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बोनं अज्झयणं : दूसरा अध्ययन
वेयालिए : वैतालीय पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
१. संबुज्झह किण्ण बुज्झहा संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हवणमंति राइओ णो सुलभं पुणरावि जोवियं ।।
संस्कृत छाया संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं, संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो खलु उपनमन्ति रात्रयः, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥
२. डहरा बुड्डा य पासहा गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वयं हरे एवं आउखयंमि तुट्टई ।२।
दहरा वृद्धाश्च पश्यत, गर्भस्था अपि च्यवन्ते मानवाः । श्येनो यथा वर्तकं हरेत्, एवं आयुःक्षये त्रुट्यति ।
हिन्दी अनुवाद १. (भगवान् ऋषभ ने अपने पुत्रों से
कहा-) 'संबोधि को प्राप्त करो। बोधि को क्यों नहीं प्राप्त होते हो? जो वर्तमान में संबोधि को प्राप्त नहीं होता, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती। बीती हुई रातें लौट कर नहीं आतीं। जीवन-सूत्र के टूट जाने
पर उसे पुनः सांधना सुलभ नहीं है।' २. 'तुम देखो-बालक, बूढ़े और गर्भस्थ
मनुष्य भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार बाज बटेर का हरण करता है, उसी प्रकार आयु के क्षीण होने पर मृत्यु जीवन का हरण करती है, जीवन-सूत्र टूट जाता है। ३. 'मनुष्य कदाचित् माता-पिता से पहले
ही मर जाता है। अगले जन्म में सुगति' (सुकुल में जन्म) सुलभ नहीं है। इन भय-स्थानों को देखकर सुव्रत (श्रेष्ठ संकल्प वाला) मनुष्य हिंसा
(और परिग्रह) से विरत हो जाए। ४. इस जगत् में प्राणी अपने-अपने कर्मों
के द्वारा लुप्त होते हैं-' सुख-स्थानों से च्युत होते हैं। वे स्वयं की क्रियाओं के द्वारा कर्म का उपचय करते हैं। वे उसके विपाक से अस्पृष्ट होकर उससे मुक्त नहीं हो सकते।'
३. मायाहि पियाहि लुप्पई
णो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाइ भयाइ देहिया आरंभा विरमेज्ज सुव्वए।३।
मातृभिः पितृभिः लुप्यते, नो सुलभा सुगतिश्च प्रत्य । एतानि भयानि दृष्ट्वा , आरम्भात् विरमेत् सुव्रतः ।।
४ जमिणं जगई पुढो जगा कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो। सयमेव कडेहि गाहई जो तस्स मुच्चे अपुट्ठवं ।४।
यदिदं जगति पृथग् जन्तवः, कर्मभिः लुप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतैः गाहते, नो तस्य मुच्यते अस्पृष्टवत् ।।
५. देवा गंधव्वरक्खसा असुरा भूमिचरा सिरीसिवा । राया णरसेट्टिमाहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ।५।
देवा __ गन्धर्वराक्षसाः, असुराः भूमिचरा: सरीसृपाः । राजानः नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः, स्थानात् तेऽपि च्यवन्ते दुःखिताः ।।
५. देव', गन्धर्व, राक्षस, असुर, पातालवासी नागकुमार, राजा, जनसाधारण, श्रेष्ठी और ब्राह्मण-ये सभी दुःखपूर्वक अपने-अपने स्थान से च्युत हो जाते
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