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सूयगडो १
३. 'नाम' शब्द का प्रयोग संभावना के अर्थ में है ।"
इसका वास्तविक अर्थ है कि जो व्यक्ति कर्म का विज्ञाता वा द्रष्टा है, उसके नये कर्म का बंध नहीं होता ।)
१५. महावीर्यवान् (महावीरे)
इसका अर्थ है महावीर्यवान् महान पराली आतचारित्री, कर्मों को नष्ट करने में समर्थ
१६. न जन्म लेता है, न मरता है (जे ण जाई ण मिज्जती )
इस चरण का अर्थ है - जो न जन्म लेता है और न मरता है अर्थात् जो जन्म मरण की परम्परा से सर्वथा छूट जाता है। वृत्तिकार ने इसका एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है वह प्राणी सदा के लिए मुक्त हो जाता है। फिर उसके लिए 'यह नारक है, यह तिर्यञ्चयोनिक है', इस प्रकार का व्यपदेश नहीं होता, इस प्रकार का भेद नहीं होता।'
चूर्णिकार ने 'मज्जती' पाठ मानकर उसका अर्थ डूबना किया है ।"
श्लोक ६-७ :
१८. मरता (मिज्जती)
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१७. श्लोक ६-७ :
भगवान् महावीर की साधना-पद्धति के दो मूल तत्त्व हैं--संवर और निर्जरा - नए कर्मों का बंध न होना और पुराने कर्मों का क्षय होना । निर्जरा संवर के बिना भी हो सकती है, परंतु प्रस्तुत श्लोकों में निर्जरा और संवर का साहचर्य बतलाया गया है । संवरविहीन निर्जरा चित्तशुद्धि का समग्र साधन नहीं बनती। समग्रता के लिए निरोध और क्षय — दोनों का साहचर्य आवश्यक है । आस्रव निरोध के उपायों के आलंबन से नए कर्मों के द्वार बंद हो जाते हैं। जब नए कर्मों को पोषण नहीं मिलता, नया आहार नहीं मिलता, तब पुराने कर्म अपने आप शिथिल होकर टूट जाते हैं। ज्ञाता और द्रष्टा होना संवर है, नए कर्मों को न करने का उपाय है।
श्लोक ८ :
इसके दो संस्कृत रूपों के आधार पर दो अर्थ किए गए हैं" -
१. मीयते परिच्छेद करना, मापना ।
२. म्रियते-मरना ।
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१६. लोक में प्रिय होने वाली स्त्रियों ( कामवासना) का ( पिया लोगंसि इत्थिओ )
प्रश्न होता है कि यहां केवल स्त्रियों का ही ग्रहण क्यों किया गया है ? वृत्तिकार ने इस प्रश्न के समाधान में अनेक विकल्प प्रस्तुत किए है
अध्ययन १५ टिप्पण १५-१६ :
१. आस्रवों में स्त्री का प्रसंग प्रधान आश्रव है ।
१. वृत्ति, पत्र २६४ : नमनं नामकर्मनिर्जरणं तच्च सम्यग् जानाति, यदि वा कर्म जानाति तनाम च, अस्य चोपलक्षणार्थत्वा तद्भेदांश्च प्रकृति स्थित्यनुभावप्रदेशरूपान् सम्यगवबुध्यते, संभावनायां वा नामशब्दः ।
२ (क) चूर्णि, पृ० २४० : महावीरे इति आयतचारित्रो महावीर्यवान् ।
(ख) वृत्ति, पत्र २६४ : महावीर :- कर्मदारणसहिष्णुः ।
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३. वृत्ति, पत्र २६८ : तत्करोति येन कृतेनास्मिन् संसारोदने न पुनर्जायते तदभावाच्च नापि म्रियते, यदि वा - जात्या नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयमित्येवं न मीयतेन परिच्छिद्यते ।
४. चूर्ण, पृ० २४० : मज्जतो संसारोदधौ ।
५. वृत्ति, पत्र २६४ : न जात्यादिना 'मीयते' - परिच्छिद्यते, न म्रियते वा ।
६. वृत्ति पत्र २६४ ।
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