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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'महावीर स्तुति' है। चूणिकार ने इसका नाम 'महावीर स्तव' माना है। चूर्णिकार द्वारा स्वीकृत नियुक्तिगाथा (७७) में 'थव' शब्द है और वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत नियुक्ति गाथा (८४) में 'थुइ' शब्द है।' यही नामभेद का कारण है ।
समवायांग में इसका नाम 'महावीर स्तुति' उपलब्ध है। 'स्तव' और 'स्तुति' दोनों एकार्थक हैं ।
नियुक्तिकार ने 'महावीर स्तव' में निहित महा+वीर+स्तव-इन तीनों शब्दों के चार-चार निक्षेपों-द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव-का निर्देश किया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।' उससे अनेक तथ्य प्रगट होते हैं ।
चूर्णिकार ने महत् शब्द के दो अर्थ किए हैं-प्रधान और बहुत । वृत्तिकार इसके चार अर्थ करते हैं - १. बहुत्व-जैसे महाजन । २. बृहत्व-जैसे महाघोष । ३. अत्यर्थ-जैसे महाभय । ४. प्राधान्य-जैसे महापुरुष । महत् शब्द यहां प्राधान्य अर्थ में गृहीत है । उसके निक्षेप इस प्रकार हैं१. द्रव्य महत्-इसके तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । (क) सचित्त के तीन प्रकार
० द्विपद-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव । • चतुष्पद-सिंह, हस्तिरत्न, अश्वरत्न ।
अपद (परोक्ष अपद)- कूट शाल्मली वृक्ष, कल्पवृक्ष । (प्रत्यक्ष अपद) जो यहां वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से उत्कृष्ट हैं, जैसे कमल (वर्ण से), गोशीर्षचंदन (गंध से), पनस (रस से), बालकुमुदपत्र, शिरीष कुसुम (स्पर्श से) । (ख) अचित्त-वैडूर्य आदि प्रभावान् मणियों के प्रकार । वनस्पति से निष्पन्न द्रव्य जो वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से
उत्कृष्ट हों। (ग) मिश्र-सचित्त-अचित्त दोनों के योग से बने द्रव्य या अलंकृत और विभूषित तीर्थंकर । १. चूणि, पृ० १४२ : इवाणी महावीरत्ययो त्ति अभयणं । २. वही, पृ० १४२ : थवणिक्खेवो.....। ३. वृत्ति, पत्र १४२ : थुइणिक्खेवो.....। ४. समवाओ, १६१। ५. नियुक्ति गाथा, ७६ । ६ (क) चूर्णि, पृ० १४१। (ख) वृत्ति, पत्र १४१, १४२। ७. चूणि, पृ० १४१ : महदिति प्राधान्ये बहुत्वे च ।। ८ वृत्ति, पत्र १४१ : महच्छब्दो बहुत्वे, यथा-महाजन इति; अस्ति बृहत्वे, यथा-महाघोषः; अस्स्यत्यर्थे, यथा-महामयमिति; __अस्ति प्राधान्ये, यथा-महापुरुष इति, तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत । ६. चूणि पृ० १४१ ।
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