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________________ सूयगडो १ ६२५ अध्ययन १६ : टिप्पण २३-२७ उत्तराध्ययन सूत्र (२०।२१) में अणुण्णए नावणए महेसी' और दसवेआलियं (५।१।१३) में 'अणुन्नए नावणए' पद प्रयुक्त हैं। २३. परोषह और उपसर्गों को (परीसहोवसग्गे) परीषह का अर्थ है-जो कष्ट इच्छा के बिना प्राप्त होता है, वह परीषह है। ये बावीस हैं । देखें-उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन । उपसर्ग का अर्थ है-उपद्रव, बाधा । स्थानांग में उपसर्ग के चार प्रकार बतलाए हैं१. देवताओं से होनेवाला। २. मनुष्यों से होनेवाला। ३. तिर्यञ्चों से होनेवाला। ४. स्वयं अपने द्वारा होनेवाला।' २४. पराजित कर (संविधुणीय) परीषहों और उपसर्गों को समता से सहना, उनसे अपराजित रहना ही उनको धुनना है ।' २५. अध्यात्म योग के द्वारा शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध होता है (अज्झप्पजोगसुद्धादाणे) हमने इसका अर्थ चूणि के अनुसार किया है।' वृत्तिकार ने अध्यात्म योग का अर्थ-- सुसमाहित मन से धर्मध्यान करना-किया है। उनके अनुसार आदान का अर्थचारित्र है। २६. स्थितात्मा (ठिअप्पा) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अवस्थित । वृत्तिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है' जो परीषहों और उपसगों से अपराजित होकर मोक्ष-मार्ग में अवस्थित होता है, वह स्थितात्मा कहलाता है। २७. विवेक-संपन्न (संखाए) इसका संस्कृत रूप है-संख्याकः । हमने इसका अर्थ विवेक-सम्पन्न किया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार के अर्थ से भी यही फलित होता है। चणिकार ने इसका शब्द-परक अर्थ इस प्रकार किया है-जो गुण और दोषों की परिगणना करता है, वह 'संख्याक' कहलाता है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'संख्याय' और अर्थ-'जानकर' किया है। इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-संसार की १. तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय), पृष्ठ ३०१, सू० ९।१७ की वृत्ति-यदृच्छया समागतः परीषहः । २. ठाणं ४१५६७ : चउन्विहा उवसग्गा पण्णता, तं जहा-दिव्वा, माणुसा, तिरिक्खजोणिया, आयसंचयणिज्जा। विशेष विवरण के लिए देखें ठाणं, पृष्ठ ५३५, ५३६ । ३. वृत्ति, पत्र २७३ : द्वाविंशतिपरीषहान तथा दिव्यादिकानुपसर्गाश्चेति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्यक सहनं-तैरपराजितता। ४. चूणि, पृ० २४८ : अध्यात्मैव योगः, अध्यात्मयोगः, अध्यात्मयोगेन शुद्धमादत्त इति । ५. वृत्ति, पत्र २७३ : अध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धम्-अवदातमादानं-चारित्रं यस्य स । ६. चणि, पृ० २४८ : ठितप्पा णाण-दंसण-चरित्तेहि । ७. वृत्ति, पत्र २७३ : स्थितो.मोक्षाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसगैरप्यधृष्यः आत्मा यस्य स स्थितात्मा। ८. चूणि, पृ० २४८ : संखाए परिगणेत्ता गुणदोसे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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