________________
सूयगडो १
अध्ययन १६:टिप्पण ७-१३
सूत्र ३: ७. सब पाप कर्मों से विरत होता है (विरतसव्वपावकम्मे)
चूर्णिकार ने इस संदर्भ में दो सूचनाएं दी हैं'-- १. पन्द्रह अध्ययनों में मुनि के गुण बतलाए हैं । उन गुणों से सर्वपापकर्मविरत फलित होता है।
२. राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति-अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शन शल्य-इन नौ पापकों से जो विरत होता है वह सर्वपापकर्मविरत कहलाता है।
इससे अनुमान किया जा सकता है कि अठारह पापकर्मों की परंपरा से पूर्व नौ पापकर्मों की परंपरा भी रही है। इन नौ पापकर्मों से विरत होने का अर्थ सब पापकर्मों से विरत होना है। ८.प्रेय (पेज्ज)
प्राचीनकाल में प्रेम के अर्थ में 'प्रेयस्' शब्द अधिक प्रचलित रहा है। उपनिषद् काल में इस शब्द का प्रचुरता से उपयोग हुआ है। प्रेयस् अर्थात् प्रेम या राग। ..आरोप (अब्भक्खाण)
अभ्याख्यान अर्थात् झूठा आरोप लगाना, जैसे-तूने ही यह किया है।' १०. परनिन्दा (परपरिवाव)
दूसरे व्यक्ति के गुणों को सहन न कर सकने के कारण उसके दोषों का उद्घाटन करना, परनिन्दा करना। ११. अरति-रति (अरति-रति)
धर्म के प्रति अरति-अनुत्साह और अधर्म के प्रति रति-उत्साह ।'
संयम के प्रति चित्त का उद्विग्न होना अरति और विषयों के प्रति आसक्ति का होना रति है।' १२. माया-मृषा (मायामोस)
मायामृषा का अर्थ है-माया सहित झूठ बोलना । दूसरे को ठगने के लिए असद् अर्थ का आविर्भाव करना मायामृषा है।। १३. मिथ्यावर्शनशल्य (मिच्छादसणसल्ल...)
मिथ्यादर्शन का अर्थ है-अतत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश अथवा तत्त्व में अतत्त्व का अभिनिवेश । चूणिकार और वृत्तिकार ने एक गाथा को उद्धृत कर मिथ्यात्व के छह स्थानों का उल्लेख किया है।' 'णस्थि ण णिच्चो ण कुणति, कतं ण वेदेति णत्थि जेव्वाणं । णस्थि य मोक्खोवायो, छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥'
(सन्मतितर्क, काण्ड ३, गाथा ५४)
.१.णि, पृ० २४७ : जे एते अज्झयणेसु गुणा वृत्ता ताहि वुत्तो विरतसव्वपावकम्मो, सव्वसावज्जजोगविरतो ति मणितं होति। अथवा
विरतसव्वपावकम्मो त्ति सुत्तण चेव भणितं, तं जधा-पिज्ज-बोस ...। २. चूणि, पृ० २४७ : अब्भक्खाणं असम्भूताभिनिवेसो यथा-त्वमिदमकार्षीः । ३. वृत्ति, पत्र २७२: परस्य परिवादः काक्वापरदोषापादनं । ४. चूणि, पृ०२४७ : अरती धम्मे । अधम्मे रती। ५ वृत्ति, पत्र २७२ : अरतिः चित्तोद्व गलक्षणा संयमे, तथा रतिः-विषयाभिष्वङ्गः। ६. वृत्ति, पत्र २७२ : माया-परवञ्चना तया कुटिलमतिम॒षावाद-असवर्थाभिधानं गामश्वं ब्रवतो भवति । ७. चर्णि, पृ० २४७ ॥
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org