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________________ टिप्पण: अध्ययन १६ १. (अथ) चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार इस श्रुतस्कंध का आदि-मंगल वाचक शब्द है 'बुज्झज्ज' (१/१) और यह 'अथ' शब्द अन्त-मंगल है । आदि और अन्त मंगल के कारण यह सारा श्रुतस्कंध मंगलरूप है । 'अथ' शब्द का एक अर्थ आनन्तर्य भी है। २. उपशान्त (दंते) दान्त वह होता है जो अपनी पांचों इन्द्रियों तथा चार कषायों का निग्रह करता है।' ३. शुद्ध चैतन्यवान् (दविए) द्रव्य का अर्थ है --भव्यप्राणी, शुद्ध चैतन्यवान्, मोक्षगमन-योग्य । जो राग-द्वेष की कालिमा से रहित होता है, वह द्रव्य कहलाता है । जैसे स्वर्ण विजातीय पदार्थ से रहित हो जाता है तब वह शुद्ध द्रव्य कहलाता है।' ४. देह का विसर्जन करने वाला (वोसट्टकाए) जो अपने शरीर का प्रतिकर्म नहीं करता, जो शरीर की सार-संभाल छोड़ देता है, वह व्युत्सृष्टकाय कहलाता है।' देखें-दसवेआलियं १०/१३ का टिप्पण, पृष्ठ ४६३, ४६४ । सूत्र २ ५. भंते ! (भंते !) चूर्णिकार के अनुसार यह तीर्थंकर का आमंत्रण है।' वृत्तिकार ने इसके चार अर्थों के वाचक चार शब्द दिए हैं-भगवन् !, भदन्त !, भयान्त ! और भवान्त ।' ६. महामुनि (महामुणी !) ___ महामुनि अर्थात् तीर्थंकर, श्रमण महावीर ।' १. (क) चूणि, पृ० २४६ : अथेत्ययं मङ्गलवाची आनन्तर्ये च द्रष्टव्यः । यदिवमुदितं पञ्चदशानामध्ययनानामन्तरे वर्तते, आदी मंगलं "बुज्झज्ज" (सूत्र १/१/१) त्ति, इहाप्यथशब्दः अन्ते, तेन सर्वमङ्गल एवायं श्रुतस्कन्धः। (ख) वृत्ति, पत्र २७१ : 'अथे' त्ययं शब्दोऽवसानमङ्गलार्थः, आदिमङ्गलं तु बुध्येतेत्यनेनाभिहितं, अत आद्यन्तयोर्मङ्गलत्वात् सर्वोऽपि श्रुतस्कन्धो मङ्गलमित्येतदनेनावेदितं भवति । आनन्तर्ये वाऽयशब्दः । २. चूणि, पृ० २४६ : वंते इंदिय-णोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोइंदिय दमादि पंचविधो, णोइंदियदमो कोधणिग्गहावि चतुम्विधो । ३. वृत्ति, पत्र २७१ : द्रव्यभूतो मुक्तिगमनयोग्यत्वात्, 'द्रव्यं च भव्ये' इति वचनात्, रागद्वेषकालिकापद्रव्यरहितत्वाता जात्यसुवर्णवत् शुद्धद्रव्यभूतः। ४. (क) चूणि, पृ० २४६ : बोसटुकाए त्ति अपडिकम्मसरीरो, उच्छृढसरीरे ति वृत्तं होति । (ख) वृत्ति, पत्र २७१ : व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया काय:-शरीरं येन स भवति व्युत्सृष्टकायः । ५. चूर्णि, पृ० २४६ : भंते त्ति भगवतो तित्थगरस्स आमंतणं । ६. वृत्ति पत्र २७२ : एवं भगवतोक्ते सति प्रत्याह तच्छिष्यः-भगवन् !, भदन्त !, भयान्त !, मवान्त इति वा। ७. (क) चूणि, पृ० २४७ । (ख) वृत्ति, पत्र २७२। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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