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सूयगो ।
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मध्ययन १५ टिप्पण २५-२७ आचारांग (६/३०) में 'अनुवसु' का प्रयोग हुआ है।
वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने वसु का मूल अर्थ वीतराग और 'अनुवसु' का अर्थ सराग-छद्मस्थ किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप से वसु और अनुवसु के तीन-तीन अर्थ किए हैं'
वसु-वीतराग, जिन, संयत ।
अनुवसु-छद्मस्थ, स्थविर, श्रावक । २५. योग्यता के अनुसार (पुढो)
इसके तीन अर्थ हैं-विस्तार से, पृथक्-पृथक् अथवा पुनः पुनः ।' २६. अनुशासन (अणुसासणं)
अपने सद्-असद् विवेक से प्राणियों को सन्मार्ग में अवतरित करने के उपाय को अनुशासन कहते हैं।'
चूर्णिकार ने इसका अर्थ केवल कथन किया है।' २७. पूजा का आशय नहीं रखते (पूयणासते)
इसमें दो शब्द हैं-पूजा+अनाशय । छन्द की दृष्टि से 'यकार' का ह्रस्व प्रयोग किया गया है। इसमें द्विपदसंधि भी हो सकती है-पूया+अणासते। इसका अर्थ है-पूजा का आशय न रखने वाला।
वृत्तिकार ने इसको 'पूजनास्वादक' मानकर व्याख्या की है। चूर्णिकार ने 'पूयं णासंसति' पाठ मानकर इसका अर्थ-पूजा की आशंसा-प्रार्थना न करना—किया है।' प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों का अर्थ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है। चूर्णिकार के अनुसार
संयमी पुरुष प्राणियों को धर्म की ओर अग्रसर करने के लिए विस्तार से या बार-बार अनुशासन करते हैं, किन्तु पूजा की वांछा नहीं करते।'
वृत्तिकार के अनुसार
संयमी पुरुष प्राणियों को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए पृथक् पृथक् रूप से अनुशासन करते हैं । वे देवादिकृत पूजा-अतिशयों का उपभोग करते हैं।'
यथार्थ में चूर्णिकार का अर्थ ही उचित लगता है । यद्यपि वृत्तिकार ने अपनी भावना को स्पष्ट करने के लिए स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है कि देवादिकृत समवसरण आदि तीर्थंकरों के लिए ही बनाए जाते हैं । वे आधाकर्म दोषयुक्त होते हैं । उनका उपभोग १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : वसु-द्रव्यं सद्भूतः कषायकालिकाविमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुवसु, सराग इत्यर्थः,
यदि वा वसुः-साधुः अनुवसुः-श्रावकः, तदुक्तम्
वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽयवा ।
सरागो ह्यऽनवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ २. (क) चूर्णि, पृ० २४१ ।
(ख) वृत्ति, पत्र २६५ । ३. वृत्ति, पत्र २६५ : अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतायन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तवनुशासनम् । ४. चूणि, पृ० २४१ : अनुशासन्तो कधेतो। ५. वृत्ति, पत्र २६५ : पूजन-देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति --- उपमुक्त इति पूजनास्वादकः । ६. चूर्णि, पृ० २४१ : पूर्व णाऽसंसति ण पत्थेति । ७. चूर्णि, पृ० २४१। ८. वृत्ति, पत्र २६५।
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