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________________ सूयगडो १ अध्ययन १५ : टिप्पण २८-३० करने वाले सत्संयमी कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में अगले (तीसरे) चरण में आए हुए 'अणासते' (सं० अनाशय) की व्याख्या करते हुए कहते हैं- उनमें पूजा-प्राप्ति का आशय ही नहीं होता अथवा द्रव्यतः पूजा का आशय होने पर भी समवसरणादि के उपभोग में वे भावत: अनास्वादक ही होते हैं, क्योंकि उनमें गृद्धि नहीं होती। इसी प्रकार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे-चौथे चरण में प्रयुक्त 'पांच' शब्दों को वृत्तिकार एक-दूसरे से संबद्ध कर, अनुलोम और प्रतिलोम विधि से व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । वह इस प्रकार है १. तीर्थंकर द्रव्यतः समवसरण आदि का उपभोग करते हैं किन्तु भावत: उनमें उन पूजा-स्थानों के उपभोग की आशंसा नहीं रहती, क्योंकि वे गृद्धि से उपरत होते हैं । संयमपरायण होने के कारण वे उन वस्तुओं का उपभोग करते हुए भी 'यतनावान्' हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों और नो-इन्द्रिय से दान्त होते हैं । यह जितेन्द्रियता संयम की दृढता से उत्पन्न होती है। वे मैथुन से सर्वथा उपरत होते हैं । यह संयम का ही फलित है। २. तीर्थकर में 'काम' का अभाव होता है इसलिए वे संयम में दृढ होते हैं । विशुद्ध चारित्र के पालन से वे दान्त होते हैं । इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय के दमन से वे 'प्रयत' होते हैं । यतनावान् होने के कारण वे देवादि की पूजा के अनास्वादक होते हैं और अनास्वादक होने के कारण ही द्रव्यत: वस्तुओं का उपभोग करते हुए भी सत्संयमवान् होते हैं।' श्लोक १२: २८. जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं (छिण्णसोते) स्रोत दो प्रकार के हैं-इन्द्रियों के विषय प्राणातिपात आदि आनवद्वार तथा राग-द्वेष आदि। ये जन्म-मरण के मूल हेतु हैं। जिस पुरुष के ये स्रोत छिन्न हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, वह छिन्न-स्रोत हो जाता है। २९.जो निर्मल चित्त वाला है (अणाइले) अनाविल का अर्थ है-निर्मल चित्त वाला। जिसका चित्त अकलुष तथा राग-द्वेष से मलिन नहीं होता वह अनाविल होता है। वैकल्पिक रूप से 'अणाउले' पाठ मानकर अनाकुल का अर्थ विषयों में अप्रवृत्त स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति किया है। ३०. प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो (णीवारे व ण लीएज्जा) इसका अर्थ है-मुनि प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो। नीवार सूअर आदि प्राणियों का प्रिय भोजन है। इसका प्रलोभन देकर मनुष्य सूअर आदि को वध-स्थान में ले जाते हैं । सूअर नीवार में लिप्त हो जाता है । वध-स्थान में उसे नाना प्रकार की यातनाएं दी जाती हैं और अन्ततः उसे मार दिया जाता है। वृत्तिकार के अनुसार स्त्री-प्रसंग (मैथुन) नीवार के समान है। मनुष्य अब्रह्मचर्य के वशीभूत होकर अनेक प्रकार की यातनाएं पाता है । इसलिए वह इस प्रलोभन के स्थान में लीन न हो, लिप्त न हो।' १. वृसि, प० २६६ : यदि वा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽनास्वावकोऽसौ, तद्गतगाामावात्, सत्यप्युपभोगे 'यत:'-प्रयतः सत्संयमवानेवासावेकान्तेन संयमपरायणत्वात्, कुतो?, यतः इन्द्रिय नोइन्द्रियाभ्यां वान्तः, एतद्गुणोऽपि कथमित्याह वृढ़ः संयमे, आरतम्-उपरतमपगतं मैथुनं यस्य स आरतमैथुन:-अपगतेच्छामदनकामः, इच्छामबनकामाभावाच्च संयमे दृढोऽसौ भवति, आयतचारित्रत्वाच्च बान्तोऽसौ भवति, इन्द्रियनोइन्द्रियमदमाच्च प्रयतः, प्रयत्नवत्त्वाच्च देवादिपूजनानास्वादकः, तदनास्वादनाच्च सत्यपि द्रव्यतः परिभोगे सत्संयमवानेवासाविति । २. (क) चूणि, पृ० २४१ : सोतं प्राणातिपातादि [1] न्द्रियाणि वा। (ख) वृत्ति, प० २६६ : छिन्नानि-अपनीतानि स्रोतांसि-संसारावतरणद्वाराणि यथाविषयमिन्द्रियप्रवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा आश्रवद्वाराणि येन स छिन्नस्रोताः । ३. वृत्ति, प० २६६ । अनाविलः-अकलुषो रागद्वेषासंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा-विषयाप्रवृत्तेः स्वस्थचेता एवंभूतश्चानाविलोऽना कुलो वा। ४. वृत्ति, प० २६६ : नीवारः-सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशनभूतो भक्ष्यविशेषस्तत्कल्पमेतत्मैथुनं, यथा हि असौ पशुर्नीवारेण प्रलोभ्य वध्यस्थानमभिनीय नानाप्रकारा वेदनाः प्राप्यते, एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसङ्गन वशीकृतो बहुप्रकारा यातनाः प्राप्नोति, अतो नीवारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य स तस्मिन् ज्ञाततत्त्वो 'न लीयेत' न स्त्रीप्रसङ्गकर्यात् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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