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________________ सूयगडो १ २८९ अध्ययन ६ : टिप्पण १४-१५ १४. कुशल (कुसले) इसका व्युत्पत्तिक अर्थ है-कुशों का छेदन करने वाला । कुश दो प्रकार के हैं'द्रव्य कुश-घास । भाव कुश-कर्म। जो कर्म का छेदन करने में निपुण हैं वह कुशल कहलाता है।' कुशल का अर्थ है ज्ञानी । धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्ध विहारी, कथनी और करणी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है।' पातंजल योग दर्शन में इसका अर्थ इस प्रकार है जो योगी सात प्रकार की प्रज्ञाओं का अनुदर्शन करता है, वह 'कुशल' कहलाता है। दूसरे शब्दों में जीवन्मुक्त योगी को कुशल कहा जाता है। सात प्रकार की प्रज्ञाएं ये हैं१. समस्त हेय का परिज्ञान हो जाना। २. समस्त हेय-हेतु का क्षीण हो जाना । ३. निरोध-समाधि के द्वारा 'हान' का साक्षात् हो जाना। ४. विवेकख्यातिरूप हानोपायभावित हो जाना। ५. भोग तथा अपवर्ग निष्पादित हो जाना। ६. बुद्धि का स्पंदन निवृत्त हो जाना । क्लिष्ट और अक्लिष्ट संस्कारों के अपगमन से चित्त का शाश्वतिक निरोध होकर, स्फुट प्रज्ञा का उदित हो जाना। ७. इस प्रज्ञावस्था में पुरुष का गुण-सम्बन्ध से शून्य, स्व-प्रकाशमय, अमल और केवलीरूप हो जाना । १५. मेधावी (मेहावी) मेधावी दो प्रकार के होते हैं-ग्रन्थ-मेधावी और मर्यादा-मेधावी। जो बहुथ त होता है, अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करता है, उसे ग्रन्थ-मेधावी कहा जाता है । मर्यादा के अनुसार चलने वाला मर्यादा-मेधावी कहलाता है।' यहां मेधावी का अर्थ -आत्मानुशासी या तत्त्वज्ञ किया जा सकता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां 'आसुपण्णे' पाठ की व्याख्या की है। चूणि में 'आसुपण्णे' के साथ 'महेमी' पाठ भी है। इसका अर्थ महर्षि अथवा महैषी - महान् की एपणा करने वाला किया है।' १. चूणि, पृ० १४२ : कुशलो द्रव्ये भावे च । द्रव्ये कुशान् लुनातोति द्रव्यकुशलः । एवं भावे वि, भावकुशास्तु कर्म । २. वृत्ति, पत्र १४३ : भावकुशान्-अष्ट विधकर्मरूपान् लुनाति-छिनत्तीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निपुण इत्यर्थः । ३. आयारो, पृ० १२०। ४. पातंजल योग दर्शन २०२७ : तम्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा । ......... एतां सप्तविधां प्रान्तभूमिप्रज्ञामनुपश्यन्पुरुषः कुशल इत्याख्यायते प्रतिप्रसवेऽपि चित्तस्य मुक्तः कुशल इत्येव भवति गुणातीतत्वादिति। ५. पातंजल योग दर्शन २०२७, हरिहरानन्द व्याख्या, पृ० २१४-२१६ । ६. दसवेआलियं, जिनदास चूणि, पृ० २०३ : मेधाबी दुविहो, तं०-गंथमेधावी, मेरामेधावी य, तत्थ जो महंतं गंयं अहिज्जति सो गय मेधावी, मेरामेधावी गाम मेरा मज्जाया भण्णति तीए मेराए धावतित्ति मेरामेधावी। ७. (क) चूणि, पृ० १४३ : आशुप्रज्ञो आशु एव प्रजानीते, न चिन्तयित्वा इत्यर्थः । महेसी महरिसी, महान्तं वा एसतीति महेसी। (ख)वृत्ति, पत्र १४३ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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