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सूयगडो १
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अध्ययन ५: टिप्पण ७८-८३
श्लोक ३४: ७८. कडाही में (कंदूसु)
___ इसका अर्थ है-पकाने का पात्र ।' ७६. द्रोण (बड़े कौए) (उड्ढकाएहि)
वस्तुतः यह पाठ 'उड्डकाएहि' होना चाहिए था। 'उड्ड' देशी शब्द है । इसका अर्थ है दीर्घ या बड़ा। 'उडुकाएहि' का अर्थ है-द्रोणकाक या बड़ा कौआ। चूर्णिकार के अनुसार इनकी चोंच लोहमयी होती है। ये अपने भक्ष्य को उड़ते-उड़ते ही पकड़कर खा डालते हैं। ८०. सिंह-व्याघ्र आदि (सणप्फहिं)
इसका अर्थ है ---वैसे जानवर जिनके पैरों में बड़े-बड़े तीखे नाखून हों। चूर्णिकार ने इस पद से सिंह, व्याघ्र, वृक, शृगाल आदि का ग्रहण किया है। ८१. श्लोक ३४
प्रस्तुत श्लोक में चूर्णिकार ने 'उप्पतंति' के स्थान में 'उप्फिडंति' तथा 'पखज्जमाणा' के स्थान में 'विलुप्पमाणा' पाठ मानकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है
नरकपाल अज्ञानी नैरयिक जीवों को पाक-भाजन में डालकर पकाते हैं। वे भुने जाते हुए ऊपर उछलते हैं। (नैरयिक पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं) तब ऊपर उड़ने वाले विविध द्रोणकाक, (जिनकी चोंच लोहे की होती है) उन्हें खाते हैं। खाते समय कुछ टुकड़े नीचे पृथ्वी पर पड़ते हैं । उन्हें सिंह, व्याघ्र, मृग, शृगाल आदि पशु खा डालते हैं।'
श्लोक ३५ : ८२. बहुत ऊंचा (समूसियं)
चूर्णिकार के अनुसार यह स्थान ऐसा है जहां नैरयिक जीवों को विनष्ट किया जाता है।"
वृत्तिकार ने इसका अर्थ--चिता के आकार वाला (स्थान) किया है। चिता की रचना उच्छ्रित होती है। वह नरक का स्थान भी उच्छ्रित है, ऊंचा है। ८३. विधूम अग्नि का स्थान (विधूमठाणं)
___यहां अग्नि के लिए विधूम शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्य लोक में अग्नि दो प्रकार की होती है-धूम सहित और निर्धूम । नरक में इंधन से प्रज्वलित अग्नि नहीं होती। वह निरंधन ही होती है। चूर्णिकार ने बताया है जो अग्नि इंधन से ही प्रज्वलित होती है, उससे धुंआ अवश्य ही निकलता है। नरक की अग्नि निरंधन होती है। चूर्णिकार ने इसका दूसरा अर्थ यह किया है-वहां केवल निर्धूम अंगारे हैं । निर्धूम अंगारों का ताप बहुत अधिक होता है।' १. चूणि, पृ० १३६ : अयकोट-पिट्ठ-पयणगमादीसु पयणगेसु । २. चूणि, पृ० १३६ : उड्डकाया णाम द्रौणिकाकाः ते उप्फिडिता वि सन्ता उडकाएहि विविधेहि अयोमुहेहि खज्जति । ३. चूणि, पृ० १३६ : सिंघव्याघ्र-मृ (? वृ) ग-शृगालादयः विविधाः । ४. चूणि, पृ० १३६ । ५. चूणि, पृ० १३६ : तत्थ ते णेरइया समूसविज्जति, ओसवितं विनाशितमित्यर्थः । ६. वृत्ति, पत्र १३६ : समूसियं नाम इत्यादि सम्यगुच्छ्तिं चितिकाकृतिः । ७. चूणि, पृ० १३६ : विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलित: सेन्धनस्य हग्नेरवश्यमेव घूमो भवति ।
अथवा विधूमवद्, विधूमानां हि अङ्गाराणामतीव तापो भवति ।
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