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सूयगडो १
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अध्ययन ५:ठिप्पण ८९-९१
जीवनदात्री होने के कारण उसे 'संजीवनी' कहां गया है। यह किसी नरक विशेष का नाम नहीं है।
बौद्ध साहित्य में 'संजीव' नामक नरक का यही वर्णन मिलता है । बौद्ध परंपरा में आठ ताप-नरक माने जाते हैं। पहला नरक है अवीचि और आठवां है संजीव । दूसरे नरक से आठवें नरक तक दुःख निरंतर नहीं होता। संजीव नरक में पहले शरीर भग्न होते हैं । वे रजकण जितने सूक्ष्म हो जाते हैं । पश्चात् शीतल वायु से वे पुनः सचेतन हो जाते हैं। इसलिए इस नरक का नाम 'संजीव' है। ८९. चिरस्थिति वाली (चिरटिईया)
नरक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है। वह चिरस्थिति वाली है, अर्थात् वहां के नैररियकों का आयुष्य तेतीस सागर का है।
चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है-नरक तथा कर्म के अनुभाव से नैरयिक जीव हजारों बार पीसे जाते हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाते हैं, फिर भी वे पुनः संध जाते हैं, पारे की भांति एकत्रित हो जोते हैं, पूर्ववत् हो जाते हैं। अतिवेदना के कारण वे नैरयिक मृत्यु की कामना करते हैं, फिर भी वे मर नहीं पाते। इसलिए उन्हें वहां चिरकाल तक रहना पड़ता है।' ६०. पापचेता (पावचेया)
पूर्वजन्म में पाप करने के कारण प्राणी नरक में जाता है। वहां सब पापचित्त वाले ही होते हैं। कोई कुशलचेता वहां उत्पन्न नहीं होता, जिससे कि वहां के प्राणी अपापचेता हो जाएं ।'
श्लोक ३७ :
६१. ग्लानि का अनुभव करते हैं (गिलाणा)
वे नैरयिक जीव सदा ग्लान रहते हैं । कहां कोई आश्वासन नहीं है। जैसे महाज्वर से अभिभूत रोगी निष्प्राण और निर्बल हो जाता है, वैसे ही वे सदा दस प्रकार की वेदना को भोगते हैं। दस प्रकार की वेदना का उल्लेख स्थानांग में मिलता है - १. (क) चुणि, पृ० १३६ : एवं यथोद्दिष्टर्वेदनाप्रकारभक्ष्यमाणाश्च स्वाभाविकनिरयपालकृतैर्वा पक्ष्यादिभिः छिन्नाः क्वथिता वा
सन्तो वेदनासमुद्घातेन समोहता सन्तो मृतवदवतिष्ठन्ति । यह मूच्छिता उदकेन सिक्ताः पुनरुज्जीविता इत्यपदिश्यन्ते एवं ते
मूच्छिताः सन्तः पुनः पुनः सजीवन्तीति सञ्जीविवः सर्व एव नरका संजीवणा । (ख) वृत्ति, पत्र १३७ । २. अभिधर्मकोश, पृ० ३७२, आचार्य नरेन्द्र देव । ३ (क) चूणि, पृ० १३६ : चिरद्वितीया णाम जधण्णेण दस वाससहस्साणि उक्कोसेणं तेत्तीससागरोबमाणि । अथवा चिरं मृता हि
ठंतीति चिरद्वितीया, नरकानुभावात् कर्मानुभावच्च यद्यपि पिज्यन्ते सहस्रशः क्रियन्ते तथापि पुन: संहन्यन्ते, इच्छन्तोऽपि मर्नु
तथापि न म्रियन्ते । (ख) वृत्ति, पत्र १३७ । ४. चूणि, पृ० १३६ : पापचेत ति पूर्व पापचेता आसीत् सा प्रजा, साम्प्रतमपि न तत्र किञ्चित् कुशलचेता उत्पद्यते येनापापचेता सा
प्रजा स्याविति । ५. चूणि, पृ० १३७ : जमकाइएहि नेरइएहिं च न तत्र समाश्वासोऽस्ति । नित्यग्लाना इति महाज्वराभिभूता इव निष्प्राणा निर्बला
नित्यमेव च नारका दसविधं वेवणं वेदेति । ६. ठाणं, १०.१०८ : रइया णं दसविधं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-सीतं, उसिणं, खुधं, पिवासं, कंडु, परज्झ, भयं,
सोगं, जरं, वाहि।
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