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सूयगडो १
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अध्ययन १६ : टिप्पण १४-१६ ___ आत्मा नहीं है । वह नित्य नहीं है। वह कुछ नहीं करता । वह अपने कृत का वेदन नहीं करता । निर्वाण नहीं है और मोक्ष के उपाय नहीं हैं- ये छह मिथ्यात्व के स्थान हैं।'
यह मिथ्यादर्शन है । यह तीन शल्यों में एक शल्य है। १४. विरत होता है (विरते)
___ यह 'विरत' शब्द सभी पापकर्मों की विरति का सूचक है। चूर्णिकार का मत है कि जो इस सूत्र में उल्लिखित सभी पापों से विरत है वही यथार्थ में विरत है।'
वृत्तिकार ने 'मिच्छादसणसल्लविरते' पाठ मानकर अर्थ किया है।' क्वचित् 'सल्ले' पाठ भी मिलता है। १५. सम्यक् प्रवृत्त (समिए)
समित का अर्थ है-सम्यक् प्रवृत्त । जो ईर्यासमिति आदि पांचों समितियों से युक्त होता है, वह समित कहलाता है।' १६. ज्ञान आदि से संपन्न (सहिए)
सहित के दो अर्थ हैं१. परमार्थ भूत हित से युक्त । २. ज्ञान आदि से संपन्न ।
देखें-१२१५२ का टिप्पण । १७. सदा संयत (सया जए)
चर्णिकार ने 'सदा' का अर्थ सर्वकाल और 'यत' का अर्थ 'यती प्रयत्ने' धातु को उद्धृत कर प्रयत्नवान् किया है।' 'यमु उपरमे' धातु का क्त प्रत्ययान्त रूप 'यतः' बनता है। वही यहां विवक्षित है। १८. अभिमानी नहीं होता (णो माणी)
इसका अर्थ है-गर्व न करे । मैं उत्कृष्ट तपस्वी हूं-ऐसा मान न करे । वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है'जह सो वि निज्जरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेसमयठ्ठाणा, परिहरियव्वा पयत्तेणं ।'
आठ मद-स्थानों का परिहार करने वालों ने निर्जरा-मद का भी प्रतिषेध किया है। अत: शेष मद-स्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना ही चाहिए।'
१६. अप्रतिबद्ध (अणिस्सिए)
वृत्तिकार ने निश्रित का निरुक्त इस प्रकार किया है-निश्चयेन आधिक्येन वा श्रित:-निश्रितः-जो निश्चय से या बहुलता १. वृत्ति, प० २७२। २. चूणि, पृ० २४७ : एवमादीसु पावकम्मेसु जो विरतो सो विरतसव्वपावकम्मे । ३. वृत्ति, प० २७२। ४. वृत्ति, प० २७२ : सम्पगितः समितः-ईर्यासमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिः समित इत्यर्थः । ५. वृत्ति, प० २७२ : सह हितेन-परमार्थभूतेन वर्तत इति सहित: यदि वा सहितो-युक्तो ज्ञानादिभिः । ..चूर्णि, पृ० २४७ : सदा सम्वकालं, "यती प्रयत्ने" सर्वकालं प्रयत्नवानीति । ७. वृत्ति, प० २७२।
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