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________________ सूयगडो १ अध्ययन १६ : टिप्पण २८-३१ असारता, कर्मभूमि की दुष्प्राप्ति और बोधि की दुर्लभता को जानकर तथा संसार-समुद्र से पार लगानेवाली सारी साधन-सामग्री को पाकर जो संयम के प्रति उद्यमशील होता है वह संख्याक (?) कहलाता है। २८. परदत्तभोजी (परदत्तभोई) जैन मुनि परदत्तभोजी होता है । 'पर' का अर्थ गृहस्थ भी है। गृहस्थ के द्वारा अपने लिए बनाया हुआ, प्रासुक और एषणीय आहार लेनेवाला--यह इस शब्द का वाच्य है।' सूत्र ६: २६. अकेला (एगे) इसका अर्थ है- अकेला । चूणिकार ने इसकी मीमांसा दो प्रकार से की है-द्रव्य से अकेला और भाव से अकेलाजिनकल्प मुनि द्रव्य से भी अकेले होते हैं और भाव से भी अकेले होते हैं। स्थविरकल्पी मुनि भाव से अकेले होते हैं और द्रव्य से अकेले होते भी हैं और नहीं भी होते ।' वृत्तिकार ने 'एक' के दो अर्थ किए हैं१. रागद्वेषरहित, मध्यस्थ ।। २. प्राणी स्वसुखदुःख का भोग अकेला ही करता है-इस दृष्टि से 'एक' ।' ३०. एकत्व भावना को जानता है (एगविदू) इसका अर्थ है-एकत्व भावना को जानने वाला। चूर्णिकार के अनुसार एकविद् वह होता है जो यह भावना करता है कि मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं। १. अकेला ही आत्मा परलोकगामी होता है । २. दुःख से बचाने वाला कोई भी सहायक नहीं है । ३१. जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं (संछिण्णसोए) स्रोत का अर्थ है-कर्माश्रव के द्वार । उनको छिन्न करने वाला-संछिन्नस्रोत कहलाता है।' स्रोत ऊपर भी हैं, नीचे भी हैं और तिरछे भी हैं। १. वृत्ति, पत्र २७३ : संख्याय परिज्ञायासारतां संसारस्य दुष्प्रापतां कर्मभूमेोधेः सुदुर्लभत्वं चावाप्य च सकला संसारोत्तरणसामग्री ___सत्संयमकरणोद्यतः। २. (क) चूणि, पृ० २४८ : परदत्तभोइ ति परकड-परिणिट्टितं फासुएसणिज्जं मुंजति त्ति। (ख) वृत्ति, पत्र २७३ : परैः-गृहस्थैरात्मार्थ निर्वतितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शोलमस्य परबत्तभोजी। ३. चूणि, पृ० २४८: एगे बव्वतो मावतो य, जिणकप्पिओ बब्वेगो वि मावेगो वि, थेरा भावतो एगो, बवतो कारणं प्रति भइता। ४. वृत्ति, पत्र २७४ : 'एको' रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदि वाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटनसुमान् स्वकृतसुखदुःखफलमाक्त्वेनकस्यौव परलोकगमनतया सदैकक एव भवति । ५. चूणि, पृ० २४८ : एगविदू एकोऽहं न च मे कश्चित् । ६. वृत्ति, पत्र २७४ : तथैकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीत्येकवित्, न मे कश्चिद्द :वपरित्राणकारी सहायोऽस्तीत्येवमेकवित् । ७. (क) चूणि, पृ० २४८ : सोताई कम्मासवदाराई, ताई छिण्णाई जस्स सो छिण्णसोतो। (ख) वृत्ति, पत्र २७४ : सम्यक् छिन्नानि-अपनीतानि मावस्रोतांसि संवृतत्वात् कर्माश्रवद्वाराणि येन स तथा। ८. आयारो, ५३११८ : उड्ड सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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