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________________ सूयगडो। अध्ययन १५ टिप्पण २०-२४ २. कुछ दर्शनों में स्त्री के उपभोग को आश्रवद्वार नहीं माना है, उनके मत का खंडन करने के लिए। ३. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस तीर्थंकरों के तीर्थ में चतुर्याम धर्म का ही प्रचलन रहता है । अंतिम तीर्थंकर के समय में पंचयाम धर्म की स्थापना है- इस तथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए। ४. दूसरे सारे व्रत अपवाद सहित होते हैं, ब्रह्मचर्य व्रत अपवाद रहित होता है, इसे प्रकट करने के लिए। ५. सभी व्रत समान होते हैं, किसी एक के टूटने पर शेष सभी व्रत टूट जाते हैं, अत: किसी एक व्रत का नामोल्लेख किया गया है। श्लोक है: २०. मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में है (आदिमोक्खा) __ इसका अर्थ है-मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में। इसका तात्पर्यार्थ है कि वैसे मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान रूप से उद्यम करने वाले हैं । वे पहले मोक्ष जाने वाले हैं। चूणिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है-वे मुनि आदि, मध्य और अवसान में आयतचारित्रभाव में परिणत होते हैं।' २१. जीने की इच्छा नहीं करते (णावकखंति जीवितं) __ चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - वे मनुष्य असंयम जीवन या कषायपूर्ण जीवन जीने की अभिलाषा नहीं करते। वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ भी किया है-वे दीर्घकाल तक जीने की इच्छा नहीं करते।' श्लोक १०: २२. कर्मों के सामने खडे हो (कम्मुणा संमुहीभूता) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-कर्मों को क्षीण करने के लिए उनके सामने खडे हो जाना, न कि पीठ दिखा कर भाग जाना। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दूसरे प्रकार से किया है -विशिष्ट अनुष्ठान के द्वारा मोक्ष के अभिमुख होकर ।' २३. अनुशासन करते हैं (अणुसासति) भगवान् प्राणियों के सर्वहित के लिए मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं और स्वयं भी उस मार्ग का अनुसरण करते हैं । श्लोक ११: २४. संयम धन से संपन्न पुरुष (वसुमाम) वसु का सामान्य अर्थ है-धन । मोक्षाभिमुख व्यक्ति का धन होता है-संयम । वसुमान् अर्थात् संयमी।' १. चूणि, पृ० २४० : आदिमध्याऽवसानेषु आयतचारित्तभावपरिणताः । २. चूणि, पृ. २४० : असंजम कसायादिजीवितं । ३. वृत्ति, पत्र २६५ : नाभिलषन्ति असंयमजीवितम् अपरमपि परिग्रहादिकं नामिलषन्ते, यदि वा परित्यक्तविषयेच्छाः सवनुष्ठानपरा यणा मोक्षकताना जीवितं'-दीर्घकालजीवितं नाभिकाङ्क्षन्तीति । ४. चूणि, पृ० २४१ : येनासौ कर्मानीकस्य क्षपणाय सम्मुखीभूत: न पराङ्मुखः। ५. वृत्ति, पत्र २६५ : कर्मणा-विशिष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य संमुखीभूता-धातिचतुष्टयक्षयक्रियया उत्पन्नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपस्याभि मुखीभूताः ।। ६. (क) चूणि, पृ० २४१ : जेणिमं णाण-दंसण-चरित्त-तवसंजुत्तं मग्गमणुसासति अणेसि च कथयति, आत्मानं चानुशासते। (ख) वृत्ति, पत्र २६५ : मोक्षमार्ग-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम्, 'अनुशासन्ति' ---सत्वहिताय प्राणिनां प्रतिपादयन्ति स्वतश्चानु तिष्ठन्तीति । ७. वृत्ति, पत्र २६५ : वसु-द्रव्यं स ब मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयम : तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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