. वृत्ति, ५० २६६। ७. (क) चूणि, पृ० २४१ ।
(ख) वृत्ति, पत्र २६६। ८. (क) चूणि, पृ० २४१ : अन्तेनेति धारया।... चक्रमप्यन्तेन ।
(ख) वृत्ति, पत्र २६६ : 'अन्तेन'-पर्यन्तेन 'क्षुरो'-नापितोपकरणं तवन्तेन वहति, तथा चक्रमपि रथाङ्गमन्तेनैव मार्ग प्रवर्तते । ६. वृत्ति, पत्र २६६ : इवमुक्तं भवति-यया क्षरादीनां पर्यन्त एवार्थक्रियाकारी एवं विषयकषायात्मकमोहनीयान्त एवापसबसंसार.
क्षयकारीति।
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