SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूपगडो १ ६२४ अध्ययन १६ : टिपण २०-२२ से लगा हुआ है वह निश्रित है। निश्रित का आशय है-किसी के आश्रय में रहना। जो शरीर या कामभोगों से अप्रतिबद्ध है, उनके वश में नहीं है, वह अनिश्रित है।' २०. अनिदान ( आशंसा - मुक्त ) ( अणिदाणे) निदान का अर्थ है - पौद्गलिक सुख का संकल्प । यह तीन शल्यों में से एक शल्य है । व्रती वही हो सकता है जो शल्यों का निरसन कर देता है । इसलिए श्रमण को अनिदान कहा गया है, जो आकांक्षाओं से मुक्त है वह अनिदान कहलाता है ।" २१. आदान (आदाणं ) आदान का अर्थ है - ग्रहण, कर्महेतु । जिससे कर्म का ग्रहण होता है उसे आदान कहते हैं।" राग और द्वेष कर्म के आदान हैं। उत्तराध्ययन में राग और द्वेष को कर्म बीज कहा है ।" प्रस्तुत सूत्र में आदान के नौ प्रकार बतलाए गए हैं । उनमें अतिपात और बहिस्तात्- ये दो एक कोटि के हैं । चूर्णिकार के अनुसार इनका संबंध मूलगुण से है । क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष—ये दूसरी कोटि के हैं । चूर्णिकार ने इनका संबंध उत्तरगुण से बतलाया है । इस परंपरा में भी पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं है । चूर्णिकार ने 'बहिद्धा' शब्द के द्वारा मैथुन और परिग्रह का ग्रहण किया है तथा एक के ग्रहण से सबका ग्रहण होता है, यह एक न्याय है । इस न्याय के अनुसार मृषावाद और अदत्तादान का ग्रहण होता है ।' वृत्तिकार के अनुसार कर्मबंध के हेतुभूत साधन- कषाय, परिग्रह और पापकारी अनुष्ठान 'आदान' कहलाते हैं ।" सूत्र ५ २२. जो गर्वोन्नत तथा हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता ( अणुष्णते णावणते ) भिक्षु वह है जो गर्व से उन्नत नहीं है और हीनभावना से ग्रस्त नहीं है । प्रधानरूप से उन्नत दो प्रकार का है १. द्रव्य उन्नत शरीर से उन्नत - गर्वित । २. भाव उन्नत --- जाति आदि के मद से गर्वित । अनुन्नत ( अवनत ) भी दो प्रकार का होता है १. द्रव्य अनुन्नत - शरीर से अवनत । २. भाव अनुन्नत - जिसका मन हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता, वस्तु की अप्राप्ति होने पर 'मुझे कोई नहीं पूजता ' ऐसा सोचकर जो दुर्मना नहीं होता।" १. वृत्ति, प० २७३ : निश्चयेनाधिक्येन वा 'श्रितो' - निश्रितः न निश्रितोऽनिश्रितः क्वचिच्छरीरादावप्यप्रतिबद्धः । (ख) चूर्णि, पृ० २४७ : अणिस्सिते त्ति सरीरे काम-भोगेसु य । २. तत्त्वार्थ ७।१८ : निःशल्यो व्रती । ३. वृत्ति, प० २७६ : न विद्यते निदानमस्येत्यनिदानो निराकांक्षः । ४. चूर्णि, पृ० २४७ : आदाणं च य ेनाऽऽबीयते तदादानम्, राग-द्वेषौ हि कर्मादानं भवति । ५. उत्तरज्भयणाणि ३२।७ : रागो य दोसो वि य कम्मवीयं । कम्मं च मोहप्पभवं वयंति ॥ ६. ०२४७ हि मैथुन-परिग्रह एवमाह गुणास्तु — क्रोधं च माणं च Jain Education International सालाबादात्तादागाणां ग्रहणं रुतं भवति। उक्ता मूलगुणाः । उत्तर 1 ७. वृत्ति, प० २७३ : तथाऽऽदीयते - स्वीक्रियतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानं— कषायाः परिग्रहसावद्यानुष्ठानं वा । ८. वृषि, पृ० २४७ अण्णा पावते, ण उम्मते ते उच्च पापादि चतुब्विधो रगतो जो सरीरेण उणतो, सो भवितो, भावण्णतो जात्यादिमदस्तब्धो एव स्यात् । अवनतोऽपि शरीर भजितः, भावे तु दीनमना न स्यात्, अलामेन वा 'ण मे कोइ पूयेति' त्तिण दुम्मणो होज्ज । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy