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________________ सूयगडो १ २६२ अध्ययन ५ : टिप्पण ७१-७७ श्लोक ३२: ७१. बलात् (बला) इसका अर्थ है--बलात, इच्छा न होते हुए भी। चूणिकार ने इसका एक अर्थ और किया है-घोर बल वाले।' ७२. दुर्गम स्थान में (अभिदुग्गंसि) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अति विषम स्थान किया है। वृत्तिकार ने कुंभी, शाल्मली आदि को विषम स्थान माना है।' ७३. प्रेष्यों (पेसे) जिन्हें बार-बार काम में नियोजित किया जाता है, वे दास, नौकर आदि कर्मकर प्रेष्य कहलाते हैं । श्लोक ३३ : ७४. पथरीले मार्ग पर (संपगाढंमि) चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. निरंतर वेदनामय मार्ग । २. पथरीला मार्ग। वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं - १. बहु वेदनामय असह्य नरक । २. बहुत पीडाकारक मार्ग। ७५. सामने से गिराई जाने वाली (अभिपातिणीहि) नरकपालों द्वारा सामने से गिराई जाने वाली शिलाएं सामने ही आकर गिरती हैं, अन्यत्र नहीं।' ७६. संतापनी (संतावणी) चूणिकार ने इसका अर्थ 'संतापनी' नामक नरक किया है। सभी नरक संताप उत्पन्न करने वाले होते हैं। बैंक्रियलब्धि से उत्पन्न अग्नि से नैरयिक जीव विशेष रूप से संतापित किए जाते हैं । वृत्तिकार इसे 'संतापनी' नामक कुंभी मानते हैं।' ७७. चिरकालीन स्थितिवाली (चिरट्टिईया) नरक में जघन्य अवधि दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अवधि तेतीस सागर की होती है। वहां वे जीव चिरकाल तक रहते हैं। १. चूणि, पृ० १३५ : बलात् ............बलात्कारेण, अथवा बला घोरबला इत्यर्थः । २. चूणि, पृ० १३५ : अभिदुग्गं भृशं दुर्ग वा।। ३. वृत्ति, पत्र १३६ : अभिदुर्गे कुम्भीशाल्मल्यादौ । ४ चूणि, पृ० १३५ : पुनः पुनः प्रेष्यत्त इति प्रेस्याः दासा भृत्या वा। ५.णि, पृ० १३५ : नानाविधाभिर्वेदनामि शं गाढं गाढं सम्प्रगाढं निरन्तरवेदन मिति वा । अधवा सम्बाधः पथः सम्प्रगाढः ..... .........शर्करा-पाषाणपथं । ६. वृत्ति, पत्र १३६ : सम्प्रगाढं मिति बहुवेदनमसह्य नरकं मागं वा। ७. चूणि, पृ० १३५ : शिलाभिविस्तीर्णाभिक्रियादिभिरभिमुखं पतन्तीभिः अभिपातमाना नान्यत्र पतन्तीत्यर्थ । ८ चूणि, पृ० १३५ : सर्व एव नरकाः सन्तापात, विशेषेण तु वैक्रियाग्निसन्ता(पिता)। १. वृत्ति, पत्र १३६ : सन्तापयतीति सन्तापनी कुम्भी । १०. चूणि, पृ० १३५ : चिरं तिष्ठन्ति ते हि चिरद्वितीया, जघण्णेण दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीससाउरोवमाणि । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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