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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : प्रामुख २. क्षेत्र महत्--सिद्धि क्षेत्र । धर्माचरण की अपेक्षा से महाविदेह क्षेत्र प्रधान होता है तथा मनुष्य के लिए स्वतन्त्र सुख
तथा वैषयिक सुखों की दृष्टि से देवकुरु आदि क्षेत्र प्रधान होते हैं। ३. काल महत्--काल की दृष्टि से 'एकांत सुषमा' आदि काल प्रधान होता है अथवा जो काल धर्माचरण के लिए उपयुक्त
होता है वह प्रधान होता है। ४. भाव महत्-पांच भावों में 'क्षायिकभाव' प्रधान होता है। तीर्थंकर के शरीर की अपेक्षा से औदयिक भाव भी प्रधान
होता है। प्रस्तुत प्रसंग में दोनों भाव गृहीत हैं। वीर का अर्थ है वीर्यवान् शक्तिशाली। इसके चार निक्षेप इस प्रकार हैं१. द्रव्यवीर-सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य के वीर्य-शक्ति को द्रव्य वीर्य कहा जाता है। (क) सचित्त के तीन प्रकार हैं
द्विपद-तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव का शारीरिक वीर्य । चूर्णिकार ने आवश्यक नियुक्ति की पांच गाथाओं (७१ से ७५) को उद्धत कर शलाकापुरुषों के बल का वर्णन किया है। प्रस्तुत गाथाओं में तीर्थंकर को अपरिमित बलशाली माना है। चूणिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-तीर्थकर अपने शारीरिक बल का प्रदर्शन नहीं करते, किन्तु उनमें इतनी शारीरिक शक्ति है कि वे लोक को उठाकर एक गेंद की भांति अलोक में फेंक सकते हैं। वे मन्दर पर्वत को छत्र का दंड बनाकर रत्नप्रभा पृथ्वी को छत्र की तरह धारण कर सकते हैं । यह असद्भावस्थापना-वास्तविकता का काल्पनिक निदर्शन है। ऐसा न होता है, न कोई करता है। पर तीर्थकर में इतनी शक्ति होती है । भगवान् महावीर पर संगमदेव ने कालचक्र फेंका। भगवान् ने अपने शारीरिक बल के आधार पर ही उसे झेला था। चक्रवर्ती
चक्रवर्ती कूप के तट पर स्थित हैं । उनको सांकल से बांधकर, बत्तीस हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के सहारे खींचते हैं, फिर भी वे उन्हें टस से मस नहीं कर सकते । प्रत्युत चक्रवर्ती अपने वामहस्त से सांकल को खींचकर सबको गिरा देते हैं। वासुदेव
वासुदेव कूप के तट पर स्थित हैं । उनको सांकल से बांधकर सोलह हजार राजा अपनी चतुरंगिणी सेना के सहारे खींचते हैं, फिर भी वे उन्हें एक रेखा मात्र भी आगे नहीं ला सकते । प्रत्युत बलदेव अपने वामहस्त से सांकल को खींचकर सबको गिरा देते हैं । चक्रवर्ती से बलदेव की शारीरिक शक्ति आधी होती है। बलदेव
वासुदेव के बल से बलदेव का बल आधा होता है। इस प्रकार बलदेव की शारीरिक शक्ति से वासुदेव की शक्ति दुगुनी और वासुदेव की शक्ति से चक्रवर्ती की शक्ति दुगुनी होती है। तीर्थंकर की शक्ति चक्रवर्ती की शक्ति से भी अधिक होती है, अपरिमित होती है।
० चतुष्पद द्रव्यवीर्य-सिंह, अष्टापद आदि का बल । • अपद द्रव्यवीर्यअप्रशस्त-विष आदि की शक्ति । प्रशस्त-संजीवनी औषधि आदि की शक्ति ।
मिश्र-द्रव्य-वीर्य-औषधि का वीर्य । १. चूणि, पृ० १४१ : वीरः वीर्यमस्यास्तीति वीर्यवान् । वीरस्स पुण णिक्खेवो चतुर्विधो। २. वही पृ० १४१ : असद्भावस्थापनातः स हि तिन्दुकमिव लोक अलोके प्रक्षिपेत्, मन्दरं वा दण्डं कृत्वा रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रकवद
धारयेत् । ३. वही, पृ० १४१ ।
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