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________________ सूयगडो १ २८० अध्ययन ६:प्रामुख वृत्ति को प्रश्रय देने के लिए जिन कुतर्कों का प्रयोग किया जाता था, उसका इस स्थापना के द्वारा समूल उन्मूलन हो गया। २. भगवान् पार्श्व की परम्परा सचेल थी। भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल-दोनों परम्पराओं को मान्यता दी ३. रात्रि-भोजन-विरमण को व्रत का रूप देकर महाव्रतों के अनन्तर स्थान दिया। ४. अहिंसा की अंगभूत पांच प्रवचन माताओं-समितियों तथा तीन गुप्तियों की स्वतन्त्र व्यवस्था की। इस प्रकार भगवान महावीर ने पार्श्व के चातुर्याम धर्म का विस्तार कर त्रयोदशांग धर्म को प्रतिष्ठा की पांच महाव्रत, पांच समितियां और तीन गुप्तियां । इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों का बीजरूप निरूपण इसी अध्ययन के अठावीसवें श्लोक में हुआ है 'से वारिया इस्थि सराइमत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। लोगं विवित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सब्ववारी॥' भगवान् महावीर का एक विशेषण है-निर्वाणवादी। प्रस्तुत अध्ययन में ‘णिव्वाणवादी णिह णायपुत्ते' (२१) तथा 'णिव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा (२४)-ये दो स्थल भगवान् महावीर के साधना सूत्रों की आधारशिला की ओर संकेत करते हैं। प्राचीन काल की दार्शनिक परंपरा में दो मुख्य परम्परा रही हैं-निर्वाणवादी परंपरा और स्वर्गवादी परंपरा । निर्वाणवादी परंपरा का अंतिम लक्ष्य है-स्वर्ग । भगवान् महावीर ने निर्वाण के आदर्श को सर्वाधिक मूल्य दिया, इसलिए वे निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ कहलाए और उनकी परंपरा निर्वाणवादी परंपरा कहलाई । इस परंपरा में साधना के वे ही तथ्य मान्य हैं जो कि निर्वाण के पोषक, संवर्धक हैं । स्वर्गवादी परंपरा में ऐसा नहीं है । याज्ञिक परंपरा स्वर्गवादी परंपरा है। भगवान महावीर के युग में तीन सौ तिरेसठ धर्म-संप्रदाय थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। बौद्ध साहित्य में बासठ धर्म संप्रदाय का उल्लेख है। जैन आगमों में उन सबका समाहार चार वर्गों में किया गया है-क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद । प्रस्तुत अध्ययन के सताइसवें श्लोक में भगवान् महावीर को इन सब वादों से परिचित बताया है। प्रस्तुत अध्ययन में भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त कुछेक विशेषण आर्थिक, शाब्दिक और ऐतिहासिक दृष्टि से मीमांसनीय हैं (१) प्रज्ञ या प्राज्ञ (२) निरामगंध (३) अनायु (४) अनन्तचक्षु । सूत्रकार भगवान् महावीर को 'सुमेरु' पर्वत से उपमित करते हुए 'सुमेरु' का सुन्दर वर्णन प्रस्तुत करते है।' इसी प्रकार शास्त्रकार ने भगवान् महावीर की अनेक अनुत्तरताएं बतलाई हैं।' १ सूयगडो, ६९-१३। २. वही, ६१८-२४ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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