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सूयगडो १
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अध्ययन ६:प्रामुख क्षेत्र वीर्य-जिस क्षेत्र विशेष में शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। ३. कालवीर-जिस काल विशेष में वीर्य उत्पन्न होता है। ४. भाववीर-क्षायिक वीर्य से संपन्न व्यक्ति जो उपसर्ग और परीसहों से कभी पराजित नहीं होता।' वृत्तिकार ने कषायविजयी को भी भाववीर माना है।' प्रस्तुत अध्ययन में बावन श्लोक हैं।
नियुक्तिकार ने इस अध्ययन की अंतिम नियुक्ति गाथा में अध्ययन की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की है। उसके अनुसार जम्बूस्वामी ने आर्य सुधर्मा से भगवान् महावीर के गुणों के विषय में प्रश्न किया और आर्य सुधर्मा ने इस अध्ययन के माध्यम से महावीर के गुणों का प्रतिपादन किया। साथ-साथ उन्होंने कहा-जैसे महावीर ने उपसर्गों और परीसहों पर विजय प्राप्त की वैसे ही मुनि को उपसर्गों और परीसह पर विजय प्राप्त करनी चाहिए । इसका वैकल्पिक अर्थ यह हो सकता है कि जैसे महावीर ने संयम साधना की वैसे ही मुनि को संयम की साधना करनी चाहिए।'
सूत्रकार ने प्रथम तीन श्लोकों में अध्ययन की पृष्ठभूमि का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए आर्य सुधर्मा और जम्बू स्वामी के मध्य हुए वार्तालाप को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है
आर्य सुधर्मा ने परिषद् के बीच नारकीय जीवों की वेदना का सजीव वर्णन किया और उनकी उत्पत्ति के हेतुओं का स्पष्ट दिग्दर्शन कराया। नारकीय यातनाओं को सुनकर वे सब पार्षद् उद्विग्न हो गए । 'हम नरक में न जाएं'-इसका उपाय पूछने के लिए वे सब आर्य सुधर्मा के समक्ष उपस्थित हुए । प्रश्न करने वालों में वे सब थे जिन्होंने महावीर को साक्षात् देखा था या जिन्होंने उन्हें साक्षात् नहीं देखा था । उन प्रश्नकर्ताओं में जंबू स्वामी आदि श्रमण, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी जाति के लोग तथा चरक आदि अनेक परतीथिक भी थे। उन्होंने पूछा-आर्यवर । आपने जो धर्म कहा है, वह श्रु तपूर्व है या अनुभूतिगम्य ? सुधर्मा ने कहा-श्रुतपूर्व है। महावीर ने जो कहा है उसीका मैंने प्रतिपादन किया है। तब जम्बू आदि श्रोताओं ने कहा - भगवान् महावीर अतीत में हो चुके हैं। वे हमारे साक्षात् नहीं हैं । हम उनके गुणों को जानना चाहते हैं। उन्होंने इन सब तत्त्वों को कैसे जाना ? उनका ज्ञान, दर्शन और शील कैसा था? हे आर्यवर ! आप उनके निकट रहे है । आपने उनके साथ संभाषण किया है इसलिए उनके गुणों के आप यथार्थं ज्ञाता हैं। जैसे आपने देखा है और अवधारित किया है, वैसे ही आप हमें बताएं।
इन सभी प्रश्नों के उत्तर में आर्य सुधर्मा ने भगवान महावीर के यशस्वी जीवन का दिग्दर्शन कराया, उनके अनेक गुणों का उत्कीर्तन किया । यह सभी इन आगे के श्लोकों में प्रतिपादित है।
प्रस्तुत अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । भगवान महावीर से पूर्व की परम्परा चातुर्याम की परम्परा थी। उसके प्रवर्तक थे भगवान् पार्श्व । पार्श्व ने संघ में सामायिक चारित्र का प्रतिपादन किया था। उसके चार अंग थे-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और बाह्य दान-विरमण । भगवान् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया और तीर्थ चतुष्टय की स्थापना कर तीर्थंकर हुए और पार्वापत्यीय परम्परा का बृहद् संघ भगवान् महावीर के संघ में विलीन हो गया। अनेक मुनि महावीर के शासनकाल में सम्मिलित हो गए और कुछ स्वतन्त्र विहरण करने लगे। तब महावीर ने अपने संघ में परिष्कार, परिवर्द्धन और सम्बर्धन किया। उनकी नई स्थापनाओं के कुछेक बिन्दु ये हैं---
१. चातुर्याम की परम्परा को बदलकर पांच महाव्रतों की परम्परा का प्रवर्तन किया। भगवान् महावीर ने 'बहिद्धादान
विरमण महावत का विस्तार कर ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन दो स्वतन्त्र महाव्रतों की स्थापना की। अब्रह्मचर्य की १. वही, पृ० १४१॥ २. वृत्ति, पत्र १४२ । ३. निक्ति गाथा ७८ : पुच्छिसु जंबुणामो अज्जसुधम्मो ततो कहेसी य ।
एव महप्पा वीरो जतमाहु तधा जतेज्जाध ।। ४ सूयगडो ६।१-३, चूणि, पृ० १४२,१४३ । ५. उत्तरायणाणि, २२।२३ : चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ।
बेसिओ बद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ॥
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