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________________ सूयगडो १ २६० अध्ययन ६ : टिप्पण १६-१८ वृत्तिकार ने महर्षि को पाठान्तर मान उसका अर्थ - अत्यन्त उग्र तपस्या करने वाला तथा परीषहों के भीषण उपसर्गों को सहने वाला श्रमण किया है।" १६. आलोक पथ में स्थित ( चनखुप ठिपस्स) इसका अर्थ है - जो समस्त प्राणियों के चक्षुपथ में स्थित है अर्थात् चक्षुर्भूत है । जैसे अन्धकार में पड़े हुए पदार्थ प्रदीप के आलोक में अभिव्यक्त होते हैं वैसे ही भगवान् के द्वारा प्रदर्शित तत्त्वों को भव्य प्राणी देख पाते हैं । जैसे दीपक के अभिव्यक्त नहीं होते, वैसे ही भगवान् के अभाव में सत्य की अभिव्यक्ति नहीं होती। इसलिए भगवान् सबके में स्थित हैं।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १. भवस्थ केवली ( सशरीर केवली ) की अवस्था में स्थित । २. सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को अभिव्यक्त करने के कारश चक्षुर्भूत ।" १७. देखो (पेह) चूर्णिकार ने 'पेधं' पाठ मान उसका अर्थ प्रेक्षा किया है। इस प्रकार धर्म, धृति और प्रेक्षा- तीनों के बारे में जानकारी दी है । भगवान् का धर्म पूर्ण वीतरागता का विकास था । उनकी धृति वस्त्र की भित्ति के समान अभेद्य थी। उनकी प्रेक्षा संवेदना से ऊपर केवलज्ञानमय थी । * इलोक ४ : १८. जो उस और स्थावर प्राणी हैं (तसा व जे धावर जे व पाणा) इसमें 'थावर' शब्द विभक्ति रहित है। यहां 'थावरा' होना चाहिए था । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने तीन प्रकार के त्रस और तीन प्रकार के स्थावर प्राणियों का उल्लेख किया है । तीन प्रकार के त्रस - १. तेजस्काय और वायुकाय । यद्यपि इनकी गणना स्थावरों में होती है, किन्तु गति करने के कारण ये कहलाते हैं। २. चार विकलेन्द्रिय । ३. पञ्चेन्द्रिय । तीन प्रकार के स्थावर - १. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. वनस्पतिकाय ।" देखें - ठाणं ३।३२६, ३२७ । Jain Education International अभाव में पदार्थ है, आलोकपथ १. वृति पत्र १४३ महविरिति क्वचित्पाठः महश्वासावृविश्व महर्षिः अस्कतोपतपश्चरणानुष्ठाविश्वातुलपरीयोपसर्गसहनाच्चेति । २. चूर्ण, पृ० १४३ : पश्यतेऽनेनेति चक्खु, सर्वस्यासौ जगतश्चक्षुष्पथि स्थितः चक्षुर्भूत इत्यर्थः । यथा तमसि वर्तमाना घटावयः प्रदीपेनाभिव्यक्तायन्ते न तु तदभावे एवं भगवता प्रशितानर्थान् भय्याः पश्यन्ति यद्यसन स्वात् तेन जगतो जात्यन्धस्य सतोऽन्धकारं स्यात् danssवित्यवदसौ जगतो भावचक्षुष्पथे स्थितः । ३. वृत्ति, पत्र १४४ : लोकस्य 'चक्षुः पथे' लोचनमार्गे भवस्थ केवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन ५. (क) चूर्णि, पृ० १४३ : ये स्थावराः त्रिप्रकारा ये च त्रसाः त्रिप्रकारा एव । (ख) वृत्ति, पृ० १४४ प्रस्वन्तीति प्रसास्तेजोवायुरूप भेदात् त्रिविधाः । गति - त्रस 1 भूतस्य वा । ४. चूर्णि पृष्ठ १४३ किविधो धर्मः घृतिः प्रेक्षा वा ? अवियानीत्यर्थ चारिधर्मः अधिक थिति बसमा, पेक्खा केवलणाणं । For Private & Personal Use Only पिचेन्द्रियमेवात् त्रिधा तथा ये च 'स्थावराः पृथिव्याम्बुवनस्पति www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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