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सूयगडो १
अध्ययन ५ : टिप्पण ८४-८८
वृत्तिकार ने भी विधूम का अर्थ अग्नि किया है। इसे वर्तमान के विद्युतीय युग में सम्यग् प्रकार से समझा जा सकता है। नरक की अग्नि विद्युत् है, जिसे इंधन की अपेक्षा नहीं है । हजार योजन से ऊपर या नीचे अग्नि नहीं होती। ऑक्सीजन के बिना अग्नि नहीं जलती। बिजली अग्नि नहीं है।
देखें-५७, ३८ का टिप्पण । ८४. करुण रुदन करते हैं (कलुणं थणंति)
यहां करुण का अर्थ-अपरित्राण, निराक्रन्दन । वे नैरयिक करुण रुदन करते हैं, क्योंकि उनका परित्राण करने वाला कोई वहां नहीं होता । वे असहाय होते हैं, अत: उनका रुदन करुण होता है । जिनको परित्राण प्राप्त है, वे यद्यपि रुदन करते हैं, परन्तु उनका वह रुदन अतिकरुणाजनक नहीं होता ।
वृत्तिवार ने करुण का अर्थ दीन किया है।' ८५. बकरे (अयं)
इसके दो अर्थ हैं-अज-बकरा और अयस् -लोह । चूणिकार ने मूल अर्थ 'अज' और वैकल्पिक अर्थ 'लोह' किया है।' ८६. ओंधे सिर कर (अहोसिरं क१)
कुछ नरकपाल उन नैरयिक जीवों को ओंधा लटकाकर काटते हैं और कुछ नरकपाल उनको काटकर फिर ओंधा लटकाते हैं।
तुलना-एते पतन्ति निरये उखपादा अवंसिरा।
इसीनं अतिवत्तारो संयनानं तपस्सिनं ॥
(जातक ५।२६६ तथा संयुक्तनिकाय २७।५) -जो पुरुष ऋषि, संयत और तपस्वियों का अपवाद करते हैं, वे सिर नीचे और पैर ऊपर कर नरक में पड़ते हैं ।
श्लोक ३६: ८७. शूल पर लटकते (समूसिया)
जैसे चांडाल मृत शरीर को लटकाते हैं, वैसे ही नरकपाल उन नैरयिक जीवों को खंभों पर ओंधा लटकाते हैं।
८८. संजीवनी (संजीवणी)
वह नरकभूमि बार-बार जिलाने वाली होने के कारण उसका नाम 'संजीवनी' है। वहां के नैरयिक जीव नरकपालों के द्वारा दी गई, परस्पर उदीरित तथा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न वेदना से छिन्न-भिन्न, क्वथित या मूच्छित होकर वेदना का अनुभव करते हैं, परन्तु मरते नहीं । उनका खंड-खंड कर देने पर भी वे नहीं मरते क्योंकि उनकी आयु अवशेष होती है। जैसे मूच्छित व्यक्ति पर पानी के छींटे ढालने से वे सचेत हो जाते हैं, वैसे ही वे नैरयिक भी पुनः पुनः जीवित होते रहते हैं। वह स्थान संजीवनी की भांति १. वृत्ति, पत्र १३६ । विधूमस्य अग्नेः स्थानम् । २ चूणि, पृ० १३६ : कलुणं वर्णति, कलुणमिति अपरित्राणं निराक्रन्दमित्यर्थः, सपरित्राणा हि यद्यपि स्तनन्ति वा तथापि तन्नाति
करणम् । ३. वृत्ति, पत्र १३६ : करणं दोनम् ।। ४. वृणि, पृ० १३६ : अयो छगलगो, अयेन तुल्यं अयवत् । ५. चूणि, पृ० १३६ : अघोसिरं कार के विगित्तंति, केइ विगंतिऊण पच्छा अघोसिरं बंधति । ६. वृत्ति, पत्र १३७ : तत्र नरके स्तम्मावो ऊर्ववाहवोऽधःशिरसो वा श्वपाकै स्तबल्लम्बिताः ।
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