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प्र०२: वैतालीय: श्लोक ६-१०
सूयगडो १ ६. कामेहि य संथवेहि य कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुए एवं आउखयम्मि तुट्टई।६।
कामैश्च
संस्तवैश्च, कर्मसहाः कालेन जन्तवः । तालो यथा बन्धनच्युतः, एवं आयुःक्षये त्रुट्यति ॥
६. मृत्यु के आने पर मनुष्य कामनाओं
और भोग्य-वस्तुओं से संबंध तोड़कर अपने अजित कर्मों के साथ (अज्ञात लोक में) चले जाते हैं। जैसे (स्वभावतः या किसी निमित्त से) ताड का फल वृन्त से टूटता है वैसे ही (स्वभावतः या किसी निमित्त से) आयु के क्षीण होने पर मनुष्य का जीवनसूत्र टूट जाता है।
७. जे यावि बहुस्सुए सिया धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया । अभिणूमकडेहिं मुच्छिए तिव्वं से कम्मेहि किच्चती।७।
यश्चापि बहुश्रु तः स्यात्, धार्मिकः ब्राह्मणः भिक्षुकः स्यात् । अभिणमकृतैः मूच्छितः, तीव्र स कर्मभिः कृत्यते ।।
७. जो कोई बहुश्रुत" (शास्त्र-पारगामी) ___ या धार्मिक" (न्यायवेत्ता) अथवा
ब्राह्मण या भिक्षु भी यदि मायाकृत असत् आचरण में२ मूच्छित होता है" तो वह कर्मों के द्वारा तीव्र रूप में छिन्न होता है।
८.अह पास विवेगमुट्ठिए अवितिण्णे इह भासई धुतं । णाहिसि आरं को परं? वेहासे कम्महिं किच्चई ।।
अथ पश्य विवेकं उत्थितः, अवितीर्णः इह भाषते धुतम् । ज्ञास्यसि आरं कुतः परं, विहायसि कर्मभिः कृत्यते ।
८. हे शिष्य ! तू देख, कोई भिक्षु (परिग्रह और स्वजन-वर्ग का परित्याग कर) संयम के लिए उत्थित हुआ है, किन्तु (वित्त षणा और सुतैषणा के सागर को) तर नहीं पाया है, वह धुत की कथा" करता है। तू उसका अनुसरण कर गृहस्थी को ही जानेगा, प्रव्रज्या को नहीं जान पाएगा। जो गृहस्थी और प्रव्रज्या के अन्तराल में रहता है वह कर्मों (या कामनाओं) से छिन्न होता है।"
६. जइ वि य णिगिणे किसे चरे जइ वि य भुंजिय मासमंतसो। जे इह मायादि मिज्जई आगंता गम्भादणंतसो ।।
यद्यपि च नग्नः कृशश्चरेत, ६. यद्यपि कोई भिक्षु नग्न रहता है, देह यद्यपि च भुञ्जीत मासमन्तशः ।। को कृश करता है और मास-मास के य इह मायादिना मीयते, अन्त में एक बार खाता है, फिर भी आगन्ता गर्भादनन्तशः ।। माया आदि से परिपूर्ण होने के कारण
वह अनन्त बार जन्म-मरण करता है ।
१०.पुरिसोरम पावकम्मुणा
पलियंतं मणुयाण जीवियं । सण्णा इह काममुच्छिया मोहं जंति जरा असंवुडा ॥१०॥
पुरुष! उपरम पापकर्मणा, पर्यन्तं मनुजानां जीवितम् । सन्ना इह काममूच्छिताः, मोहं यान्ति नराः असंवृताः ।।
१०. हे पुरुष ! (जिससे तू उपलक्षित हुआ
है) उस पाप-कर्म से उपरमण कर, (क्योंकि) मनुष्य-जीवन का अन्त अवश्यंभावी है । जो स्त्री आदि में निमग्न होकर इन्द्रिय-विषयों में मूच्छित हैं वे असंवृत पुरुष मोह को प्राप्त होते
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