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सूयगडो १
अध्ययन ५ : टिप्पण ६८-७०
चलने में स्खलित होते हैं तब उन्हें आरों से बींधते हैं या पीठ पर कोड़े मारते हैं ।
वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ है
नरकपाल नरयिकों को एकान्त में ले जाते हैं और उनके द्वारा दी जाने वाली वेदना के अनुरूप उनके द्वारा किए गए कार्यों की स्मृति कराते हैं । वे कहते हैं -हम तुझे तांबा या शीशा इसीलिए पिला रहे हैं कि तू पूर्वजन्म में मद्यपायी था। हम तुझे तेरे शरीर का मांस इसीलिए खिलाते हैं कि तू पूर्वजन्म में मांस खाता था। इस प्रकार दुःखानुरूप अनुष्ठान का स्मरण दिलाते हुए उनकी कदर्थना करते हैं और निष्कारण ही उन पर रुष्ट होकर पीठ पर कोड़े मारते हैं।
चणिकार ने 'सरयंति' के दो अर्थ किए हैं-चलना और स्मरण कराना । वृत्तिकार ने केवल एक ही अर्थ किया हैस्मरण दिलाना।
चूर्णिकार ने 'रहंसि' का अर्थ 'रथ में' और वृत्तिकार ने 'एकान्त' में किया है।'
श्लोक ३१: ६८. अग्नि जैसी (तओवमं)
यह भूमि का विशेषण है। इसका संस्कृतरूप है 'तदुपमाम्' । वह भूमि केवल उष्ण ही नहीं है किन्तु अग्नि से भी अनन्तगुण अधिक उष्ण है।'
बौद्ध साहित्य में नरकभूमि के विवरण में लिखा है-तेषां अयोमपी भूमिव लिता तेजसा युता'। इसकी व्याख्या देते हुए आचार्य नरेन्द्रदेव ने अभिधर्म-कोश (पृ. ३७३) के फुट नोट में जे० पिजिलुस्की को उद्धृत किया है। उनके अनुसार ज्वलित लोहे की भूमि तप्त होने पर एक ज्वाला बन जाती है । ६६. वे जलने पर (ते डझमाणा)........
नरकपाल धधकते अंगारे जैसी उष्ण भूमि पर नरयिकों को जाने-आने के लिए विवश करते हैं। उन पर अतिभार लादकर उस भूमि पर चलाते हैं । उस समय जलते हुए वे नैरयिक करुण स्वर में चिल्लाते हैं।' ७०. बाण से (उसु)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं -प्रदीप्त मुख वाले बाण और चाबुक ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-चाबुक आदि किया है। १. (क) चूणि, पृष्ठ १३५: सरयंति ति गच्छंति बाहेतीत्यर्थः पापकर्माणि च स्मारयन्ति । त एव च बालास्तत्र युक्ता ये चैनां
वाहयन्ति त्रिविध करणेनापि तेयस्सरूविणो रधे सगडे वा, गुरुगं विउवितं रथं अवधता य तत्तारैरिव आरुभ विधंति आरुह्य
विधंति । तुवन्तीति तुदा तुत्रकाः, गलिबलीवर्दवत् पृष्ठे । (ख) वृत्ति, पत्र १३५ , रहसि एकाकिन युक्तम् उपपन्नं युक्तियुक्तं स्वकृतवेदनानुरूपं तत्कृतजन्मान्तरानुष्ठानं तं बालम् अज्ञं नारकं
स्मारयन्ति, तद्यथा- तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्त्वमासीस्तथा स्वमांसभक्षणावसरे पिशिताशी स्वमासीरित्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं
स्मारयन्तः कदर्थयन्ति, तथा-निष्कारणमेव आरुष्य कोपं कृत्वा प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यन्तीति । २. (क) चूर्णि, पृ० १३५ : सा तु भूमि............ .....न तु केवलमेवोष्णा। ज्वलितज्योतिषाऽपि अर्णतगुणं हि उष्णा सा, तदस्या
औपम्यं तदोपमा । (ख) वृत्ति पत्र १३५ : तदेवंरुपां तदुपमा वा भूमिम् । ३. चूणि, पृ० १३५ : ते तं इंगालतुल्ल भूमि पुगो पुणो खुदाविज्जति, आगत-ताणि कारविज्जता य अतिभारोक्कता डज्झमाणा ___ कलुणाणि रसंति। ४. चूणि, पृ० १३५ । इषुभिः तुम्नकैश्च प्रदीप्तमुखैः . ५. वृत्ति, पत्र १३५ । इषुणा प्रतोदाविरूपेण ।
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